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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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गुलाबचन्द जैन देहली निवासी मैनेजर श्री जैनोदय प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम .
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श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम
जन्मदाता .. भीमान् जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पंडित मुनिश्री चौथमलजी महाराज
रायबहादुर राज्यभूषण दानवीर श्रीमान मेड कन्हैयालालजी भण्डारी, इन्दौर भीमान् दानवीर रायबहादुर सेठ कुन्दनमलजी । श्रीमान सेठ कालूरामजी सा० कोठारी , ब्यावर
लाल चन्दजी सा० ब्यावर ,, ,, सागरमा जी चम्पालालनी सा मैंगलोर ,, सेठ नेमीचन्दजी सरदारमलजी सा. नागपुर | ., ,, सीरेहमलजी नन्दलालजी सा०पीतलिया ,,, 'सरूपचन्दजी भागचन्दजी सा० कलमसरा
- सीहोर की छावनी ., , पुनमचन्दजी चुनीलालजी सा.न्यायडोंगरी I,, कुन्दनसलजी सरूपचन्दजी सा० व्यावर , ,, यहादरमलजी सूरजमलजी सा.. यादगिरी]., , देवराजजी भवरला जी सासुराना व्याधर . ., तस्तमलजी सौभागमलजी सा. जावरा |
संरक्षक
श्रीमान् धर्मपरायस रावतंजी साहेब श्री हरिसिंहजी महोदय बांसी ( मेवाड़) श्रीमान् सेठ भेमलजी लाल चन्दजी सा० गुले दगढ़ | श्रीमान सेठ नवसारामजी गोकुलचन्दजी लसाणी . , नासा रतनलालजी सा० मित्तल आगरा | , , जालमसिंहजी केशरीसिंहजी चौधरी नीमच . ,,, उदेश्चन्दजी छोटमलजी सा. उज्जैन, ,, शाहजी इन्दरमनजी मांगीलालजी डांगी.. ", छोटेलालजी सेठमलजी सा० कनेरा
गंगरार. ,, मोतीलालजी सा० जैन वैद मांगरोल |, स्वर्गीय सेठ हीरालालजी संचेती की धर्म", सूरजमलजी साहेब . भवानीगंज पत्नि श्रीमती पानथाईजी भालोट . " , वकीन रतनलालजी सा० सराफ उदयपुर | श्री श्वे० स्था० जैन महावीर नवयुवक मण्डल " , नाथूलालजी छगनलाबाजी सा. मल्हारगढ़ ,,, ताराचन्दजी डाइनी पुनमिया सादडी श्रीमान् सेठ भासूलालजी केसरीमलजी ढेतरिया . श्री महावीर जैन नवयुवक मंडल चित्तोड़गढ़
बोहरा, बैंगलोर सीटी श्री. स्था• जैन श्रीसंघ बड़ी सादड़ी |., ,, तेजसिंहजी फतेसिंहजी पोखरना, श्रीमती पिस्ताबाईजी लोहामन्डी भागरा
बांदनवाड़ा " राजीबाईजी
बरोरा श्रीमान कुंधर पारसमलजी अभयमलजी सा. - अनारबाईजी लोहामन्डी मागरा
नाहर, अजमेर • चन्द्रपतिपाईजी
देहली । मेहता समानसिंहजी बसन्तीलालजी बढ़ी सादड़ी ,
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श्रीमान मोहनलालजी सा दकील उदयपुर | श्रीमान् सेठ नाथूलालजी कल्याणसलजी इलेद " सेठ लखमीचन्दजी संतोकचन्दजी सा० मुरार , हजारीमलजी अम्वालालजी सगरावत, " , चम्पालालजी सा० अलीजार ब्यावर
निम्बाहेदा ,,, नेमीचन्दजी शीकरचन्दजी सा० शिवपुरी श्री संघ श्रोसवाल बड़े साथ पिपलोदा के अग्र" ,, फूलचन्दजी सा जैन कानपुरगण्य श्रीमान् नांदेचा सेठ धनराजजी नेमचन्दजी " , पृथ्वीराजजी दुधेड़िया - धूलिया
पिपलोदा " , इन्दरमलजी जैन
हाथरस
हनलालजी माणकलालजी " , गुलराजजी पूनमचन्दजी मदनगंज
बालिया अहमदाबाद श्रीमान् स्वर्गीय सेठ पन्नालालजी करजूवाला की श्रीमान् सेठ रिखबदासजी सा० खिंवसरा ब्यावर - धर्मपत्नि श्रीमती सेठानी केशरबाई मंदसोर , , भैरूलालजी मेहता . डूंगला श्रीमान् बाबू कामताप्रसादजी गोयल की धर्मपलि| श्रीमान् मोहनलालजी सुवर्णकार चित्तौड़गढ़ __ श्रीमती निशलादेवी,
मेरठ , अमरचन्दजी तेजमलजी कस्तुरचन्दजी, श्रीमान् कुंवर मोतीलालजी मदनलालजी कानोड़
: जैनी गंगापुर " लाला रोशनलालजी जैन कानपुर , राजमलजी नन्दलालजी भुसावल श्रीमान् सेठ केशरीमलजी श्रीमाल बनारस, ॥ मन्नालालजी भेरूलालजी राजाखेड़ीवाला, ,, ,, तखतमलजी वापूलाल जी बोथग रतलाम
मन्दसोर ,, सहसमलजी देवराजजी औरंगाबाद , , घासीरामजी मोदीरामजी बढ़ायला, ., ,, फुलचंदनी नाथूलालजी तेजमलजी सिंगोली!
नाथद्वारा ,, ,, खेमराजजी भवरलालजी सिंयाल नाथद्वारा श्रीमान स्वर्गीय सेठ पन्नालालजी बाफणा की .., तखतमलजी नथमलजी चोरड़िया बालाघाट धर्मपनि श्रीमती कंचनबाई मन्दसोर श्रीमान् सूरजमलजी जयकिशनजी माण्डल | श्रीमती प्रेमवती देवीजी
कानपुर , सेठ हरकचंदजी हाबूलालजी जैन ताल। श्री वर्द्धमान नवयुवक मण्डल चित्तौड़गढ़ ,, , धन्नालाल जी मन्नातालजी ठाकुरिया, श्रीमान् सेठ धन्नालालजी मसालालजी चोपड़ा,
इन्दौर ॥ ॥ झूमाजी श्रीलालजी विलोद, मुंतजिम बहादूर सेठ इन्दरमलजी सा. .,
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन-भाष्य
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उपदेश-प्रदान
जो बढ़ राखे धर्म को, तिहि राखे करतार ।
यतो धर्मस्ततो जयः
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स्वर्गीय श्रीमान् हिन्दू-कुल-सूर्य हिज़ हाइनेस महाराजाधिराज साहित्य और संगीत के अनेकों महाराना सर श्रीं फतहसिंह जी साहेब बहादुर, जी. सी. एस.
ग्रन्थ के लेखक आई., जी. सी. आई. ई., जी. सी. व्ही. श्रो., श्राफ उदयपुर
श्री जैन-दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता
पण्डितरत्न मुनि श्री चौथमलजी (मेवाड़)। .
महागज । जन्म-सं. १९३४
दीक्षा सं..९५२
S SETTERESE
[चित्र केवल परिचयार्थ]
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दो शब्द
घोर विनाशपथ की ओर जाने वाले संसार को अहिंसा, समभाव, सत्य और संयम का पाठ पढ़ाने के लिए निर्ग्रन्थों का प्रवचन ही सहायक हो सकता है । इन देवी आदर्शों का अनुसरण किये बिना संसार का त्राण नहीं है । सेना और शस्त्रों के संसार में विचरने वाले लोग भी, जान पड़ता है, कुछ दूसरी बातें सोचने लगे हैं । ऐसे समय में इस ग्रन्थ का प्रकाशन उपयोगी होगा। इस भावना से और साथ ही जैन दिवाकर प्रसिद्धवक्ता पण्डित मुनिश्री चौथमलजी महाराज तथा साहित्यप्रेमी साहित्यरत्न गणिवर्य पण्डित मुनिश्री प्यारचन्दजी महाराज के आदेश के पालन हेतु 'निम्रन्थ-प्रवचन' पर कुछ पंक्तियां लिखी गई हैं । आशा है यह प्रयास निर्ग्रन्थ-प्रवचन का मर्म समझने में उपयोगी होगी।
प्रस्तुत भाष्य के संपादक, संवर्द्धक एवं संशोधक श्रीगणिजी महाराज ने अगर परिश्रम न किया होता तो शायद यह इस रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित न हो पाता । अतएव इसमें जो अच्छाई हो उसका श्रेय श्रीगणिजी महाराज को प्राप्त है ।
प्रमाद, अज्ञान एवं असावधानी के कारण अगर कोई बात सिद्धान्त विरूद्ध आ गई होतो विद्वजन संशोधित कर सूचित करेंगे तो कृपा होगी। अगले संस्करण में उसका शोधन किया जा सकेगा। ग्रन्थ के मुद्रण में कुछ खटकने वाली भूलें रह गई हैं, उनका सुधार भी अगले संस्करण में किया जा सकेगा।
भाष्य-लेखन में अनेक ग्रंथकारों की सहायता ली गई है । उन सब के प्रति लेखक हृदय से कृतज्ञता प्रदर्शित करता है। श्री जैन गुरुकुल,
-शोभाचन्द्र भारिन, न्यायतीर्थ ब्यावर
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HLEELSEASESSFHTTES - प्रकाशकीय निवेदन
SHRESEFFEALTE
श्रमण संस्कृति के समर्थ नायक भगवान महावीर ने संसार के कल्याण के लिए जो प्रवचन किया था, उसका अधिकांश विलुप्त हो जाने पर भी जो अंश आज उपलब्ध है वह बहुत विस्तृत है । भगवान् के प्रवचन का रहस्य समझने के लिए उस साहित्य को अविकल रूप से पढ़ा जाय, उसका चिन्तन-मनन किया जाय यह वांछनीय ही है । परन्तु आधुनिक मानव-जीवन की गति ऐसी दिशा की ओर अग्रसर हो रही है कि जीवन व्यस्त, प्रवृत्तिमय और झंझटों से परिपूर्ण बनता जाता है । इसके सिवाय जीवन अल्पकालीन होता जा रहा है और प्राचीन धर्मतत्व की ओर रुचि भी होती जाती है । इन कारणों से चिरकाल से यह आवश्यकता अनुभव की जा रही थी कि निर्ग्रन्थ भगवान् के प्रवचनों में से कुछ चुना हुआ अंश छांट कर संगृहीत किया जाय, जिससे संक्षेप में ही जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत आ जावें । वैदिक ग्रन्थ के प्रतिपादक गीता के समान, ईसाई धर्म के बाइबिल के समान और मुस्लिम धर्म के कुरान के समान, सर्वसाधारण को संक्षेप में धर्म का स्वरूप समझाने वाले जैन धर्म के प्रतिपादक एक ग्रन्थ की कमी खटक रही थी।
जैन दिवाकर प्रसिद्धवक्ता पण्डित रत्न मुनिश्री चौथमलजी महाराज का ध्यान इस कमी की ओर आकर्पित किया गया । तब महाराजश्री ने जैनागमों से चयन कर के 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' नाम से एक सुन्दर संग्रह तैयार कर दिया और उसके प्रकाशन का साँभाग्य इसी संस्था को प्राप्त हुआ। निर्ग्रन्थ-प्रवचन का प्रकाशन होते ही सर्वसाधारण का ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हुआ। उसकी अनेक हिन्दी आवृत्तियां प्रकाशित हुई । देखते-देखते भारतवर्ष की अनक भाषाओं में उसका अनुवाद भी हो गया । गुजराती, मराठी, उर्दू, श्रादि के अतिरिक्त अंग्रेजी भापा में भी उसका प्रकाशन हुत्रा । संस्कृत भाषा में उस पर टीका लिखी गई। बहुसंख्यक जैन-अजैन विद्वानों ने, प्रोफेसरों ने, पत्र सम्पादकों ने उसकी खूब सराहना की। यह सब देख कर संस्था का उत्साह बढ़ा।
जव निर्ग्रन्थ प्रवचन का इस प्रकार आशातीत स्वागत हुआ तो उससे प्रेरणा प्राप्त कर संस्था के संचालकों को उस पर हिन्दी भापा में एक भाष्य लिखवाने का विचार पाया. जिस से मूल प्राकृत गाथाओं का मर्म भलीभांति स्फुट रूप से पाठक समझ सकें।
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इसके लिए जैन दिवाकर प्रसिद्धवक्ता पण्डित मुनि श्री चौथमलजी महाराज के सुयोग्य शिष्य, अनेक ग्रंथों के लेखक, साहित्यरत्न, गणिवर्य पण्डित मुनि श्री प्यारचन्दजी महाराज से प्रार्थना की गई । गणीजी महाराज ने व्यावर-चातुर्मास के समय भाष्य-लेखन का अपना विचार कक्त किया और प्रथम अध्याय की कुछ गाथाओं पर भाष्य लिखा भी सही। मगर पर्याप्त अवकाश न मिलने से तथा अन्यान्य आवश्यक कार्यों में व्यस्त हो जाने से जब आपने देखा कि इस गति से भाष्य का कार्य बहुत समय तक पूरा न हो सकेगा तो आपने यही उचित समझा कि किसी अन्य विद्वान से भाष्य लिखवाया जाय और जब वह लिखा जा चुके तो उसका संशोधन आदि कर दिया जाय। तंदुनुसार भाष्य लेखन का कार्य पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ को सौंपा गया। भारिल्लजी जैन समाज के सुप्रसिद्ध लेखक और धर्म शास्त्र के सुयोग्य विद्वान हैं। उन्होंने योग्यता के साथ यह कार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात् श्रीगणीजी महाराज ने सूक्ष्म" दृष्टि से आद्योपान्त्य पढ़कर उसमें यथायोग्य आवश्यक संशोधन आदि कर देने की महती कृपा की। जब भाष्य संशोधित रूप में तैयार हो गया तो संस्था के संचालकों ने उसका प्रकाशन-कार्य आरंभ करवाया।
निर्मन्थ प्रवचन पर लिखा हुआ यह भाष्य, हमारे ख्याल से इस युग की एक उत्कृष्ट जैन रचना है । इसमें सरलतापूर्वक जैन धर्म के दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है । हमें विश्वास है कि धर्म एवं साहित्य प्रेमी जनता निम्रन्थ प्रवचन के इस भाष्य का भी स्वागत करेगी और हमारा उत्साह बढ़ाएगी।
वर्तमान युद्ध के कारण प्रत्येक वस्तु बेहद महंगी है। कागज प्रथम तो मिलता ही नहीं, अगर मिलता भी है तो काफी बढ़े मूल्य पर । ऐसे विकट समय में इतने बड़े . विशालकाय ग्रंथ को प्रकाशित करना बड़े साहस का काम है । हम अपने प्रेमी सहायकों एवं पाठकों के बल पर ही यह साहस कर सके हैं। प्रस्तुत भाष्य को प्रकाशित करने के निमित्त जिन उदाराशय श्रीमानों ने आर्थिक सहयोग दिया है, हम उनके अतिशय कृतज्ञ है। उन्हीं की कृपा से यह ग्रंथ प्रकाश में आ सका है।
जिन्होंने अनेकानेक सुन्दरतर साहित्य-ग्रंथों का प्रणयन किया और निग्रन्थ प्रवचन जैसा अनुपम रत्न हमें प्रदान किया है, उन श्री जैन दिवाकरजी महाराज के प्रति हम किस प्रकार अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकते हैं, यह समझ में नहीं आता। जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही जगत्-कल्याण के लिए अर्पित किया है। उन मुनि महाराज को हम से कृतज्ञता पाने की किंचित् भी कामना नहीं है, फिर भी कृतन्न के दोष से बचने के लिए हम श्री जैनंदिवाकरजी महाराज के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं, हार्दिक भक्तिभाव व्यक्त करते हैं। साथ ही उनके योग्यतम
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.सुशिष्य श्री गणीजी महाराज ने अगर भाष्य का संशोधन न किया होता; सम्पादन न किया होता तो भी हमारे लिए इसका प्रकाशन, इस रूप में करना संभव नहीं था । श्रीगणीजी महाराज के असीम अनुग्रह के फल स्वरूप ही हम यह बहुमूल्य भेंट पाठकों के कर-कमलों में अर्पित कर सके हैं।
शासन देव से प्रार्थना है कि सुयोग्य गुरु-शिष्य की यह जुगल-जोड़ी सूर्य- . चन्द्र की भाँति चिरकाल तक संसार के अज्ञानान्धकार को हटा कर सम्यग्ज्ञान का प्रकाश फैलाती रहे और भव्य जीवों का अनन्त उपकार करती रहे।
प्रुफ-संशोधन में, प्रमादवश अनेक त्रुटियां रह गई हैं, आशा है पाठक उन्हें सुधार कर पढ़ेंगे। अगले संस्करण में हम विशेष सतर्कता रखने का प्रयास करेंगे।
भवदीयकालूराम कोठारी
छगनलाल दुगड़ प्रेसिडेन्ट
मंत्रीश्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम ( मालवा )
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श्री जैनदिवाकरजी म० का संक्षिप्त परिचय
CO
भर
विश्व-वाटिका में अनन्त पुष्प खिले हैं खिलते हैं और खिलते रहेगें । वे सब * अपनी मधुर मुस्कान के साथ, प्रकृति के अटल - अचल नियम के अनुसार क्षण हंस कर अपने गौरव पर इतरा कर, अन्त में अतीत के अनन्त असीम गर्भ में सदा के लिए विलीन हो जाते हैं । जिस सौन्दर्य-समन्वित सुमन - समूह से संसार में सौरभ नहीं भर जाता, जो निराश हृदयों में आशा एवं उत्साह का नशा नहीं चढ़ा देता, जो अपनी हृदयहारिता से दूसरों के हृदय का हार नहीं बन जाता, जिसमें अपने असाधारण सद्गुणों से जगत् को मुग्ध करने की क्षमता नहीं होती, जिसकी निर्मलता दुनियां के मैल को नहीं धो डालती, आह ! उस सुन्दर सुमन का भी कोई जीवन है ! उसका जीवन अकारथ है, उसका सौन्दर्य किसी काम का नहीं, उसके असाधारण सद्गुणों से संसारको कुछ भी लाभ नहीं । हां, जो पुष्प अपने सौन्दर्य को, सुरभि को एवं अपने आपको दूसरों के लिए न्योछावर कर देता है, उसी का जीवन सफल, सार्थक एवं कृतकृत्य हो जाता है, यों तो विश्व--वाटिका में अनन्त पुष्प खिलते हैं और खिलते रहेंगे 1
जो बात सुमन के संबंध में कही गई है, वही मानव के संबंध में भा कही जा सकती है । मनुष्य का जीवन- कुसुम विकसित हुआ, उसमें सुन्दरता का आविर्भाव हुआ - सुन्दर सद्गुणों का विकास हुआ, जगत् को पावन बना देने की क्षमता प्रकट हुई, पर यदि इन सब का उपयोग संसार के हित-सम्पादन में न किया गया तो सब व्यर्थ है ! सब का सब निकम्मा ! जो पुरुष - पुंगव अपने जीवन को संसार के सुधार के हेतु समर्पण कर देता है, उसीका जीवन सार्थक हो जाता हैं ।
यहां जिस नर-रत्न के जीवन की साधारण रूप- -रेखा अंकित करने का प्रयास किया जा रहा है, उनका ऐसा ही जीवन है । वह जीवन जगत् में नवजीवन लाने वाला है, प्राणियों में प्रेरणा का नूतन प्राण फूंकने वाला है, प्रभु महावीर के लोकोंत्तर सिद्धान्तों के क्रियात्मक रूप की प्रतिमूर्ति है ।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन के मूल संग्राहक और अनुवादक प्रसिद्ध वक्ता, जैन दिवाकर, जगत्-वल्लभ पण्डित मुनि श्री चौथमलजी महाराज, का विस्तृत जीवन चरित ' आदर्श सुनि ' के नाम से प्रकाशित हो चुका है और वह श्री जैनादय पुस्तक प्रकाशक समिति रतलाम ( मालवा ) से प्राप्त किया जा सकता है । जिन्होंने अभीतक
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यह जीवन चरित नहीं पढ़ा है, ऐसे पाठकों के लाभार्थ संक्षेप में मुनि श्री के जीवन की मुख्य-मुख्य बातें यहां दी जा रही हैं। आशा है पाठकों को इस से विशेष लाभ होगा और मुनि श्री के आदर्श, पवित्र एवं प्रभावक जीवन से उन्हें. प्रेरणा मिलेगी। जन्म कुण्डली
चलित चक्र
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जन्म और दीक्षा मुनिराज का जन्म- कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, रविवार, विक्रम सं० १९३४ को नीमच (मालवा) में हुआ था । आप के पिता श्री का नाम श्री गंगारामजी और माताजी का नाम श्री केशरां बाई था। आपका बचपन माता-पिता की वात्सल्यमयी गोद में बड़े ही लाड़-प्यार के साथ व्यतीत हुआ । योग्य उम्र होने पर आप ग्रामीण पाठशाला में अध्ययनार्थ प्रविष्ट हुए और वहां गणित, हिन्दी, उर्दू और कुछ अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया।
युवावस्था और दीक्षा ग्रहण महापुरुष यकायक नहीं बनते, वरन् वे अपने पूर्वजन्म के कुछ विशिष्ट संस्कार-कतिपय विशेषताएँ लेकर अवतीर्ण होते हैं। इस प्राकृतिक नियम के अनुसार चरित नायक में वाल्यावस्था से ही कुछ विशेषताएँ थीं। आपमें ऐसे कछ सदरण विद्यमान थे, जिनसे आपकी असाधारणा टपकती थी । धर्म की और बचपन से ही
आपकी विशेष अभिरुची थी। बाल्यावस्था एवं उगती जवानी में जब खेलने-खाने में, मौज-शौक में स्वर्ग का सुख अनुभव हुआ करता है तब आप इसके अपवाद थे। आप का अन्तःकरण विरक्ति के सहज संस्कारों से ओतप्रोत था। आप जल में कमल के समान, संसार-वास करते हुए भी भाव से विरक्त से रहते थे। इसका एक कारण पर्व
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जन्म के संस्कार और दूसरा कारण शायद माता-पिता की धर्मनिष्टा थी। आपके माता पिता भी धर्मानुरागी और आचारपरायण थे। बालक, माता-पिता से केवल शारीरिक संगठन एवं आकृति ही ग्रहण नहीं करता अपितु संस्कार भी बहुलता से ग्रहण करता है । अतएव संतान को धर्मनिष्ठ बनाने के लिए माता-पिता का धर्मनिष्ठ होना अत्यावश्यक है।
___ एक बार आपकी माताजी ने आपके समक्ष दीक्षा ग्रहण करने की अपनी भावना प्रकट की। यह भावना सुनकर आपको अत्यन्त प्रसन्नता हुई और साथ ही आपने स्वयं भी दीक्षा ग्रहण करने का भाव प्रकट कर दिया । इसके पश्चात आपको दीक्षा लेने में अनेकानेक विघ्न उपस्थित हुए, फिर भी आपने अपनी दृढ़ता से उनपर विजय प्राप्त की और यद्यपि आपका विवाह हुए सिर्फ दो ही वर्ष व्यतीत हुए थे, फिर भी आपने वैराग्य पूर्वक संवत् १६५२ में कविवर सरलस्वभावी मुनि श्री हीरालालजी महाराज से मुनिदीक्षा धारण करली।
. धन्य है यह वैराग्य ! धन्य है यह ज्वलंत अनासक्ति ! धन्य है यह दृढ़ता ! ऐसे संयमशील मुनिराज धन्य हैं !
प्रचार संवत् १६५२ में दीक्षा लेने के पश्चात् से लगाकर अबतक आपने न केवल जैनं समाज का वरन् अभेद भावना से सर्वसाधारण जनता को जो महान उपकार किया है उसका वर्णन करना संभव नहीं है । इस कथन में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है कि. अर्वाचीन जैन इतिहास में मुनि श्री चौथमलजी महाराज का धर्मप्रचारक के रूप में बहुत ही उच्च आसन है । आपने इस ध्येय के लिए असाधारण प्रयास किया है और प्रयास के अनुकूल असाधारण ही सफलता आप को प्राप्त हुई है।
पता नहीं, आप के साधारण शब्दों में भी क्या जादू रहता है कि उपदेश का प्रत्येक शब्द कान के रास्ते अन्तर तक जा पहुंचता है और एक अपूर्व श्राह्लाद उत्पन्न करता है । जिस समय आप अपने प्रभावशाली शब्दों में उपदेश की वर्षा करते हैं तब श्रोता चित्रलिखित से रह जाते हैं मानो किसी उद्भुत रस का पान करने में तल्लीन हो रहे हों। श्रोता अपनी सुधबुध भूलकर आप के उपदेशामृत का ऐसी तन्मयता के साथ पान करते हैं कि हजारों की उपस्थिति होने पर भी एकदम सन्नाटा छाया रहता है।
आप जैन तत्वों के और जैनेतर सिद्धान्तों के ज्ञाता-विद्वान हैं, फिर भी व्याख्यान के शब्दों में अपना पाण्डित्य भरकर श्रोताओं के कान में जबर्दस्ती नहीं ठंसते। आपकी भाषा सरल, सुबोध एवं सर्वसाधारण जनता के लिए होती है । गंभीर से गंभीर बात को सरल भाषा में प्रकट कर देना ही पाण्डित्य का प्रमाण है और यह प्रमाण श्री
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( ऋ ) जैन दिवाकरजी महाराज की विद्वत्ता का परिचायक है। • अन्य धर्म प्रचारकों की अपेक्षा आपकी प्रचार शैली भी कुछ विशेषता रखती है । धनी-निर्धन, राजा-रंक, उच्च जातीय-हीन जातीय, इत्यादि सभी प्रकार की जनता में आपने प्रचार किया है। राणा, महाराणा, राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार एक ओर
आप के परम पूत प्रवचन के पीयूष का पान करके अपने आप को धन्य मानते हैं, तो दूसरी ओर आप, समाज में घृणापान समझे जाने वाले, जातिमद के कारण ठुकराये हुए व्याक्तियों को भूल नहीं जाते। आप में जैन मुनि के योग्य साम्य भाव विद्यमान है।
आप चमारों, खटीकों और वेश्याओं तक को अपना पवित्र संदेश सुनाते हैं और उन्हें ऊँचा उठाने का प्रयत्न करते हैं । ऐसे लोगों में नैतिक एवं धार्मिक भावनाएँ भरते हैं। . कितने ही हिंसकों ने आप के उपदेश से आजीवन हिंसा का त्याग किया है, कितने ही मांस भक्षकों ने मांस भक्षण छोड़ कर अपना कल्याण किया है, कितने ही शराबियों ने शराब त्यागी है और भांग, गांजा, तमाखू आदि का भी त्याग किया है।
इस प्रकार मुनि श्री मानव-जाति की नैतिक एवं धार्मिक प्रगतिके लिए जो अन्य . समस्त प्रगतियों का मूल है-देवदूत का काम कर रहे हैं।
प्राणीजगत् में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है, यह सत्य है, मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्यों के सिवाय अन्य पशुओं अथवा पक्षियों में चतना ही नहीं है । अथवा मनुष्य को अन्य प्राणियों पर मनमाना अत्याचार करने का अधिकार है। जैसे मनुष्य को सुख दुःख का संवदन होता है, उसी प्रकार पशुओं को भी होता है। पशुओं में भी चेतना की अखंड धारा प्रवाहित हो रही है। मगर उन्हें व्यक्त भापा प्राप्त नहीं है । वे मानवीय भाषा में पुकार नहीं सकते और मनुष्य क कान उनकी पुकार सुन नहीं सकते। तब कीन उन्हें सहृदयता का दान देवे ?
पशुओं का करुण क्रन्दन कान नहीं सुन सकते, मगर हृदय की करुणा, अन्तः करण की संवेदना उसे अवश्य सुन सकती है । किन्तु वह करुणा एवं संवेदना बिरलों को ही प्राप्त होती है । जिन्हें वह प्राप्त होती है वह महामानव की महिमा से मंडित हैं और सच्चे अर्थ में वहीं मनुष्यता के अधिकारी हैं।
___ मुनि श्री की करुणा का प्रवाह बहुत विस्तृत और हृदय की संवेदना अतीव उग्र है। इसी से मुक पशुओं का चीत्कार उन्हें सुनाई दिया । उन्हान सोचा मनुष्य, पशुओं का वध करता है अर्थात बड़ा भाई अपने छोटे भाई के प्राणों का गाहक बना हुआ है। ऐसा करके बड़ा भाई छापने बड़प्पन को कलंकित करता है और यहां तक कि छटपन के योग्य भी नहीं रहता । मानव-समाज को इस कलंक से, घोर पाप से, अक्षम्य अपराध से बचाने की ओर महाराज श्री का ध्यान गया। उन्होंने अहिंसा का प्रभावशाली उपदेश
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दिया। यही नहीं, वरन् अहिंसा का व्यापक रूप से एवं स्थायी रूप से पालन कराने के लिए आपने राजपूताना के अनेकानेक राजाओं को, और ठाकुरों को भी इस भावना के लिए उद्यत किया । यह पहले ही कहा जा चुका है आपका उपदेश हृदय को प्रभावित करने वाला होता है । अतएव आप के सदुपदेश से बहुत से राजाओं एवं जागीरदारों ने अपने-अपने राज्यों में हिसाबंदी की स्थायी आज्ञाएँ जारी की हैं और आप को इस आशय की सनदें लिखदी हैं। उदयपुर के महाराणा साहब ने अनेक बार आपको सदु. पदेश देने के लिए आमंत्रित किया है । सं० १६६५ में श्री महाराणा साहब ने खास तौर से अपने कर्मचारी भेज कर उदयपुर में चातुर्मास करने की प्रार्थना की थी। आपने महाराणा सा० की प्रार्थना स्वीकार कर उदयपुर में चातुर्मास किया कई बार श्री महाराणाजी साहेब ने धर्मोपदेश श्रवण किया, जिसके फल-स्वरूप अनेक उपकार हुए । वर्तमान महाराणा सा० के पिताजी भी आप के भक्त थे और आप के उपदेश से उन्होंने भी जीव दया के लिए अनेक कार्य किये थे। मेवाड़, मालवा एवं मारवाड़ के अनेकों जागीरदारों को आपने जीवदया का अमृत पिलाया है और अमुक २ अवसरों पर उन्होंने जीव हिंसा की पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से बंदी की है । यहां विस्तार भय से इन सब बातों का और उन सनदों का उल्लेख नहीं किया जा सकता। जिज्ञासु पाठकों को 'आदर्श मुनि' आदर्श-उपकार पढ़ना चाहिए। 'आदर्श मुनि' लिखे जाने के पश्चात भी बहुत-सी ऐसी सनदें प्राप्त हुई हैं । तात्पर्य यह है कि मुनि श्री ने न केवल मानव-जाति पर, अपितु पशु पक्षी गण पर भी असीम उपकार किये हैं।
आपने अपना सम्पूर्ण जीवन ही धर्मोपदेश एवं जीवदया के प्रचार के निमित्त अर्पित कर दिया है । उच्च पदस्थ यूरोपियन टेलर साहब जैसे विदेशियों को भी उपदेश देकर आपने जीवदया की ओर आकर्षित किया है।
महाराजश्री ने उच्च-नीच, छोटे-बड़े, जैन-अजैन आदि का किसी भी प्रकार का भेदभाव न रखते हुए सभी श्रेणियों की जनता में भगवान महावीर स्वामी के अहिंसा एवं सत्य का प्रचार किया है । सभी पर आपने जैनधर्म की श्रेष्ठता का प्रभाव डाला है
और सभी को अपने उपदेश से आभारी बनाया है। मानव जाति के नैतिक एवं धार्मिक धरातल को ऊँचा उठाने में आपने जो भाग लिया है वह सर्वथा प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है।
आपके प्रचार का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत रहा है । जैन मुनियों की मर्यादा के अनुसार पैदल भ्रमण करते हुए भी आप ने भारत वर्ष के विभिन्न प्रान्तों में विहार किया है । मेवाड़, मालवा, मारवाड़ आदि राजपूताना के प्रान्त तो आपकी प्रधान विहार भूमि हैं ही, साथ में, आप ने दिल्ली, आगरा, कानपुर, बम्बई पूना अहमदाबाद लखनऊ प्रादि दूरवर्ती नगरों तक भ्रमण करके वहां की जनता को लाभ पहुंचाया है।
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आप के प्रचार में आप के मधुर स्नेहशील, और प्रसन्नतापूर्ण स्वभाव ने भी काफी सहायता पहुंचाई है । आपके चेहरे पर एक प्रकार की ऐसी प्रसन्नता नृत्य करती रहती है कि सामने वाला शीघ्र ही उसके वश हो जाता है । आप की प्रकृति बड़ी ही मिलनसार, सीधी-सादी और आकर्षक हैं ।
वक्तृत्व
वक्तृत्वशैली के आकर्षण ने आप को बहुत ही उच्च पद पर प्रतिष्ठित कर दिया है । आप प्रारंभ से ही-स्वभावसिद्ध वक्ता हैं । व्याख्यान मधुरतामय, सरलतामय, मनोरंजक परन्तु प्रभावशाली होते हैं । जिन्होंने महाराज श्री का एक भी व्याख्यान सुना है वह जानते हैं कि आप के श्रोता किस प्रकार चित्रलिखित-से रह जाते हैं । मुनिश्री का उपदेश सुन कर श्रोता यह समझने लगते हैं कि वे हमारे हृदय के रहस्यों को जानते हैं, वे हमारे दुःखों के निवारक और पापों से नाता है । आप ने बालविवाह, वृद्ध विवाह कन्या विक्रय, अहिंसा, धर्म, मांसाहार, मदिरापान, कुशीलसेवन, संगति, एकता, संग. ठन, क्षमा, दया, सत्य, क्रोध, मोक्षमार्ग, मनुष्यकर्त्तव्य, लोक सेवा, भक्ति, वैराग्य, अध्यात्म, प्रेम, ज्ञान, आत्मज्ञान, दृढ़ता, इच्छा शक्ति, कर्त्तव्यपालन, संसार की असारता, सामाजिक जीवन, दुराग्रह त्याग, सदाचार, विद्या, तपस्या का आदर्श, जीवन संग्राम में विजय, अतीत स्मृति, धार्मिक पतन, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियनिग्रह, पर्युषण पर्व और जैन धर्म, जैनधर्म की श्रेष्ठता, धर्म की तात्विक एवं व्यावहारिक मीमांसा, गार्हस्थ्य जीवन मन की महत्ता, सत्यनिष्ठा, इत्यादि इत्यादि अनेक सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, दार्शनिक और व्यवहारिक विषयों पर खूब गवेषणापूर्वक विवेचन किया है और कर रहे हैं एवं मानवजीवन को सर्वांग-सुन्दर बनाने का भगीरथ प्रयत्न किया है । आप के भाषण सुनकर अनेक कुमार्गगामी सुमार्गगामी बन गये हैं ।
आपका हृदय अत्यन्त उदार और सहिष्णु है । आपको किसी सम्प्रदाय विशेष से घृणा या द्वेष तो है ही नहीं, साथ ही आप सब को प्रेम दृष्टि से देखते हैं । यही कारण है कि आप के व्याख्यान में मुसलमान, ईसाई, आर्यसमाजी एवं वैदिक आदि भी खुत्र रस लेते हैं । आप के व्याख्यान प्राय: सार्वजनिक ही होते हैं । व्याख्यान में आप के उच्चतम और उदार आचार-विचार के चिह्न स्पष्ट रूप से अंकित पाये जाते हैं। आप प्रायः प्रतिदिन, घण्टों व्याख्यान देते हैं ।
विशाल अध्ययन
मुनिश्री की वक्तृत्वशैली पर कुछ कहा जा चुका है। एक अच्छे व्याख्याता के लिए और उसमें भी दैनिक व्याख्याता के लिए कितने अधिक वाचन, मनन और अध्ययन आवश्यक है, यह बात विद्वान लोग भलीभांति जानते हैं । विशाल अध्ययन के
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( ए ) बिना कोई सक्का नहीं बन सकता । तिस पर भी जैन मुनि की बात कुछ और ही है । उनके मुख से निकला हुआ एक-एक शब्द और वाक्य नयां- तुला होता है । इस प्रकार की सावधानी के लिए बहुत कुछ परिशीलन और अनुभव करना पड़ता है । मुनिश्री का अध्ययन ऐसा ही विशाल है । आपने जैन सूत्र- साहित्य का अध्ययन तो किया ही है, साथ में दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्यान्य ग्रंथों का, वैदिक सम्प्रदाय के वेदों और पुराणों का, यहां तक कि मुस्लिम सम्प्रदाय के कुरान शरीफ हदीस शरीफ, गुलि - स्तां, वोस्तां आदि का भी अध्ययन किया है। इस प्रकार आप स्वसमय और परसमय के अच्छे ज्ञाता हैं और इस कारण विधर्मियों पर भी आपका खूब प्रभाव पड़ता है ।
साहित्य सेवा
प्रायः प्रति दिन व्याख्यान देते हुए भी आपने साहित्य सेवा की ओर काफी ध्यान दिया है | आपकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। आप गद्य और पद्य दोनों के लेखक हैं। पद्य में आपने सैकड़ों धार्मिक भक्तिरस के भजन लिखे हैं, जिन्हें भक्त गण भक्ति से झूमते हुए पढ़ते हैं । पद्य ग्रंथों में मुक्तिपथ तीन भाग, आदर्श रामायण, आदर्श महाभारत आदि ग्रंथ प्रसिद्ध है आपकी गद्य रचनाएँ अनेक हैं । उनमें भगवान महावीर का आदर्श जीवन नामक विशाल और उत्कृष्ट ग्रंथ के अतिरिक्त भगवान्, पार्श्वनाथ जम्बू कुमार आदि ग्रंथ भी हैं । निर्ग्रथ - प्रवचन के संग्राहक और अनुवादक भी आप स्वयं ही है । इस प्रकार आपने संसार पर असीम उपकार किया है । भाषण, लेखन, आचरण-संभी आपका आदर्श है ।
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मुनि श्री चौथमलजी महाराज ने संसार के हितार्थ जो प्रयास किया है और कर रहे हैं, वह वास्तव में बहुमूल्य और अनुपम है । उससे जैन मुनियों के सामने एक नया आदर्श उपस्थित होता है । हम आशा करते हैं कि अन्य मुनिराज भी इन का अनुकरण करेंगे ।
मुनि श्री का परिचय यहां बहुत हीं संक्षेप में दिया गया है । जो पाठक विस्तृत जीवन चरित पढ़कर लाभ उठाना चाहें उन्हें 'आदर्श मुनि' नामक चरित हिन्दी या गुजराती में पढ़ना चाहिए । मुनिश्री के अमित गुणों को हमने यहां लिखने का निष्फल प्रयास किया है, यह सोचकर कि स्वभावतः उदाराशय मुनिराज हमें क्षमा प्रदान करेगें ।.
- प्रकाशक
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निर्ग्रन्थ प्रवचन-माहात्म्य
किंपाक फल बाहरी रंग-रूप से चाहे जितना सुन्दर और मनोमोहक दिखलाई पड़ता हो परन्तु उसका सेवन परिणाम में दारुण दुःखों का कारण होता है । संसार की भी यही दशा है । संसार के भोगोपभोग आमोद-प्रमोद, हमारे मन को हरण कर लेते हैं। एक दरिद्र, यदि पुण्योदय से कुछ लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है तो मानों वह कृतकृत्य हो जाता है। संतान की कामना करने वाले को यदि संतान प्राप्ति हो गई तो, वल वह निहाल हो गया। जो अदूरदशी हैं, बहिरात्मा हैं, उन्हें यह सब सांसारिक पदार्थ मूढ़ बना देते हैं। कंचन और कामिनी की माया उसके दोनों नेत्रों पर अज्ञान का ऐसा पर्दा डाल देती हैं कि उसे इनके अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। यह माया मनुष्य के मन पर मदिरा का सा किन्तु मदिरा की अपेक्षा अधिक स्थायी प्रभाव डालती है। वह वेभान हो जाता है। ऐसी दशा में वह जीवन के लिए मृत्यु का
आलिंगन करता है, अमर बनने के लिए ज़हर का पान करता है, सुखों की प्राप्ति की इच्छा से भयंकर दुःखों के जाल की रचना करता है । मगर उसे जान पड़ता है, मानों वह दुःखों से दूर होता जाता है।
अन्त में एक ठोकर लगती है। जिसके लिए मरे पचे खून का पसीना बनाया, वही लक्ष्मी लात मार कर अलग जा खड़ी होती है। जिस संतान के सौभाग्य का उपभोग करके फूले न समाते थे, आज वही संतान हृदय के मर्म स्थान पर हजारों चोटें मार कर न जाने किस ओर चल देती है । वियोग का वज्र ममता के शैल-शिखर को कभी-कभी चूर्ण-विचूर्ण कर डालता है। ऐसे समय में यदि पुण्योदय हुश्रा तो अांखों का पर्दा दूर हो जाता है और जगत् का वास्तविक स्वरूप एक वीभत्स नाटक की तरह नजर आने लगता है । वह देखता है-श्राह ! कैसी भीषण अवस्था है । संसार के प्राणी मृग मरीचिका के पीछे दौड़ रहे हैं. हाथ कुछ पाता नहीं। "अर्थान सन्ति न च मुञ्चति मां दुराशा" मिथ्या आकांक्षाएँ पीछा नहीं छोड़ती और श्राकांक्षाओं के अनुकूल अर्थ की कभी प्राप्ति नहीं होती। यहां दुःखो का क्या ठिकाना है ? प्रातःकाल जो राजसिंहासन पर आसीन थे, दोपहर होते ही वे दर-दर के भिखारी देखे जाते हैं। जहां अभी रंग रेलियां उड़ रही थीं वहीं क्षण भर में हाय हाय की चीत्कार हृदय को चीर डालती है। ठीक ही कहा है-"काहू घर पुत्र जाया काहू के वियोग आयो, काहू राग रंग काहु रोश्रा रोई परी है।"
गर्भधास की विकट वेदना, व्याधियों की धमा चौकड़ी, जरा-मरण की व्यथाएँ नरक और तिर्यंच गति के अपरम्पार दुख !! सारा संसार मानों एक विशाल भट्टी है और प्रत्येक संसारी जीव उसमें कोयले की नाई जल रहा है !.
वास्तव में संसार का यही सच्चा स्वरूप हैं। मनुष्य जब अपने अान्तरिक नेत्रों से संसार को इस अवस्था में देख पाता है तो उसके अन्तःकरण में एक अपूर्व
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ओ
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संकल्प उत्पन्न होता है । वह इन दुखों की परम्परा से छुटकारा चाहने का उपाय खोजता है । इन दारुण आपदाओं से मुक्त होने की उसकी आन्तरिक भावना जागृत हो उठती है । जीव की इसी अवस्था को 'निर्वेद' कहते हैं। जब संसार से जीव विरक्त या विमुख बन जाता है तो वह संसार से परे-किसी और लोक की कामना करता है-मोक्ष चाहता है।
मुक्लि की कामना के वशीभूत हुआ मनुष्य किसी 'गुरु' का अन्वेषण करता है । गुरुजी के चरण-शरण होकर वह उन्हें श्रात्मसमर्पण कर देता है। अबोध बालक की भाति उनकी अंगुलियों के इशारे पर नाचता है । भाग्य से यदि सच्चे गुरु मिल गए तब तो ठीक नहीं तो एक बार भट्टी से निकल कर फिर उसी भट्टी में पड़ना पड़ता है।
तव उपाय क्या है ? वे कौन से गुरु है जो श्रात्मा का संसार से निस्तार कर सकने में समक्ष हैं ? यह प्रश्न प्रत्येक प्रात्महितैषी के समक्ष उपस्थित रहता है। यह निग्रंथ-प्रवचन इस प्रश्न का संतोष जनक समाधान करता है और ऐसे तारक गुरुओं की स्पष्ट व्याख्या हमारे सामने उपस्थित कर देता है।
____संसार में जो मतमतान्तर उत्पन्न होते हैं, उनके मूल कारणों का यदि अन्वषण किया जाय तो मालूम होगा कि कषाय और अज्ञान ही इनके मुख्य बीज हैं। शिव राजर्षि को अवधिज्ञान, जो कि अपूर्ण होता है, हुश्रा । उन्हें साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कुछ अधिक बोध होने लगा। उन्होंने मध्यलोक के अंसख्यात द्वीप समुद्रों में से सात द्वीप-समुद्र ही जान पाये। लेकिन उन्हें ऐसा भास होने लगा मानों वे सम्पूर्ण ज्ञान के धनी हो गए हैं और अब कुछ भी जानना शेष नहीं रहा । बस, उन्होंने यह घोषणा कर दी कि सात ही द्वीप समुद्र हैं-इनसे अधिक नहीं। तात्पर्य यह है कि जब कोई व्यक्ति कुज्ञान या अज्ञान के द्वारा पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को पूर्ण रुप से नहीं जान पाता और साथ ही एक धर्म प्रवर्तक के रुप में होने वाली प्रतिष्ठा के लोभ को संवरण भी नहीं कर पाता तब वह सनातन सत्य मत के विरुद्ध एक नया ही मत जनता के सामने रख देता है और भोली भाली जनता उस भ्रममूलक मत के जाल में फंस जाती।
विभिन्न मतों की स्थापना का दूसरा कारण कषायोद्रेक है। किली व्यक्ति में कभी कषाय की बाढ़ पाती है तो वह क्रोध के कारण, मान-बड़ाई के लिए अथवा दूसरों को ठगने के लिए या किसी लोभ के कारण, एक नया ही सम्प्रदाय बना कर खड़ा कर देता है । इस प्रकार अज्ञान और कषाय की करामात के कारण मुमुक्षु जनों को सच्चा मोक्ष-मार्ग ढूंढ निकालना अतीव दुष्कर कार्य हो जाता है। कितने ही लोग इस भूल भूलैया में पड़कर ही अपने पावन मानव जीवन को यापन कर देते हैं और कई झुंझला कर इस शोर से विमुख हो जाते हैं।
'जिन खोजा तिन पाइया' की नीति के अनुसार जो लोग इस बात को भलीभांति जान लेते हैं कि सब प्रकार के अज्ञान से शून्य.अर्थात् सर्वज्ञ और कषायों को
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• समूल उन्मूलन करने वाले अर्थात वीतराग, की पदवी जिन महानुभावों ने तीव्र तपश्चरण और विशिष्ट अनुष्ठानों द्वारा प्राप्त करली है, जिन्होंने कल्याणपथ-भोक्षमार्ग को स्पष्ट रूप से देख लिया है, जिनकी अपार करुणा के कारण किसी भी प्राणी का अनिष्ट होना संभव नहीं और जो जगत को पथ-प्रदर्शन करने के लिए अपने इन्द्रवत स्वर्गीय वैभव को तिनके की तरह त्याग कर अकिञ्चन बने हैं, उनका बताया हुआअनुभूत-मोक्षमार्ग कदापि अन्यथा नहीं हो सकता, वह मुक्ति के मंगलमय मार्ग में अवश्य प्रवेश करता है और अन्त में चरम पुरुषार्थ का साधन करके सिद्ध-पदवी का अधिकारी बनता है। इन्हीं पूर्वोक्त सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, वीतराग और हितोपदेशक महानुभावों को 'निगंठ' निग्गंथ, या निग्रन्थ कहते हैं । भौतिक या श्राधिभौतिक परिग्रह की दुर्भद्य ग्रंथि को जिन्होंने भेद डाला हो, जिनकी आत्मा पर भज्ञान या कषाय की कालिमा लेशमात्र भी नहीं रही हो इसी कारण जो स्फटिक मणि से भी अधिक स्वच्छ हो गई हो, वही 'निम्रन्थ ' पद को प्राप्त करता है ।
प्रत्येक काल में, प्रत्येक देश में और प्रत्येक परिस्थिति में निग्रंथों का ही उपदेश सफल और हितकारक हो सकता है । यह उपदेश सुमेरु की तरह अटल, हिमालय की तरह संताप निवारक-शांति प्रदायक, सूर्य की तरह तेजस्वी और अज्ञानान्धकार का हरण करने वाला, चन्द्रमा की तरह पीयूष-वर्षण करने वाला और श्राह्लादक, सुरतरु की तरह सकल संकल्पों का पूरक, विद्युत की तरह प्रकाशमान् ,और श्राकाश की भांति अनादि अनन्त और असीम है । वह किसी देशविशेष या कालविशष की सीमाओं में श्रावद्ध नहीं है। परिस्थितियां उसके पथ को प्रतिहत नहीं कर सकती। मनुष्य के द्वारा कल्पित कोई भी श्रेणी, वर्ण-जाति पांति या वर्ग उसे विभक्त नहीं कर . सकता । पुरुष हो या स्त्री, पशु हो या पक्षी, सभी प्राणियों के लिए वह सदैव समान है-सब अपनी अपनी योग्यता के अनुसार उस उपदेश का अनुसरण कर सकते हैं। संक्षेप में कहें तो यह कह सकते हैं कि निग्रंथों का प्रवचन सार्व है, सार्वजनिक है, सार्वदेशिक है, सार्वकालिक हैं और सर्वार्थ साधक है।
निग्रंथों का प्रवचन आध्यात्मिक विकास के क्रम और उसके साधनों की सम्पूर्ण और सूक्ष्म से सूक्ष्म व्याख्या हमारे सामने प्रस्तु करता है। श्रात्मा क्या है ? श्रात्मा में कौन-कौन सी और कितनी शक्तियाँ है ? प्रत्यक्ष दिखलाई देने वाली श्रा. त्माओं की विभिन्नता का क्या कारण है ? यह विभिन्नता किस प्रकार दूर की जा सकती है ? नारकी और देवता, मनुष्य और पशु आदि की आत्माओं में कोई मौलिक विशेषता है या वस्तुतः वे समान-शक्तिशाली है ? श्रात्मा की अधस्तम अवस्था
क्या है ? आत्म विकास की चरम सीमा कहां विश्रान्त होती है ? श्रात्मा के अतिरिक्त परमात्मा कोई भिन्न है या नहीं? यदि नहीं तो फिन उपायों से-किन साधनाओं से श्रात्मा परमात्म पद पा सकता है ? इत्यादि प्रश्नों का सरल, सुस्पष्ट और संतोषप्रद समाधान हमें निग्रंथ-प्रवचन में मिलता है ? इसी प्रकार जगत क्या है ? वह अनादिया सादि ? नादि गहन समस्याओं का निराकरण भी हम निम्रन्थ-प्रवचन्न
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( श्रं )
मैं देख पाते हैं ।
हम पहले ही कह चुके हैं कि निर्ग्रन्थों का प्रवचन किसी भी प्रकार की सीमान से श्राबद्ध नहीं है । यही कारण है कि वह ऐसी व्यापक विधियों का विधान करता है जो श्राध्यात्मिक दृष्टि से अत्युत्तम तो हैं ही; साथ ही उन विधानों में से ऐहलौकिक सामाजिक सुव्यवस्था के लिए सर्वोत्तम व्यवहारोपयोगी नियम भी निक-लते हैं । संयम, त्याग, निष्परिग्रहता ( और श्रावकों के लिए परिग्रहपरिमाण ) श्रनेकान्तवाद और कर्मादानों की त्याज्यता प्रभृति ऐसी ही कुछ विधियां हैं, जिनके न अपनाने के कारण श्राज समाज में भीषण विशृंखला दृष्टिगोचर हो रही है । निर्ग्रन्थों ने जिस मूल आशय से इन बातों का विधान किया है उस श्राशय को सम्मुख रखकर यदि सामाजिक विधानों की रचना की जाए तो समाज फिर हरा-भरा, सम्पन्न, सन्तुष्ट और सुखमय बन सकता है । आध्यात्मिक दृष्टि से तो इन विधानों का महत्व है ही पर सामाजिक दृष्टि से भी इनका उसले कम महत्व नहीं है । संयम, उस मनो वृत्ति के निरोध करने का अद्वितीय उपाय है जिससे प्रेरित होकर समर्थ जन श्रामोद प्रमोद में समाज की सम्पत्ति को x स्वाहा करते हैं । त्याग एक प्रकार के बंटवारे का रुपान्तर है । परिग्रह परिमाण और भोगोपभोग परिमाण, एक प्रकार के आर्थिक साम्यवाद का आदर्श हमारे सामने पेश करते हैं; जिनके लिए श्राज संसार का बहुत सा भाग पागल हो रहा है । विभिन्न नामों के श्रावरण में छिपा हुआ यह सिद्धान्त ही एक प्रकार का साम्यवाद है । यहां पर इस विषय को कुछ अधिक लिखने का अवसर नहीं है-तथापि निर्ग्रन्थ-प्रवचन समाज को एक बड़े और आदर्श कुटुम्ब की कोटि में रखता है, यह स्पष्ट है । इसी प्रकार अनेकान्तवाद मतमतान्तरों की मारामारी से मुक्त होने का मार्ग निर्देश करता है और निर्ग्रन्थों की श्रहिंसा के विषय में कुछ कहना तो पिष्टपेषण ही है । श्रस्तु |
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निर्ग्रथ-प्रवचन की तासीर उन्नत बनाना है । नीच से नीच, पतित से पतित, और पापी से पापी भी यदि निर्ग्रन्थ-प्रवचन की शरण में आता है तो उसे भी वह अलौकिक झालोक दिखलाता है, उसे सन्मार्ग दिखलाता है और जैसे धाय माता गंदे बालक को नहला-धुलाकर साफ-सुथरा कर देती है उसी प्रकार यह मलीन से मलीन श्रात्मा के मैल को हटाकर उसे शुद्ध-विशुद्ध कर देता है । हिंसा की प्रतिमूर्त्ति भयंकर हत्यारे अर्जुन माली का उद्धार करने वाला कौन था ? अंजन जैसे चोरों को किसने तारा है ? लोक जिसकी परछाई से भी घृणा करते हैं ऐसे चाण्डाल जातीय हरिकेशी को परमादरणीय और पूज्य पद पर प्रतिष्ठित करने वाला कौन है ? प्रभव जैसे भयंकर चोर की आत्मा का निस्तार करके उसे भगवान् महावीर का उत्तराधिकारी चनाने का सामर्थ्य किसमें था ? इन सब प्रश्नों का उत्तर एक ही है और पाठक उसे समझ गए हैं । वास्तव में निर्मन्थ-प्रवचन पतितपावन है, शरण-शरण
× क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति समाज का एक एक अंग है अतः उसकी व्यक्तिगत कही जाने वाली सम्पति भी वस्तुतः समाज की सम्पत्ति है ।
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है, अनाथों का नाथ है, दीनों का बन्धु है और नारकियों को भी देव बनाने वाला है । वह स्पष्ट कहता है
अपवित्रः पवित्रो वा, दुस्थितो सुस्थितोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानम्, स वाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥
जिन मुमुक्षु महर्षियों ने श्रात्म हित के पथ का अन्वेषण किया है उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन की प्रशांत छाया का ही अन्त में आश्रय लेना पड़ा है । ऐसे ही महर्षियों ने निर्ग्रन्थ-प्रवचन की यथार्थता, हितकरता और शान्ति-संतोषप्रदायकता का गहरा अनुभव करने के बाद जो उद्गार निकाले हैं वे वास्तव में उचित ही हैं और यदि हम चाहे तो उनके अनुभवों का लाभ उठाकर अपना पथ प्रशस्त बना सकते हैं । क्या ही ठीक कहा है
" इणमेव निग्गंथे पावय सञ्च, अत्तरे, केवलए, संसुद्धे, पडिपुराणे, रोश्राउए, सल्लकत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे, निव्वाणमग्गे, खिजाणमग्गे, श्रवितहमसंदिद्धं सव्वदुक्ख पहीणमग्गे, इहट्टियाजीचा सिज्यंति, बुज्भंति, मुखंति परिणिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंत करेंति । "
यह उद्गार उन महर्षियों ने प्रकट किये हैं जिन्होंने कल्याणमार्ग की खोज करने में अपना सारा जीवन अर्पण करदिया था और निर्ग्रन्थ-प्रवचन के श्राश्रय में आकर जिनकी खोज समाप्त हुई थी । यह उद्गार निर्ग्रन्थ-प्रवचन-विषयक यह स्वरूपोलेख, हमें दीपक का काम देता है ।
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तो अनादिकाल से ही समय-समय पर पथप्रदर्शक निर्ग्रथ तीर्थकर होते. आप हैं परन्तु आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले चरम निग्रंथ भ० महावीर हुए थे। उन्होंने जो प्रवचन- पीयूष की वर्षा की थी, उसी में का कुछ अंश यहां संग्रहीत किया गया है । यह निर्यथ- प्रवचन परम मांगलिक है, आधि-व्याधि-उपाधियों को शमन करनेवाला, वाह्याभ्यान्तर रिपुत्रों को दमन करने वाला और समस्त इह-परलोक संबंधी भयों को निवारण करने वाला है । यह एक प्रकार का महान् कवच है। जहां इसका प्रचार है वहां भूत पिशाच, डाकिनी शाकिनी आदि का भय फटक भी नहीं सकता । जो इस प्रवचन- पोत पर श्रारूढ़ होता है वह भीषण विपत्तियों के सागर को सहज ही पार कर लेता है । यह मुमुक्षु जनों के लिए परम सखा, परम पिता परम सहायक और परम मार्गनिर्देशक है ।
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अकाराद्यनुक्रमणिका सांकेतिक शब्दों का खुलासा
( List of Addreviations) ... द-दशवैकालिक सूत्र, अ-अध्याय, गा=गाथा, जी-जीवा भिगम सूत्र,प्रक-प्रक- । रण. उद्दे-उद्देशा, उउत्तराध्ययन सूत्र, स्था-स्थानाङ्ग सूत्र, प्रश्न-प्रश्न व्याकरण सूत्र, समसमवायांग सूत्र, सू-सूत्र कृताङ्ग सूत्र, प्रथप्रथम, शाज्ञाता धर्म कथाङ्ग सुत्र, श्रा-श्राचाराङ्ग सूत्र, द्वि-द्वितीय, भ भगवती सुत्र, श-शतक । ... .
पृष्टांक
उद्गमस्थान अंग पञ्चंग संठा
३०२ (द. .गा. ५८) अगारी समाइ अंगाइ
२७८ (उ. प्र. ५ गा. २२) श्रइसीयं अइ उण्ड
(जी.प्रक.३उद्धे.३खा.१२) अकलेवरसेणिमूसि
४०१ (उ. अं. १० गा. ३५) अक्कोसेज्जा परेभिक्खू
६.१ ( उ. अ. २ गा. २७) अच्छीनिमिलियमेत्तं
६३८ (जी.प्रक.३उहे.३गा. ११) अज्भवसाण निमित्ते
१७४ (स्था. ७ व अट्टरूहाणि वजीत्ता
( उ. अ. ३४ गा. ३१) अट्ठ कम्माई वो च्छामि
(उ. श्र. ३३ गा. १) अट्टदुहट्टियचित्ता जह
( औपपातिक । श्रणसणमुणोरिया
५७४ (उ. अ. ३०. गा. ८) अणिस्सिो इहं लोए
२२२ (उ. अ. १० गा. ६२) अणु सटुंपि बहुविह
( प्रश्न. आश्रवद्वार. ) अणु सासिनो न कु
(उ. अ. १ गा. ६.) अराणाय या अलोमे य
१६७ ( सम. ३२ व ) अत्थि एगं धुवं ठाणं
६७७ (उ. प. २३ गा.८१ ) अत्थंगयं मि श्राइच्चे
(द. अ. ८ गा. २८) अक्खुव दक्खुवाहियं
(स.प्रथ.अ.२उहे.३गा.११) अनिलेण न वीए
३३७ । द. अ. ६ गा. ३) अन्तमुहुतम्मि गए
(उ. अ. ३४ गा. ६०) अपुच्छियो न भासेज्जा
४२१ (द. अ. ८ गा. ४८) अप्पाकत्ता विकत्ता य
(उ. अ. २० गा. ३७) अप्पा चेव दमे यम्बो
(उ. अ. .१ गा. १५) अप्पानई वेयरणी
(उ. अं. २० गा. ३६)
४५७
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पृष्टांक
. २२ '६५८ • १६६ ६७२
६७०
३६
२२४
७०३
अप्पाणमेव जुझाहि श्राप्पिया देव कामा अप्पुवणालगहरु अपं चाहिक्खिई अ भवितु पुरा वि भिक्खु अभिक्खणं कोहीहवद . अवले जह भारवाहए अरई गंडं विसूइया अरहंत सिद्ध पवयण अरिहंतो महदेवो अरूविणो जीवघणा अलोए पडिहया सि. अवलणवार्य च परंमु श्रवसोहियकंटगापहं अवि पांवपरिक्खेवी अवि से हालमसज्ज असच्चमोस सच्चंच असुरा नागसुवरण असक्खयं जीविय अह अदि ठाणहिं अह परणरसहि अणेहि अह पंचहि ठाणेहि अह सव्वदव्वपरिणा अहीणचिदियचं अहे वयह कोहेणं
उद्गमस्थान (उ. प. गा. ३५) ( उ. अ. ३ गा. १५) । (शा. अ. ८ ) (उ. अ. ११ गा. ११) (सू.द.श्र.२उद्दे.३गा.२०) (उ. अ. ११ गा. ७) (उ. प. १० गा. ३३) . (उ. अ. १० गा. २७) (शा. श्र. ८ ). ( आवश्यक ) ( उ. श्र. ३६ गा. ६७) । ( उ. अ. ३६ गा. ५७) (द. श्र..६ उद्दे. ३गा. (उ. प्र. १० गा. ३२) (उ. अ. ११ गा. ८) (आ.प्रथ. अ.३ उद्दे २) (द. अ. ७ गा. ३) . ( उ. श्र. ३६ गा. २-५) (उ. अ. ४ गा. १) ( उ. श्र. ११ गा. ४) (उ. श्र. ११ गा. १०) (उ. श्र. ११ गा. ३) ( . नन्दी सूत्र ) (उ. प. १० गा. १८) (उ. अ.-६ गा. ५४)
४२५
६७. ६१४
४१७ ६४५
४८५ ६०६ ६७१ ६.८
३८६ ४८०
:
३७६ ६६४ ५३४ ६७४
भाउकायमगो आरपाणिद्देसकरे . आयगुत्ते सया दंते आयरियं कुवियं आलो -धी जणाइराणे श्रालोयण निरवलावे आवरणिज्जाण दुरहं भावस्सयं अवस्सं
२६७ ,
(उ. प. १० गा..६) (उ. अ. १ गा. २) (सू.प्रथ.११०उद्देगा२१) (उ. प. १ गा. ४१) (उ. प्र. १६ गा. ११) ( सम. ३२ वां ) (उ. अ. ३३ गा. २०) ( अनुयोगद्वार सूत्र )
१६७ १११ ६१५
Page #25
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________________
श्रा
.
पृष्टांक
भासणगो ण पुच्छज्जा श्राहच्च चण्डालियं कट्ट
उगमस्थान (उ. प्र. १ मा. २२) (उ. अ. १ गा. ११)
४२८.
२७४
२५२
इंगाली, वरण, साड़ी ५६ इत्तरिमम्मि प्रा. इओ विद्धसमाणस्स इणमन्नं तु अन्नाणं इमं च मे अस्थि इम इस्ला अमरिस अतवो इहमेगे उमरणति
( श्रावश्यक सूत्र .) (उ. . १० गा. ३) (सू.प्रथ.श्र.१५ गा.१८) (सू.प्रथ. उद्दे. ३गा.५) (उ. प्र. १४ गा. १५ } (उ. प. ३४ गा. २३) (उ. प्र. ६ गा० ८)
५०४ ४५४
. ईसरेण कडे लोए
(सू. प्रथ. उद्दे. ३ गा. ६)
११०
११२
उदहीसरिसनामाणं उदहीसरिसनामाणं उदहीसरिसनामाणं उप्फालग दुट्टवाई य उवरिमा उपरिमा चेव उवलेवो होइ भोगेसु उवसमेण हणे कोहं
४५५
(उ. प. ३३ गा. १६) (उ,अ.३३ गा.२१) .( उ. श्र. ३३ गा. २३) (उ. प्र. ३४ गा. २६) ( उ.प्र. ३६ गा. २१४) (उ. अ. २५ गा. ४१) (उ. अ.5 गा. ३६)
६५४ ३०६ ४८३
३११ ७५
पए य संगे लमइक्कमित्ता एगतं च पुहत्तं एगया अचेलए होर एगया देवलोएसु एगे जिए जिया पंच एयाणि सोचा गरगा एयं खुणाणियो सारं पयं च दोसं खूणं एयं पंचविहं गाणं एवं खुजंतपिल्लण एवं ग से होइ समाहि एवं तु संजयस्लावि.
११४ ५४० ६४२ ५३१ ३३४
(उ. अ. ३२ गा. २७) (उ. अ.२८ गा.१३) (उ. श्र. २ . गा. २) (उ. प्र. ३ गा. ३) (उ, श्र. २३ गा. ३६) (सू.प्रथ.अ.५.२गा.२४) (सू.प्रथ.अ.१११ गा१०) (द. अ.६ गा. २६) (उ. प्र. २८ गा.५) ( आवश्यक सूत्र ) (सूःप्रथ.अ. १३गा.१४) (उ. प. १३ गा. १६)
२७४ ३४७ . ५७२
Page #26
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________________
एवं धर्मस्स विओ एवं भवसंसारे
एवं सिक्ख समावर
एवं से उदाहु अत्तर एस धम्मे धुवे णिच्चे
क
कणकुंडगं चद्दत्ताणं कपईया उजे देवा,
कप्पोवगां चारसहा
कम्माणं तु पहाणार कम्मा भणो होइ
कलद्दडमरचजए कलहं अभक्खाणं
कसि पि जो इमं लोग
कहं चरे कई चिट्ठे कह कपिडिया सिद्धा कामायुगिद्धिष्पभवं
कायसा वयसा मत्तो.
किरा नीला काऊ
किरा नीला य काऊ
कुप्पवयणपाखंडी
कुसग्गे जव श्रोस बिंदुए
कूद्दशं रुइन गों कोहे मागे माया, कोहो भाणो श्र णि
लोभे
कोदो पीई पाइ
ख
ajमेत्तसुक्खा हु सामेमि सव्वे जीवा
वित्तं वत्युं हिरण्यं च
ग
गंधे जो गिमि गलफ्खणोउ
( घ )
पृष्टांक
१५१
३८३
२७६
७०६
१६०
४२६
६५३
६५२
१३०
२६५
६७२
१७२
४७६
१७७
६६६
३१२
४६७
४५६
४५१
२३०
३७२
२६७
४३१
४६८
४८२
३०७
२७७
६६०
५६६
५५
उद्गमस्थान
(द. अं. ६ उद्दे. २ गा. २ )
(उ. अ. १० गा. १५ )
( उ. अ. . ५ गा. २४ )
( उ. प्र. ६. गा.
( उ. अ.
( उ. श्र.
२ गा. ५ )
( उ. अ. ३६ गा. २२१ )
( उ. अ. ३६ गा.२०६ )
( उ. अ. ३ गा. )
( उ. श्र. २५ गा.
३३ )
१३ )
१८)
१६ गा. १७ )
( उ. अ. ११ .गा.
(
आवश्यक सूत्र
( उ. अ.
( द. अ.
( उ. अ.
( उ. अ.
[ उ. श्र०
[ उ. अ.
[ उ. प्र.
| उ. प्र.
[ उ. अ.
८ गा.
४ गा.
३६ गा.
३२ गा.
)
१६ )
७ )
५ )
१६ )
५ गा. ७ ]
३३ गा. ५६ ]
३४ गाः ३ ।
२३ गा. ६३ ]
१० गा. २ |
1 उ. अ. १६ गा. १२ ] [ प्रज्ञापना भाषापद ]
[ द. अ. ८ गा. ४० ]
[ द. अ. ८ गा. ३८ ]
[ उ. अ. १४ गा. १३] [ आवश्यक सूत्र ] [ उ. अ. ३ गा. १७]
[ उ. अ. २८ गा. ५० ] [ उ. अ. ३२ गां. ६ ]
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________________
.
पृष्टांक २६७ ५२२
गत्तभूमणमिटुंच गारं पि अभावले गुणाणमासो दवं गोयकम्मं तु दुविह
उगमस्थान्त [उ. प्र. १६ गा. १३
सू.प्रथ.अ.२उद्दे.३मा.१३) (उ, श्र. २८ गा. ६]
उ. अ. ३३ मा. १४]
१०६
JLatai
८६
चरिदियकायमगओ चक्खुमचक्खू श्रोहिस्स चन्दासूराय नक्खत्ता चरित्तमोहणं कम्यं चिच्चा दुपयं च चउ चिच्चाण धणं च भारियं चित्तमंतमचित्तं वा चीराजिणं नगिणिणं
[उ. अ. १० गा. १२ । उ. अ. ३३ गा. ६] [उ. अ. ३६ गा. २०७१ [उ..श्र, ३३ गा. १० [उ. अ. १३ गा. २४ [उ. अ. १० गा. २६३ । द. न. ६ गा. १४ [उ. अ. ५ मा. २१ ॥
amad J
.
