________________ (147) नैयायिकों के मुक्ति स्वरूप की आलोचना करते हुए कहा है कि तथा प्रकार की यह मुक्ति जड़-पत्थर की भांति संवेदना रहित है तथा इसी प्रकार पुनः प्रतिवाद किया है यह स्वरूप तो सुख-दुःख रहित होने से मूर्छावस्था के सदृश होने से, यह पुरुषार्थ स्वरूप नहीं है। इन प्रतिवादों का उत्तर न्याय वैशेषिककार देते हैं कि पत्थर से दुःखोत्पत्ति संभवित नहीं, अतः मुक्तात्मा के साथ यह तुलना अयोग्य है। साथ ही मूर्छावस्था के सदृश कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि मूर्छावस्था में पुनः दुःखोत्पत्ति की संभावना है, जबकि मुक्ति आत्यन्तिक दुःख मुक्ति होने से परमपुरुषार्थ है। इसी प्रकार नैयायिक मुक्ति में नित्य सुख एवं उसमें नित्य ज्ञान को स्वीकारते नहीं है। मुक्ति के उपाय नैयायिक एवं वैशेषिक तत्त्वज्ञान से मुक्ति स्वीकारते हैं। न्यायसूत्रकार तत्त्वज्ञान का अर्थ आत्मा आदिका ज्ञान मानते हैं। वस्तुत:आत्मज्ञान या आत्म साक्षात्कार ही तत्त्वज्ञान है। आत्मा को आत्मरूप में न जानना और अनात्म शरीर, इन्द्रिय, रूप आदि, विषय मन आदि को अनात्म रूप में जानना परन्तु इससे विपरीत अनात्म शरीर आदि को आत्मा गिनना, यह मिथ्याज्ञान है। यह मिथ्याज्ञान ही संसार का बीज है। फलतः जन्ममरण के कारण दुःख से छुटकारा नहीं होता। मिथ्याज्ञान से विपरीत आत्मा में आत्मबुद्धि तथा अनात्म तत्त्वों में अनात्मबुद्धि का होना ही तत्त्वज्ञान है।६ मिथ्याज्ञान दूर होने पर राग-द्वेष, रागद्वेष के दूर होने पर तयुक्त प्रवृत्ति एवं पुनर्भव दूर हो जाता है। इस प्रकार रागद्वेष मुक्त वह जीवन्मुक्त हो जाता है। इस अवस्था को अपरामुक्ति कहा जाता है। ____ परन्तु जब सर्व पूर्वकृत कर्म वह भोग लेता है, शरीर भी छूट जाता है तब उसके अन्य शेष कर्म न रहने से उसका जन्म के साथ सम्पर्क छूट जाता है। देह संयोग नाश होने से सर्व दुःखों का आत्यन्तिक उच्छेद हो जाता है। इसे ही नैयायिक परामुक्ति या निर्वाणमुक्ति कहते हैं। 1. उद्धृत-न्याय वैशेषिक-नगीन जी. शाह पृ. 222-223 2. आत्मतत्त्वविवेक पृ. 438 3. न्यायसूत्र 1.1.1. 4. न्याय भाष्य 1.1.1. 5. वही 4.2.1. 6. वही 1.1.2.. 7. न्यायसूत्र 4.1.64. 8. न्यायभाष्य 1.1.2. 9. न्यायभाष्य 1.1.2