Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 504
________________ ४६३ निसीहज्झयणं उद्देशक २०: टिप्पण शेष साधुओं को उसके साथ समाचरण नहीं करना होता है। कोई भिक्षु मासिक, चातुर्मासिक प्रायश्चित्तार्ह दोषों की पहले संघ दस पदों से परिहार-तपस्वी का परिहार करता है-१. प्रतिसेवना कर लेता है और बाद में पांच दिनरात, दस दिनरात आलाप २. प्रतिपृच्छा ३. सूत्रार्थ-परावर्तन ४. स्वाध्याय काल में प्रायश्चित्ताह दोषों की। किंतु आलोचना के समय पहले छोटे दोषों उठाना ५. वंदना ६. उच्चार आदि के मात्रक देना अथवा लेना ७. की और बाद में बड़े दोषों की आलोचना इसलिए करता है ताकि उपकरण-प्रतिलेखता ८. संघाटक का आदान-प्रदान ९. भक्तपान गुरु उसे अयतनानिष्पन्न एवं अतिचारनिष्पन्न-इस प्रकार दुगुना का आदान-प्रदान और १०. संभोज । २ प्रायश्चित्त न दें। पूर्व प्रतिसेवित, पश्चात् आलोचित तथा पश्चात् विवक्षित प्रायश्चित्त-काल में उसका केवल दो व्यक्तियों से । प्रतिसेवित, पूर्व आलोचित इन दोनों भंगों में आलोचक में ऋजुता संबंध होता है का अभाव है। अतः उसे मायाहेतुक प्रायश्चित्त भी प्राप्त होता है। १.कल्पस्थित-आचार्य, जो प्रायश्चित्त-वहन काल में वंदना, प्रश्न होता है-प्रतिसेवना बाद में और आलोचना पहले यह वाचना आदि की दृष्टि से अपरिहार्य होता है। परिहारतपस्वी विकल्प कैसे संभव है? आचार्य कहते हैं कोई भिक्षु आचार्य आदि कल्पस्थित को वंदना करता है, आलोचना, प्रायश्चित्त करता है, के काम से अन्यत्र जा रहा है। वह जाते समय निवेदन करता है-'मैं प्रत्याख्यान करता है, सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा करता है और कल्पस्थित अमुक काल तक इतनी विगय खाने की अनुज्ञा चाहता हूं।' यह के पूछने पर उन्हें अपनी शारीरिक स्थिति का निवेदन करता है। पश्चात् प्रतिसेवना, पूर्व आलोचना नामक तृतीय भंग है। यह भाष्यकार २. अनुपारिहारिक-जिसने पहले परिहार तप किया हो अथवा एवं चूर्णिकार का अभिमत है। उसकी विधि को जानने वाला गीतार्थ, दृढ़संहनन भिक्षु जो अपलिउंचिए अपलिउंचियं-इत्यादि चतुभंगी में आलोचक परिहारतपस्वी के भिक्षाटन आदि में पीछे-पीछे रहता है, अत्यंत की संकल्पकाल एवं आलोचनाकाल की मनःस्थिति का चित्रण है। अपेक्षा होने पर कुपित प्रियबंधु के समान मौन-मौन उसकी सहायता एक भिक्षु ऋजुतापूर्वक आलोचना के संकल्प के साथ गुरु के पास करता है, अनुपारिहारिक कहलाता है। यदि उठने में असमर्थ तपस्वी आता है किंतु उसे तदनुकूल परिस्थिति उपलब्ध नहीं होती। गुरु की कहे-'उठता हं' तो वह उसे उठाता है, 'बैठता हं' कहने पर बिठाता खरंटना, अनादर आदि से उसकी मनःस्थिति बदल जाती है और है। इसी प्रकार भिक्षा लाकर देना, प्रतिलेखना करना आदि कार्यों में । वह आलोचनाकाल में माया का प्रयोग करता है। दूसरा भिक्षु डर, मौन-मौन सहायता करता है। आशंका आदि से युक्त अधूरी मानसिकता से गुरु के समक्ष उपस्थित परिहार तपःप्रायश्चित्त-वहन काल में कल्पस्थित एवं होता है। गुरु उसे आश्वस्त करते हैं, उसका आदर करते हुए कहते अनुपारिहारिक को तपस्वी का वैयावृत्य करना चाहिए। वैयावृत्य के हैं-'तुम धन्य हो, पुण्यवान हो, जो ऋजुतापूर्वक आलोचना करने तीन प्रकार हैं आए हो। प्रतिसेवना दुष्कर नहीं, आलोचना दुष्कर है।' इस प्रकार १. अनुशिष्टि-उपदेश देना अथवा प्रोत्साहित करना। प्रोत्साहित करने पर उसकी वह मायावी मानसिकता बदल जाती है २. उपालंभ-अकरणीय में प्रवृत्त होने पर उपालंभ देना। और वह सम्यक् आलोचना करता है।" ३. उपग्रह-द्रव्यतः और भावतः सहायता करना। ___इस प्रकार प्रस्तुत चतुर्भंगी में आलोचनार्ह एवं आलोचक प्रायश्चित्त के प्रसंग में आनुपूर्वी के दो प्रकार हैं दोनों की मनःस्थिति का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है। १. प्रतिसेवनानुपूर्वी कारण उपस्थित होने पर लघु, गुरु, पांच शब्द-विमर्श दिन रात, दस दिन रात आदि प्रायश्चित्त योग्य दोषों का यतनापूर्वक १. सव्वमेयं सकयं-सारा प्रायश्चित्त, जो अतिचार के कारण, आसेवन । आलोचना में माया के कारण अथवा असमाचारी के कारण प्राप्त २. आलोचनानुपूर्वी जिस क्रम से प्रतिसेवना की, उस क्रम से होता है।१२ आलोचना करना। २. साहणिय-एकत्र करके अथवा छहमास से अतिरिक्त १. न निभा. भा. ४ चू.पृ. ३७१-ठवणिज्जं......जं तेण सह णायरिज्जति ठवणिज्जं....अहवा-सव्वा चेव तस्स सामायारी। २. वही, गा. ६५९६ ३. वही, गा. ६५९४ (सचूर्णि), गा. ६५९९ (सचूर्णि) ४. वही, गा. ६४८४, ६५९९ (सचूर्णि) ५. वही, गा. ६६०० (सचूर्णि) ६. वही, गा. ६६०५-६६११ ७. वही, गा. ६६२१ ८. वही, भा. ४ चू.पृ. ३७९-जं जहा पडिसेवितं तहा चेव आलोएति। ९. वही १०. वही-इच्छामि भंते! तुब्भेहिं अब्भण्णुण्णाओ.....। ११. वही, पृ. ३८०-धण्णो सपुण्णो आसि। तं न दुक्कर.....सुद्धो य। १२. वही, पृ. ३८५-जं अवराहावण्णं जं च पलिउंचणाणिप्फण्णं अण्णं चज किंचि आलोयणकाले असामायारणिप्फण्णं सव्वमेतं स्वकृतं ।

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