Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 361
________________ (358) मन यह आत्मा का कारण है। इससे प्रत्येक क्रिया में आत्मा का दासत्व अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक क्रिया मन-वचन और काया के योग से निष्पन्न होती - मनको आत्मा में जोड़ना यह भक्तियोग है और आत्मा का मन से जुड़ना यह ज्ञानयोग है। एक में वचनानुष्ठान है तो दूसरे में असंगानुष्ठान है। यहाँ परस्पर कार्यकारण भाव का संबंध है। इस प्रकार कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग के लक्षण रूप ये पंचपरमेष्ठी पद है। संसारनाशक : पंच परमेष्ठी चतुर्गति स्थित चौरासी लाख जीव योनियों में जीवों के दुःखों का नाशक पंच परमेष्ठी पद हैं। दुःख रूपी संसार का नाश इन पदों में स्थित होने के पश्चात् होता है। क्योंकि सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल करुणा है। करुणा का उद्भव पर दुःखछेदन की वृत्ति में से होता है। अन्यों को दुःखी करने की वृत्ति में से जीव जब तक नहीं छूटेगा, तब तक उसके स्वयं का दुःख दूर नहीं होगा। जब तक दुःख दूर नहीं होगा तब तक संसार का नाश भी नहीं होगा। सर्व जीवों के दुःख दूर करने का विचार ही पाप कर्मों का नाश करता है। सबके पाप कर्मों का नाश हो इस विचार मात्र से सहजमल का नाश होता है। यह सहजमल ही पाप का मूल है। दुःखरूप, दुःखफलक और दुःख परम्परक इन तीनों अवस्था में दुःखस्वरूप संसार का नाश करने की शक्ति इन परमेष्ठी पदों में है। __सर्व जीवों के प्रति समान प्रेम होने के कारण ही परमेष्ठी परमपद में स्थित होते हैं। व्यष्टिभाव का त्याग समष्टिभाव से होता है और यह समष्टिभाव ही जीव को परमेष्ठी पद में स्थापित कर देता है। इस प्रकार परमेष्ठी पद की आराधना संसार का नाश करके परमेष्ठी पद में स्थापित कर देता है। तत्त्वरूचि, तत्त्वबोध, तत्त्वपरिणतिरूप: पंच परमेष्ठी 'अर्हत्' पद से जीवतत्त्व का ज्ञान कराने वाले सर्वज्ञत्व का स्मरण होता है, जिससे वह तत्त्वबोध उत्पन्न करने में पिता का कार्य करता है। __'नमो' रूपी माता और 'अरहं' रूपी पिता के संबंध से 'ताणं' पद द्वारा संयमरूपी पुत्र का जन्म होता है।

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