Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(नकार) उन्दिदिषति । वह गीला करना चाहता है। (दकार) अड्डिडिषति । वह अभियोग-संयुक्त करना चाहता है। रिफ:) अर्चिचिषति। वह पूजा करना चाहता है।
सिद्धि-(१) उन्दिदिषति । यहां उन्दी क्लेदने (रु०प०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय और 'इट्' आगम करने पर अजादि उन्दिष' धातु के द्वितीय एकाच् अवयव दिष्' को द्वित्व प्राप्त होता है किन्तु यहां संयोग के आदि में विद्यमान नकार के द्वित्व का इस सूत्र से प्रतिषेध होने से उन्दिष' प्रातु के द्वितीय एकाच अवयव दिष्' को द्वित्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(२) अड्डिडिषति । यहां 'अड्ड' (अद्ड) अभियोगे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'सन्' प्रत्यय और 'इट' आगम करने पर अजादि 'अड्डिष' धातु के द्वितीय एकाच अवयव डिष्' को द्वित्व प्राप्त होता है किन्तु यहां संयोग के आदि में विद्यमान दकार के द्वित्व का इस सूत्र से प्रतिषेध होने से 'अड्डिष' धातु के एकाच अवयव डिष' को द्वित्व होता है। 'अड्ड' धातु में प्रथम दकार है उसे 'ष्टुना ष्टुना' (८।४।४१) से डकार होकर 'अड्ड’ रूप ही दिखाई देता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) अर्चिचिषति । यहां 'अर्च पूजायाम्' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय और 'इट' आगम करने पर अजादि अर्चिष' धातु के द्वितीय एकाच अवयव चिष्' को द्वित्व प्राप्त होता है किन्तु यहां संयोग के आदि में विद्यमान रेफ के द्वित्व का इस सूत्र से प्रतिषेध होने से 'अर्चिष' धातु के एकाच अवयव चिष्’ को द्वितीय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। अभ्यास-संज्ञा
(४) पूर्वोऽभ्यासः ।४। प०वि०-पूर्व: ११ अभ्यास: ११ । अनु०-द्वे इत्यनुवर्तते, तच्चार्थवशादिह षष्ठ्यन्तं जायते। अन्वय:-ये द्वे विहिते तयोः पूर्वोऽभ्यासः ।
अर्थ:-अस्मिन् प्रकरणे ये द्वे विहिते तयोर्य: पूर्वोऽवयव: सोऽभ्याससंज्ञको भवति।
उदा०-पपाच । पिपक्षति । पापच्यते । जुहोति । अपीपचत् ।
आर्यभाषा: अर्थ-इस द्विवचन प्रकरण में जो (व) द्वित्व विधान किया गया है उन दोनों में जो (पूर्व:) पूर्व अवयव है उसकी (अभ्यास:) अभ्यास संज्ञा होती है।