१२१ ३६५ ३२८
-a
छिदंति वालस्ल खुरेण
(यू.प्रथ.अ.५उद्दे.पगार२)
६४० ३३३
४३० ४६३
जं जारिसं धुव्वमकासी जंपिवत्थ व पायं वा जं मे बुद्धाणुलासंति जणवयसम्मयठवणा जणेण सद्धि होक्खामि जमिणं जगती पुढो जयं चरे जयं चिढ़े जरा जाव न पोडे जरामरणवेगणं जह जीवा वझति जह णरगा गम्मति जह मिउलेवालि जह रागेण कडाणं. जहा किंपागफलाएं जहा कुक्कुडपोनस्स जहा कुम्मे सभंगाई अहा कुसग्गे उदगं
सू.प्रथ.श्र.५उद्दे.२गा २३] [६. अ. ६ गा. २० ] | उ. अ. १ गा. २७ [ प्रशापना भाषापद । { उ. अ. ५ गा.७] [सू.प्रथ.श्र.२उद्दे.गा.४] { द. अ. . ४ गा. ८] [ द. अ. ८ मा. ३६] [उ. प्र. २३ गा. ६८)
औषपातिक सूत्र
१७८
t
१५६ १६४ १६२ १७६
Au
३०८ ३०० ५३. ६५६
[ज्ञा. श्र. ६ | औपपातिक सूत्र [उ. अ. १६ गा. १८] दि . श्र. ८ मा. ५४ ) [सू.प्रथ.अ.८उद्देश्मा .१६] [उ. अ. ७ गा. २३ ] -
Page #28
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________________
( च
) पृष्टांक
२६२
४२६
२०६ ६७३ ५०१ ३५२ १५७
२५१
२०७ २८६
जहा दखाणं बीयारह जहा पाम जले जायं जहा बिरालावसहस्स जहा महातलागरस जहा य अंडप्प भका बला जहा सुरणी पूइकरणी जहा सूई सचा जहा हिअम्गी जल जह लीहो व मिश्र जाट सद्धाए निखंतो जा जा वच्चइ रयणी जा जा वञ्चइ रयणी जातिं च वुद्धिं च इहज्जा जावंतऽविजापुरिला जाय रूचं जहामटुं जा य सञ्चा श्रवत्तव्बा जिणवयणे अणुरत्ता जीवाऽजीवा य बंधो यः
प्रावि अपं वसुमंति जे. इह सायागु गानरा जे केइ बाला रह जीविया जे के सरीरे सत्ता जे कोहणे होइ जगट्ट ज गिद्धे काम भोएसु जे न बंदे न से कुप्पे जे परिभर्वा परंजणं. जे पावकम्मेहि धणं जे य कंते पिए भोए जे लक्षणं सुविण पर्ड जोसि तु विउला सि जो समो सवभूएस जो सहस्सं सहस्साएं
४०३
उद्गमस्थान दिशाश्रुतस्क.अ.५गा.१३) [उ, श्र. २५ गा. २७/
उ. अ. ३२ गा. १३ । [उ. अ. ३० गा. ५1 ( उ. अ. ३२ गा. ६] [उ. श्र. १ गा. ४। | उ.श्र.२६, बोल ५६ वां] (द.अ. ६ उद्दे. १गा.११) । उ. श्र. १३ गा. २२ । [द. श्र. ८ गा. ६१j । उ. प. १४. गा. २४] [ उ. श्र.-१४ गा, २५। . [श्रा. अ. ३ उद्दे. २] [ उ. प्र. ६ गा. १ { उ. श्र, २५ गा. २१] . [द. श्र. ७ गा. २) { उ. श्र. ३६ गा. २५८] [उ. श्र, २८ गा. १४) [सू.प्रथ.श्र.१३उद्दे.१गा-]]
सू.प्रथ.अ.२उद्दे.३गा.४] [स.द्वि.श्र.५ उद्दे.रेगा.३) [उ. अ.. ६ गा. ११] [सू.प्रथ.अ.१३उद्देगा .५] [उ. अ. ५ गा. ५ । [द.अ.५ उद्दे. २गा.३०] [सू.प्रथ.अ.२उद्दे.१गा.२] [उ. श्र. ४ गा. २] [द. श्र. २ गा. ३] . [उ. प्र. २० गा. ४५ ] [उ. प्र. ७ गा. २१ ] [अनुयोगद्वार सूत्र ) [उ. अ. ६ गा. ३४ )
२४४
३२ ४७४
६३० २१५ ४७३ ४६०
५१७ ६४८ ५६७ ६१० ६५६ ६२४
لا لا لا لس
२०
५१२
उहरा वुढाय पासह
[सू.प्रथ.अ.२उहे ना.२)
Page #29
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________________
.
पृष्टांक ५३६
उद्गमस्थान (सू.प्रथ. अ. १३ गा.१८
डहरे य पाणे बुड्ढेय
णचा णमह मेहावी णरगं तिरिक्खजोणिं रणो रक्खसी गिझि
(उ, अ. १ गा. ४५ ) ( औपपातिक सूत्र } (उ. प्र. ८ गा. १८)
तं चेव तविमुक्कं तो पुट्टा भायंकण तो से दंडं समारभा तत्थ ठिच्चां जहाठाणं तत्थ पंचविहं नाणं तम्हा एयासि लेसाणं तवस्सियं किसं दंतं, तवो जोई जीवो जोइठाणं तहा पयगुवाई य तहिश्राणं तु भावाणं तहेव कारणं काणे त्ति तहेव फरुसा भासा तहेव सावजणुमायणी ताणि ठाणाणि गच्छंति तिराणो हुसि अण्णवंभ तिरिणय सहस्सा सत्तं स तिविहेण वि पाण तिव्वं तसे पाणिणो था तेइंदियकायमइगो तेउकायमइगो . तेऊ पम्हा सुक्का तेणे जहा संधिमुहे ते तिप्पमाणा. तलसं तेत्तसिं सागरोवम
२७६ ४६८ ४६५ ६६० १८७ ४६५' २६१ १८१ ४५६ २३७ ४१८ ४१८ ४१६ २८१ ४०० ६२६ ५२५ ६३१ ३८१ ३७६ ४६१
(उ. प्र. ५ गा. ११) ( उ. प्र. ५ मा. ८ ) ( उ. अ. ३ गा. १६ ) ( उ. आ. २८ बा. ४) (उ. प्र. ३४ गा. ६१ ) ( उ. अ. २५ गा. १२) (उ. अ. १२ गा. ४४) (उ. प्र. ३४ गा. ३०)
श्र. २८ मा. १५) (द. श्र. ७ गा. १२.) ( द. अ. ७ गा. ११ ) ( द. अ. ७ गा. ५४) ( उ. अ. ५ गा. २८) ( उ. अ. १० गा. ३४) ( भ. श. ६ उद्दे ७) (सू.प्रथ.अ.२उद्दे३गा.२१) (सू.प्रथ..५उद्दे.गा.४) (उ. प. १.० गा. १२) ( उ. श्र.१. गा. ७) (उ. श्र. ३४ सा. ५७) (उ. अ. ३ गा. ३) (सू.प्रथ.अ.५उद्देश्गा .२३) (उ. प्र. ३३ मा. २२)
११२
दसणवयसासाइय पोस दसणविणए श्रावस्सए दसहा उ भवणवासी
२७५ १६६ ६४५
{ आवश्यक सूत्र ) ( ज्ञा. अ. ८ ) (उ. प्र. ३६गा. २०४।
Page #30
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________________
( च
) पृष्टांक
६६६
२६२
३०१
४२६ २०६ ६७३ ५०१ ३५२ १५७
२०७
२८६
जहा दवाणं वीया जहापामं जल जायं जहा बिरालावसहस्सा जहा महातलागल्स जहा य अंडप भवा बला जहा सुरगी पूइकरणी जहा सूई ससुचा ল। দ্বিস্ব जदेह लीहो व मिश्र जाए सद्धाए निखंतो जा जा वचाइ रयणी जा जा वच्चइ रयणी जाति च वुद्धिं च इहजः जावंतऽविजापुरिला जाय रूवं जहामढे जा स सञ्चा अवत्तवा जिएवयणे अणुरत्ता जीचाऽजीवा य वंधो य ले प्रावि अपं वसुमति जे. इह सायागु गानरा जे के याला रह जीविया जे के सरीरे सत्ता जे कोहरो होह जगट्ट जे गिद्धे काम भोएसु जेन बंदे न ले कुप्पे जे परिभवई परंजएं जे पावकम्मेहि घणं जे य ते पिए भोए जे लफ्नणं सुविण पर्ड जोसि तु विउला सि जो समो सवभूएस जो सहस्सं सहस्सा
४०३ २४६
३२ ४७४
उगमस्थान दिशाश्रुतस्क.अ.५गा.१३) [उ, अ. २५ गा. २७ ॥ | उ. अ. ३२ गा. १३ । [उ. अ. ३० गा. ५ [उ. श्र. ३२ गा.. ६] [उ. अ. १ गा. ४। । उ.अ.२६, बोल ५६ वां] । द.अ.६ उद्दे. १गा.११ । । उ. श्र. १३ गा. २२ | [द. श्र. ८ गा. ६१ । उ. श्र. १४ गा. २४] | उ. प्र..१४' गा, २५ . (श्रा. अ. ३ उहे. २] [उ. प्र. ६ गा. १। | उ. श्र. २५ गा. २१] . [ द. अ. ७ गा. २) ( उ. अ. ३६ गा. २५८] [उ. श्र. २८ गा. १४) [सू.प्रथ.अ.१३उद्दे.१गा
सू.प्रथ.अ.२उद्दे.३गा.४] [स.द्वि.अ.५ उद्दे.गा.३) [उ. अ. ६ गा. ११] [सू.प्रथ.अ.१३उद्देगा.५] [उ. अ. ५ गा. ५ [द.अ.५ उद्दे. २गा.३०) [सू.प्रथ.अ.२उद्दे.१गा.२] [उ. श्र. ४ गा. २] [द. श्र. २ गा. ३] . [उ. श्र. २० गा. ४५ ] [उ. अ, ७ गा. २१ ] [ अनुयोगद्वार सूत्र [उ. श्र. ६ गा. ३४)
६३०
४६०
५१७ ६४८
६१० ६५६ ६२४ २०
डहरा बुड्ढाय पासह
५११
[सू.प्रथ.श्र.२उद्देगा.२]
Page #31
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________________
· पृष्टांक ५३६
उद्गमस्थान (खु.प्रथ. अ.१३ गा.१८ ।
डहरे य पाणे बुड्ढेय
६७५
णचा णमह मेहावी गरगं तिरिक्खजोर्णि णो रक्खसी गिझि
(उ, अ. १ गा. ४५) ( औपपातिक सूत्र } (उ. श्र. ८ गा. १८)
३०३
१७६ ४६८ ४६५ ६६० १८७ ४६५
२६१
तं चैव तविमुक्कं तो पुट्ठा प्रायकेण तो से दंडं समारभा तत्थ ठिच्चां जहाठाणं तत्थ पंचविहं नाणं तम्हा एयासि लेसाणं तवस्सियं किसं दंतं, तवो जोई जीवो जोइठाणं तहा पयगुवाई य तहिाणं तु भावाणं तहेव काणं काणे त्ति तहेव फरुसा भासा तहेव सावजणुमोयणी ताणि ठाणाणि गच्छंति तिराणो हुसि अण्णवंभ तिरिणय सहस्सा सत्तं स तिविहेण वि पाण तिव्वं तसे पाणिणो था तेइंदियकायमइगो तेउकायमइगो . तेऊ पम्हा सुक्का तेणे जहा संधिमुहे ते तिप्पमाणा तलसं तेत्तसं सागरोवम
१८१ ४५६ २३७ ४१८ ४१८ ४१६ २८१ ४०० ६२६ ५२५ ६३१ ३८१ ३७६ ४६१
(3. अ. ५ गा. ११) (उ. अ. ५ मा. ८ ) (उ. अ. ३ ना. १६ ) (उ. प्र. २८ मा. ४) (उ. अ. ३४ गा. ६१) (उ. प्र. २५ गा. १२) (उ. अ. १२ गा.४४)
उ. प्र. ३४ गा. ३०) उ. श्र. २८ गा. १५)
द. अ. ७ गा. १२ (द. अ. ७ गा. ११ ) ( द. अ. ७ गा. ५४ ) ( उ. . ५ गा. २८) (उ. अ. १० गा. ३४) ( भ. श. ६ उहे ७) (सू.प्रथ.श्र.२उद्दे३गा.२१, (सू.प्रथ..५उद्दे.गा.४) (उ. प्र. १.० गा. १२) (उ. प. १. गा. ७) (उ.श्र. ३४ गा. ५७) (उ. अ. ३ गा. ३) (सू.प्रथ.अ.५उद्देश्गा .२३) ( उ. प्र. ३३ मा. २२)
३१६
(
आवश्यक : सूत्र )
दसणवयसामाइय पोस दंसरणविणए श्रावस्लए दसहा उ भवणवासी
( उ. अ. ३६गा. २०४)
Page #32
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________________
पृष्टांक १०८ ર૭૭
दाणे लाभे य भोगे य दोहाउ या इढि मंता दुक्ख हयं जस्स न होई दुपरिच्चया इमे कामा दुमपत्तए पंडुए जहा दुल्लहा उ मुहादाई दुल्लहे खलु माणुसे भके देवदाणवगंधवा देवा चउव्विहा वुत्ता देवाण मणुयाणं च देवे नेरइए अइगो
३०८ ३६६ २८३ ३७४ ३१३ ६४४ ४०६ ३८३
उद्गमस्थान (उ. श्र, ३३ गा. ५) (उ. अ. ५ गा. २७) ( उ. अ. ३२ गा. ८) (उ. अ. ८ गा. ६) (उ. अ. .१० गा.१) ( द.अ.५ उद्दे.१गा.१००) ( उ. अ. १० गा. ४) (उ. अं. १६ गा. १६) (उ.श्र, ३६ गा.२०३ ) (द. अ. ७ गा, ५.) (उ. श्र. १० गा. १४).
५२
धम्मे हरए बंभे धम्मो अहम्मो श्रागार धम्मो अहम्मो श्रागार धम्मो मंगलमुकिट्ठ धम्म पि हु सद्दतया धिईमई य संवेगे
(उ. श्र. १२ गा. ४६) . - (ऊ अ. २८ गा. ७)
(उ. श्र. २८ गा. ८ ) (द. श. १ गा. १) (उ. प. १० गा. २०) . ( सम. ३२ वां )
१४२
३८
१६७
५३५ २१३ ३४६
११६
२४३
११
न कम्मुणा कम्म स्वति न चित्ता तायए न तस्स जाई व कुलं व न तस्स दुक्खं विभयंति नत्थि चरितं सम्मत्तकि न तं श्ररी कंठछेचा करेइ. न पूयणं चेव सिलोय न य पावपरिक्खेवी न वि मुंडिएण समणे न सो परिग्गहो वुत्तो न हु जिणे अज्ज दिसई नाणस्ससव्वस्स पगा. नाणसावरणिज्ज नाणण जाणई भावे. नाणं च दंसणं चेर,
३४६ ६७२ २६३ ३३३ ३६६ ३६५
(सू प्रथ.अ.१२गा.२५) (उ. श्र..६ गा.१०॥ (सू. प्रथ.श्र.१३गा.११) (उ. अ. १३ गा.२३) (उ. श्र. २८ गा. २६) (उ. श्र. २० गा. ४८) (सु.प्रथ.अ. १३गा.२२ ) (उ. प्र. ११ गा.१२) (उ. अ. २५ गा. ३१ ) (द. श्र. ६ गा. ३१), . (उ. अ. १० गा. ३१) (उ. श्र. ३२ गा. २) • (उ. प्र. ३३ गा, २)
(उ. अ. २८ गा. ३५) (उ. प्र. २८ गा. ३)
६६३ ६६२
Page #33
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________________
पृष्टांक
.
५५ १०३ २८७
नाणं च सणं चेव . नादसणिस्स नाणं नामकम्मं च गोर्य च नामकम्मं तु दुविह नासीले न विसीले श्र नाणावरणं पंच विहं निदा तहेव पयला निद्ध धसपरिणामो निम्ममो निरहंकारो निव्वाणं ति अबाई ति निस्सगुवएलरुई निस्संकिय निखिय नीयावित्ती अचवले नेरइयतिरिक्खाउं नेरइया सत्तविहा नो इंदियग्गेझ अमुत्त नो चेव ते तत्थ मसी
४५३ २१८
उदमस्थान (उ. प्र. २८ मा. ११) (उ. अ. २८ मा. ३०} (3. अ. ३३ गा. ३) (उ, श्र.३३ गा. १३) (उ.. ११ मा. ५)
श्र. ३३ मा. ४) (उ. श्र. ३३ गा. ५) (उ, श्र. ३४ . २२ ) (उ. श. १० मा. ८०) (उ. प्र. २३ मा. ८३ ) ( उ. अ. २८ रहा. १६ ) (उ. प्र. २८ बा. ३१ } (उ. अ. ३४ मा. २७ } (उ. प्र. ३३ व्हा. १२) (उ.पा. ३६ गा. ९४६) ( उ. अ. १४ मा. १६) (सू.प्रथ..५उहे.१मा.२६)
२३८
२४६
६२८
.
४५३ ३८२ २३
१६७
पंका भा धूमा भा पंचासवपवत्तो पंचिंदिकायमइगो पंचिदियाणि कोहं पइराणवाई दुहिले पच्चजाणे विउस्लगे पच्छा वि ते पयाया पडिणीयं च बुद्धाणं पडंति नरए घोरे पढमं नाणं तनो दया परणसमत्ते सया जए पवणुकोहमाणे य परमत्थसंथवो वा परिजूरइते सरीरयं पाणाइवा मलियं . पाणिवहमुलावाया
४२६ ६१२ २०२
(अ. अ. ३६ भा. १५७ ) (उ. . ३४ गा. २१) (उ. अ. १० मा. १३ (ड. श्र. ६ मा. ३६ } (3. श्र. ११ गा. ६) ( सस० ३२ वां है
द.. अ. ४गा . २९) (उ. अ. १ मा. १७) (उ.. अ. १८ गा. २५ } (द. आ.४ गा... १० दसू.प्रथ.अ.२उद्दे.२ गा.६) (उ. अ. ३४. मा. २६) (उ. प. २८ गा. २८) (उ. प्र. १० मा. २१) ( आवश्यक सूत्र ) (उ. प्र. ३० गा.२)
४५६
३८६
५७१
Page #34
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________________
पृष्टांक
रचय
पायच्छित्तं विणश्रेष्ठ पियधस्मे दधम्मे पिलाय भूय जक्खाय घुटविकायमइगो धुढविं न जरोन खणावए पुढवी साली जवा चेक यूयणठ्ठा जलोकामी
६४७ ३७५
उद्गमस्थान (उ. प. ३० गा. ३०) (उ. श्र. ३४ गा. २८) (उ. प्र.३६ गा. २०६). (उ. श्र. १. गा. ५) (द. श्र. १० गा. २) (उ. अ. ६ गा. ४६) (द. श्र.५उद्दे.२गा. ३५ ॥
३३६
४७५
फासस्सलो गिद्धिमुह
५६७
( उ. अ. ३२ गा. ७६)
२८१
६१२
वहिया उड्ढमादाय बहुभागमविण्यात बाला किडा य मंदा या बालाणं प्रकामं बेइंदिनकायमगो
१३६ ६०३
(उ. प. ६ गा. २३) (उ. अ. ३६ गा. २६१) ( स्था० १० वां ) (उ. प. ५ गा. ३) (उ. प. १० गा.१०)
भयंता अंकरिता य भावणाजोग सुद्धप्पा भोगामिल दोस विस
( उ. श्र, ६ गा. ६). (सू. प्रथ. श्र.१५ गा.५) (उ. प. ८ गा. ५)
३०५
६५४ ५४४
६५२ ३३६ १६२
मझिमा मझिमा चेद मणो साहसिनो सीमो महब्बए पंच अणुव्वए य महासुपका सहरुलारा महुकारतमा बुद्धा माणुस्सं च अणिञ्चं माणुस्सं विगहं लधु, मायाहि पियाहि लुप्पह माहणा समस्या एगे मिच्छादंसगरत्ता मित्तव नाहवं होई मुसावाओ य लोगम्मि मुहत दुपवा उ हति
(उ. प्र.३६ गा. २१३) (उ. श्र. २३ गा. ५८) (सु.द्वि. श्र.६ गा.६) (उ.श्र.३६ गा.२१०) (द. अ. १ गा. ५) । औपपातिक सूत्रं ) ( उ. श्र. ३ गा. ८) (सू.प्रथ.श्र.२उद्देश्गा .३) (सू. प्रथ. उद्दे ३गा.८) (उ. श्र.३६ गा. २५५) (उ. प. ३ गा. १८) (६. श्र. ६ गा. १३) (द.श्र. ६ उद्दे३ गा.६)
२४७
४२४
Page #35
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________________
पृष्टांक ३३०
मूलमेय महम्मस्ल मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स मोक्खभिकंखिस्स व मारण मोहणिज्जं पि दुविहं .
उद्गमस्थान (द, श्र. ६ गा. १७ } (द. श्र. ६ उद्दे२ गा.२ ॥ ६ उ. अ. ३२ गा. १७) (उ, अ. ३३ मा. ८)
३१०
ह
रसेसुजोगिद्धिमवेइतिध्वं रागीय दोसोवि य कम्म रूवेसुजोगिद्धिमुवेइ तिव्वं रुहिरे पुणो वच्चसमुस्लि
(उ. प. ३२ गा.६३) (उ. श्र. ३२ गा. ७ (उ. प्र. ३२ गा. २४) (सू.प्रथ.न.५उद्देश्गा .१६)
६३६
३८६ ३८८
लखूणवि धारियत्तसं लभ्रूणवि उत्तमं सूई लणवि माणुसत्तणं लाभालामे सुहे दुक्खे लोभस्सेसमणुप्फासो
(उ. प्र. १० गा. १७) (उ. प. १० गा. ११) (उ., अ. १० गा. १६) (उ. श्र. १६ गा...) (द. अ. ६ मा. १६)
व
३७७
५६५
वके वंकसमायरे घणस्सइ कायमइगो वत्तणालक्खणो कालो वत्थगंधमलंकार वरं मे अप्पा दंतो चाउक्काय मइगओ चित्तण ताणं न लभे पमत्ते विरया वीरा समुष्टिया विसालिसेहिं सीलेहिं चेमाणिया उजे देवा वेमायाहि सिक्खाहिं चेयणियं पि दुविहं चोच्छिद लिणेहमपणे
१८६
(उ. प्र. ३४ गा. २५, ( उ. अ. १० गा. ६) (उ. अ. २८ गा. १०) (द. श्र. २ गा. २0 ( उ. अ. १ गा. १६) (उ. अ. १० गा.८) (उ. प. ४ गा. ५) (स.प्रथ.अ.२ उद्देरगा.१२) (उ. प्र. ३ गा. १४) (उ. श्र. ३६ गा. २०८) (उ. प्र. ७ गा. २०.) (उ. प. ३३ गा. ७) (उ. प. १० गा. २८)
६५८
१३४
२.६३
.
संगाणं य परिराणाया संति एरोहिं भिक्खूहि . संज्झमाणे उ गरे
૨૪ ५३३
( लम, ३२ वां ) (उ. अ. ५ गा. २०) (सू.प्रथ१०उहेगा.२१)
Page #36
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________________
पृष्टांक
५०७
५२७
५६४
४४७
४२२
६०७ ६७६ ५६५
१०२
५-१८ २६५ ५६८
संबुज्झह र्कि न बुज्झत संवुमह जंतबो माणु खरंभसमारंभे प्रारंभ संसारमावरण परस्म सबहिं परियापति 'सकासहेर्ड प्रास्ता सचा तहव मोला य सत्थगहरणं विसभरखरण स देवगन्धव्व मगुस्सफू सद्देसु जा गिद्धिमुह सधयारउजोओ संमणं संजयं दंलं समरेसु अगारे समयाए समणो होई समाइ पहाए परिव्ययंत सस्मतंचव मिउछतं सम्महंसरगरत्ता अनियागा सयंभुणा कडे लोए सरागो वीयरागोवा लरीरमाहु नावत्ति सल्लं क्षामा विसं कामा सवणे नाणे विरणाणं सध्यत्व सिद्धगा. चेक सचं तो जाणइ पासपः सव्वं विलंविरंगी सव्वेजीवा वि इच्छंतिः सारा सूइ गाविं सायसवेसए व श्रारंभर सावज्ज जोनविरई. साहरे हत्थपाएय सुशा से नरए ठाया लुकमूले जहा रुक्के सुत्तेसु चावी पडिबुद्ध सुल्चएरुप्पल उपवया
उद्मस्थान (सू.प्रथ.अ.२उहे.गा) (स्तु.प्रथ.श्र.७उद्देश्गा .११) . ( उ. अ. २४ गा. २१.) . ( उ. अ. ४ गा. ४) (सू. प्रथ, उद्दे. ३ गा." (द. अ. ६ उद्दे. ३ गा.६। (उ. प्र. २४ गा. २०) (उ, श्र, ३६ गा.२६६ ) . ( उ. श्र. १ गा. ४८) (उ. अ. ३२ गा. ३७) (उ. अ. २८. गा. १२) (उ. अ. २ गा. २७) ( उ. अ. १ गा. २६) (उ. प. २५ गा ३२)
द. अ. २'गा. ४] [उ. अ. ३३ गा. ६) [उ. अ. ३६ गा. २५६] .
सू.प्रथ, उद्दे. ३ गा. ७; . [उ. प्र. ३४ गा. ३२) [ड. श्र. २३ गा. ७३] । उ. अ. ६ गा. ५३ ] [ भ. श. २ उ. ५.] [उ. अ. ३६ गा. २१५ ] [उ. श्र. ३३ गा. १०६] [उ.अ. १३ गा. १६j.
[द. अ. ६ गा. ११ । . [ द. अ. ५ उहेर गा.१२)
[उ. श्र. ३४ गा. २४] । अनुयोगद्वार सूत्र. ]
सू.प्रथ..उहे.१गा.१७] [उ. श्र. ५ गा. १२]
दशाश्रुतस्सवअगा१४) [उ.. ४ गा. ६] [उ. अ. गा. ४८
४५७
६१३ ६५४
.
५०० ३२२ ५६६ ४५४ ६२३ ५३१ ४६८ ६६७
४७७
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________________
पृष्टांक
२०४
सोचा जाणा कल्लाणं, सो तवो दुविहो वुत्तो । सोलसविह भेएणं सोही उज्जुश्रभूयस्स .
५७४ १०० १५८
لالا لسا
उद्गमस्थान [द. अ. ४ गा. ११] [उ. अ. ३० गा. ७) [उ. अ. ३३ गा. ११) [उ. प्र. ३ गा. १२]
४६६ ३०२
हिंसे बाले मुसावाई हत्थ पायपर्दिछिन्नं हत्थागया इमे कामा हियं विगयाभया बुद्धा हेट्ठिमा हेट्टिमा चेव
८
४६२
[उ. अ. ५ गा. ] [उ. प्र. ८ गा. ५६] [उ. अ. ५ गा. ६) [उ. प्र. १ गा. २६] [उ. प्र. ३६ गा. २१२]
६६६
६५४
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________________
श्री नियन्ध प्रवक्न
विषयानुक्रम
प्रथम अध्याय षद्रव्य निरूपण । ४ कर्म की व्यापकता
५ कर्म पौद्गलिक हैं १ निर्ग्रन्थ प्रवचन का अर्थ २ श्रात्मतत्त्व विचार
६ कर्मों के क्रम की उपपत्ति .
७ कर्मों का स्वरूप ३ श्रात्मसिद्धि
८ कर्मों की विभिन्न शक्तियां ४ आत्मा का कर्तृत्व
ज्ञातावरण कर्म का निरूपण ५ कर्मफल का भोग
१० दशनावरण कर्म का निरूपण ६ आत्मदमन और चिसशुद्धि
११ वेदनीय कर्म का निरूपण ७ श्रात्मा और शरीर की भिन्नता ।
१२ मोहनीय कर्म का निरूपण ८ श्रात्मदमन के साधन
१३ मिथ्यात्व के दस भेद, श्रात्मदमन से लाभ
१४ चारित्र मोह का निरूपण १० भौतिक युद्ध नौर आन्तरिक युद्ध २०
१५ कषाय और प्रतिक्रमण ११ श्रात्मशुद्धि
१६ कषायों का विवेचन १२ आत्मा और इन्द्रियों का संबंध
१७ नोकषाय का अर्थ १३ श्रात्मा और शरीर
१८ आयु कर्म का निरूपण १४ संसार-निस्तार
१६ श्रायु का बंध १५ जीव के लक्षण
२० नाम कर्म का निरूपण ९ १६ उपयोग का विशेष लक्षण
२१ गोत्र कर्म का लक्षण १७ नव तत्त्व-विचार
२२ गोत्र कर्म और अस्पृश्यता १८ लोक स्वरूप
२३ अन्तराय कर्म का निरूपण १६ षद्रव्य निरूपण
२४ कर्मप्रकृतियों के विभाग २० द्रव्य, गुण और पर्याय
२५ कर्मों की स्थिति २१ द्रव्य विचार
२६ सागरोपम का अर्थ २.१ स्याद्वाद
२७ कमों के फल २३ पर्याय का स्वरूप
२८ कर्म फलदाता है २४ लक्षण का लक्षण
२६ फर्म अमोघ है , द्वितीय अध्याय-कर्म निरूपण ।
३० का ही कर्म फल भोगता है १ कर्म शब्द की व्युत्पति ८०३१ परिग्रह साथ नहीं देता २ कर्म के भेद
१ ३२ मोह कर्म का कारण ३ मूर्त का मूर्त के साथ संबंध ८२ । ३३ राग-द्वेष
१०३ १०६. १०७ १०८ ११० १११
११४ ११५
१२१ १२३ १२५ .
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________________
१८६
५
Mov ARY
१३८
१३६
१६३
६४०
१४६
१५२
( ण. ) ३४ राग-द्वेष-विनय १२७ | पंचम अध्याय-ज्ञान प्रकरण अध्याय तृतीय-धर्म स्वरूप वर्णन । १ पांच ज्ञान
१८७
२ ज्ञानों के क्रम की उत्पत्ति १८८ १ मानव जीवन
३ मतिज्ञान श्रुतज्ञान का अन्तर २ अाठ परिवर्तन
४ उपयोग का क्रमविकास १६० ३ त्रस पर्याय की दुर्लभता ।
५ अवग्रह के भेद
१६१ ४ यथा कर्म तथा फल
६ चनु-मन अप्राप्यकारी हैं ५ मनुष्य की दस दशाएँ
७ इन्द्रियों की विषयग्रहण शक्ति ६ जीवन की भंगुरता
साश्रुतझान के दो भेद .७ धर्म श्रुति की दुलभता
६ श्रुतशान के चौदह भेद ८धर्म उत्कृष्ट मंगल है .
१० अवधि शान के भेद १६५ ६ अहिंसा धर्म
१४४ ११ मनःपर्याय ज्ञान
१६६ १० संयम और तप
१२ केवल ज्ञानः .
१६८ ११ धर्म का मूल-विनय १५१ १३ ज्ञान का विषय-शेय
१६६ १२ विनय के सात भेद
१४ शून्यवादी का पूर्वपक्ष और खंडन २०० १३ धर्म का पात्र -
१५ शान स्वसंवेदी है . २०१ १४ धर्म के लिए प्रेरणा १५६ १६ ज्ञान की महिमा
२०२ १५ निष्फल और सफल जीवन
१७ ज्ञान प्राप्ति का उपाय
२०४ १६ धर्म की स्थिरता
१८ श्रीता के गुण
२०४ १७ धर्म ही शरण है
१५६
१६ श्रुत शान की उपयोगिता २०६ १८ धर्म की ध्रुवता
१६० २० अविद्या का फल
२०८
२०८
२१ ज्ञान और क्रिया चतुर्थ अध्याय-श्रात्म शुद्धि के उपाय
२२ क्रिया की आवश्यकता २१० १ नरक-तिर्यंच गति के के दुःख १६२ २३ एकान्त ज्ञानवादी का समाधान २१३ २ मनुष्य-देव गति के दुःख १६३ २४ ज्ञानेकान्त का विषय फल २१५ ३ संसार की विचिन्नता
२५ सञ्चा ज्ञानी
२१८ ४ बत्तीस योग संग्रह
२६ समभाव
२२० ५ तीर्थकर गोत्र के बीस कारण १७० ।
छठा अध्याय-सम्यक्त्वनिरूपण ६ अशुद्धि के कारण
१७३ ७ अकाल मृत्यु १७४ १ सम्यग्दर्शन
- २२४ ८ अधोगति-उच्चगति
१७७ २ देव, गुरु, धर्म का स्वरूप २२४ ६ यत्तापूर्वक प्रवृत्ति १७८ ३ सम्यक्त्व प्राप्ति
२२५ १० देवलोक गमन
१७६ ४ सम्यक्त्व की आवश्यकता २२७. ११ आध्यात्मिक अग्निहोत्र
५ सम्यक्त्व की स्थिरता के उपाय २२८ १२ आध्यात्मिक स्नान
६ कालवादी
२३१
१५७
. १५८
१८३ ६काल
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________________
प्रथम अध्याय षद्रव्य निरूपण
१ निर्ग्रन्थ प्रवचन का अर्थ
२ श्रात्मतत्त्व विचार ३ श्रात्मसिद्धि
५
८
१२
१५
१६
१८
६ श्रात्मदमन से लाभ
१६
१० भौतिक युद्ध और आन्तरिक युद्ध २०
४ आत्मा का कर्तृत्व
५ कर्मफल का भोग
श्री निर्ग्रन्थ प्रवचन विषयानुक्रम
६ श्रात्मदमन और चित्तशुद्धि ७ आत्मा और शरीर की भिन्नता
८ श्रात्मदमन के साधन
११ श्रात्मशुद्धि
२२
१२ श्रात्मा और इन्द्रियों का संबंध २५
१३ आत्मा और शरीर
२६
१४ संसार - निस्तार
२७
१५ जीव के लक्षण
२८
✪ १६ उपयोग का विशेष लक्षण
३०
૧૨
४६
१७ नय तत्त्व - विचार १८ लोक स्वरूप १६ षद्रव्य निरूपण २० द्रव्य, गुण और पर्याय
२१ द्रव्य विचार
२२ स्याद्वाद
२३ पर्याय का स्वरूप
२४ लक्षण का लक्षण
द्वितीय अध्याय - कर्म निरूपण
१ कर्म शब्द की व्युत्पत्ति १२ कर्म के भेद
३ मूर्त का मूर्त्त के साथ संबंध
५०
६५
६६
७५
७७
७६
ม
४ कर्म की व्यापकता
५ कर्म पौगलिक हैं
६ कर्मों के क्रम की उपपत्ति
७ कर्मों का स्वरूप
८ कर्मों की विभिन्न शक्तियां
८२
६ ज्ञातावरण कर्म का निरूपण
१० दर्शनावरण कर्म का निरूपण
११ वेदनीय कर्म का निरूपण
१२ मोहनीय कर्म का निरूपण
१३ मिथ्यात्व के इस भेद, ९४ चारित्र मोह का निरूपण
१५ कषाय और प्रतिक्रमण १६ कषायों का विवेचन
१७ नोकषाय का अर्थ
१८ आयु कर्म का निरूपण
१६ श्रायु का बंध
२० नाम कर्म का निरूपण
८० ३१ परिग्रह साथ नहीं देता
३२ मोह कर्म का कारण
३३ राग-द्वेष
*
८३
蚁
८६
८७
दद
८६
६१
६३
६६
६७
६८
६६
१०१
१०२
१०३
२१ गोत्र कर्म का लक्षण
२२ गोत्र कर्म और अस्पृश्यता
२३ अन्तराय कर्म का निरूपण
२४ कर्मप्रकृतियों के विभाग
११०
२५ कर्मों की स्थिति
१११
२६ लागरोपम का अर्थ
११२
२७ कर्मों के फल
११४
२८ कर्म फलदाता है
११५
२६ कर्म अमोघ है।
११६
३० कर्त्ता ही कर्म फल भोगता है ११८
१२१
१२३
. १२५
१०६
१०७
१०८
14
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________________
३४ राग-द्वेष - विनय
१२७
अध्याय तृतीय धर्म स्वरूप वर्णन
१ मानव जीवन
२ आठ परिवर्तन
३ त्रस पर्याय की दुर्लभता
४ यथा कर्म तथा फल
५ मनुष्य की दस दशाएँ
६ जीवन की भंगुरता
७ धर्म श्रुति की दुर्लभता धर्म उत्कृष्ट मंगल है
अहिंसा धर्म
१० संयम और तप
११ धर्म का मूल - विनय
१२ विनय के सात भेद
१३ धर्म का पात्र
१४ धर्म के लिए प्रेरणा
१५ निष्फल और सफल जीवन
१६ धर्म की स्थिरता
१७ धर्म ही शरण है
१८ धर्म की ध्रुवता
चतुर्थ अध्याय - आत्म शुद्धि के
१ नरक - तिर्येच गति के के दुःख २ मनुष्य- देव गति के दुःख
३ संसार की विचित्रता
४ बत्तीस योग संग्रह
५ तीर्थकर गोत्र के बीस कारण
६ शुद्धि के कारण
(. शणः )
७ अकाल मृत्यु ८ अधोगति उच्चगति यत्नपूर्वक प्रवृत्ति १० देवलोक गमन ११ आध्यात्मिक श्रग्निहोत्र
१२ श्रध्यात्मिक स्नान
१३०
१३१
१३३
१३५
१३६
१३८
१३६
६४०
१४४
१४६
१५१
१५२
१५५
१५६
१५७
१४८
१५६
१६०
उपाय
१६२
१६३
१६५
१६८
१७०
१७३
१७४
१७७
पंचम अध्याय - ज्ञान प्रकरण
१८७
१८८
१८६
१६०
१६१
१६२
१६३
१६३
१६३
१६५
१६६
१६८
१३ ज्ञान का विषय-शेय
१६६
१४ शून्यवादी का पूर्वपक्ष और खंडन २००
२०१
२०२
२०४
२०४
२०६
२०८
२०८
२१०
२३ एकान्त ज्ञानवादी का समाधान २१३
२४ ज्ञानैकान्त का विषय फल
२१५
२१८
२२०
१ पांच ज्ञान
२ ज्ञानों के क्रम की उत्पत्ति
३ मतिज्ञान श्रुतज्ञान का अन्तर
४ उपयोग का क्रमविकास
५ श्रवग्रह के भेद
६ चक्षु-मन श्रप्राप्यकारी हैं
७ इन्द्रियों की विषयग्रहण शक्ति
श्रुतज्ञान के दो भेद श्रुतज्ञान के चौदह भेद
१० अवधि ज्ञान के भेद
११ मनःपर्याय ज्ञान
१२ केवल ज्ञान..
१५ ज्ञान स्वसंवेदी है
१६ ज्ञान की महिमा
१७ ज्ञान प्राप्ति का उपाय
१८ श्रोता के गुण
१६ श्रुत ज्ञान की उपयोगिता
२० अविद्या का फल
२१ ज्ञान और क्रिया
२२ क्रिया की आवश्यकता
२५ सच्चा ज्ञानी
२६ समभाव
छठा अध्याय - सम्यक्त्वनिरूपण
१ सम्यग्दर्शन
२२४
२ देव, गुरु, धर्म का स्वरूप
२२४
३ सम्यक्त्व प्राप्ति
२२५
४ सम्यक्त्व की आवश्यकता
२२७
५ सम्यक्त्व की स्थिरता के उपाय २२८
२३१
१७८
१७६
१८१
१८३. ६ कालवादी
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________________
२४६
७ स्वभाववादी २३२ | १६ गृहस्थधर्म का फल
२७६ ८नियतिवादी
२३३ / १७ विषयभोग की कामना का त्याग २८२ ६ कर्मवादी
२३४ | १८ दाता और दानगृहिता - २३. १० उद्यमवादी
२३४ | १६ साधु और गृहस्थ की तुलना ॥ २८४ . १९ क्रियावादी २३५ २० दुश्शील त्यागी
२८६ १२ प्रक्रियावादी २३५ २१ रात्रि भोजन त्याग
२८७ १३ अचानवादी २३६ / २२ लच्चा ब्राह्मण
२८६ १४ विनयवाद
२३६ / २३ बाह्याचार की निरर्थकता २६३ ।। १५ सम्यक्त्व के दस भेद २२८/२४ श्रान्तरिक श्राचार की सार्थकता २६५ . १६ सम्यक्त्व के अनेक प्रकार से भेद २३६ | २५ कर्म से वर्ण व्यवस्था १७ सम्यक्त्व के अतिचार २४० १८ ।, भूषण
श्राठवां अध्याय ब्रह्मचर्य निरूपण १६ , की भावनाएँ २४१ १ ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय २६८ २० सम्यक्त्व की महिमा २४३ २ स्त्री शरीर और ब्रह्मचर्य । २१ रत्नत्रय का पूर्वापर भाव २४४ ३ ब्रह्मचारी का निवास स्थान ३०१ २२ सम्यक्त्व के आठ अंग
४ स्त्री-संसर्ग का त्याग । ३०२ . २३ वोधि की सुलभता
२४८ ५ स्त्री के अंगोपांग देखने का त्याग ३.२ . २४ परीत संसारी
२४६ ६ स्त्री श्रासक्ति का त्याग २५ सम्यग्हष्टि और पाप
७ मुढ़ पुरुष की दुर्गति । ३०५ ८ काम भोग विष है
३०५ सातवां अध्याय-धर्मनिरूपण ।।
६ काम भोगों की अस्थिरता ३०७ १ सफल चारित्र-विकल चारित्र २५३ / १० काम भोग किंपाक फल हैं २ लकल चारित्र
२५४ | ११ भोग यंध के कारण है ३०६ ३ विकल चारित्र
२५४ / १२ काम का प्रचल अाकर्षण. ३१० ४ अहिंसाणुवत
१३ ब्रह्मचारी की महिमा . ३१३ ५ सत्यागवत
२५८ १४ ब्रह्मचर्य से लाभ . ६ अस्तेय व्रत २६० १५ वीर्य का महत्व
३१६ ७ ब्रह्मचयार्याणवत
| १६ ब्रह्मचर्य संबंधी भ्रम-निराकरण ३१७ ८ परित्रहपरिमाणवत
१७ ब्रह्मचर्य साधना के उपाय ३१८ ६ तीन गुणवत
१८ ब्रह्मचारी का तेज १० गुणवतों के प्रतिचार २६७
अध्याय नववा-साधुधर्म ११ चार शिक्षाबत
२६८ १२ धावक धर्म का अधिकारी २७३ | १ महावतों की मुख्यता રૂપર १३ फर्मादान २७४ | २ अहिंसा
३२३ १४ श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ २७६ / ३ जीव और प्राणी का भेद ३२४ १५ क्षमायाचना
२७७ ।। ४ मृपावाद की निन्दा
३०३
२६२
२६४
३२०
m
m
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
سع سع سع للم لع
س لس
A
५ सत्य का प्रभाव
३२६ । ४ एक 'समय' का महत्व ३७१ ६ असत्य के भेद
३२७ / ५ जीवन ओस की बूंद सदंश है ३७२ ७ सत्यव्रत की भावनाएँ ३२८ ६ जीवन के उपक्रम
३७४ ८अदत्तादान त्याग
३२६ ७ मनुष्यत्व की दुर्लभता ३७४ अदत्तादान की भावनाएँ ३२१ ८ जीव का स्थावर काय में निवाल ३७५ १० अदत्तादान के भेद ३३० ६ पृथ्वी में आत्मा है
३७८. ११ मैथुन त्याग
३३० १० वनस्पति की सजीवता ३७८ १२ संग्रह परिग्रह है ३३१ ११ जल की सजविता
३७६ १३ अपरिग्रह व्रत ३३२ १२ अग्नि की लजीवता
३७६ १४ रात्रि भोजन त्याग ३३४ १३ वायु काय की सजीवता १५ पृथ्वीकाय की रक्षा
१४ जीव की विकलेन्द्रिय दशा। ३८१ १६ वायु और वनस्पति काय की १५ जीव की पंचेन्द्रिय दशा ३८२ परिक्षा
३६७ १६ पंचेन्द्रिय जीवों के भेद ३८२ १७ मिक्षा के नियम
१७ जीव का सवनमण
३८३ १८ भिक्षा के दोष
१८ आर्यत्व की दुर्लभता ३८४ १६ श्राहार करने का प्रयोजन
१६ आर्य-अनार्य का विवेचन ३८४ २० मुनि का समभाव
३४४ २० अविकल-इन्द्रियों की दुर्लभता ३८५ २१ ज्ञान चारित्र शरण है
२१ धर्म श्रवण की दुर्लभता २२ जातिभेद ओर कुलभेद
२२ तीर्थ का स्वरूप और भेद ३८७ २३ बुद्धिमद और लाभमद
२३ धर्म श्रद्धा की दुर्लभता । ३८८ २४ साधु निष्काम हो
३४६ २४ धर्मस्पर्शता की दुर्लभता ३८६ २५ बावन अनाचीरण
२५ जीवन क्षीण हो रहा है २६ मानसिक चपलता का त्याग ३५३ २६ जीवन के खतरे
३६२ २७ साधु की बारह पडिमाएँ ३५४ २७ शारीरिक ममता का त्याग ३६३ २८ करण सत्तरी के लत्तर भेद ३५५ २८ त्याग पर निश्चल रहने का उपदेश ३६५ २६ चरण सत्तरी ,
२६ काल के छह पारे
३६७ ३० आठ प्रभावनाएँ
३५७
| ३० द्रव्य कंटक-भावकंटक ३१ धर्म कथा के चार भेद ३५८ | ३. उदबोधन
३६१ .३२ कला की सार्थकता . ३६१ ३२ सिद्धि लोक
४०१ ३३ साधु की बारह उपमाएँ ३६१
ग्यारहवां अध्याय-भापा स्वरूप वर्णन ३४ चीस अलमाधि दोप ३६४
१ भाषा की पुद्गल रूपता विविध दसवां अध्याय-प्रमादपरिहार __ शंका समाधान
४०३ १ जीवन की भंगुरता ३६६ / २ भापा और संकेत.
४०६ २ प्रमाद के पाँच प्रकार ३६७ ३ शब्द कैसे सुना जाता है ? ४०७ ३ विकथाओं के भेद-प्रभेद ३६८/
३६८/४ शब्दाद्वैत का निरसन ४०८
३४६
*
३५६
*
*
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४५६
१२
४१७
२३
" का गंध
" का स्पर्श
४५६
४२१
४२२
४२६
५ भाषा के चार भेद
४०६ ४ कृष्ण लेश्या का स्वरूप ६ सत्य भाषा के दस भेद ४१० | ५ नील लेश्या ,
४५४ ७ असत्य भाषा के चार भेद
४११ ६ कापोत लेश्या ,
दल भेद ४१२ ७पीत लेश्या , ६ सत्यासत्य भाषा के दस भेद - ४१३ | ८ पद्म लेश्या ,
४५७ १० व्यवहार भाषा के बारह भेद , ४१५ | शुक्ल लेश्या ,
४५७ ११ श्रुताश्रित भाव भाषा ४.६/ १० लेश्याओं के वर्णन १२ चारित्राश्रित भाव साषा ४१६
४५६ १३ भाषा का आदि करण ४९७ १४ वोलने योग्य भाषा
'४५६ १५ न बोलने योग्य भाषा ४१८
" का परिणाम .
४६० १६ बोलने का विवेक
१५ लेश्या और परलोक १७ वचन-कराटक
१६ गतियों में लेश्या
४६३ १८ भाषण संबंधी नियम
१७ लेश्या वाले जीवों का अल्प १६ बहुभाषी की दुर्गति
वहुत्व २० कुशील और विष्टा
४२७
१८ लेश्याओं में गुणस्थान २१ स्वदोष संस्बधी सत्य भाषण ४२८
१६ लेश्या और गति
४६६ २२ ज्ञानियों के विरुद्ध व्यवहार ४२६ | २० अंशों में विविधता
४६७ . २३ सृष्टि संबंधी विभिन्न कथन ४३१ २४ कर्तृत्व का निरसन
तेरहवां अध्याय-कषाय वर्णन . २५ ईश्वर कर्तृत्व का निरसन २६ प्रकृति के कर्तृत्व का निरसन
१ कषाय की व्युत्पति २७ कालवादी का पक्ष
४४४
२ कषाय के मुख्य भेद २८ नियतिवादी का पक्ष
३ क्रोध, मान, माया, लोभ २६ यदृच्छावादी का मत
४ क्रोधादि के भेद ३० स्वयंभू-कर्तृत्व का खंडन ???
५ कपायों का कार्य
૪૭૨ ३१ अंडे से जगत् की उत्पत्ति
६ क्रोध का कुफल का निरसन
७ मान का वर्णन
४७४ ३२ सृष्टि से पहले क्या था ?
८माया से पापोपार्जन ३३ लोक का स्वरूप
है लोभ की मर्यादा । ३४ लोक की नित्यता
| १० क्रोधादि का फल
४८. वारहवां अध्याय-लेश्या स्वरूप निरूपण | ११ क्रोधादि को जीतने का उपाय ४८३ | १२ धर्म शरण है
४८५ १ लेश्या का अर्थ १५१ १३ घन त्राता नहीं है
४८६ २ लेश्या के मूल भेद .४५१ | १४ अनुकरण-वृत्ति
४८६ ३ लेश्या के दो दृष्टान्त ४५२ | १५ काल की प्रबलता
४५६
४६४
४३६
४४२
४४४ ४४५
४६६
४७१
४४७
४४ ४४६।
४७३
४५०
४७६
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५०२
. . १६ कामयोगों के त्याग संबंधी |१६ शाश्वत धर्म का स्वरूप ५२५ । भ्रम का निवारण
४६० २० मनुष्य भव की दुर्लभता ५२७ १७ नास्तिक की विचार धाराएँ २१ तिर्यंचगति के कष्ट
• ५२८ और उनका निराकरण . ४६२/ २२ मनुष्यों और देवों के दुःख ५२८ १८ ग्रहस्थ और अहिंसा . ४६५ | २३ पापों का समाहरण १६ पर लोक न मानने का फल । ४६६ / २४ ज्ञान का फल अहिंसा ५३१ २० नास्तिक का पश्चाताप ४६८/२५ ज्ञानी पुरुष
५३३ २१ आसुरी प्रकृति ५००/ २६ शुद्ध धर्मोपदेष्टा
५३४ २२ नास्तिक की दुर्दशा ५०१ | २७ सावध क्रिया और कर्म ५३५ २३ पाप का फल कता को ही
२६ सव जीव समान हैं ___ भोगना पड़ता है
२६ ज्ञानी का समभाव २४ मृत्यु का अर्थ
५०३ | ३० पर पदार्थों की भिन्नता - ५३८ २५ मृत्यु के सत्तरह भेद ५०३
पन्द्रहवां अध्याय-मनोनिग्रह। २६ श्रात्मा का पृथक्त्व
५०५ २७ संकल्पों की अनंतता
१ मनोविजय की प्रधानता ५०६
५४० २ इन्द्रिय निग्रह
५४१ चोदहवां अध्याय-वैराग्य संबोधन
३ मुनि की विचारधारा ५५२ १ ऋषभदेव का उपदेश ५०७ ४ मन के दो भेद
५४४ २ मनुष्यभव के दस दृष्टान्त ५०८ ५ , चार भेद
५४४ ३ श्रायु की अनित्यता
६ मनोनिग्रह की कठिनाई ४ विवेकी का कर्तव्य
७ सनोनिग्रह का फल ५४७ ५ माता-पिता की लेवा पाप नहीं है ५१३ ८ चार ध्यान, उनके भेद-प्रभेद- ५४८ ६ हिंसा न त्यागने का फल
लक्षण ७ हिंला त्यागी महा पुरुप ५१६ है धर्म ध्यान का निरूपण ५५० ८ञाभिमान का फल ५१७ | १० श्राज्ञाविचय
५५० किया और कीर्ति ५१८११ अपायविचय
५५१ १० भोगी और समाधि . ५१८ | १२ विपाकविचय
५५२ ११ अनुमान-आगम प्रमाण
१३ संस्थानयिचय ___ का समर्थन
५१६ | १४ स्वाध्याय का स्वरूप १२ तर्क की अस्थिरता ५२१ | १५ पिण्डस्थ, पदस्थ आदि १३ श्रागम की यथार्थता की परीक्षा ५२१ । ध्यानों का स्वरूप
५५४ . १४ गृहस्थ की सद्गति ५२२१६ पांच धारणाएँ
५५५ १५ सुव्रती का अर्थ
५२३ / १७ योग संबंधी मंत्र १६ सुध्रत-आध्यात्मिक औषध ५२४/१८ शुक्लध्यान के चार भेद
५६० १७ मोक्षमार्ग अनादि है। ५२५/१६ ध्यान के योग्य क्षेत्र-काल १८ धर्मतत्त्व की एक रूपता ५२४ / २० ध्यान और आसन
५१२
५१२
५५४
५दर
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नका नाम
. ६२९
५७४
(न) २१ प्राणायाम के तीन भेद ५६२ | ५ शिक्षा प्राप्ति और नम्रता ६०८ २२ मन की चार प्रवृतियां. ५६३, ६ साधुकी प्रात्म साधना ६१० २३ संरंभ, समारंभ, श्रारंभ ५६४ | ७ पालोचना सुनने के अधिकारी ६१२ २४ त्यागी का लक्षण
५६५ |८ आवश्यक की आवश्यकता ६१५ २५ मन का भोग ले प्रत्यावर्तन ५६८ सत्रहवां अध्याय नर्क स्वर्ग निरूपण २६ अानव निरोध के साधन
१ नरकों के नाम २७ कमाँ का क्षय
५७२
२ परमाधार्मिक देवता २८ तप की महिमा
५७३ ३ नारकी के कष्टं
६३६ २६ वाह्यान्तर तप
४ देवगति वर्णन
६४४ ३० बाह्य तपों का विवेचन ५७५
५ ज्योतिषी देव
६४६ ३१ अनशन तप के भेद-प्रभेद ५७५
६ वैमानिक देव . . ६५० ३२ तपों के नक्शे
५७७ ७ नौ ग्रेवेयक
- ६५३ ३३ श्राभ्यन्तर तप
८ देव कहां जन्मते हैं
६६० ३४ इन्द्रियों की परवशता
अठारहवां अध्याय-मोक्ष स्वरूप सोलहवां अध्याय-अावश्यक कृत्य । १ विनीत के लक्षण १ कर्म से मुक्ति
२ अविनीत के लक्षण ६७० २ समभावी मुनि ६०० ३ विनय का फल
६७६ ३ कष्ट में क्षमा
६०२.४ गुण स्थानों का स्वरूप ६०० ४ सकाम मरण के भेद ६०६ ५ सच्चा सुख ।
७०४
६६४
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निर्ग्रन्थ प्रवचन भाष्य :
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साहित्य और संगीत के अनेक ग्रंथों के लेखक श्री जैन दिवाकर प्रसिद्ध वका प० मुनि
श्री चौथमलजी महाराज
[चित्र परिचय के लिये
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समर्प
88888888
परम आदरणीय, शास्त्रज्ञ, महान् त्यागी, वैरागी, गम्भीर स्वभाव के आदर्श-पाठ, एवं अनुपम धैर्यवान्, श्रीमज्जैनाचार्य श्रीखूबचन्दजी महाराजं, आपके आचार्यत्व - काल में, सम्प्रदाय की आपके नाम के अनुसार "खूब" अभिवृद्धि हुई । उसे जीवन मिला । वह भारतवर्ष में खूब पनपा, फूला, सौरभवान् बना, और फला । इसका सारा श्रेय आपके सतत शास्त्र - चिन्तन, महान् त्याग, वन्दनीय वैराग्य, गम्भीर स्वभाव, एवं अनुप धैर्य ही को है । आपके इन्हीं गुणों से आकृष्ट होकर " निर्ग्रन्थ-3 - प्रवचन- भाष्य " आपके " करकमलों में सादर समर्पित किया जा रहा है ।
I
'आपके चरणों का ध्रुव विश्वास है कि भवभय - विनाशक वीतराग भगवान्की पवित्रतम वाणी को आबालवृद्ध नर-नारियों के कानों तक घर-घर पहुँचाने का यह प्रयास संसार के किसी भी देश, किसी भी काल और कैसी ही अवस्था के पात्र को सच्चे सम्बल का काम देगा । जहां यह रोगियों को रोगमुक्त कर अमृत का पान करावेगा वहां चिन्ताग्रस्तों के लिए यह चिन्तामणि बनेगा । एक ओर विश्व वीहड़वन में विचरणशील भूले-भटकों के लिए यह प्रशस्त राज-पथ का काम देगा तो दूसरी ओर संसार के वैभव में चूर और मदमाते व्यक्तियों की आंखें सदा के लिए खोल कर उन्हें लोककल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए लालायित बनावेगा ।
आचार्य - प्रवर ! आपकी कृपा से भगवान् की पवित्रतम वाणी का यह छोटा-सा प्रयास, मेरी उपरोक्त ध्रुव धारणा को सफलीभूत बना सके ।
विनीत:गणि- "प्यारचन्द्र" - मुनि
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शुद्धा-शुद्धि पत्र
चंधणेहिं
वंधणे माय समप्पे नाना वरवं वेपणीयं नोकयायं
मायं
२३
पयां
२३
कचारमेन
सव्वमप्पे नाणा वरणं वेयणीयं नोकसायं पया कत्तारमेव एमेव कम्मवीयं
एमवे
कम्मवीयं सुब्वस वयं
१२३
सुव्वय
तुहई
वयं
१२५
१३४ १३८
१३८
अणूर्सिह उजु भूयस्स वुझ भाणाए माणुसभा अलोमेय अभिन तित्थपरक्तं अखापारण छयपावकम
तुट्टई श्रणुस? उज्जुश्र भूयस्ल वुज्झ मारणारा माणु सभव श्रलोभेय अभिक्खण तित्थ यरत्तं श्राणापारणू . छेयपावगं पडिया
१५८ १५६ १६३ १६७
१६६
पडिपा वहुसो समाससंति
१६६
१७४
कुश्री
बहुसो
२०२
२०६ २०७
कुष्पवयणयाडी सव्वेउ भगपट्टिा सम्भगां अभिगम विस्थारह पभायणे अट्टथ
२११
समासासंति को कुप्पवयणपासंडी 'सवेउम्मगपट्टिा सम्मग्गां अभिगम वित्थाररुई पभावणे अट्ट
२१३ २३० .
२३० २३.
२४६
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________________
हव
२४८
भवे य .
सिक्खा समावरणो कामेडिं
२७४ २७६ २६२
३० ३०८ ३०८ ३३७
दुपरिञ्चमा काया वीयांणि सदा
KE Ram
मुनि
सिक्खासमावरणे कामेहि इत्थी दुपरिचया कामा बीयासि सया मुणि भव संसारे कंटगापहं भार बाहए तेणं परोवघाइणी अंतश वईमए पडिपुरणं पुणो मत्ते
३४५ ३८३ ३१७ ३६६ .
भवसंसारे कंटगायह मार बाहरा जेणं परोवघहणी अंतए वईभए पदिपुराण पुनः मत्तो
४११ ४२१ १२२ ४७८ ४६२ ४६७ ४६८ ५०४ . ५०४ ५०४ ५०५
पुडी
किचमियं लालप्यमाणं पुणरावि कोहकायरियाइमीसणा परियत्ता काहिं पगज्यि समाहियाहितं सुव्ववे वालिसेणं निवहएज्जा श्रापगुत्ते . शुद्धमाक्खाति
किच्चमियं लालप्पमाणं पुणरवि . कोहकायरियाइपीसणा परिवत्तइ कामेहि पगम्भिया समाहिमाहितं सुव्वत्ते वालिसेणं निवट्टपजा
आयगुत्ते सुद्धमक्वाति
५१७ ५१८ ५१८ ५१० ५२२ ५२७
nonym woRGHAR
५३४
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शुद्धाशुद्धि पत्र
वंधणेहि माय
समप्पे
वंधणेहिं
पृष्टांङ्क
नाना वरखं वेपणीयं
मायं सव्वमप्पे
नोकयावं
सयां
नाणा वरणं वेयणीयं नोकसायं पया
कतारमेन
एमवे
कत्तारमेव
कम्मवीयं सुब्वस वहयं
एमेव
कम्मवीयं सुब्वय
तुहई
१२३ १२५
वट्टयं
तुहई
श्रणुसर्ल्ड
उज्जुश्र भूयस्ल वुज्झ माणाण माणु सभवं
१५८
असिंह उज्जु भूयस्क वुझ भाणाण माणुसभा अलोमय अभिक्ख तित्थपरतं अखापार छयपावकर्म पडिपा वहुसो समाससंति
अलोभेय
१५६ १६३
१६७
अभिक्खण तित्थ यरत्तं श्रारणापारण छेयपावर्ग पडिया
१६६ १६६
१७४
कुयो
२०२
वहुसो समासासंति
२०६ २०७
कुप्पवयणयाडी सव्वेउ भगपट्टिमा सम्भगां अभिगम विस्थारह पभायणे अट्टथ
२११
२१३
को कुप्पवयणपासंडी 'सव्वेउम्मगपट्ठिा सम्मग्गां अभिगम वित्थाररुई पभावणे अट्ट
२३० .
२३०
२३.
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हव
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२४८
२७४ २७६ २१२
३०८
सिक्खा समावराणो कामेहिं इत्थ दुपरिच्चमा काया वीयाणि सदा मुनि भवसंसारे कंटगायह मार बाहरा जेणं परोवघदणी अंतए वईभए पदिपुराणं पुनः मत्तो
सिक्खासमावरणे कामेहि इत्थी दुपरिचया कामा बीयासि सया मुणि भव संसारे कंटगापहं भार बाहए तेणं परोवघाहणी अंतश
३४५ ३४५ ३८३ ३९७ ३६६
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४२१ ४२२ ४७८
४६२
पडिपुराणं पुणो मत्ते पुट्ठो
४६७ ४६८
५०४ .
५०५
किच्चमियं लालप्यमाणं पुणरावि कोहकायरियाइमीसणा परियत्ता काहिं पगन्यि समाहियाहित सुव्ववे वालिसेणं निवहएज्जा श्रापगुत्ते शुद्धमाक्खाति
किच्चमियं लालप्पमाणं पुणरवि • कोहकायरियाइपासणा परिवत्ता कामेहि पगभिया. समाहिमाहितं सुबत्ते वालिसेणं निवट्टएजा आयगुत्ते सुद्धमक्वाति
५१७ ५१८ ५१८ ५१८ ५२२ ५२७ ५३३
५३४
.
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पस्सा
बुद्धेऽप्यमत्तस्तु संरभसमारंभ वि.
पासह
बुद्धऽप्यमत्तेसु
इच्छेव
संरभसमारंभे
५३६
पि:.:
.
अणसणमूणोयारिया
५६४
इच्चेव श्रणसणमूणोयरिया
५६८
पडंजमाणे धम्म पारियं संजये
- १६
५७४.
पउंजमाणे
६०६
हंदा
धम्ममारियं संजमे
६१०
पुढवी य
हंता पुढविसु
६१३
२७ ...
तिव्यभिवेयणाए
जसोवेल सह
६२८ .
.
६ .
वृद्धा .
या तिव्बाभिवेयणाए जलोवले . सह वुद्धा लढुं .
साई
६६२
६६६ ६७२
RATAS
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*ॐ नमः सिद्धेल्या . निया -प्रवचन
हिन्दी भाषा भाष्योपेत
॥ प्रथम अध्याय ॥ षट् द्रव्य निरूपण
श्री भगवानुवाचझूल:-नो इंदियग्गेझ अमुत्तभावा,अमुत्तभावाविप्र होइनिचो।
अज्झत्थहेनिययस्स बंधो, संसार हेउं चचयंति बंधं ॥१॥ छाया:- नो इन्दियग्राह्योऽमूर्तभावात, अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः ।
अध्यात्मतुनियतस्य बन्धः, संसार हेतुं च वदन्ति बन्धम् ॥ १॥
शब्दार्थः-आत्मा इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि वह अमूर्त है। अमूर्त होने से वह नित्य भी है । मिथ्यास्वं, अविरति, कषाय आदि कारणों से आत्मा बन्धन में फँसा है और वह बन्धन ही संसार का कारण है।
भाप्यः-निर्गन्ध प्रवचन की यह पहली माथा है। राग-द्वेष आदि श्राभ्यन्तर अन्य परिग्रह ) और राजपाट, महल-मकान, धन-धान्य आदि बाह्य ग्रन्थ का सर्वथा परित्याग करके जो महानुभाव वीतराग पदवी प्राप्त कर चुके हैं वे निर्गन्ध कहलाते हैं। चे निर्गन्ध, जगत् के जीवों को नाना प्रकार के दुःखों के समुद्र में गोते खाते हुए देख कर उनका उद्ध.र करने में समर्थ, स्यावाद की सुन्द्रा ले अंकित, वाणी द्वारा जो उपदेश देते हैं वह प्रवचन कहलाता है। इस प्रकार बीतगप भगवान् के प्रवचन को निर्ग्रन्थ-प्रवचन कहते हैं। यद्यपि प्रवचन शब्द ले चासंग आदि द्वादश अंग-लसूह का ग्रहण होता है तथापि प्रस्तुत निनन्थ-प्रवचन' द्वादशांगी से भिन्न नहीं है-यह उसी का सार-संग्रह है अतएव इसे भी 'निम्रन्थ-प्रवचन' यह सार्थक संज्ञा दी गई है।
शास्त्र पठन, धर्म किया का अनुष्ठान आदि समस्त व्यापार एक मात्र आत्मकल्याण के उद्देश्य से किये जाते हैं और आत्मा का वास्तविक कल्याण तभी हो सकता है जब प्रात्मा का सच्चा स्वरूप जान लिया जाय । यही कारण हकि चरम तीर्थकर भगवान महावीर ने अपने प्रवचन की प्रादि से अर्थात् प्रथम अंग श्राचारांग सूत्र के भारंभ में, ही आत्मा सम्बन्धी उद्गार प्रकट किय हैं और इसी हेतु ले यहां भी आरंभ में प्रात्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया हैं।
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!
२
षट् द्रव्य निरूपण
-
आदि में आत्म-स्वरूप का निरूपण द्वादशांगी रूप निर्ग्रन्थ-प्रवचन से प्रस्तुत. निर्ग्रन्थ-प्रवचन की एक-रूपता सिद्ध करता है।
प्राकृत गाथा में, श्रात्मा के सम्बन्ध में प्रधान रूप से तीन विषयों पर विचार किया गया है। वे इस प्रकार हैं:
(१) श्रात्मा इन्द्रिय-ब्राह्य नहीं है, क्योंकि वह अमूर्त है; जो-जो अमूर्त होता . है। वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होता; जैसे आकाश । आत्मा अमूर्त है अतएव वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है।
यहां 'आत्मा इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है' यह प्रतिज्ञा-वाक्य है । 'क्योंकि वह अमूर्त हैं' यह हेतु हैं । 'जो-जो अमूर्त होता है वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता' यह अन्वयव्याप्ति है। आकाश अन्वय दृष्टान्त है । शेप उपनय और निगमन अंश हैं। इस प्रकार न्याय शास्त्रानुसार अनुमान वाक्य द्वारा श्रात्मा की इन्द्रिय-ग्राह्यता का निषेध किया गया है।
(२) दूसरे अनुमान वाक्य द्वारा आत्मा की नित्यता सिद्ध की गई है । श्रात्मा नित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है; जो अमूर्त होता है वह नित्य होता है, जैसे आकाश । श्रात्मा अमूत्ते हे अतएव वह नित्य है।
(३) प्रात्मा यदि नित्य है तो सदैव एक रूप रहना चाहिए । कभी मनुष्य, कभी देव, नरक, पशु-पक्षी आदि विभिन्न अवस्थाओं में वह क्यों प्राप्त होता है ? नित्य मानने से जो श्रात्मा जिस पर्याय में है वह उसी पर्याय में रहेगा। जो दु:खी है वह सदा दुःखी रहेगा और जो सुखी है वह सदा सुखी रहेगा। ऐसी अवस्था में व्रत, अनुष्टान, तपश्चर्या श्रादि क्रियाएँ व्यर्थ हो जाएँगी।
इस शंका का समाधान करने के लिए उत्तरार्ध में कहा गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, कपाय आदि कारणों से प्रात्मा बन्ध में कर्मों का बन्ध होता है और उस कर्म वन्ध के कारण ही श्रात्मा विभिन्न पर्याय परम्परा का अनुभव करती है। कर्म वन्ध ही संसार के अर्थात् नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति और मनुष्यगति के भ्रमण का कारण हैं।
शंका-श्रात्मा यदि इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता तो मन भी श्रात्मा को जानने में समर्थ नहीं हो सकता । क्योंकि इन्द्रियों द्वारा गृहीत वस्तु ही मन के द्वारा जानी जा सकती है। जिस पदार्थ में इन्द्रियों की प्रवृत्ति नहीं होती उस में मन भी प्रवृत्त नहीं हो सकता । इस अवस्था में श्रात्मा को जानने का कोई साधन हो हमारे पास नहीं है, फिर श्रात्मा के अस्तित्व पर विश्वास करने का क्या उपाय है ?
