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सोलहवां अध्याय
- ६१७ ॥ प्र०-चवीसथएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? उ०-चउवीसत्थपणं दंसण विसोहिं जणयइ । अर्थात्-प्र० चतुर्विंशतिस्तब से जीव को क्या लाभ होता है ? ७०-चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन गुण की विशुद्धता अर्थात् निर्मलता होती है।
( ३ ) वन्दना-मन, वचन और काय के द्वारा पूजनीय पुरुषों के प्रति आदरसन्मान प्रकट करना वन्दना है । अर्हन्त भगवान् , सिद्ध भगवान् , आचार्य महाराज, उपाध्याय और कंचन कामिनी के त्यागी, पंचमहाव्रतधारी, समिति-गुप्ति के प्रतिबालक मुनि महाराज वन्दनीय महापुरुष हैं । इन्हें वन्दना करने से छानक लाभ होते हैं । यथा
प्र०-वन्दणएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
७०-चन्दणएणं नीयागोयं कम्मं स्त्रवेद । उच्चागोयं कस्म निबंधइ। लोहगां च गं अपडिहयं प्राणाफलं निवत्तेइ । दाहिणभावं च जणयइ। ।
प्र०-वन्दन करने से, भगवन् ! जीव को क्या लाभ है ?
उ०-वन्दन करने से नीच गोत्र कर्म का क्षय होता है । 'उच्च गोत्र कर्म का गंध होता है । अप्रतिहत सौभाग्य की प्राप्ति होती है। आशा की धाराधना होती हैं। दाक्षिण्य की उत्पत्ति होती है। .
वन्दना करना, वंदना करने वाले की विनम्रता का सूचक है। अथवा यों कहना चाहिए कि वन्दनीय व्यक्ति के सद्गुणों के प्रति हृदय में जब भक्ति भाव उत्पन्न होता है तव उनके सामने स्वयं मस्तक झुक जाता है । अन्तःकरण की प्रेरणा से जनित इस प्रकार की वन्दना ही साम्बी बन्दना है।
वन्दना के बत्तीस दोष बतलाये गये हैं। उन दोषों का परिहार करते हुए की जाने वाली वन्दना ही उत्तम कहलाती है। बत्तीस दोप इस प्रकार हैं:
श्रणाढियं च थड्दं च पविद्धं परिपिंडियं । टोल गई अंकुसं चेव, तहा कच्छभारगिअं॥ मछो बत्तं मणसा य, पउटुं तहय वेश्या रद्धं । भयसा चेव भयंतं, मेत्ती गारव-कारणा तेणिशं पउणीअं चेव, रुटुं तज्जियमेव य। सढं च हीलिभं चेव, तहा विएलिउचिश्यं ॥ दिट्टमदिटुं च तहा, सिंगं च फरमो अम्।। प्रालिद्धमनालिद्ध, ऊणं उत्तर चूलियं ॥ सूयं च ढढरं चेब, चुडालं च अदच्छियं ।
चत्तीस दोस परिसुदं, किरकम्म पउंजए । पत्तीस दोपों का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है: