Book Title: Parmatma Banne ki Kala Author(s): Priyranjanashreeji Publisher: Parshwamani Tirth View full book textPage 7
________________ आशीर्वचन साध्वी प्रियरंजना श्री जी सादर सुखशाता भोर का पहला क्षण बडा ही अद्भुत होता है। उस क्षण का उपदेश अनूठा होता है। उस क्षण का विमर्श समझ में आ जाये तो जीवन में रोशनी हुए बिना नहीं रहती। वह क्षण एक ही बात कहता है- अपने जीवन का उद्देश्य समझो! उसे पहिचानो! और उसके लिये पुरूषार्थ करो! यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस प्रश्न की गहराई में ही समाधान का अमृत छिपा है। यह प्रश्न भोर में ही अपने आप से किया जा सकता है। नीरव और एकान्त वातावरण में जब कोई मेरे पास नहीं होता, तब मैं अपने पास होता हूँ। और तभी मैं अपने आप से बेरोकटोक बात कर सकता हूँ। जब मैं यह प्रश्न अपने आप से करता हूँ तो समाधान मिलता है-जीवन का उद्देश्य शान्ति पाना है। फिर प्रश्न की हारमाला प्रारंभ हो जाती है, जिसका निष्कर्ष प्रकट होता है- मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। जन्म-मरण का भटकाव ही अशान्ति का कारण है। इस भटकाव का कारण कर्म है तो सिद्ध हुआ कि कर्म क्षय करना ही मेरा उद्देश्य है। कर्म के दो भेद आसानी से समझ में आ सकते हैं - एक पुण्य कर्म, दूसरा पाप कर्म! . - अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये सबसे पहले हमें पाप कर्म का क्षय करना होगा। इस पाप कर्म का क्षय कैसे करें, यही इस पुस्तक का कथ्य है। साध्वी प्रियरंजनाश्रीजी ने आचार्य हरिभदसूरि रंचित पंचसूत्र ग्रन्थ के प्रथम पाप प्रतिघात गुण बीजाधान सूत्र पर सुन्दर विवेचन किया है। धर्म का प्रारंभ पाप क्षय से है। पाप क्षय होगा, तभी सम्यक्त्व रूप गुणों का बीजारोपण होगा। फिर कमशः परमात्म तत्व की ओर कदम बढते जायेंगे। - इस पुस्तक में साध्वी प्रियरंजनाश्रीजी ने बहुत ही सरलता के साथ इस तथ्य को प्रस्तुत किया है। मेरी कामना है कि वे इसी प्रकार क्रमशः पांचों सूत्रों का विवेचन पूर्ण कर साहित्य-सर्जन का पुरूषार्थ करते रहें। उनकी अध्यात्म-प्रगति के लिये मेरी शुभकामनाएं हैं। -उपाध्याय मणिप्रभसागर 05 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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