समाधान-जो वस्तु इन्द्रियों और मन द्वारा नहीं जानी जाती उसका अस्तित्व अगर अस्वीकार कर दिया जाय तो संसार के बहुत से व्यापार गड्बड़ में पड़ जाएँग । यही नहीं, बल्कि शंकाकार का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। कोई भी व्यक्ति अपनी दो-चार पीढ़ियों के पूर्वजो से पहले के पूर्वजों को इन्द्रियों द्वारा ग्रहरण नहीं करता, फिर भी क्या उनके अस्तित्व से इन्कार किया जा सकता है ?
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प्रथम अध्याय
-
कदापि नहीं। इससे यह स्पष्ट हुआ कि पदार्थों को जानने के लिए केवल इन्द्रियाँ और मन ही साधन नहीं है किन्तु इनके अतिरिक्त अन्य साधन भी हैं । आकाश, काल श्रादि पदार्थ जैसे इन्द्रिय-ग्राह्य न होने पर भी विद्यमान हैं उसी प्रकार प्रात्मा भी विद्यमान है।
इन्द्रियों की शक्ति अत्यन्त परिमित है । स्पर्शन-इन्द्रिय सिर्फ स्पर्श को, रसना इन्द्रिय रस को, घ्राण-इन्द्रिय गंध को, चक्षु-इन्द्रिय रूप को और श्रोत्र इन्द्रिय सिर्फ शब्द को ग्रहण करती है । रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि सिर्फ जड़ पुद्गल में ही पाये जाते हैं अतएव उसी को इन्द्रियाँ ग्रहण कर पाती हैं । पुल भी जो सूक्ष्म या श्रणु रूप होते हैं उन्हें भी इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकती । अतएव सिर्फ इन्द्रियों को और उनके अनुगामी सन को ही ज्ञान का साधन मान लेना पर्याप्त नहीं है। अरूपी और सूक्ष्म रूपी पदार्थों को जानने के लिए अन्यान्य साधन स्वीकार करने पड़ेगें । श्रात्मा इन्द्रिय-ग्राह्य गुणों से अर्थात् रूप आदि से रहित है। प्राचारांग सूत्र में कहा हैः
‘से ण दोहे, ण हस्से, ण वहे; न तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले, रण किरहे, ण णीले, ण लोहिए, ण सुस्किल्ले, ण सुरहिगंधे, ण दुरहिगंधे, ण तित्ते, ण कडुए, ण कलाए, ण विले, ण महुरे, ण कक्खड़े, ण म उए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उरहे, ण णिद्दे, रण लुक्ने, ण काओ, ण रुहे, ण संगे, ण इत्थी, ण पुरिसे,... ... ... अरूची सत्ता.............. से ण सद्दे, ग रूचे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे।"
अर्थातः-आत्मा न लम्वा है, न छोटा है, न गोल है, न तिकोना है,न चौकोर है. परिमंडल है, न झाला है, न नीला है, न लाल है, न सफेद है, (अर्थात् चतुइन्द्रिय, ब्राह्य गुणों से रहित है ) न सुगंधी है, न दुर्गधी है, (घ्राण-ब्राह्य गुणों से रहित है), न तिक्त है, न कटुक है, न कसायला है, न खट्टा है, न मीठा है, (जिह्ना इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है । न कठोर है, न कोमल है, न भारी है, न हल्का है, न ठंढा है, न गर्म है, न चिकना है, न रूखा है, (अर्थात्:-स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता ) न शरीर है, न उत्पादवान् है, न किसी से सम्बन्ध है, न स्त्री है, न पुरुष है। ....."वह श्ररूपी सत्ता है । ............."आत्मा शब्द नहीं है, रूप नहीं है, गंध नहीं है, रस नहीं है, स्पर्श नहीं है।"
तात्पर्य यह है कि:-उल्लिखित गुण पुद्गल के हैं और श्रात्मा पुद्गल रूप न होने के कारण इन समस्त गुणों से अतीत है-अरूपी है- अमूर्तिक है और इसी कारण वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है।
शंका:-इन्द्रियों के द्वारा श्रात्मा का ग्रहण नहीं होता तो उसे किस प्रकार जाना जा सकता है ?
समाधान:-अनुभव-प्रत्यक्ष से, योगी प्रत्यक्ष से, अनुमान प्रमाण ले और यागम प्रमाण से श्रात्मा का अस्तित्व प्रमाणित होता है।
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पट् द्रव्य निरूपण
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( क ) अनुभव समस्त प्रमाणों में मुख्य प्रमाण है । उसके आधार पर जो. निर्णय किया जाता है वह सर्वथा असंदिग्ध होता है इस प्रकार का अनुभव शरीर में नहीं किन्तु उस से भव प्रमाण से श्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है
। मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं भिन्न होता है श्रतए इस अनु.
1
( ख ) जिन महापुरुषों ने तपश्चरण आदि के द्वारा कैवल्य प्राप्त किया है, जो सर्वज्ञ हो चुके हैं उन्हें प्रत्यक्ष से आत्मा की प्रतीति होती है । उनकी प्रतीति के आधार पर भी हम आत्मा का अस्तित्व स्वीकार कर सकते हैं, क्यों कि वह भ्रान्त है ।
( ग ) किसी भी वस्तु का अस्तित्व उसके असाधारण गुणों के कारण सिद्ध होता है । एक वस्तु से दूसरी वस्तु को भिन्न सिद्ध करने का भी एक मात्र उपाय असाधारण गुण ही है। आग से जल को पृथक् मानने का कारण यही है कि एक में उष्णता है और दूसरे में शीतलता । यह गुण दोनों के असाधारण हैं अतः श्रग्नि और जल को एक नहीं माना जा सकता । श्रात्मा में चैतन्य नामक ऐसा असाधारण गुण है जो किसी भी अन्य वस्तु में नहीं पाया जाता, अतएव श्रात्मा समस्त वस्तुओं से भिन्न है ।
(घ) प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय को जानती है। प्रांख से रूप का, जिह्वा से रल का, घ्राण से गंध का और श्रोत्र से शब्द का ज्ञान होता है । एक इन्द्रिय का दूसरी इन्द्रिय के विषय से कोई सरोकार नहीं है । ऐसी अवस्था में अगर इन्द्रियों को ही ज्ञाता माना जाय और उनसे भिन्न श्रात्मा स्वीकार न किया जाय तो सब इन्द्रियों के विषयों का जोड़ रूप ज्ञान कभी नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि 'मैंने रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द को जाना' इस प्रकार का संकलना रूप ज्ञान कदापि नहीं हो सकेगा । किन्तु जब हम पापड़ खाते हैं तब स्पर्श का, रल का, गंध का, रूप का और चर्र चर्र शब्द का ज्ञान हमें होता है और हम यह भी जानते हैं कि 'इन पांचों विषयों का मुझे ज्ञान हो रहा है' श्रतएव इंद्रियों के विषयों को जोड़ रूप में जानने वाला इन्द्रियों से भिन्न कोई पदार्थ अवश्य मानना चाहिए और वही पदार्थ आत्मा है ।
(इ) श्रात्मा ही पदार्थों को जानता है, इन्द्रियाँ नहीं, क्योंकि इन्द्रियों के नाह हो जाने पर भी इन्द्रिय द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण होता है । श्रख से श्राज किसी वस्तु को देखा। संयोगवश कल आंख फूटगई । तब क्या प्रांख से देखे हुए पदार्थ का स्मरण नहीं होता ? अवश्य होता है। इससे भली भांति सिद्ध है कि इन्द्रियों के अभाव में भी जानने वाला कोई पदार्थ है और वही पदार्थ आत्मा 1
' एगे श्राया " अस्थि मे श्राया उववाइए ' इत्यादि श्रागम प्रमाण से भी श्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध होता हैं । नास्तिक चार्वाकों का कथन हैं किः
- सूयगडांग !
( ब )
एए पंच महसूया, तेव्भो एगोति श्रहिया । ग्रह तो तिखासेणं, विणासो होई देहिणो ॥
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प्रथम अध्याय
प्रातः- पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश-यह पांच महाभूत हैं। इन पांच महाभूतों से एक आत्मा उत्पन्न होता है। इन सूतों का नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है।
चार्वाकों का यह कथन भ्रमपूर्ण है। क्योंकि पृथिवी आदि भूतों के गुण और हैं और आत्मा का गुण ( चैतन्य ) और है। जहां गुण में भेद होता है। अगर यह कहा जाय कि अलग-अलग एक-एक भूत में चैतन्य को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है किन्तु सब भूत मिलकर जव शरीर का आकार धारण करते हैं तब उनले चैतन्य उत्पन्न होता है, तो इसका समाधान यह होगा कि जो गुण प्रत्येक पदार्थ में-जुदी अवस्था में नहीं होता वह उनके समूह से भी नहीं हो सकता । रेत के एक कण में अगर चिकनापन नहीं है तो वह रेत के देर में भी नहीं आ सकता । पृथिवी आदि सभी भूत अगर चैतन्यहीन हैं तो उन सब का समूह भी चैतन्यहीन ही होगा। अगर जुदी-जुदी अवस्था में भी भूतों में चेतना शक्ति स्वीकार की जाय तो जब पांचों मिलकर शरीर का आकार धारण करते हैं तब एक शरीर में ही पांव चेतनाएं पाई जानी चाहिए। .
इसके अतिरिका, यदि पांच सूतों के समूह से चैतन्य की उत्पत्ति मानी जाय तो जीव की कभी मृत्यु नहीं होनी चाहिए, क्योंकि मृतक शरीर में भी पांचों भूत विद्यमान रहते हैं।
शंकाः- मृतक शरीर में वायु और तेज नहीं रहते इसी कारण जीव मृत कहलाता है। अतः मृत शरीर में पांचों भूतो का सद्भाव बताना ठीक नहीं ?
समाधान:-मृतक शरीर में सूजन देखी जाती है अतः वहां वायु का सदभाव अवश्य है और मवाद की उत्पत्ति होने के कारण तेज का सद्भाव भी मानना पड़ेगा। इस प्रकार पांचों भूतों का अस्तित्व बने रहने के कारण किसी भी जीव की कभी मृत्यु न होनी चाहिए । मगर मृत्यु सभी प्राणियों की यथावसर होती है अतः सिद्ध है कि पांच भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हुई है, वरन् चैतन्य गुण वाला श्रात्मा अलग है।
__ श्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए ऊपर जो कुछ कहा गया है उसके अतिरिक्त और भी अनेक युक्तियां दी जा सकती हैं । जैसे-एक ही माता-पिता की सन्तान में बहुत अन्तर देखा जाता है। कोई प्रमादी, अज्ञान, उद्दण्ड और कपायी होता है, कोई उद्योगशील, बुद्धिमान् नम्र और शान्त स्वभाव वाला होता है, एक साथ उत्पन्न होने वाले दो वालको के स्वभाव में भी यह अन्तर पाया जाता है, इसका कारण पूर्व जन्म के संस्कार ही है। पूर्व जन्म के संस्कार तभी अपना प्रभाव दिखला सकते हैं जब परलोक से आने वाला प्रात्मा स्वीकार किया जाय।
यूरोप में आत्मा और परलोक की खोज के लिए एक परिपद् की स्थापना हुई थी। उसमें यूरोप के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नास्तिक वैज्ञानिक थे। उन्होंने कई वर्षों तक अन्वेपण करने के पश्चात् परलोक का अस्तित्व स्वीकार किया था और इस प्रकार
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षट् द्रव्य निरूपण .
Main
श्रात्मा की नित्यता को स्वीकार किया था। जो लोग विज्ञान को पुरस्कृत करके अात्मा के संबंध में विचार करते हैं उन्हें इन विज्ञान के प्राचार्यों की सम्मति का अध्ययन करना चाहिए। *
कभी-कभी जाति स्मरण की घटनाएँ प्रकाश में भाती हैं । यह घटनाएँ भी परलोक का अस्तित्व प्रमाणित करती हैं। देहली की शान्ति वाई नामक बालिका की घटना बहुत पुरानी नहीं हुई है। उसने अपने पूर्व जन्म का जो वृत्तान्त बतलाया था, जांच करने पर वह सत्य सिद्ध हुआ था। शिकोहबाद नामक नगर से वेश्या का एक लड़का था। उसे जाति स्मरण ज्ञान हुआ। उसने कहा-मैं ब्राह्मण हूँ, पाल के नाम मेरे भाई और मेरी स्त्री है। मेरी जमीन गिर्वी रक्खी थी। मैंने कलकत्ते में नौकरी कर के छुड़ाई थी। अन्त में उसके पूर्व जन्म के कुटुम्बी उसके पास आये और उसने उन सब को पहचान लिया । अनेक स्त्रियों के बीच में खड़ी हुई अपनी स्त्री को भी वह पहचान गया। यही नहीं बल्कि स्त्री के वक्षस्थल में एक फोड़ा था, उसका भी उसने जिक्र कर सुनाया।
इस प्रकार जाति स्मरण के पचासों प्रमाण उपलब्ध हैं। इन सब से श्रात्मा की नित्यता सिद्ध होती है । इसीलिए यहां अमूर्त होने के कारण आत्मा को नित्य कहा गया है।
अनेक मतावलम्बी ऐसे हैं जो आत्मा के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं पर । कोई श्रात्मा को सर्वथा एक मानते हैं, कोई आकाश की भांति सर्वव्यापक मानते हैं, कोई अणु के बराबर मानते हैं, कोई सर्वथा नित्य मानते हैं, कोई क्षणिक मानते हैं। इन समस्त मतों पर पूर्ण रूप से विचार किया जाय तो अत्यन्त विस्तार हो जायगा, अतएव संक्षेप में ही इन पर विचार किया जाता है । वेदान्ती लोग कहते हैं
एक एक हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जल चन्द्रवत् ।। अर्थात् एक ही श्रात्मा सब भूतों में विद्यमान है । वह एक होने पर भी जल में प्रतिविस्थित होने वाले चन्द्रमा के समान नाना.रूपों में दिखाई देता है। अर्थात् जैसे एक ही चन्द्रमा पञ्चीस-पचास-सौ जल से भरे हुए ग्लासों में अलग अलग नजर आता है उसी प्रकार प्रात्मा वास्तव में एक ही होने पर भी प्रत्येक शरीर में अलग-अलग प्रतीत होता है।
वेदान्तियों का यह कथन युक्ति-संगत नहीं है । जल से भरे हुए ग्लासों में जो चन्द्रमा दिखलाई देता है वह सब में एक-सा होता है । एक ग्लास से अगर
___ हेमरी सिजनिक ( पात्रात्य दर्शन के प्राचार्य ), प्रोफेसर कुक्स ( सभापति ) बाल फोर ( इंग्लेण्ड के भूतपूर्व प्रधान मंत्री), विलियम जेम्स (अमेरीका के प्रसिद्ध दार्शनिक ), बाल फोर स्टीवर्ट (मौलिक विज्ञान के प्राचार्य ), प्रोफेसर मेसर्स, लॉई रेले, सर ऑलिवर लॉज, मौलिक विज्ञान के प्राचार्य श्रादि कटोर परीक्षक और नास्तिक विज्ञानवेना इस परिपद में सम्मिलित थे।
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भ्रथम अध्याय
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७ ]
पूर्णिमा का चन्द्र दिखाई दे तो अन्य सब में भी पूर्णिमा का ही चन्द्र दृष्टिगोचर होगा। किसी ग्लास में पूर्णिमा का और किसी में द्वितीया का चन्द्र दिखाई नहीं देता।
आत्मा अगर चन्द्रमा की भांति एक होता तो वह भी समस्त शरीरों में एक सरीखा प्रतीत होता; किन्तु ऐसा नहीं होता। इससे जल-चन्द्र का उदाहरण विषम है और इससे अात्माओं की एकता सिद्ध नहीं होती।
यदि श्रात्मा एक ही हो तो किसी एक प्राणी के द्वारा पाप कर्म का आचरण . करने से सभी को दुःख भोगना पड़ेगा और दूसरा यदि तपश्चर्या, सेवा, परोपकार आदि शुभ कार्य करेगा तो उससे सभी सुखी हो जाएँगे । अथवा एक ही समय में स्वर्ग के सुख और नरक के दुःख भोगने पड़ेंगे। लेकिन न तो कभी संसार के समस्त प्राणी एक-सा सुख भोगते हैं, न एक-सा दुःख भोगते हैं और न एक साथ स्वर्गनरक जैसी विरोधी पर्यायों का ही अनुभव करते है। इसलिए आत्मा को सर्वथा एक मानना उचित नहीं है।
वैशेपिक मत के अनुयायी आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं, वह भी भ्रमपूर्ण है। जहां जिस वस्तु का गुण होता है वहीं उस वस्तु का अस्तित्व मानना उचित है। आत्मा के गुण सुख, दुःख, चैतन्य आदि शरीर में ही पाये जाते हैं। शरीर से बाहर उनकी प्राति नहीं होती अतएव शरीर से बाहर उनकी सत्ता नहीं स्वीकार की जा सकती । शरीर में सुई चुभाने से वेदना होती है और शरीर के बाहर श्राकाश में चुभान से वेदना नहीं होती । इसका कारण यही है कि शरीर में प्रात्मा है, शरीर के बाहर आत्मा नहीं है।
इसी प्रकार श्रात्मा अणु के बराबर भी नहीं है, क्योंकि समस्त शरीर में अात्मा के गुण उपलब्ध होते हैं । अगर आत्मा अणु के बराबर हो तो वह शरीर के किसी एक ही भाग में मौजूद रहेगा सब जगह नहीं और ऐसी स्थिति में सुख-दुःख की प्रतीति समस्त शरीर में नहीं हो सकती, अतएव प्रात्मा न व्यापक है, न अणु के बराबर है, किन्तु शरीर के बराबर है । जिस जीव का जितना बड़ा शरीर उसका आत्मा भी उतना ही बड़ा है।
इसी प्रकार न श्रात्मा सर्वथा नित्य है न सर्वथा अनित्य-क्षणिक ही है। सर्वथा नित्य मानने से श्रात्मा सदा एक ही रूप रहेगा। जो सुखी है वह पाप कर्म का प्राचरण करने पर भी सुखी ही बना रहेगा और जो दुःखी है वह धर्माचरण करने पर भी दुःखी बना रहेगा। फिर संसार के प्राणी मात्र में दुःख से मुक्त होने की जो सतत् . चेष्टा देखी जाती है वह निष्फल हो जाएगी और धर्म शास्त्रों के विधि-विधान वृथा हो जाएँगे।
. आत्मा को क्षणिक मान लेने से लोक-व्यवहार समाप्त हो जाएंगे। प्रात्मा सिर्फ एक क्षण भर रह कर, दूसरे क्षण में ही नष्ट हो जाता है तो उसके किये हुए शुभअशुभ कर्मों का फल कौन भोगेगा? संसारी प्रात्मा क्षण विनम्बर होने से मुक्ति की
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षद्रव्य निरूपण
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ma
प्राप्ति किसे होगी? जिस आत्मा ने कल किसी व्यक्ति को देखा था, वह आत्मा. उसी समय समूल नष्ट हो गया तो आज उस व्यक्ति का स्मरण किसे होता है ? विना देखे दूसरे को स्मरण नहीं हो सकता और देखने वाला नष्ट हो गया । ऐसी अवस्था में स्मृति का ही सर्वथा अभाव हो जायगा। अतएव अात्मा को सर्वथा क्षणिक मानना .. लोक विरूद्ध है, अनुभव विरूद्ध है और युक्ति से भी विरूद्ध है।
वास्तव म अत्मा द्रव्यार्थिक नय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है । आत्मा की नित्यता का समर्थन पहले किया जा चुका है और मूल में उसे नित्यप्रातपादन किया गया है सो द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि कर्मों का संयोग होने के कारण आत्मा यद्यपि संसार-भ्रमण करता है, वह कभी. मनुष्य, कभी देव, कभी पशु-पक्षी आदि तिर्यंच और कभी नारकी पर्याय में जाता है, फिर भी श्रात्मा का श्रात्मपन कभी नष्ट नहीं होता । सुवर्ण जैले कड़ा, कुंडल, अंगुठी आदि भिन्न-भिन्न हालतों में बदलते रहन पर भी सुवर्ण बना रहता है उसी प्रकार आत्मा की अवस्थाएं बदलती रहती है पर प्रात्मा द्रव्य सदैव विद्यमान रहता है। ..
श्रात्मा के साथ कमों का बन्ध किस प्रकार और किन कारणों से होता है, . इन सब प्रश्नों का समाधान आगे कर्मों के विवेचन में किया जायगा।
श्रात्मा का कर्तत्व मूल:-अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली ।
अप्पा कामदुहा घेणु, अप्पा मे नंदणं वणं ॥२॥ अप्पा कता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तमित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिो ॥३॥ छाया:-आत्मा नदी वैतरणी, प्रात्मा में कूटशाल्मली ।
श्रात्मा कामदुधा धनुः, श्रात्मा में नन्दनं वनम् ॥ २॥ अात्मा का विकता च, दुःखानां सुखानाञ्च ।
श्रात्मा मित्र ममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः ॥३॥
शब्दार्थः-मेरा आत्मा वैतरणी नदी है, मेरा आत्मा कूट शाल्मली वृक्ष है। मेरा आत्मा कामधेनु है और मेरा ही आत्मा नन्दन बन है । (२)
आत्मा ही सुख-दुःख का जनक है और आत्मा ही उनका विनाशक है । सदाचारी सन्मार्ग पर लगा हुआ आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर लगा हुआ-दुराचारी आत्मा ही अपना शत्रु है । (३)
भाध्यः-श्रात्मा स्वभावतः सिद्ध, वुद्ध, शुद्ध और अनन्त ज्ञानादि गुणों से समृद्ध है, किन्तु अनादि कालीन कर्म-परम्परा से प्राबद्ध होने के कारण वह नाना गर्यायों का अनुभव करता है। पहले बांध हुए कमों का, आवाधाकाल समाप्त होन्डे
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प्रथम अध्याय
पर उदय होता है तब आत्मा में तरह-तरह के शुभ-अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं । इन भावों के उदय से फिर नवीन कर्मों का बंध होता है और जब वे उदय में प्राते हैं तब फिर नवीन कर्मों का बंध हो जाता है । इस प्रकार द्रव्य कमों से भाव कर्म
और भाव कर्मों से द्रव्य कर्म की उत्पत्ति होने से इनका परस्पर द्विमुख कार्यकारण आव है। यहां कर्मोदय से अन्तस्करण में होने वाली एरिणति को ही आत्मा कहा गया है ! यह परिणति जब अशुभ होती है तो उस से दुःरन उत्पन्न करने वाले पाप कर्मों का वन्ध होता है और जव परिणति शुभ होती है तो सुख-जनक शुभ कर्मों का
बंध होता है । इसले यह स्पष्ट है कि आत्मा की शुभ अशुभ परिणति ही सुख-दुःख .. का कारण होती है । अतएव श्रात्म-परिणति को प्रात्मा से अभिन्न विवक्षित करके आत्मा को अपने सुख-दुःख का कारण कहा गया हैं।
तात्पर्य यह है कि जैसे वैतरणी नदी और नरक में रहने वाला शाल्मली वृक्ष दुःख का कारण होता है उसी प्रकार अशुभ परिणति बाला श्रात्मा स्वयं अपने दुःख का हेतु है । तथा कामधेनु और नन्दनवन जैसे सुख का कारण होता है उसी प्रकार शुभ परिणति में परिणत आत्मा भी अपने सुस्त का स्वयमेव कारण बन जाता है।
अगली गाथा में इसी विषय का स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन किया गया है कि आत्मा स्वयं ही अपने सुख-दुःख को उत्पन्न करता है और स्वयं ही सुख-दुःख का विनाश करता है । अतएव प्रशस्त परिणति वाला अात्मा ही आत्मा का मित्र है और अप्रशस्त्र परिणति वाला आत्मा अपना शत्रु है।
शंकाः-आत्मा की शुभ-अशुभ परिणति से यदि सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं तो यहां आत्मा को ही सुख-दुःख का कर्त्ता और नाशक क्यों कहा गया है ? आत्मा. की परिणति और आत्मा अलग-अलग है। यहां दोनों को एक-सेक क्यों कर दिया है? -
समाधान:-जैसे मिट्टी रूप उपादान कारण से बने हुए घट को मिट्टी कह सकते हैं, सुवर्ण के बने हुए कड़े को सुवर्ण कह सकते हैं, उसी प्रकार आत्मा रूप उपादान कारण से उत्पन्न होने वाली परिणति को प्रात्मा कह सकते हैं। जैसे मृत्तिका द्रव्य है और घट उसकी पर्याय है उसी प्रकार प्रात्मा द्रव्य है और उसकी शुभा-शुभ परिणति पर्याय है। द्रव्य और एयाय कथचित् अभिन्न होते हैं। द्रव्य की पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं मालूम होती और पर्यायों से भिन्न द्रव्य. का कभी अनुभव नहीं होता। अतएव द्रव्य-पर्याय के अभेद की विवक्षा कर के यहां आत्मा को ही सुख दुःख का. उत्पादक और विनाशक कहा गया हैं।
जैसे कुत्ता इंट मारने वाले पुरुष को छोड़कर ईंट को ही काटने दौड़ता है उसी प्रकार वास्तविक तत्त्व से अनभिज्ञ अज्ञानी पुरुष, अपने से भिन्न अन्य पुरुषों को छाएने सुख-दुःख का कारण मान बैठता है और उन्हीं पर राग-द्वेश करता है। चह यह नहीं समझता कि मैं स्वयं ही अपने सुख-दुःख का सृष्टा हूं और स्वयं ही' उनका संहारक हूं। वह निमित्त कारणों को ही वास्तविक कारण समझ लेता है और
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षट् द्रव्य निरूपण
अपने श्रापको-जो उपादान कारण है-भूल जाता है। ज्ञानी जनों की विचारणा भिन्नप्रकार की होती है। किसी प्रकार का अनिष्ट संयोग प्राप्त होने पर वे अनिष्ट संयोग के निमित्त भूत किसी पुरुष पर द्वेष का भाव नहीं लाते बल्कि यह सोचते हैं कि इस अनिष्ट संयोग से होने वाले कष्ट का उपादान कारण मैं ही हूं, मेरे ही पूर्वोपार्जित कर्मों से यह कष्ट मुझे प्राप्त हुआ है। इसमें अगर कोई पुरुष निमित्त कारण बन गया है तो उसका क्या दोष है ? बह निमित्त न बनता तो कोई दूसरा निमित्त यनता। ऐसा विचार कर ज्ञानी जन सदा समता भाव का सेवन करते हैं । समता भाव का सेवन करने से भविष्य में वे अशुभ कर्मों के बंध से छुटकारा पा लेते हैं जब कि अज्ञानी जीव द्वेष के वश होकर अपने भविष्य को फिर दुर्भाग्यपूर्ण बना लेता है। .
सांख्यमत के अनुयायी आत्मा को कर्त्ता नहीं स्वीकार करते । उनका कथन यह है कि आत्मा अमूर्त, नित्य और सर्वव्यापी है अतएव वह कर्ता नहीं हो सकता । कहा भी है:-“श्रकर्ता निर्गुणों भोक्ता, श्रात्मा कापिलदर्शने।" ____ अर्थात्:-सांख्य दर्शन में श्रात्मा अकर्ता, निर्गुण, कर्मफल का भोक्ता माना
गया है।
सांख्यों की यह मान्यता अज्ञानपूर्ण है। श्रात्मा यदि सर्वथा नित्य, सर्वथा श्रमूर्त और सर्वथा व्यापक होने के कारण निष्क्रिय है-कर्म का कर्त्ता नहीं है तो वह सदैव एक रूप रहेगा । फिर जरा-मरण, हर्ष-विषाद रूप या चतुर्गति रूप संसार कैसे सिद्ध होगा ? इसके अतिरिक्त आत्मा यदि कर्मों का कर्त्ता नहीं है तो विना किये कमों का फल कैसे भोग सकता है ? अगर बिना किये ही कर्मों का फल भोगता है तो ऐले भोग की कभी लमाप्ति ही नहीं होगी। इस प्रकार नित्य होने के कारण आत्मा को आकर्ता मानने से न तो विभिन्न गतियां सिद्ध होगी, न मोक्ष लिद्ध हो सकेगा। कहा भी है
को घेएइ अकय, कयनासो पंचहा गई नथि । । - देवमणुस्सगयागइ, जाईसरणाझ्याणं च ॥
अर्थात्:-श्रात्मा श्रगर कर्म नहीं करता तो अकृत कर्म कौन भोगता है ? निष्क्रिय होने से यात्मा फल-भोग नहीं कर सकता अतः किये हुए कर्म निष्फल हो जाएगें। अगर नित्य है तो पांच प्रकार की गति सिद्ध नहीं हो सकती। श्रात्मा यदि व्यापक है तो देवगति-मनुष्यगांत श्रादि में उसका गमनागमन नहीं हो सकता। नित्य होने के कारण श्रात्मा को कभी विस्मरण नहीं होगा तब जातिस्मरण ज्ञान भी नहीं हो सकता। क्योंकि स्मरण तो विस्मरण के पश्चात् ही हो सकता है।
श्रात्मा को क्रिया का कर्त्ता न मानकर भी कर्म फल का भोगता मानना आश्चर्य जनक है । क्योंकि 'भोगना' भी एक प्रकार की क्रिया है और जो सर्वथा अका है वह भोग-क्रिया का कर्ता (भोगना) भी नहीं हो सकता । श्रतएव आत्मा को अफर्ता और जन प्रकृति को कर्जा मानना युक्ति से सर्वथा ही असंगत है।
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प्रथम अध्याय
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कुछ लोग श्रात्मा को ईश्वर के हवाले कर देते हैं। उनका कहना है कि आत्मा स्वयं अपने सुख-दुःख का भोक्ता नहीं है, वरन् ईश्वर कर्म का फल देता है । कहा भी है:
शः जन्तुरनीशोऽयम् श्रात्मनः सुख दुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्गे वा भ्वप्रमेव वा ॥
1
अर्थात्ः - यह श्रज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख को भोगने में स्वयं असमर्थ है इस लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरक में जाता है ।
इस प्रकार ईश्वरवादी लोग जीव को सुख-दुःख का कर्ता मानते हुए भी भोक्ता नहीं मानते | लेकिन यह मान्यता भी प्रतीति से विरुद्ध है । जो विष का भक्षण करता है उसे मारने के लिए ईश्वर की श्रावश्यकता नहीं है । जो चने खाकर तेज धूप में खड़ा हो जाता है उसे प्यास लगाने के लिए ईश्वर श्राता है, यह कल्पना हास्यास्पद है । शरावी शराब पीता है और नशा चढ़ाने के लिए ईश्वर दौड़ा हुआ आता है, यह कल्पना वालकों की-सी अज्ञानमय कल्पना है । वास्तव में विष स्वयं ● मारने की शक्ति से युक्त हैं, चना और धूप में प्याल पैदा करने का सामर्थ्य है, मदिरा में यादकता उत्पन्न करने की क्षमता है । श्रात्मा के संसर्ग ले यह सब वस्तुएँ यथायोग्य फल प्रदान करती हैं । मदिरा का नशा बोतल को नहीं चढ़ता, मनुष्य को ही है। इससे यह सिद्ध होता है कि मदिरा जीव का निमित्त पाकर ही फल देती है । अगर ईश्वर को ही फल दाता माना जाय तो मदिरा आदि की शक्ति सिद्ध नहीं होगी अर्थात् नशा चढ़ाने का सामर्थ्य मदिरा में न होकर ईश्वर में ही मानना पड़ेगा । इस प्रकार संसार के समस्त पदार्थ शक्ति हीन हो जाएँगे । श्रतएव आत्मा को कम का कर्त्ता, और कर्म - फल का भोक्ता स्वीकार करना ही युक्ति और अनुभव के धनु। कहा भी है
चढ़ता
कूल
जीवो उपयोगमयो, प्रभुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढ गई ॥
अर्थात्ः- जीव उपयोगमय - चेतना स्वभाव वाला है श्रमूर्त्तिक है, कर्मों का कर्त्ता है, अपने प्राप्त शरीर के परिमाण वाला है, कर्म-फल का भोक्ता है । वह यद्यपि संसार में स्थित है तथापि ऊर्ध्व गमन करना उसका स्वभाव है ।
मूलः - न तं घरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरपया । नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो |४|
से
- छायाः - न तदरिः कण्ठछेत्ता करोति, यत्स करोत्यात्नीया दुरात्मता ।
स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः, पश्चादनुतापेन दयाविहिनः ॥ ४ ॥
शब्दार्थ:
:- अपना दुरात्मा जो अनर्थ करता है वह कंठ को छेदने वाला प्राण
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[ १२ ]
पद द्रव्य निरूपण
हारी शत्रु भी नहीं कर सकता। वह दया-हीन दुष्टात्मा जब मृत्यु के मुख में जायगा तव पश्चात्ताप करके अपनी करतूतों को समझेगा। (४)
भाष्यः-पहले आत्मा को ही शत्रु और आत्मा को ही मित्र बतलाया गया था। इस गाथा में उसका स्पष्टीकरण किया गया है।
संसार में जिसे शत्रु कहा जाता है वह शारीरिक या अन्य भौतिक ही हानि पहुंचा सकता है । आध्यात्मिक हानि पहुंचाने की सामर्थ्य उसमें नहीं होती। कोई शत्रु मार-पीट सकता है, मकान को नष्ट कर सकता है, शरीर के किसी अवयव की हानि कर सकता है और अधिक से अधिक आत्मा को शरीर से पृथक कर सकता है। किन्तु इससे आत्मा की कोई हानि नहीं होती। मकान, शरीर आदि संसार के सव पदार्थ पर-पदार्थ हैं और उनका श्रात्मा के साथ औपाधिक सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध विनश्वर है । किसी भी निमित्त को पाकर पर-पदार्थ प्रात्मा स भिन्न हो जाते हैं। जब पर पदार्थों का संबंध स्वभावतः नष्ट हाने वाला ही है तो उसे नष्ट करने में निमित्त बनने वाला शत्रु हमारे द्वेष का पात्र नहीं होना चाहिए । वह हमारी प्रात्मा का कुछ नहीं बिगाड़ सकता । किन्तु जब आत्मा में दुरात्मता जागृत होती है। अर्थात इष्ट संयोग में रागमय परिणति और अनिष्ट सयोग में दूपमय परिणति का उदय होता है तब भात्मिक हानि होती है । इस कषाय-परिणति ले प्रात्मा के गुणों में विकार उत्पन्न होता है और वह विकार अनेक जन्म-जन्मान्तरों में परिभ्रमण का कारण होता है।
संसार में प्रतिदिन हजारों व्यक्तियों की मृत्यु होती है, हजारों लखपति कंगाल बनते हैं और हजारों को भिन्न-भिन्न प्रकार की यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं । यह सब घटनाएँ वुरी हैं, दुःख का कारण हैं फिर भी हम इनसे दुःख का अनुभव नहीं करते, किन्तु जव किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होती है जिस पर हमारी ममता होती है तक हम दुःन का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार दूसरों का करोड़ रुपैया नष्ट हो जाने पर भी हमें दुःख नहीं होता और हमारा एक रुपैया खो जाता है तो हम दुःख का अनु. अव करते हैं। इसका क्या कारण है ? मृत्यु और रुपये का नाश ही अगर दुःख का कारण होता तो दोनों जगह समान रूप से दुःख की अनुभूति होती, पर वह होती नहीं है । इससे स्पष्ट है कि हमारे अन्तरात्मा में मोह - समता की विद्यमानता ही वास्तव में दुःन्त्र का कारण है । अर्थात् प्राण हरण करने वाला शत्रु या खजाना लूटने बाला लुटेरा हम दुःख नहीं पहुंचाता वरन् प्राणों और खजाने के विषय में हमारी ममता ही हमें दुःख पहुँचाती है । ममता प्रात्मा की ही दुष्ट परिणति है और दुष्ट परिणति को ही यहां 'दुरात्मा' कहा है । अतएव यह कथन सर्वथा संगत ही है कि श्रात्मा सी दुष्ट परिणति जो अनर्थ करती है वह प्राण हरण करने वाला शत्रु नहीं कर सकता। शत्रु भौतिक सजाना लूट सकता है, आत्मा की दुष्ट परिणति आत्मा के अमू. ल्य नैसर्गिक गुणों की निधि का अपहरण करती है । प्राण-हारी शत्रु शरीर को ही हानि पहुंचाता है किन्तु दुरात्मा, श्रात्मा के शुद्ध वीतरागतामय स्वरूप को द्वानि.
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प्रधम अध्याय
पहुँचाती है।
अशान का माहात्म्य अपरम्पार है। प्रत्येक प्राणी अपने जीवन का निश्चित रूप से अन्त जानता है । भोले से भोला व्यक्ति भी यह नहीं समझता कि उसका जीवन अक्षय है-वह कभी काल के गाल में नहीं समावेगा। इतना भान होने पर भी जीवों की बुद्धि पर एक ऐसा पर्दा पड़ा रहता है जिस से वे अपने भविष्य को सुधारने के लिए आगे नहीं बढ़ते । कोई कोई मनुष्य अपने उदर की पूर्ति के लिए अतिशय कर कर्म करते हैं, कोई धनवानों की श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करने की जघन्य लालसा से अनीति का आश्रय लेते हैं, कोई अपने क्षणिक मनोरंजन के लिए या जिह्वा-लोलुपता के वश में होकर अनार्योचित कार्य करते हैं, कोई अन्य इन्द्रियों के दास होकर घोर पाप करने में नहीं झिझकते । जीवन भर उनका इसी प्रकार पापमय व्यापार चलता रहता है, किन्तु जब अनिवार्य रूप से मृत्यु के मुख में प्रवेश करते हैं, और खाली हाथ शरीर को भी यहीं छोड़ कर महाप्रस्थान करने को उद्यत होते हैं, तर उनके नेत्र खुलते हैं। उस समय उन्हें अपने जीवन सर के पाप स्मरण होते हैं। पश्चात्ताप की भीषण अग्नि में उनका अन्तःकरण भस्म होने लगता है, किन्तु 'समय चूकि पुनिः का पछताने ' इस कहावत के अनुसार उनका पश्चात्ताप वृथा जाता है अर्थात् पश्चात्ताप करने मात्र से पूर्वकृत कमों के फल से उन्हें छुटकारा नहीं मिल सकता। जैसे विप-भक्षण करने के पश्चात् पश्चात्ताप करने वाला व्यक्ति विप भक्षण के फल से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार पाप कर्मों के फल से बचने के लिए पश्चात्ताप करने वाला पुरुष उन कमों के फल से सुस्त नहीं हो सकता।
यहां यह आशंका हो सकती है कि पश्चात्ताप करने से यदि पूर्वकृत कर्मों ले मुक्ति नहीं मिलती तो प्रतिक्रमण आदि करने से क्या लाभ है ? इसका समाधान यह है कि प्रतिक्रमण करने का उद्देश्य प्रात्मिक अशुद्धि को हटा कर फिर शुद्धता प्राप्त करना है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-प्रतिक्रमण करने से व्रतों के छिद्र ढंक जाते हैं अर्थात् व्रतों में दोष लगाने वाली प्रवृत्ति दूर हो जाती है. नवीन कर्मों का पालन रुक जाता है और निर्दोष चारित्र पालन करके समिति-गुप्ति में सावधानी आती है। तात्पर्य यह है कि हृदय से-भाव प्रतिक्रमण करने वाला श्रावक या श्रमण भविष्य में सूल नहीं करता है, उसका आगामी चारित्र निरतिचार हो सकता है। शास्त्र में स्पष्ट उल्लेख है कि 'कडाण कस्माण ण मोक्ख अस्थि अर्थात् किये हुए कर्मों का फल भोगे विना उनसे छुटकारा नहीं हो सकता।
इसके अतिरिक्त यहां गाथा में ' दयाविरुणो ' पद विशेष ध्यान देने योग्य है। 'या' शब्द यहां उपलक्षण से चारित्र अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। देखना, बिल्ली दही न खा जाए ' इस चाक्य में यद्यपि बिल्ली का ही उल्लेख किया गया है पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि कौवा या कुत्ता पाए तो उसे दही खाने देना । वल्कि दही खाने वाले सभी प्राणियों का बिल्ली शब्द ले कथन किया गया है, इसी प्रकार 'दया' शब्द से यहां चारित्र मात्र का अर्थ ग्रहण किया गया है। ' पढ़मं नाणं तो दया '
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षट् द्रव्य निरूपमा
animamimaradamiadoo
namon
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वहां भी दया' शब्द से चारित्र का ही अर्थ अभीष्ट है। अतएव 'दवाविहूणो' का .. अर्थ है-चारित्र से हीन । अभिप्राय यह हुआ कि जिसका चारित्र शुद्ध नहीं है श्रर्थात जो श्रव भी बारिश का पालन नहीं करता है वह पाप कर्मों को बुरा समझ . कर पश्चात्ताप नहीं करता किन्तु केवल श्रागामी दुखों के भय के मारे पछताता है । दुःखों से भयभीत होकर ही पश्चात्ताप करने वाला व्यक्ति आर्तध्यान के वशीभूत है और वह उल्टे पापकमाँ का उपार्जन करता है।
यही बात एक उदाहरण द्वारा समझनी चाहिए। कल्पना कीजिए-दो व्यक्ति एक साथ मिलकर किसी मनुष्य की हत्या करते हैं । दोनों पर न्यायालय में मुकद्दमा चलता है। इस बीच में एक व्याक्ति श्रावेश उतर जाने के कारण हिंसा को घोर कुकर्म समझ कर अपने कृत्य पर पश्चाताप करता है कि 'धिक्कार है मेरे विवेकहीन भावेश को, जिलके वश होकार में भीषण पाप करके अपनी प्रात्मा का अहित कर बैठा।" दूसरा व्यक्ति भी पश्चाताप करता है कि-'हाय क्यों मुझे एला भावेश श्रागया कि जिसके फल-स्वरूप मुझे अब फाँसी पर लटकना पड़ेगा। यहां यद्यपि दोनों व्यक्ति पश्चाताप करते है किन्तु दोनों के पश्चाताप में आकाश-पाताल का अन्तर है। एक चारित्र का मूल्य समझता है, दूसरा फाँसी रूप फल ले भयभीत है। यह दूसरा व्यक्ति दया-विहीन अर्थात् चारित्र से पतित है अतः उसका पश्चाताप सविष्य में भी लाभ दायक नहीं है। यही नहीं, उसका पश्चात्ताप आत ध्यान रूप होने के कारण पाप-बन्ध का कारण है।
इसी प्रकार निर्दय पुरूप जय मृत्यु के मुख में प्रविष्ट होता है तब वह सोचने लगता है-'हाय ! मैंने जीवन भर पाप कर्म का भाचरण करके, नीति-अनीति का भेद भुलाकर, 'असीम धन संचित किया था एर खेद है कि आज उसमें से अल्प अंश भी मेरे साथ नहीं जा रहा है। मैंने अपनी जीवित अवस्था में अनेक कुकर्म किये हैं, श्रव न जाने उनका कितना, कैसा दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा, इत्यादि । यह सब पश्चाताप यात्मिक मलीनता की वृद्धि करता है, इससे यात्म शुद्धि नहीं होती। श्रतएव विवेकी जनों का कर्तव्य है कि वे शास्त्र प्रति-पादित मार्ग का अनुसरण करें । कभी शाल-विरुद्ध प्रवृत्ति न करें। जीवन को अस्थिर लमझकर अधिक लावधान रहकर शात्महित की प्रवृत्ति करें, जिस से जीवन के अंतिम समय में शान्ति एवं . संतोप बना रहे और पश्चाताप करने का अवसर उपस्थित न हो । कभी प्रमाद के वश होकर यदि पाप से प्रवृत्ति हो भी जाय तो किये हुए पापों को अहित. समझकर, पुनः पापों के भाचरण से बचने के लिए पश्चात्ताप करें, सिर्फ पापों के फल से भयभीत होकर नहीं ॥ ४ ॥ मूल:-अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमौ ।
अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परस्थ य ॥ ५ ॥
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बथम अध्याय
... 'छायाः-यात्मा चैव दमितव्यः. प्रसारमा हि खलु दुर्दनः ।
श्रात्मा दान्तः सुखी भवति, अस्मिल्लोके परत्र च ॥ ५ ॥ शब्दार्थ:-आत्मा का ही दमन करना चाहिए । अात्मा दुर्दान्त है-उसका दमन करना बड़ा कठिन है । दमन किया हुआ आत्मा इस लोक में और एरलोक में सुखी होता है । (५)
. माष्य-पूर्व माधा में यह प्रतिपादन किया गया है कि दुरात्मा प्राण हारी शत्रु से भी अधिक अनर्थ का कारण होती है, इस गाथा में ऐसा न होने देने का उपाय बताया गया है। यहां यह प्रतिपादन किया गया है आत्मा का दमन करने से उभय लोक में सुख की प्राप्ति होती है। - आत्म-दमन का अर्थ है-कपाय श्रादि कुरासनाओं से वासित अन्तःकरण की प्रवृत्ति का निरोध करना । आत्मा, कशय से मुक्त होकर कुसंस्कारों की और गमन करता है, उसका निरोध करना सरल नहीं है । जो संयमी अत्यन्त अप्रमत्त आव ले अपनी चित्तवृत्ति की चौकली करते हैं, जो सत् और असत् प्रवृत्ति के विवेक से विभूपित है वे भात्म-दमन करके वर्तमान जीवन को भी सुखी बनाते हैं और भावी जीवन को सुखमय बनाते हैं।
अज्ञानी जीव संसार के भोगोपलोगों में सुख की कल्पना करके सुखी बनने के लिए सांसारिक पदार्थों का संयोग जुटाने से ही निरन्तर व्यस्त रहते हैं। उन पदार्थो की प्राप्ति में जो पुरुष बाधक प्रतीत होते हैं उनका दमन करने में, उन्हें संकोच नहीं होता । एक राजा, अपने प्राप्त राज्य से पर्याप्त सुख का अनुभव न करके अधिक राज्य-विस्तार के लिए दूसरे राजा का दमन करता है और एक व्यापारी दूसरे व्या. पारी का दमन करता है। अन्त में यह सव पदार्थ सुख के बदले दुःख का कारण बनते हैं। अतः भगवान् कहते हैं कि दूसरों का दमन करने से नहीं किन्तु अपनी श्रात्मा का दमन करने से ही सुख की प्राप्ति होती है।
मुक्ति-लाभ के लिए प्रवृत्त पुरुषों में भी अनेक नम घुसे हुए है। कई लोगों का विचार है कि दुःख का कारण यह शरीर ही है अतएव शरीर का दमन करने ले मुक्ति प्राप्त होगी। ऐसा विचार कर वे श्रात्म-संशोधन के लक्ष्य को भूलकर शरीर को ही कष्ट पहुंचाने का मार्ग स्वीकार करते हैं। कोई तीखे कांटों पर सोते है, कोई ग्रीष्म काल में पंचाग्नि तप तपते हैं । कोई त्रिशूल की नोंक पर लटक जाते हैं, कोई शीतकाल में जल में पड़े रहते हैं, कोई सूर्य की आतापना लेते हैं, कोई-कोई जल या अलि में पहकर अपने शरीर का अन्त कर देते हैं और अज्ञानवश यह समझ लेते हैं कि ऐसा करने से हमारे दुःखों का भी अन्त हो जायमा । इन सब प्रान्तियों का निवारण करने के लिए गाथा में एव' का प्रयोग किया गया है। उसका अर्थ यह है कि
आत्मिक सुख प्राप्त करने के लिए प्रात्मा का ही दमल करना चाहिए । सो अशुचि पदार्थों से भरे हुए घट पर पानी डालने से घट शुचि नहीं हो सकता, इसी प्रकार
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[ १६ ]
पद्रव्य निरूपण
वाह्य शरीर को कष्ट देने से श्रान्तरिक मलीनता नष्ट नहीं हो सकती । श्रतएव जिल कष्ट-सहन से श्रात्मा के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह कष्ट सहन वाल-तप हैं और बाल-तप संसार का ही कारण होता है । उसले अक्षय श्रात्यन्तिक प्रात्मिक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसी कारण यहां आत्म-दमन का उपदेश दियागया है ।
कुछ लोग, जो श्रात्मा को नित्य नहीं मानते, यह कहते हैं कि परलोक का अस्तित्व ही नहीं है । अर्थात् शरीर से भिन्न, भवान्तर में जाने वाला श्रात्मा पदार्थ नहीं है । जैसे जल का बुलबुला जल से भिन्न नहीं है उसी प्रकार शरीर से भिन्न श्रात्मा नहीं है। जैसे केले की डाल के छिलके उतारते जाइए, तो छिलके ही छिल के अन्त तक निकलते हैं भीतर कोई सारभूत पदार्थ नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के भीतर सारभूत आत्मा पदार्थ नहीं है । कहा भी है
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भस्मी भूतस्य देहस्थ पुनरागमनं कुतः ?
अर्थात् शरीर भस्म हो जाता है - शरीर के अतिरिक्त और कोई वस्तु ऐसी नहीं है जो पुनः जन्म धारण करती हो ।
इस प्रकार इसी लोक में श्रात्मा को सीमित मानने वाले तथा श्रनात्मवादी लोग परलोक के अस्तित्व को अंगीकार नहीं करते । किन्तु वे स्वयं अन्धकार के गर्त में गिरते हैं और दूसरों को भी अपने साथ ले जाते हैं । वे समझते हैं, परलोक का अस्तित्व स्वीकार कर देने से परलोक सम्बन्धी दुःखों से छुटकारा मिल जायगा, किन्तु ऐसा होना असंभव है। आँख मीचकर अग्नि का स्पर्श करने से क्या अग्नि जलाएगी नहीं ?
पहले आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध किया जा चुका है । जब आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है तो उसका विनाश कदापि नहीं हो सकता | विज्ञान और समस्त दर्शन शास्त्र एकमत होकर यह स्वीकार करते हैं कि सत् का विनाश और असत् का उत्पादक कभी नहीं होता । अतएव यह भी सिद्ध है कि श्रात्मा का कदापि विनाश नहीं हो सकता और जब आत्मा अविनश्वर है तो वह एक भय जन्म को त्याग कर दूसरे भव में अवश्य जाता है । इस नवीन भव में गमन करने को ही परलोक कहा जाता है, इसलिए परलोक का अस्तित्व
अवश्य 1
इस प्रकार शास्त्रकार ने उचित ही कहा है कि शरीर मात्र का या अन्य पुरुषों का दमन करने से वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं होती, वरन् श्रात्मा का दमन करने से ही इस लोक में और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है ।
सुख के इस पथ पर चलना सरल कार्य नहीं है । इंद्रियों के वशीभूत होकर आत्मा में इतनी उच्छृंखलता श्रागई है कि वह सन्मार्ग पर न चलकर कुमार्ग की और ही दौड़ता है। श्रात्मा यद्यपि अनन्त शक्ति से सम्पन्न ज्योतिपुंज है फिर भी इंद्रियों
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प्रथम अध्याय
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ने उस शक्ति को तिरोहित करके उसे अपने स्वरूप ले च्युत करदिया है। आत्मा एकदम परावलम्बी बन गया है । इसी कारण सूत्रकार कहते हैं:-'अप्पा हु खलु दुदमो' अर्थात् आत्मा का निश्चित रूप से बड़ी कठिनाई ले दमन किया जा सकता है। क्योंकि अनादिकाल से वह इन्द्रियों के सिकंजे में फँसी है। जैसे बच्चे को लड्डू का लालच देकर चोर उसका मूल्यवान् श्राभूषण हरण कर लेता है उसी प्रकार इन्द्रियों ने पराश्रित, विषयजन्य, अल्प और क्षणिक सुख का प्रलोभन देकर उसके अनन्त, स्वाभाविक और अक्षय सुख का अपहरण करलिया है। सिंह का बच्चा जैसे जन्म-काल ले भेड़ों के बीच रहकर अपने पराक्रम को थूल जाता है उसी प्रकार आत्मा इन्द्रियों के संसर्ग में रहकर अपने अनन्त वार्य को भूल रहा है। यही कारण है कि श्रात्मा स्वधर्म का परित्याग कर पर-धर्म में रमण कर रहा है और परिणाम स्वरूप ना-ना गतियों में चक्कर लगाता हुमा असह्य यातनाएँ सहन कर रहा है । अतएव सूत्रकार कहते हैंअगर तुम सच्चा सुख चाहते हो तो आत्मा का दमन करो अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरता आदि के कुसंस्कार, जो आत्मा की विभाव-परिणति के कारण हैंउनका परित्याग करो । ऐसा करने से तुझे स्वाभाविक सुत्र प्राप्त होगा। मूल-वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवण य ।
माहं परेहिं दम्मतो, बंधणेहि वहहिं य॥ ६ ॥ छाया-वरं से श्रात्मा दान्तः, संयमेन तपसा च । माऽहं परेर्दमितः, 'बन्धनैर्वधैश्च ॥ ६ ॥
शब्दार्थ:--दूसरों के द्वारा बंधन और बंध करके दमे जाने की अपेक्षा संयम और तपस्या द्वारा अपने आत्मा का-आप ही दमन करना अच्छा है ।
भाज्य:-श्रात्मा का दमन करने से इसलोक में और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है. यह उपदेश सुनकर शिष्य उसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करता हुआ कहता है-अपनी आत्मा का दमन करना ही श्रेयस्कर है । अनर्थों को दूर करने के लिए अनर्थों के मूल को ही नष्ट करना उचित है । लोक में कहावत भी है-चोर को पकड़ने की अपेक्षा चोर की मां को ही पकड़ना अधिक अच्छा है, जिससे चोर उत्पन्न ही न हो।
प्रात्य दमन का सिद्धान्त स्वीकार कर लेने पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि श्रात्मा के दमन का क्या उपाय है ? वह लाठियों से, बंदूकों से या लात-धूंसों से तो पीटा नहीं जा सकता, फिर उसे किस प्रकार काबू में किया जा सकता है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए. जूनकार कहते हैं:- लजमेण तवेण य ।' अर्थात् संयम और तप के द्वारा आत्मा का दमन होता है । प्राणियों और इन्द्रियों में अशुभ प्रवृत्ति का परित्याग करना संयम कहलाता है। तात्पर्य यह है कि प्राणियों के विषय में अशुभ प्रवृत्ति न होने देना प्राणी-संयम कहलाता है और इन्द्रियों की अशुभ प्रवृत्ति न होने देना इन्द्रिय-संयम कहलाता है। अर्थात् हिंसा आदि पापों से विरत
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[ २८ ]
बंद द्रव्य निरूपण. होना तथा इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति का निरोध करना संयम है। संयम के भिन्न अपेक्षा से सत्तरह भेद भी हैं । कर्म-क्षय के लिए जो तपस्या की जाती है उसे तप कहते हैं । तप दो प्रकार का है - श्राभ्यन्तर और वाह्य । इन दोनों के छह-छह भेद हैं, जिसका विस्तृत विवेचन ' मोक्षस्वरूप ' नामक अध्ययन में किया जायगा | इस प्रकार संयम और तप के द्वारा श्रात्मा का दमन किया जाता 1:
ने
श्रात्म - दमन के लिए संयम और तप दोनों को कारण बतलाकर सूत्रकार एक रहस्य और भी प्रकट कर दिया है। लोक में बहुत से ऐसे तपस्वी हैं जो दुःसह शारीरिक कष्ट सहन करते हैं । वे भयंकर शीत सहते हैं, पंचाग्नि तप तपते हैं, कांटों आदि की यातनाएँ भोगते हैं। उनका तप भी क्या श्रात्म-दमन का कारण है ? इस प्रश्न का समाधान, तप से पहले संयम का उल्लेख करके सूत्रकार ने कर दिया है । अर्थात संयम-पूर्वक जो तप किया जाता है वही उभय-लोक में सुखदायक होता है । हरित काय भक्षण, अप्काय का प्रारंभ समारंभ, अग्निकाय का आरंभ तथा अन्य त्र आदि प्राणियों की हिंसा रूप सावध व्यापार जहां होता है और इन्द्रियों के विषयों से जहां निवृत्ति नहीं होती वहां शुद्ध संयम का अभाव है और शुद्ध संयम के अभाव में की जाने वाली तपस्या उभय-लोक में सुखकारी नहीं है । मिथ्यात्व के साथ सहन किया जाने वाला कायक्लेश आश्रय का ही कारण होता है और आव संसार का कारण है अतएव उससे मुक्ति नहीं प्राप्त होती । श्रतएव आत्म-कल्याण के लिए वही तपस्या उपयोगी होती है जो संयम सहित हो या मिथ्यात्व तथा सावद्य व्यापार से रहित हो । यह श्राशय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने ' संजमेण तथेण य' यहां तप से पहले संयम को स्थान दिया है। संयम से आने वाले कर्मका निरोध होता और तपस्या के द्वारा निर्जरा- पूर्वसंचित कर्मों का अांशिक क्षय होता है ।
यहां यह आशंका की जा सकती हैं कि अपने आपको दुःखी बनाने से श्रसाता "वेदनीय कर्म का ग्राव होता है और आत्महिंसा का भी पाप लगता है । अन्य प्राणी को कष्ट पहुंचाना पाप है तो तप के द्वारा अपने आपको कष्ट पहुंचाना भी पाप होना चाहिए । अगर ऐसा हैं तो यहां तप का विधान क्यों किया गया है ? जैन मुनि केशलोंच, अनशन, शीतोष्ण परपि श्रादि को इच्छापूर्वक क्यों सहन करते हैं ? इसका समाधान यह है कि दुःख एक प्रकार की मानसिक परिणति हैं । वाह्य पदार्थों में दुःख देने की शक्ति नहीं है । जिन पदार्थों को हमारा मन प्रतिकूल समझता है। उनका संयोग होनेपर वह दुःख का अनुभव करने लगता है, यह दुःख रूप अनुभव ही दुःख कहलाता है | किन्तु वास्तव में उन पदार्थों में दुःख उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है । अगर पदार्थों में दुःखों के उत्पन्न करने का स्वभाव होता तो जो पदार्थ एक पुरुष को दुःख का कारण मालूम होता है वह सभी को समान रूप से दुःख का कारण प्रतीत होता । किन्तु ऐसा नहीं होता - जो पदार्थ एक को दुखःजनक जान पड़ता है वही दूसरे को सुखदायक अनुभव होता है। यही नहीं, भिन्न-भिन्न अवस्थार्थी में तो
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प्रथम अध्याय
[ १६ ) एक ही वस्तु, एक ही व्यक्ति को सुख और दुःख पहुंचाने वाली प्रतीत होती है। भूख लगने पर मिठाई सुखदायक मालूम होती है, पर ढूंस-ठूस कर खा चुकने के पश्चात् एक कौर निगलना भी अत्यन्त कष्टकर हो जाता है। अगर मिठाई सुख-दुःख देती हो तो वह दोनों अवस्थाओं में समान होने के कारण एक-सा सुख या दुःख दती। पर मन की परिणति बदल जाने के कारण वह कभी सुख कभी दुःख जनक मालूम होती है। इसी प्रकार केशलोच, अनशन आदि तपस्या को प्रात्म कल्याण के अर्थी, समभाव के सुरम्य सरोवर में निमग्न रहने वाले मुनिराज कष्ट रूप अनुभव नहीं करते, अतएव तपस्या में श्रात्म-हिंसा की संभावना भी नहीं की जा सकती, मुनिजन तप को परिणाम में सुखजनक होने के कारण सुख-रूप ही समझते हैं । अतएव उससे असातावेदनीय का अाश्रव भी नहीं होता । क्रोध आदि कषायों से प्रेरित होकर जो कष्ट सहन किया जाता है वही असातावेदनीय के प्रास्रव का कारण होता है,। संसार के विषयों से होने वाले महान् दुःखों से उद्विग्न, भिनु उन दुःखों से छूटने में दत्तचित्त होते हैं और शास्त्रोक्त कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं अतएव संक्लेश परिणाम का सर्वथा अभाव होने से उन्हें आत्महिंसा का पाप स्पर्श भी नहीं करता।
आत्म-दमन करने वाला उभय लोक में सुख पाता है, पर जो आत्मदमन से विमुख हो कर राग रंग में मस्त रहता है उसे क्या फल भोगना पड़ता है ? इस प्रश्न का निराकरण करने के लिए सूत्रकार ने उत्तरार्ध में कहा है । जो श्रात्म-दमन नहीं करता वह दूसरों के द्वारा वध और बन्धन आदि उपायों से दमन किया जाता है। अर्थात् जो अपनी इन्द्रियों को वशमै नहीं करता और तपस्या नहीं करता वह पाप-क्रियाओं में प्रवृत्त होकर इस लोक में राजा, आदि के द्वारा बध-बंधन के कष्ट भुगतता है और परलोक में यदि नरक गति में जाता है तो दूसरे नारकियों तथा परमाधामी देवों द्वारा वध-बन्धन के कष्ट भोगता है और तिर्यञ्च गति में जाता है तो दूसरे तिर्यञ्चों तथा मनुष्य आदि के द्वारा वध-बंधन के कष्ट भोगता है । इस कष्टसहन के पश्चात् भी संक्लेश परिणामों के कारण कष्टों की लम्बी परम्परा चली जाती है। अत: बिना संस्लेश परिणामों के,स्वेच्छापूर्वक संयम और तप का आचरण करना ही श्रेयस्कर है, जिससे अनादि कालीन दुःख-परम्परा का सर्वथा विनाश हो जाता है
और प्रात्मा बन्धन.से मुक्त होकर एकान्त सुखी बन जाता है । अक्षय सुख का एक मात्र यही राजमार्ग है।
अतएव प्रत्येक विवेक शाली को अपनी शक्ति के अनुसार सरल संयम या एकदेश संयम का पालन करना चाहिए और समाधि पूर्वक यथा शक्ति तपस्या का प्राचरण करना चाहिए।
यहाँ बंधणेहिं बहेहिं य' इन पदोंमें बहुवचन का प्रयोग करके सूत्रकारने वधवंधन का चाहुल्य सूचित किया है ।
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___{ २० ।
षट् द्रव्य निरूपण . मूल-जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे ।। ____एगंजिणिज अप्पाणं, एस से परमो जत्रो ॥७॥
छाया-यः सहस्त्रं सहस्त्राणां, सङ्ग्रामे दुर्जये जयेत् ।
एकं जयेदात्मानं, एपस्तस्य परमो जयः ॥ ७ ॥ ____ शब्दार्थ-~जो मनुष्य कठिनाई से जीते जाने वाले युद्ध में लाखों योद्धाओं को जीत लता है उससे भी अधिक बलवान् एक अपनी आत्मा को जीतने वाला है। उसकी यह आत्म-विजय उत्कृष्ट विजय है । (७.)
भाष्य-श्रात्म-दमन या आत्म विजय का उपाय और फल बताने के पश्चात् सूत्रकार ने उसकी श्रेष्ठता का यहाँ प्रतिपादन किया है । प्रकृत गाथा में भौतिक विजय और आध्यात्मिक विजय की तुलना की गई है और आध्यात्मिक विजय को परम विजय निरूपण किया है ।
जिस प्रकार वाह्य जगत् में राजाओं अथवा विरोधी दलों के संग्राम होते हैं . उसी प्रकार प्राध्यात्मिक जगत् में आत्मा की स्वाभाविक और वैभाविक शक्तियों में या... सद्गुणों और दुर्गणों में भी संग्राम होता है । भौतिक संग्राम कभी कभी होता है किन्तु आध्यात्मिक संग्राम प्रतिपल-निरन्तर मचा रहता है। अनादि काल से यह संग्राम चल रहा है। एक पक्ष के सर्वथा पराजित होने पर वाहा संग्राम समाप्त हो जाता है उसी प्रकार यह श्राध्यात्मक संग्राम उस समय लमाप्त होता है जब कोई एक पक्ष पूर्ण रूप से पराजित हो जाता हैं। आत्मा की वैभाविक शक्तियाँ अगर विजय प्राप्त कर लेती हैं तो श्रात्मा को निमोद के अंधेरे कारागार में बंद होना पड़ता है। यदि आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों को विजय-लाभ होता है तो वैभाविक शक्तियों का विनाश हो जाता है और श्रात्मा पूर्ण रूप से निष्कंटक हो कर सिद्धि-क्षेत्र का विशाल और अक्ष. . . य साम्राज्य प्राप्त करता है। भौतिक युद्ध में जैसे अनेक योद्धा परस्पर में भिड़ते हैं उसी प्रकार श्राध्यात्मिक युद्ध में भी दोनों ओर के अनेकानेक योद्धा जूझते हैं। महाराज चेतन की ओर से सस्यक्त्य, रत्नत्रय, समिति, गुप्त, अप्रमाद, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा प्रादि योद्धा होते हैं और दूसरी ओर कामराजा की तरफ से मिथ्यात्व,मढ़ता, मोह ममत्व, प्रमाद, ऋार्त-रोद्र ध्यान कपाय आदि सुभट जुटते हैं । इस श्राध्यात्मिक युद्ध का परिपूर्ण रूपक 'मकरध्वज पराजय' नामक नाटक में मुमुत्तुओं को देखना चाहिए ।
.. संसारी जीव वाह्य जगत् में होने वाले संग्राम में जितनी दिलचस्पी लेते हैं यही नहीं सात समुद्र पार की लड़ाई का वर्णन जितनी उत्सकता से पढ़ते हैं उसले श्राधी उत्सुकता अगर उन्हें अपने अन्दर निरन्तर जारी रहने वाले भीषण संग्राम में हो तो उनका बेड़ा पार हो जाय । यह श्राध्यात्मिक युद्ध चर्म-चनुत्रों से नहीं देखा जा सकता, इसे देखने के लिए जगत की ओर से आँखें मांच कर अन्तदृष्टि बनना
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प्रथम अध्याय
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पड़ता है। योगी जन इस युद्ध को अत्यन्त सावधान होकर देखते हैं और दृढ़ता पूर्वक उसमें भाग लेते हैं । यही कारण है कि वे अन्त में अपने सम्पूर्ण शत्रुनों का विनाश करके अानन्त सुख के भागी बनते हैं।
__ लक्ष्य जितना स्थूल होता है उसका भेदना उतना ही सुगम होता है । अत्यन्त सूक्ष्म लक्ष्य को भेदना अत्यन्त कौशल का सूचक है । वाह्य शत्रु स्थूल हैं और स्थूल लाधनों से ग्रंथात् तोप तलवार श्रादिसे उनका दमन कियाजाता है,इसलिए उनका दमन नरल है और उस में केवल पाशविक बल की आवश्यक्ता है । किन्तु आन्तरिक शत्रु अत्यन्त सूक्ष्म हैं और उन्हे दमन करने के साधन और भी सूक्ष्म हैं;अतएव उसके लिए प्रात्मिक बल की अपेक्षा रहती हैं । इसीलिए सूत्रकार ने प्रात्म-दमन को श्रेष्ठ विजय बतलाया है।
भौतिक युद्ध में विजय पाने से राज्य की प्राप्ति है-थोड़े से भूमिभाग पर विजेता शासन करता है किन्तु आध्यात्मिक युद्ध का विजेता तीनोलोक का शासक बन जाता है। भौतिक युद्ध का विजेता, क्षणिक ऐश्वर्य प्राप्त करता है, आध्यात्मिक युद्ध के विजेता को शाक्षात ईश्वरत्व प्राप्त होता है। भौतिक युद्ध से लाखों शत्रुओं का दमन करने के पश्चात् करोड़ो नये शत्रु बन जाते है, आध्यात्मिक युद्ध के विजेता का शत्रु संसार से कोई नहीं रहता । भौतिक विजय, अन्त में घोर पराजय का साधन बनती है, आध्यात्मिक विजय चरम विजय है-इस विजय को प्राप्त कर चुकने के पश्चात् कभी पराजय का प्रसंग नहीं आता। भौतिक विज्ञाय के लिए लाखों-करोड़ों प्राणियों के रक्त की धारा बहाई जाती है अतएव उसले आत्मा अत्यन्त मलीन होता है, श्राध्यात्मिक विजय के लिए मन-वचत-काय से पूर्ण अहिंसा का पालन करना पड़ता है-प्रारसी मान पर वन्धुभाव रखना होता है और उससे आत्मा निर्मल बनता है। भौतिक युद्ध के विजेता के सामने लोग बिना इच्छा के नतमस्तक होते हैं और प्राध्यात्मिक युद्ध के विजेता के समक्ष न केवल राजा-महाराजा और चक्रवर्ती ही हार्दिक भक्तिभाव ले नतमस्तक होते हैं अपितु देवराज इन्द्र भी उलका क्रीत-दास बन जाता है । इसलिए सूत्रकार ने प्रात्मदमन को श्रेष्ठ विजय बतलाया है। . . भौतिक विजय से उन्मत्त होकर विजेता जगत में अन्याय और अत्याचार का उदाहरण उपस्थित करता है. आध्यात्मिक युद्ध का विजेता अपनी वाणी और अपने श्राचरण के द्वार नीति, धर्म और सदाचार की स्थापना करके असंख्यात जीवों के कल्याण का कारण बनता है । भौतिक युद्ध का विजयी योद्धा दूसरों की स्वाधीनता का अपहरण करता है, उन्हें चूसता है और समाज में विषमता का विष-वृक्ष रोपता हैं किन्तु प्राध्यात्मिक युद्ध का विजयी सूरमा स्वयं स्वाधीनता प्राप्त करना है, दूसरों को स्वाधीन बनाता है और समता की सुधा का प्रवाह बहाना है । भौतिक विजय मनुष्य को अंधा बनाती है, प्राध्यात्मिक विजय से आत्मा अलौकिक मालोक का पुंज बन जाता है । भौतिक विजय ले मनुष्य की आत्मिक शक्तियां कुंठित हो जाती .
