Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ परमार्थवचनिका में यहाँ संसारी जीव द्रव्य की अवस्थाओं का विचार किया जा रहा है। अब, जीव द्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ - उनमें तीन अवस्थाएँ मुख्य स्थापित की। एक अशुद्ध अवस्था, एक शुद्धाशुद्धरूर मिश्र अवस्था, एक शुद्ध अवस्था - ये तीन अवस्थाएँ संसारी, जीवद्रव्य की; संसारातीत सिद्ध अनवस्थितरूप कहे जाते हैं। यहाँ मिथ्यादृष्टि से चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक सभी संसारी जीवों की अवस्था के मुख्यतः तीन प्रकार कहे हैं, उसमें अनन्त अवस्थाएँ समाविष्ट हो जाती हैं। यहाँ संसार-अवस्था से सहित संसारी जीवों की ही चर्चा हैं। संसारातीत सिद्धभगवन्तों को यहाँ नहीं लिया गया है; क्योंकि वे तो संसार-अवस्था से पार हो गये हैं, अतः उन्हें अनवस्थित' कहा गया है। सिद्धभगवान को अशुद्धता तथा कर्म का संयोग नहीं है, अतः उन्हें उसप्रकार का व्यवहार भी नहीं है। इसी परमार्थवचनिका में सिद्धभगवानों की व्यवहारातीत' भी कहा है। अब तीनों अवस्थाओं का विचार - एक अशुद्धनिश्चयात्मक द्रव्य, एक शुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य, एक मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य। अशुद्धनिश्चयद्रव्य को सहकारी अशुद्धव्यवहार, मिश्रद्रव्य को सहकारी मिश्रव्यवहार, शुद्धद्रव्य को सहकारी शुद्धव्यवहार। यद्यपि स्वभावदृष्टि से देखने पर द्रव्य अशुद्ध नहीं है; तथापि अशुद्धपर्याय से परिणमित आत्मा को अशुद्धपर्याय के साथ अभेद मानकर

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