Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 05
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 446
________________ 'कैवल्य समाधि की अवस्था है, जो पुरुषार्थ से शून्य हुए गुणों के अपने कारण में लीन- होने पर उपलब्ध होती है। 'इस अवस्था में पुरुष अपने यथार्थ स्वरूप में, जो शुद्ध चेतना है, प्रतिष्ठित हो जाता है। समाप्त।' कैवल्य समाधि की अवस्था है, जो तीनों गुणों के अपने कारण में लीन होने पर उपलब्ध होती र का क्रम रुक जाता है, जब तुम समय के दो क्षणों के, पदार्थ के दो परमाणुओं के मध्य के आकाश को देख पाने में समर्थ हो जाते हो, और तम आकाश में जा सकते हो और तुम देख सकते हो कि प्रत्येक वस्तु उसी आकाश से निकल कर आई है और आकाश में वापस लौट कर जा रही है; जब तुम इतने सजग हो गए हो कि अचानक भ्रामक संसार एक स्वप्न की भांति तिरोहित हो जाता है, तब कैवल्य। जब तुम एक शुद्ध चैतन्य–बिना किसी पहचान के, बिना किसी नाम के, रूप के छोड़ दिए जाते हो। तब शुद्ध का शुद्धतम हो तुम। तब तुम सर्वाधिक आधारभूत, परम अनिवार्य, परम अस्तित्व हो, और तुम इस शुद्धता, एकांत में स्थापित हो जाते हो। पतंजलि कहते हैं : 'कैवल्य समाधि की अवस्था है, जो पुरुषार्थ से शून्य हुए गुणों के अपने कारण में लीन होने पर उपलब्ध होती है। इस अवस्था में पुरुष यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।' तुम घर वापस आ गए हो। यात्रा लंबी, थका देने वाली, जटिल रही थी, लेकिन तुम घर वापस आ गए हो। मछली सागर में, जो शुद्ध चेतना है, कूद गई है। पतंजलि इसके बारे में और कुछ नहीं कहते, क्योंकि और अधिक कहा भी नहीं जा सकता। और जब वे कहते हैं, 'इति, समाप्त।' उनका केवल यही अभिप्राय नहीं है कि यहां पर योग-सूत्रों का 'अंत हो गया है। वे कहते हैं, 'अभिव्यक्ति की सारी संभावना यहां पर समाप्त हो जाती है। परम सत्य के बारे में कुछ भी कहने की संभावना यहां पर समाप्त हो जाती है। इससे परे केवल अनुभव है। अभिव्यक्ति यहां पर समाप्त हो जाती है। और इसके पार जा पाने में कोई भी सफल नहीं हो पाया है-कोई भी नहीं। मानवीय चेतना के सारे इतिहास में इसका एक भी अपवाद नहीं है। लोगों ने प्रयास किए हैं। बहत थोड़े लोग ही वहां तक पहंच पाए हैं जहां पतंजलि पहुंच गए हैं, लेकिन पतंजलि से परेकोई नहीं पहुंच सका है। इसीलिए मैं कहता हूं कि वे आदि और अंत है। वे बहुत प्राथमिक से आरंभ करते हैं; किसी को भी उनसे बेहतर आरंभ नहीं मिल पाया है। वे बहुत प्राथमिक से आरंभ करते हैं और वे परम अंत पर पहंच जाते हैं। जब वे कहते हैं, 'समाप्त।' वे बस यही कह रहे हैं कि अभिव्यक्ति समाप्त हो गई है, परिभाषा समाप्त हो गई; वर्णन समाप्त हो गया है। यदि तुम अभी तक वास्तव में उनके साथ चलते आए हो तो इसके बाद केवल अनुभव है। अब अस्तित्वगत का आरंभ होता है। व्यक्ति यह हो सकता है किंतु इसे कह नहीं सकता है। व्यक्ति इसमें जी सकता है, लेकिन व्यक्ति इसको परिभाषित नहीं कर सकता। शब्दों से सहायता न मिलेगी। इस बिंदु के पार सारी भाषा नपुंसक है। बस इतना ही कह

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