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षट् द्रव्य निरूपण हैं, आध्यात्मिक विजय से प्रात्मा की अनन्त शक्तियां तीक्षण होती हैं । भौतिक विजय : नरक का द्वार है, आत्मिक विजय मोक्ष का द्वार है। इसलिए सूत्रकार ने प्रात्म-दमन को श्रेष्ठ विजय बतलाया है।
भव्य जीवों ! अगर तुम कभी नष्ट न होने वाला अक्षय साम्राज्य चाहते हो, यदि तुम असीम आत्मिक विकास चाहते हो,अगर तुम सम्पूर्ण शत्रुओं का समूल उन्मूलन करना चाहते हो तो वहिदृष्टि का परित्याग करके अन्तर्दृष्टि प्राप्त करो। अनादिकाल से जो शत्रु तुम्हारे भीतर छिपे बैठे हैं, जिन्होंने तुम्हें अब तक नरक आदि गतियों के भयंकर दुःख सहन करने को बाध्य किया है, जन्म-मरण श्रादि की दुःसह यातनाएँ दी हैं, उन मिथ्यात्व, अाविरति, प्रमाद, कषाय आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो। यही परम और चरम विजय है। .. · मूलः-अप्पाणमेव जुज्झहि, किं ते जुझेण वज्झत्रो।
अप्पाणमेवमप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ ८॥ छायाः-श्रात्मानमेव युध्यस्व, किं ते युद्देन वाह्यतः ।
श्रात्मनवात्मानं, जित्वा सुखमेधते ॥ ८ ॥ शब्दार्थः-गौतम ! तू आत्मा के साथ ही युद्ध कर । दूसरे के साथ युद्ध करने से तुझे क्या प्रयोजन है ? जो आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतता है वह सुख पाता है। . .
भाष्यः-इससे पूर्व गाथा में दो प्रकार के युद्धों की तुलना करके आत्मिक युद्ध की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। उसके निष्कर्ष के रूप में यहां साक्षात् रूप से शांत्मिक युद्ध करने का उपदेश दिया गया है। सूत्रकार कहते हैं कि आत्मिक युद्ध ही श्रेष्ठ युद्ध है अतएव अपने प्रात्मा के साथ ही युद्ध करो । दूसरे के साथ युद्ध करने से कुछ लाभ नहीं है । जैले कंटकों से बचने के लिए लारी पृथ्वी को चमड़े लें मढ़ने का वृथा प्रयास करना अज्ञानतापूर्ण है उसी प्रकार शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए दूसरों से युद्ध करना भी मूर्खतापूर्ण प्रयत्न है। पैर में जूता पहन लेने से समस्त पृथ्वी चर्म से प्रावृत हो जाती है उसी प्रकार आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेने से सारे संसार पर विजय प्राप्त हो जाती है।
श्रात्मा पर विजय पाने के लिए किन साधनों का प्रयोग करना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-' अप्पारणमेवमप्पाणं जइत्ता । अर्थात् प्रात्मा के द्वारा ही श्रात्मा पर विजय प्राप्त होती है । तात्पर्य यह है कि जो कोई सफलता संसार के अनित्य पदार्थ के द्वारा प्राप्त की जायगी वह सफलता अनित्य ही होगी। वह क्षणिक साधन पर अवलंबित होने के कारण क्षणिक ही होगीस्थायी नहीं रह सकती।
इसके अतिरिक्त विजय के लिए, दुसरे-वाह्य पदार्थ की यदि सहायता ली. ...
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प्रथम अध्याय
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जायगी तो विजेता उल पदार्थ के अधीन रहेगा और इस प्रकार वाह्य पदार्थों की 'पराधीनता के कारण वह पूर्ण स्वतंत्रता का उपभोग कदापि नहीं कर सकेगा।
जैसा कि पहले प्ररूपण किया गया है-आत्मा के मिथ्यात्व श्रादि शत्रु इतने सूक्ष्म हैं कि किसी भी वाह्य साधन के द्वारा उन्हें पराजित नहीं किया जा सकता। श्रात्मा की लवृत्ति, आत्मिक सामर्थ्य का विकास और दुर्गणों के विरोधी सदगुणों का पोषण- इन सब के द्वारा आत्मा के शत्रु जीते जा सकते हैं । अतएव इन्हें प्राप्त करने की निरन्तर चेष्टा करना प्रत्येक प्रात्म-कल्याण के अभिलाषी पुरुष का परम कर्तव्य है । पर पदार्थों को सुख या दुःख का कारण मानना अज्ञान है । पर पदार्थ से न बंध होता है, न मोक्ष होता है। वस्तुतः रागमय परिणति बंध का कारण है और चीतरागता मोक्ष का कारण है । अतएव अपने दुष्कर्मों को ही दुःख का कारण समझकर अन्य प्राणियों पर कभी द्वेष-भाव न आने देना और अपने पुण्य कर्मों को सुख का कारण मान कर किसी पर राग-भाव न उत्पन्न होने देना, चीतराग भाव में निमग्न रहना-समता-सुधा का पान करना, संवर की आराधना के द्वारा प्राव को रोक देना, तपस्या आदि से संचित कर्मो का क्षय करना, यही आत्मविजय का प्रशस्त पथ है।
शंका-सूत्रकार ने आत्मा द्वारा श्रात्मा को जीतने का विधान किया है, तो यह कैसे संगत हो सकता है ? जैसे तलवार अपने आप को नहीं काट सकती उसी प्रकार श्रात्मा अपने आपको कैसे जीतेगा ? · जय-परा- जय का व्यवहार दो पदार्थों में हो सकता है, एक में किस प्रकार संभव है ?
समाधान:-यहां अभेद से जय-पराजय का प्रयोग नहीं किया गया है। यद्यपि कहीं-कहीं एक ही वस्तु कर्ता, कर्स और कारण भी बन जाती है, जैसे 'सांप अपने
को, अपने द्वारा लपेटता है यहां लपेटने वाला भी सांप है, लपेटा जाने वाला भी सांप · हैं और जिसके द्वारा लपेटा जाता है वह भी सांप है । फिर भी यहां आत्मा की विकार-अवस्था की भेद-विवक्षा करक दो वस्तुएँ स्वीकार की गई हैं । तात्पर्य यह है कि आत्मा की शुभ या शुद्ध परिणति के द्वारा आत्मा की अशुभ परिणति पर विजय आप्त करने को यहां अत्मा पर विजय प्राप्त करना कहा गया है। अतएव यह कथन सर्वथा निर्दोष है। सूलः-पंचिंदियाणि कोह, माणं माय तहेव लोहं च ।
दुजयं चेव अप्पाणं, सबसप्पे जिए जियं ॥६॥ छाया:-पञ्चेन्द्रियाणि क्रोधं मानं मायां तथैव लोभमन्च ।
दुर्जयं चैवात्मानं. सर्वमात्मनि जिते जितम् ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया लोभ, और मन आदि आत्मा को जीत लेने पर अपने आप जीत लिये जाते हैं ।।६।।
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पद्रव्य निरूपण :
भाष्यः-इस गाथा में भी आत्म-विजय का महत्व प्रकट करते हुए क्रोध आदि कपायों को जीतने का उपाय निरूपण किया गया है । जैसे मूल का नाश होने पर शाखा-प्रशाखाएँ स्वतः नष्ट हो जाती है उसी प्रकार आत्मा को जीत लेने के पश्चात इन्द्रिय श्रादि भी स्वतः पराजित हो जाती हैं ।
इन्द्र प्रात्मा को कहते हैं। उलका चिह्न अर्थात् आत्मा के अस्तित्व का परिचायक है वह इन्द्रिय है। अथवा 'लीनमर्थ गमयति इति इन्द्रियम् ' अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण गुह्य आत्मा का जिनके द्वारा बोध होता है वह इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र अर्थात् नाम कर्म के द्वारा जिसकी रचना की गई है उसे इन्द्रिय कहते हैं। तात्पर्य यह कि कर्मोदय के कारण ज्ञान-स्वरूप होने पर भी प्रात्मा इतना निर्बल हो गया है कि वह विना दूसरे के सहारे के स्वयं रूप-रस-गंध-स्पर्श श्रादि को नहीं जान सकता । इस ज्ञान में इन्द्रियाँ आत्मा की सहायक होती हैं। आत्मा श्रमूर्तिक है और वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है, अतः आत्मा का अस्तित्व भी इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है । द्रव्य इन्द्रियाँ नाम कर्म के उदय से बनती हैं, क्यों कि वे पुद्गलमय है।
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कान ) यह पांच इन्द्रियां शास्त्र में प्रतिपादन की गई हैं। चतु के अतिरिक्त चार इन्द्रियां अपने-अपने विषय को स्पष्ट करके जानती हैं, इसलिए उन्हें प्राप्यकारी कहते हैं । चक्षु रूप को स्पर्श किये बिना ही दर से जान लेती है, इसलिए वह अप्राप्यकारी कहलाती है। इन पांचों इन्द्रियों के अतिरिक्त कर्मेन्द्रिय के नाम से जो लोग वाक पाणि, पाद, वायु और उपस्थ को, इन्द्रिय मान कर दस इन्द्रियों की कल्पना करते हैं सो ठीक नहीं है शरीर के एक-एक अवयव को यदि अलग-अलग इन्द्रिय माना जायगा तो इन्द्रियों की संख्या ही स्थिर न हो सकेगी। वास्तव में इन्द्रिय उसी को कहा जा सकता है जो असाधारण, कार्य करती हो अर्थात जिसका कार्य किली दूसरे अवयव से न हो सकता हा । जैले रूप का ज्ञान चनु-इन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य किसी भी अवयव से नहीं हो सकता इस . . . लिए चनुको इन्द्रिय माना गया है। इसी प्रकार स्वाद का ज्ञान जिह्वा के अतिरिक्त किसी अन्य अवयव से साध्य नहीं है अतः जिता भी इन्द्रिय है । कर्मेन्द्रियाँ इस प्रकार का असाधारण कार्य नहीं करती है अतएव उन्हें इन्द्रिय नहीं कह सकते।
यहां उल्लिखित पांचों इन्द्रियां दो-दो प्रकार की हैं-- १ ) द्रव्येन्द्रिय और १२। भावन्द्रिय । निवृत्ति और उपकरण को भावेन्द्रिय कहते हैं तथा लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं । द्रव्योन्द्रिय पुद्गलमय होने के कारण जड़ हैं और नामकर्म के उदय से इनकी रचना होती है। भावन्द्रिय आत्मा का एक प्रकार का परिणाम हैऔर यह ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है।
शरीर में दिखाई देने वाली इन्द्रियों की प्राकृति, जो पुद्गल-स्कंधों से बनती है वह निति-द्रव्येन्द्रिय है और निवृत्ति-इन्द्रिय की भीतरी-बाहरी पौद्गलिक शाहि जिसके अभाव में निवृत्ति-द्रव्येन्द्रिय ज्ञान उत्पन्न नहीं करसकती, वह उपकरण -द्रव्येन्द्रिय कहलाती हैं।
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प्रथम अध्याब
ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में पदार्थों को जानने की जो शक्ति उत्पन्न होती है वह लब्धि-भावेन्द्रिय है और उस शक्ति का अपने योग्य विषय में व्यापार होना-प्रवृत्त होना उपयोग-भावेन्द्रिय है।
लब्धि के होने पर ही निर्वृत्ति, उपकरण और उपयोग रूप इन्द्रियां होती हैं, इसी प्रकार निवृत्ति के होने पर ही उपकरण और उपयोग इन्द्रियरं संभव है और उपकरण की प्राप्ति होने पर ही उपयोग इन्द्रिय होती हैं। ...
श्रोत्रेन्द्रिय का प्राकार कदंद के फूल के समान, चतु-इन्द्रिय का श्राकार ममूर की दाल के समान, घाणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक चंद्र के समान, जिह्वाइन्द्रिय का आकार खुरपा के समान और स्पर्शनेन्द्रिय का प्राकार विविध प्रकार का अनियत है।
पांचों इन्द्रियां अनन्त प्रदेशों से बनी हुई हैं । चे आकाश क असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ हैं । सभी इन्द्रियाँ कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग में विषय करती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय अधिक से अधिक स्वाभाविक रूप से बारह योजन दूर से आये हुए शब्द को सुन सकती है, चनुइन्द्रिय एक लाख योजन से भी कुछ अधिक दूर के पदार्थ को देख सकती है । शेर इन्द्रियां अधिक से अधिक नौ योजन दूर तक के अपने विषय को जान सकती हैं।
____ इन पांचों इन्द्रियों को जीतने से यह तात्पर्य है कि विषयों के प्रति इनकी जो लोलुपता है उसका निरोध करना अर्थात् प्रातिगक शक्ति के द्वारा गृद्धि का भाव कम करना।
सोध, मान, माया और लोभ-यह चार कपाय संसार का मूल है .। इन पर श्रांशिक विजय प्राप्त कर लेने पर ही-अर्थात् इनके एक भेद रूप अनन्तानुबंधी क्रोध आदि का क्षय या उपशम करने पर ही सस्यकृत्व की प्राप्ति होती है। इन कपायों का स्पष्टीकरण श्रागे कराय-प्रकरण' में किया जायया।
सन बन्दर की भाँति चपल है । वही वन्ध मोक्ष का मुख्य कारण है । अात्मा उसका अनुसरण करके नाना प्रकार की चेदनाएँ सहन करता है। इन सब पर विजय प्राप्त करने का सुगम उपाय आत्म-विजय है। जद प्रात्मा अपने विकारों पर विजय घाप्त करलेता है तब इन्द्रिय, मन आदि की शक्ति क्षीण हो जाती है और वे फिर प्रात्मा को विवेकहीन बनाकर कुमार्ग पर ले जाने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए सूप्रकार फरमाते है कि अात्मा को जीत लेने पर लव को सहज ही जीता जा सकता है।
मूल-सरीर माहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नावित्रो ... संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरांति महसिणो ॥ १० ॥
या-शरीरमाहुनौरिति जीव उच्यते नाविकः। .. ..... ... - संसारोऽर्णव उना, यं तरन्ति महर्षयः ॥ ३०॥ . . . . . .
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षद् द्रव्य निरूपणं शब्दार्थः-यह संसार समुद्र कहा गया है । शरीर नौका के समान है, जीव नाविक. मल्लाह के समान है । इस संसार-समुद्र को महर्षि तरते हैं ।। १० ।। .
.. भाष्य-आत्म-विजय प्राप्त कर चुकने पर प्रात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। मोक्ष या मुक्ति का अर्थ है-बंधन ले छटकारा पाना । बंधन को ही संसार कहते हैं अतएव यहां संसार का वर्णन किया गया है । संसार को यहां समुद्र का रूपक दिया . गया है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में इस संसार-रूपी समुद्र का सांगोपांग रूपक इस प्रकार निरूपण किया गया है:--
" संसार रूपी समुद्र में जन्म-जरा-मरण रूपी गहराई है। इसमें दुःख रूपी जल क्षुब्ध हो रहा है। संयोग-वियोग रूपी ज्वार-भाटा आता रहता है । वध-बन्धन रूपी बड़ी-बड़ी तंरगें उठती हैं । विलाप रूपी गर्जना होती है। अपमान रूप फैन उछलते रहते है । मृत्यु-भय रूपी सपाट पानी सदा विद्यमान रहता है। चार कषाय रूप पाताल कलशों से युक्त है । भव भवान्तर रूप जल का कहीं अन्त नहीं दिखाई देता । इसका कहीं आर-पार नहीं है । यह संसार-समुद्र डरावना है, परिमाणरहित है। इच्छा और मलिन बुद्धि रूपी वायु के वेग से उछलता रहता है। श्राशा इस समुद्र का तल है । इसमें काम-राग-द्वेष प्रादि जल के फुहारे उड़ते रहते हैं । यहां .. मोह के भंवर हैं । जैसे समुद्र में मछलियां ऊपर-नीचे दौड़ती रहती हैं उसी प्रकार संसार में यह जीव विभिन्न गर्मों में घुमता रहता है। समुद्र में हिंसक प्राणी होते हैं। यहां प्रमादं श्रादि हैं । इनके उपद्रव से उठते हुए मत्स्य रूप मनुष्यों के समूह इस संसार-सागर में रहते हैं ।......संताप रूप बड़वानल यहां सदैव जलती रहती है। अभिमान आदि अशुभ अध्यवसाय रूपी जलचरों द्वारा पकड़े हुए जीव समुद्र के तल के समान नरक की ओर खिचे जा रहे हैं। यह संसार-समुद्र रति-अरति-भय विपाद श्रादि रूपी पर्वतों से व्याप्त है । यह संसार-सागर क्लेश रूपी कीचड़ से व्याप्त होने के कारण दुस्तर है। .........संसार-समुद्र चार प्रकार की गति रूप विशाल और अनन्त विस्तार वाला है । जिन्होंने संयम में दृढ़ता धारण नहीं की है, उन्हें इस संसार-सागर में कुछ भी सहारा नहीं है।" . तात्पर्य यह है कि जैसे समुद्र में पड़े हुए मनुष्य के कष्टों का पार नहीं रहता उसी प्रकार संसार के कष्टों का पार नहीं है। समुद्र से निकल कर किनारे लगना जैसे अत्यन्त कठिन है उसी प्रकार संसार से निकल कर किनारे लगना मोक्ष प्राप्त होना भी अतिशय कठिन हैं। इन सब सदृशतायों के कारण संसार समुद्र कहलाता है।
संसार-समुद्र से पार होना यद्यपि कठिन है, पर असंभव नहीं है। यदि सुयो ग्य नौका-जहाज-मिलजाय और उस जहाज का प्रयोग करने वाला कर्णधार निपुण ही तो किनारे पर पहुंच सकते हैं इसी प्रकार यदि योग्य शरीर अर्थात् मनुष्य का औदा रिक शरीर प्राप्त हो जाय तो संसार के किनारे पहुंच सकते हैं।
औदारिक शरीर यद्यपि अशुचि रूप हैं, योगियों के राग का पात्र नहीं है, फिर.
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प्रथम अध्याय
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भी वह मुक्ति की प्राप्ति में निमित्त कारण होता है । इसीलिए ममता के त्यागी- शरीर पर तनिक भी राग न रखने वाले मुनिराज आहार के द्वारा उसका पोषण करते हैं । कहा भी है-
अर्थात् यह शरीर रूपी नौका बिना कीमत चुकाये-मुफ्त में नहीं मिली है । बहुत-सा पुण्य रूप मूल्य चुका कर इसे खरीद किया है, और इसे खरीदने का उद्देश्य दुःख- समुहं से पार पहुँचना है । अतएव शरीर - नौका के टूटने-फूटने से पहले ही पार उतर जाओ - ऐसा प्रयत्न करो कि शरीर का नाश होने से पहले ही दुःखों का नाश हो जाए अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाए ।
जिस प्रकार नौका पर चढ़ कर विशाल सागर पार किया जाता है, उसी प्रकार शरीर का आश्रय लेकर संसार-सागर पार किया जाता है । सूत्रकार ने इसी अभिप्राय से नौका कहा है | पार पर पहुँचने के पश्चात् गन्तक स्थान पर पहुँचने के लिए नौका का त्याग करना अनिवार्य है उसी प्रकार मुक्ति के किनारे-चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाने पर शरीर का त्याग करना भी अनिवार्य होता है ।
नौका जड़ हैं, शरीर भी जड़ है । उसमें लक्ष्य की ओर स्वतः लेजाने की शक्ति नहीं है, शरीर में भी लक्ष्य - मोक्ष की ओर स्वयं लेजाने की शक्ति नहीं है । अतएव नौका को मल्लाह चलाता है, इसी प्रकार शरीर को चलाने वाला मल्लाह जीव है ।
जो मल्लाह नौका को सावधानी और बुद्धिमत्ता के साथ नहीं चलाता, वह मल्लाह नौका को भँवर में फँसा देता है, या उलट देता है । इसी प्रकार जो जीव शरीर- नौका क्रो सम्यज्ञान और यतन के साथ नहीं चलाता वह संसार-सागर में उसे फँसा देता है या उसका विनाश कर डालता है। नौका के फँस जाने पर नौका की हानि नहीं होती वरन् मल्लाह की ही हानि होती है, इसी प्रकार शरीर नौका दुष्प्रयोग करने से जीव रूपी नाविक की ही हानि होती है ।
नौका को डुबोने के कारण / श्रांधी, तूफान और समुद्र का क्षोभ आदि होते हैं और शरीर - नौका को डुबोने के कारण राग-द्वेष आदि का तूफान और अन्तःकरण का क्षोभ आदि होते हैं ।
जैसे मल्लाह का कर्तव्य यह है कि वह बहुत सावधानी और दृढ़ता के साथ नौका चलावे, इसी प्रकार जीव का कर्त्तव्य हैं कि वह शरीर का अप्रमत्त होकर, विवेक के साथ सदुपयोग करे |
अगर नौका को चलाने वाला केवट जीव है तो उस पर श्रारूढ़ होनेवाला यात्री कौन है ? संसार - सागर से किसे पार उतरना है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए सूत्रकार कहते है - 'जं तरंति महेसियो ।' अर्थात् महर्षि शरीर-नौका पर श्रारूढ होकर संसार सागर तरते हैं ।
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जीव ही महर्षि पदवी प्राप्त करता है, और जीव को यहाँ केवट बतलाया गया है । इस प्रकार नौका चलानेवाला और उस पर आरूढ़ होने वाला - तरनेवाला जीव ही
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पटू द्रव्य निरूपण सिद्ध होता है । जीव ही मल्लाह है और जीव ही तरनेवाला है। इसमें किसी को विरोध की आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योकि एक ही व्यक्ति में उक्त दोनों बातें संभव हैं । अथवा आत्मा का सांसारिक और सोपाधिक रूप नाविक है और आत्मा का शुद्ध स्वरूप महर्षि बतलाया गया है । इस कारण भी कोई विरोध नहीं है ।
सूत्रकार ने संसार को समुद्र का रूपक देकर यह सूचित किया है कि संसार का अन्त करना सहज नहीं है । इसके लिए बड़े भारी प्रयत्न की श्रावश्यक्ता है। हढ़ता पुरुषार्थ, धैर्य और विवेक को सामने रख कर निरन्तर प्रवृत्ति करने से ही सफलता मिल सकती है । यहाँ जरा-सी असावधानी की तो समुद्र के गहरे तल में जाना पड़ता है उसी प्रकार शरीर का दुरुपयोग किया तो संसार के तल में अर्थात् नरकनिगोद में जाना पड़ता है ।
अतएव मुक्ति के साधन भूत इस परिपूर्ण और सवल शरीर का सदुपयोग. करो; अवसर निकल जाने पर फिर पश्चाताप करना पड़ेगा । इसको भोगोपभोग का साधन न बनाओ। इस पर ममता भाव रख कर इसके पोषण को ही अपना उद्देश्य न समझो | ऐसा करने से शरीर श्रहित का कारण बन जाता है। इसे प्राप्त करने के लिए जो मूल्य चुकाया है उसके बदले हानि न उठाओ।
शरीर का सदुपयोग क्या है ? नेत्रों से मुनिराजों का दर्शन करना और शास्त्रोंका अवलोकन करना, कानों से धर्मोपदेश का श्रवण करना, जीभ से हित- मित-प्रिय वाणी बोलना, हाथों से और मस्तक से गुरुजनों के प्रति विनम्रता प्रदर्शित करना, इसी प्रकार अन्यान्य अंगों - पांगों को धर्माराधन, सेवा और परोपकार में लगाना शरीर का सदुपयोग है । इससे विरुद्ध रूप-रस आदि विषयों के सेवन में गोपांगों का उपयोग करना दुरुपयोग है । सूत्रकार कहते हैं- अगर शरीर नौका का सम्यक् प्रयोग करोगे तो महर्षि बन कर संसार सागर से पार उतर जाओगे ।
मूल -- नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ।
वीरियं उब योगो य, एयं जीवस्स लक्खणम् ॥११॥
छाया - ज्ञानन्च दर्शन चैत्र, चारित्रन्च तपस्तथा ।
वीर्यमुपयोगश्च एतज्जीवस्य लक्षणम् ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम ! ज्ञान, दर्शन, चारिन्न, तप, सामर्थ्य और उपयोग यह सब जीव के लक्षण हैं
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भाष्यः- प्रारंभ में आत्मा की नित्यता और इन्द्रियों द्वारा उसकी श्रग्राह्यता का विवेचन किया था । तदनन्तर श्रात्मा के दमन का विवेचन किया गया। किन्तु श्रात्मा के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना श्रात्म-दमन होना असंभव है, इसलिए सूत्रकार ने प्रस्तुत गाथा में श्रात्मा के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है !
वस्तु के असाधारण धर्म को लक्षण कहते हैं । एक साथ मिली हुई बहुत-सी
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[ २६ वस्तुओं में से जिस विशेषता के द्वारा एक वस्तु जुदी की जा सकती है, वह विशेषता ही लक्षण कहलाती है उदाहरणार्थ-किसी जगह पशुओं का समूह एकत्र है। उनमें गाय, भैंस, बकरी, घोड़ी आदि विविध जाति के पशु हैं। देवदत्त ने जिनदत्त से कहा जाओ, पशुओं के झुंड में से गाय ले श्राओ। जिनदत्त गाय को नहीं पहचानता है, इसलिए वह पूछता है-'गाय किसे कहते हैं ?' देवदत्त ने कहा -'जिसके गले में चमड़ा लटकता है उस स्त्री-जाति पशु को गाय कहते हैं।' यह सुन कर जिनदत्त गया
और जिस पशु के गले में चमड़ा लटक रहा था, उसे गाय समझ कर ले आया। यहाँ गले का लटकने वाला चमड़ा गाय का लक्षण कहलाया, क्योंकि ऐसा चमड़ा भैस
आदि अन्य पशुओं में नहीं पाया जाता। इसी को असाधारण धर्म कहते हैं। असाधारण धर्म से एक वस्तु दूसरी वस्तुओं से अलग करके पहचानी जाती है।
यहां ज्ञान, दर्शन श्रादि को जीव का लक्षण बतलाकर सूत्रकार ने यह भी • बतला दिया है कि यह ज्ञानादि जर्जाब के असाधारण धर्म हैं, अर्थात् जीव के अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य में ज्ञान, दर्शन आदि का सद्भाव नहीं पाया जाता ।
जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं, या जो पदार्थों को जानता है अथवा जानना ही ज्ञान है । तात्पर्य यह है कि सामान्य-विशेष धर्म वाले पदार्थ के सामान्य गुण को गौण करके विशेष धर्मों को प्रधान करके जानने वाला प्रात्मा का गुण ज्ञान कहलाता है । ज्ञान का विस्तृत विवेचन ज्ञान-प्रकरण में किया जायगा ।
___ पदार्थ के विशेष धमों को गौण कर के सामान्य धर्म को. प्रधान. करके जानने चाला आत्मा का गुण दर्शन कहलाता है । ज्ञान साकारोपयोग कहलाता है और दर्शन निराकारोपयोग कहलाता है। ज्ञान के द्वारा पदार्थ की विशेषताएँ जानी जाती हैं और दर्शन से सामान्य अर्थात् सत्ता का ही ज्ञान होता है। ___ . अशुभ और लावध क्रियाओं का त्याग करके शुभ क्रियाशों में प्रवृत्ति करना चारित्र है अथवा श्रात्मा का अपने शुद्ध स्वभाव में रमण करना चारित्र है । चारित्र के पांच भेद हैं-सामायिक. छेदोपस्थापना, परिहारारिशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात । इनका विशेष विवेचन भी आगे किया जायगा।
संवर और निर्जरा के हेतु मुमुनु जन अनशन आदि वाह्य तपस्या और आलोचना, प्रतिक्रमण आदि प्राभ्यन्तर तपस्या करते हैं, वह तप है । जीव के सामर्थ्य को वीर्य कहते हैं और झान-दर्शन की प्रवृत्ति उपयोय कहलाती है। यह लक्षण जिसमें पाये जावें उसे जीव कहते हैं ।
प्रश्न-जीव का लक्षण बताने के लिए उसके किसी एक ही विशेष गुण का उल्लेख कर देना पर्याप्त था। उसी एक गुण के द्वारा जीव, अन्य द्रव्यों से अलग समझा जा सकता था । ऐसी अवस्था में यहां बहुत-से गुणों का कथन क्यों किया गया है ?
समाधान-सूत्रकार परम दयालु है । करुणा से प्रेरित होकर प्रत्येक शिष्य
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षट् द्रव्य निरूपण को तत्त्व का यथार्थ बोध कराने के लिए सूत्र-रचना में उन्हों ने प्रवृत्ति की है । अतएव जीव को एक विशेष गुण के द्वारा लक्षित न कर के सामान्य वुद्धि वाले शिष्यों के कल्याण के लिए मध्यम मार्ग ग्रहण करके अनेक गुणों का प्रतिपादन किया है । शान और दर्शन श्रादि के विषय में मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से अनेक मतावलम्बियों ने युक्ति और अनुभव के विरुद्ध अनेक मिथ्या कल्पनाएँ की हैं। उन कल्पनाओं का सूत्रकार ने यहां विरोध करके यथार्थ जीव का स्वरूप निरूपण किया है।
कणाद ऋषि के अनुयायी वैशेषिक लोग ज्ञान का जीव को स्वरूप नहीं मानते। उनके मत के अनुसार जीव भिन्न पदार्थ है और ज्ञान भिन्न पदार्थ है । जीव जक मुक्त होता है तो ज्ञान का सर्वथा नाश हो जाता है । यदि जीव को और ज्ञान को एक ही पदार्थ माना जाय तो मुक्ति में ज्ञान का नाश होने पर जीव का भी नाश मानना उचित नहीं है अतएव ज्ञान को जीव से भिन्न मानना चाहिए । दोनों को भिन्न-भिन्न मानने से ज्ञान का विनाश हो जाने पर भी जीव बचा रहता है।
वैशेषिकों का यह कथन सर्वथा निर्मूल है। ज्ञान यदि जीव से बिलकुल भिन्न होता तो ज्ञान से जीव को बोध न होता-जीव किसी भी पदार्थ को ज्ञान के द्वारा जान ही न पाता । मान लीजिए -ज्ञानचन्द्र किसी पदार्थ को जानता है तो उससे विज्ञानचन्द्र का अज्ञान न नहीं हो जाता, क्यों कि ज्ञानचन्द्र का ज्ञान विज्ञानचन्द्र की श्रात्मा से सर्वथा भिन्न है । तात्पर्य यह हुआ कि जिस श्रात्मा से जो ज्ञान भिन्न होता है, उस आत्मा को उस ज्ञान से बोध नहीं होता। अगर ऐसा न माना जाय तो एक जीव को किसी वस्तु का ज्ञान होते ही, उसके ज्ञान से सभी श्रात्माओं को बोध हो जायगा। फिर संसार में ज्ञान की जो न्यूनाधिकता देखी जाती है वह न रहेगी। एक के ज्ञान से सभी जानने लगेंगे तो सभी बरावर ज्ञानी होंगे । न कोई गरु रहेगा, न कोई शिष्य रहेगा । नानोपार्जन के लिए प्रयत्न करने की भी श्रावश्यकता न रहेगी, क्यों कि सिद्धों के ज्ञान से सभी को सभी पदार्थों का बोध हो जायगा । मगर ऐसा नहीं होता है-हमें दूसरे के ज्ञान से बोध नहीं होता है, क्यों कि उसका ज्ञान हमारी
आत्मा से भिन्न है । जैसे दूसरे का ज्ञान हमारी प्रात्मा से भिन्न है उसी प्रकार हमारा ज्ञान भी अगर हमसे भिन्न है, जैसा कि वैशेषिक कहते हैं, तो हमें अपने ज्ञान से भी. बोध नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरे का ज्ञान हमसे भिन्न है उसी प्रकार हमारा शान भी हमसे भिन्न है तो अपने और पराये ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं रहा । ऐसी हालत में दो बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि हम अपने शान द्वारा भी न जाने, अथवा दूसरे के ज्ञान से भी जानने लगे। यह दोनों ही बातें अनुभव से विरुद्ध हैं अतएव स्वीकार नहीं की जा सकतीं।
शंका-जिस प्रात्मा में, जो ज्ञान समवाय संबंध से रहता है, उसी प्रात्मा में वह झान बोध कराता है । ज्ञानचन्द्र का ज्ञान, ज्ञानचन्द्र की ही आत्मा में * समवाय
* नित्य संबंध समवाय-संबंध कहलाता है। अर्थात् जो संबंध सदा से चला पा रहा हैजिसकी कभी श्रादि नहीं हुई वह संबंध समवाय है. जैसे-जीव का ज्ञान के साथ समवाय संबंध है।
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प्रथम अध्याय
संबंध से रहता है अतएव वह उसी की आत्मा में बोध कराता है. दूसरों को बोध नहीं होता ।
समाधान- आपके मत में समवाय संबंध व्यापक, नित्य और एक माना गया है । आत्मा भी आपके मत में व्यापक है अतः प्रत्येक ग्रात्मा के साथ ज्ञान का समवाय संबंध सरीखा होगा । जैसे व्यापक होने के कारण आकाश के साथ सबका समान संबंध है, उसी प्रकार समवाय संबंध भी सब के साथ समान ही होना चाहिए | अतएव हमने जो बाधा पहले बतलाई है उसका निवारण करने के लिए समवाय संबंध की कल्पना करना उपयोगी नही है ।
[ ३९ ]
- उस ज्ञान से
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इस प्रकार वैशेषिक मत का निराकरण करने के लिए ज्ञान को जीव का स्वरूप बताया गया है ।
जैसा कि पहले कहा है, प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेष गुणों का समुदाय हैं । श्रतएव अकेला ज्ञान विशेष गुणों को जान सकता है, सामान्य गुणों का बोध उससे नहीं हो सकता । और परिपूर्ण पदार्थ का ज्ञान तभी माना जा सकता है सामान्य और विशेष दोनों अंश जान लिये जाएँ। इसी उद्देश्य से ज्ञान के बाद दर्शन को भी जीव का स्वरूप बतलाया गया है।
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स्वरूप में रमण करना भी एक प्रकार का चारित्र है । यह चारित्र जीव का स्वरूप हैं अतएव उसका भी यहां उल्लेख किया गया है । तप, चारित्र का एक प्रधान अंग है । यद्यपि चारित्र में तप का अन्तर्भाव होता है फिर भी निर्जरा का प्रधान कारण होने के कारण, उसका विशेष महत्व व्योतित करने के लिए उसका पृथक् कथन किया है ।
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वीर्य को जीव का स्वरूप बतला कर सूत्रकार ने गोशालक के पंथ (आजीवक मत ) का निराकरण किया है। श्राजीवक सम्प्रदाय में कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार पराक्रम का निषेध करके नियतिवाद को स्वीकार किया गया है । उसका कथन यह है कि कोई भी क्रिया कर्म -बल-वीर्य से नहीं होती । जो होनहार है वही होता है । उसके लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ की श्रावश्यकता नहीं है ।
आजीवक सम्प्रदाय की यह मान्यता ठोक नहीं है । वास्तव में कोई सुख, दुःख आदि नियतिकृत होते हैं और कोई नियतिकृत नहीं होते-वे पुरुष के उद्योग आदि पर निर्भर होते हैं | अतएव सुख आदि को एकान्त रूप से नियतिकृत मानना श्रयुक्त है। 'वीर्य' शब्द का गाथा में ग्रहण करने से सूत्रकार ने यह आशय प्रकट किया है ।
उपयोग को जीव का स्वरूप प्रतिपादन करके आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का सूचन किया गया है | आत्मा की सिद्धि पहले की जा चुकी है श्रतएव यहां उसकी पुनरुक्ति नहीं की जाती । उपयोग का दूसरा अभिप्राय हिताहित के विवेक के साथ प्रवृत्ति करना भी होता है । हिताहित का विवेक जीव में ही हो सकता है श्रतएव यह भी जांच का असाधारण धर्म है । इसका यहां उल्लेख करके सूत्रकार ने परोक्ष रूप से
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[ ३२ ]
द्रव्य निरूपण. यह प्रतिपादन किया हैं कि प्रत्येक जीव को, अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति से पहले यह सोचलेना चाहिए कि यह प्रवृत्ति श्रात्मा का हित करनेवाली है या अहित करने वाली ? हितकारक प्रवृत्ति करना चाहिए और अहितकारक प्रवृत्ति का परित्याग कर देना चाहिए | क्रोध के आवेश में, या लोभ आदि की प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्मा का श्रहित करना मनुष्य जीवन का दुरुपयोग है । यहीं नहीं, मनुष्य को अपने प्रत्येक कार्य के प्रति सावधान रहने का आशय यह भी है कि वह कार्य करने के पश्चात् भी आदर्श की कसौटी पर उसे कसे और यदि कोई कार्य उस कसौटी पर खोटा प्रसिद्ध हो तो उसके लिए पश्चाताप करने के साथ भविष्य में वैसा करने के लिए पूर्ण सावधानी रक्खे | इस प्रकार करने से जीवन शुद्ध और निष्पाप बन जाता है ।'
मूलः - जीवाजीवा य बंधोय, पुरणं पावासवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतए तहिया नव ॥ १२ ॥
छाया: - जीवा, अजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापात्र तथा ।
संवरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव ॥ १२ ॥
शब्दार्थ : - जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह नौ तथ्य या तत्व हैं ॥ १२ ॥
भाष्यः -- पूर्व गाथा में जीव का स्वरूप बतलाया गया है। उससे यह शंका हो सकती है कि क्या एक मात्र जीव पदार्थ ही सत्य है, जैसा कि वेदान्त वादी कहते हैं, या अन्य पदार्थ भी हैं ? इस शंका का समाधान करने के लिए यहां तत्वों का निरूपण किया गया है ।
जिसमें चेतना हो उसे जीव कहते हैं । अर्थात् जिसमें जानने-देखने की शक्ति हैं, जो पांच इन्द्रियों, तीन वल, श्वासोच्छास और आयु-इन दस द्रव्य प्राणों के सद्भाव में जीवित कहलाता है या ज्ञान, दर्शन आदि भाव प्राणों से युक्त होता है । उसे जीव तत्व कहते हैं ।
जीव, जाति- सामान्य की अपेक्षा एक होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा श्रनन्तानन्त हैं । जाति की अपेक्षा एक कहने से यह अभिप्राय है कि प्रत्येक जीव में स्वाभा विक रुप से एक-सी चेतना शक्ति विद्यमान है । व्यक्ति की अपेक्षा अनन्तानन्त कहने 'का आशय यह है कि प्रत्येक जीव की सता एक-दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र है ।
स्थूल दृष्टि से जीव दो विभागों में विभक्त किये जा सकते हैं - ( १ ) संसारी और (२) मुक्त | संसारी जीव वह हैं जो अनादिकाल से कमों के बंधन में पड़े हुए हैं, जिनका स्वभाव विकृत हो रहा है और जो सांसारिक सुख-दुःखों को सहन कर रहे हैं। इससे विपरीत, जो जीव अपने पराक्रम के द्वारा समस्त कर्मों का समूल विनाश कर चुके हैं, जिनकी श्रात्मा का असली स्वभाव प्रकट हो चुका है और जो विविध योनियों में जन्म-मरण आदि की सांसारिक वेदनाओं से छुटकारा पा चुके हैं, वे मुक्त
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AmerieratUTTAIM Mataravaar
प्रथम श्रध्याय
[ ३३ जीच कहलाते हैं। .. ... ...
संसार के प्राणी कमों के अनुसार भिन्न-भिन्न दशा में रहते हैं। जैसे रंगभूमि में अभिनय करने वाला अभिनेता नाना वेष धारण करता और मिटाता है उसी प्रकार संसारी जीव कमी एक पर्याय धारण करता है, कभी दूसरी पर्याय में जा पहुंचता है। यो तो इन पर्यायों की गिनती ही नहीं है, किन्तु शास्त्रकारों ने प्रधान रूप से दो पर्याय
नाई हैं-एक त्रास, दृसरी स्थावर । जो जीब चल-फिर सकते हैं, समर्मी-सर्दी से वचने का प्रयत्न करते हैं उन जंगम जीवों को बस कहते हैं। जो प्राणी चल फिर नहीं सकते-एकही जगह स्थिर रहते हैं उन्हें स्थावर कहते हैं।
स जीव भी कई प्रकार के होते हैं । जैसे-कोई पांच इन्द्रियों पाले, कोई चार इन्द्रियों वाले, कोई तीन इन्द्रियों वाले और कोई-कोई दो इन्द्रियों वाले। स्थावर जीवों के केवल एक ही इन्द्रिय होती है... पर्शन, रसना, प्राण, चतु और कर्ण, यह पांव इन्द्रियां हैं। जिन जीवों के एक इन्द्रिय होती है उनके सिर्फ स्पर्शनेन्द्रिय, जिनके दो होती हैं उनके स्पर्शन और रसना होती है, इसी प्रकार पांचों इन्द्रियों तक समझना चाहिए। - पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और संजी इस प्रकार दो तरह के होते हैं। जिनमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संबंधी विशिष्ट संज्ञा होती है वे संझी या मनवाले कहलाते हैं और जिनमें उक्त संज्ञाएँ विशिष्ट रूप में नहीं पाई जाती-जिन्हें मन प्राप्त नहीं है और जो हित-अहित का भलीभांति विचारही कर सकते उन्में संजी जीव कहते हैं। पंचेन्द्रिय वाले जीव सकलेन्द्रिय कहलाते हैं, क्योंकि उन्हें समस्त इन्द्रियां प्राप्त है और चार इन्द्रिय वाले जीवों से लगाकर दो इन्द्रिय वाले तक विकलेन्द्रिय कहलाते हैं-स्योंकि उन्हें अपूण-अधूरी इन्द्रियां प्राप्त है।
स्थावर या एक इन्द्रिय वाले जीव मुख्य रूप से पांच प्रकार के हैं-पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, घायुकाय और वनस्पतिकाय । यह स्थावर जीव चल-- फिर नहीं सकते और इनकी चेतना शक्ति अत्यन्त श्रव्यस्त होती है, इस कारण कई लोग इन्हें जीव रूप में स्वीकार करने से झिझकते हैं। मगर वास्तव में यह जीव हैं। पृथ्वी को शरीर बनाकर रहने वाला जीव पृथ्वीकाय कहलाता है । जल जिसका शरीर है वह जलकाय जीव है। इसी प्रकार अन्य भी समझ लेना चाहिए। विज्ञानाचार्य दिवंगत सर जगदीशचन्द्र वसु ने अपने प्राविष्कार द्वारा वनस्पतिकाय के जीवों का अस्तित्व सिद्ध करदिया है और अब उसमें किसी को लेशमात्र सन्देह करने की गुंजाइश नहीं रही है । इसी भांति अन्य स्थावर जीवों का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है।
. संसारी जीव और मुक्त जीव को यहां एक ही तस्क में समावेश करने से यह सिद्ध होता है कि संसारी जीव ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र की नाराधना करके, आत्मिक विकारों को विनए कर के.सुरू हो जाता है। 'मुक्त' शब्द एन भी यही सूचित होता है। मुक्त शब्द का अर्थ है-बुटा हुत्रा, छूट नही सकता
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[ ३४ ]
षट् द्रव्य निरूपणहै जो पहले बंधा हुआ हो । जो कभी बद्ध नहीं था, उसे मुह नहीं कहा जा सकता। तात्पर्य यह है कि इस समय जो जीव संसारी है, और-बन्धनों में आवद्ध है वह मुक्ति के अनुकल प्रयत्न करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है, अतएव मुक्त और संसारी जीव में वास्तविक भेद नहीं है। आत्मा की शुद्धता के कारण ही यह भेद है और वह भेद मिट जाता है। कुछ लोगों की यह धारणा है कि इस भव में जो जीव जिस रूप में है वह श्रागामी भव में भी वही बना रहता है । यहां जो पुरुष है, वह आगामी भवमें भी पुरुष ही होगा, वर्तमान भव की स्त्री सदैव स्त्री रहेगी, पशु सदा पशु रहेगा । यह धारणा भ्रमपूर्ण है । ऐसा मान लेने से धर्म का आचरण, संयमानुष्ठान श्रादि व्यर्थ हो जाएँगे । श्रतएव यही मानना उचित है कि जीव विविध पर्यायों में विविध रूप धारण करता रहता है। .
जैनागम में जीव तत्व के अनेक प्रकार ले भेद-प्रभेद किये गये हैं । जैसेएकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के हैं,पंचेन्द्रिय जीव असंझी और संझी के भेद से दो प्रकार के हैं, तथा दो इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय और चौ-इन्द्रिय जीव मिलकर सात भेद होते हैं । इन लातों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करने से चौदह भेद हो जाते हैं।
यहां सूक्ष्म जीव का अर्थ यह है-जो जीव आँखों से नहीं देखे जा सकते. स्पर्शनेन्द्रिय से जिनका स्पर्श नहीं किया जा सकता, अग्नि जिन्हें जला नहीं सकती, जो काटने से कटते नहीं, अदने से भिदते नहीं, किसी को उपघात पहुँचात नहीं और न किसी से उपघात पाते हैं । ऐसे सूक्ष्म जीव समस्त लोकाकाश में भरे हुए हैं। इनसे विपरीत स्वरूप वाले जीव वादर (स्थूल ) कहलाते हैं। अंर्थात् जो जीव नेत्र से देख्ने जा सकते हैं, जिन्हें अग्नि भस्म कर सकती है, काटने से कर सकते हैं, भेदने ले भिद सकते है और जो समस्त लोकाकाश में व्याप्त नहीं है, जिनकी गति में दूसरों से बाधा होती है या जो दूसरे की गति में बाधक होते हैं, वे बादर जीव कहलाते हैं।
पर्याप्ति एक प्रकार की शक्ति है। शरीर से सम्बद्ध पुद्गलों में ऐसी शक्ति होती है जो श्राहार से रस आदि बनाती है। वह शक्ति जिन जीवों में होती है ये पर्याप्त कहलाते हैं और जिनमें नहीं होती वे अपर्याप्त कहलाते हैं।
जीव तत्व के पांचसौ तिरेखट ( ५६३) भेद भी किसी अपेक्षा से होते हैं। १६८ भेद देवों के, १४ भेद नरकों को, ४८ भेद तिर्यञ्चों के, ३०३ भेद मनुष्यों के । इन सब भेदों का विस्तार अन्यत्र देखना चाहिए । विस्तारभय से यहां उनका उल्लेख मात्र कर दिया गया है।
दुलरा अजीव तत्व है । उसका लक्षण जड़ता है अर्थात् जिसमें चैतन्य शक्ति नहीं पाई जाती वह घाजीव कहलाता है। अजीव तत्व के मुख्य पांच भेद हैं। जैसेधर्मास्तिफाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुदगल और काल । धर्मास्तिकाय आदि तीन के तीन-तीन भेद हैं--(१) कन्ध, २देश, प्रदेश । पुदगल के चार भेद
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NirupmarrD
प्रथम अध्याय
[ ३५ ] हैं- स्कन्ध, २ देश, ३ प्रदेश और ४ परमाणु । इन +४=१३ में काल को सम्मिलित करने से चौदह भेद हो आते हैं।
स्कन्ध-चौदह राजू लोक में पूर्ण धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय.और पुद्गलास्तिकाय को-प्रत्येक को स्कंध कहते हैं । अनन्त पुद्गल परमाणुश्री के मिले हुए समूह को भी स्कंध कहा जाता है।
देश-स्कन्ध से कुछ न्यून भाग को, कल्पित स्कन्ध भाग को देश कहते हैं। __प्रदेश-स्कन्ध या देश में मिला हुआ, अत्यन्त सूक्ष्म भाग, जिसका फिर विभाग न हो सकता हो वह प्रदेश कहलाता है।
परमाणु-स्कन्ध अथवा देश से अलग हुए, प्रदेश के समान अत्यन्त सूक्ष्म'अविभाज्य-अंश को परमाणु कहते हैं। ..."
अजीव तत्व के विस्तार की अपेक्षा ५६० भेद भी निरूपित किये गये हैं। उनमें तीस भद अरूपी अजीव के हैं और ५३० भेद रूपी अजीव के हैं । अजीव तत्व के मूल भेदों का स्वरूप आगली गाथा में बतलाया जायगा।
तीसरा यहां बंध तत्व बनलाया गया है। सकपाय जीव,कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। अर्थात् मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग के निमित्त से, सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाढ़ अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों को प्रतिसमय ग्रहण करता रहता है, इसी को बंध कहते हैं। तात्पर्य यह है कि कार्माण रूप में परिणत होने वाले पुद्गल सारे लोकाकाश में भरे हुए हैं। जिस जगह श्रात्मा के प्रदेश हैं वहां भी व विद्यमान रहते हैं। ऐसी अवस्था में जीव जब मिथ्यात्वादि के आवेश के वश में होता है तब वे कार्माण रूप में परिणत होने वाले पुद्गल परमाणु जिस श्राकाशप्रदेश में हैं, उसी श्राकाश-प्रदेशवी श्रात्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं। जैसे अग्नि से खूब तपा हुआ लोहे का गोला यदि पानी में डाला जाय तो वह सभी तरफ से पानी को ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यात्वादि से प्राविष्ट यह जीव सभी श्रात्म-प्रदेशों से कर्म-परमाणुधों को ग्रहण करता है । ग्रहण करने की यह क्रिया प्रतिक्षण चल रही है और अनन्तानन्त परमाणुओं को प्रति समय जीव महरा कर रहा है।
जैसे एक पात्र में विविध प्रकार के रस, बीज, फूल, फल आदि रख देने से के मदिरा के रूप में परिणत हो जाते हैं उसी प्रकार योग और कषाय का निमित्त पाकर के ग्रहण किये हुए पुदगल-परमाणु कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार पुद्गल-परमाणुओं का कर्म रूप में परिणत हो जाना ही बंध-कहलाता है। - बन्ध के संक्षेप में दो भेद हैं-१ द्रव्य यंध और २ भाव बंध । कर्म-परमाणुओं का प्रात्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होजाना द्रव्य बंध है और आत्मा के जिन शुभअशुभ परिणामों के कारण कर्म-बंध होता है उन भावों को भाव-बंध कहा जाता है।
चंध तत्व के चार भेद प्रसिद्ध है - १ प्रकृति बन्ध २ स्थिति चन्ध ३ अनुभाग
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षद्रव्य निरूपण वंध ४ और प्रदेश बंध । कर्म का स्वभाव प्रकृति बंध है कर्म का प्रात्मा के साथ बंधे रहने की कालिक मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं। तीव्र, मंद आदि कर्मों के फल को अनुभाग बंध कहते हैं और कर्म-परमाणुओं का समूह प्रदेश बंध कहलाता है।
इन चार प्रकार के बंधों का स्वरूप सरलता से समझाने के लिए मोदक का दृष्टान्त दिया जाता है । वह इस प्रकार है:
प्रकृति बन्ध-जैसे किसी मोदक (लड्डू का स्वभाव वात का विनाश करना होता है, किसी का स्वभाव पित्त को कम करना होता है, किसी का स्वभाव का का विनाश करना होता है, इसी प्रकार किसी कर्म का स्वभाव जीव के ज्ञान का आवरण करना है, किसी कर्म का स्वभाव दर्शन गुण का आवरण करना है, किसी कर्म का स्वभाव चारित्र का आवरण करना होता है। कर्म के इस विभिन्न विभिन्न स्वभाव को प्रकृति वंध कहा है।
स्थिति बन्ध-जैस्ले कोई मोदक एक वर्ष तक एक ही अवस्था में बना रहता है, कोई छह महीने तक, कोई एक मास-पक्ष या सप्ताह तक उसी अवस्था में रहता है, इसी प्रकार कोई कर्म अन्तर्मुहूर्त तक कर्म रूप परिणाम में रहता है, कोई तेतीसह कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तक कर्म-पर्याय में बना रहता है और कोई सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तक आत्मा के साथ बना रहता है। काल की इस मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं।
अनुभाग बन्ध-जैसे कोई मोदक अधिक मधुर होता है कोई थोड़ा, कोई अधिक कटुक होता है, कोई कम, कोई अधिक तीखा होता है कोई कम तीखा होता है. इसी प्रकार ग्रहण किये हुए कर्मों में से कोई तीन फल देता है, कोई मन्द फल देता है, किसी का फल तीव्रतर या तीव्रतम होता है, किसी का मन्दतर और मन्दतम होता है। इस प्रकार कर्मों के रस को तीव्रता और मन्दता को अनुभाग बंध या रस चंध कहते हैं।
प्रदेश बन्ध-जैसे कोई मोदक एक छटांक होता है, कोई बाधा पाव या पाव का होता है, उसी प्रकार कोई कर्म-दल कम परिमाण वाला होता है, कोई अधिक परिमाण वाला होता है । इस प्रकार कर्म-दल के प्रदेशों की न्यूनाधिकता को प्रदेश चंध कहते हैं।
इन चार प्रकार के बंधों में प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बंध कपाय से होते हैं। अर्थात् किस-किस खभाव वाले और कितने कर्म-दल श्रात्मा के साथ वन्धे? यह योग की प्रवृत्ति पर निर्भर है। योग यदि अशुभ
और तीन होगा तो अशुभ प्रशति और अधिक परिमाण वाले कर्म-दल का बंध होगा। इसी प्रकार कापाय तीव्र होगा तो अधिक स्थिति वाले अधिक अशुभ फल देने वाले कर्म दलका बंध होगा । मन्द योग-कपाय होने पर इससे विपरति समझना चाहिए।
पारहवें श्रीर तेरहवें गुरुस्थान में कपार का भ्रम हो जाता है। वहाँ केवल
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प्रथम अध्याय
[. ३७ } योग ही बंध का कारण शेप रहता है। अतएव इन दोनों गुणस्थानों में प्रभक्ति-प्रदेश बंध होता है पर स्थिति और अनुभाग बंध कपाय के अभाव के कारण नहीं होता है। जैसे दीवाल पर फैंकी हुई वालुका दीवाल पर ठहरे बिना ही झड़ जाती है उसी प्रकार वहाँ कर्म भाते हैं पर स्थिति न होने के कारण आते ही झड़ते जाते है-उनका फल भी अनुभाग बंध न होने के कारण नहीं भोगा जाता। कहा भी है
जोगा पयडिएएस, ठिदि-अणुभागा कसामों होति ।
अर्थात् प्रकृति और प्रदेश बंध योग से तथा स्थिति और अनुभाग बंध कषायम से होते हैं।
इस प्रकार सकषयी जीवों को साम्परायिक बंध और कषाय रहित महात्माओं को ईर्यापथ बंध होता है । बंध के भेदों के संबंध में विशेष स्पष्टीकरण द्वितीय अध्ययन में किया जायगा।
चौथा पुण्य तत्त्व यहाँ प्रतिपादन किया गया है । 'पुनातीति पुरयम्' अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है वह पुण्य कहलाता है। शुभ क्रियाएँ करने से पुण्य का बंध होता है। पुण्य तत्त्व के नौ भेद आगम में बताये हैं। वे इस प्रकार है
( १ ) अन्न पुण्य-भोजन-दान देने से होने वाला पुण्य । (२) पाण पुण्य-पानी देने से होने वाला पुण्य । (३) लयन पुण्य-निवास के लिए स्थान देने से होने वाला पुण्य । (४) शयन पुण्य-शय्या संथारा श्रादि देने से होने वाला पुण्य । .(५) वस्त्र पुण्य-वस्त्र प्रादि देने से होने वाला पुण्य । (६) मनः पुण्य-मानसिक शुभ व्यापार से होने वाला पुण्य । (७). वचन पुण्य-वाणी के शुभ प्रयोग से होने वाला पुरय । (८) काय पुण्य-शरीर के शुभ व्यापार से होने वाला पुण्य । (6) नमस्कार पुण्य-गुरुजन के प्रति विनम्रता धारण करनेसे होने वाला पुण्य ।
उपरोक्त नौ प्रकार से बंधने वाला यह पुण्य बयालीस प्रकार से भोगा जाता है अर्थात् पुण्य का आचरण करने से बयालीस शुभ कर्म-प्रभुतियों के रुप में उसके फल की प्राप्ति होती है।
पुण्य के संबंध में कुछ लोगों की अत्यन्त भ्रमपूर्ण धारणा है वह एकान्त रूप होने के कारण मिथ्या है । कोई कहते हैं कि पुण्य शुभ कर्म रूप होने के कारण, संसार का हेतु है । पुण्य के उदय से सांसारिक सुख प्राप्त होते हैं । उससे शुभ श्रास्रव होता है और आसव मोक्ष में बाधक है। अतएव पुण्य-क्रियाओं का परित्याग करना ही योग्य हैं । इस भ्रम के कारण उन्होंने अनेकानेक अनर्थकारी प्ररूपणाएँ जनता के सामने रक्खीं । जैसे-उनका कहना है कि माता-पिता की सेवा करना
अधर्म है, गर्भिणी स्त्री के द्वारा अपने गर्भ की रक्षा करना अधर्म है, भूखे को भोजन • देना और प्यास के मारे मरते हुए प्राणी को पानी पिलाना अधर्म है, यदि कोई
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षद्रव्य निरूपण अवोध वालक श्राग में जलकर या पानी में डूबकर मरने की तैयारी में हो तो उसे मृत्यु से बचाना अधर्म है। यही नहीं, वचाने की भावना हृदय में उत्पन्न होना अथवा बचाने वाले को भला जानना भी अधर्म है । दिल में दया की भावना लाने से भी पाप लगता है।
इस प्रकार की जिनागम से विपरीत प्ररूपणा करके इन लोगोंने धर्म के मूल में कुठाराघात किया है और अनेक कोमल-हृदय. मनुष्यों के हृदय में निर्दयता की भावना भर कर उन्हें कठोर बना दिया है। इन्होंने भगवान् के धर्मोपदेश के प्रयोजन . को ही सर्वथा नष्ट कर दिया है। प्रश्न-व्याकरण में कहा है
'सब जग जीव रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं ।'
अर्थात् जगत के समस्त जीवों की रक्षा और दया क लिए भगवान् ने प्रवचन का उपदेश दिया है।
भगवान् न प्रवचन का उपदेश तो इसलिए दिया कि जीवों की रक्षा और दया. की जाय, पर मिथ्यात्व के प्रवल उदय से लोगों ने प्रवचन का यह सार निकाला है कि जीवों की रक्षा न की जाय और उन पर दया भाव न लाया जाय ! मोह की माया अपरम्पार है।
दया, परोपकार और रक्षा की बदौलत ही संसार के प्राणी जीवित रहकर धर्म का आचरण करने योग्य बनते हैं। माता गर्भ का पालन-पोषण करने में अधर्म समझकर अगर गर्भ-रक्षा न करे तो धर्म-तीर्थ किस प्रकार चलेगा ? तथा क्या वह माता घोर निर्दयता पूर्वक गर्भ के विनाश का कारण नहीं बनेगी ? इसी प्रकार मातापिता की सेवा करने में यदि अधर्म होता तो ठाणांग सूत्र में माता-पिता के अलौकिक उपकार का वह प्रभावशाली वर्णन किया जा सकता था ? यह सब बाते इतनी निःस्सार हैं कि इनका प्रति-विधान करने कि आवश्यकता ही अधिक नहीं है ।
पुण्य को एकान्ततः संसार का कारण कह कर उसे हेय बताना भी अज्ञान है । पाप का विनाश करने के लिए पुण्य अनिवार्य रूप से श्रावश्यक है अतः वह मोक्ष का भी कारण है । मनुष्य भव की प्राप्ति पुण्य के बिना नहीं होती और मनुष्य भव के बिना मोक्ष नहीं मिलता। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय जाति और नल पर्याय भी पुण्य के हैं। प्रताप से प्राप्त होती है भार इनके बिना भी मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि पुण्य के विना मुक्ति नहीं मिल सकती। फिर भी पुण्य को जो लोग एकान्त संसार का कारण बतलाते हैं उनका कथन किस प्रकार शास्त्र-संगत माना जा सकता है ?
शंका-'पुण्य-पापक्षयो मोक्षः' अर्थात् पुण्य और पाप का सर्वथा नाश होने पर मोक्ष होता है; यह जिनागम की मान्यता है। जब तक पुण्य का उदय बना रहेगा तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता । प्रारंभ में बस-पर्याय, पंचेन्द्रिय जाति और मनुष्यभव आदि की प्राप्ति के लिए पुण्य की आवश्यकता भले ही हो पर अन्त में तो
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प्रथम अध्याय
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उसका विनाश करना ही पड़ता है। तो उसे मोक्ष का कारण कैसे माना जाय ?
