Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 721
________________ स्लत्तरहया अध्याय भाष्य-इससे पहली गाथा. में जिन दस अंगों का उल्लेख किया था, उनका यहां नाम निर्देश किया गया है। जहां वैभव के यह दल अंग उपलब्ध होते हैं, वहीं वह देव, मनुष्य रूप में अवतीर्ण होता है। - दस वैभव के अंग यह है:-(१) क्षेत्र-जमीन आदि (२) वस्तु-महल, मकान आदि (३: हिरण्य-चांदी-सोना आदि पशु-गाय, भैंस, छोड़ा, हाथों आदि (५) दास दासी-नौकर-चाकर, वगैर (६) पौरुष कुटुम्ब-परिवार एवं पुरुषार्थ आदि (७-१०) चार कामलकन्ध-इन्द्रियों के विषय, इस प्रकार इस तरह के वैभव वाला मनुष्य होता है। ठाणांगसूत्र में पाल्य प्रकार से भी दस तरह के सुखों का कथन किया गया है। वे इस प्रकार है: ११) प्रारोष्य-शरीर का स्वस्थ रहना, किसी प्रकार का दोष न होना। प्रारोज्य-सुख सभी सुखों का मूल है, क्योंकि शरीर में रोग झेने पर ही अन्य सुखों का उपभोग किया जा सकता है। (२) दीर्घ श्रायु-शुभ दीर्घ आयु भी सुस्न रूप है। ऊत्तम से ऊत्तम भौगोपभोग प्राप्त होने पर भी यदि आयु अहाकालीन हुई तो सब सुन वृथा हो जाते है। (३) आढ्यता-विपुल धन-सम्पत्ति का होना । (४) काम-पांच इन्द्रियों में से चनु और श्रोत्र हान्द्रय के विषयों को काम कहा गया है । इष्ट रूप और इष्ट शब्द की प्राप्ति होना काम-सुख की प्राप्ति कहलाती है। (५) भोग-स्पर्शन, रसना और प्रेरण-इनियों के इष्ट विषय की प्राप्ति होना भोग-सुम्न है । इन विषयों के भोग से संसारी जीव सुख मानते हैं। सुख-साधन होने के कारण उन्हें भी सुख रूप कहा गया है। (६) सन्तोप-इच्छा.का सीमित होना या अल्प पछा होना संतोष करलाता है। संतोएं, सुम्न का प्रधान करण है । विपुल वैभव और भोगोपभोग की प्रचुर सामग्री की विद्यमानता होने पर भी जहां असंतोप होगा वहां सुख नहीं हो सकता। अतः संतोष सुख का साधन है, और उसकी सुखों में गणना करना उचित ही है। - (७) अस्ति तुम्न-जिस समय जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उसी समय उसकी प्राप्ति हो जाना भी सुरन है। इसे अस्ति सुन कहा गया है। (८) शुम भोग-प्रशस्त भोग को शुभ भोग कहते हैं । ऐले भोगों की प्राप्ति और उन भोगों में भोग क्रिया का होना भी सुख रूप है। यह भी सातावेदनीय जन्य पौद्गलिक सुन है।

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