Book Title: Nyayamanjari Granthibhanga
Author(s): Chakradhar, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 17
________________ philosophy would come under the fold of soul-believing pbilosophies of India. Moreover, he seems to have written a work on Sanskrit Grammar. Cakradhara has not given the name of Udbhata's commentary on Lokāyatasutra. No Mimāṁsā, Bauddha or Nyāya work except the present commentary refers to Udbhata or his work. But it is note-worthy that one Jaina work entitled Syādvādaratnakara not only refers to Udbhaļa but also gives long quotations from his commentary on the Lokāyatasutra, mentioning the commentary by name. This Jaina work also notes that Udbhata was a Lokāyata. It tells us that the name of his work was Tattvavịtti which is, most probably, nothing but his commentary on the Lokayatasutra. Udbhata is referred to in this Jaina work on pp. 265, 270 and 764. On p. 265 there occurs a passage which is very important in this connection. It is as follows : ___ यच्चोक्तं तत्त्ववृत्तावुद्भटेन “लक्षणकारिणा (. 1. लक्षणकाराणां) लाघविकत्वेनैव शब्दविरचनव्यवस्था, न चैतावताऽनुमानस्य गौणता, यदि च साध्यैकदेशधर्मिधर्मत्वं हेतो रूपं ब्रूयुस्ते, तदा न काचिल्लक्षणेऽपि गौणी वृत्तिः" इति । यत्तु तेनैव परमलोकायतम्मन्येन लोकव्यवहारैकपक्षपातिना लोकप्रसिद्धधूमाद्यनुमानानि पुरस्कृत्य शास्त्रीयस्वर्गादिसाधकानुमानानि निराचिकीर्षता "प्रमाणस्य गौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः” इति पौरन्दरं सूत्रं पूर्वाचार्यव्याख्यानतिरस्कारेण व्याख्यानयता इदमभिहितं “हेतोः स्वसाध्यनियमग्रहणे प्रकारत्रयमिष्टं दर्शनाभ्यामविशिष्टाभ्यां दर्शनेन विशिष्टानुपलब्धिसहितेन भूयोदर्शनप्रवृत्त्या च लोकव्यवहारपतितया, तत्रायेन ग्रहणोपायेन ये "हेतोर्गमकत्वमिच्छन्ति तान् प्रतीदं सूत्रं लोकप्रसिद्धेष्वपि हेतुषु व्यभिचारादर्शनमस्ति तन्त्रसिद्धेष्वपि तेन व्यभिचारादर्शनलक्षणगुणसाधर्म्यतः तन्त्रसिद्धहेतूनां तथाभावो व्यवस्थाप्यत इति गौणत्वमनुमानस्य । अव्यभिचारावगमो हि लौकिकहेतूनामनुमेयावगमे निमित्तं स नास्ति तन्त्रसिद्धेष्विति न तेभ्यः परोक्षार्थावगमो न्याय्योऽत इदमुक्तमनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ इति" इति । [स्याद्वादरत्नाकर पृ० २६५-२६६] On p. 270 we have the following passage : उक्तं च तन्त्र(तत्त्व ?)वृत्तौ भट्टोद्भटेन "सर्वश्च दृषणोपनिपातोऽप्रयोजकहेतुमाक्रामतीत्यप्रयोजकविषया विरुद्धानुमानविरोधविरुद्धाव्यभिचारिणः" इति । [स्याद्वादरत्नाकर पृ० २७०] On p. 764 there occurs the following passage : यत्र तु भट्टोद्भटः प्राचीकटत्-"न ह्यत्र कारणमेव कार्यात्मतामुपैति यत एकस्याकारणात्मन एककार्यरूपतोपगमे तदन्यरूपाभावात् तदन्यकार्यात्मनोपगतिर्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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