। समाधान-जीवों के परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-(१) अशुभ (२) शुभ, ... और (३)-शुद्ध । पाप-जनक अशुभ परिणामों का विनाश करने के लिए पुण्य-जनक शुभ-परिणामों का अवलम्बन लेना पड़ता है । जव अशुभ परिणामों का विनाश हो जाता है तब शुद्ध परिणामों के अवलम्बन से शुभ-परिणाम का भी परित्याग करना पड़ता है। इस प्रकार पुण्य ग्राह्य है और उच्चतम अवस्था प्राप्त होने पर वह हेय बन जाता है । उदाहरणार्थ-मान लीजिए, किसी व्यक्ति को भारत वर्ष से लंदन जाना है तो उसे जहाज पर बैठने की आवश्यकता पड़ेगी और समुद्र के उस पार पहुँच जाने पर जहाज को त्यागने की भी आवश्यकता होगी। इस प्रकार लंदन पहुँचने के लिए जहाज पर चढ़ना भी अनिवार्य है और उससे उतरना भी अनिवार्य है। यदि कोई अज्ञानी पुरुष यह कहने लगे कि समुद्र के उस पार पहुँचने पर जहाज का त्याग अनिवार्य है तो पहले से ही उस पर न बैठना ठीक है; या कोई जहाज़ पर श्रारूढ़ होकर फिर उतरना न चाहे तो वह लंदन नहीं पहुँच सकता। इसी प्रकार अन्त में पुण्य रूपी जहाज को हेय समझ कर कोई उसका पाप समुद्र के पार पहुंचने से पहले ही से त्याग कर बैठे तो वह संसार-समुद्र में डूबेगा।
इस प्रकार यह निर्विवाद है कि पुण्य मोक्ष का भी कारण है अतएव उसे सर्वथा अग्राह्य बताना अनुचित है। वास्तव में अत्यन्त उच्च कोटि पर न पहुँचे हुए मुमुक्षु जीवों के लिए पुण्य एक मुख्य अवलम्बन है अतएव-पाप पर विजय प्राप्त करने के लिए पुण्य का प्राचारण करना श्रावकों का परम कर्तव्य है।
पाँचवाँ पाप तत्त्व है। अशुभ परिणति के द्वारा जीव अशुभ-दुःख-प्रद कर्मों का बंध करता है, उसे पाप कहते हैं। पाप आत्मा को मलीन बनाने वाला और दुःख का कारण है। पाप के अठारह भेद बतलाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं:
(१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन ( ५) परिग्रह १६) क्रोध (७) मान (८) माया (६) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२ ) क्लेश (१३) अभ्याख्यान (१४। पिशुनता (१५) परपरिवाद (१६) रति-परति (१७) माया-भूषा (१८ ) मिथ्या-दर्शनशल्य ।
__ तात्पर्य यह है कि प्राणातिपात श्रादि उपर्युक्त अठारह का श्राचरण करने से पाप का उपार्जन होता है । इसका परिपाक आत्मा के लिए अति भयंकर होता है। यह बयासी ( ८२ ) प्रकार से भोगा जाता अर्थात् पाप के उदय से चयासी प्रकार की पाप-कर्म प्रकृतियों का बंध होता है।
जैसा कि पहले कहा है-प्रति समय अनतानन्त कर्म-दलितों का बंध होता है । जो मुमुक्षु जन अन्तर्दृष्टि होकर अपने भावों की जागरूकता के साथ चौकसी करते हैं, जो अशुभ भावना को अन्तःकरण में अंकुरित नहीं होने देते, वे पाप-बंध से और उसके दुःखमय विपाक से बच कर क्रमशः अनन्त सुख के भागी बनते हैं। एक समय
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चटू द्रव्य निरूपणं मात्र शुभ परिणाम रखने से अनन्तानन्त शुभ कर्म - परमाणुओं का बंध हो जाता 1 और एक समय मात्र अशुभ भाव श्राने से श्रनन्तानन्त पाप कर्मों का बंध होता है । यह जान कर सदा सावधान रहना चाहिए ।
छठा आस्रव तत्व है। कर्म का आत्मा में थाना शास्त्र कहलाता है । अर्थात् योग रूपी नाली से, आत्मा रूपी तालाब में, कर्म रूपी जल का जो प्रवाह आता है। उसे श्रास्त्र कहते हैं ।
श्रस्रव संसार - प्रयण का प्रधान कारण है, अतएव इसका स्वरूप और इसके कारणों को जान कर उन कारणों का परित्याग करना मोक्षार्थी का कर्त्तव्य है । आस्रव के सूल दो भेद हैं- शुभ श्रस्रव और अशुभ श्रस्रव । अथवा साव- शास्त्र और द्रव्य - श्रास्रव । शुभ प्रसव असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों के बंध का हेतु है । जीव का शुभ या अशुभ परिणाम - जिससे श्रास्रव होता है - भाव - प्रात्रव कह लाता है और कर्म - परमाणुओं का आना द्रव्य - श्रास्रव कहलाता हैं ।
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पांच इन्द्रियों, चार कषाय, पांच अन्नत, तीन योग और पच्चीस क्रियाएँ यह बयालीस श्चास्त्रव के भेद हैं । इन्द्रियों का निरूपण किया जा चुका हैं, कषायों का श्रागे किया जायगा | हिंसा, मृषा वाद, चौर्य, श्रब्रह्म और परिग्रह - यह पांच व्रत हैं। योग के तीन भेद हैं
( १ ) काययोग ( २ ) वचनयोग ( ३ ) मनोयोग ।
( १ ) काय योग - वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर प्रौदारिक आदि सात प्रकार की काय -वर्गणा में से किसी भी एक के आलंबन से, आत्मा के प्रदेशों में होने वाला परिस्पन्दन काय योग है ।
( २ ) बच्चन योग - शरीर नाम कर्योदय से प्राप्त वचन वर्गणा का श्रावन होने पर, वीर्यान्तराय आदि कर्मों के क्षयोपशम से होने वाली आन्तरिक वचन लब्धि का सन्निधान होने पर, वचन रूप परिणमन के उन्मुख आत्मा के परिस्वन्दन को वचन योग कहते हैं ।
( ३ ) मनोयोग – वीर्यान्तराय तथा नो-इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपसम रूप मनोलब्धि का सन्निधान होने पर, और मनोवर्गणा रूप वाह्य निमित्त के होने पर मन परिणाम के उन्मुख श्रात्मा के प्रदेशों के परिस्पन्दन को मनोयोग कहते हैं ।
केवली भगवान् सयोगी होते हैं किन्तु वीर्यान्तराय श्रादि का क्षयोपक्षय उनके नहीं होता ( क्षय होता है ) वहां श्राल- प्रदेशों के परिस्पन्द को ही योग समझना चाहिए | क्योंकि सामान्य अपेक्षा से मन, वचन और काय के व्यापार को ही योग कहते हैं ।
क्रियाओं के पचीस भेद इस प्रकार हैं:
[१] कायिकी क्रिया - असावधानी से शरीर का व्यापार करना ।
[२] श्राधिकरशिकी क्रिया-शस्त्र आदि का प्रयोग करने से लगने वाली ।
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प्रथम अध्याय
[ ४१ ] [३] प्राद्वेषिकी क्रिया-द्वेश करने से लगने वाली । [४] पारितापतिकी क्रिया-स्व-पर को संताप पहुंचाने से लगने वाली । [५] प्राणातिपातिकी क्रिया-हिंसा से लगने वाली। [६ प्रत्याख्यानिकी क्रिया-प्रत्याख्यान न करने से लगने वाली। .[७] प्रारम्भिकी क्रिया-सावध क्रिया-आरंभ से लगने वाली। [८] पारिग्रहिकी क्रिया-परिग्रह से लगने वाली। [६] मायाप्रत्यायिकी क्रिया-मायाचार करने से लगने वाली । [१०] मिथ्यादर्शन प्रत्यायिकी क्रिया-मिथ्यात्व से लगने वाली। [११ । दृष्टिकी क्रिया - रागादि भाव से पदार्थों को देखने से लगने वाली । [१२] स्पृष्टिकी क्रिया-विकृत भाव से स्त्री आदि का स्पर्श करने ले लगने वाली। [१३] प्रातीत्यकी क्रिया-किसी का बुरा विचारने से लगने वाली। [१४] सामन्तोपनिपातिका क्रिया-घी, दूध आदि के वर्तन खुले छोड़ देने
से तथा अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होने से लगने वाली। [१५] स्वाहस्तिकी क्रिया-अपने हाथों जीव को मारने से लगने वाली। । १६ ] नै शस्त्रिकी क्रिया-राजा आदि की आज्ञा से शस्त्र आदि बनाने से
__ लगने वाली। [१७] श्रानयनिकी क्रिया-जीव-अजीव पदार्थ को लाने-लेजाने से लगने वाली ।१८] वैदारणिकी क्रिया-चीरने फाड़ने से लगने वाली। 1 १६ । अनायोग प्रत्ययिकी क्रिया-श्रयतना से वस्तुओं को उठाने-धरने से
लगने वाली। [२०] अनवकांक्षा प्रत्ययिकी क्रिया-इस-लोक और पर-लोक को बिगाड़ने
चाले कार्य करने से लगने वाली । [२१] प्रेम प्रत्ययिकी क्रिया-माया और लोभ से लगने वाली। [२२] द्वेष प्रत्ययिकी क्रिया-क्रोध और मान से लगने वाली। [२३] प्रायोगिकी क्रिया-मन, वचन, काय के अयोग्य व्यापार से लगने
वाली। [२४] सामुदानिकी क्रिया-महापाप से लगने वाली क्रिया। [२५] ऐपिथिकी क्रिया--मार्ग में चलने से लगन वाली क्रिया। यह क्रिया
अप्रमत्त साधु और केवली भगवान् को भी लगती है। . उक्ल पञ्चीस क्रियाएँ कर्म के प्रास्त्रव का कारण होने से आस्रव रूप कहलाती. हैं । मुमुक्षु जीवों को इनसे बचना चाहिए । यह वास्तव व तत्त्व का संक्षिप्त निरूपण हुआ। - लातवां तत्त्व संवर है। श्रास्रव का निरोध करना अर्थात् आते हुए कमों को शुद्ध अध्यवसाय के द्वारा रोक देना संवर कहलाता है । संवर मोक्ष का कारण होने से सत्पुरुषों द्वारा ग्राह्य है। संवर की साधना से कर्म-रज हटता है, संसार-भ्रमण
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षद् द्रव्य निरूपण
का अन्त होता है, समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है । समस्त संयमी इसकी श्राराधना करते हैं ।
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संवर के प्रधान दो भेद हैं - भाव-संवर तथा द्रव्यसंवर । कर्म-बन्धन के कारण भूत क्रियाओं का त्याग करना भाव-संवर है और भाव-संवर से कर्मों का रुक जाना द्रव्य-संवर है । आास्त्रव के मुख्य कारण मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और भोग हैं । इन कारणों का जिन-जिन गुणस्थानों में निरोध होता है, उस गुणस्थान में उतना ही संवर होता जाता है । यथा-मिथ्यात्व अवस्था का नाश करने के पश्चात् साश्वादन, मिश्र आदि गुणस्थानों में मिध्यात्व का संवर हो जाता है । इसी प्रकार देशतः पांचवें गुणस्थान में और पूर्णत: छठे गुणस्थान में विरति-अवस्था प्राप्त होने पर अविरति का संवर हो जाता है । सातवें गुणस्थान में श्रप्रमत्त दशा का श्राविर्भाव होते से वहां प्रमाद का संवर होता है, चौदहवें गुणस्थान में निष्कषाय अवस्था प्राप्त होने पर कषाय का संवर हो जाता है और तेरहवें प्रयोगी अवस्था प्राप्त होने पर योग का संचर हो जाता है । इन कारणों के अभाव होने पर किस-किस गुणस्थान में कर्मों की किन-किन प्रकृतियों का श्रास्रव रुकता है यह विस्तृत विचार विस्तार भय से यहां नहीं किया गया है ।
संवर तत्व के सत्तावन भेद हैं- पांच समिति, तीन गुप्ति, वाईस परीपद - जय, दस धर्म, चारह भावना और पांच प्रकार का चारित्र ।
चतना पूर्वक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं । समिति के पांच भेद इस प्रकार हैं ।
(१) ईर्ष्या समिति - अर्थात् यत्ना पूर्वक, साढ़े तीन हाथ आगे की पृथ्वी देखते हुए, कारण- विशेष उपस्थित होने पर चलना ।
(२) भाषा समिति - हित, मित और प्रिय भाषा बोलना, निरवद्य भाषा का ही प्रयोग करना ।
(३) एपणा समिति - वेदना श्रादि कारण उपस्थित होने पर, शास्त्रोक्त विधि से निर्दोष श्राहार- पानी लेना ।
(४) श्रादाननिक्षेपण समिति - संयम के उपकरण यतना पूर्वक रखना और यतना पूर्वक उठाना ।
(५) प्रतिष्ठापनिका समिति - जीव रहित भूमि में यतना से मल-मूत्र श्रादि
त्यागना ।
इस प्रकार यतना पूर्वक प्रवृत्ति करने से श्रसंयम के कारण भूत परिणामों का प्रभाव होता है और संयम - परिणाम के प्रभाव से, असंयमजन्य श्रस्रव का भी प्रभाव होता है और आलव का अभाव ही संवर है ।
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मन, वचन, और काय की स्वेच्छापूर्ण प्रवृत्ति का रूकना गुप्ति कहलाता है विषय-सुख के लिए मन आदि की प्रवृत्ति रुकने से संक्लेश नहीं होता और संक्लेश
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प्रथम अध्याय रूप-परिणाम के अभाव में श्रास्त्रव नहीं होता । गुप्ति तीन प्रकार की है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति। ---
मनोगुप्ति के भी तीन भेद हैं-असत्कल्पना वियोगिनी, समताभाविनी और श्रात्मारामता । आर्तध्यान-रौद्र ध्यान का त्याग करना असत्कल्पना वियोगिनी मनोगुप्ति है। प्राणीमात्र पर साम्यभाव होना समताभाविनी और सम्पूर्ण योग-निरोध के समय होने वाली श्रात्मागमता कहलाती है।
वचनगुप्ति दो प्रकार की है-मौनावलम्विनी अर्थात अपने हार्दिक अभिप्राय को दूसरों पर प्रकट करने के लिए अकुटि श्रादि से संकेत न करके मौन धारण करना । दूसरी वानियमिनी-अर्थात् उपयोग-पूर्वक मुखवस्त्रिका बान्ध कर बोलना ।
कायगुप्ति दो प्रकार की है-चेष्टानिवृत्ति और चेष्टानियमिनी । योग-निरोध के समय तथा कायोत्सर्ग में शरीर को सर्वथा स्थिर रखना चेष्टानिवृत्ति है और उठने बैठने आदि क्रियाओं में श्रागमानुसार शारीरिक चेष्टा को नियमित रखना चेष्टानियमिना काय गुप्ति है। कहा है
उपसर्ग प्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निगद्यते । शयनासननिक्षेपादान चंक्रमणेषु यः।
स्थानेषु चेष्टानियमः, कायगुप्तिस्तु साऽपरा॥ इनका आशय पहले ही निरूपित किया जा चुका है । पांच समिति और तीन गुप्ति को भागम में पाठ प्रवचन माना गया है। इसका कारण यह है कि चारित्र रूपी शरीर इन्हीं से उत्पन्न होता है और यही उसकी रक्षा-पालन-पोषण करती है।
संयम की रक्षा के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए आये हुए दुःखों को चिना संतप्त हुए सहन करना परीपह कहलाता है। परीपह वाईस प्रकार के हैं । वे इस प्रकार हैं-[१] सुधा [२) पिपाला [३] शीत [४] उष्ण [५] दंशमशक [६] अचेल [७] भारति [८] स्त्री [६] चर्या (१०) निषधा |११] शय्या [१२] आक्रोश [१३] वध [१४] याचना । १५] अलाभ [१६] रोग [१७] तृणस्पर्श [१८] मल [१६] सत्कार-पुरस्कार [२०] प्रज्ञा [वुद्धि वैभव होने पर भी अभिमान न करना ] [२१] अज्ञान |२२] अदर्शन । इन परीषहों का विशेष स्वरूप अन्यत्र देखना चाहिए ।
क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, यह दस यतिधर्म हैं । क्रोध का प्रभाव क्षमा है। अभिमान का त्याग करके कोमल वृत्ति रखना मार्दव है, कपट न करना आर्जव है, लोभ का अभाव मुक्ति है, इच्छा का निरोध करना तप है, हिंसा का त्याग संयम है, सत्य भाषण करना सत्य है, अन्तःकरण की शुद्धता शौच है, परिग्रह का त्याग अकिंचनता है और मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। - बारह भावनाएँ-(१) अनित्य (२) अशरण (३) संसार (४) एकत्व (५)
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षट् द्रव्य निरूपण अन्यत्व (६) अशुचित्व (७) श्रास्रव (८) संवर (8) निर्जरा (१०) लोक (११) बोधिदुर्लभ और (१२) धर्मस्वाख्यातत्व । इन भावनाओं का पुनः-पुनः चिन्तन करने से सांसारिक भोगोपभोगों से तथा परिग्राह आदि से ममता हटती है और वैराग्य की वृद्धि होती है।
(१) अनित्य भावना-संसार का स्वरूप अस्थिर है, यहां नित्य कुछ भी नहीं । है, इस प्रकार पुनः-पुनः चिन्तन करना।
(२) अशरण भावना-इन्द्र और उपेन्द्र जैसे शक्तिशाली भी मृत्यु के पंजे में . फँसते हैं तो संसार में कोई शरणभूत नहीं है, इस प्रकार वारम्बार विचार करना। .
(३) संसार भावना-इस संसार में संसारी जीव नट के समान चेष्टाएँ कर रहा है-ब्राह्मण चांडाल बन जाता है, चांडाल ब्राह्मण हो जाता है, वैश्य शूद्र बन जाता है और शुद्र वैश्य बन जाता है । यहां तक कि मनुष्य मर कर कीड़े-मकोड़े . बन जाते हैं। संसारी जीव ने कौन सी योनि नहीं पाई है ? अनादिकाल से जीव विविध योनियों में भ्रमण कर रहा है, ऐसा विचार करना।
(e) एकत्व भावना-यह जीव अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, . अकेला ही अपने किये हुए कमों का फल भोगता है, दुःख में कोई भाग लेने वाला नहीं है, इस प्रकार विचार करना।
(५) अन्यत्व भावना-जब शरीर ही जीव से भिन्न है तो धन-धान्य, बन्धुचान्धवों की बात ही क्या है ? इस प्रकार जगत् के समस्त पदार्थों को प्रात्मा से भिन्न चिन्तन करना।
(६) अशुचित्व भावना-संसार में जितने घृणाजनक अशुचि पदार्थ हैं उन सब में शरीर सिरमौर है। यह शरीर मल, मूत्र, रक्त, मांस पीव आदि का थैला है ! यह कदापि शुचि नहीं हो सकता। जिसले नौ द्वार लदैव गंदगी बहाया करते हैं, वह भला कैसे शुद्ध होगा ? इस प्रकार शरीर की अपवित्रता का विचार करना।
(७ प्रास्रव भावना-यात्रव तत्व का पुनः-पुनः विचार करना । (E) संवर भावना-द्रव्य और भाव संबर के स्वरूप का चिन्तन करना । (6) निर्जरा भावना-आगे कहे जाने वाले निर्जरा तत्त्व का चिन्तन करना। (१०) लोक भावना-चौदह राजू प्रमाण पुरूषाकार लोक के स्वरूप का चिन्तन
करना।
(११) बोधि दुर्लभ भावना-जीव अनन्तकाल से संसार में भ्रमण कर रहा है। इसने अनेकों बार चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त की है, मनुष्य जन्म, उत्तम कुल, आर्य देश भी पाया किन्तु सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होना कठिन है, इस प्रकार चिन्तन करना ।
(१२) धर्मस्वाख्यातत्व-संसार रूपी समुद्र से पार उतरने के लिए धर्म ही एक मान उपाय है और धर्म वही है जिसका वीतराग अन्त भगवान् उपदेश देते हैं, इस प्रकार का चिन्तन करना ।
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प्रथम श्रध्याय
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पाँच प्रकार का चारित्र यह है -- (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहर विशुद्धि (४) सूक्ष्मसाम्पराय और (५) यथाख्यात ।
[१] सामायिक चारित्र - सदोष व्यापार का त्याग करना और रत्नत्रय - वर्द्धक व्यापार करना सामायिक चारित्र है ।
[२] छेदोपस्थापना -- प्रधान साधु द्वारा दिये हुए पांच महाव्रतों को छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं ।
[३] परिहार विशुद्धि - गच्छ से पृथक् होकर नौ साधु श्रागमोक्त विधि के अनुसार अठारह महीने तक एक विशिष्ट तप करते हैं, वह परिहार - विशुद्धि चारित्र है ।
[४] सूक्ष्म साम्पराय -- दसवें गुणस्थान में पहुंचने पर, जो चारित्र होता है है वह सूक्ष्म साम्पराय चारित्र है ।
! ५ यथाख्यात चारित्र कषायों का सर्वथा जय या उपशय हो जाने पर जो आत्म-रमेण रूप चारित्र होता है वह यथाख्यात चारित्र कहलाता है । यही चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है । इस काल में अन्तिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया है ।
आठवाँ निर्जरा तत्त्व है। पूर्वोपार्जित कर्मों का फल भोगने के पश्चात् कर्म आत्म प्रदेशों से झड़ जाते हैं, उसीकों निर्ज़ग कहते हैं । निर्जरा के मुख्य दो भेद हैं-संकाम निर्जरा तथा काम निर्जरा। कहा भी है
समार बीजभूतानां कर्मणां जग्णादिह । निर्जरा सा स्मृता द्वेधा सकामा काम वर्जिता ॥
अर्थात- संसार के कारण भून कर्मों के जरण- जीर्ण होने से निर्जरा होती है वह सकाम और अकाम के भेद से दो प्रकार की है ।
'मेरे कर्मों की निर्जरा हो जाय' इस प्रकार की अभिलाषा पूर्वक तपस्या के द्वारा कर्मों का विग्ना सकाम निर्जरा है और बिना इच्छा के, फल देने के पश्चात - कर्मों का स्वयं खिर जाना काम निर्जरा है ।
काम निर्जग योगियों को होती है, क्योंकि वे कर्मों का क्षय करने के लिए ही तपस्या करते हैं. लौकिक मान-प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति के लिए तपस्या करने का 'आगम में निषेध है। अकाम निर्जरा एकेन्द्रिय आदि सब संसारी जीवों को प्रतिक्षण होती रहती है । एकेन्द्रिय जांव शात उष्ण शस्त्र आदि के द्वारा असातावेदनीय कर्म भोग कर, भुक्त कर्म को श्रात्म-प्रदेशों से पृथक करते हैं. विकलेन्द्रिय जीव भूख-प्यास आदि के द्वारा, पंचेन्द्रिय जीव छेदन-भेदन आदि के द्वारा, नारकी जीव क्षेत्र जन्य, परस्पर-जन्य और परमाधामी देवों द्वारा जन्म वेदना द्वारा, इसी प्रकार देव किल्वि'पता श्रादि के द्वारा असातावेदनीय को भोग कर उसे श्रात्मप्रदेशों से अलग करते हैं। यह सब काम निर्जरा है ।
*** N 2.39 M
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षट् द्रव्य निरूपण .. जैले फलों का पाक उपाय पूर्वक भी होता है और स्वाभाविक भी होता है अर्थात् जैसे कच्चा फल तोड़कर घास आदि में दवा देने से शीघ्र पकता है और वृक्ष की शाखा में लगा हुश्रा धोरे-धीरे पकता है इसी प्रकार कर्मों का परिपाक भी दो प्रकार से होता है। मुनिराज तपस्या के द्वारा कर्मो को शीघ्र पका कर उनकी निर्जरा कर डालते हैं और अन्य प्राणी कर्मों का स्वाभाविक रूप से उदय होने पर उसे भोगते है, तत्पश्चात् कर्मों की निर्जरा होती है।
तात्पर्य यह है कि तपस्या और ध्यान आदि के द्वारा कर्म-निर्जरा होती हैं। : निर्जरा मोक्ष का कारण है, अतएव प्रात्म-शुद्धि के अभिलाषियों को उसका उपायतपस्या आदि-करना चाहिए । तप और ध्यान का विवेचन भाग किया जायगा।
. नौवां तत्त्व मोक्ष हैं। सम्पूर्ण कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय होने पर.प्रात्मा के . शुद्ध स्वरूप का प्रकट हो जाना मोक्ष है । मोक्ष, जीव की विशुद्ध अवस्था-विशेष है । इसका विस्तृत निरूपण 'मोक्ष' नामक अध्ययन में होगा। . मूल-धम्मो अहम्मो भागासं कालो पोग्गल जंतवो ।
एस लोगुत्ति परणतो जिणेहि वरदसिहि ॥१३॥ . छाया-धोऽधर्म अाकाशं कालः पुद्गल जन्तवः । .
एपो लोक इति प्रज्ञप्तो जिनवरदर्शिभिः ॥ .. शब्दार्थ-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय . और जीव, यही लोक है, ऐसी सर्वदर्शी जिनेश्वरों ने प्ररूपणा की है। ...
भाष्य-पूर्व गाथा में नव तत्त्वों का विवेचन किया गया है। इससे यह आशंका हो सकती है कि जीच आदि तत्त्व कहां रहते हैं ? इस आशंका का समाधान करने के लिए यहां लोक का निरूपण किया है।
तात्पर्य यह है कि जहां धर्मास्तिकाय श्रादि सव द्रव्यों का सद्भाव है उसे लोक कहते हैं । यद्यपि यहां धर्मास्तिकाय आदि को ही लोक संज्ञा दी है किन्तु वह ।
आधाद्यधेय की अभेद-विवक्षा से समझना चाहिए। अर्थात् धर्मास्तिकाय आदि से. • उपलभित श्राकाश-भाग को लोक कहते हैं।
धर्मास्तिकाय-जो द्रव्य जीवों और पुदगलों की गति में सहायक होता है उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। जैसे जल मछली के गमन में निमित्त होता है अथवा रेल की पटरी रेल के चलने में निमित्त होती है उसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी जवि-पुद्गलों के गमन में निमित्त होता है।
अधर्मास्तिकाय-जो द्रव्य जीवों और पुदगलों की स्थिति में निमित्त होता है वह धर्मास्तिकाय कहलाता है । जैसे-छाया थके हुए पथिकों को ठहराने में सहायक होती है।
यह दोनों द्रव्य गति-स्थिति में सहायक मात्र होते हैं । यदि प्रेरक होते तो
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प्रथम अध्याय
। ४७ ] जगत् में विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती। दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं, अतएव प्रति समय धर्म-द्रव्य जीव-पुद्गलों को गमन में प्रेरित करता और अधर्म द्रव्य स्थिति में प्रेरित करता; इस प्रकार धर्मास्तिकाय के कारण स्थिति होने पाती और न अधर्मास्तिकाय के कारण गति होने पाती । श्रतएव दोनों द्रव्यों को गति-स्थिति में सहायक मात्र मानना चाहिए।
आकाशास्तिकाय--श्राकाश सर्व व्यापी द्रव्य है, किन्तु वह वाह्य निमित्त से लोकाकाश और अलोकाकाश के भेद से दो भागों में विभक्त है । जहां धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय आदि षट् द्रव्यों का सद्भाव है यह लोकाकाश कहलाता है । “कहा भी है--'धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि पत्र विलोक्यन्ते स लोकः' अर्थात् जहां धर्म-अधर्म श्रादि द्रव्य अवलोकन किये जाते हैं वह लोक है। लोकाकाश से परे सब नोर अनन्त आकाश है।
शंका- यदि धर्म श्रादि द्रव्यों का श्राधार लोकालाश है तो अाकाश का अाधार .. क्या है ? श्राकाश किस पर टिका हुश्रा हैं ?
___ समाधान-आकाश स्वप्रतिष्ठ है-वह अपने श्राप पर ही टिका है । उसका कोई अन्य आधार नहीं है। .
शंका-यदि आकाश स्वप्रतिष्ट है तो धर्म श्रादि द्रव्यों को भी स्वप्रतिष्ठ क्यों न मान लिया जाय ? अगर धर्मादिद्रव्यों का अाधार भिन्न मानते हो तो आकाश का नाधार भी भिन्न मानना चाहिए। और फिर उस आधार का आधार भी भिन्न होगा। इस प्रकार कल्पना करते-करते कहीं अन्त ही नहीं आयगा।
समाधान-आकाश सब द्रव्यों से अधिक विस्तृत परिमाण वाला है । उससे बड़ा अन्य कोई द्रव्य नहीं है, आकाश सब द्रव्यों से अनन्त गुणा महान् परिमाण वाला है अतएव उसका कोई आधार नहीं हो सकता । धर्मास्तिकाय आदि का अाधार अाकाश बतलाया गया है, सा भी व्यवहार नय से ही समझना चाहिए । .. . एवं भूत नय की अपेक्षा से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ट है-अर्थात् सब द्रव्य अपने-अपने प्रदेशों में रहते हैं।
· शंका-यदि ऐला है लो लोकाकाश और धर्म आदि द्व्यों में आधार-आधेय लम्बन्ध क्यों कहा गया है ?
समाधान-लोकाकाश के बाहर धर्म श्रादि द्रव्यों का सद्भाव नहीं है, यही आधार-साधेय की कल्पना का प्रयोजन है। इसी अपेक्षा से दोनों में आधार-प्राधेय का व्यवहार समझना चाहिए।"
___ जिनागम में चार प्रकार का लोक निरूपण किया गया है-(१) द्रव्यलोक (२) क्षेत्रलोक (३) कालालोक और (४) भावलाक । द्रव्यलोक. एक और अन्त वाला है, क्षेत्रलोक असंख्य कोड़ा-कोड़ी योजन लम्बा-चौड़ा है और उसकी परिधि भी असंख्य कोड़ा-कोड़ी योजन की है। उसका भी अन्त है। काललोक ध्रुव, शाश्वत और नित्य
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[४ ]
षट् द्रव्य निरूपण . __ है, उसका कहीं अन्त नहीं है । भावलोक अनन्त वर्ण पर्याय, अनन्त गन्ध पर्याय, . अनन्त स्पर्श पर्याय और अनन्त सस्थान पर्याय वाला है। उसका अन्त नहीं है। ...
कल्पना भेद से लोक के तीन भेद भी हैं - (१) अधोलोक. (२) मध्यलोक और . (३) ऊलोक । मेरु पर्वत की समतल भ्रामे से नौ लौ योजन नीचे से अधोलोक का श्रारम्भ होता है। उसका श्राकार श्रीधे किये हुए सिकोरा के समान है। वह नीचे-नीचे अधिक अधिक विस्तीर्ण होता गया है।
अधोलोक से ऊपर अर्थात् मेरु पर्वत के समतल से नौ सौ योजन नीचे से . . लेकर, समतल भाग ले नौ सौं योजन ऊपर तक अठारह सौ योजन का मध्यलोक . है। वह झालर के समान श्राकार वाला हं। सध्यलोक से ऊपर का समस्त लोक ऊध्वलोक कहलाता है। उसका आकार मृदंग सरीखा है।
अधोलोक में सात नरक-भूमियां हैं। वे एक-दुसरी से नीचे हैं और अधिक-.. अधिक विस्तार वाली हैं । यद्यपि एक-दूसग के नीचे हैं, फिर भी आपस में सटी. हुई नहीं हैं, उनके बीच में बहुत बड़ा अन्तर है। इन पृथ्वियों के बीच में घनोदधि, घनवात और तनुवात तथा श्राकाश है। पहली पृथ्वी में भवनवासी देव भी रहते है। इन पृथ्वियों का विस्तृत वर्णन 'लर क-स्वर्ग' नामक अध्ययन में किया जायगा।
मध्यलोक में प्रसन्यात द्वीप-समुद्र हैं। यह द्वीप और समुद्र गोलाकार हैं और एक-दूसरे को घेरे हुए हैं। इन सब के बीच में जम्व-द्वीप है । जम्वू-द्वीप का यूर्व-पश्चिम में तथा उत्तर-दक्षिण में एक लाख योजन का विस्तार है । इसे घरने वाले लवण समुद्र का विस्तार इससे दुगुना-दो लाख योजन का है । लक्ण समुद्र धातकी खंड द्वीप से चारों ओर घिरा हुआ है श्रार उसका विस्तार लवण समुद्र से दुगुना-चार लाख योजन का है। धातकी खंड द्वीप के चारों तरफ कालोदधि समुद्र है, उसका विस्तार धातकी खंड से दुगुना आठ लाख योजन का है। कालोदधि समुद्र पुष्करवर द्वीप से श्रावृत्त है और उसका विस्तार सोलह लाख साजन का है। इसके चाद पुष्करोदधि समुद्र दुगुना विस्तार वाला है। इसी क्रम से असंख्यात द्वीप और
असंन्यात समुद्र मध्यलोक में विद्यमान हैं। अन्त में स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूः . .. ' रमण समुद्र है।
___ जम्बू-द्वीप के बीचोंबीच सुमेरु पर्वत हैं । जम्बू-द्वीप में पूर्व से पश्चिम सक लम्बे छह पर्वत हैं। इन पर्वतों को वर्षधर कहते हैं। इनके द्वारा अम्वू-द्वीपः के सात विभाग हो गये हैं। इन्हें विभक्त करने वाले पर्यत हिमवान, महाहिमयान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरि हैं । इन विभागों को सात क्षेत्र कहते हैं। वे इस प्रकार. ई-भर तत्क्षेत्र, हैमवतक्षत्र, हरिक्षेत्र, विदेहक्षेत्र, रम्यक्षेत्र, हैरण्यवतक्षेत्र और ऐराचतक्षेत्र । भरतक्षेत्र दक्षिण में है, उससे उत्तर में हैमवत, हैमवत से उत्तर में हरि, हरि से उत्तर में विदेह, विदेह से उत्तर में रम्यक्, रस्य से उत्तर में हरण्यवत और हैरण्यवत से उत्तर में ऐरावत क्षेत्र है।
जम्बू-दीप में जितने क्षेत्र, पर्वत और मेल हैं उससे दुगुने धातकी खंड द्वीप ..
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प्रथम अध्याय
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में हैं, पर उनके नाम एक सरीखे हैं । गोलाकार घातकी खंड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध इस प्रकार दो भाग हैं । दो पर्वतों के कारण यह विभाग होता है । यह पर्वत दक्षिण से उत्तर तक फैल हुए बाण के समान सरल हैं । प्रत्येक भाग में अर्थात् पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में एक-एक मेरु. सात-सात क्षेत्र और छह-छह पर्वत हैं ।
मेरु क्षेत्र और पर्वनों की जो संख्या घातकी खंड में है उतनी ही संख्या धे . पुष्कर द्वीप में है । इसमें भी दो मेरु श्रादि हैं । वह द्वीप भी बाणाकार पर्वतों से विभक्त होकर पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में स्थित है । इस प्रकार जोड़ करने से कुल पांच मेरु, तीस पर्वत और पैंतीस क्षेत्र हैं। पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु. पांच महाविदेहों के १०८ विजय, पांच भरत तथा पांच ऐरावत क्षेत्रों के दो सौ पंचावन आर्य देश हैं । अन्तद्वीप सिर्फ लवण समुद्र म हां होते हैं । उनकी संख्या ५६ है । लवण समुद्र में, जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र के वैताढ्य पवत की पूर्व और पश्चिम में दो-दो दाढ़ें निकली हुई हैं। प्रत्येक दाढ़ पर सात-सात अन्तद्वीप हैं । इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र में भी है । श्रतएव कुल ५६ अन्तर्द्धा लवण समुद्र में हैं ।
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ऊर्ध्वलोक में देवों का निवास है । समतल भूमि से ७६० योजन ऊपर से . लेकर ६०० योजन तक में तारे, सूर्य, चन्द्रमा श्रादि ज्योतिपी देव रहते हैं । मगर यह प्रदेश मध्य लोक में ही सम्मिलित है । इससे ऊपर वैमानिक कल्पोपपन्न देवों के सौधर्म श्रादि बारह स्वर्ग है । उनके ऊपर नौं ग्रैवेयक देवों के नव विमान हैं। यह विमान तीन-तीन ऊपर-नीचे तीन श्रेणियों में हैं। ग्रैवेयक के ऊपर विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध यह पांच अनुत्तर विमान हैं । सर्वार्थसिद्ध विमान के ऊपर ईपत् प्रागभार पृथ्वी अर्थात् सिद्ध भगवान् का क्षेत्र है । उसके बाद 'लोक का अन्त हो जाता है ।
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यह लोक जीवों से भरा हुआ है । पर त्रस जीव त्रस नाड़ी में ही होते हैं । लोक के आर-पार - ऊपर से नीचे तक, चौदह राज ऊँचे और एक राज चौड़े श्राकाश प्रदेश को सनाड़ी कहते हैं । इसमें त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीव रहते हैं । असनाड़ी के बाहर स्थावर - नाड़ी है । उसमें स्थावर जीव ही रहते हैं ।
·
समस्त लोक के असंख्यात प्रदेश हैं । उसका विस्तार कितना है, सो कों द्वारा नहीं बताया जा सकता । तथापि भगवती सूत्र में उसका निरूपण इस प्रकार हैजम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्राइस योजन, तीन कोश, एक सौ अठ्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है । महान ऋद्धि वाले छह देव जम्बूद्वीप में मेरूपर्वतकी चूलिका को चारों और घेर कर खड़े रहें । फिर नीचे चार दिक् कुमारियां चार बलिपिंड को ग्रहण करके जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं मैं बाहर मुख रखकर खड़ी रहें और वे चारों एक साथ उस चलिपिण्ड को बाहरफैकें तो उन देवों में का एक देव उन चारों पिंडों को पृथ्वी पर गिरने से पहले शीघ्र · ही अधर ग्रहण करने में समर्थ है । इतनी शीघ्रतर गतिशले उन देवों में से एकदेव जल्दी-जल्दी पूर्व दीशा में जावे, एक दक्षिण में जाय, एक पश्चिम में जाय, एक उत्तर
with A
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[ ५० ]
षद् द्रव्य निरूपण
मे जाय, एक ऊर्ध्व दिशा में और एक अधोदिशा में जाय, उसी समय हजार वर्ष की श्रायु वाला एक बालक उत्पन्न हो, उसके बाद उसके माता-पिता की मृत्यु हो जाय, इतना समय हो जाने पर भी वे शीघ्रगामी देव लोक का अन्त नहीं पा सकते | उसके बाद उस चालक की आयु पूर्ण हो जाय तब भी देव निरन्तर चलते रहने पर भी लोक के अन्त तक नहीं पहुंच सकते। उस बालक की अस्थि और मज्जा का नाश होने पर भी नहीं और यहां तक कि उस बालक की सात पीढ़ियों तक का नाश हो जाने पर भी वे देव लोक का छोर नहीं पा सकते। उस बालक का नाम - गोत्र नष्ट हो जाने पर भी लोक का किनारा पाना शब्ध नहीं है । इतने लम्बे समय तक : श्रचिश्रान्त शीघ्रतर गति से चलने वाले देव जितना मार्ग-तय करेंगे उससे असंख्यातवां भाग फिर भी शेष रह जायगा । इससे लोक के विस्तार का खयाल आ सकता है । लोक का विस्तृत विवेचन अन्यत्र देखना चाहिए । यहां उसका दिग्दर्शन मात्र कराया गया है ।
काल द्रव्य-वर्त्तना लक्षण वाला काल द्रव्य कहलाता है । काल द्रव्य पुदूगल आदि की पर्यायों के परिवर्तन में सहायक होता है । काल का दिवस, रात्रि आदि विभाग सूर्य-चन्द्रमा की अढाई द्वीप में ही भ्रमण करते हैं, उससे बाहर के सूर्य चन्द्र स्थिर हैं । अतएव श्रढ़ाई द्वीप और दो समुद्र को समय- - क्षेत्र कहते हैं इसी को मनुष्य लोक भी कहते हैं । मनुष्य लोक के सूर्य-चन्द्र शादि सेरु पर्वत के चारों तरफ भ्रमण करते हैं । दिन, रात, पक्ष, माल आदि का व्यवहार मनुष्य लोक के बाहर नहीं होता
आंख का पलक एक बार गिराने में असंख्यात 'समय' व्यतीत हो जाते हैं । ऐसे काल द्रव्य के सबसे सूक्ष्म अविभाज्य काल के परिमाण को समय कहते हैं । असंख्यात समयों की एक श्रावलिका कहलाती है । ४४८० श्रावलिका का एक श्वासो च्छ्वास होता है और ३७७३ श्वासोच्छवास का एक मुहूर्त होता है । ३० मुहूर्त का एक रात दिन, १५ रात दिन का एक पक्ष, २ पक्ष का एक मास, २ मासों की एक ऋतु, ३ ऋतुओं का एक प्रयन ( उत्तरायण और दक्षिणायण) दो अयनका एक वर्ष और पांच वर्ष का एक युग होता है ।
पुद्गलास्तिकाय - रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले द्रव्य को पुद्गल कहते हैं। जगत् में हमें जितने पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं वे सब पुद्गल है । क्योंकि जिसमें रूप आदि होते हैं वही पदार्थ दृष्टि गोचर हो सकता है और रूप आदि सिर्फ पुद्गल में ही होते हैं, अतः पुद्गल ही दृश्य है । पुद्गल के अतिरिक्त अन्य द्रव्य श्ररूपी होते. के कारण अदृश्य हैं !
रूप, रस, गंध और स्पर्श की परस्पर व्याप्ति है। जहां रूप होता है वहां रस, गंध और स्पर्श भी होता है। जहां गंध होता है वहां रूप, रस और स्पर्श भी होता है। जहां स्पर्श होता है वहां रूप आदि सभी होते हैं । श्रतपव जो लोग गंध सिर्फ पृथ्वी में ही मानते हैं, रूप को सिर्फ पृथ्वी, जल और तेज में ही मानते हैं और स्पर्श को पृथ्वी, जल, तेज और वायु में ही मानते हैं, उनका मत मिथ्या है।
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प्रथम अध्याय
पुद्गल के परिणाम पांच प्रकार के हैं-वर्ण परिणाम, गंध परिणाम, रस परिरणाम, स्पर्श परिणाम और संस्थान परिणाम ।
वर्ण परिणाम पांच प्रकार का है-काला, नीला, लाल, पीला और सफेद । गंध परिणाम दो प्रकार का है-सुरक्षिगंध और दुरभिगंध । रस परिणाम पांच प्रकार का है-तिक्त, कटुक, कपायला, प्रास्ल और मधुर । स्पर्श परिणाम आठ प्रकार का है-कर्कश, सृदु, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, रुक्ष और स्निग्ध (चिकना)। ' संस्थान परिणाम पांच प्रकार का है-(१) परिमंडल (गोल आकार चूड़ी के समान ), (२) वर्तुल ( लड्ड के समान गोलाकार ), (३) ज्यन्न (तिकोना ।, (४) चतुरस्त्र (चौकोर ), (५) अायत ( लम्बा )।
पुद्गलास्तिकाय के मुख्य दो भेद हैं-परमाणु और स्कंध । पुद्गल के सब से छोटे-अविभाज्य अंश को परमाणु कहते हैं । अनेक परमाणुओं के समूह को स्कन्छ कहते हैं । परमाणु शस्त्र से छिद-भिद नहीं सकता। उसका न अर्द्ध है, न मध्य है और न प्रदेश हैं । जब दो परमाणु इकटे होते हैं तो हिप्रदेशी स्कन्ध बनता है । तीन परमाणुओं के इकट्ठा होने पर त्रिप्रदेशी स्कन्ध बनता है। इसी प्रकार कोई संख्यात. प्रदेश वाला स्कन्ध है, कोई असंख्यात प्रदेश वाला और कोई अनन्त प्रदेश वाला स्कन्ध होता है।
कोई-कोई मतावलक्ष्यी परमाणु को एकान्त नित्य और स्कन्ध को एकान्त अनित्य स्वीकार करते हैं, पर उनकी मान्यता युक्ति संगत नहीं है । वास्तव में प्रत्येक पदार्थ-चाहे वह परमाणु हो या स्कन्ध हो, रूपी हो या अरूपी हो-द्रव्यार्थिक नय . से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है। परमाणु भी इसी प्रकार नित्यानित्य है
और स्कन्ध भी नित्यानित्य रूप है।
___ शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छास-यह सब पुद्गल द्रव्य से बनते हैं। अतएच इनका बनना युद्गल का उपकार है। . पुद्गल द्रव्य में कई जातियां हैं । उन्न जातियों को वर्गसा कहते हैं। वर्गणा अर्थात् एक विशिष्ट प्रकार के पुद्गल परमाणुत्रों का समूह । मुख्य वर्गणाएं इस प्रकार हैं-औदारिक वर्गणा, वैक्रिय वर्गणा, आहारक वर्गखा, तेजल वर्मणा, कार्मण चर्गणा, भाषा वर्गणा, मनो वर्गणा, और श्वासोच्छवास वर्गणा।
औदारिक वर्गणा-जो पुद्गल औदारिक शरीर रूप परिणत होते हैं उन्हें औदारिक वर्गणा कहते हैं।
. वैक्रियक वर्गणा-जो पुद्गल वैक्रियक शरीर रूप परिणतं होते हैं उन्हें वैक्रियक वर्गणा कहते हैं। .... आहारक वर्गणा-श्राहारक शरीर रूप परिणत होने वाले पुद्भत आहारक वर्गणा कहते हैं। ... तैजस वर्गणा-जिन पुलों से तैजस. शरीर बनता है उन्हें तैजस वर्गणा
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.[ ५२ 1
षट् द्रव्य निरूपण . कहते हैं।
कार्मण वर्गणा-पाठ कमों का समूह-श्रर्थात् जो पुद्गल ज्ञानावरण श्रादि कर्म रूप परिणत हों वे कार्मण वर्गणा हैं।
इसी प्रकार जिन पुद्गलों से भाषा बनती है वे पुल भाषा वर्गणा के पुद्गल कहलाते हैं । जिनसे द्रव्य मन और श्वासोच्छ्वास बनता है वे मनोवर्गणा और . श्वासोच्छास वर्गणा के पुद्गल कहलात हैं।
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त सभी शरीर और भाषा आदि पौगलिक हैं। शब्द को श्राकाश का गुण मानना और अधकार को प्रकाश का अभाव मात्र ठीक नहीं है । पर इसका विवेचन आगे किया जायगा।
___ जीवास्तिकाय-चतना लक्षण वाला है । जीव तत्त्व का विवेचन पहले किया . जा चुका है।
धर्म, अधर्म, श्राकाश, पुद्गल और जीव के साथ 'अस्तिकाय' शब्द का प्रयोग किया गया है। उसका श्राशय यह है-प्रदेशों के समूह का अस्तिकाय कहते हैं । तात्पर्य यह है कि काल के अतिरिक्त पांचों द्रव्य अनेक प्रदेशों के समूह रूप है। श्राकाश के अनन्त प्रदेश हैं और शेष चार द्रव्यों के असंख्यात-असं स्यात प्रदेश हैं।
काल द्रव्य प्रदेश-प्रचय रूप नहीं है अतएव वह अस्तिकाय नहीं कहलाता । . .
केवल ज्ञानशाली भगवान् महावीर ने इन्हा द्रव्यों का लोक बतलाया है। मूल में 'जिणहिं वरदंसिहि' यहां बहुवचन का प्रयोग करन से यह सूचित होता है कि अन्य पूर्ववर्ती तीर्थकरों ने भी ऐसा ही निरूपण किया है। श्रथवा गौतम आदि गण. '.. धरों ने भी यहीं प्रतिपादन किया है जो भगवान् ले कहा था। इससे लोक की शाश्वतता के अतिरिक्त कथन का प्रामाराय भी विदित हा जाता है। . . . मूल:--धम्मो अहम्मो अागासं, दव्वं इकिक माहियं ।
अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गल जंतवो ॥१४॥ छाया-धर्मोऽधर्म शाकाशं वन्य एकक मा न्यानम् ।
अनन्तानि च द्रव्याणि कालः पुद्ग नजन्तवः ॥ शब्दार्थ-धर्म, अधर्म, आकाश, यह तीन द्रव्य एक-एक कहे गये हैं काल, पुद्गल तथा जीव अनन्त द्रव्य हैं। ..
भाग्य-लोक का स्वरूप निरूपण करने के पश्चात् द्रव्यों के नाम तथा उनकी संख्या का निरूपण करने के लिए यह गाथा कही गई है।
. धर्म श्रादि द्रव्यों का लक्षण बतलाया जा चुका है। उनमें से धर्म, अधर्म और . आकाश द्रव्य को एक कहने का तात्पर्य यह है कि जैल प्रत्यक शरीर में अलग-अलग जीव है, एक का अस्तित्व दूसरे से सम्बन्ध नहीं हैं उस प्रकार धर्म नादि तीनः ।
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प्रथम अध्याय . " द्रव्य पृथक्-पृथक अनेक नहीं है। धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेश वाले, समस्त लोकाकाश में व्याप्त, नित्य और अखण्ड द्रव्य हैं। इसी प्रकार आकाश द्रव्य भी अनन्त प्रदेशी लोक और आलोक में व्याप्त एक अखण्ड द्रव्य है । यह तीनों और काल द्रव्य निष्क्रिय हैं। समस्त लोक में व्याप्त होने के कारण इनमें हलन-हलन नहीं होता।
शंका-श्रागम में कहा है कि प्रत्येक द्रव्य प्रति क्षण उत्पन्न होता है, प्रति क्षण विनष्ट होता है और प्रति क्षण ध्रुव रहता है। यदि धर्म आदि द्रव्य क्रिया रहित हैं तो उनका उत्पाद कैसे होगा ? विना क्रिया के उत्पाद कैसे संभव है ?
समाधान-धर्म आदि क्रिया हीन द्रव्यों में क्रिया कारण उत्पाद न होने पर भी अन्य प्रकार से उत्पाद माना गया है । उत्पाद दो प्रकार का है--(१. स्वानिमित्तक और (२) परनिमित्तक । प्रति समय अनन्त अगुरुलघु गुणों की षट्स्थान पतित हानि वृद्धि होने से स्वभाव से ही इनका उत्पाद और व्यय होता है, यह स्वनिमित्तक उत्पाद और व्यय है जिसमें क्रिया की आवश्यकता नहीं होती।
परनिमित्तक उत्पाद-व्यय इस प्रकार होता है-धर्म द्रव्य कभी अश्व की गति में निमित्त होता है, कभी गाय की गति में और कभी मनुष्य या पद्दल की गति में निमित्त होता है। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य कभी किसी की स्थिति में सहायक होता है
और कभी किसी की स्थिति में। आकाश कभी घट को अवगाह देता है, कभी पट को अवगाह देता है, कभी और किसी को अवगाह देता है । इस प्रकार इन तीनों क्रिया: हीन द्रव्यों में प्रति क्षण भेद होता रहता है। यह भेद एक प्रकार की पर्याय है और जहाँ पर्याय में भेद होता है वहां उसके आधारभूत द्रव्य में भी भेद होता है । यही भेद इनका उत्पाद और विनाश है । अतएव स्पष्ट है कि निष्क्रिय द्रव्यों में प्रति क्षण उत्पाद और विनाश होता है।
काल. पुद्गल और जीव द्रव्य अनन्त हैं। इन में से जीवों की अनन्तता का वर्णन पहले किया जा चुका है । जीव द्रव्य को एक मानने में अनेक अापत्तियां हैं। पुद्गल की अनकता प्रत्यक्ष सिद्ध है । एक पुदंगल दूसरे पुगल से सर्वथा भिन्न : प्रतीत होता है। काल द्रव्य भी अनन्त हैं। यद्यपि वर्तमान काल एक समय मात्र है, तथापि भूत और भविष्य काल के समय अनन्त होने के कारण काल को अनन्त कहा है । अथवा अनन्त पर्यायों के परिवर्तन का कारण होने से काल को अनन्त कहा है।
. . इस प्रकार धर्म, अधर्म, श्राकाश और काल, ये चार द्रव्य क्रिया हीन हैं। धर्म, अधर्म और एक जीव-द्रव्य, ये तीन असंख्यात प्रदेशी हैं। पुदगल, आकाश और काल अनन्त हैं। अकेला पुद्गल द्रव्य मूर्तिक और शेष पांचों द्रव्य अर्निक हैं। जीव अकेला चेतनावान् और शेष पांच द्रव्य अचेतन है। काल के अतिरिक्त पांक .
व्य अस्तिकाय ( प्रदेशों के समूह ) रूप हैं । आकाश को छोड़कर शेष पांच नव्ह लोकाकाश से ही विद्यमान हैं। . यहां द्रव्यों की संख्या निर्धारित कर देने से वैशेषिक श्रादि द्वारा मानी हुई
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[ ५४ ].
षट् द्रव्य निरूपण द्रव्यों की संख्या का निराकरण किया गया है। वैषेशिक पृथ्वी, आप, तेज, वायु, अाकाश, काल, दिशा, श्रात्मा और मन, ये नौ द्रव्य स्वीकार करते हैं । इनकी संख्या वास्तविक नहीं है, क्योंकि दिशा का श्राकाश में अन्तर्भाव होता है। दिशा पृथक् द्रव्य नहीं है अपितु आकाश के विभिन्न विभागों में ही दिशा की कल्पना की गई है। इसी प्रकार मन आत्मा की ही एक शक्ति-विशेष है अतः उसे प्रात्मा से पृथक नहीं मानना चाहिए। यदि मन को पृथक् द्रव्य माना जाय तो इन्द्रियों को भी पृथक् द्रव्य मानना पड़ेगा। पृथ्वी, आप, तेज और वायु में रहने वाला एकोन्द्रय जीव श्रात्मद्रव्य में अन्तर्गत है और इनका शरीर पुद्गल द्रव्य में समाविष्ट है। ... सांश्यों ने पच्चीस तत्वों की कल्पना की है। वे बुद्धि और अहंकार को पुरुष तत्व अर्थात् प्रात्मा से भिन्न स्वीकार करते हैं, जो अनुभव-विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त उन्होंने शब्द श्रादि से श्राकाश प्रादि पंच भूतों की उत्पत्तेि भानी है। शन पुद्गल है, इसका समर्थन आगे किया जायगा। पौद्गलिक शब्द से अपौद्गलिक प्राकाश नहीं उत्पन्न हो सकता । इसी प्रकार उनकी अन्य कल्पनाएँ भी युक्ति और अनुभव से बाधित हैं । पूर्ण विचार करने से ग्रंथ-विस्तार होगा। ......
इसी प्रकार नैयायिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का धौद्धों द्वारा स्वीकृत विज्ञान, वेदना, संज्ञा, आदि पांच स्कन्धों का, वेदान्तियों द्वारा श्राभिमत एकमात्र पुरुष तत्व का, चार्वाकों द्वारा अंगीकृत पांच महाभूतों का, विवार कर उनका यथा योग्य प्रति विधान करना चाहिए।
शंका-पहले तत्वों की संख्या नौ बतलाई गई है और यहां द्रव्यों की संख्या छह बतलाई गई है । यह कथन परस्पर विरोधी होने से कैसे माना जा सकता
उत्तर-दोनों निरूपणों में विरोध समझना ठीक नहीं है। तत्त्वों का विवेचन शाध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है और द्रव्यों का कथन दार्शनिक दृष्टि से । सुमुनु जीवों को जीव, अजीव का स्वरूप समझकर यह जानना विशेष उपयोगी होता है कि जीव के संसार-भ्रमण के कारण क्या है ? संसार से मुक्ति पाने के कारण क्या हैं ? मुक्ति क्या है ? अतः संसार के कारण रूप में प्रास्त्रव और बंध का, मोक्ष के कारण रूप में संवर और निर्जग का कथन किया है। मोक्ष प्रधान लक्ष्य हाने के कारण उसका वर्णन करना उपयोगी है ही। पाप और पुण्य भी संसार-मोक्ष के कारण होने से उनका भी स्वरूप समझाया गया है।
द्रव्यों के विवेचन ले यह विदित होता है कि हम जिस जगत् में रहते हैं उसकी यथार्थ स्थिति क्या है ? वह किन-किन मौलिक पदार्थों का हैं ?
इस प्रकार दोनों विवेचना में दृष्टि भेद होने पर भी वास्तविक भिन्नता नहीं है। तरच पारस्परिक विरोध की कल्पना असंगत है!
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प्रथम अध्याय
[ ५५ ] द्रव्य का विवेचन इसी अध्ययन में आगे किया जायगा। मूल:-गई लक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो।
भायणं सव्वदव्वाणं नहं श्रोगाह लक्खणं ॥१५॥ छाया-गति लक्षणस्तु धर्मः, अधर्मः स्थानलक्षणः।
. भाजनं सर्वद्रव्याणां, नभोऽवगाहलक्षणम् ॥ १५॥ शब्दार्थ-गति में सहायक होना धर्म द्रव्य का लक्षण है, स्थिति में सहायक होना अधर्म द्रव्य का लक्षण है, अवगाहना देना आकाश द्रव्य का लक्षण है । आकाश समस्त द्रव्यों का आधार है ॥१५॥
भाष्य-द्रव्यों की संख्या निर्धारित करने के पश्चात् उनके स्वरूप का निरूपण करने के लिए सूत्रकार ने यह कथन किया है । द्रव्यों के स्वरूप का निरूपण प्रायः श्रा चुका है, अतएव यहां पुनरुक्ति नहीं की जाती ।।
. प्रत्येक कार्य के लिए उपादान और निमित्त-दोनों कारणों का सद्भाव मानना श्रावश्यक है । जीव और पुद्गल की गति रूप कार्य के लिए भी उक्त दोनों कारण होने चाहिए । जीव की गति में जीव उपादान कारण है और पुद्गल की गति में पुद्: गल स्वयं उपादान कारण है । निमित्त कारण उपादान कारण से भिन्न ही होता है, अतएव इन की गति में जो निमित्त कारण है वही धर्मास्तिकाय है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय की सिद्धि होती है।
शंका-गति का निमित्त कारण मानना तो श्रावश्यक है किन्तु धर्म को ही क्यों माना जाय? आकाश को निमित्त कारण मानने से काम चल सकता है तो फिर एक पृथक् द्रव्य की कल्पना करने से क्या लाभ ?
___ समाधान-धर्मास्तिकाय का कार्य श्राकाश से नहीं चल सकता। क्योंकि श्राकाश अनन्त और प्रखंड द्रव्य होने के कारण जीव और पुदगल को, अपने में सर्वत्र गति करने से नहीं रोक सकता। ऐसी स्थिति में अनन्त पुद्गले और अनन्त जीव, अनन्त परिमाण वाले प्रकाश में बिना रूकावट के संचार करेंगे। और वे इतने पृथक्-पृथक् हो जाएंगे कि उनका पुनः मिलना और नियंत सृष्टि के रूप में दिखाई देना प्रायः अशक्य हो जायगा। इस कारण जीव और पुद्गल की गति को नियन्त्रित करने के लिए धर्मास्तिकाय नामक पृथक् द्रव्य को स्वीकार करना आवश्यक है।
इसी युक्ति से जीव और पुद्गल की स्थिति की मर्यादा बनाये रखने के लिए अधर्मास्तिकाय को स्वीकार करना चाहिए।
धर्मास्तिकाय के द्वारा जीवों का गमन-श्रागमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, चचनयोग और काययोग प्रवृत्त होता है तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी जो गमन शीला भीव हैं वे भी धमोस्तिकाय से प्रवृत्त हो रहे हैं। अंधर्मास्तिकाय से जीवों का खड़ा
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पट् द्रव्य. निरूपण. रहना, बठना, सोना, मन को स्थिर करना आदि स्थिति-शील क्रियाएँ होती है ।
, व्याख्याप्रज्ञप्ति में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के आठ-आठ मध्य प्रदेश चताये गये हैं। धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कम से कम तीन और अधिक से अधिक छह प्रदेशों से स्पष्ट होता है और अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश . श्रधर्मास्तिकाय के कम से कम चार और अधिक से अधिक सात प्रदेशों से स्पष्ट होता है। लोकाकाश के एक प्रदेश में धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश और अंधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवश्य विद्यमान है और जहां इन दोनों का एक-एक प्रदेश है वहां दूसरा अधर्मास्तिकाय या धर्मास्तिकाय का प्रदेश नहीं रह सकता । तात्पर्य यह .. है कि जैसे संख्यात, असंख्यात और अन्नत-प्रदेश वाला स्कंध भी आकाश के एक प्रदेश में अवगाहन कर सकता है उसी प्रकार धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के अनेक प्रदेश एक आकाश-प्रदेश में अवगाढ़ नहीं हैं। इससे यह भी प्रतीत हो जाता है कि लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही धर्म और अधर्म द्रव्य के भी हैं। मूल:-वत्तणा लक्खणो कालो, जीवो उव भोग लक्खयो। .. नाणेणं दंसणेणं च, सुहेण य दुहेण य ॥ १६ ॥ छाया-वर्तनालक्षणः कालो, जीव उपयोग लक्षणः।
ज्ञानेन दर्शनेन च, सुखेन दुःखेन च ॥ १६ ॥ शब्दार्थ-वर्तना अर्थात् पर्यायों के परिवर्तन में सहायक होना काल का लक्षण . है। उपयांग जीव का लक्षण है। सुख, दुःख, ज्ञान और दर्शन से जीव की पहचान होती है। . भाप्य-जीव का विस्तृत स्वरूप-प्रतिपादन किया जा चुका है। काल के विषय में भी सामान्य कथन किया जा चुका है। विशेप इतना जानना चाहिए कि समय, श्रावली, मुहूर्त, अहोरात्रि श्रादि व्यवहार-काल को काल द्रव्य मानने के अतिरिक्त. .. किसी-किसी प्राचार्य ने इन सब का कारण भूत निश्चय काल भी स्वीकार किया है। थोग शास्त्र में प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है- . . . . . . . . . . .
लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्ना: कालाणवस्तु ये। भावानां परिवाय, मुख्यः कालः स उच्यते ॥ .., ज्योतिः शास्त्रे यस्य मानमुच्यते समयादिकम् । स व्यावहारिकः कालः कालवेदिभिरामतः तव जीर्णादिरूपेण यदमी भुवनोदरे।।
पदार्थाः परिवर्तन्ते तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥ अर्थात् लोकाकाश के प्रदेशों में रहने वाले, एक दूसरे से भिन्न काल के जो 'अणु हैं वे मुख्य काल कहलाते हैं और वही पदार्थों के परिवर्तन में निमित्त होते है। . .. ज्योतिष शास्त्र में जिसका समय पावली श्रादि परिमाण कहा गया है वत्र ।
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प्रथम अध्याय
[७]
व्यावहारिक काल है, ऐसा काल-द्रव्य के वेत्ताओं ने स्वीकार किया है ।
पदार्थ कभी नये होते हैं, कभी पुराने हो जाते हैं, इस प्रकार का संसार में पदार्थों का जो परिवर्तन होता है, वह काल का ही व्यापार है ।
आचार्य हेमचन्द्र के अतिरिक्त वाचक श्री उमास्वाति ने भी ' कालश्चेत्येके. इस तत्वार्थ सूत्र में किन्हीं - किन्हीं श्राचार्यों का मत काल की द्रव्यता के विषय प्रकट किया है ।
वर्त्तना को काल का लक्षण कहा गया है । संस्कृत भाषा में उसकी व्युत्पत्ति तीन प्रकार की है— 'वर्त्यते, वर्तते, वर्तनमात्रं वा वर्तना' । पहली व्युत्पत्ति कारण -. साधन है, दूसरी कर्तृसाधन है और तीसरी भावसाधन है । द्रव्य अपनी पूर्व पर्याय का त्याग स्वयं ही करता है फिर भी उसमें बाह्य निमित्त की आवश्यकता होती है । अतएव पर्याय के परित्याग से उपलक्षित काल को वर्त्तना रूप कहा गया है।
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जीव का लक्षण उपयोग कथन करने के पश्चात् ज्ञान, दर्शन और सुख-दुःख से जीव का ज्ञान होना बतलाया गया है सो अन्य मतावलम्बियों की इस सम्बन्ध की मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करने के लिए समझना चाहिये । जैसे कि वैशेषिकं ज्ञान आदि गुणों को जीव से सर्वथा भिन्न मानते हैं और सांख्य जीव को दुःख-सुख का भोक्ता न मान कर प्रकृति को ही भोला मानते हैं । यह मिथ्या मान्यताएँ उल्लिखित कथन से खण्डित हो जाती हैं ।
. सांख्यों की यह मान्यता है कि पुरुष (जीव ) सुख-दुःख का भोक्का नहीं है: जड़ प्रकृति से उत्पन्न होने वाली वुद्धि वस्तुतः सुख-दुःख का भोग करती है । बुद्धि उभय- मुख दर्पणाकार है अर्थात् बुद्धि में दर्पण की भांति एक ओर से सुख आदि का प्रतिविम्ब पड़ता है और दूसरी तरफ से पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है । श्रतएव पुरुष शौर सुख यदि एक ही जगह मिल जाते हैं । ऐसी अवस्था में पुरुष भ्रान्ति के वश होकर अपने आपको सुख-दुःख का भोग करने वाला मान लेता है, वास्तव में बुद्धि जो कि प्रकृति का एक विकार है - सुख-दुःख भोगती है ।
सांख्यों की यह मानता युक्ति हीन है । पुरुष श्रमूर्त्तिक है ऐसा उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है | असूर्त्तिक वस्तु का प्रतिविम्ब पड़ नहीं सकता, क्योंकि प्रतिविम्व पड़ना मूर्त पदार्थ का धर्म है । अतएव पुरुष को बुद्धि पर प्रतिबिम्ब पड़ना जब असंभव है तो किस प्रकार सुख और पुरुष एकत्र प्रतिविम्बित होंगे ? एकत्र प्रति विम्बित न होने से पुरुष को तजन्य भ्रम भी नहीं हो सकता । -
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इसके अतिरिक्त प्रकृति जड़ में वेदना-शक्ति नहीं होती । अगर किसी में वेदना-शक्ति है तो उसे जड़ नहीं किन्तु चेतन ही मानना उपयुक्त है । इसलिए प्रकृति को जड़ मानते हुए भी सुख-दुःख का भोग करने वाली स्वीकार करना परस्पर विरोधी प्रलाप है |
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इसी प्रकार बुद्धि अर्थात् ज्ञान को जड़ प्रकृति का विकार ( कार्य ) बताना भी
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षद् द्रव्य निरूपण ठीक नहीं है। प्रकृति स्वयं जड़ अर्थात् अचेतन है तो फिर उससे चेतन स्वरूप वुद्धि किल प्रकार उत्पन्न हो सकती है ? उपादान कारण के ही धर्म कार्य में आते हैं । जैसे . काली मिट्टी से काला घट बनता है. सफेद तंतुओं से सफेद वस्त्र बनता है । यदि प्रकृति उपादान कारण है और वुद्धि उसका कार्य है तो प्रकृति का जड़ता रूप गुण । बुद्ध में श्राना चाहिए; परन्तु वुद्धि जड़ नहीं है अंतएव वह प्रकृति का कार्य नहीं है।
सूत्रकार ने इन बातों को सूचित करने के लिए 'नाणेण दसणण य सुहेण य. ' दुहेण य' यह पद सूत्र में रक्खा है। सूल:--सधयार उज्जोत्रो, पहा छायाऽऽतवे इ वा ।
वगण रस गंध फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१७॥ छायाः-शब्दान्धकारोद्योताः, प्रभा छायाऽऽaप इति वा।।
___ वर्ण रसगन्धस्पर्शाः, पुद्गलानां तु लक्षणम् ॥ १७ ॥ शब्दार्थ-शब्द, अंधकार, उद्यात, प्रभा, छाया, धूप, वर्ण, रस, गंध' और. . स्पर्श यह सब पद्गल के लक्षण हैं ।
भाग्य-सव द्रव्यों का स्वरूप निरूपण करके अन्त में बचे हुए पुद्गल द्रव्य का स्वरूप प्रतिपादन करने के लिए यह गाथा कही गई है। .
पर्याय-प्ररूपणा के द्वारा यहां पुद्गल का लक्षण बतलाया गया है। शब्द आदि पद्ल द्रव्य की पर्याय हैं अर्थात् शब्द, अंधकार आदि के रूप में पद्दल द्रव्य ही परिग्णत होता है।
__ शब्द दो प्रकार है-भाषा रूप शब्द और भाषा रूप शब्द । भाषा-शब्द के भी दो भेद है-अक्षरात्मक तथा अनक्षगत्मक । पारस्परिक व्यवहार का कारण, शास्त्रों को प्रकाशित करने वाला शब्द अक्षरात्मक शब्द है। हीन्द्रिय श्रादि जीवों का शब्दं अनक्षरात्मक शब्द है।
अभापात्मक शब्द भी दो प्रकार का है-प्रायोगिक और वैनसिक । बिना पुरुष-प्रयत्न के उत्पन्न होने वाला मेघ श्रादि का शब्द वैशेसिक (प्राकृतिक ) शब्द करलाता है। प्रायोगिक या प्रयत्न जन्य शब्द के चार भेद हैं-(१) तत (२) वितत : (२) धन और ( ४ ) सौपिरं । भरी श्रादि का शब्द तत कहलाता है । वीणा आदि के शब्द को वितत कहते हैं। घंटा आदि का शब्द घन कहलाता है और शंख आदि का . छिद्रों से उत्पन्न होने वाला शब्द सौपिर है।। ... दृष्टि के प्रतिबंध का कारण और प्रकाश का विरोधी पुदगल का विकार अंधकार कहलाता है । चन्द्रमा, मणि और जुगनू श्रादि से होने वाला शीतल प्रकाश ज्योत कहलाता है। कान्ति (चमक ) को प्रभा कहते हैं। प्रकाश के प्रावरणं स . उत्पन्न होने वाली छाया कहलाती है। सूर्य आदि से उत्पन्न होने वाला उष्ण प्रकाश आतप है।
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प्रथम अध्याय
५६. 1 जो चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य हो उसे वर्ण कहते हैं । जिह्वा हन्द्रिय द्वारा ग्राह्या पुद्गल का गुण रसा है जो प्राण इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हो उसे गंध कहते हैं • और स्पेशेनीन्द्रय द्वारा ग्राह्य गुण को स्पर्श कहते हैं।
सूत्र में शब्द को पुद्गल द्रव्य का.परिणाम बताकर सूत्रकार ने उसके आकाशा का गुण होने का तथा उसकी एकान्त नित्यताका निराकरण किया है । शब्द पौगलिक है, आकाश का गुण नहीं है इस विषय की चर्चा ग्यारहवें अध्ययन में की जायगी । मीमांसक मतानुयायी शब्द को सर्वथा नित्य स्वीकार करते हैं । वे अपना पक्ष सार्थना करने के लिए इस प्रकार युक्तियाँ उपस्थित करते है:
(१) शब्द नित्य है, क्योंकि हमें 'यह वही शब्द है, जिसे पहले सुना था, इस प्रकार का ज्ञान होता है । तात्पर्य यही है कि कल हमने 'क' ऐस्ता शब्द सुना। आजा फिर जब हम किली के मुख से 'क' शब्द सुनते हैं तो हमें ऐसा मालूम पड़ता है कि
आज मैं वही 'क' सुन रहा हूँ जिसे कल सुना था । शब्द अगर शनित्य होता तो वह बोलने के पश्चात् उसी समय नष्ट हो जाता और फिर दूसरी बार वह कभी सुनाई न देता। मगर वह फिर सुनाई देता है और हमें प्रत्याभ ज्ञान भी होता है इसलिए शब्द को नित्य ही स्वीकार करना चाहिए।
(२) अनुमाल प्रमाण से शब्द की नित्यता सिद्ध होती है। यथा-शब्द नित्य है, क्योंकि वह श्रोत्र-इन्द्रिय का विषय है । जो-जो श्रोत्र-इन्द्रिय का विषय होता है बह-वह नित्य होता है, जैस्ले शब्दत्व ।
(३) शब्द नित्य है, यदि नित्य न होता तो दूसरों को अपना अभिप्राय लसझाने के लिए उसका प्रयोग करना वृथा हो जाता। सारांश यह है कि शब्द अगर अनित्य हो तो वह उच्चारण करने के बाद ही नष्ट हो जाता है। अब दूसरी बार हम जो शब्द बोलते हैं. वह नया है-एकदम अपूर्व है और अपूर्व होने के कारणा.. उसका वाच्य अर्थ क्या है, यह किसी को मालूम नहीं है । मान लीजिए-हमने किसी से कहा-'पुस्तक लाओ। वह पुस्तक का अर्थ नहीं समझता था सो हमने उसे : समका दिया । वह समझ गया । किन्तु वह पुस्तक शब्द अनित्य होने के कारण उसी समय नष्ट हो गया । अब दूसरी बार हम फिर कहते हैं- 'पुस्तक लाश्री यहाँ पुस्तक शब्द पहले वाला तो है नहीं क्योंकि वह उसी समय नष्ट हो गया था। यह तो नवीन ही शब्द है, अतएव इसका अर्थ किसी को हात नहीं होना चाहिए । इसी प्रकार समस्त शब्द यदि अनित्य है तो किसी भी शब्द का अथ किसी को ज्ञात न हो सकेगा भार ऐसी अवस्था में अपना.आशय प्रकाशित करने के लिए दूनों के लिए हमारा बालना भी व्यर्थ होगा। ऐसा होने त संसार के समस्त. व्यवहार लुप्न हा जाएँगे। अतएव शब्द को अनित्य न मानकर नित्य मानना ही युक्ति-संगत मात. होता है । और ऐसा मानने ल ही जगत् के व्यवहार चल सकते हैं। ... . ...मीमांसक की उलिखत युक्तियां निस्मार हैं। उसने अन्तित्य मानने में जो साधाएँ बतलाई है, वे बाधाएँ तभी आ सकती हैं जब शब्द को सर्वया अनित्य स्वी
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पट् द्रव्य निरूपण क्षार किया जाय । किन्तु जिनागम में शब्द को कथंचित् अनित्य माना गया है । अतएव यहां उन बाधाओं के लिए तनिक भी गुंजाइश नहीं है। फिर भी उन पर संक्षेप में विचार किया जाता है
(१) प्रत्याभज्ञान प्रमाण से शब्द की एकान्त नित्य ना मानना ठीक नहीं हैं। प्रत्यभिज्ञान उसी वस्तु को जानता है जो वस्तु कथंचित् अनित्य होती है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञान में 'यह वही है' इस प्रकार दो अवस्थाओं में एक रूप से रहने वाले पदार्थ को जाना जाता है। एकान्त नित्य पदार्थ सदा एक ही अवस्था में रहता है: उस में दो अवस्थाएँ हो ही नहीं सकती। अतएव जो पदार्थ एकान्त नित्य माना जायगा उसमें दो अवस्थाएँ न होने से वह प्रत्यभिज्ञान का विषय नहीं हो सकता। शब्द प्रत्यभिज्ञान का विषय होता है इससे उसकी अनित्यता-कथंचित् परिणामीपनही सिद्ध होता है। : इसके अतिरिक्त जब कोई 'गो' शब्द बोलता है तो हमें प्रत्यक्ष से यह मालूम होता है कि 'गो, शब्द उत्पन्न हुश्रा है, और वोलने के पश्चात् उसका विनाश भी मालूम होता है। अतएव शब्द की सर्वथा नित्यता को विपय करने वाला प्रत्यभिज्ञान । प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित होने के कारण मिथ्या है। : शंका- जब कोई व्यक्ति शब्द का प्रयोग करता है तो शब्द व्यक्त (प्रकट ) होता है, उत्पन्न नहीं होता और बोलने के पश्चात् अव्यक्त (अप्रकट ) हो जाता है, नष्ट नहीं होता। इसलिए प्रत्यक्ष से शब्द का उत्पन्न होना और नष्ट होना जो ज्ञात होता है वह मिथ्या है। . . . समाधान-ऐसा मानने से सभी पदार्थ नित्य हो जाएँगे। घट, पट श्रादि सभी पदाथों के विपय में यह कहा जा सकता कि घट-पट आदि कोई भी पदार्थ कभी उत्पन्न नहीं होता, सिर्फ व्यक्त हो जाता है। और घट आदि का कभी नाश भी नहीं होता, लिफ अव्यक्त हो जाता है। इस प्रकार व्यक्त और अन्यझ होने के कारण ही पदार्थों का उत्पाद और विनाश प्रतीत होता है। फिर मीमांलक शब्द की ताह । सभी पदार्थों को सर्वथा नित्य क्यों नहीं मान लेता ? अकेले शब्द को ही क्यों नित्य मानता है ?
