Book Title: Prashamrati
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 82
________________ प्रशमरति ही सारे कर्मों का अवश्य नाश हो जाता है ! ॥२६७॥ छद्मस्थवीतरागः कालं सोऽन्तर्मुहूर्तमथ भूत्वा । युगपद् विविधावरणान्तरायकर्मक्षयमवाप्य ॥२६८॥ अर्थ : अन्तर्मुहूर्त (दो घडी-४८ मिनिट) तक वह छद्मस्थ वीतराग रहकर, एक साथ विविध आवरण का क्षय करके...॥२६८॥ शाश्वतमनन्तमनतिशयमनुपममनुत्तरं निरवशेषम् । सम्पूर्णमप्रतिहतं सम्प्राप्तः केवलज्ञानम् ॥२६९॥ अर्थ : शाश्वत्, अनन्त, निरतिशय, अनुपम, अनुत्तर, निरवेशष, संपूर्ण और अप्रतिहत केवलज्ञान को प्राप्त करता है ॥२६९।। कृत्स्ने लोकालोके व्यतीतसाम्प्रतभविष्यतः कालान् । द्रव्यगुणपर्यायाणां ज्ञाता दृष्टा च सर्वार्थः ॥२७०॥ अर्थ : लोक-अलोक में संपूर्ण वस्तुओं को जानने की वजह से भूत-वर्तमान और भविष्यकाल के द्रव्य-गुण और पर्यायों को सभी प्रकार से देखता है, जानता है ॥२७०॥ क्षीणचतुष्कर्मांशो वेद्यायुर्नामगोत्रवेदयिता। विहरति मुहूर्त्तकालं देशोनां पूर्वकोटिं वा ॥२७१॥ अर्थ : [घाती] कर्मों को जिसने क्षय कर दिया है वैसे और वेदनीय, आयुष्य, नाम-गोत्र कर्म का अनुभव करने

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