Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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124...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उपाध्याय पद का वैशिष्ट्य
जैन धर्म में पंचपरमेष्ठियों का सर्वोपरि स्थान है जिसमें तीर्थङ्कर भगवान शासन की स्थापना कर धर्म की नींव रखते हैं वहीं आचार्य तीर्थङ्कर परमात्मा की अनुपस्थिति में कुशल राजा की तरह जिनशासन की बागडोर सम्भालते हैं।
वर्तमान में आचार्य को गच्छ विशेष से प्रतिबंधित समझा जाता है और आचार्य भी स्वयं को गच्छ विशेष का ही समझते हैं, लेकिन जब भी जिनशासन की आन-बान और शान का प्रश्न आता है, तब आचार्य गच्छ-विशेष के होते हुए भी पूरे जैन समाज के लिए स्वयं को न्योछावर करने में तत्पर रहते हैं। आचार्य पर कई प्रकार की जिम्मेदारियाँ होती है उनमें सहवर्ती मुनियों एवं शिष्यों को ज्ञान दान देने एवं स्वाध्याय-अध्यापन करवाने का विशेष कार्य होता है। स्वाध्याय मुनि जीवन का प्राण है अत: उसे मूल्यवत्ता देना परमावश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति उपाध्याय के द्वारा की जाती है।
जिस प्रकार किसान मेहनत कर खेत को हरा-भरा बनाता है, उसी प्रकार उपाध्याय अन्य साधुओं के अध्ययन पर मेहनत कर जिनशासन को हरा-भरा कर देते हैं, इसी कारण उपाध्याय का वर्ण हरा रखा गया है।
पंचपरमेष्ठियों में सामान्य केवली को पाँचवें पद में स्थान दिया गया है, किन्तु उपाध्याय को चतुर्थ पद में स्थान दिया गया है, क्योंकि आचार्य एवं उपाध्याय भगवन्तों पर शासन-गच्छ की जवाबदारी होती है। तभी तो जब तीर्थङ्कर परमात्मा की देशना पूर्ण होती है, तब अन्य केवली देशना न देकर छद्मस्थ प्रथम गणधर देशना देते हैं और उस समय भी सर्वज्ञ केवली भगवंत विराजमान रहते हैं। जिनशासन में पद देने की भी अपनी परम्पराएँ हैं। जवाबदारी युक्त आचार्य या उपाध्याय पद उन्हें ही दिया जाता है, जो श्रेष्ठ संयम पालन के साथ उच्च कुलीन हो, जिसका संयम ग्रहण करने से पूर्व का इतिहास कलंकित न हो आदि।
इतिहास के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि आचार्यों की भाँति उपाध्यायों की यशोगाथाएँ भी दिग-दिगन्त में प्रसरित रही है। उपाध्याय यशोविजयजी, उपाध्याय देवचन्द्रजी एवं उपाध्याय समयसुन्दरजी द्वारा लिखी गई रचनाएँ सैकड़ों वर्ष बाद आज भी पाठकों के लिए अमूल्य सम्पत्ति के रूप में आदरणीय हैं।