वास्तव में शब्द तालु-कंठ श्रादि से उत्पन्न होता है, जैसे कि मिट्टी श्रादि से घट उत्पन्न होता है । अतएव शब्द को एकान्त नित्य मानना युक्ति ले सर्वथा प्रतिकूल'
- इसके सिवाय शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिए श्राप जो प्रत्यभिज्ञान प्रमाण उपस्थित करते हैं वह अनुमान प्रमाण से बाधित है। यथा- शब्द अनित्य है, क्योंकि उम्म तीव्रता श्रार मन्दता आदि धर्म पाये जाते हैं। जिसमें तीव्रता और मन्दता श्रादि धर्म होने हैं वह अनित्य होना है, जैसे सुन-दुःख शादि । शब्द में भी तीव्रता.. मन्दता श्रादि हैं अतएव वह अनित्य है। इस अनुमान प्रमाण से शब्द की नित्यता सिद्ध करने वाला प्रत्याभिशान वंडित हो जाता है।
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प्रथम अध्याय - (२) आप कहते हैं-शव्द नित्य है, क्योंकि वह श्रोत्र-इंद्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है, लो भी ठीक नहीं है क्योंकि अनगिनती वाक्य ऐसे हैं जो श्रोत्र-इंद्रिय द्वारा ग्रहण किये जाते हैं किन्तु जिन्हें आप स्वयं नित्य नहीं मानते हैं। जैसे
स्वर्ग कामः सुगं पिवेत् । । अर्थात स्वर्ग जाने की इच्छा रखने वाले पुरुप को मदिरा-पान करना चाहिए।
यह वाक्य श्रांत्रन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिए आपके कथनानुसार "यह भी नित्य होना चाहिए । मग आप इसे नित्य नहीं मान सकते । अगर इस वाक्य
को भी नित्य मानते हो तो वेद की तरह इसे प्रमाण भूत मान कर इस बास्य के अनुसार ही आप को आचरण करना चाहिए। . (३) तीसरी युक्ति आपने यह बताई है कि शब्द को यदि नित्य नहीं माना जायगा तो अपना अभिप्राय समझाने के लिए उसे बोलना व्यर्थ हो जायगा । यह कथन भी सत्य नहीं हैं । इस कथन के अनुसार तो प्रत्येक वाच्य पदार्थ को भी सर्वथा नित्य मानना पड़ेगा; क्योंकि शब्द का अर्थ समझने के लिए जैसे शब्द की नित्यता आवश्यक समझते हो उसी प्रकार पदार्थ की नित्यता भी आवश्यक ठहरती है। पदार्थ यदि अनित्य है तो वः प्रतिक्षण नवीन-अपूर्व उत्पन्न होगा और ऐसी अवस्था में उसका वाचक शब्द नो को होगा ही नहीं; तब उस पदार्थ को जताने के लिए किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकेगा। मगर शब्द का प्रयोग किया जाता है इसलिए यह भी मानना चाहिए कि शब्द का वाच्य पदार्थ सदैव एक-सा विद्यमान रहता है।
ऐसा मान लेने पर संसार के समस्त पदार्थ नित्य ठहरेंगे, जो आपको भी अमिष्ट नहीं है। अतएव यह युक्ति आपके सिद्धान्त के विरुद्ध पड़ती है। इसलिए शब्द को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य ही स्वीकार करना चाहिए। पुद्गल द्रव्य की पर्याय होने से शब्द अनित्य है और पर्याय द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं होती इसलिए पुद्गल द्रव्य रूप होने स कथंचित् नित्य है।
सूत्रकार ने शब्द के अनन्तर अंधकार को पुद्गल का लक्षण बतलाकर उन लोगों के मत का निराकरण किया है जो अंधकार को पुदगल की पर्याय नहीं स्वीकार करते । नैयायिक मत के अनुयायी कहते हैं कि अंधकार कोई वस्तु नहीं है, वह तो केवल प्रकाश का अभाव है । जब सूर्य-चन्द्रमा श्रादि प्रकाश करने वाले पदार्थों के प्रकाश का सर्वथा अभाव होता है तो अंधकार मालूम होता हैं । यह अभाव रूप है अतएव इसे पुद्गल रूप बतलाना ठीक नहीं है।
- हम दोवाल क भीतर नहीं प्रवेश कर पाते क्योंकि दीवाल पुद्गल होने के कारण हमारा गात को रोकता है. इसी प्रकार यदि अंधकार पुद्गल होता तो उसमें भी हम प्रवेश.नं कर पाते । वह भी दीवाल की तरह हमारी गति को रोक देता। पर ऐसा देखा नहीं जाता। हम लोग अंधकार में गमन करते हैं, वह हमें रोकता नहीं है । इसांलए यह सिद्ध होता है कि अंधकार पुद्गल नहीं है।
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पद द्रव्य निरूपण इसके अतिरिक्त अंधकार यदि पुद्गल रूप होता तो उसे उत्पन्न करने वाले अवश्य दीखाई पड़ते, जैसे वस्त्र को उत्पन्न करने वाले अवयव-तन्तु-दाबाई पड़ते है। पर अंधकार जिससे बनता हैं वह कोई वस्तु कमी प्रतीत नही होती, अतपत्र अंधकार वस्तु नहीं है, वह पालोक (प्रकाश) या श्रभाव मात्र ।
नैयायिकों की यह मान्यता मिथ्या है। शंधकार श्रभाव रूए नहीं है किन्तु वह । सदभाव रूप पुद्गल की पर्याय है। पुद्गल अनेक प्रकार के होते, कोई स्यूल पुदगल होता है, वह हमारी गति में रुकावट डालता है। कोई पुदगल अत्यन्त सूक्ष्म होता है, उससे हमारी गति में रुकावट नहीं पड़ती। गति में समसावट न डालने के कारण यदि अंधकार को पुदगल न माना जाय तो प्रकाश भी युदगल रूप सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि प्रकाश भी हमारी गति में बाधक नहीं होता। हम जल अंधकार में चलते-फिरते हैं उसी प्रकार प्रकाश में चलते-फिरते हैं। फिर क्या कारण है कि श्राप अंधकार को प्रभाव रूर मानते हो और प्रकाशको अभाव रूप नहीं मानते ? जब दोनों में समान धर्म है तो दोनों को हा समान रूप ले स्वीकार करना चाहिए।
अगर यह कहो कि प्रकाश का नाश होने से अंधकार हो जाता है इसलिए शंधकार को प्रकाश का अभाव मानते हैं तो हम यह कह सकते हैं कि चार का श्रभाव होने से प्रकाश हो जाता है, अतएव अंधकार को सदभाव रूर और प्रकाश को प्रभाव रूप मानो।
शब्द की पुद्गल रूपता सिद्ध करते समय यह बताया जा चुका है कि जैसे विद्युत के उत्पादक कारण-उपादान रूप अश्यव-पहले दिखाई नहीं वेते. फिर भी विद्युत् पुद्गल है, इसी प्रकार अंधकार के जनक अवयव दृष्टि गौचर न होने पर भी वह पुद्गल है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अंधकार के उपादान रूप शवयव है ही नहीं। तेज के परमाणु ही अंधकार रूप पर्याय में एरिणत हो जात हैं और अंधकार के परमाणु प्रकाश के रूप में पलट जाते हैं, क्यों कि यह दोनों पर्याय एक ही पुद्गल द्रव्य की हैं।
शंका-पुद्गल-रूप वस्तुओं को देखने के लिए प्रकाश की श्रावश्यकता पड़ती है। अंधकार पुद्गल होता तो उसे देखने के लिए भी प्रकाश की जरूरत पड़ती : मगर दीपंक लेकर कोई अंधकार को नहीं देखता इसलिए अंधकार पुद्गल नहीं हैं।
. समाधान-सभी पदार्थों में सब धर्म सरीखे नहीं होते पदार्थों में विचित्र विचित्र शक्तियां होती हैं । जो शक्ति एक में है वह अन्य में नहीं है। इसलिए घट आदि को देखने के लिए सूर्य श्रादि के प्रकाश की आवश्यकता है पर अंधकार को देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि सभी पदार्थों के धर्म एक सरीखे होते तो सूर्य को देखने के लिए भी दूसरे सूर्य की अावश्यकता पड़ती। ____ इस अनुमान से अंधकार पुद्गल रूप सिद्ध होता है अंधकार पौद्गलिक है. क्योंकि वह चनु-इन्द्रिय से देखा जाता है । जो चतु से देखा जाता है वह पुद्गल होता है, जैसे घट आदि।
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प्रथम अध्याय
• [ ६३ ] इसके अतिरिक्त अंधकार वर्ण से काला और स्पर्श से शीत है, और वर्ण आदि पुद्गल में ही होते हैं, इसलिए भी अंधकार पौगलिक है।।
किसी नियित प्रदेश में छत्र आदि के द्वारा प्रकाश का रुकना छाया कहलाता है। छाया को पौगलिक सिद्ध करने के लिए, अंधकार को पुद्गल रूप लिद्धं करने. वाली युक्तियों का ही प्रयोग करना चाहिए।
पुद्गल के अणु और स्कंध भेद से दो भेद बतलाये जा चुके हैं। परमाणु भी पुद्गल द्रव्य रूप होने के कारण रूप, रस. गंध और वर्ण वाला है और स्कंध में भी रूप आदि पाये जाते हैं । इसीलिए सूनकार ने वर्ण आदि को पुगाल का लक्षण बताया है । स्कंध तो मूर्तिक है ही, पर परमाणु भी रूप रस आदि ले युक्त हाने के कारण मूर्तिक है। परमाणु निर्विभाग होता है । इस कारण जो प्रदश परमाणु का है वही प्रदेश रस, का वही रूप का, वही गंध का और वही स्पर्श का है । पृथ्वी, जल अग्नि और वायु परमाणुओं ले उत्पन्न हुई और होती हैं। इन जातियों के परमाणु भिन्न-भिन्न नहीं होते, केवल पर्याय के भेद से इनमें भेद होता है।
शब्द पुद्गल के अनंत परमाणुओं का पिण्ड है ! जब महास्कंधों का परम्पर संघर्पण होता है तब शब्द उत्पन्न होता है। स्वभावतः अनन्त परमाणुओं के पिण्ड • रूप, शब्द के योग्य वर्गणाएँ समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। जहां शब्द को उत्पन्न करने वाले वाह्य कारण मिलते हैं वहां वे शब्द रूप परिणत होने योग्य पुद्गल वर्गणाएँ शब्द के रूप में परिणत हो जाती हैं । इसी कारण शब्द पौद्गलिक कहलाता है।
परमाणु पुद्गल नित्य है। उसका विभाग नहीं हो सकता। उसमें एक रूप, एक रस, एक गंध और दो स्पर्श अवश्य होते हैं।
'पुद्गल-स्कंध के विवक्षा-भेद से छह भेद भी किये जाते हैं-(१) चादर-बादर (२) बादर (३) वादर सूक्ष्म (४) सूक्ष्म बादर (५) सूक्ष्म १६) सूक्ष्म-सूक्ष्म ।
(१) बादर बादर-जो पुद्गल स्कंध खंड-खंड होने पर अपने आप नहीं जुड़ सकते हैं वे बादर चादर कहलाते हैं। जैसे-पृथ्वी, पर्वत आदि ।
(२) बादर-जो पुद्गल-स्कंध खंड-खंड़ करने पर अपने आप मिल जाएँ उन्हें बादर कहते हैं। जैसे-तेल, घी, दूध, जल श्रादि।
(३) चादर सूक्ष्म-जो पुदगल हाथ से ग्रहण न किये जा सकते हो, व एक जगह से दूसरी जगह न ले जाए जा सकते हों, देखने में स्थूल दिखाई देते हों पर छिद-भेद न सकते हो, उन्हें चादर सूक्ष्म पुद्गल कहते हैं। जैसे-छाया, श्रातप, अंधकार, प्रकाश आदि ।
(४) सूक्ष्म वादर-जो पुद्गल सूक्ष्म होने पर भी स्थूल-से प्रतीत होते हैं वे सूक्ष्म बादर हैं। जैसे-वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और शब्द।।
(५ ) सूक्ष्म-जो पुगल इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं वे सूक्ष्म पुद्गल हैं । जैसे-कर्म वर्गणा आदि।
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[ ६४ ] .
___ षट् द्रव्य निरूपण .. (६) सूक्ष्म सूक्ष्म-जो पुद्गल कर्म-वर्गणाओं से भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं, ऐसा द्वयणुक पर्यन्त स्कंध सूक्ष्म सूक्ष्म कहलाते हैं।
इन छह पुद्गल-स्कंधों से ही यह समस्त दृश्य जगत् निष्पन्न हुआ है। मूल:-गुणाणमासो दव्वं, एगदव्वस्तिया गुणा ।
लक्खणं पजवाणं तु, उभी अस्तिया भवे ॥ १६ ॥ छाया-गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्याश्रिता गुणाः । ..
लक्षणं पर्यवानो तु, उभयो राश्रिता भवन्ति ।। १६॥ .. शब्दार्थ:-जो गुणों का आधार है वह द्रव्य है । गुण अकेले द्रव्य में ही रहते हैं किन्तु पर्यायों का लक्षण दोनों में अर्थात द्रव्य और गुण में आश्रित होना है ॥ १६ ॥ .
भाष्यः-षट् द्रव्यों के स्वरूप का विवेचन करने के अन्तर अव द्रव्य, गुण और पर्याय का कथन करने के लिए तथा इन तीनों का पारस्परिक अन्तर-समझाने के लिए, यह गाथा कही गई है।
प्रस्तुत गाथा में तीन बातों का विवेचन किया गया है-- (१) द्रव्य, गुणों का प्राश्रय है। . . . . (२) गुण केवल द्रव्य में ही रहते हैं। {३) पर्यायें द्रव्य में भी रहती हैं और गुणों में भी रहती हैं।
जगत् के किसी भी पदार्थ को यदि सूक्ष्म रूप से अवलोकन किया जाय तो ज्ञात होगा कि किसी भी पदार्थ का निरन्वय विनाश कभी नहीं होता । प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी रूप में वना ही रहता है। उदाहरण के लिए मिट्टी को लीजिए । मिट्टी पुद्गल है। कुंभार खेत में से मिट्टी लाता है और उसमें पानी श्रादि मिला कर उसका पिंड बनाता है । पिंड वना देने पर भी पुगुल ( मिट्टी ) किसी रूप में विद्यमान है।
पिंड बनाने के पश्चात् कुंभार उस चाक पर चढ़ाता है और उसे घट के आकार में पलट देता है। मिट्टी में एक नया श्राकार उत्पन्न होता है फिर भी पुद्गल (मिट्टी) किसी रूप में विद्यमान है।
घट थोड़े दिनों के अनन्तर, चोट लग जाने पर फूट जाता है। उसके टुकड़ेटुकड़े हो जाते हैं। अब वही पुदल ( मिट्ट । फिर नये आकार को धारण करता है । . यह नवीन श्राकार उत्पन्न हो जाने पर भी पुल मिली रूप में विद्यमान है।
टुकड़ों को पीस कर कोई मनुष्य उसका चूर्ण बना डालता है तब फिर एक नवीन श्राकार उत्पन्न होता है, किन्तु पुगल किसी रूप में विद्यमान है।
बनाये हुए चूर्ण को कोई हवा में उड़ा देता है। लेकिन क्या उल पुगल का समूल नाश हो गया ? नहीं। उसमें के अनेक कारण किसाक कान में चले गये और वे काल का मैल बन गये । कुछ करण कीचड़ में गिर गये और कीचड़ सूखने पर फिर
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मिट्टी बन गये । इसी प्रकार कोई कारण किसी में मिल गया, कोई किसी में मिल गया। पर वह सब कण किली न किसी रूप में विद्यमान हैं। उनका कभी सर्वथा नाश नहीं हो सकत॥
इसी प्रकार जीय द्रव्य को लिजिए । जीव द्रव्य इल लमय मनुष्य के श्राकार में हैं। उसकी मृत्यु हुई और वह देव बन गया। यद्यपि उसमें नया श्राकार शगया फिर भी जीव द्रव्य ज्यों का त्या विद्यमान है । उसका ससूल विनाश कदापि नहीं हो सकता।
उपर दिये हुए उदारण से यह स्पष्ट है कि कोई भी पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता फिर भी उसकी अवस्थाएँ सदा बदलती रहती हैं।
पदार्थ के कभी नष्ट न होने वाले अंश को जैनागम की परिभाषा में द्रव्य कहते हैं और सदा बदलते रहने वाले अंश को पर्याय कहते हैं।
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि नव्य कभी नष्ट नहीं होता है, यह तो समझ में आगया, पर वास्तव में द्रव्य क्या है ! यह समझाइए ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अनन्त गुणों के अखंड पिंड को ही द्रव्य कहते हैं। जैसे अनेक जड़ी-बूटियो को मिला कर पीसने से दवाई की एक गोली बनती है । वह गोली उन जड़ी-बूटियों से सर्वथा भिन्न कोई अलग पदार्थ नहीं है, उसी प्रकार गुणों के समुदाय को छोड़कर द्रव्य भी भिन्न पदार्थ नहीं है। अथवा हाथ-पैर-छाती-पेट-पीठ-सिर. श्रादि अवयवों के समूह को शरीर कहते है। इन अवयवों से बिलकुल अलग शरीर नामक कोई वस्तु नहीं है, उसी प्रकार गुणों से बिलकुल भिन्न द्रव्य नासक कोई वस्तु नहीं है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि हाथ पैर आदि से शरीर सर्वथा भिन्न न होने यर भी और जड़ी-बूटियों से बिलकुल अलग गोली न होने पर भी अकेले हाथ को शरीर नहीं कहा जा सकता, अकेले पैर को शरीर नहीं कहा जा सका और सिर्फ एक जड़ी या बूटी को गोली नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार द्रव्य यद्यपि गुणों का समुदाय है-गुणों से सर्वथा भिन्न नहीं है फिर भी किसी एक गुण को ही द्रव्य नहीं कहा जा सकता।
दुसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि द्रव्य अवयवी है, गुण उसका अवयव है, द्रव्य अंशी है और गुण उसका अंश है।
हाँ, शरीर और द्रव्य में एक अन्तर है। शरीर से उसका कोई अंश पृथक् किया जा सकता है, किसी मंत्र के द्वारा गोली में से एक जड़ी अलहदा की जा सकती है परन्तु गुण द्रव्य ले कभी अलग नहीं किया जा सकता। अनेक तंतुनों का समूह वस्त्र कहलाता है। यदि सब तंतु अलग-अलग कर दिये जाएँ तो वलका ही अस्तित्व मिट जायगा। पर द्रव्य में ले यदि एक भी गुण अलग हो जाय, जो कि कसी संभव नहीं है, तो द्रव्य का अस्तित्व ही न रहे। यही नहीं, उस अलग किये हुए गुण की भी सत्ता नहीं रहेगी, क्योंकि सूभकार ने कहा है कि गुण द्रब्धाश्रित ही होता है। तब फिर जो द्रव्य में श्राश्रित न होगा यह गुण ले कहलाएगा?
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amavansar
. षट् द्रव्य निरूपण : अतएव यह सिद्ध है कि गुण के समूह को द्रव्य कहते हैं और गुण कभी द्रव्य .. . से पृथक नहीं किये जा सकते।
शंका-यदि गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं, तो यहां सूत्रकार ने गुणों के . पाश्रय को द्रव्य क्या कहा है ? श्राश्रय तो आश्रेय वाले पदार्थ से भिन्न होता है। जैसे-'पात्र में दूध है ।' यहां पात्र अलग पदार्थ है और दूध अलग पदार्थ है । इसी प्रकार गुण द्रव्य में रहते हैं तो गुण और द्रव्य भी अलग-अलग होने चाहिए।
समाधान-आश्रय-आश्रयी का कथन अभेद में भी होता है । ' इस वस्त्र में तन्तु है' 'इल चित्र में रंग हैं' 'इस स्तम्भ में लार है' यहां वस्त्र और तन्तु में, चित्र तथा रंग में और स्तम्भ एवं लार में अभेद होने पर भी श्राश्रय-नाश्रयी का व्यवहार होता है। इसी प्रकार 'द्रव्य में गुग्ण हैं' ऐसा व्यवहार भी अभेद में हो सकता है। . शंका-यापने यह कहा है कि कभी नष्ट न होने वाले अंश को द्रव्य कहते हैं . . और सदा वदलते रहने वाले अंश को पर्याय कहते हैं । इस कथन में द्रव्य और पर्याय दोनों अंश हैं तो बतलाइए यह किसके अंश हैं और इनका अंशी कौन है ?
समाधान-सत्ता परम तत्व है । वह समस्त द्रव्यों, पर्यायों और गुणों में अनुगत है। उसका कोई प्रतिपक्ष नहीं है । उस सत्ता के ही द्रव्य और पर्याय अंश हैं। श्रागम में कहा है-'उपपन्नेइ वा, विगइ वा, धुवेइ वा अर्थात् वस्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होती है, प्रतिक्षण विनष्ट होती है और ध्रुव श्री रहती है अर्थात ज्यों की त्यों बनी रहती है। यहां उत्पाद, व्यय और प्रौव्य का एक ही काल में विधान किया गया है। लो ध्रुव रहने वाला अंश द्रव्य है और उत्पन्न तथा विनष्ट होने वाला अंश पर्याय है। वाचक उमास्वाति ने भी कहा है-'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' अर्थात् सत् तत्व वही है जिसमें उत्पाद, व्यय और प्रौव्य होता है।
एक ही वस्तु में उत्पाद और विनाश किस प्रकार होते हैं और वस्तु ध्रुव कैसे ... बनी रहती है, इसका दिग्दर्शन पहले कराया जा चुका है। आत्मा मनुष्य पर्याय का त्याग कर देव पर्याय को प्राप्त होता है । यहां मनुष्य पर्याय का विनाश, देव पर्याय की उत्पत्ति तथा आत्मा का दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहने के कारण धोव्य है।
. श्रात्मा में एकान्त रूप से यदि नौव्य ही स्वीकार किया जाय तो वह सदैव अपने सूल स्वभाव से.ही स्थित रहेगा। फिर संसार और मोक्ष का भेद भी नष्ट हो : जायगा । यदि इन स्वभावों को कल्पित माना जाय तो आत्मा का कोई स्वभाव ही न रहेगा, क्योंकि संसार-मोक्ष के अतिरिक्त श्रात्मा का और कोई स्वभाव नहीं है। स्वभाव-रहित होने से प्रात्मा का अभाव हो जायगा, क्योंकि विना स्वभाव के किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता। अतएव प्रात्मा केवल प्रौव्य रूप नहीं माना जा
अात्मा में धौव्य या सर्वथा अभाध भी नहीं माना जा सकता । अगर अात्मा को उत्पाद और व्यय रूप ही माना जाय सत् का सर्वथा अभाव मानना पड़ेगा और
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प्रथम अध्याय
असत् की उत्पत्ति माननी पड़ेगी । लेकिन यह सर्व सम्मत है कि'नासतो विद्यते भावः नाभावो जायते सतः'
अर्थात् असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् पदार्थ का कभी नाश नहीं
होता ।
श्रतएव वस्तु को ध्रौव्य रूप मानना आवश्यक है पर एकान्त ध्रुव नहीं मानना चाहिए | ध्रौव्य के साथ उत्पाद और व्यय भी प्रतिक्षण होते हैं । जैसे तराजू की डंडी जिस समय ऊँची होती है उसी समय दूसरी और नीची भी होती है और जिस समय नीची होती है उसी समय ऊँची भी होती है । इसी प्रकार जब उत्पाद होता है तब नाश भी अवश्य होता है और जब नाश होता है तब उत्पाद भी अवश्य होता है ।
शंका - मनुष्य पर्याय का नाश तो आयु समाप्त होने पर होता है, और आयु प्रतिक्षण विनाश और प्रतिक्षण उत्पाद होना कहते हैं । यह कैसे ?
समाधान—हमारा ज्ञान बहुत स्थूल है । उससे सूक्ष्म तत्त्व नहीं जाना जा सकता । किन्तु यदि सावधान होकर विचार किया जाय तो प्रतिक्षण पर्यायों का उत्पाद और विनाश प्रतीत होने लगेगा। इस बात को एक उदाहरण द्वारा समझना . चाहिए । बालक जब उत्पन्न होता है तो बहुत छोटा होता है । दश वर्ष की उम्र में वह बड़ा हो जाता है और पच्चीस-तीस वर्ष की उम्र में और भी बड़ा होकर अन्त में वृद्ध होता है । अव प्रश्न यह है कि इस बालक में जो अवस्था भेद हुआ है वह किस समय हुआ ? क्या चालक दसवें वर्ष में एक दम बढ़ गया ? क्या वह तीसवें वर्ष में लहसा युवक हो गया ? क्या वह किसी एक ही क्षण में वृद्ध हो गया ? नहीं तो क्या प्रति वर्ष किसी नियत दिन में वह बढ़जाता है ! ऐसा भी नहीं है । तो क्या उसके बढ़ने का कोई समय निश्चित है ! नहीं। तब तो यही मानना चाहिए कि चालक प्रतिक्षण अपनी पहली अवस्था को त्यागता जाता है । और प्रतिक्षण नवीन श्रवस्था को ग्रहण करता जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि क्षण-क्षण में बालक की पूर्व पर्याय का विनाश होता है और क्षण-क्षण उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है ।
इस प्रकार उत्पाद और विनाश का क्रम अनादि काल से चलता रहा है। प्रतिक्षण में होने वाला यह परिवर्त्तन बहुत सूक्ष्म है, इसलिए स्थूल दृष्टि से वह दिखाई नहीं देता । किन्तु इस परिवर्तन में जब समय की अधिकता आदि किसी कारण से स्थूलता श्राती है तब वह अनायास ही हमारी कल्पना में श्राजाता है। मगर युक्ति से यह परिवर्तन सिद्ध है । अतएव निरन्तर उत्पाद, व्यय और व्य होना ही लल् का लक्षण है । जिसमें यह तीनों नहीं हैं वह असत् है, उसका सद्भाव नहीं माना जा सकता ।
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जो पर्याय स्थूल होने के कारण सर्वसाधारण की कल्पना में आ जाती है और जो त्रिकाल - स्पर्शी होती है, उसे व्यंजन पर्याय कहते हैं । जैसे जीव की मनुष्य
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- षट् द्रव्य निरूपण .. ... पर्याय हमारे अनुभव में श्राती है और वह त्रिकाल स्पर्शी है अर्थात् जो मनुष्य वर्त्त-- मान है वह कल भूतकाल में भी मनुष्य था और आगामी काल-भविष्य काल में भी मनुष्य रहेगा। अतएव जीव द्रव्य की मनुष्य को व्यंजन पर्याय कहा गया है। व्यंजन पर्याय दो प्रकार की होती है-स्वभाव व्यञ्जन पर्याय और विभाव व्यञ्जन पर्याय । जो व्यंजन पर्याय त्रिकालस्पर्शी हो किन्तु किसी अन्य कारण ( कर्म श्रादि ) से उत्पन्न न होकर स्वाभाविक हो उसे स्वभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे जीव की सिद्ध पर्याय। इसके विपरीत जो व्यंजन पर्याय कर्म श्रादि किसी वाह्य निमित्त से होती है वह विभाव व्यंजन पर्याय है । जैसे जीव की मनुष्य पर्याय, देव पर्याय, तियञ्च आदि। यह पर्याय कर्म के उदय से होती है, जीव का स्वभाव देव आदि होना नहीं है । अतः यह पर्याय विभाव व्यंजन पर्यायें हैं ।
जो पर्याय सिर्फ वर्तमान कालवती ही होती है, जिसके बदल जाने पर भी द्रव्य आकार नहीं बदलता और जो अत्यन्त सूक्ष्म होती है उसे अर्थ पर्याय कहते हैं। इसके भी स्वभाव अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय के भेद से दो भेद होते हैं। . .
पहले द्रव्य को अनन्त गुणों का अखंड पिंड कह चुके हैं। अतएव जव गुणों में विकार होता है तब द्रव्य में भी विकार होना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त कभी सम्पूर्ण गुणों के पिंड रूप समूचे द्रव्य में भी परिवर्तन होता है । यह दोनों प्रकार का परिवर्तन द्रव्य में होता है । द्रव्य में अन्यान्य गुणों के समान एक प्रदेशवत्व गुण भी होता है । उस का अभिप्राय यह है कि द्रव्य किसी न किसी छाकर में अवश्य रहता है। उस प्रदेशवत्व गुण के विकार को अर्थात् द्रव्य के श्राकार में होने वाले परिवर्तन को व्यंजन पर्याय या द्रव्य पर्याय कहते हैं और प्रदेशवत्व गुण के सिवाय अन्य गुणों के विकार को अर्थ पर्याय या गुण पर्याय कहते हैं। सूत्रकार ने पर्यायों को उभयाश्रित द्रव्य और गुण में रहने वाली निरूपण किया है, उसका यही आशय है। .
श्रतएव पूर्वोक्त स्वभाव-विभाग व्यंजन पर्याय नादि के दो दो भेद किये जा सकते हैं। जैस-स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय और स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय विभाव गुण व्यंजन पर्याय।
स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय-जैसे चरम शरीर से कुछ कम सिद्ध भगवान् की पर्याय ।
__स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय--जैसे जीव की अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य । पर्याय ।
विभाव गव्य व्यंजन पर्याय--जैले जीव की देव, मनुष्य आदि चौरासी लान योनिरूप पर्याय।
विभाग गुण व्यंजन पर्याय--जैसे जीव की मतिज्ञान, शुतज्ञ न, अवधिज्ञान, . मनःपर्याय म्हान, चक्षुदर्शन, आदि पर्याय . . इसी प्रकार पुल द्रष्य का अविभागी एरसाशु पुल का खभाव द्रव्य- व्यंजन
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पर्याय है । वर्ण, रस, गंध में से एक एक और दो स्पर्श ये पांच गुण पुद्गल के स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं । पुद्धल की द्वयक आदि पर्यायै विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है और एक रस से रसान्तर होना, गंध से गन्धान्तर होना आदि विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं।
यह स्मरण रखना चाहिये कि धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन चार द्रव्यों गुण पर्याय या अर्थ पर्याय ही होती हैं, क्योंकि इनके प्रदेशवत्व गुण में विकार नहीं होता अर्थात् इनका आकार बदलता नहीं है, जैसा कि जीव और पुल का विकृत अवस्था में बदलता रहता है । इन चारों द्रव्यों का आकार सदैव समान रहता है ।
पर्यायें दूसरी तरह से चार प्रकार की होती हैं:
( १ ) अनादि अनंत - जैसे धर्म, अधर्म, द्रव्यों का लोकाकाश प्रमाण आकार होना, सुमेरु, नरक और स्वर्ग की रचना श्रादि ।
( २ ) सादि अनन्त पर्याय - जैसे सिद्ध पर्याय !
( ३ ) अनादि सान्त पर्याय - अव्यजीव की संसारी पर्याय ।
४ ) सादि सान्त पर्याय - जैसे पुद्गल स्कंधों का संयोग - विभाग होना ।
सूत्रकार ने शुरु को सिर्फ द्रव्य में आश्रित होने का विधान किया है । गुण, पर्याय की तरह उसमाश्रित नहीं है । इसका कारण यह है कि गुण नित्य होते हैं और पर्याय नित्य होती है । ऐसी अवस्था में अनित्य का गुण नित्य कैसे हो सकता है ? अतः गुण, पर्याय में नहीं रहता बल्कि पर्याय गुणों में रहती है । द्रव्य के क्रमभावी धर्म को पयार्य कहते हैं और सहभावी धर्म को गुण कहते हैं । गुण, द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्याप्त रहता है, अर्थात् द्रव्य चाहे जिस पर्याय में हो पर गुण उस द्रव्य में अवश्य रहेगा। गुण द्रव्य की ही भांति नित्य है । जैसे जीव का कभी विनाश नहीं होता उसी प्रकार उसके ज्ञान और दर्शन गुण का भी कभी नाश नहीं हो सकता । जीव जब निगोद में- श्रत्यन्त निकृष्ट अवस्था में रहता है तब भी उसका ज्ञान गुण विद्यमान रहता है । पर्यायें उत्पन्न और विनष्ट होती रहती हैं । यही पर्याय और गुण अन्तर है।
यो तो गुणों की संख्या अनन्त है, फिर भी उन्हें मुख्य रूप से दो विभागों में विभक्त किया गया है- (१) सामान्य गुण और (२) विशेष गुण । समस्तं द्रव्यों में समान रूप से पाये जाने वाले गुण सामान्य गुण कहलाते हैं और जो लब द्रव्यों में न होकर सिर्फ एक द्रव्य में हों उन्हें विशेष गुण कहते हैं । सामान्य गुण भी यद्यपि अनन्त हैं, तथापि उनमें से मुख्य-मुख्य इस प्रकार हैं:
( १ ) अस्तित्व - जिस गुण के कारण द्रव्य का कभी विनाश न हो ।
( २ ) वस्तुत्व -- जिस गुण के कारण द्रव्य कोई न कोई अर्थ क्रिया अवश्य करे । (३) प्रपत्व - जिल गुण के कारण द्रव्य किसी ज्ञान द्वारा जाना जा सके । ( ४ ) गुरुलघुत्व - जिस गुण के कारण द्रव्य का कोई आकार बना रहे, द्रव्य के अनंत गुण विखर कर अलग-अलग न हो जाएँ ।
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पट् द्रव्य निरूपण ( ५ ) प्रदेशवत्व-जिस गुण के कारण द्रव्य के प्रदेशों का माप हो सके। .. (६) द्रव्यत्व-जिस गुण के कारण द्रव्य सदा एक-सबरीलाल रह कर नवीन:
नवीन पर्यायों को धारण करता रहे । विशेष गुण अात्मा में जैसे ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य हैं, पुदल में रूप, रस, . गंध और स्पर्श हैं, धर्म द्रव्य में गति हेतुत्व है, अधर्म द्रव्य में स्थिति हेतुत्व है। आकाश में अवगाहन हेतुत्व है और काल में वर्तना हेतुत्व है। . शंका-भापने गुणों को नित्य कहा है पर केवलज्ञान उत्पन्न होने पर मतिज्ञान; श्रुतज्ञान आदि गुणों का नाश हो जाता है। किसी फल का खट्टा रस वदस कर मीठा .. बन जाता है। किसी वस्तु के सड़ने पर सुगंध भी दुर्गन्ध रूप में परिवर्तित हो जाती है। यहां सब जगह गुण का नाश होता हुआ कैसे देखा जाता है ?
समाधान-श्रात्मा का गुण ज्ञान है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि उल ज्ञान गुण की पर्यायें हैं। अतएव मतिज्ञान प्रादि का नाश होना पर्याय का ही नाश होना है, उसे गुण का विनाश नहीं कह लकते । ज्ञान गुण संसारी अवस्था में और मुक्त दशा में विद्यमान रहता है। इसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श पुदलद्रव्य के गुण है। लाल, हरा, पीला प्रादि रूप गुण की पर्याय हैं । खट्टा, मीठा, चरपरा श्रादि रस गुण की पयायें हैं । सुगंध और दुर्गन्ध, गंध गुण की पाये हैं। हल्का, भारी, नरम कठोर
आदि स्पर्श गुण की पर्याय हैं। कच्चा फल जब एकता है तब उसके रूप श्रादि चारों में परिवर्तन होता है किन्तु वह परिवर्तन पर्यायों का ही होता है । रूप आदि का नाश कदापि नहीं होता । यदि किसी वस्तु के गुण का नाश हो जाय तो उनके समूह रूप द्रव्य का भी नाश हो जायगा और सत् के विनाश का दोष होगा। . ..
ऊपर द्रव्य, गुण और पर्याय का स्वरूप स्पष्ट किया गया है । इस सम्बन्ध में अनेकानेक एकान्तवाद प्रचलित हैं। कोई एकान्त द्रव्य को ही स्वीकार करता है, कोई सर्वथा पर्यायवादी है । वास्तव में द्रव्य और पर्याय दोनों इस प्रकार मिले हुए हैं कि यदि कोई व्य की ओर झुक कर ही विचार करे तो उसे द्रव्य के अतिरिक्ष पर्याय अलग कहीं मालूम नहीं होता और उससे विपरीत कोई एकान्ततः पर्याय की भोर अक कर विचार करे तो पर्याय ही पर्याय उसे दृष्टिगोचर होती हैं। पर्यायों से मिश दव्य की सत्ता का कहीं दर्शन नहीं होता। संसार में कहीं भी दृष्टि दौड़ाइए, आपको जो कुछ दिखाई देगा वह पुद्गल द्रव्य की पर्याय ही है । जीव के विषय में विचार करने पर भी जीव की कोई न कोई पर्याय ही आपके ध्यान में श्राएगी। कहा भी है--
अपर्ययं वस्तु समस्यमानं, अद्रव्यमेतच्च विविध्यमानम् । - अर्थात् वस्तु को यदि द्रव्य-दृष्टि से देखा जाय तो वह पर्याय-रहित प्रतीत होगी और उसी को यदि पर्याय-दृष्टि से देखा जाय तो वही वस्तु द्रव्य-रहित प्रतीत होने लगेगी।
वास्तव में उक्त दोनों दृष्टियाँ अपनी-अपनी सीमा में मिथ्या नहीं है क्योंकि
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प्रथम अध्याय
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वस्तु दोनों रूप है | किन्तु जब एक दृष्टि, दूसरी दृष्टि का विरोध करके उसे मिथ्या मानकर अपने ही विषय को सम्यक् प्रतिपादन करती है तब वह दृष्टि सम्पूर्ण. वस्तुतत्त्व को सम्पूर्ण प्रतिपादन करके मिथ्या बन जाती है । सम्पूर्ण वस्तु तच्च का अवलोकन करने के लिए सापेक्ष दृष्टि होनी चाहिए । सापेक्ष दृष्टि का तात्पर्य यह है कि एक दृष्टि से विरोधी प्रतीत होने वाली दूसरों दृष्टि के लिए उसमें गुंजाइश रहनी चाहिए । अर्थात् पर्याय-दृष्टि में द्रव्य-दृष्टि को भी अवकाश होना चाहिए और द्रव्य-दृष्टि में पर्याय - अवकाश होना चाहिए। इसीको सापेक्षवाद, सापेक्ष दृष्टि या नयवाद कहते हैं । वस्तु के अनन्त धर्मों के संबंध में अनन्त दृष्टियाँ हो सकती हैं, अतः जय के भेद भी अनन्त हैं । श्रागम में कहा है
'
जावइया चयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया ||
अर्थात् वचन के जितने प्रकार हो सकते हैं, उतने ही प्रकार के नय भी हैं किन्तु संक्षेप में नय के दो भेद किये गये हैं- ( १ ) द्रव्यार्थिक नय और (२) पर्यायर्थिक नय । जो नय मुख्य रूप से द्रव्य को विषय करता है उसे द्रव्यार्थिक नय कहते . हैं और जो पर्याय को मुख्य रूप से अपना विषय बनाता है वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है ।
यहाँ यह न भूल जाना चाहिए कि द्रव्यार्थिक नय का मुख्य विषय यद्यपि द्रव्यही हैं, अर्थात् वह प्रत्येक वस्तु को द्रव्य के रूप में ही देखता है किन्तु वह पर्याय का निषेध नहीं करता वह पर्यायों को सिर्फ गोण करता है । इसी प्रकार पर्याय नय. वस्तु तत्त्वको पर्याय के रूप में ही देखता है, फिर भी वह द्रव्य का निषेध नहीं करता । जो नय अपने विषय की ग्राहक होकर भी दूसरे नय का निषेधक न हो वही नय कहलाता है और जो दूसरे नय का निषेध करके प्रवृत्त होता है वह दुर्नय कहलाता है । कहा भी है
अर्धस्यानेकरूपरूप धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥
अर्थात् अनेक धर्म रूप पदार्थ को विषय करने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है, और उस पदार्थ के एक अंश ( धर्म ) को नय विषय करता है । नय दूसरे धर्म की अपेक्षा रखता है और दुर्नय दूसरे धर्म का निराकरण करता है ।
शंका- जैसे द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय और पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय आपने कहा, उसी प्रकार गुण को विषय करने वाला र्थिक नय भी कहना चाहिए । वह क्यों नहीं बतलाया ?
समाधान- गुण का पर्याय में ही अन्तर्भाव होता है । पर्याय दो प्रकार की होती है - सहभावी पर्याय और क्रमभावी पर्याय । सहभावी पर्याय को गुण कहा जाता है और भावी पर्याय को पर्याय कहा है । यहाँ पर्यायार्थिक में जो पर्याय शब्द है वह व्यापक है- दोनों का वाचक है । अतएव गुणार्थिकनय पृथक् नहीं बतलाया गया
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[ ७२ ]
है । कहा भी है
गुणः पर्याय एवात्र, सहभावी विभावितः । इति तद्गोचरो नान्यस्तृतीयोऽस्ति गुणार्थिकः ॥
पद् द्रव्यं निरूपण
अर्थात् -- सहभाषी पर्याय ही गुण कहलाता है अतएव गुण को विषय करने वाला गुणार्थिक नय तीसरा नहीं है ।
द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं-- (१) नैगम (२) संग्रह और (३) व्यवहार 1.
( १ ) नैगम नय - दो धर्मों में से किसी एक धर्म को, दो धर्मियों में से एक धर्मी को तथा धर्म-धर्मी में से किसी एक की मुख्य रूप से विवक्षा करना और दूसरे की गौण रूप से विवक्षा करना नैगम नय कहलाता है । नैगम नय की प्रवृत्ति अनेक प्रकार से होती है | वद्र संकल्प मात्र का भी ग्राहक होता है । जैसे कोई पुरुष ईंधनपानी आदि इकट्ठा कर रहा है, उससे कोई पूछता है कि आप क्या कर रहे हैं ? . वह उत्तर देता है- 'चांवल पकाता हूँ।' यह नैगम नय का विषय है । इसी प्रकार देशदेश में प्रचलित शब्दों के सामान्य और विशेष अंशों को प्रकाशित करने के लिए एक देश और सर्व देश को ग्रहण करना नैगम का विषय है ।
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( २ ) संग्रह नय - सिर्फ सामान्य को विषय करने वाला अभिप्राय संग्रह नय कहलाता है। इसके दो भेद हैं- ( १ ) पर संग्रह और ( २ ) अपर संग्रह | समस्त विषयों में जो उपेक्षा रखकर सत्ता मात्र शुद्ध तत्त्व को विषय करने वाला पर संग्रह कहलाता है और द्रव्यत्व, गोत्व, मनुष्यत्व, जीवत्व, आदि अवान्तर सामान्यों को विषय करने वाला अपर सामान्य कहलाता है । जैसे सत्ता ही परम तत्त्व है और द्रव्यत्व ही तत्त्व हैं।
( ३ ) व्यवहार नय - संग्रहनय के द्वारा विषय किये हुए सामान्य में विधिपूर्वक भेद करने वाला व्यवहार नय कहलाता है । जैसे जो सत् होता है वह द्रव्य और पर्याय के भेद से दो प्रकार का है ।
पर्यायार्थिक नय चार प्रकार का है - (१) ऋजुसूत्र (२) शब्द (३) समभिरूढ और (४) एवंभूत |
( १ ) ऋजुसूत्र - वर्त्तमान क्षणवर्त्ती पर्याय को मुख्य रूप से प्रतिपादन करने वाला नय ऋजुसूत्र नय कहलाता है। जैसे-इस समय सुख पर्याय है। यहां सुख के आधारभूत श्रात्मा द्रव्य को गौरा करके उसकी विवक्षा नहीं करता, सिर्फ सुख पाय को यह विषय करता है ।
( २ ) शब्दनय -काल, कारक, लिंग, वचन यादि का मेद होने के कारण जो शब्द के वाच्य पदार्थ में भी भेद मान लेता है, उसे शब्द नय कहते हैं । जैसे - सुमेरु था, सुमेरु है, सुमेरु होगा। यहां शब्दों में काल का भेद होने से यह नय सुमेरु को भी तीन भेद रूप स्वीकार करता है ।
( ३ ) समभिरूढ नय-काल, कारक आदि का भेद न होने पर भी सिर्फ पर्या
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प्रथम अध्याय
[ ७३ ] वाची शब्द के सेद से वाच्य पदार्थ में भेद मानता है। जैसे-इन्द्र, शक, पुरन्दर आदि शब्दों के वाच्य अर्थ को अलग-अलग मानता है। तीनों शब्दों में काल, कारक आदि का भेद न होने से शब्द नय इन्हें एक देवराज का ही वाचक स्वीकार करता है, किन्तु लमभिरूढ नय तीनों शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ समझता है।
(४) एवं भूत नय-यह नय सब से सूक्ष्म है । इसनय की दृष्टि में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो क्रिया का वाचक न हो। इसके मत से 'गच्छनीति गौः' अर्थात जो गमन करता है वह गौ कहलाता है। 'आशुगमनात् अश्वः' अर्थात् जो जल्दीजल्दी चलता है वह अश्व कहलाता है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द से किसी न किसी क्रिया का भान होता है । अतएव जिस शब्द से जिस क्रिया का भान होता है, वह क्रिया करते समय ही उस शब्द से किसी को कहना चाहिए, अन्य समय में नहीं। उदाहरणार्थ-'गो' का अर्थ गमन करने वाला है। अतएव गाय जब गमन करती हो तभी उसे 'गो' कहना चाहिए, जब खड़ी हो तब नहीं । इसी प्रकार पाचक (रसोया) को पाचक तभी कहना चाहिए जघ वह किसी चीज़ को पका रहा हो-अन्य समय में नहीं। पाचन क्रिया न होने पर भी यदि किसी को पाचक कहा जाय तो फिर चाहे जिले पाचक कहा जाना चाहिए । यह एवंभूत नय का अभिप्राय है।
तीन द्रव्यार्थिक और चार पर्यायार्थिक नय मिलाने से सात भेष होते हैं । इन भेदों के स्वरूप को सूक्ष्म- दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि यह उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते गये हैं । नैगम नय सामान्य और विशेष दोनों को ग्रहण करता है, पर संग्रह नय विशेष की उपेक्षा करके सिर्फ सामान्य को ही अपना विषय बनाता है। व्यवहार नय सामान्य में भीभेद करके उनको प्रकाशित करता है । मगरव्यवहार नय नैकालिक वस्तु को विषय करता है जब कि ऋजुसूत्र नय उससे भी अधिक सूक्ष्म होने के कारण सिर्फ वर्तमान पर्याय को ही मान्य करता है।
ऋजुसूत्र नय काल, कारक श्रादि का भेदं होने पर भी वस्तु की एकता को स्वीकार करता है परन्तु शब्द नय काल आदि के भेद से वस्तु में भेद मान लेता है, अतएव शन्द ऋजुसूत्र से अधिक सूक्ष्म है । शब्द नय पर्यायवाची शब्दों के भेद से वस्तु-भेद नहीं मानता पर समभिरूढ़ नय शब्द-भेद से ही वस्तु-भेद अंगीकार करता है। और एवंभूत नय तो तथाविध क्रिया में परिणत वस्तु को ही उस शब्द का बांच्य मानता है।
इस प्रकार नय उत्तरोत्तर संक्षिप्त विषय वाखे होते गये हैं । इन सात में से पहले के चार नय मुख्य रूप से पदार्थ-प्ररूपणा करने के कारण अर्थ नय कहलाते हैं
और अन्तिम तीन नय शब्द के प्रयोग की शक्यता फा निरूपण करने के कारण शब्द नय कहलाते हैं।
जैसा कि पहले कहा गया है, नय तभी सच्चा कहलाता है जब वह अपने विषय को मुक्य रखता हुआ भी दूसरे नय का विरोध न करे । जो नय एकान्ततः अपने विषय को स्वीकार कर दूसरे नय का निषेध करता है तभी वह तुर्नय या मिथ्या
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.... षट् द्रव्य निरूपण नय कहलाने लगता है। यह दुर्नय ही जगत् से अनेक प्रकार के एकान्तवादों का जनक है। यथा-चाद्वैतवाद एकान्त संग्रह नयाभास से उत्पन हुना है, लेगम नयाभाल से वैशेषिक मत की उत्पत्ति हुई है-जो गुण और गुणी में सर्वथा भेद स्वीकार .. करता है । एकान्त व्यवहार नय से बारीक मत का निकाल हुश्रा है जो कि स्थूल लोक व्यवहार का अनुलरण करता है। ऋजुसूत्र नयाभास से बोद्धमत का उद्गम हुश्रा है-जो प्रत्येक पदार्थ को एक वर्तमान क्षण स्थायीही स्वीकार करता है । इसी प्रकार एकान्त शब्द, लयभिरूढ़ चौर एवंभूत-इन्न तीन शब्द नयाभालों से विभिन्न वैयाकरणों की भनक मिथ्या कल्पनाएँ उसून हुई हैं।
बात यह है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मा है। उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म को जानना होप नहीं है किन्तु एक धर्म को जान कर अन्य धर्मों का निषेध करना दोष है। ऐसा करने लेबपूर्ण वस्तु ही सस्पूर्ण प्रतीत होती है। इस विपय में सात अन्धों का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। अतएव लमत्र वस्तु स्वरूप का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान. प्राप्त करने के लिए अनेक नयों के अभिप्राय फो ध्यान म रखना चाहिए. । इसी को 'स्याद्वाद-लिद्धान्त' कहते हैं। स्थाद्धा-सिद्धान्त मस्पूण लत्य की प्रताति कराता है
और साथ ही एकान्तवार से उत्पन्न होने वाले मत-मतान्तगे सम्बन्धी क्लेशों का उपशमन करता है । स्यादाद संसार को यह शिक्षा दता है कि तुम अपने दृष्टिकोण को सत्य समझो, पर जो दृष्टिकोण तुम्हें अपना विगधी प्रतीत होता है, उसकी सत्यता को भी समझने का प्रयत्न करो । उसे मिथ्या कह कर अगर उसे अस्वीकार मारोगे तो तुम स्वयं मिथ्यावादी बन जानोगे, क्योंकि विरोधी दृष्टिकोण में भी उतनी ही लचाई है जितनी तुम्हारे दृष्टिकोण में है और तुम उसे मिथ्या कहते हो तो तुम स्वयं अपने दृष्टिकोण को मिथ्या बनाते हो। · प्रश्न-परस्पर विरोधी दोनों दृष्टिकोण लत्य फैले हो लफते हैं ? ...
उत्तर--प्रत्येक दो दृष्टिकोणों को 'परस्पर विरोधी' समझाना ही मिथ्या है। जो दृष्टिकोण सापेक्ष होते हैं वे विरोधी नहीं होते। सापेक्षता उनके विरोध रूपी विष को नए कर देती है। यह रुप मनुष्य है, पशु नहीं है' यहां एक ही रूप में अस्तित्व और नास्तित्व का प्रतिपादन किया गया है। अस्तित्व और नास्तित्व पररूपर विगधी प्रतीत होते हैं। यदि अपेक्षा पर ध्यान दिया जाय अर्थात् यह सोचा जाय कि मनुष्य की अपेक्षा पुरुष में अस्तित्व है और पशु फी अपेक्षा से नास्तित्व है, तो विरोध नष्ट हो जाता है।
सांजय एकान्त रूप से वित्यताबादी है और बौद्ध एकान्त रूप से अनित्यताचादी है। यह दोनों दर्शन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते है किन्तु यदि द्रव्य की अपेक्षा नित्यता स्वीकार की जाय और पर्याय की अपेक्षा अनिस्यता मान ली जाय तो दोनों का विरोध समाप्त हो जाता है । वस्तु के प्रत्येक धर्म के संबंध में सात भंग किये जा सकत है। उदाहरणार्थ-'नित्यत्व' धर्म के सात भंग इस प्रकार हैं-(१) जीव कथंचित् . नित्य है (२) कथाचित् अनित्य है। (३) जथंचित नित्यानित्य है (४) कथंचित् प्रवक्तव्य है १५१ कथंचित् नित्य भावव्य है (६) कथंचित् अनित्य नवजव्य है (७) कथंचित
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प्रथम अध्याय
नित्य-अनित्य अवज्ञव्य है।
इन सात भंगों में पहल के दो अंग मृल हैं और शेप इन्हीं दोनो ले निष्पन्न हुए हैं। जीव द्रव्यार्थिक नथ से नित्य है, क्योंकि जीव द्रव्य का कभी विनाश नहीं होता । जीव पार्थिक नय स अनित्य है क्योंकि जीव की पर्याये प्रतिक्षण नष्ट होती रहती है। दोनों नयों की कमशः अपेक्षा से जीव नित्यानित्य है। दोनों की एक साथ विवक्षा से जीव किसी भी एक शब्द द्वारा नहीं कहा जा सकता अतः अवहाव्य है। द्रव्यार्थिक नय और एक साथ दोनों नयों कि अपेक्षा जीव नित्य अवलव्य है । पर्यायार्थिक नय और दोनों की एक साथ अपेक्षा हो तो जीव अनित्य प्रवक्तव्य है। दोनों की कम से और एक साथ अपक्षा से जीव नित्य-अनित्य-अवशव्य है।
नित्यत्व धर्म को लेकर सात भंगों की योजना की गई है उसी प्रकार अस्तित्व, एकत्व, अलकत्व. श्रादि सभी धर्मों के संबंध में सात भंग योजित किये जा सकते हैं। जैनदर्शन में इसे 'सप्तरंगी' कहा गया है । अनन्त धर्मों की अनंत सप्तभंगिया हो सकती है। . नय वस्तुतः प्रमाण का एक अंश है। श्रुन ज्ञान के द्वारा ग्रहण की हुई अनन्त धर्मात्मक वस्तु में ने, अन्य धर्मों के प्रति उपेक्षा रखते हुए, किसी एक धर्म को मुख्य करके उसे ग्रहण करना नय कहलाता है। प्रमाण और नय-दोनों के द्वारा वस्तु के असली स्वरूप का ज्ञान होना है। अतएव जिज्ञासुओं को इनका स्वरूप अलीभांति समझ कर तत्त्व का निश्चय करना चाहिए विस्तार भय से यहां दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। • . सुत्रकार ले द्रव्य को गुणों का श्राश्रय बतलाया है। सो यह नहीं समझना चाहिए कि द्रव्य के अलग-अलग प्रदेश में अलग-अलग गुण हैं। द्रव्य के प्रत्येक प्रदेश में समस्त गुणों को सत्ता है अर्थात् पुद्गल द्रव्य के जिस प्रदेश में रूप है, उसी में रस आदि अनंत गुण हैं। इसी प्रकार जीव द्रव्य के जिस प्रदेश में ज्ञान गुण है उसी प्रदेश में शेष दर्शन अादि अनंत गुण भी है। तात्पर्य यह है कि द्रव्य का प्रत्येक प्रदश अनंत-अनंत गुणों का आधार है। यहां 'गुरगाणं' यह बहु वचनान्त पद अनंतता का द्योतक है। इसी प्रकार अन्य बहुवचनान्त पदों की भी यथोचित व्यवस्था कर लेना चाहिए।
वैशेषिक लोग इव्य और गुण को लर्वथा भिन्न मानकर दोनों में लमवाय संबंध स्वीकार करते हैं। किन्तु समवाय को उन्हों ने एक, व्यापक और नित्य माना है अतएक वह प्रतिनियत गुण का प्रतिनियत द्रव्य में ही संबंध नहीं कर सकता । अतः उनका कथन युक्ति शून्य है । वस्तुतः द्रव्य और गुण कथंचित् भिन्न और कथाचित् अभिन्न हैं । यह चर्चा ऊपर की जा चुकी हैं। शूल: गतं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य ।
संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्खणं ॥१६॥
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षट् द्रव्य निरूपण छायाः-एकरवञ्च पृथक्वन्च, संख्या संस्थानमेव च ।
संयोगाश्च विभागाश्च, पर्यवानां तु लक्षणम् ॥ ११ ॥ शब्दार्थः-एकत्व, पृथक्त्व (भिन्नता), संख्या, संस्थान (आकार), संयोग और विमाग; यह सब पर्यायों के लक्षण हैं।
भाष्यः-द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप का प्रतिपादन करने के पश्चात् पर्यायों के विषय में अन्य तीर्थी लोगों के भ्रम का निराकरण करने के लिए पर्यायों का . विशेष रूप से विवेचन किया गया है।
_ 'यह एक है' इस प्रकार के व्यवहार का कारणभूत पर्याय 'एकत्व' है । 'यह इससे भिन्न है' इस प्रकार का व्यवहार जिस धर्म के कारण होता है उसे पृथक्त्व कहते हैं। जिसके द्वारा दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात श्रादि का व्यवहार होता है उसे संख्या कहते हैं। लम्बा, चौड़ा, चपटा, गोल, तिकोना, चौकोर आदि पदार्थों के प्राकार को संस्थान कहते हैं। सान्तर रूपता को त्याग कर वस्तु का निरन्तर (अंतर रहित) रूप में उत्पन्न होना संयोग कहलाता है और निरन्तर रूपता का परित्याग करके लान्तर ( अन्तर सहित ) रूप अवस्था में परिणत होना विभाग कहलाता है।
यह सब पदार्थों की पर्यायों हैं। वैशेषिक लोग संख्या, पृथक्त्व, संयोग, विभाग श्रादि को द्रव्य से सर्वथा भिन्न गुण मानते हैं, सो ठीक नहीं है।
संख्या, संख्येय पदार्थ से भिन्न प्रतीत नहीं होती है, अतएव उले उससे भिन्न मानना उचित नहीं है। अगर यह कहा जाय कि दृश्य न होनेके कारण संख्या दिखाई नहीं देती है, जैले परमाणु का अस्तित्व तो है परन्तु वह दृश्य न होने से हमें दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार संख्या भी। लेकिन जैसे परमाणु का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार संन्या फासी अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए।
_वैशेषिकों का यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उन्होंने संख्या को अदृश्य नहीं किन्तु दृश्य माना है। उनका सूत्र इस प्रकार है-'संख्यापरिमाणानि पृथकत्वं संयोग विभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपिसमवाया चानुपाणीति, । यहाँ संख्या को चक्षु-इंद्रिय । का विषय बताया गया है। अतः चक्षु का विषय होने पर भी संख्या, संख्येय पदार्थ " से भिन्न नहीं प्रतीत होती, इसलिए उसे संख्येय पदार्थ की ही पर्याय मानना चाहिए, पृथक् नहीं।
शंका-'यह पुरुष दंडी है' इस प्रकार का ज्ञान अकेले पुरुष को देखने से नहीं होता! पुरुप के लिनध्य दंड ( डंडा ) का दिखाई देना आवश्यक है, इसी प्रकार 'यह एक पुरुप हैं इस प्रकार का ज्ञान अकेले पुरुष से नहीं होता। उसके लिए पुरुष के अतिरिक्त और भी कोई कारण होना चाहिए । वह अतिरिक्त कारण ही संख्या है। इससे संख्या, पुरुप से अलग है यह बात सहज ही मालूम होती है।
समाधान-'यह एक पुरुष है' इस ज्ञान के लिए पुरुष में रहने वाली, परन्तु. पुरुप ले भिन्न, संख्या भी आवश्यहा समझाते हो तो 'यह एक गुण है' इस ज्ञान के
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प्रथम अध्याय
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लिए भी गुण में रहने वाली पृथक् संख्या माननी पड़ेगी। क्योंकि दोनों ज्ञान समान है । शंका- यहां भी संख्या मान लेंगे। क्योंकि 'यह एक गुण है' इस प्रकार का ज्ञान संख्या माने बिना नहीं हो सकता ।
समाधान- यदि गुण में संख्या मानोगे तो गुण में गुण रह जायगा । गुण मैं गुण नहीं रहता, यह आप और हम दोनों स्वीकार करते हैं । संख्या को आप गुण आनते हैं, फिर भी यदि वह गुण में रहने लगे तो 'गुण में गुण' न रहने की मान्यता खंडित हो जायगी ।
अतएव जैसे गुण से अलग 'संख्या' गुण में न होने पर भी 'यह एक गुण हैं' इस प्रकार का ज्ञान हा जाता है, उसी प्रकार पुरुष से अलग 'संख्या' पुरुष में न रहने पर भी 'एक पुरुष हैं' इस प्रकार का ज्ञान हो सकता है। ऐसी अवस्था में संख्या को द्रव्य से सर्वथा भिन्न मानना युक्ति से विरुद्ध है । सूत्रकार ने संख्या को द्रव्य की पर्याय बतलाया है, वहीं समुचित है ।
इसी प्रकार पृथक्त्व को भी पदार्थ से सर्वथा भिन्न नहीं मानना चाहिए। पदार्थ स्वयं ही एक दूसरे से भिन्न ( पृथक् ) प्रतीत होते हैं । उन्हें भिन्न जताने के लिए पृथक् नामक भिन्न गुण की आवश्यकता ही नहीं है । पृथक्त्व गुण की दृश्य मानने पर भी संख्या की भाँति प्रतीति भी कभी नहीं होती । यदि घट से पट भिन्न है, इस प्रकार का ज्ञान भिन्न पृथक्त्व के बिना नहीं हो सकता तो 'रूप से इस भिन्न है' यह ज्ञान भी पृथक्त्व से ही मानना होगा और इस अवस्था में रूप श्रादि गुणों में संख्या गुण का अस्तित्व रह जायगा | फिर गुण निर्गुण होता है, यह सिद्धान्त मिथ्या ठहरेगा । अतएव पृश्क्त्व को भी पदार्थ से कथंचित् श्रभिन्न पदार्थ का धर्म ही स्वीकार करना चाहिए ।
जब दो वस्तुएँ अपनी लान्तर अवस्था को त्याग कर निरन्तर अवस्था को आत होती हैं, तब वे संयुक्त कहलाती हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संयोग उन दोनों पदार्थों से भिन्न तीसरी वस्तु नहीं है, किन्तु उन दो पदार्थ की ही अवस्था-पर्याय है । यदि वह तीसरी वस्तु होता तो जैसे संयुक्त दो पदार्थ दिखाई देते हैं वैसे तीसरा
योग भी दिखाई देता । श्राप संयोग को श्रदृश्य कह नहीं सकते क्योंकि उसे चक्षुइन्द्रिय का विषय मानते हैं । श्रतएव चाक्षुष होने पर भी जब संयोग चक्षु-ग्राह्य नहीं · है तब उसका पृथक् सद्भाव मानना ही प्रतीति-विरूद्ध है ।
संयोग का अभाव विभाग कहलाता है। विभाग प्रभाव रूप है और अभाव को आप एक स्वतन्त्र ही पदार्थ मानते हैं । ऐसी अवस्था में उसे गुण रूप कैसे मान सकते हैं ? वस्तुतः चिभाग भी संयोग की ही भांति द्रव्य की अवस्था विशेष है - एव उसे द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं मानना चाहिए । विस्तारभय से इस विषय की विस्तृत चर्चा नहीं की गई है । जिबानों को यह विषय अन्यत्र देखना चाहिए |
पदार्थ की प्राकृति को संस्थान कहते हैं । संस्थान भी पदार्थ की ही एक पर्याय है | पदार्थ जब अपने कारणों से उत्पन्न होता है तब किसी संस्थान - स्वरूप ही उत्पन्न
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पद् द्रव्य निरुपण होता है। जब पदार्थ की व्यंजन पर्याय परिवर्तित होती है तब संस्थान भी परिवर्तित होता है या लत्थान-परिवर्तनले पर्याय-परिवर्तन हो जाता है । लस्थान को नियताकार होता है, कोई अनियताकार होता है।
शंजा-मूल गाथा में 'संख्या' को पर्याय रूप प्रतिपादन किया है। तब संख्या में एक ले लेकर शागे की समस्त अनन्तानन्त पर्यन्त संख्याओं का समावेश हो जाता है। 'एक संपूया भी उला में अन्तर्गत है तब उसका गत्तं' पद देकर अलग क्यों निर्देश किया गया है ? यदि एकत्व का अलग निर्देश किया गया तो द्वित्व, नित्य नादि . का उल्लेख अलगे क्यों नहीं किया गया ?
समाधान-गुणाकार या भागाकार करन स जिसमें क्रमशः वृद्धि और हानि होती है उसे संख्या माना गया है । एक से गुणाकार किया जाय तो संख्या की वृद्धि नहीं होती और भागाकार किया जाय तो हानि नहीं होती। अतएव एक को संख्या न मान कर संख्या का मूल माना गया है। यही भाशय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने 'एगत्तं' और 'संस्खा' ये अलग-अलग पद दिये हैं।
किसी भी संख्या के साथ दो-तीन श्रादि का गुणाकार-सागाकार करने से . वृद्धि हानि होता है इसलिए उन्हें संख्या में ही समाविष्ट किया गया है और इसी कारण उनका अलग उल्लेख नहीं किया है।
प्रश्न-पृथक्त्व और विभाग का एक ही अर्थ है। इन दोनों का सूत्रकार ने लालग उल्लेख क्यों किया है ? . . ...
उत्तर-यह पहले ही कहा जा चुका है कि वैशेषियों की प्रान्ति-निवारण के लिए गाथा है । वैशेषिक लोग पृथक्त्व और विभाग नामक दोनों गुणों को अलगअलग स्वीकार करते हैं और दोनों का अर्थ भी अलग-अलग मानते है, अतएव सूत्रकार ने भी उन्हें अलग-अलग कहा है। दोनों के अर्थ में वैशेषिक. यह भेद करते है-पहले मिले हुए दो पदार्थों के अलग-अलग हो जाने पर भेद-शान कराने का कारण भूत गुण विभाग कहलाता है और संयुक्त (मिले हुए ) पदार्थो में भी यह इससे भिन्न है' इस प्रकार का ज्ञान कराने वाला गुण पृथक्या कहलाता है। तात्पर्य यह है कि विभाग तो तभी होता है जब एक पदाथे दूसरे पदार्थ से अलग हो जाये, पर . पृथक्त्व संयुक्त रहते हुए भी विद्यमान रहता है। यही दोनों में अन्तर है। वैशेषिको । द्वारा स्वीकृत इस अन्तर को लक्ष्य करके सूत्रकार ने दोनों का पृथक् उल्लेख कर दिया .
___'लक्ष्यते थनेन-इति लक्षणम्' अर्थात् जिसले वस्तु का स्वरूप लखा जाय-जाना जाय उसे लक्षण कहते हैं । लक्षण दो प्रकार का होता है -(१) प्रात्मभूत शौर (२) अनात्मभूत । जो लक्षण लक्ष्य वस्तु में मिला हुआ होता है और उस वस्तु से डालवदा नहीं किया जा सकता, वह आत्मभूत लक्ष कहलाता है जैसे जीव का चेतना लक्षण । जीव ले चतना अलग नहीं हो सकती अतएव यह लक्षण आत्मभूत है। श्रनात्मभूत लक्षण उसे फहते हैं जो वस्तु से अलग हो सके, जसे दंडी पुरुप का
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প্রথম সত্যাৰ
[ ७६ ] लक्षण दंड। दंड पुरुष म अलग हो सकता है अतएव वह अनात्मभूत लक्षण है। यहां पर्याय का एकन्य. पृथक्त्व आदि जो लक्षण बताया गया है वह पर्याय से भिन्न नहीं हो सकता अतएव वह अत्मभूत लक्षण है। .
__लक्षण के तीन दोष मान गये हैं--(९) अव्याप्ति (२) शातिव्याप्ति सौर (३) अंसंभव।
(१) अव्याहि-जो लक्षण सम्पूर्ण लक्ष्य में न रहे वह भव्याप्ति दोष वाला होता है । जैसे-पशु का लक्षण स्लीरा । “हां पशु लक्ष्य है, क्यों कि पशु का लक्षण बताया जा रहा है। सींग लक्षण है । यह सींग लक्षण. सम्पूर्ण पशुओं में नहीं रहताघोड़ा, हाथी, सिंह आदि पशु बिना लीग के पशु है। अतएव 'सींग' लक्षण अंव्याप्त है।
(२। अतिव्याप्त-जो लक्षण; लक्ष्य के अतिरिक्त अलक्ष्य में भी रह जाय वह अतिव्याप्ति दोष वाला कहलाता है। जैसे-जल जीव का लक्षण चेतना.। यहां चेतना जल जीव का लक्षण कहा गया है किन्तु वह उस जीव के अतिरिक्ष स्थावर जीव रे भी पाया जाता है। अतएंव प स जीव और अलक्ष्य स्थावर जीव-दोनों में विद्यमान रहने के कारण यह लक्षण आतव्याप्त है।
(३ ) असंभव--जो लक्षण, लक्ष्य के एकदेश या लर्व देश में न रहे वह संसव दोष से दूपित कहलाता ह जैसे-मनुष्य का लव लीग । यहां मनुष्ष खन्य है. और लींग लक्षण है। पर सींग किसी भी मनुष्य के नहीं होने सतएव यह लक्षण लक्ष्य में सर्वथा न रहने के कारण असंभव है-लक्षणाभास है।
एकत्व भादि का पर्याय का लक्षण कहने का उद्देश्य यहां यह है कि एकत्व प्रादि स्वयं पर्याव-स्वरूप है, पर्याय से भिन्न-अन्य नहीं है फिर भी एकदा आदि के द्वारा पर्याय का ज्ञान होता है।
. इस प्रकार द्रव्य और पर्याय का विवेचन समाप्त होता है। द्रव्य और पर्याय की प्ररूपणा ही जैनागम का प्राण है। इसे भली भांति हदयंगस्ट करके भव्य प्राणियों सो. सस्य भान प्राप्त करना चाहिए।
पट्-द्रव्य-निरूपण नामक प्रथम अध्ययन .
