Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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परमार्थवचनिका प्रवचन पीने, बोलने-चालने में मन न लगता हो तो लोग अनुमान लगा लेते हैं कि इसका मन कहीं अन्यत्र लग गया है; उसीप्रकार चैतन्य में जिसका मन लग जाये, सच्चा प्रेम जग जाये, उसका मन जगत के सभी पदार्थों से उदास हो जाता है और बार-बार निजस्वरूप की तरफ ही उपयोग झुकता है। इसप्रकार स्वरूप के ध्यानरूप भक्ति सम्यग्दृष्टि के होती है तथा ऐसे स्वरूप को साधनेवाला जीव पंचपरमेष्ठी आदि के गुणों को भी भक्तिपूर्वक ध्याता है।
(७) लघुता - पंचपरमेष्ठी आदि महापुरुषों के समक्ष धर्मी जीव को अपनी अत्यन्त लघुता भासती है। अहा! कहाँ इनकी महान दशा और कहाँ मेरी अल्पता! अथवा सम्यग्दर्शनादि और अवधिज्ञानादि हुए, किन्तु चैतन्य के केवलज्ञानादि अपार गुणों के समक्ष तो अभी बहुत अल्पता है इसतरह धर्मी को अपनी पर्याय में लघुता भासित होती है। पूर्णता का भान है, इसलिए अल्पता व लघुता भासती है; जिसको पूर्णता का भान नहीं है, उसको तो थोड़े में ही बहुत मालूम होने लगता है।
(८) समता - समस्त जीवों को शुद्धभाव की अपेक्षा समान देखना, उसका नाम समता है; परिणाम को चैतन्य में एकाग्र करने पर समभाव प्रगट होता है। जिसप्रकार महापुरुषों के समीप में क्रोधादि विषमभाव नहीं होते, उसीप्रकार चैतन्य के साधक जीव को क्रोधादि उपशान्त होकर अपूर्व समता प्रकट होती है।
(९) एकता - एकमात्र आत्मा को ही अपना मानना, शरीरादि को पर जानना, रागादि भावों को भी स्वरूप से भिन्न जानना और अन्तर्मुख होकर स्वरूप के साथ एकत्व करना - ऐसी एकता अभेदभक्ति है, वही मुक्ति का कारण है और वह सम्यग्दृष्टि को ही होती है।
वाह! देखो यह सम्यग्दृष्टि की नवधाभक्ति! वह शुद्ध आत्मस्वरूप के श्रवण, कीर्तन, चिन्तवन, सेवन, वन्दन, ध्यान, लघुता, समता, एकता - ऐसी नवधाभक्ति से मोक्षमार्ग साधता है।