Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 05
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 436
________________ 'वह जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्थाओं के प्रति भी इच्छारहितता का सातत्य बना हुआ है........ पतंजलि इसको परावैराग्य परम त्याग कहते हैं। तुमने संसार का त्याग कर दिया है, तुमने लोभ का त्यपा कर दिया है, तुमने धन का त्याग कर दिया है, तुमने शक्ति का त्याग कर दिया है, तुमने अपने मन का भी त्याग कर दिया है, लेकिन अंतिम त्याग स्वयं मोक्ष का है, स्वयं कैवल्य का है, स्वयं निर्वाण का है। अब 'यम मुक्ति के खयाल तक को छोड़ देते हो, क्योंकि वह भी एक इच्छा है। और इच्छा, चाहे उसकी विषय-वस्तु कुछ भी हो, एक जैसी होती है। तुम धन की इच्छा करते हो, मैं मोक्ष की इच्छा करता हूं। निःसंदेह मेरा उद्देश्य तुम्हारे उद्देश्य से श्रेष्ठ है, लेकिन फिर भी मेरी इच्छा वैसी ही है जैसी कि तुम्हारी इच्छा है इच्छा कहती है, जैसा मैं हूं वैसा ही मैं परितृप्त नहीं हूं। और धन की आवश्यकता है; फिर मैं परितृप्त हो जाऊंगा। इच्छा का गुण वही है, इच्छा की समस्या वही है। समस्या यह है कि भविष्य की आवश्यकता होती है: जैसा मैं हूं यह पर्याप्त नहीं है; किसी और की आवश्यकता है। जो कुछ भी हो चुका है मुझे पर्याप्त नहीं है। अभी मुझे कुछ और भी घटित होना चाहिए, केवल तभी मैं प्रसन्न हो सकता हूं। इच्छा की प्रकृति यही है तुमको और धन की आवश्यकता है, किसी को बड़े मकान की आवश्यकता है, कोई और अधिक शक्ति, राजसता के बारे में सोचता है, कोई उत्तम पत्नी या उत्तम पति के बारे में सोचता है, कोई अधिक शिक्षा, अधिक ज्ञान - के बारे में सोचता है, कोई और अधिक चमत्कारी शक्तियों के बारे में सोचता है, किंतु इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। इच्छा तो इच्छा है, और आवश्यकता इच्छारहितता की है। अब विरोधाभास को देखो, यदि तुम पूरी तरह से इच्छा-शून्य हो और परम इच्छारहितता में हो, इसमें मोक्ष की इच्छा सम्मिलित है-तब एक क्षण आता है जब तुम मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते, तुम परमात्मा की भी इच्छा नहीं करते। तुम बस इच्छा ही नहीं करते, तुम हो और कोई इच्छा नहीं है। यह इच्छारहितता की अवस्था है मोक्ष इस अवस्था में घटित होता है। मोक्ष की, जैसी कि इसकी प्रकृति है, इच्छा नहीं की जा सकती, क्योंकि यह केवल इच्छा - शून्यता में आता है। मोक्ष को चा नहीं जा सकता। यह कोई लक्ष्य नहीं बन सकता, क्योंकि यह केवल तभी घटित होता है जब सारे लक्ष्य खो चुके होते हैं। तुम परमात्मा को अपनी इच्छा का विषय नहीं बना सकते हो, क्योंकि इच्छा करता हुआ मन परमात्मा विहीन रहता है इच्छा करता हुआ मन अपवित्र रहता है, इच्छा करता हुआ मन सांसारिक बना रहता है। जब कोई भी इच्छा नहीं होती, परमात्मा तक की इच्छा नहीं होती, अचानक तुम पाते हो कि वह सदा से वहां है तुम्हारी आंखें खुलती हैं और तुम उसको पहचान लेते हो। - इच्छाएं अवरोधों की भांति कार्य करती हैं और अंतिम इच्छा, सर्वाधिक सूक्ष्म इच्छा है मुक्त हो जाने की इच्छा, इच्छारहित हो जाने की इच्छा अंतिम सूक्ष्म इच्छा होती है। 'वह जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्थाओं के प्रति भी इच्छारहितता का सातत्य बना हुआ है, और जो विवेक के चरम का प्रवर्तन करने में समर्थ है..........

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