सम्पूर्ण
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* ॐ नमः सिद्धेभ्यः निन्छ चन्द
॥ द्वितीय अध्याय ।।.
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कर्म निरूपण मूल:-अकस्माई वोच्छामि, प्राणुपुर्दिक जहक्कम । .
जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परियतइ ॥ १ ॥
छाया:-अटफर्माणि वक्ष्यामि, भानुपूर्ध्या यथाक्रमम् ।
मजोऽयं जीवः, संसारे परिवर्तते ॥ १ ॥ शब्दार्थ:-श्रमण भगवान महावीर कहते हैं-हे गौतम ! पाठ कर्मों को, श्रानु। पूर्वी से क्रमवार कहता हूँ। जिन कर्मों से बँधा हुआ यह जीव संसार में नाना रूप धारण करता है।
आध्यः-प्रथम अध्ययन में षट् द्रव्यों का निरूपण करते हुए, आत्म-निरूपए के प्रकरण में कर्म-बंध का उल्लेख किया गया है और 'अप्पा कत्ता विकत्ता य' यहाँ श्रात्मा को कमरों का कर्ता प्रतिपादन किया है। अतएव यह बताना मी नावश्यक है कि फर्म क्या हैं ? यही बताने के लिए कर्म-निरूपण नामक द्वितीय अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है।
संस्कृत भाषा में कर्म शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां की गई है । जैसे-'जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति-इति कर्माणि' अर्थात् जीव को जो परतन्त्र करते हैं वे कर्म कहलाते हैं। अथवा 'जीचेन मिथ्यादर्शनादि परिणामः क्रियन्ते-इति कर्माणि ।' अर्थात् मिथ्या दर्शन आदि रूप परिणामों से युक्त होकर जीव के द्वारा जो उपार्जन किये जाते हैं उन्हें कर्म कहते हैं। प्राकृत में भी इसी प्रकार की व्युत्पत्ति देखी जाती है-'कीरइ जिएक देउहिजेणलो भराए कस्म' अर्थात् मिथ्यात्व अनिरति श्रादि देतुओं से जीव के द्वारा जो किया जाता है-कार्मारा वर्गणा के पुद्गल श्रात्मा के साथ एकमेक किये जाते हैंवही कर्म है। - यों तो और भी कई व्युत्पत्तियां कर्म शब्द की हो सकती हैं, पर उनले किसी . मौलिक बात प्रतीत नहीं होती। ऊपर जो दो प्रकार की व्युत्पत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है, उससे दो बातें झलकती हैं:--
(१) प्रथम व्युत्पत्ति से यह प्रतीत होता है कि कर्मों में जीव को परतन्त्र तनाने का स्वभाव है।
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द्वितीय अध्याय
(२) दूसरी व्युत्पत्ति से यह प्रतीत होता है कि जीव स्वभाव-मिथ्यात्व आदि रूप होकर परतन्त्र रूप हो जाने का है।
जिस प्रकार मंदिरा का स्वभाव उन्मत्त बना देने का है और मदिरापान करने बाले जीव का स्वभाव उन्मत्त हो जाने का है, उसी प्रकार कर्म का स्वभाव जीव को राग द्वेष आदि रूप परिणत. कर देने का है और जीव का स्वभाव राग-द्वेष रूप परिरणत हो जाने का है। दोनों का जब तक संबंध बना रहता है तब तक जीव विभाव रूप परिणत रहता है।
यह कर्म मूलतः एक प्रकार का है। पुद्गल पिसड रूप द्रव्य कर्म और पुद्गलपिएंड में रही हुई फल देने की शक्ति रूप भावं कर्म के भेद से कर्म के दो भेद भी किये जाते हैं। बानावरण श्रादि के भेद से मध्यम-विवक्षा की अपेक्षा आठ भेद हैं और इन आठ भेदों के उत्तर भेदों की अपेक्षा से एक सौ अड़तालीस (१४८) भेद हैं । विशेष विवक्षा से देखा जाय तो वस्तुतः कर्म के असंख्यात भेद है। कर्म के कारणभूत जीवं के, अध्यवसाय असंख्यात प्रकार के होते हैं और अध्यवसायों के भेद से अध्यवसाय-जन्य कर्म की शक्तियाँ भी तर-तम भाव रूप से असंख्यात प्रकार की होती है। किन्तु असंख्यात प्रकार जिज्ञासुओं की समझ में सुगमता से नहीं आ सकते, अतएव मध्यम रूप से पाठ भेदों में ही उन सब का समावेश किया गया है। इसी उद्देश्य से सूत्रकार ने 'अट्टकम्माई' कहा है।
यहां 'आणु पुचि' और 'जहक्कम" यह दो पद विशेष रूप से विचारणीय हैं। दोनों पद समान अर्थ के प्रतिपादक-ले ज्ञात होते हैं, पर वास्तव में वे समानार्थक नहीं है। 'श्राणु पुब्धि' से सूत्रकार का प्राशय यह है कि पाठ कर्मों का कथन, उनके अपना कथन नहीं है। चरम तीर्थकर भगवान् महावीर ने जिस प्रकार उपदेश दिया है उसी प्रकार परम्परा से आये हुए उपदेश को मैं सूत्र रूप में निबद्ध करता हूं। इतना ही नहीं, पाठ कर्मों की प्ररूपणा पूर्ववर्ती समस्त तीर्थकरों द्वारा जैसी की गई है वही यह प्ररूपणा है और उसका ही निरूपण यहां किया जायगा । इस प्रकार आनुपूर्वी से अर्थात् गुरु-शिष्य आदि के क्रम से यह प्ररूपणा अनादिकालीन है।
__ 'जहक्कम' का अर्थ भी 'क्रमपूर्वक-क्रम के अनुसार ऐसा होता है । इस पद में 'क्रम' शब्द का तात्पर्य कर्मों का पौर्वापर्य रूप क्रम है । तात्पर्य यह है कि पहले ज्ञानावरण, फिर दर्शनावरण, फिर वेदनीय, तत्पश्चात् मोहनीय, तदनन्तर आयु, फिर नाम, उसके बाद गौत्र और अन्त में अन्तराय, का क्रम शास्त्रों में बतलाया गया है। उसी क्रम के अनुसार यहां पाठ कर्मों का कथन किया जायगा । इस क्रम का कारण क्या है, सो असली गाथा में बतलाया जायेगा। ___ 'जेहिं बद्धो अयं जीयो' यहां 'श्रयं' शब्द भी गूढ़ अभिप्राय को सूचित करता है। वह इस प्रकार
_ 'श्रयं' का अर्थ है-'यह ।' 'यह' शब्द तभी प्रयोग किया जाता है जब कोई बस्तु प्रत्यक्ष से दिखाई देती हो । यहां 'यह' शब्द जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है और
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- कर्म निरूपण जीव के विषय में पहले कहा जा चुका है कि-जीव : नो इंदियगेझ अमुत्तभावा', अर्थात् अमूर्त होने के कारण इंदिय-ग्राह्य नहीं है । अतएव यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि जीव यदि इंद्रिय-प्रत्यक्ष नहीं है तो यह जीव' ऐसा क्यों कहा ? और यदि 'यह जीव' ऐसा कह कर जीव की प्रत्यक्षता सुचित की है तो उसे पहले 'इंद्रियग्राह्य नहीं है' ऐसा क्यों कहा ? सूत्रकार का यह परस्पर विरोधी-सा प्रतीत होने वाला कथन वस्तुतः विरोधी नहीं है। इन 'अयं जीवो' पदों से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि आत्मा अपने स्वरूप से इंद्रिय-गोचर न होने पर भी, अनादिकालीन कर्मों से बद्ध होकर-मूर्त कर्मों के साथ एकमेक होकर- स्वयं भी मूर्त बन गया है।
जो लोग यह शंका करते हैं कि अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध कैले हो सकता है ? उनकी शंका का निवारण सुत्रकार ने 'श्रयं' पद गाथा में देकर ही कर दिया है । तात्पर्य यह है कि श्रात्मा अनादिकाल से ही कर्मों से बँधा हुआ है और कर्म-बद्ध होने के कारण उसे एकान्त रूप से अमूर्त नहीं कहा जा सकता। ऐसी अवस्था में कर्म और आत्मा को सम्बन्ध मूर्त और अमूर्त का सम्बन्ध नहीं है, किन्तु मूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध है। .
श्रात्मा जब स्वभाव से अनन्त ज्ञान, दर्शन और शक्ति आदि का उज्ज्वल पिंड है तो वह क्यों विकृत अवस्था में परिणत होता है ? किसी भी निमित्त कारण के विना, केवल उपादान कारण से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। विकृत अवस्था में परिणत होने में श्रात्मा स्वयं उपादान कारण है. पर निमित्त कारण क्या है ? किस शक्ति के द्वारा श्रात्मा अपने मूल स्वभाव से च्युत किया गया है ? यह प्रश्न प्रत्येक श्रात्मवादी के मस्तिष्क में उत्पन्न होता है। इस प्रश्न का समाधान विभिन्न मतो में अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार किया गया है।
वेदान्त दर्शन में माया और अविद्या को जवि की विभाव-परिणति का कारण बताया गया है। सांख्य दर्शन 'प्रकृति' को कारण कहता है। वैशेषिक लोग 'अदृष्ट' को कारण मानते हैं और चौंध दर्शन में 'वासना' के रूप में इस कारण का उल्लेख पाया जाता है । जैन दर्शन इल शक्ति को कर्म कहते हैं।
यद्यपि अन्य मतों की मान्यताएँ अनेक दृष्टियों से दपित हैं. फिर भी प्रात्मा को विकृत बनाने वाली कोई शक्ति अवश्य है, इस संबंध में सभी श्रास्तिक दर्शन सहमत हैं। वेदान्ती 'माया' को श्रात्म विकृति का हेतु मानते हुए भी माया को अभाव रूप मानते हैं-उसकी सत्ता ये स्वीकार नहीं करते। और जो अभाव रूप अन्य-हैं, जिसकी कोई. सत्ता ही नहीं है, वह श्रात्मविकृति में निमित्त कारण कैसे . हो सकता है ? सांख्य लोग पुरुप-श्रात्मा-को कूटस्थ नित्य और निर्गुण मानते हैं। उनके मत के अनुसार श्रात्मा में किसी प्रकार का विकार होना ही संभव नहीं है, अतएव प्रकृति को पुरुष की विकृति का कारण मानना असंगत ठहरता है। वैशेषिक 'शष्ट को श्रात्मा का ही विशेष गुण स्वीकार करते हैं। यह सर्वथा अनुचित है। श्रात्मा का विशपे गुण ही यदि अात्मा की विकृति का कारण मानलिया जाय तो.
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द्वितीय अध्याय
[ ८३ ] श्रात्मा उस विकृति से मुक्त होकर कभी शुद्ध स्वरूप को नहीं पा सकता क्याकि 'अदृष्ट' गुण श्रात्मा का है अतएव वह सदैव प्रात्मा में विद्यमान रहेगा । बौद्धों की 'वासना सर्वथा क्षणिक है। क्षणिक होने के कारण वह उत्पन्न होते ही समूल नष्ट हो जाती है। ऐसी अवस्था में वह जन्मान्तर में फल प्रदान नहीं कर सकती । यदि यह कहा जाय कि प्रत्येक कार्य का फल इसी जन्म में भोग लिया जाता है सो ठीक नहीं है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि दया, दान, स्वाध्याय, तपस्या आदि धार्मिक आचरण करने वाले अनेक पुरुष इस जन्म में दीन, दुःखी और दरिद्र होते हैं तथा हिंसा आदि पापों का आचरण करने वाले अनेक पुरुष इस जन्म में सुखी देखे जाते हैं। यदि इस जन्म के कृत्यों का फल इस्ली जन्म में माना जाय तो दया, दान, तपस्यां आदि का धर्म कृत्यों का फल दीनता, दुःख और दरिद्रता मानना पड़ेगा और हिंसा आदि पाप कर्म का फल सुख मानना पड़ेगा। परन्तु यह संभव नहीं है । ऐसी अवस्था में यही मानना आवश्यक है कि इस जन्म में पापाचार करने वाला व्यक्ति यदि सुखी है तो वह उसके पूर्व जन्म के धर्माचार का ही फल है। इस जन्म में किये जाने वाले पापाचार का फल उसे भविष्य में अवश्य भोगना पड़ेगा। इसके विपरीत धर्माचरण करने वाला व्यक्ति यदि इस जन्म में दुःखी है तो वह उस पूर्व जन्म पापाचार का परिणाम समझना चाहिए । वर्तमान जन्म में किये जाने वाले धर्माचार का फल उसे आगे अवश्य ही प्राप्त होगा। शास्त्र में कहा है-'कडाण कम्माण ण मोक्ख अस्थि' अर्थात् किये हुए कर्म बिना भोगे नहीं छूटते हैं।
. इस प्रकार जब यह निश्चित है कि पूर्व जन्म के शुभ या अशुभ अनुष्ठान का फल इस जन्म में और इस जन्म के अनुष्ठान का फल अागामी जन्म में भी भोगा जाता है, तब फल-भोग में कारणभूत शक्ति भी जन्मान्तर में विद्यमान रहने वाली होनी चाहिए । इस युक्ति से क्षण भर रहने वाली वासना फल नहीं दे सकती।
इससे यह सिद्ध होता है कि श्रात्मा को अपने मूल स्वभाव में न होने देने वाली जो शक्ति है, वह सद्भाव रूप है, आत्मा से भिन्न पौद्गलिक है और स्थायी है। इसी शक्ति को और शक्ति के आधार भूत द्रव्य को कर्म कहते हैं।
शंका-कर्म पौद्गलिक है, इसमें क्या प्रमाण है ? .. उत्तर-कर्म को भात्मिक शमित मानने में जो बाधा उपस्थित होती है उसका उल्लेख किया जा चुका है। जब वह चेतन की शक्ति नहीं है फिर भी है तब जड़ की शक्ति होना ही चाहिए । इसके अतिरिक्त निम्न लिखित उक्लियों से भी कर्म पौद्गलिक सिद्ध होता है:- . . .
(१) कर्म पौगलिक है, क्योंकि वह आत्मा की पराधीनता का कारण है । थात्मा की पराधीनता के जितने भी कारण होते हैं वे सब पौगलिक ही होते हैं, जैसे चेही वगैरह । यदि यह कहा जाय कि अघातिया कर्म आत्मा की पराधीनता के कारण नहीं हैं, तो उन्हें क्यों पौद्गलिक मानते हो? यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अवातिया कर्म भी जीव की सिद्ध पर्याय में बाधक हैं, अतएव वे भी पराधीनता के
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[ २ ]
कर्म निरूपण
जीव के विषय में पहले कहा जा चुका है कि-जीव 'नो इंदियगेज्म श्रमुत्तभावा ' श्रर्थात् श्रमूर्त्त होने के कारण इंदिय-ग्राह्य नहीं है । अतएव यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि जीव यदि इंद्रिय-प्रत्यक्ष नहीं है तो 'यह जीव' ऐसा क्यों कहा ? और यदि 'यह जीव' ऐसा कह कर जीव की प्रत्यक्षता सूचित की है तो उसे पहले 'इंद्रियप्राह्य नहीं है' ऐसा क्यों कहा ? सूत्रकार का यह परस्पर विरोधी-सा प्रतीत होने वाला कथन वस्तुतः विरोधी नहीं है । इन 'श्रयं जीवो' पदों से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि आत्मा अपने स्वरूप से इंद्रिय - गोचर न होने पर भी, अनादिकालीन कर्मों से बद्ध होकर - मूर्त्त कर्मों के साथ एकमेक होकर - स्वयं भी मूर्त्त बन गया है।
जो लोग यह शंका करते हैं कि अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? उनकी शंका का निवारण सूत्रकार ने 'अयं' पद गाथा में देकर ही कर दिया है। तात्पर्य यह है कि श्रात्मा अनादिकाल से ही कर्मों से धा हुआ और कर्म - बद्ध होने के कारण उसे एकान्त रूप से अमूर्त्त नहीं कहा जा सकता । ऐसी अवस्था में कर्म और आत्मा को सम्बन्ध मूर्त्त और अमूर्त्त का सम्बन्ध नहीं. है, किन्तु मूर्त्त का मूर्त्त के साथ सम्बन्ध है |
आत्मा जब स्वभाव से अनन्त ज्ञान, दर्शन और शक्ति आदि का उज्ज्वल पिंड है तो वह क्यों विकृत अवस्था में परिणत होता है ? किसी भी निमित्त कारण के विना, केवल उपादान कारण से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती । विकृत अवस्था # परिणत होने में श्रात्मा स्वयं उपादान कारण है, पर निमित्त कारण क्या है ? किस शक्ति के द्वारा श्रात्मा अपने मूल स्वभाव से च्युत किया गया है ? यह प्रश्न प्रत्येक आत्मवादी के मस्तिष्क में उत्पन्न होता है । इस प्रश्न का समाधान विभिन्न मतों में अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार किया गया है ।
वेदान्त दर्शन में माया और अविद्या को जवि की विभाव- परिणति का कारण बताया गया है। सांख्य दर्शन 'प्रकृति' को कारण कहता है । वैशेषिक लोग 'श्रदृष्ट' को कारण मानते हैं और बौध दर्शन में 'वासना' के रूप में इस कारण का उल्लेख पाया जाता है। जैन दर्शन इस शक्ति को कर्म कहते हैं ।
यद्यपि अन्य मतों की मान्यताएँ अनेक दृष्टियों से दूषित हैं, फिर भी श्रात्मा को विकृत बनाने वाली कोई शक्ति अवश्य है, इस संबंध में सभी श्रास्तिक दर्शन: सहमत हैं । वेदान्ती 'माया' को श्रात्म विकृति का हेतु मानते हुए भी माया को श्रभाव रूप मानते हैं - उसकी सत्ता में स्वीकार नहीं करते । और जो प्रभाव रूप शून्य हैं, जिसकी कोई सत्ता ही नहीं है, वह श्रात्मविकृति में निमित्त कारण कैसे हो सकता है ? सांख्य लोग पुरुष - श्रात्मा को कूटस्थ नित्य और निर्गुण मानते हैं । उनके मत के अनुसार आत्मा में किसी प्रकार का विकार होना ही संभव नहीं है, श्रतएव प्रकृति को पुरुष की विकृति का कारण मानना असंगत ठहरता है । वैशेषिक' 'अदृष्ट' को श्रात्मा का ही विशेष गुण स्वीकार करते हैं । यह सर्वथा अनुचित है । श्रात्मा का विशेषे गुण ही यदि श्रात्मा की विकृति का कारण मानलिया जाय तो .
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द्वितीय अध्याय
[ ८३ ] आत्मा उस विकृति से मुक्त होकर कभी शुद्ध स्वरूप को नहीं पा सकता क्याकि 'अदृष्ट' गुण श्रात्मा का है अतएव वह सदैव आत्मा में विद्यमान रहेगा। बौद्धों की 'वासना' सर्वथा क्षणिक है । क्षणिक होने के कारण वह उत्पन्न होते ही समूल नष्ट हो जाती है । ऐसी अवस्था में वह जन्मान्तर में फल प्रदान नहीं कर सकती । यदि यह कहा जाय कि प्रत्येक कार्य का फल इसी जन्म में भोग लिया जाता है सो ठीक नहीं है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि दया, दान, स्वाध्याय, तपस्या श्रादि धार्मिक आचरण करने वाले अनेक पुरुष इस जन्म में दीन, दुःखी और दरिद्र होते हैं तथा हिंसा आदि पापों का आचरण करने वाले अनेक पुरुष इस जन्म में सुखी देखे जाते हैं। यदि इस जन्म के कृत्यों का फल इसी जन्म में माना जाय तो दया, दान, तपस्यां आदि का धर्म कृत्यों का फल दीनता, दुःख और दरिद्रता मानना पड़ेगा और हिंसा आदि पाप कर्म का फल सुख मानना पड़ेगा। परन्तु यह संभव नहीं है । ऐसी अवस्था में यही मानना आवश्यक है कि इस जन्म में पापाचार करने वाला व्यक्ति यदि सुखी है तो वह उसके पूर्व जन्म के धर्माचार का ही फल है। इस जन्म में किये जाने वाले पापाचार का फल उसे भविष्य में अवश्य भोगना पड़ेगा। इसके विपरीत धर्माचरण करने वाला व्यक्ति यदि इस जन्म में दुःखी है तो वह उस पूर्व जन्म पापाचार का परिणाम समझना चाहिए । वर्तमान जन्म में किये जाने वाले धर्माचार का फल उसे आगे अवश्य ही प्राप्त होगा। शास्त्र में कहा है-'कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थिं' अर्थात् किये हुए कर्म विना भोगे नहीं छूटते हैं।
. इस प्रकार जब यह निश्चित है कि पूर्व जन्म के शुभ या अशुभ अनुष्ठान का फल इस जन्म में और इस जन्म के अनुष्ठान का फल अागामी जन्म में भी भोगा जाता है, तब फल भोग में कारणभूत शक्ति भी जन्मान्तर में विद्यमान रहने वाली होनी चाहिए । इस युक्ति से क्षण भर रहने वाली वासना फल नहीं दे सकती।
__ इससे यह सिद्ध होता है कि श्रात्मा को अपने मूल स्वभाव में न होने देने वाली जो शक्ति है, वह सदभाव रूप है, आत्मा से भिन्न पौद्गलिक है और स्थायी है। इसी शुक्ति को और शक्ति के प्राधार भूत द्रव्य को कर्म कहते हैं।
शंका-कर्म पौद्गलिक है, इसमें क्या प्रमाण है ?
उत्तर-कर्म को अात्मिक शङ्गित मानने में जो बाधा उपस्थित होती है उसका उल्लेख किया जा चुका है। जब वह चेतन की शक्ति नहीं है फिर भी है तब जड़ की शक्ति होना ही चाहिए । इसके अतिरिक्त निम्न लिखित उक्लियों से भी कर्म पोद्गलिक सिद्ध होता है:- . . - . . (१) कर्म पौगलिक है, क्योंकि वह श्रात्मा की पराधीनता का कारण है । श्रात्मा की पराधीनता के जितने भी कारण होते हैं वे सब पौगलिक ही होते हैं, जैसे चेड़ी वगैरह । यदि यह कहा जाय कि अघातिया कर्म आत्मा की पराधीनता के कारण नहीं हैं, तो उन्हें क्यों पौद्गलिक मानते हो? यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अधातिया कर्म भी जीव की सिद्ध पर्याय में बाधक है, अतएव वे भी पराधीनता के
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[ ८४ ]
कर्भ निरूपण कारण हैं।
(२) कर्म पुद्गल रूप हैं, क्योंकि पुद्गल द्रव्य के सम्बन्ध से ही वे अपना फल देते हैं । जैसे पुद्गल रूप धान्य का परिपाक गर्मी श्रादि पुद्गल के निमित्त से होता है उसी प्रकार कर्मों का परिपाक (विपाक-फल ) भी पुद्गल के ही निमित्त से होता है, . इसलिए कर्मों को भी पुद्गल रूप ही स्वीकार करना चाहिए।
शंका-ज्ञानावरण श्रादि जीव विपाकी कर्म प्रकृतिया पुद्गल के निमित्त से फल नहीं देती, अतएव यह कहना ठीक नहीं कि कर्म पुद्गल के निमित्त से ही फल देते हैं। जीव विपाकी प्रकृतियों का फल जीव में ही होता है।
समाधान-जीव विपाकी कर्म, संसारी-सकर्म-जीव के सम्बन्ध से ही फले देते हैं, इसलिए उन कर्मों में भी परम्परा से पुद्गल कर्म का सम्बन्ध रहता ही है। अतएव यह असंदिग्ध है कि कर्मों का फल पुगल के सम्बन्ध से ही होता है इसलिए कर्म पुदल रूप ही होना चाहिए । यही नहीं, कर्म का बंध भी साक्षात् या परम्परा से पुद्गल के निमित्त से ही होता है, इसलिए भी कर्म पौगलिक हैं। .
कर्म पौगालिक होने पर भी वह आत्मा के ऊपर अपना प्रभाव डालता है। जैसे पौगालिक मदिरा, अमूर्तिक चेतना-शाक्ति में विकार उत्पन्न कर देती है उसी . प्रकार कर्म भी अमूर्त श्रात्मा पर अपना प्रभाव ,बालते है । कर्मों की यह परम्परा अनादिकाल से चल रही है। कर्म व्यक्ति की अपक्षा सादि हैं किन्तु प्रवाह की अपेक्षा अनादि हैं। सोते-जागते समय हम जो क्रियाएँ करते हैं, और हमारे मन का जैसा शुभ या अशुभ व्यापार होता है उसी के अनुसार प्रतिक्षण कर्म-बंध होता रहता है। इल समय किया हुआ कर्म-बंध भविष्य में उदय श्राता है और उसके उदय का निमित्त पाकर फिर नवीन कर्मों का बंध हो जाता है । इस प्रकार कर्म का यह अनादिकालीन प्रवाह बराबर बहता जा रहा है । जब संवर के द्वारा नवीन कर्मों का श्रागमन रुक जाता है और निर्जरा के द्वारा पूर्व-संचित कर्म खिर जाते हैं तप आत्मा अपने शुद्ध चिदानन्द रूप में सुशोभित होने लगता है । किन्तु जबतक नवीन कर्मों का आना और बंधना नहीं रुकता तब तक श्रात्मा अपने कर्मों के अनुसार संसार में अर्थात चार गतियों में अनेकानेक योनियाँ धारण करता हुश्रा, विविध प्रकार की यातनाएँ भोगता रहता है । अतः दुःस्त्रों से छुटकारा पाने का उपाय महर्षियों ने संवर
और निर्जरा रूप प्रतिपादन किया है। प्रत्येक प्रात्म-कल्याण की कामना करने वाले मम जीव का यह प्रधान कर्तव्य है कि नर भव और सद्धर्म का संयोग पाकर वह ऐसा प्रयत्न करे कि जिससे भव-भव में न भटकना पड़े और जरा-मरण-जन्म श्रादि की घोर व्यथाओं से शीघ्र छुटकारा मिल जाए । इसलिए कर्म-बंध और संवर आदि के स्वरूप को तथा कारणों को सम्यक् प्रकार से समझना चाहिए । तथा हेय का त्याग और उपादेय का ग्रहण करना चाहिए ।
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हितीय अध्याय
[ ८५ }. मूल:-नाणसावरणिज, सणावरणं तहा।।
वेयणि तहा मोहं, अाउकामं तहेव य॥२॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माई, अटेव उ समासो ॥ ३ ॥ लाथा-जानल्यावरणीयं, दर्शनाचरणं तथा ।
वेदनीयं तथा मोहं, आयुः कर्म तथैव च ॥२॥ नाम कर्म च गोत्रं च. अन्तरायं तथैव च ।
एवमेतानि कर्माणि, अष्टौ तु समासतः ॥३॥ शब्दार्थः-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गौत्र और अन्तराय, ये संक्षेप से आठ ही कर्म हैं।
भाज्य:-प्रथम गाथा में क्रम से आठ कमों के कथन करने की प्रतिज्ञा की गई थी सो यहां उनके नामों का निर्देश किया गया है । आठ कर्म इस प्रकार हैं--(१) शानावरण (२) दर्शनावरण (३ ) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोश (C) और अन्तराय।
सूनकार ले कयों का निर्देश क्रम पूर्वक किया है। प्रश्न हो सकता है कि इनमें ल्या क्रम है ? सर्व प्रथम ज्ञानावरण को क्यों गिनाया गया है. ? लय से अन्त में अन्तराय कर्म क्यों कहा गया है ? बीच के क्रम का भी क्या कारण है ? इन प्रश्नों के समाधान के लिए कमाँ का क्रम बतलाया जाता है । वह इस प्रकार है
प्रात्मा का लक्षण उपयोग है और उपयोग ज्ञान तथा दर्शन के भेष्ठ से दो प्रकार का है। इन दोनों अदा में ज्ञानोपयोग मुख्य है, क्योंकि ज्ञान से शास्त्रों का चिन्तन किया जा सकता है, ज्ञानोपयोग के समय में ही लब्धि की प्राप्ति होती है और ज्ञानोपयोग के समय में ही मुक्ति की प्राप्ति होती है । इस प्रकार झानोपयोग की प्रधानता होने से, ज्ञान का झावरण करने वाले कर्म-शानावरण का सर्व प्रथम उल्लोश किया गया है और उसके अनन्तर दर्शन का प्रावरण करने वाले दर्शनावरण का निर्देश किया गया। सुस्त जीवों के दर्शनोपयोग की प्रवृत्ति शानोपयोग के बाद होती है, इसलिए भी दर्शनावरण का उल्लेख सानावरण के पश्चात् किया गया है। शानासाना और दर्शनावरण के तीन उदय ले दुःस्व का और इनके विशेष क्षयोपशम ले सुख का अनुभव होता है। सुख-दुःख का अनुभव कराना बेदनीय कर्ल का कार्य है अतः इन दोनों कर्मों के अनन्तर वेदनीय का उल्लेख किया गया है। सुरख-दुःख की वेदना के समय राग-द्वेष का उदय अवश्य हो जाता है और राग-द्वेष मोहनीय फर्म के कार्य है. अतएव पेदनीय से. वाद मोद य कर्म का कथन किया गया है। मोस से ग्रस्त हुआ जीव भारंभ आदि करके श्रायु का बंध करता है और थायु का संध होना श्रायु कर्म का कार्य है, इसलिए मोह य के पश्चात् आयु फर्म का प्रदरा
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कर्म निरूपण. किया है। जिस जीव को आयु का उदय होता है उसे गति आदि नाम कर्म को भी भोगना पड़ता है श्रतएव श्रायु के अनन्तर नाम कर्म कहा गया है । गति श्रादि नाम कर्म बाला जीव उच्च या नीच गोत्र में उत्पन्न होता है अतएव नामकर्म के बाद गोत्र कर्म का कथन किया गया है। उच्च गोत्र वाले जीवों को अन्तराय कर्म का क्षयोपक्षय . . तथा नीच गोत्र वालों को उदय होता है, अतएव गोत्र के पश्चात् अन्तराय कर्म का .. कथन किया गया है।
वनीय कर्म यधपि घातिय कर्म नहीं है. फिर भी उसे घाति कर्मों के बीच में स्थान दिया गया है. क्यों कि वह इन्द्रियों के विषयों में से किसी में रति, किसी में श्ररति का निमित्त पातर के साता और साता का अनुभव कराता है वह आत्मा से भिम पर पदार्थों में जीव को लीन बनाता है। इस प्रकार घातिया कमों की भांति . . जीवों का घात करने के कारण उसे घाति-कर्मों के बीच स्थान दिया गया है। .
अन्साय कर्म घाति होने पर भी अन्त में इसलिए रक्खा गया है, कि वह नाम, गोश तथा वेदनीय कमों का निमित्त पा कर के ही अपना कार्य करता है और श्रघाति कर्मों की तरह पूर्ण रूप से जीव के गुणों का घात नहीं करता है।
कर्मों का यह क्रम सूचित करने के लिए सूत्रकार ने प्रथम गाथा में 'जयम' पद का प्रयोग किया था। इस क्रम से निर्दिष्ट श्राठों कर्मों का स्वरूप इस प्रकार है:
(१) हातावरण-जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को ढंकता है वह ज्ञानावरण कर्म कहलाता है । जैले-बादल सूर्य को ढंक देते हैं ।
(२) दर्शनावरण-जो कर्म आत्मा के अनाकार उपयोग रूप दर्शन गुण का अाचरण करता है, वह दर्शनावरण है । जैसे- द्वारपाला, राजा के दर्शन होने में बाधक होता है।
(३) वेदनीय-जो कर्म सुख-दुःख का अनुभव कराता है वह वेदनीय कमें कहलाता है। जैसे शहद लपेटी हुई तलवार ।
(४) मोहनीय-श्रात्मा को मोहित करने वाला कर्म मोहनीय है। जैसे मदिरा । प्रादि मादक पदार्थ जीव को असावधान-भान कर देते है उसी प्रकार मोहनीय कर्म प्रात्मा को अपने स्वरूप का मान नहीं होने देता।
(५) श्रायु-जो कर्म जीव को नारकी, तिर्थञ्च, मनुष्य या देव पर्याय में रोक रखता है वह श्रायु कर्म है । जैसे सांकलों से जकड़ा हुआ व्यक्ति अपने हाथ से अन्यत्र नहीं जा सकता इसी प्रकार प्रायु फर्म जीव को नियत पर्याय में ही रोक रखता है ।
(६) नाम कर्म-नाना प्रकार के शरीर. आदि का निर्माण करने वाला फर्म भाग हर्म है। जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है उसी प्रकार यह फर्म नाना शरीर, शरीर की प्राकृति, शरीर का गठन श्रादि-नादि बनाता है।
(७) गोन कर्म-जिस कर्म के कारण जीव को प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित कुल में जन्म लेना पड़ता है वद्द गोत्र हैं। जैसे कुंमार छोटे-बड़े अच्छे-बुरे वर्तन बनाता
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द्वितीय अध्याय
[ ८७ ] है उसी प्रकार यह कर्म विविध प्रकार के कुलों में जीवों को जन्माता है। . (८) शान्तराय-जो कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और शक्ति की प्राप्ति में विघ्न डालता है वह अन्तराय कर्म है । जैसे खंजाची लाभ आदि में विघ्न डाल देता है।
जिन कार्मण जाति के पुद्गलों का कर्म रूप में परिणमन होता है उनमें मूल रूप से ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि का भेद नहीं होता। जीव एक ही समय में, एक ही परिणाम से जिन कार्मण पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही पुद्गल ज्ञानावरण आदि विविध रूपों में पलट जाता है। जैसे भोजन के मूल पदार्थों में रस, रक्त, मांस मादि रूप में परिणत होने वाले अंश अलग-अलग नहीं होते, फिर भी प्रत्येक कौर का रस, रक्त आदि रूप में नाना प्रकार का परिणमन हो जाता है। उसी प्रकार ग्रहण किये हुए कार्मण पुद्गलों का तरह-तरह का परिणमन हो जाता है। भेद केवल यही . है कि भोज्य पदार्थ का रस, रक्त श्रादि रूप में क्रम से परिणमन होता है और ज्ञानाबरण श्रादि का भेद एक ही साथ हो जाता है। भोजन का परिणमन सात धातुओं के रूप में होता है और कार्मण पुद्गलों का भी प्रायः सात प्रकार का ही परिणमन होता है। कभी-कभी श्रायु कर्म के रूप में आठ प्रकार का परिणमन होता है।
उक्त बाठो कर्मों के उनकी विभिन्न शक्तियों के आधार पर कई तरह से भेद बतलाये गये हैं । जैसे-(१) घाति कर्म और (२) अघाति कर्म । जो कर्म जीव के ज्ञान, दर्शन शादि अनुजीवी-भाव रूप गुणों का विधान करते हैं चे घाति कर्म कहलाते हैं । घाति कर्म चार हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय । . जिनमें धनुर्जावी गुणों को घातने का सम्मर्थ्य नहीं है वे अघाति कर्म कहलाते हैं । वे भी चार हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म ।
इसी प्रकार कोई कर्म ऐसा होता है जिसका साक्षात प्रभाव जीव पर पड़ता है उसे जीव विपाकी कर्म कहते हैं । जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण प्रादि । कोई कर्म ऐसा होता है जिसका पुद्गल-शरीर-पर प्रभाव पड़ता है, उसे पुद्गल विपाकी फर्म कहते हैं । जैसे-वर्ण नाम कर्म इत्यादि । किसी कर्स का असर भव में होता है वह भवविपाकी है । जैसे श्रायु कर्म । कोई कर्म अमुफ क्षेत्रवती जीव पर अपना प्रभाव डालता है उसे क्षेत्रविपाकी कहते हैं । जैसे--श्रानुपूर्वी नास कर्म । यह आनुपूर्वी नाम कर्म उसी समय अपना प्रभाव डालता है जब जर्जाव एक शरीर को त्यागकरके नवीन शरीर ग्रहण करने के लिए शान्यत्र जाता है। - सूत्रकार ने सूल में समासो' पद दिया है । उसका अर्थ है-संक्षेप की अपेक्षा । आठ कमों का विभाग संक्षेप की अपेक्षा से वि.या गया है। विस्तार की अपेक्षा और भी अधिक भेद होते हैं । उन भेदों को उत्तर प्रकृतियां कहते हैं। उत्तर प्रकृतियां भी संक्षेप से और विस्तार से-दो प्रकार की हैं। विस्तार से उनके
संध्यात भेद है और संक्षेप से एक सौ अड़तालीस भेद हैं। इन भेदों का वर्णन स्वयं सूत्रकार श्रागे करेंगे।
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कर्म निरुपण
[८]
मूल:- नानावरणं पंचविहं, सुयं ग्राभिणिवोहियं । हिना त्र तहयं, मणनाणं च केवलं ॥ ४॥
छाया:-ज्ञानावरणं पञ्चविधं श्रुतमाभितिवोधिकम् ।
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प्रवधिज्ञानञ्च तृतीयं मनोज्ञानञ्च केवलम् ॥ ४ ॥
शब्दार्थ:-- ज्ञानावरण कर्म पांच प्रकार का है - मतिज्ञानवरण, श्रुतज्ञानावरण, श्रबधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण |
भाष्यः-- - कर्म की आठ सूल प्रकृतियों का वर्णन करने के पश्चात् क्रम से उत्तर प्रकृतियों का निरूपण करने के लिए पहले ज्ञानावरण की पांच उत्तर प्रकृतियों का यहां निर्देश किया गया हैं । वे इस प्रकार हैं - मतिज्ञानावरण, अज्ञानावरण, अवधि - ज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ।
श्रुतज्ञान को श्रावरण करने वाला कर्म श्रुतज्ञानाचरण है । मतिज्ञान को श्रावरण करनेवाला कर्म मतिज्ञानावरण है श्रवधिज्ञान को रोकनेवाला कम अवधि- ज्ञानाचरण, मनःपर्याय ज्ञान की रुकावट करने वाला मनःपर्याय ज्ञानावरण है और जो केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होने देता वह केवल ज्ञानावरण कर्म कहलाता है । पांच ज्ञानों का स्पष्ट स्वरूप विवेचन ज्ञान-प्रकरण से किया जायेगा ।
ज्ञान की उत्पत्ति के क्रम की अपेक्षा मतिज्ञान प्रथम और श्रुतज्ञान दूसरा है; क्योंकि मतिज्ञान के पञ्चात् ही श्रतज्ञान उत्पन्न होता है परन्तु यहां सूत्रकार ने श्रुतज्ञानाचरण का सर्व प्रथम निर्देश किया है । इसका कारण यह है कि श्रुत के द्वारा ही मति यादि शेष ज्ञानों का स्वरूप जाना जाता है श्रतएव श्रुत ज्ञान मुख्य है । ज्ञानावरण कर्म के बंध के निम्न लिखित हेतु हैं - (१) ज्ञान और ज्ञानवान् की निन्दा करना । (२ जिस ज्ञानी से ज्ञान की प्राप्ति हुई हो उसका नाम छिपाकर स्वयं बुद्ध बनने का प्रयत्न करना । (३) ज्ञान की श्राराधन में विघ्न डालना -जैसे ग्रंथ छिपा देना शास्त्र का जब कोई पटन करता हो तो कोलाहल करना यादि । (४) ज्ञानी जन पर द्वेष का भाव रखना । जैसे -धजी ! वह ज्ञानी कहलाता है पर है बड़ा ढोंगी वास्तव में वह कुछ भी नहीं जानता, इत्यादि । (५) ज्ञान और ज्ञानी की झालातना फरना । जैसे--पढ़ने-लिखने से कुछ भी लाभ नहीं है, ज्ञान नास्तिक बना देता है और ज्ञानी जन संसार को धोका देते हैं, थवा ज्ञानी का सामना होने पर उससे दुर्वचन कहना, उसका यथोचित विनय न करना । (६) ज्ञानी के साथ विसंवाद फरना - वृथा और उद्दंडता पूर्ण वकवाद करना ।
ज्ञानावरण कर्म इन सब दुष्कृत्यों को करने से बंधता है । प्रतएव जो भव्य जीव ज्ञानावरण कर्म के बंधन से बचकर ज्ञानी बनना चाहते हैं, उन्हें इन कारणों का परित्याग करके ज्ञान और ज्ञानी के प्रति श्रद्धा-भक्ति का भाव रखना चाहिए । उनका पथच आदर करना चाहिए | जानकी आराधना में सहायक बनना चाहिए ।
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द्वितीय अध्याय ज्ञान के साधनों का प्रचार करना चाहिए और बहुमान पूर्वक ज्ञान की निरन्तर
आराधना करना चाहिए । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति ही. आत्म-कल्याण का मूल है। उसके बिना की जाने वाली क्रियाएँ मुक्ति का कारण नहीं होती है । ऐसा समझकर सम्यग्ज्ञान की साधना करना शिष्ट पुरुषों का परम कर्तव्य है। मूल:-निहा तहेव पयला, निहानिहा य पयलपयला य ।
ततो प्रथाणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा ॥ ५॥ चक्खुमबाखू मोहिस्स, दंसणे केवले य श्रावरणे। एवं तु नव विगप्पं, नायव्वं दसणावरणं ॥६॥ पायाः-निद्रा तथैव प्रचली, निद्रानिद्रा च प्रचलाप्रचता छ ।
ततश्च स्त्यानगृद्धिस्तु, पञ्चमा भवति ज्ञातव्या ॥५॥ चतुरचक्षुरबधेः, दर्शने केवले च प्रावरणे।
एवं तु नवविकल्पं, ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् ॥ ६॥ शब्दार्थ:--दर्शनावरण कर्म के नौ भेद इस प्रकार जानना चाहिए--(१) निद्रा (२) प्रचला (३) निद्रानिद्रा (४) प्रचलापचला (५) स्त्यानगृद्धि (६) चक्षुदर्शनावरण (७) अचक्षुदर्शनावरण (८) अवधिदर्शनावरण और (६) केवलदर्शनावरण"
भाष्य-ज्ञानावरण के मेद बतान के पश्चात् क्रमप्राप्त दर्शनावरण के भेद वताने के लिए सूत्रकार ने इन गाथाओं का कथन किया है । दर्शनावरण के नौ भेद हैं और वे इस प्रकार हैं:
(१) निद्रा जो निद्रा थोड़ी सी आहट पाकर ही भंग हो जाती है, जिसे भंग कारन के लिए विशेष श्रम नहीं करना पड़ता वह निद्रा कहलाती है । जैन श्रागमों में यह निद्रा शब्द पारिमाधिक है जो सामान्य निद्रा के अर्थ में प्रयुक्त न होकर हल्की निद्रा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिस कर्म के उदय से ऐली हल्की नींद आती है यह कर्म भी निद्रा कर्म कहलाता है।
(२) पचला-खड़े-खड़े या वैठे-बैठे जो निद्रा आजाती है वह प्रचला कहलाती है और जिस कर्म के उदय से यह निद्रा आती है वह प्रचला कर्म कहलाता है।
(३ निन्द्रानिद्रा--जो नींद बहुत प्रयत्न करने से टूटती है-चिल्लाने से या शरीर को झकझोरले ले भंग होती है उसे लिदानिन्द्रा कहते हैं । यह निन्द्रा जिस कर्म के उदय से शाती है उसे निद्रानिद्रा कहा जाता है।
(४) प्रचला प्रलला-चलते-फिरते समय भी जो नींद आ जाती है वह प्रचणा प्रचला कहलाती है । जिस कर्म के उदय से वह नींद भाती है वह प्रचला प्रचला कर्म कहलाता है।
(स्लान गृद्धिजिस निला में, दिन या रारा को जागृत अवस्था में सोचा
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कर्म निरूपण .. - हुश्रा कार्य मनुष्य कर लेता द्वै उस निद्रा को स्त्यान गृद्धि करते हैं। ऐसी निद्रा जिस कर्म के उदय से आती है वह स्त्यान गृद्धि कर्म कहलाता है । यह निद्रा प्रायः बज्रः . वृषभनाराच संहनन वाले जीव को ही पाती है। इस संहनन वाले जीव में, इस निद्रा - . के समय वासुदेव के बल से श्राधा यल झा जाता है। यह निद्रा जिले आती है वह जीव नियम ले नरक जाता है । अन्य संहनन वालों को यह निद्रा नहीं पाती-जिसे लाने की संभावना की जा सकती है उस में भी वर्तमान काल न युवकों से साठ गुना . अाधक बल होता है।
पदार्थ के सामान्य धर्म को जानने वाला उपयोग दर्शन कहलाता है। दर्शन चार प्रकार का है, अतएव उसके भावरण भी चार प्रकार के हैं। यह चार यावरण और . पांच निद्रा मिलकर दर्शनावरण के नौ भेद होते हैं। चार दर्शनों के प्रावरण यह है
(६) चक्षुदर्शनावरण-प्रांच के द्वारा पदार्थ सामान्य धर्म का ज्ञान होना चक्षु वर्णन है और इसका आवरण करने वाला कर्म चक्षु-वर्शनावरण कहलाता है। .
(७) अचक्षुदर्शनावरण-आंख को छोड़ कर शेष चार इंद्रियों से होने . वाला पदार्थ के सामान्य धर्म का ग्रहण चक्षुदान सहलाता है। इसे रोकने वाला कर्म अचनुदर्शनावरण कहलाता है।
. 1) अवधिदर्शनावरण-अवधिशान से पहले, जो सामान्य का ग्रहण होता है उस्ले अवधिदर्शन कहते हैं। अवधिदर्शन का घाबरण करने वाला कर्म अधिदर्शगायः रण कहलाता है।
(१) केवलदर्शनावरण-संसार के समस्त पदार्थों का सामान्य बोध होना केवलदर्शन है और उसका प्रावरण करने वाला कर्म केवल दर्शनावरण है .
उपर्युक्त चार दर्शनों में ले केवल दर्शन लभ्यत्व के बिना नहीं होता, शेष तीन . दर्शन सम्यक्त्व के अभाव में भी होते हैं। . दर्शनावरण कर्म का बंध निम्न लिनित कारणों से होता हैः-(१) जिसे अच्छी तरह दीखता है उसे अंधा या काना कहना, और उसका अवर्णवाद करना। (-). जिसके द्वारा अपने नेत्रों को लाभ पहुँचा हो या नेत्रों के विना भी जिसने पदार्थ का यथार्थ स्वरूप समझाया हो उस्ल उपकारी का उपकार न मानना । (३) जो अवधिदर्शन वाला है उसकी या उसके उस विशिष्ट दर्शन की निन्दा करना (2) किसी के दुःखते हुए नेत्रों के ठीक होने में बाधा डालना. या चा से भिन्न किसी अन्य इन्द्रिय द्वारा होने वाले दर्शन या अवधिदर्शन अथवा केवलदर्शन की प्राप्ति में बाधा डालना। १५) जिसे कम दीखता है या बिलकुल नहीं दीखता उसे यह कहना कि-यह धूर्त है। इले साफ दिखाई देता है, फिर भी जान-बूझकर अंधा बना बैठा है। इसी प्रकार - अचनु दर्शन की मंदता वाले को छलिया-कपटी कहना । जैसे-यह तो दूसरों को . धोखा घेने के लिए मूर्ख बन रहा है ! इसी प्रकार अवधिदर्शन और केवलदशन वाले के प्रति उप का भाव रखना । (६) चनुदर्शन, अचत्तुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलादर्शन वाले के साथ झगड़ा-फसाद करना।
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द्वितीय अध्याय
[ १] इत्यादि पूर्वोत कार्य करने से दर्शनावरण का बंध होता है। इस घाति कर्म के बंध से बचने की इच्छा रखने वालों को उपर्युक्त कार्य तथा इसी प्रकार के अन्य कार्य त्याग देने चाहिए।
यहां यह शंका ही जा सकती है कि जैले मतिज्ञाभ और श्रुतज्ञान से पूर्व चक्षुदर्शन और अचतुदर्शन होता है, अवधिज्ञान से पहले अवधि-दर्शन होता है, केवल ज्ञान के पश्चात् फेव दर्शन होता है, उसी प्रकार मनः पर्याय ज्ञान से पहले मनः पर्याय दर्शन क्यों नहीं होता ? शास्त्रों में मनः पर्याय दर्शन का उल्लेख क्यों नहीं है ? इसका समाधाम य है कि मनः पर्याय ज्ञान इहा नामक मतिज्ञान पूर्वक होता है. दर्शन पूर्वक नहीं होता। इसी कारण मनः पर्याय दर्शन नहीं माना गया है। सूल:-वेपणीयं पि दुविह, सायमसायं च प्राहियं ।
सायस्स उ बहू भेया, एमेव असायस्स वि ॥ ७॥ छाया-वेदनीयमपि द्विविधं, सातमसातं चाख्यातम् ।
सातस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवातातस्यापि ॥ ७ ॥ .. शब्दार्थ-बदनीय अर्म के दो भेद हैं-(१) साता वेदनीय और (२) असाता बेदनीय । सातावेदनीय के बहुत से भेद हैं और इसी प्रकार असातावेदनीय के भी"
भाप्य-दर्शनावरण के पश्चात् वेदनीय कर्म का मूल प्रकृतियों में निर्देश किया गया है अतः उसी क्रम से सूत्रकार वेदनीय कर्म को उत्तर प्रकृतियों का निरूपण करते हैं।
सातावदनीय और असातावेदनीय के भेद से वेदनीय प्रकृति दो प्रकार की है। जिस कर्म के उदय से कोई पदार्थ सुख कारक प्रतीत होता है वह साता वेदनीय है और जिस कर्म के उदय से कोई पदार्थ दुःख जनक अनुभव होता है उसे असाता चंदनीय कर्म कहत है । न दोनों के अनेक अनेक भेद सूत्रकार ने बतलाये है इसका कारण यह है कि बदाय के विषय अनेक हैं। जैसे-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द । 'पांच इन्द्रियों के मन विषयों को सुख रूप समझने से सातावेदनीय के पांच भेद
हो जाते हैं। जैसे-१, रूप सांतावेदनीय, २) रस लातावेदनीय (३ गंध सातावेदनीय (४ स्पर्श सातावेदनीय और (५ शब्द सातावदनीय । तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से मनोज स्पर्श सुखप्रद प्रतीत हो वह स्पर्श सातावेदनीय है, जिसके उदय से अनुकूल रस सुखजनक अनुभव हो वह रस-सातावेदनीय है। इसी प्रकार अन्य-लक्षण समझना चाहिए । रूप के पांव भेद, रस के पांच, गंध के दो भेद, स्पर्श के पाठ भेद है और इनके भेद से सातावेदनीय के भी उतने ही भेद हो सकते हैं।
इन्द्रियों के इन्हीं विषयों को दुःख रूप अनुभव करना असातावेदनीय है। अतएव पूर्वोक्त रीति से ही लाता के भी उत्तरोत्तर अनेक भेद किये जा सकते हैं। इन्हीं भेदों को लक्ष्य में लेकर सूत्रमार ने 'सायस्ल उ बहू भेया एमेव असायस्स वि' अर्थात्
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[ २ ]
.. कर्म निरूपण साताक अनेक भेद हैं और इसी प्रकार असाता के भी अनक भेद हैं ऐसा कथन किया है।
सातावेदनीय और असातावेदनीय के लक्षण को सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ज्ञात होगा कि संसार में कोई भी पदार्थ सुखदायी या दुःखदायी नहीं है । राग और द्वेष का नि सत्त पाकर ही जीव किसी पदार्थ को सुख रूप मान लाता है और किसी को दुःख रूप मान लेता है। पदार्थ में सुख-दुःस्त्र देने की शक्ति होती तो जो पदार्थ एक व्यक्ति को सुखदायक होता वह सभी व्यालयों को सुख ही सुख प्रदान करना और एक समय सुख दता वह सदा सुखदायक हा हाता । इसी प्रकार जो वस्तु एक व्यक्ति को, एक समय, दुःखप्रद होती वह सभी व्यक्तियों को सदाकाल दुःख देती। किन्तु जगत् में ऐसा नहीं होता एक पदार्थ एक को साता रूप प्रतीत होता है तो दूसरे को असाता रूप । इतना ही नहीं, एक जीव को जो वस्तु प्राज- स समय सुख-कारक ज्ञात होती है वही दूलर लमय में दुःख का कारण जान पड़ती है। कोई जिह्वालोलुप तीन भूख लगने पर सुसंस्कृत पकवान खाने में अत्यन्त सुख समझता है; पर जब उसकी प्राकण्ठ उदर पूर्त हो जाती है तब बद्दी व्यंजन उसे विष की भांति अप्रिय लगने लगता है । नीम मनुष्य को कटुक लगता हैं पर ऊँट उसी को बड़ प्रेम से भक्षण करता है। इससे यह स्पष्ट है किसी भी वस्तु में सुख-दुःख उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है । यदि ऐसा है तो हमें सुख-दुःख देनेवाला कौन है ? आखिर जब हम सुख-दुःख का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं तत्र उनका कुछ कारण तो होना ही चाहिए । निष्कारण तो किसी की उत्पत्ति होती नहीं है ? फिर सुख-दुःख का कारण क्या है ? इसका समाधान यही है कि राग-रूप मोहनीय कर्म के उदय से रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्दादि में सुख का वेदन-अनुभव होता है और द्वेष मोहनीय के उदय से रूप श्रादि विषय में दुःख रूप बदन होता है । यह वेदन ( अनुभव ) कराना ही वेदनीय कर्म का कार्य हैं । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जिसने राग-द्वेप पर विजय प्राप्त करली है वह इंद्रिय के किसी विषय को न सुख रूप मानता है, न दुःपन्न रूप मानता है। संसार में घटने वाली कोई भी घटना अथवा अनुकूल या प्रतिकूल संयोग उले दुःखी या सुखी नहीं बना सकते । वह तटस्थ भाव से संसार के रंगमंच पर होने वाले विविध अभिनयों को देखता है और उन सब से अपनी आत्मा को भिन्न समझता है । दुःख से छुटकारा पाने और सुखी बनने का एक मात्र यही सच्चा उपाय है कि दुःख को दुःख समझ कर न अपनाया जाय और इन्द्रिय-विषयजन्य सुख न माना जाय । वस्तुतः किसी पदार्थ को दुःखमय समझना ही दुःख है और सुख रूप समझना ही सुख है । यह दोनों समझ भ्रमपूर्ण है, क्योंकि बाह्य पदार्थ सच्चा सुख नहीं दे सकते । इसी लिए वेदनीय कर्य का लक्षण बताते समय यह कहा गया है कि जो सुख दुःख का अनुभव कराता है वह वेदनीय कर्म है-यह नहीं कहा गया कि जो सुख दुःख दे उसे वेदनीय कर्म कहते हैं।
जिन संसारी जीवों ने राग-द्रेप पर विजय नहीं प्राप्त की है, अतएव जो वाहा पदार्थों में ही सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, उन्हें दुःख से बचने का तो अवश्य ही
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द्वितीय अध्याय
[ ६३ ]
प्रयत्न करना चाहिए । दुःख से बचने का उपाय असातावेदनीय कर्म के बंध से बचना हैं । जिन्हें असातावेदनीय का बंध न होगा व दुःखानुभव से बच सकते हैं । श्रतएव जिन कारणों से साता का बंध होता है उनका परित्याग कर खाता के बंध के निमित्त जुटाने चाहिए | सातावन्दनीय के बंध के कारण इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय, डीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को- किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से कष्ट न पहुंचाना, उन्हें क़ुराना नहीं, परिताप न पहुंचाना, अश्रुपात न कराना, लात-घूंसा आदि से न पीटना, अर्थात् उन्हें किसी प्रकार असाता का अनुभव अपने निमित्त से न होने देना । असातावेदनीय कर्म इनसे विपरीत कारणों से होता है अर्थात् किसी भी प्राणी को दुःख देने से, शोक पहुंचाने से, संताप देने से, गने से, श्रुपात कराने से, पीटने प्रादि से श्रसाता का बंध होता है ।
अन्य प्राणियों को दुःख - शोक श्रादि पहुंचाना तो असातावेदनीय के बंध का कारण हैं ही, साथ ही स्वयं दुःख करना, शोक करना, संतप्त होना, भूरना, अश्रुपात करना और अपना सिर और छाती पीटना यादि भी असातावेदनीय के बंध का कारण है | श्रतएव धन-सम्पत्ति, स्वजन यादि का विछोह हो जाने पर शोक करना, संताप करना, रुदन करना ग्रादि असातावेदनीय के बंध का कारण समझकर विवेकीजनों को उसका त्याग कर देना चाहिए । तपस्या आदि के द्वारा जो कष्ट सहन किया जाता है, वह कषाय पूर्वक न होने से अलाता के बंध का कारण नहीं, अपितु निर्जरा का उत्तम उपाय है ।
शरीर में अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होना, मानसिक चिन्ता होना आदि असातावेदनीय के फल हैं और नीरोग शरीर होना, चिन्ताएँ न होना, धन-धान्य श्रादि प्रिय पदार्थों का संयोग मिलना- सांसारिक सुख की सामग्री प्राप्त होना सातावेदनीय कर्म का फल है ।
मूल:- मोहणिजं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं बुत्तं चरणे दुविहं भवे ॥ ८ ॥
छाया:-- मोहनीयमपि द्विविधं, दर्शने चरणे तथा ।
दर्शने त्रिविधमुक्कं चरणं द्विविधं भवेत् ॥ ८ ॥
शब्दार्थ : - मोहनीय कर्म भी दो प्रकार का है - ( १ ) दर्शनमोहनीय और ( २ ) चारित्रमोहनीय || दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का कहा गया है और चारित्रमोहनीय दो अकार का है ।
भाष्य-- वेदनीय कर्म के निरूपण के पश्चात् मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का निर्देश यहां किया गया 1
आत्मा को मोहित करने वाला अर्थात् सत् असत् के विवेक को नष्ट कर देने चाला मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रवल है । संसार को यदि चक्र कहा जाय तो मोहनीय
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कर्म निरुपण
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कर्म वह धुरी है जिसके सहारे से चक्र चलता है। यह कर्म दुहरा घातक है- :- श्रात्मा को सम्यक्त्व भी नहीं होने देता और चारित्र भी नहीं होने देता । इसके सहयोग से ज्ञान भी मिथ्याज्ञान वन जाता है । इस प्रकार मोक्ष के कारण भूत रत्नत्रय का विद्यातक मोहनीय कर्म ही हैं । यह कर्म दसवे गुणस्थान तक रहता है और ग्यारहवें गुण स्थान पर भी लाक्रमण करके जीव को नीचे गिराते- गिराते प्रथम गुणस्थान में भी लाकर पटक देता है । संसार के समस्त दुःख मोहनीय कर्म की ही बदौलन जीव को भुगतने पड़ते हैं । श्रतएव सुखाभिलाषी भव्य प्राणियों को मोहनीय कर्मके विनाश का सम्पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए । सोहनीय कर्म का यांशिक नाश किये बिना श्रात्मा श्राध्यात्मिक प्रगति की और एक भी कदम नहीं बढ़ा सकता । क्योंकि दर्शनमोहनीय के उदद्य की अवस्था में प्रथम गुणस्थान से आगे जीव नहीं बढ़ता है ।
सोही जीव क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत होकर नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं । उन्हें अपने स्वरूप का भी भान नहीं रहता कि वस्तुतः मैं कौन हूँ ? मेरा असली स्वभाव क्या है ? मैं नाशवान् हूँ या अविनश्वर हूँ ? मोही जीव शरीर को ही श्रात्मा समझ लेता है और फिर शरीर का पोषण करने के लिए इन्द्रियों का गुलाम चन जाता है । वह संसार के पर पदार्थों में ममत्व भाव धारण करता है । यह महल मेरा है, यह तेरा है, यह राज्य मेरा है, यह धन-धान्य मेरा है, यह दासी- दास मेरे हैं, यह सोना-चांदी मेरा है, इस प्रकार मेरे तेरे के पाश में फंसकर पागल पुरुष की तरह नाना चेष्टाएँ करता हुआ अनन्त काल संसार में व्यतीत करता है ।
. बड़े-बढ़े ज्ञानवान् पुरुष भी मोह के जाल में फँस जाते हैं । संसार में जो अनेक एकान्तवाद प्रचलित हैं, यह सब मोह की ही विडम्बना है । मोह जीव के विवेक को मिट्टी में मिला देता है। कहा भी है
पाषाणस्तरडेष्वपि रत्नबुद्धिः, कान्तेति घीः शोणितमांसपिण्डे | पञ्चात्मके वर्ष्मणि चात्मभावो, जयत्यसौ कांचनमोहलीला ॥
प्रभाव
अर्थात् मोह की लीला संसार में सर्वत्र विजयी हो रही है । उसी का यह है कि पत्थर के टुकड़ों को लोग रत्त समझते हैं ! ( रत्न वास्तव में पत्थर के ही टुकड़े हैं । उनका जो अधिक मूल्य समझा जाता है सो केवल मानव समाज की कल्पना का ही सूल्य हैं | अर्थशास्त्र की दृष्टि से उनका वास्तविक मूल्य एक रोटी के टुकड़े बराबर भी नहीं हैं ) मोह के प्रभाव से ही लोग रक्त और मांस के लोथ को ( पिंडको ) प्रिया मानते हैं और पंचभूतमय शरीर को श्रात्मा समझ बैठते हैं !!
ऐसी अवस्था में मोह को जीतने वाले महापुरुष धन्य हैं ! वे अत्यन्त सत्वशाली हैं, शूरवीर हैं । उनका अनुकरण ही कल्याण का कारण है । जिन्होंने राग-द्वेष के पाश को छेद डाला है, मोह का समूल उन्मूलन कर दिया है श्रतएव जो सम्यकूदर्शन और सम्यक्चारित्र से सुशोभित हैं वे पुण्य - पुरुष चन्दनीय हैं। उन्हें 'अर्हन् का प्रतिष्ठित पद प्राप्त होता है। सच्चे हृदय से अन् की भक्ति करने से भव्य जीव स्वयं अन् पद प्राप्त करता है | किसी लक्त ने बहुत सुन्दर कहा है
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द्वितीय अध्याय मोहध्वान्तापनेकदोपजन मे भलितुं दीपका
. वुत्कीर्णाविव कीलिताविव हृदि स्पृताविवेन्द्रार्चितौ। श्राश्लिष्टाविक विस्वित्ताविव सदा पादौ निखाताविव,
स्थेयातां लिखिता विवाथदहनौ बद्धाविवाहस्तव ॥ अर्थात्:- हे अर्हन्तदेव ! अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाले सोह रूपी अंधकार को दूर करने के लिए दीपक के लमान, इन्द्र-बंध, पापों को भस्म करने वाले आपके दोनों चरण मेरे हृदय में इस प्रकार स्थिर हो कर विद्यमान रहें, मानों वे हृदय में ही अंकित होगये हो, कील दिये गये हो, सी दिये गये हों, चस्पा होगये हो, प्रतिनिस्चित हो रहे हो, जड़ दिये गये हो, लिड दिये गये हो अथवा बंध गये हों।
वीतराग सगवान् की अलि ही मोह को जीतने का कार्यकारी उपाय है। उसके स्वरूप को भलीभांति समझकर उसका निवारण करने के लिए प्रयत्न करना ही मानव-जीवन की सर्वश्रेष्ठ लफलता है।
मोहनीय कर्मक्षेप्रकार का है-(१) दर्शन मोहनीय और (२) चारित्रमोदनश। दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं और बारिन मोहनीय के दो भेद हैं । इन अदों के नाम स्वयं सूत्रकार ने अगली गाथाओं में कहे हैं। यहां सिर्फ यह बता देना अावश्यक है कि दर्शनमोहीय के तीन भेदों का कथन उदय और सत्ता की अपेक्षा से सलमाना चालिए । बन्ध सीसपेक्षा एक ही भेद है। तात्पर्य यह है कि बंध के समग सामान्य रूप से एक दर्शनमोह ही बंधता है। बंध होने के पश्चात् शुद्ध, अर्ध-शुद्ध और श्राद्ध दलिकों की अपेक्षा ले वह तीन रूप में परिणत हो जाता है । दर्शनमोहर्नाय के तीन भेदों का अलग-अलग बंध नहीं होता है। जिल कर्म के उदय ले मिथ्या छान हा. सर्वश-काशित वस्तु के स्वरूप में रुचि और प्रतीति न हो, जिसनी दृष्टि मलीन हो
और इस कारण जो हित-अहित का ठीक-ठीक विचार करने में प्रासमर्थ हो, अथवा जिसके कारण प्रगाढ़ श्रद्धान न हो वह दर्शनमोहनीय कर्म कहलाता है। जो मोहनीय चारित्र का एक देश या पूर्णरूप से प्राचरण न करने दे वह चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है। मूलः-सम्मत्तं चैव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य ।
श्याोतिषिण पयडीयो, मोहणिजसस दंसणे ॥६॥ छाया:- सम्यक्रवं चैव मिथ्यात्वं, सम्यमिथ्यात्वमेव च ।
एताभित्र प्रकृतयः, मोहनीयस्य दर्शने ॥६॥ शव्दार्थः-मोहनीय कर्म की दर्शन प्रकृति में- यर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियां यह हैं - (१) सम्यक्त्वमोहनीय (२) मिथ्यात्वमोहनीय और (३) मिश्र या सम्यमिथ्यारवमाहनीय ।
भाष्यः-माहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के भेद बतलाने के बाद यहां
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कर्म निरूपण दर्शन मोह के भेदों का नामोल्लेख किया गया है। दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं
(१) सम्यक्त्यमोहनीय-जिसके उदय से सम्यक्त्व गुण का घात तो नहीं होता किन्तु उसमें चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते हैं उसे सस्यस्त्वमोहनीय कहते हैं । सम्यक्त्वमोहनीय के उदय से सम्यक्त्व प्रगाढ़ और निरल नहीं हो पाता।
(२) मिथ्यात्वमोहनीय-जिसके उदय से जीव की श्रद्धा विपर्शल हो जाती है। हित में अहित और अहित में हित का वोध होने लगता है, वह मिथ्यात्वमोहनीय कर्म है।
३) सम्यमिथ्यात्वमोहनीय-जिस कर्म के उदय से न तो अतत्त्वश्रद्धान होता है और न तत्त्वश्रद्धान ही होता है, वरन् मिश्र परिणाम होता है उसे समयमिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं। जैसे दही और गुड़ मिलाकर खाने से न खट्टा ही स्वाद पाता है और न मीठा ही, किन्तु एक मिन ही प्रकार का स्वाद अाता है उसी प्रकार जात्यन्तर रूप परिणाम के कारणभूत कर्म को मिश्रमोहनीय कहते हैं ।
मिथ्यात्व के दस भेद संक्षेप में इस प्रकार हैं:
(१) पाप कर्मों से सर्वथा विरत, कंचन-कामिनी के त्यागी, सच्चे साधु को साधु न समझना।
(२) जो श्रारंभ-परिग्रह में श्रासक हैं, इन्द्रियों के दाल हैं, अपनी पूजाप्रतिष्ठा के लोलुप हैं, हिंसा भादि गापों का प्राचरण करते हैं, ऐसे साधु वेषधारियों को साधु समझना।
(३) उत्तमा क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, शौच, लत्य, संयम, तप, त्याग, अर्किचिनता और ब्रह्मचर्य, इन धर्मो को अधर्म समझना ।
(४) हिंसा, असत्य, चोरी, जुआ खेलना, मदिरापान करना, श्रादि पाप कार्यों को धर्म रूप समझना।
(५) शरीर, मन और इन्द्रियों को-जो कि अनात्मरूप हैं-श्रात्सा समझ लेना, जैसे नास्तिक लोग समझते हैं।
(६ जीव को अर्जाच समभना, जैले गाय, घोड़ा, सरा, मछली, सुआर श्रादि जीवों में श्रात्मा नहीं हैं ऐसा मानना, जैसे ईसाई मन बाले मानते हैं । बनस्पति जल और पृथ्वी श्रादि में जीव न मानना भी इसी मिथ्यात्व ने अन्तर्गत है।
(७) मोक्ष के मार्ग को संसार का मार्ग समभाना, अर्थात् रसत्रय को संसार भ्रमण का कारण समझना । पुण्य को एकान्त रूप से संसार का कारण समझना इसी मिथ्यात्व में सम्मिलित हैं। .
