Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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जाता है, उससे भिक्षा ग्रहण करना प्रतिषिद्ध है।' ___ जो गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक सचित्त जल का परिभोग कर रहा है, उस जल से उसका हाथ, पात्र आदि गीला है और वह उससे किसी खाद्य पदार्थ को देता है तो पहले (दान देते समय) भी जल के जीवों की विराधना होती है तथा पुनः जल में डालने पर भी जल की विराधना होती है। अतः जल में डालने वाले पात्र आदि से लेपयुक्त पदार्थ नहीं लेने चाहिए। शुष्क और अलेपकृत द्रव्य ग्रहण करने से पश्चात्कर्म की संभावना नहीं रहती। अतः वे ग्रहण किए जा सकते
१४. सूत्र १७-२९
जगत में अनेक प्रकार के दर्शनीय स्थल, विशिष्ट कलापूर्ण वस्तुएं एवं विविध प्रकार के महोत्सव आदि होते हैं। जो व्यक्ति उन्हें देखने के संकल्प से, अभिप्राय से जाता है, उसके कला कौशल
आदि को देखकर उसके मन में कलाकार अथवा उसके निर्माता के प्रति राग अथवा अनुमोदन के भाव आ सकते हैं। 'अमुक वस्तु सुन्दर बनी है' 'अमुक व्यक्ति ने अमुक वस्तु बनाकर अपने अर्थ का सम्यक् नियोजन किया है'-इत्यादि भाव अथवा वाचिक अभिव्यक्ति से अनुमोदन का दोष लगता है। किसी कलाकृति में कमी देखकर वह उसके प्रति यह अभिव्यक्ति दे-'इस कलाकार को सम्यक् प्रशिक्षण नहीं मिला', 'अमुक व्यक्ति कला का परीक्षक नहीं था, इसीलिए उसने ऐसा निर्माण करवाया' इत्यादि वचनों से उस कलाकृति या कलाकार के प्रति द्वेष प्रकट होता है। वहां रहने वाले प्राणियों के लिए भय, अंतराय आदि दोषों में भी वह निमित्त बनता है। अतः भिक्षु को देखने के संकल्प से सूत्रोक्त स्थानों अथवा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में नहीं जाना चाहिए।
प्रस्तुत आलापक की चूर्णि में व्याख्यात पाठ आदर्शों में स्वीकृत पाठ से अनेक स्थानों पर भिन्न है। चूर्णि में व्याख्यात पाठ भी अस्पष्ट है एवं पूर्णतया शुद्ध प्रतीत नहीं होता। आयारचूला की चूर्णि में भी कई स्थल व्याख्यात नहीं है। अतः अनेक शब्दों के विमर्शहेतु अन्वेषण अपेक्षित है। १. निभा. ३ चू. पृ. ३४३-जेण मत्तएण सच्चित्तोदगं परिभुज्जति तेण
भिक्खग्गहणं पडिसिद्धं ।
वही, गा. ४११४ (सचूर्णि)। ३. वही, भा. ३ चू. पृ. ३४४ ४. वही, गा. ४१२० (सचूर्णि) ५. वही, गा. ४१२२ ६. वही, गा. ४१२३ (सचूर्णि) ७. वही ३ चू. पृ. ३४९-कट्ठकम्मं कोट्टिमादि। ८. अणु. पृ. १९ ९. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३४९-पुस्तकेषु च वस्त्रेषु वा पोत्थं । १०. अणु. पृ. १९
उद्देशक १२ : टिप्पण शब्द विमर्श
१.काष्ठकर्म-काष्ठाकृति-मनुष्य, पशु आदि की काष्ठनिर्मित आकृति।
२.चित्रकर्म-चित्राकृति, पट, कुड्य, फलक आदि पर किसी आकृति अथवा दृश्य का चित्रांकन।'
३. पुस्तकर्म-वस्त्रनिर्मित पुतली, वर्तिका से लिखित पुस्तक। पहलवी भाषा में पुस्त का अर्थ है-चमड़ा। अतः पुस्तकर्म का एक अर्थ है-चमड़े पर बने चित्र आदि।
४. दंतकर्म-हाथीदांत से बनाई हुई कलाकृति।
५. मणिकर्म-मणियों-कीमती पत्थरों से बनाई हुई कलाकृति।
६. शैलकर्म-पत्थर से बनाई हुई कलाकृति ।
७. ग्रंथिम वस्त्र, रस्सी अथवा धागे से गूंथकर या पुष्प, फल आदि को गूंथकर बनाई गई आकृति ।
८. वेष्टिम-फूलों को वेष्टित कर बनाई गई कलाकृति । १२
९. पूरिम-पीतल आदि से निर्मित प्रतिमा अथवा पोली प्रतिमा में पीतल आदि भरकर बनाई गई प्रतिमा (आकृति)।१३
१०. संघातिम-अनेक वस्त्र-खंडों को जोड़कर बनाई गई आकृति ।।
११. पत्रछेद्य कर्म-बाण से पत्ती छेदने की कला, नक्काशी का काम।५
१२. विहा/वाही-एक कला विशेष ।१६ ।।
१३.वेधिम-बींध कर (छेद करके) की जाने वाली कलाकृति, तोड़ कर बनाई जाने वाली कलाकृति।
विहा अथवा वाही और वेधिम-तीनों शब्दों के विषय में सभी व्याख्याकार मौन हैं।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म आदि कुछ शब्दों के तुलनात्मक विमर्श हेतु द्रष्टव्य-अणुओगद्दाराइं सूत्र १० का टिप्पण।
१४. वप्र-केदार।" आयारचूला की टीका में वप्र का एक अर्थ समुन्नत भूभाग किया है। ११. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३४९-पूयादिया पुप्फलादिषु गंठिमं जहा
आणंदपुरे। १२. वही-पुप्फपूरगादिवेढिमं प्रतिमा। १३. वही-पूरिमं स च कक्षुकादि। १४. वही-मुकुटसंबंधिसु वा संघाडिमं । १५. पाइय. (परिशि.) १६. दे.श.को. १७. वही, १८. निभा. ३ चू. पृ. ३४४-वप्पो केदारो। १९. आचू. टी. पृ. २२५