________________ (96) सांख्य-योग दर्शन के जीवन्मुक्त एवं अर्हत् सांख्य दर्शन यद्यपि वेद निष्ठ ही है, किन्तु ईश्वरीय सत्ता के प्रति उदासीन है। सांख्यदर्शन ईश्वरीय सत्ता को आवश्यक नहीं समझता। प्रकृति एवं पुरुष इस द्वैतवाद पर अवलम्बित यह दर्शन, जड़-चैतन्य (प्रकृति-पुरुष), पुनर्जन्म, मुक्ति, तत्त्वज्ञान के सिद्धान्त को मान्य करके भी ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता अंगीकार नहीं करता। तब प्रश्न उभरता है कि जब सांख्य-ईश्वर को मान्य नहीं करते तो धर्म संस्थापक के रूप में सर्वोच्च पर किसको प्रतिष्ठित करते हैं। सांख्य के मतानुसार सर्व दुःखों की निवृत्ति हो जाने पर ही पुरुष परमपुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करता है। यह दुःख निवृत्ति तत्त्वज्ञान पर आधारित है। जब तक मनुष्य को तत्त्वज्ञान नहीं होगा, वह प्रकृति (जड़) के प्रति आसक्त रहेगा। प्रकृति के साथ संयोग होने पर पुरुष अविद्या के कारण बन्धन करता है। और जब पुरुष को तत्त्वज्ञान होता है तो अज्ञान दूर हो जाता है। जब तत्त्वज्ञान के द्वारा उसमें यह ज्ञान हो जाता है कि "मैं पुरुष परिणामी नहीं हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ।" अकर्तृत्व के कारण मुझ में वास्तविक स्वामित्व नहीं है। इस प्रकार विवेकज्ञान जागृत हो जाता है। ___ सांख्य मतानुसार तत्त्वज्ञान होने पर धर्म-अधर्म, अज्ञान, वैराग्य, अवैराग्य, ऐश्वर्य और अनैश्वर्य इन सातों ही भावों की निवृत्ति हो जाती है। क्योंकि ये सातों ही भाव अतत्त्वज्ञान का कारण है। तत्त्वज्ञान के उदय होने पर कर्तृत्व भोक्तृत्व का अभिमान गल जाता है। यह अभिमान ही रागद्वेष का जनक है। यही पुनर्जन्म का कारण है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान से भेदज्ञान-विवेक ख्याति उत्पन्न होने पर विवेकसम्पन्न पुरुष के संयोग से प्रकृति भी सृष्टि कार्य में प्रवृत्त नहीं होती। सांख्य मत में यह मान्य किया गया है कि तत्त्वज्ञान उत्पन्न होने के बाद भी विवेक सम्पन्न व्यक्ति के शरीर का पात नहीं होता। तत्त्वज्ञान के कारण धर्मअधर्म अपने फल को उत्पन्न करने में असमर्थ बन जाते हैं। उससे तत्त्वज्ञानी को 1. सांख्यसूत्र 1.1 सांख्यप्रवचन भाष्य 1.1 2. वही 3.84, 3.75 3. वही.३.६२ 4. सांख्य कारिका 44, सां: त. कौमुदी, 46-47, सा. प्र. भा. 1.19 5. सांत. कौ 64 6. सांख्यदर्शन-नगी जी. शाह पृ. 196, 190 7. सां. त. कौ. 64 8. सां का.६७