Book Title: Prashamrati Author(s): Umaswati, Umaswami, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 9
________________ प्रशमरति अनेक बार बोलना चाहिए ॥१३॥ यद्वद्विषघातार्थं मन्त्रपदे न पुनरूक्तदोषोऽस्ति । तद्वद्रागविषघ्नं पुनरूक्तमदुष्टमर्थपदम् ॥१४॥ अर्थ : जिस तरह सर्प एवं बिच्छु आदि के जहर को उतारने के लिए मन्त्रवेत्ता पुरुष ऊँकार आदि मन्त्र पदों का उच्चारण बार-बार करते हैं, इसमें पुनरुक्ति (बार-बार एक ही शब्द बोलना) दोष नहीं है, उसी प्रकार रागद्वेष को नष्ट करने वाले अर्थयुक्त वाक्यों को बार-बार रटना भी दोषरहित है (अर्थात् वहाँ 'पुनरुक्ति' दोष नहीं हैं) ॥१४॥ वृत्त्यर्थं कर्म यथा तदेव लोकः पुनः पुनः कुरुते । एवं विरागवार्ताहेतुरपि पुनः पुनश्चिन्त्यः ॥१५॥ अर्थ : जिस तरह अपने या कुटुम्ब के पालन-पोषण हेतु समुचित धन-धान्य से युक्त मनुष्य भी प्रति वर्ष खेती वगैरह कार्य करता रहता है; ठीक उसी तरह, वैराग्यवार्ता के हेतुभूत अध्ययन-मनन पुनः पुनः करना उचित है ॥१५॥ दृढतामुपैति वैराग्यभावना येन येन भावेन । तस्मिंस्तस्मिन् कार्यः कायमनोवाग्भिरभ्यासः ॥१६॥ अर्थ : अन्तःकरण के जिन-जिन विशिष्ट परिणामों के माध्यम से [जन्म-जरा-मृत्यु-शरीर इत्यादि की आलोचना वगैरह से] वैराग्य भावना बनती ही होती हो, उस कार्य मेंPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 98