(८) संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझाना, जैसे जल में समाधि लेकर अात्मघात करना आदि।
(६) जिन महापुरषों ने विशिष्ट संकर और निशा के द्वारा सारा करा
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द्वितीय अध्याय समूल विनाश कर दिया है जो कर्म रहित हो गये हैं उन्हें कर्म सहित समझना । जैसे मुक्त जीवों को सरज्ञ न मानना, ईश्वर को अवतार ले कर असुरों का घातक मानना श्रादि। . .. .. .
.. (१०) कर्म सहित पुरुषों को निष्कर्म मानना, जैसे राग-द्वेष के वश होकर शत्रुओं का संहार करने वाले को मुहरू परमात्मा समझना । ... वस्तु के स्वरूप को विपरीत समझना, वीतराग की वाणी में सन्दह करना, अकेले ज्ञान को या आली क्रिया को मोक्ष का कारण मानना, खरे-खोटे का विवेक न करके सब देवों को समान समझना, अनेक धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादक स्याद्वाद सिद्धान्त को अस्वीकार कर एकान्तवाद अंगीकार करना, इत्यादि सब मिथ्यात्व इन्हीं भेदों में समाविष्ट हो ज ते हैं । विवेकी जनों को यथोचित अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। मोह के असंख्य रूप हैं, उन सब का विस्तृत विवेचन नहीं किया जा सकता । आभिअहिक, अनाभिग्रहिक अनाभोग आदि मिथ्यात्व के भेद भी इन्हीं में अन्तर्गत हैं।
सम्यक्त्व मोहनीय कर्म आंखों पर लगे हुए चश्मे के समान है। चश्मा यद्यपि आंखों का आच्छादक हैं फिर भी बह देखने में रुकावट नहीं डालता उसी प्रकार सम्यक्त्य मोहनीय, मोहनीय, का भेद होने पर भी सम्यक्त्व-यथार्थ श्रद्धा में बाधा . उपस्थित नहीं करता है। अतएव इस प्रकृति का सद्भाव होने पर भी चौथा गुणस्थान-अविरत सम्यग्दृष्टि अवस्था से लेकर अप्रमत्त संयत अवस्था तक होती है। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जीव पहले.गुणस्थान में ही रहता है और मिश्र प्रकृति के उदय से तीसरे गुणस्थान में होता है। मूल-चरित्तमोहणं कम्म, दविहं तु विश्राहियं। .
कसायमोहणिज तु, नोकषायं तहेव य ।।१०।। छायाः-चारित्रमोहनं कर्म, द्विविध तु व्याहृतम् ।
कपायमोहनीयं तु. नोकपायं तथैव च ॥ १० ॥ . शब्दार्थः-चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है-(१) कपायमोहनीय और (२) नो कपायमोहनीय।
___ भाग्य-दर्शनमोह के भेदों का स्वरूप निरूपण करने के पश्चातू चारित्रमोहनीय कर्म की उत्तर प्ररूतियां यहां बताई गई हैं।
। जो कर्म चारित्र का विनाश करता है-सम्यक् चारित्र नहीं होने देता उसे चारित्र मोहनीय कर्म कहते हैं। उसके दो भेद हैं-(१) कषाय चारित्र मोहनीय और (२) नो कषाय चारित्र मोहनीय ।
- कार अर्थात् जन्म मरण रूप संसार की जिससे. श्राय अर्थात् प्राप्ति होती है उसे कषाय कहते हैं । काय के सोलह भेद जिनागम मै निरूपण किये गये हैं। वे इस प्रकार है-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण कोध मान,
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[ ८]
कर्म निरूपण माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरम क्रोध, मान, माया, लोभ, और संज्वलन : क्रोध, मान, .. माया, लोभ ।
जिस कषाय के उदय से जीव अन्नत काल तक भर-भ्रमण करता है उसे अन्नतानुबंधी कप,य कहते हैं। जिन कषाय के प्रभाव से जीव देशविरति अर्थात् थोड़ा सा भी त्याग-प्रत्याख्यान रूप चारित्र नहीं पाल सकता उसे अप्रत्याख्यानावरण कपाय कहते हैं। जिसके उदय से सर्व-विरति अर्थात् महाव्रत रूप पूर्ण संयम रुका रहता है वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो कपाय मुनियों को भी किंचित् संतप्त करता है और जिसके उदय से यथाख्यात चारित्र नहीं हो पाता वह संज्वलन कपाय कहलाता है । यह कषाय महानत रूप सर्व विरति में बाधक नहीं होता है।
अनन्तानुबंधी कपाय की वासना जीवन-पर्यन्त वनी रहती है और इसके उदय से नरकगति के योग्य कर्म-बंध होता है । अप्रत्याख्यान.वरण कषाय के संस्कार एक वर्ष तक बने रहते हैं और इसके उदय से तिर्यञ्च गति के योग्य कर्म का बंध होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के संस्कार चार महीने तल रहते हैं और उसके उदय से मनुष्य गति के योग्य कर्म का बंध होता है। संज्वलन कषाय एक पक्ष तक रहता है और इसके उदय से देव-गति के योग्य कर्म का बंध होता है । कषायों की यह स्थिति बाहुल्य की अपेक्षा समझना चाहिए । इसके कुछ अपवाद भी होते हैं।
प्रसंगवश यहां यह बता देना श्रावश्यक है कि श्रावश्यक में प्रतिक्रमण के पांच भेद किये गये हैं- देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक चातुर्मासिक और सांवत्सरिक । इन भेदों का संबंथ कषायों की स्थिति के साथ है। श्रावक अपने व्यवहार में क्रोध, मान, मायां और लोभ के सेवन करने से प्रायः बच नहीं पाते । इन पाप कार्यों से मलीन हुए श्रात्म परिणामों को निर्मल बनाने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। यदि प्रतिदिन प्रातः और सायंकाल पाप के संस्कारों को हटा दिया जाय तो उत्तम है। यह संभव न हो तो पाक्षिक, प्रतिक्रमण के द्वारा उन्हें अवश्य हटा देना चाहिए, अन्यथा कपाय के वह संस्कार संज्वलन कोटि के न हो कर प्रत्याख्यानावरण काय के समझे जाएँगे । यदि चार मास में भी उनका निवारण न हुश्रा अर्थात् चौमासी प्रतिक्रमण न किया तो वे संस्कार अप्रत्याख्यानावरण के होंगे और उनसे तिर्यच गति का बंध होगा और अणुव्रतों का भी वे घात कर देंगे । अन्त में सांवत्सरिक प्रतिक्रमणं करके तो उन कपायों को दूर करना ही चाहिए, अन्यथा वे अंनन्तानुबंधी की कोटि के होकर सम्यक्त्व का भी घात करने वाले होंगे और उनसे नरक गति का चंध होगा। इसी अभिप्राय ले प्रतिक्रमण के इन भेदों का विधान किया है. । अतएव संसार-भीर अध्यात्मनिष्ट पुरुषों को प्रतिक्रमण करना प्रावश्यक है, जिससे कषाय' के संस्कार नष्ट हो सके।
सुगमता से समझने के लिए चार प्रकार के क्रोक, मान, माया और लोभ का स्वरूप दृशान्त सहित इस प्रकार है
(१) संज्वलन क्रोध-पानी में स्त्रींची हुई लकीर जैसे शीघ्र ही निट जाती है
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. द्वितीय अध्याय
[ ] उसी प्रकार जो क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जावे वह संज्वलन क्रोध है।
(२) प्रत्याख्यानावरण क्रोध-धूल में खींची हुई लकीर कुछ समय में हवा से मिटजाती है उसी प्रकार जो क्रोध थोड़े से उपाय से शान्त हो जायं वह प्रत्याख्याना. वरण क्रोध कहलाता है।
(३) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-पानी सूखने पर, मिट्टी फटने से तालाब आदि में जो दरार पड़जाती है वह आगे वर्षा होने पर मिटती है, उसी प्रकार जो क्रोध विशेष उपायों के श्रवलंबन से शान्त हो वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध है।
(४) अनन्तानुबंधी क्रोध-पर्वत के फटने से जो दरार होती है उसका मिटना दुःशक्य है इसी प्रकार जो क्रोध किसी भी उपाय से शान्त न हो उसे अनन्तानुबंधी क्रोध कहते हैं।
(५ सज्वलन मान-जैसे वेत अनायास ही न न जाता है उसी प्रकार जो मान अनायास ही मिट जाता है वह संज्वलन मान है।
(६) प्रत्याख्यानावरण मान-सूखी हुई लकड़ी जैसे कुछ समय में नमती है उसी प्रकार जो मान जरा कठिनाई से दूर हो वह प्रत्याख्यानावरण मान है। .
(७) अप्रत्याख्यानावरण मान-हड़ी को नमाने के लिए अत्यन्त परिश्रम करना होता है उसी प्रकार जो मान बड़ी कठिनाई से दूर होता है वह अप्रत्याख्यानावरण मान है।
() अनन्तानुबन्धी मान-पत्थर का स्तम्भ लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं मुड़ता, इसी प्रकार जो मान जीवन-पर्यन्त कभी दूर नहीं हो सकता वह अनन्तानुबंधी मान कहलाता है।
(E) संज्वलन माया-जिस माया अर्थात वक्रता को बांस के छिलके के समान अनायास ही सरलता-सीधेपन में परिणत किया जा सके उसे संज्वलन माया कहते हैं।
(१०) अप्रत्याख्यानावरण माया-चलते हुए बैल के पेशाब करने की लकीर रेदी होती है और वह टेढ़ापन धूलि वगैरह के गिरने पर नहीं मालूम होता उसी प्रकार जो कुटिलता कुछ कठिनाई से मिटे वह प्रत्याख्यानावरण माया है।
(११) प्रत्याख्यानावरण माया-मेढ़े के सींग का टेढ़ापन दूर करना अत्यन्त श्रमसाध्य है उसी प्रकार जो माया अत्यन्त प्रयास करने से हटे उसे अप्रत्याख्यानाचरण माया कहते हैं।
(१२) अनन्तानुबंधी माया-जैसे वांस की कटिन जड़ का टेढ़ापन दूर नहीं किया जा सकता उसी प्रकार जो कुटिलता श्राजीवन दूर न हो सके वह अनन्तानु. बंधी माया है। . . . . .
— (१३) संज्वलन लोभ-जैसे हल्दी का रंग शीन ही छूट जाता है इसी प्रकार । जो लोभ शीघ ही मिट जाय वह संज्वलन लोभ है।
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कर्म निरूपण ... (१४) प्रत्याख्यानावरण. लोम-जैले काजल का रंग कुछ कठिनाई से छूटना हैं उसी प्रकार जो लोभ कुछ परिश्रम से छूटे वह प्रत्याख्यानावरण लोभ है।
(१५) अप्रत्याख्यानावरण लोभ ---गाड़ी के पहियों में लगाये जाने वाले .. कीचड़-आँगन के लमान जो लोभ बड़ी मुश्किल से छूटता है वह अप्रत्याख्यानावरण लोभ कहलाता है।
(१६) अनन्तानुबंधी लोभ-किरमिची का रंग जैसे कपड़ा फट जाने पर भी नहीं छूटता उसी प्रकार जो लोभ जीवन के अन्त तक भी न छूटे वह अन्तानुबंधी लोभ है।
नो-ईषत् अर्थात् हल्का कपाय नोकषाय कहलाता है। वह नोकपाय कपाय का साथी है और कषायों को उत्तेजित करता है-भड़काता है अतएव इसकी नोकपाय संज्ञा है। नोकपाय के नौ भेद होते हैं-(१) हास्य (२) रति (३) अरति (४) शोक (५) भय (६) जुगुप्ता (७) स्त्री वेद (5) पुरुप वेद (६) नपुंसक वेद ।।
जिसके उदय से निष्कारण या सकारण हँसी आ उसे दास्य नोकपाय कर्म कहते हैं । जिसके उदय से धन, पुत्र, देश, राज्य आदि में अनुराग हो उसे रति नो . कपाय कर्म कहा गया है । जिसके उदय से पूर्वोक्त पदार्थों में अप्रीति हो उसे अरति लोकपाय कर्म कहते हैं । जिसके उदय से इष्ट के वियोग होने पर क्लेश हो वह शोक नो कपाव कर्म है । जिसके उदय से चित्त में उद्वेग हो वह भय नो कपाय कर्म है। जिसके उदय से ग्लानि उत्पन्न होती है वह जुगुप्ता नो कपाय कर्म कहलाता है। जिलके उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो वह स्त्रीवेद, जिसके उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो वह पुरुषवेद और जिसका उदय होने पर दोनों के साथ रमण करने की अभिलापा हो वह नपुंसक वेद कर्म कहलाता है।
___ इस प्रकार तीन भेद दर्शन मोहनीय के और पच्चीस भेद चारित्र मोहनीय के (सोलह भेद कपाय चारित्रमोहके और नौ नोकपाय चारित्र मोहके) मिलकर कुल अट्ठाईस भेद मोहनीय कर्म के होते हैं। मूलः-सोलसविहभेएणं कम्मं तु कसायज ।
सत्तविहं नवविहं वा, कम्मं च नोकसायजं ॥ ११ ॥ - छाया:-पोडशविधभेदेन, कर्म नु कपायजम् ।
___सप्तविधं नवविध वा, कर्म च नोकपायजम् ॥11॥ शब्दार्थ:-कपाय रूप चरित्रमोहनीय कर्म सोलह प्रकार का है और नोकपाय रूप चारित्रमोहनीय कर्म सात प्रकार या नौ प्रकार का है ।
__ भाप्यः- दोनों प्रकार के मोहनीय के भेदों का विवेचन सुगमता के उद्देश्य से ऊपर किया जा चुका है। अब उनके विवेचन की आवश्यकता नहीं है। विशेष इतना समझना चाहिए कि नोकपाय चारित्र मोहनीय के नौ भेदों के बजाय सात भेद भी है।
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द्वितीय अध्याय तीनों वेदों की पृथक गणना करने से नौ भेद होते हैं और सामान्य रूप से वेद को एक माना जाय तो सात भेद होते हैं। दोनों प्रकार की संख्या में तात्त्विक भेद बिलकुल नहीं है, यह तो विचक्षा का साधारण भेद हैं।
केवली भगवान का, बीतराग-प्ररूपित शास्त्र का, चतुर्विध संघ का तथा देवों का अवर्णबाद करने से दर्शनमोहनीय कर्म का बंध होता है। तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीन माया, और तीव्र लोभ करने से चारित्र मोहनीय कर्म का बंध होता हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्म का विवेचन यहां समाप्त होता है। मूलः-नेरइयतिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव य ।
देवाउयं चउत्थं तु, अाउकम्मं चगविहं ॥ १२ ॥ छाया:-नैरयिकतिर्यगायुः, मनुष्यायुस्तथैव च ।
देवायुश्चतुर्थं तु, प्रायुः कर्म चतुर्विधम् ।। १२ ।। शव्दार्थ:-आयु कर्म चार प्रकार का है--(१) नरकायु (२) तिर्यञ्चायु (३) मनुष्यायु और (४) देवायु।।
___ भाष्यः --मोहनीय कर्म के निरूपण के पश्चात् क्रमप्राप्त आयु कर्म का विवेचन यहां किया गया है ! नियत समय तक जीव को शरीर में रोके रखने वाला कर्म आयु कर्म कहलाता है। उसकी चार उत्तर प्रकृतियां हैं-नरक आयुष्य, तिर्यञ्च-आयुष्य, मनुष्य आयुष्य और देव-श्रायुष्य । जो कर्म नारक जीवों को नारकी-शरीर में रोक रखता है-मरने की इच्छा होने पर भी नहीं मरने देतर-चह नरकायुष्य कर्म कहलाता है । इसी प्रकार जो कर्म तिर्यश्च के शरीर में जीव को बनाये रखता है वह तिर्यञ्च-श्रायु कर्म कहलाता है । मनुष्य और देव के शरीर में जीव को रोक रखने वाला मनुष्य श्रायु करें और देव श्रायु कर्म कहलाता है। श्रायु कर्म का क्षय होने पर कोई मनुष्य या देवता जीवित रहना चाहे तो भी यह जीवित नहीं रह सकता । इस प्रकार श्रायु कर्म के उदय से जीव जीता है और उसके क्षय से मर जाता है।
आयु दो प्रकार की होती है-अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । जो श्रायु, अग्नि, जल, विन और शस्त्र आदि से कम हो जाती है अर्थात् चिरकाल में भोगने योग्य आयु कर्म के दलिक शीघ्र भोग लिये जाते हैं, वह आशु अपवर्त्तनीय कहलाती है । इस आयु के समाप्त होने पर जो मरण होता है वह अकालमरस्य कहलाता है। अकाल-मरण कहने का तात्पर्य यही है कि जो आयु कर्म पच्चीस-पचास वर्ष में धीरे-धीरे मोगा जाना था, वह विप आदि का निमित्त पाकर एक अन्तर्मुह में ही भोग लेना पढ़ता है । जैसे डाल पर लगा हुआ फल दस-पन्द्रह दिन या एक माल में पकता है और उसी को तोड़ कर यदि अनाज शादि में दवा दिया जाय तो एकदो दिन में ही पकजाता है, उसी प्रकार वायु कर्म का भी वाहा निमित्त पाकर शीय परिपाक हो जाता है।
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... कर्म निरूपल । जो श्रायु किसी भी कारण से कम नहीं होती अर्थात् पूर्व जन्म में जितने । समय की बँधी है उतने ही समय में भोगी जाती है उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। दवा, नारांकयों, चरम शरीरियों ( उसी भव से मोक्ष जाने वालो । चक्रवती, वामु देव आदि उत्तम पुरुषों और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य-तिर्यञ्चों की श्रायु अनपवर्तनीय होती है। इनकी आयु को विष, शस्त्र अग्नि, जल ग्रादि कोई भी कारण न्यून नहीं कर सकता।
__यहां प्रारंभ करना, महा परिग्रह रखना, अत्यन्त लालसा होना, पंचेन्द्रिय जीवा का वध करना, मांस भक्षण करना आदि घोर कार्य करने से नरक अायु का बंध होता हैं। छल-कपट करना, कपट को छिपाने के लिए फिर कपट करना, असत्य भापण करके कपट करना, तोलने-नापने की वस्तुओं को कम-अधिक दना-लेना, इत्यादि कार्य करने स तियेच आयु बंधती है । निष्कपट व्यवहार करना; नम्रता का भाव रखना, अल्प प्रारंभ करना, अल्प परिग्रह रखना, ईर्श भाव न रखना, सब जीवा घर दयाभाव रखना, इत्यादि कारणों से मनुष्य प्रायु का बंध होता है। सराग संयम, श्रावक धर्म का प्राचरण, अज्ञानयुक्त तपश्चरण, विना इच्छा के बलात्कार पूर्वक भूख, प्यास, सर्दी-गर्मी प्रादि का कष्ट सहन करना, इत्यादि कारणों से देव-आयु कर्म का बंध होता है।
अन्य कर्मों से आयु कर्म के बंध में एक खास ध्यान देने योग्य विशेषता है। वह यह है कि सात कमों का प्रतिक्षण-निरन्तर बंध होता रहता है किन्तु आयु कम । झा बंध प्रतिक्षण नहीं होता। वर्तमान प्रायु के जव छह महीने शेष रहते हैं तब । देव और नारकी जीवों को नवीन श्रायु का बंध होता है। मनुष्य और तिर्यञ्च वत्तेमान प्रायु का तीसरा भाग शेष रहने पर चारों श्रायुश्री में स किसी एक का बंध करते हैं । भोगभूमि के जीव छह माह शेष रहने पर देव-श्रायु का बंध करते हैं ।
एक चार जो श्रायु वन्ध जाती है वह फिर भोगे बिना छूट नहीं सकती। किन्तु एक जीवन में प्राट अपकर्षण काल होते हैं। अर्थात् श्राउ वार ऐसा समय प्राता हैं जव तीसरा भाग शेप रहने घर आयु बंध होता है। पहली बार तीसरा भाग शेष रहने पर अगर प्रायु का बंध हो गया तो उस तीसरे भाग का तीसरा भाग अवशिष्ट रहने पर फिर उसी श्रायु का बंध होता है किन्तु परिणामों के अनुसार स्थिति कम या अधिक या ज्या की त्या हो सकती हैं। उसके बाद तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर फिर इसी प्रकार प्रायु में न्यूनता-अधिकता श्रादि संभव है । इसी प्रकार श्राट त्रिभाग होते हैं।
हमारी वर्तमान श्रायु कितनी है ? उसके दो भाग कब व्यतीत होंगे और तीसरा भाग कर शेफ रहेगा? यह छदमस्थ जीव नहीं जान पाते । इसलिए उन्हें श्राच-बंध का समय भी मात नहीं हो सकता। ऐसी अवस्था में प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि वह अपने परिणामों की शुद्धि के लिए सदा प्रयत्नशील रहे और अन्तः करण को किसी भी क्षण मलिन न होने दे । संभव है जिस क्षण हृदय में पाप.का.
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द्वितीय अध्याय संचार हो उसी समय श्रायु का बंध हो जाय !
दो भांग बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर श्रायु का बंध होने की और लक्ष्य रख कर ही संभवतः दो-दो तिधियों के पश्चात् एक-एक तिथि को पर्व-तिथि के रूप में मनाने की व्यवस्था की गई है। जो भी हो, निरन्तर अप्रमत रहकर प्रान्तरिक शुद्धता के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता तो बनी ही रहती है। अतएव भव्य जीव, जो परभव में सुख के अभिलाषी हैं, उन्हें एक क्षण के लिए भी प्रमाद में नहीं एड़ना चाहिए। सूल:-नामकम्मं तु दुविहं, सुहं असुहं च प्राहियं ।
सुहस्त उ बहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥ १३ ॥ छाया:-नाम कर्म तु द्विविध, शुभम शुभं चाहृतम् ।
शुभस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवाशुभस्याऽपि ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-नाम कर्म के दो भेद हैं-(१) शुभ नाम कर्म और (२)अशुभ नाम कर्म शुभ नाम कर्म के बहुत से भेद हैं और इसी प्रकार अशुभ नाम कर्म के भी बहुत से भेद
है
भाष्यः- -नाम कर्म की प्रकृति चित्रकार के समान है । चित्रकार जैसे हाथी, चोड़ा, गाय, भैंस, मनुष्य प्रादि के नाना श्राकार अंकित करता है उसी प्रकार नाम कर्म भी-नाना प्रकार के मनुष्य, देव, पशु पक्षी आदि-आदि की रचना करता है। नाम कर्म के भेद कई प्रकार से बताये गये हैं। किसी अपेक्षा ले ४२ भेद, किसी अपेक्षा से ६७ भेद और किसी अपेक्षा से ६३ या १०३ खेद भी कहे गये हैं । संक्षेप की. अपेक्षा दो भेद भी होते हैं, जैसा कि यहां सूत्रकार ने प्रतिपादन किया है।
नास कर्म के मूल दो भेद हैं--शुभ अर्थात प्रशस्त और अशुभ अर्थात् प्रतशस्त । शुभ नाम कर्म के अनेक भेद हैं और अशुभ के भी अनेक भेद हैं । यहां वयालीस भेदों का उल्लेख किया जाता है-- १) गति नास कर्म ,२) जाति नाम कर्म (३) शरीर नामकर्म (४) अंगोपांग नामकर्म १) बंधन नास (६ संघात वास (७) संहनन्द नाम ८, संस्थान, नाम (ह) वर्ण नाम (१०) गंध नाम (११) रस नाम (१२) स्पर्श नाम (१३) श्रानुपूर्वी नास (१४) विहायोगति नाम (१५) पराघात नाम (१६) उच्छास नाम (१७) प्रातप नाम (१८) उद्योतनाम (१६) अगुरु लघु नाम (२०) तीर्थकर नाम (२१) निर्माण नाम (२२) उपघातं नाम (२३) त्रस नाम (२४) स्थावर नाम (२५) बादर नाम (२६) सूक्ष्म नाम (२७) पर्याप्त नाम (२८) अपर्याप्त नास (२६) प्रत्येक नाम (३०) साधारण नाम (३१) स्थिर नाम (३२) अस्थिर नाम (३३) शुभ नाम (३४) अशुभ नाम (३५) सुभगं नाम (६६) दुर्भग नाम (३७) सुस्वर नाम (३८) दुःस्वर नाम (३६) आदेय नाम (४०) अनादेय नाम (४१) बंशः कीर्ति नाम (४२) अयशः कीर्ति नाम । - इन बयालीस में उत्तर भेदों के भी अनेक उत्तरोत्तर भेद हैं। जैसे गति के चार
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[ १०४ ]
कर्म निरूपण भेद, जाति के पांच भेद, शरीर के पांच भेद, अंगोपांग के तीन भेद, बंधन के पांच भद. संघात के पांच भेद, संहनन के छह भेद, संस्थान के छह भेद, वर्ण के पांच भेद, गंध के दो भेद. रस के पांच भेद, स्पर्श के आठ अद, आनुपूर्वी के चार भेद विहायोगति के दो भेद । इस प्रकार इनकी संख्या कुल पैंसठ है । इनमें पराघात श्रादि आगे की अहाईस प्रकृतियां सम्मिलित करने से नाम कर्म की तेरानवे प्रकृतियां हो जाती हैं । यह तेरानवें भेद सत्ता की अपेक्षा जानने चाहिए।
प्रारंभ की चौदह प्रकृतियां अनेक भेद रूप होने के कारण पिंडकृतियां कहलाती हैं। उनके भेदों की संख्या अभी बतलाई गई है। भेदों के नाम इस प्रकार हैं:
(१) गति नाम कर्म-जिस नाम कर्म के उदय से जीव देव, मनुष्य, तिर्थञ्च और नारक अवस्था प्राप्त करे वह गति नाम कर्म । उसके यही देवादि के भेद से - चार भेद हैं।
(२) जाति नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय,द्वन्द्रिय,त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय या पंचेन्द्रिय कहलावे, वह जाति नाम कर्म है। यही इसके भेद हैं।
(३) शरीर नाम कर्म-जिसके उदय से जीव को शरीर की प्राप्ति हो । इसके । पांच भेद हैं-औदारिक शरीर नाम कर्म, वैक्रिय शरीर नाम कर्म, आहारक शरीर नाम कर्म, तेजस शरीर नाम कर्म और कार्मरण शरीर नाम कर्म । . .
(४) अंगोपांग नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से पुद्गल, अंगो और उपांगों के रूप में परिणत हों। इसके तीन भेद हैं-ौदारिक अंगोपांग नाम (२) वैक्रिय अंगोपांग नाम (३) श्राहारक- अंगोपांग नाम।
(५) बंधन नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से पहले ग्रहण किये हुए शरीरघुदगलों के साथ वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले पुदगलों का संबंध हो । इसके पांच भेद हैं-यांच शरीरों के नाम के ही अनुसार पांच भेद ।
(६) संघात नाम सर्म-जिसके उदय से शरीर के पुदगल व्यवस्थित रूप से स्थापित हो जावें । शरीर के भेदों के अनुसार ही संघात नामके भी पांच भेद होते हैं ।
७) संहनन नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में हाड़ों का परस्पर में जोड़ होता है। इसके छह भेद हैं. वज्र-पभनाराच संहनन. ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलिक संहनन और से बात संहनन ।
(E) संस्थान नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर का कोई प्राकार बने यह संस्थान नाम कर्म हैं । इसके छह भेद है--समचतुरत्न संस्थान ( पालथी मार कर बैठने से जिस शरीर के चारों कोने समान हों उस शरीर का आकार), न्यग्रोध परिमंडल संस्थान ! ऊपर के अवयव स्थूल और नीचे के अवयव अत्यन्त हीन-बढ़ के वृक्ष के समान शरीर का प्राकार ) लादिसंस्थान ( न्यग्रोध परिमंडल से विपरीत प्राकार) कुब्जक संस्थान (कुबड़ा श्राकार ) वामन संस्थान ( बौना श्राकार ) हुंडक संस्थान (बेढंगा शरीर का बाजार ) यह साकार जिल कर्मक उच्य से होते हैं उस
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द्वितीय अध्याय ,
। १०५ ] वही नाम कहते हैं -जैसे समचतुरस्त्रसंस्थान नाम कर्म आदि आदि। ..
(E) वर्ण नाम कर्म--जिसके उदयसे शरीर में गोरा काला आदि वर्ण होता है। उसके पांच भेद हैं--कृष्ण वर्ण नाम, नील वर्ण नाम, रक्त वर्ण नाम, पीतवर्ण नाम और सित वर्ण नाम।
(१०) गंध नाम कर्म-जिसके उदय से शरीर में सुगंध वा दुर्गध हो । उसके दो भेद हैं-सुरभि गंध नाम और दुरभिगंध नाम ।
(११) रसनाम कर्म - जिसके उदय से शरीर में किसी प्रकार का रस हो। उसके पांच भेद हैं-तिक्त नाम, कटु नाम, कषाय नाम, आम्ल नाम, और मधुर नाम कर्म।
(१२) स्पर्श नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में कोई स्पर्श हो वह स्पर्श नाम कर्म है । उसके पाठ भेद हैं-गुरुनाम, लघु नाम, मृदु नाम, कर्कश नाम, शीत नाम, उष्ण नाम, स्निग्ध नाम, रूक्ष नाम कर्म ।
(१३) श्रानुपूर्वी नाम कर्म-एक शरीर का त्याग करने के पश्चात् नवीन शरीर धारण करने के लिए जीव अपने नियत स्थान पर जिस कर्म के उदय से पहुंचता है वह श्र नुपूर्वी नाम कर्म है । गति नाम कर्म के चार भेदों के समान इसके भी चार
(१४) विहायो गति नाम-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल अच्छी या चुरी होती है । इसके दो भेद-शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति नाम कर्म।।
नाम कर्म की इन प्रकृतियों को ध्यान पूर्वक पढ़ा जाय तो मालूम होगा कि नाम कर्म का कार्य शरीर की रचना करना, उसकी विभिन्न प्राकृतियां बनाना, नवीन जन्म धारण करने के स्थानपर पहुंचाना,अस या स्थावर रूप प्रदान करना, शरीर में किसी प्रकार का रंग, गंध, रस और स्पर्श बनाना, सुन्दर-असुन्दर स्वर उत्पन्न करना,
आदि-आदि है। इसका कार्य बहुत विस्तृत हैं और इसी कारण इसकी प्रकृतियों की संख्या सभी कर्मों से अधिक है।
सूत्रकार ने शुभ और अशुभ नामकर्म के बहुत-बहुत भेद बताये हैं तो इस प्रकार समभाना चाहिए। जिस प्रकृति का फल प्राणी को इट है, जिसकी प्राप्ति से उसे संतोप होता है वह शुभ नाम कर्म है, और जिस प्रकृति का फल जीव को अनिष्ट है, वह प्रकृति अशुभ है। पूर्वोक्त प्रकृतियों में से ( १ ) मनुष्यगति । २) मनुष्य गति की प्रानुपूर्वी (३) देव गति (४ देवगति की आनुपूर्वी ( ५ ) पंचेन्द्रिय जाति (१-२०) पाँच शरीर, (११-१५) पाँच बंधन, ( १५-२० । पाँच संघात, (२०-२३) तीन अंगोपांग, (२४) इस वर्ण ( २५) इष्ट गंध ( २६ ) इष्ट रस (२७) इट स्पर्श (२८) समचतुरस्त्र संस्थान (२६) वजऋषभनारात्र संहनन (३०) प्रशस्तविहायोगति (३१) पराघात (१२) उच्दास ( ३३ ) आतप (३४) उद्योत (३५)
गुरूलघु ( ३६) तीर्थकर नाम कर्म (३७) निर्माण (३८) अस (३६) बादर (४०) पर्याप्त (५१) प्रत्येक (४२) स्थिर (४३) शुभ (२४) सुभग (४५)
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कर्मनिरूप
सुस्वर (४६) देय ( ४७ ) यशः कीर्त्ति यह नाम कर्म की शुभ प्रकृतियां हैं श्रतएव शुभ नाम कर्म के इतने भेद होते हैं । इन्हीं प्रकृतियों में सातावेदनीय, देव श्रायु, मनुष्य आयु, तिर्यञ्च श्रायु और उच्च गोत्र को सम्मिलित कर देने से समस्त पुण्य प्रकृतियां वाचन हो जाती हैं ।
इनके अतिरिक्त जो प्रकृतियां शेष रहती हैं वे जीव को अनिष्ट होने के कारण पाप प्रकृतियां हैं। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि तिर्यञ्च श्रायु को पुण्य प्रकृतियों में गिना गया है और तिर्यञ्च गति को पाप प्रकृतियों में सम्मिलित किया गया है । इसका कारण यह है कि तिर्यञ्च गति जीव को अनिष्ट है, क्योंकि तिर्यञ्च गति में कोई जाना नहीं चाहता, किन्तु जो तिर्यञ्च गति में चले जाते हैं वे उसका त्याग करना नहीं चाहते - वे मरने से बचने का प्रयत्न करते हैं अतएव तिर्यञ्चों को तिर्यञ्च प्रायु है । इसी कारण उसे शुभ श्रायुश्रों में गिनाया गया है । नारकी जीव नरक में जीवित नहीं रहना चाहते, वे उस श्रायु का नाश चाहते हैं अगर नरक - श्रायु अशुभ है और नरक गति में कोई जाना भी नहीं चाहता इसलिए नरक गति भी अशुभ है । इस प्रकार नाम कर्म का संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है। विस्तृत विवेचन जिज्ञासुओं को अन्यत्र देखना चाहिए ।
इतना और ध्यान रखना चाहिए कि वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नाम कर्म पुराय प्रकृतियों में भी हैं और पाप प्रकृतियों में भी हैं। जिस जीव को वर्ण, गंध आदि इष्ट हैं-- प्रिय हैं -- उसके लिए वह शुभ हैं और जिसे जो प्रिय हैं उसके लिए बड़ी अशुभ वन जाते हैं । अनिष्ट वर्ण आदि की प्राप्ति अशुभ नाम कर्म से होती है और इष्ट वर्ण आदि की प्राप्ति शुभ नाम कर्म के उदय से होती है !
-मन वचन काय की चक्रता से अर्थात् मन में कुछ हो वचन से और ही कुछ कद्दे और काय से और ही कुछ करे तथा चैरविरोध करे तो अशुभ नाम कर्म का बंध होता है | इनसे विपरीत सरलता रखने तथा चैर-विरोध न करने से शुभ नाम कर्म का वध होना है ।
मूल :- गोयकम्मं तु दुविहं, उच्च नीच आहियं ।
उच्चं अट्ठविहं होइ, एवं नीयं वि श्राहियं ॥ १४ ॥
छाया:- गोत्रकर्म तु द्विविधं, उच्चनीचैश्च श्राहृतम् । उच्चैरष्टविधं भवति एवं नींचेश्रपि श्राहृतम् ॥ १४ ॥
शब्दार्थ:- गोत्र कर्म दो प्रकार का हैं - उच्च गोत्र कर्म और नीच गोत्र कर्म । उच गोत्र कर्म आठ प्रकार का हैं और नीच गोत्र भी आठ प्रकार का है।
भाष्य:- -कुल- परम्परा से चलाया हुत्रा आवरण यहां गोत्र शब्द का अर्थ है । जिस फुल में परम्परा से धर्म और नीति युक्त श्राचरण होता हैं वह उच्च और जिस फुल में अधर्म और धन्याय पूर्ण श्राचरण होता है वह नीच गोत्र
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द्वितीय श्रध्याय
। २०७ } . है। अतएव जिस कर्म के उदय से धार्मिक अर्थात् प्रशस्त कुल में जैसे इक्ष्वाकु कुल हरिवंश, ज्ञातवंश आदि में--जीव जन्म लेता है उस कर्म को उच्च गौत्र कर्म कहते हैं
और जिस कर्म के उदय से जीव अधार्मिक अथवा अन्याय और अधर्म के लिए बदनाम कुल में--जैसे भिक्षुक कुल, कसाइयों का कुल, आदि में जन्म लेता है वह नीच गौत्र कहलाता है।
ऊपर की व्याख्या से यह स्पष्ट है कि गौत्र कर्म का संबंध परम्परागत व्यवहार से उत्पन्न होने वाली प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा के साथ है। कई लोग इसका अस्पृश्यता
और स्पृश्यता के साथ संबंध बतलाकर स्वयं भ्रम में हैं और दूसरों को भ्रम में डालते हैं। जैन-धर्म गुणवादी धर्म है, उसने जातिवाद को कभी स्वीकार नहीं किया है। श्रमण भगवान महावीर ने सुस्पष्ट शब्दों में घोषणा का है कि 'न दीसइ जाइविसेस कोई' अर्थात् मनुष्य-मनुष्य में भेद डालने वाली जाति कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। ऐसी अवस्था में जेन धर्म किसी मनुष्य को जन्मतः अस्पृश्य नहीं स्वीकार कर सकता । नीच गौत्र कर्म के उदय से जीव अस्पृश्य होता है, यह कथन सिद्धान्त के प्रति अनभिज्ञता को प्रकट करता है। जैनागम में नारकी और तिर्यञ्चों को नियम से नीच गोत्र कर्म का उदय बतलाया गया है। यदि नीच गौत्र का उदय अस्पृश्यता का कारण माना जाय तो समस्त गाय, बैल, घोड़ा हाथी, भैस, बकरी, कबूतर आदि तिर्यञ्च अस्पृश्य ही माने जाने चाहिए, क्योंकि इन सब के नाच गौत्र का उदय है । किन्तु इन पशुओं को कोई अस्पृश्य नहीं मानता । यही नहीं, बल्कि गाय भैस आदि दूध देने वाले पशुओं का दूध भी पिया जाता है। इधर यह बात है और दूसरी और यह कहना कि नीच गोन का उदय अस्पृश्यता का कारण है, सर्वथा असंगत है। यही नहीं, आगम के अनुसार समस्त देवों के उच्च गोत्र का उदय होता है, फिर भी किल्विप जाति के देव चाण्डालों की भांति देवों में अस्पृश्य से समझे जाते हैं। श्रतएव इससे यह स्पष्ट है कि नीच गोत्र कर्म अस्पृश्यता का कारण नहीं और उच्च गोत्र कर्म स्पृश्यता का कारण नहीं है।
शास्त्र के अनुसार कोई भी मनुष्य जन्म से अस्पृश्य नहीं होता हरिकेशी जैसे चाण्डाल कुलोद्भव भी महामुनि जैन-शासन में पूज्यं माने गये हैं। छुआछूत तो लौकिक व्यवहार है और वह कल्पना एर आश्रित है । सम्यग्दृष्टि जीव इस काल्पनिक व्यवहार को धर्मानुकूल नहीं समझता।
उच्च गोत्र कर्म के पाठ भेद है-[१] प्रशस्त जाति गौत्र कर्म [२] प्रशस्त कुल गोत्र कर्म [३] प्रशस्त बल गौत्र कर्म [४) प्रशस्त रूप गोत्र कर्म [५] प्रशस्त तप गौर
कर्म [६] प्रशस्त सूत्र गौत्र कर्म [७] प्रशस्त लाभ गोत्र कर्म [८) प्रशस्त ऐश्वर्य गौत्र • कर्म । तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से उस आठों वस्तुएं प्रशस्त रूप में प्राप्त हो वह उच्च गौत्र कर्म पाठ प्रकार है।
प्रशस्त जाति, कुल आदि के भेद से नीच गोत्र कर्म भी आठ प्रकार का है। . उच्च श्रेणी के मात कुल का, पिता के वंश का, ताकत का, तर का, विद्वत्ता
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[ १०८
. .. कर्म निरूपण का, रूप का, लाभ का और ऐश्वर्य का अभिमान न करने से उच्च गौत्र का बंध होता .... है । तथा विनम्रता रखने से, दूसरों की प्रशंसा और अपने दोषों की निन्दा करने से अपने दोषों को और दूसरों के गुणों को प्रकाशित करने से भी उच्च गोत्र कर्म बंधता ...
जाति, कुल, वल, विद्वत्ता, तप, लाभ, रूप और ऐश्वर्य का घमंड करने से. तथा अपने मुंह अपनी प्रशंसा करने, पर निन्दा करने, दूसरे के सदगुणों को छिपान से और अपने असत् [ अविद्यमान | गुणों को प्रकट करने से, नीच गोत्र कर्म का बंध होता है। मूलः-दाणे लाभे य भोगेय, उपभोगे वीरिये तहा।
पंचविहंतराय, समासेण वियाहियं ॥ १५ ॥ छाया:-दाने लाक्षे च भोगे च, उपभोगे वीर्य तथा।
पञ्चविधमन्त राय, समासेन व्याख्यातम् ॥ १५ ॥ शब्दार्थः - अन्तराय कर्म संक्षेप से पांच प्रकार का कहा गया है- (१) दानान्तराय (२) लामान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय।
भाष्य-सात कर्मों के विवेचन के पश्चात् अन्तिम अन्तरगय कर्म का विवेचन यहां किया गया है। जिस कर्म के उदय से इष्ट वस्तु की प्राप्ति में बाधा. उपस्थित होती है वह अन्तराय कर्म कहलाता है। उसके पांच भेद हैं-[१] दानान्तराय २० लाभान्तराय ३) भोगान्ताय [५] उपभागान्तराय [५ वीर्यान्तराय । इन पांचा का स्वरूप इस प्रकार है:
[१. दानान्तराय-दान देने योग्य वस्तु मौजूद हो, दान के श्रेष्ठ फल का भी ज्ञान हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से दान न दिया जा सके, वह दानान्तराय कम
[२] लाभान्तराय-उदारचित दाता हो, दान देने योग्य वस्तु भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से लाभ न हो वह लाभान्तराय कर्म है । लाभ की इच्छा हो, लाभ
लिए प्रयत्न भी किया जाय, फिर भी जिसके उदय ल लाभ न हो सके वह लाभातराय कर्म है।
[३] भोगान्तराय-भोगों से विरक्ति न हुई हो और भोग की सामग्री मौजूद हो फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग न भोग सके उसे भोगान्तराय कम
[१] उपभोनान्तराय- उपभोग की सामग्री के विद्यमान रहने पर भी श्रीर उपभीम की इच्छा होने पर भी-जिप्त कर्म के उदय से पदार्थों का उपभोग न किया आ सके वह उपभोगान्तराय फर्म है।
जो पदार्थ सिर्फ एक बार भोगे जाते हैं उन्हें भोग कहत है, जैले भोजन, फल,
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द्वितीय अध्याय
[ १०६ ] जल श्रादि । और जो पदार्थ बार-चार भागे जाते हैं उन्हें उपभोग कहते हैं, जैसे--मकान, वस्त्र, आभूषण, मोटर श्रादि ।
[५] वीर्यान्तराय--जिस कर्म के उदय से जीव अपनी शक्ति को प्रगट करने की इच्छा रखते हुए भी प्रकट न कर सके वह वीर्यान्तराय कर्म है।
वीर्य का अर्थ है शक्ति । और शक्ति में बाधा डालने वाला कर्म वीर्यान्तराय कहलाता है । वीर्यान्तराय कर्म के 'तीन अवान्तर भेद हैं-- १] बाल वीर्यान्तराय १२ पण्डित वीर्यान्तराय और [३] बालपण्डित वीर्यान्तराय सांसारिक कार्यों को करने की जीव की शक्ति तो हो किन्तु जिस कर्म के उदय से वह प्रकट न हो सके उसे बाल वान्तराय कर्म कहते हैं । साधु मोक्ष-साधक जिन क्रियाओं को जिस कर्म के उदय से नहीं कर पाता वह पंडित-वीयन्तिराय कर्म है। जिल कर्म के उदय से जीव इच्छा रहते हुए भी देश विगति का पालन नहीं कर सकता वह कर्म बाल-पण्डित चीर्यान्तराय कर्म कहलाता है।
अन्तराय कर्म के बंध के कारण इस प्रकार है-दान देते हुए के बीच में बाधा डालने ले, किसी को लाभ हो रहा हो तो उसमें बाधा डालने से, भोजन-पान्न आदि भोग की प्राप्ति में विघ्न उपस्थित करने से, तथा उपभोग योग्य पदार्थों की प्राप्ति में अडंगा लाने से और कोई जीव अपनी शक्ति को प्रकट करने का प्रयत्न कर रहा हो तो उसके प्रयत्न में रोड़ा अटकाने से अन्तराय कर्म का वंध होता है । पशुओं को या अपने श्राश्रितजनों को अथवा दीन-दुःस्त्री जीवों को या श्रावक और लम्यग्दृष्टि जीव को भोजन आदि देना पाप है, ऐसा उपदेश देने से भी तीन अन्तराय कर्म का बंध होता है।
शंका-संसारी जीव को आयु कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों का प्रतिक्षण बन्ध होता रहता है । यदि पूर्वोक्त बंध के कारण अलग-अलग कर्मों के अलग-अलग हैं तो प्रतिक्षण सातो कर्म कैसे बंध सकते हैं ? जीव एक समय में एक क्रिया करेगा
और उससे यदि एक ही कर्म का बंध होता है तो सातों का युगपत् एक साथ बंध नहीं हो सकता । ऐसी अवस्था में अलग-अलग कर्मों के बंध के अलग-अलग कारण क्यों चताये गये हैं ? ...
समधान-पृथक्-पृथक् कर्मों के जो पृथक्-पृथक् कारण बतलाये हैं सो प्रदेश बंध की अपेक्षा से नहीं किन्तु अनुभागबंध की अपेक्षा से समझना चाहिए । 'पूर्वोक्त कारणों का अनुभाग बंध के साथ संबंध होने के कारण ही पृथक्-पृथक् कारण बताये गये हैं। उदाहरणार्थ-शोक करन से असातावेदनीय का बंध बताया गया है, इसका श्राशय यह है कि शोक करने से प्रकृति बंध और प्रदेश बंध तो सातो कमों का ही होता है किन्तु असुभान बंध उससे अलातावेदनीय का विशिप होता है। इसी प्रकार बंध के अन्य कारणों के संबंध में भी समझ लेना चाहिए। ' ' उक्त गाठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियां एक सौ आइतालीस होती हैं। उनमें से
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कर्म निरूपर
। ११० । जीव विपाकी अर्थात् जीव में फल देने वाली प्रकृतियां अठत्तर हैं। व इस प्रकार हैं- . चार घातिया कमों की प्रकृतियां ४७, गोत्र कर्म की २, वेदनीय की. २,-५२. [५२) तीर्थकर नाम कर्म [५३] उछास नाम [५४] बादर नाम [५४] सूक्ष्म नाम [५६] पर्याप्त नाम [५७] अपर्याप्त नाम [५८) सुस्वर नाम [५६] दुःस्वर नाम [६.1 आदेय नाम .. (६१) अनादेय नाम [६२] यशः कीर्ति नाम /६३] अंशःकीर्ति नाम [४] वल नाम १५ स्थावर नाम [६६] प्रशस्त विहायोगति नाम ।६७) अप्रशस्त विहायोगति नाम [६८ सुभग नाम 1६६] दुर्सग नाम (७०, मनुष्य गति [७१) देव गति [७२) तिर्यश्च गति |७३] नरक गति [७४-७८) पांच जातियां-ए केन्द्रिय जाति आदि । इन अठत्तर प्रकृतियों का फल साक्षात् जीव में होता है। . .
जिन प्रकृतियों का फल भत्रमें होता हैं वे भव विपाकी प्रकृतियां चार हैं। वे इस प्रकार--[१] नरकायु [२] तिर्यञ्चायु [३] मनुष्पायु [1] देवायु ।
जिन प्रकृतियों का फल नियत स्थान पर अर्थात् परलोक को गमन करते समय जीव को मार्ग में ही होता है, वे क्षेत्र विपाकी प्रकृतियां चार हैं-- १] नरकानु पूर्वी [२] तिर्यश्चानुपूर्वी [३] मनुष्यानुपूर्वी और [४] देवानुपूर्वी । ...
पुदगल में ही अपना फल देने वाली पुदगलविपाकी प्रकृतियां बासठ हैं। वे इस प्रकार हैं-जीवविपाकी ७८, भवविपाकी ४, क्षेत्रविपाकी ४ निकाल दन पर शेप रहने वाली शरीर, बंधन, संघात संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अादि बासंठ प्रकतियां पुद्गल विपाकी हैं।
चार घातिया कर्मों की प्रकृतियां दो विभागों में विभक्त की जा सकती हैं। कुछ प्रतियां ऐसी हैं जो जीव के गुणों को पूर्ण रूप से घातती हैं और कुछ ऐसी हैं जो श्रांशिक रूप में घातती हैं । पूर्ण रूप से घात करने वाली सर्वघाती प्रकृतियां कदवाली और वे इपंकील हैं-1१] केवलज्ञानावरणीय [२] केवलदर्शनावरणयि [३-७
प्रकार की निद्रा अनन्तानुबंधी क्रोध [६] अनन्तानुबंधी मान[१० अनन्तातुः जीमाया [११] अनन्तानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानावरण [१२] क्रोध [१३] मान [१४ माया [१५, लोभ, प्रत्याख्यानावरण १६] क्रोध, [१७] मान [13] माया ११६] ले म (२०] मिथ्यात्व मोहनीय [२१] मिश्रमोहनीय ।
शिक रूपमै जीव के गुण को घात करने वाली देशमाती प्रकृतियां कहलाती
जयींस है-(१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण ( ३ ) अवधिहानावरण (2) मनःपर्यायज्ञानावरण (५) चनुदर्शनावरण (२) अनुदर्शनाघरा (७) अवधिदर्शनावरण (८-११ ) संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ (.१२-२० ) नौ नो इ.पाय (२६) सम्यक्त्व मोहनीन (२२-२६) पाँच प्रकार के अन्तगय । मल:-उदहीसरिसनामाणं तीसई कोडिकोडियो।
उक्कोसिया ठिई होइ, अंतोमुहुत्तं जहरिणया ॥१६॥
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पावरणिज्जाण दुण्हं पि, वेयणिज्जे तहेव य । अंतराये य कम्मंमि, ठिई एसा विश्राहिया ॥१७॥ छाया-उदधिसदृङ्नाम्नां, त्रिंशतकोटीकोट्यः ।
उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहत्तं जघन्यका ॥१६॥ अ वरण यो योरपि, वेदनीये तथैव च ।
अन्तराये च कर्मणि, स्थितिरेषा व्याहृता ॥१७ शब्दार्थः-दोनों आवरणों की अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण की तथा वेदनीय कर्म की और इसी प्रकार अन्तराय कर्म की अधिक से अधिक स्थिति तेतील कोड़ाकोड़ी सागरोपम की कही गई है और कम से कम स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही
भाष्यः आठों कर्मों के भेदों का निरूपण करने के पश्चात् उनकी उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक और जघन्य अर्थात् कम से कम स्थिति बतलाई गई है। तात्पर्य यह हैं कि कौन-सी कर्म प्रकृती जीव के साथ बद्ध हो जाने पर अधिक से अधिक कम से कम कितने समय तक बँधी रहती है, इस विषय का अर्थात् स्थितिबन्ध का यहाँ निरूपण किया गया है।
जीव के साथ कर्म का जो बंध होता है वह सदा के लिए नहीं होता। दोनों का संबंध लयोग संबंध है। यह बात स्थितिबंध की प्ररूपणा से स्पष्ट हो जाती है।
यहाँ ज्ञानावर ण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की दोनों प्रकार की स्थिति बताई है । उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की होती है। एक करोड़ से एक करोड़ का गुणा करने पर जो गुणनफल रूप राशी उत्पन्न होती है वह कोड़ा कोदी कहलाती है। ऐसे तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति है। अर्थात् तीस करोड़ सागरोपम से तीस करोड़ सागरोपम का गुणा करने पर जो राशी हो उतने सागरोपम तक यह चारों कर्म आत्मा के साथ बंधे रह सकते हैं। इतने समय के पश्चात् उनकी निर्जरा हो जाती है । इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि तील कोड़ा कोड़ी सागरोपम के पश्चात् जीव चार कर्मों से युक्त हो जाता है। क्योंकि कम का बंध प्रतिज्ञण होता रहता है, इसलिए पुगने कर्म अपनी स्थिति पूर्ण करके खिरते जाते हैं तथापि बाद में बँधे हुए कर्म वाद में भी विद्यमान रहते हैं।
'उदहीसरिसनामाणं' का अर्थ है-उदधि (समुद्र ) के सदृश जिसका नाम है अथात् सागर । 'सागर' एक अलौकिक गणित सम्बन्धी पारिभाषिक संज्ञा है। वर एक मस्या-विशेष की वाचक है । वह संख्या लौकिक संख्या से बहुत अधिक होने के कारण गणित शास्त्र में प्रसिद्ध अकों द्वारा नहीं बतलाई जा सकती। उसे बताने के लिए 'उपमा' से काम लेना पड़ता है । अतएव सागर को 'सागरोपम' भी कहते हैं। सागरोपम का परिमाण यह है:
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कर्म निरूपण एक योजन लम्बा चौड़ा और एक योजन गहरा गढ़ा स्त्रोदा जाय । उसमें सात दिन तक के बच्चे के बालों के ऐसे सूक्ष्मतर टुकड़े करके.कि जिनका दूसरा टुकड़ा . न हो सकता हो, भर दिये जावें-ढूंस-ढूंस कर दवा दिये नावें । उसके बाद सौ-सौ . वर्ष के बाद एक-एक बाल का टुकड़ा ( वालाग्र ) निकाला जाय । इस प्रकार निका-- लते-निकालते जब पूरा गढ़ा खाली हो जाय-उसमें एक भी बालाय न रहे, उतने समय को पल्योपम कहते हैं। ऐसे-ऐसे दस कोड़ाकोड़ी पल्योपम को एक सागरोपम कहते हैं।
सागरोपम का परिमाण गणित के अङ्कों द्वारा प्रगट नहीं किया जा सकता। इस कारण कुछ लोग इस संख्या को अधिकता को देख कर आश्चर्य करने लगते हैं, . पर इसमें आश्चर्य करने योग्य कोई बात नहीं है। जगत् में कितने प्राणी हैं, या भूत और भविष्य काल के कितने समय हैं? यह प्रश्न करने पर सभी कहेंगे-अनन्त । ईश्वरवादी ईश्वर की अनन्त शक्तियां स्वीकार करते हैं। इस प्रकार सभी लोग अनन्त की संख्या स्वीकार करते हैं। अब यह विचार करना चाहिए कि क्या लौकिक संख्या से सीधा अनन्त शुरू हो जाता है ? कदापि नहीं। जैसे सौ तक की संख्या एक, दो, तीन आदि क्रम से आगे चलती है उसी प्रकार लौकिक संख्या की समाप्ति के बाद से लेकर अनन्त की संख्या तक भी कोई कम अवश्य होना चाहिए। और उस क्रम में ही पल्यापम और सागरोषम का भी समावेश होता है । जैले एक के बाद सो नहीं श्रा जाते उसी प्रकार लौकिक संख्या समाप्त होते ही अनन्त नहीं पा जाते । इस प्रकार जरा गंभीरतापूर्वक विचार करने से पल्योपम और सागरोपम आदि की संख्या तनिक भी आश्चर्यकारक प्रतीत नहीं होती हैं।
आगे सब जगह-जहां सागरोप या पल्योपत्र संख्या का कथन हो वहां यही संख्या समझनी चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि एक योजन लम्बे-चौड़े
और गहरे गढ़े को किसी ने भरा नहीं है, सिर्फ संख्या की कल्पना आ जाए, इसी उद्देश्य से उपमा देकर समझाने का शास्त्रमारों ने प्रयत्न किया है। मूल:-उदहीसरिसनामाणं, सत्तर कोडिकोडीयो।
मोहणिजस्स उकोसा, अन्तोमुहत्तं जहरिणया॥१८॥ तेत्तीसं सागरोबम, उक्कोसेण विवाहिया । ठिई उग्राउकम्मस्त, अन्तोमहत्तं जहरिणया ॥१६॥ उदहीसरिसनामाणं, वीसई कोडिकोडीयो। नामगोत्ताण उक्कोसा, अट्ठमुहत्ता जहरिणया ॥२०॥ छाया:-द सरनाम्नां, सप्ततिः कोटीकोव्यः ।
- मदनीवस्या कष्टा, अन्तर्मुहर्ना जयन्यका ॥ . .
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[ १९३ ]. त्रयस्त्रिंशत् मागरोपमा, उत्कर्षेण व्याहता । - स्थितिस्तु श्रायुः कर्मणः, अन्तर्मुहूत्ती जवन्यका ॥ १६ ।। उदधि सदृङ्नाम्नां, विशति कोटीकोट्यः ।
नामगोत्रयोरुकृष्टा, अष्टमुहूर्ता जघन्य का ॥ २० ॥ शब्दार्थः~मोहनीय कर्म की अधिक से अधिक स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपन की है और कम से कम अन्तर्मुहूर्त की है। आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वीस काड़ा कोड़ी सागरोपम की है और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है।
भाष्यः-अवशिष्ट वार कमों की स्थित्ति जघन्य और उत्कृष्ट यहाँ बताई गई है। स्थिति के साथ शास्त्रों में अबाधा काल का भी वर्णन पाया जाता है । बंध और उदय के मध्यवर्ती समय को अवाधा काल कहते हैं। तात्पर्य यह है कि बंध होने के पश्चात् जितन लमय तक कर्म उदय में नहीं पाता, आत्मा में लत्ता रूप में विद्यमान रहता है, उस समय का अवाधा काल कहते हैं। आठों कर्मों का जघन्य और उत्कृष्ट अवाधा काल इस प्रकार है-ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष का और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का अवाधा काल है । मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट सात हजार वर्ष का और जघन्य अन्तमहूर्त का अबाधा काल है । आयु कर्म का अवाला काल उत्कृष्ट वर्तमान आयु का तीसरा भाग है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त नाम और गोत्र कर्म का उत्कृष्ट दो हजार वर्ष और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का आवाधा काल है।
___ अबाधा काल को ध्यान पूर्वक देखा जाय तो प्रतीत होगा कि जिस कर्म की स्थिति जितनी कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है, उतने सौ वर्ष तक वह उदय में आये विना आत्मा में पड़ा रहता है। यह अवाधा काल समाप्त हो जाने के पश्चात् बंधा हुआ कर्म क्रमशः अपना फल देने लगते हे। अवाधा काल के पश्चात् जितने समय में कर्म अपना फल देते हैं उतने समय को कर्म-निषेक काल कहते हैं।
वि.स कर्म का नियक काल कितना है, यह जानने के लिए कर्म की सम्पूर्ण स्थिति में से अबाधा काल को निकाल देना चाहिए और जो समय शेष रहे उसे , निषेक काल कहते हैं।
यहाँ मोहनीय की सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की, श्रायु कर्म को तेतीस सागरोपम की तथा नाम और गौत्र कर्म वास कोड़ा कोड़ी सांगरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। नाम और गौत्र की माठ मुहूर्त की और मोहनीय तथा श्रायु की एक अन्तमुहूर्त्त जघन्य की स्थिति है। 1. गति के अनुसार श्रायु कर्म की स्थिति में इतनी विशेषता है-नारकी और देवों की उत्कृष्ट श्रायु तेतीस सागरोपम और जघन्य दस हजार वर्ष की है। मनुष्य और तिर्यञ्च की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपस और जघन्य अन्तर्मुहुर्त की है। इसका उत्कृष्ट अबाधा काल संख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा भोगी जाने वाली
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[ ११४ ।
कर्म निरूपल (वर्तमान ) श्रायु के तीसरे भाग का, नवमें भाग का, सत्ताईसवें भाग का अथवा अन्तर्मुहर्त के तीसरे भाग का है। असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा छह महीना अवाधा काल है।
कर्मों का कथन यहाँ समाप्त किया जाता है । इस कथन से प्रतीत होगा कि श्रात्मा स्वभाव से यद्यपि नि:संग, निष्कलंक, निर्मल और नीरज है तथापि कर्मों के अनादि कालीन संयोग से वह बद्ध, सकलंक, समल और सरज हो रहा है। यह कर्म ज्यों-ज्यों मंद होते जाते हैं त्यों-त्यों प्रात्मा के स्वभाविक गुणों का विकास होता जाता है और श्रात्मा में निर्मलता आती जाती है। प्रात्मा के इस विकास की असंख्य श्रेणियाँ हैं परन्तु शास्त्रकारों ने उन्हें मुख्य चौदह विभागों में विभक्त किया है। उन्हीं को गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थानों के स्वरूप का वर्णन अ.गे किया जायगा। . मूलः-एगया देवलोगेसु, नरएसु वि एगया।
एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छइ ॥२१॥ - छायाः-एकदा देवलोकषु, नरकेष्वपि एकदा ।
___ एकदा प्रासुर कार्य, यथा कर्म अभिगच्छति ॥ २॥ शब्दार्थः-आत्मा अपने किये हुए कर्म के अनुसार कमी देवलोकों में, कभी नरकों में, और कभी असुर काय में जाता है।
भाष्यः--कमों की विवेचना के पश्चात् सूत्रकार यह बतलाते हैं कि जीव पर. कर्मों का क्या फल होता है ? जीव को अपने किये हुए कर्म के अनुसार विविध योनियों में जन्म-मरण करना पड़ता है । जीव जव शुभ कर्मों का उपार्जन करता है तब वह देवलोकों में उत्पन्न होता है । देवलोक अनेक हैं यह सूचित करना वहुवचन देनेका तात्पर्य है जीव जय अशुभ कर्म का उपार्जन करता है तब उसे नरकों में उत्पन्न होना पड़ता है। यहाँ भी, नरक अनेक हैं यह सूचित करने के लिए बहुवचन दिया है। अथवा दोनों जगह वहुवचन प्रयोग करने का यह प्राशय है कि जीव बार-बार देवलोक और नरक आदि में जाता है। अनादि काल से लेकर अब तक जीव अनन्तः वार देवलोक में और अनन्त वार नरक में जा चुका है । देवलोक और नरक गमन का एक साथ वर्णन करने से यह तात्पर्य नहीं है कि देव देवलोक से च्युत होते ही नरक में चला जाता है या नारकी जीव मरकर देवलोक में चला जाता है । नारकी जीव स्वर्ग में जाने योग्य पुण्य का उपार्जन नहीं कर सकता और देवता नरक जाने योग्य पाप का उपार्जन नहीं करता । अतएव देवता मरकर सीधा नरक में नहीं जाता और नारकी मरकर स्वर्ग में नहीं जाता। दोनों को मनुष्य अथवा तिर्यञ्च गति में जन्म लेना पढ़ता है। उसके बाद अपने कर्म के अनुसार चे. स्वर्ग भी जा सकते हैं और नरक भी जा सकते हैं । ऐसा होने पर भी सूत्रकार ने 'कभी-देवलोक में और नवीनरक में जाना बतलाया है सो परस्पर विरोधी अवस्थाओं को सूचित करने के लिए समझना चाहिए । नरक दुःस्त्र की तीव्रता को भोगने की योनि है और स्वर्ग,
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[ ११५ सांसारिक सुख की तीव्रता को भोगने का स्थान है। सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि यह जीव सांसारिक सुख की चरम सीमा को प्रप्त करके भी फिर कभी नरक जैसी तीव दुःखप्रद अवस्था का अनुभव करता है । अतएव सांलारिक सुखों को स्थिर नहीं समझना चाहिए।
यह जीव जब विना इच्छा के कष्ट सहन करता है अथवा सम्यकदर्शन और सम्य ज्ञान के बिना अज्ञानपूर्वक तपस्या आदि करता है तब वह भवनपति, व्यन्तर श्रादि देव-योनियों में उत्पन्न होता है।
कुछ लोगों की यह मान्यता है कि जीव स्वयं सुख-दुःख नहीं भोगना चाहता अतएव उसे सुख-दुःख भोगवाने के लिए ईश्वर की आवश्यकता है। कोई यह कहते हैं कि जीव सुख-दुःख का भोग करने में स्वयं समर्थ ही नहीं है अतएव ईश्वर ही उसे सुख-दुःख का भोग करने के लिए स्वर्ग और नरक में भेज देता है । कहा भी
अज्ञः जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। अर्थात् यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःख का भोग करने में असमर्थ है इस लिए ईश्वर का भेजा हुआ स्वर्ग या नरक में जाता है।
'कोई-कोई यह शंका करते हैं कि कर्म अचेतन हैं, इसलिए उनमें फल देने की शक्ति नहीं है। ऐसी अवस्था में जीव कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नरक में कैसे जा सकता है ?
इन सब मतों का निरसन करने के लिए सूत्रकार ने 'अहाकम्मेह' पद .गाथा में रक्खा है । जो लोग यह कहते हैं कि जीव कर्म का फल स्वयं नहीं भोगना चाहता, सो कथंचित् ठीक हो सकता है। अशुभ कर्म का दुःन रूप फल जीव नहीं भोगना. चाहता। पर फल का भोग करने में जीव इच्छा और अनिच्छा में तो कुछ होता नहीं है। उसकी इच्छा न होने पर भी कम से परतंत्र होने के कारण उसे दुःख भोगना ही पड़ता है। विष खाकर यदि कोई मनुष्य मरना न चाहे तो भी उसे मरना पड़ेगा। इसी प्रकार कर्म कर चुकने के पश्चात् कर्मों के द्वारा उसे फल भोगना ही होगा।
जो लोग जीव को सुख-दुःख भोगने में असमर्थ मानते हैं उन्हें यह विचार करना चाहिए कि जीव वास्तव में असमर्थ है तो ईश्वर उससे फल का भोग करा ही नहीं सकत्तर । ईश्वर फल-भोग करावेगा, फिर भी फल-भोग तो जीव ही करेगा । अगर जीव में फल-भोग की शक्ति ही न स्वीकार की जाय तो कोई भी उससे फल नहीं भोगवा सकता। - जो लोग कर्म को जड़-अचेतन होने के कारण फल देने में असमर्थ बतलाते हैं वे जड़ पदार्थों के सामर्थ्य को जानते ही नहीं है । हम दैनिक व्यवहार में प्रतिक्षरए जड़ पदार्थों की शक्ति का अनुभव करते हैं । भौतिक विज्ञान के प्राचार्यों ने जई पदार्थों
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कर्म निरूपण की अद्भुत और श्राश्चर्यजनक शक्तियां खोल कर संसार के समक्ष रख दी हैं, फिर भी जड़ पदार्थ में फल देने की शक्ति न स्वीकार करना दुगग्रह का चिह्न है । विविध प्रकार के गैस और भाफ जड़ होने पर भी तरह-तरह की शक्तियों से सम्पन्न हैं। इन्हें छोड़ दिया जाय और दैनिक व्यवहार की साधारण वस्तुओं को लिया जाय तो भी जड़ पदार्थों में अनेक फल देने वाली शक्तियां विद्यमान है, यह निश्चय हो जायगा। जड़ औषधियां रोग निवृत्ति रूप फल को उत्पन्न करती है, अञ्जन नेत्रों की ज्योति वढ़ाता है, और रोटी भी भूखजन्य क्लेश को नष्ट करके सुख उत्पन्न कर देने की शक्ति से युक्त है। ऐसी अवस्था में जड़ कर्म क्यों सुख-दुःख रूप फल नहीं दे सकते हैं। .
अगर यह कहा जाय कि उक्त सब जड़ पदार्थ चेतन की सहायता बिना फल. नहीं देते हैं। रोटी को जब तक जीच खाता नहीं है तब तक वह साता रूप फल नहीं देती। अतएव जड़ कर्मों के द्वारा फल भोगने के लिए चेतन की सहायता चाहिए । सो इस शंका का समाधान पहले ही किया जा चुका है कि कर्म, जीव की सहायता से ही उसे फल देते हैं, क्योंकि संसारी जीव जो कर्मों से संयुक्त है। इसलिए कर्मा के अनुसार ही सुख-दुःख रूप फल मानना उचित है। ईश्वर के कर्तृत्य पर विस्तृत विचार आगे किया जायगा। सूलः-तेणे जहा संधिसुहे गहीए, सकम्सुणा किचइ पावकारी । एवं पयांपेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि २२ छाया:-स्तेनो यथा सन्धिमुखे गृहीतः, स्वकर्मणा क्रियते पापकारी।
एवं प्रज्ञा प्रेत्य इह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽसि ॥ २२॥ शब्दार्थ:-जैसे पाप करने वाला चोर संधि-खात-के मुँह पर पकड़ा जाकर अपने . किय हुए कमाँ के द्वारा ही छेदा जाता है-दःख पाता है, उसी प्रकार प्रजा अर्थात् लोक परलोक में और इसलोक में दुःख पाते हैं। क्योंकि किये हुए कमाँ से बिना भोमे छुट- . कारा नहीं मिलता।
आप्यः कमाँ का साधारण फल निरूपण करने के पश्चात कमो की अमोघता प्रदर्शित करने के लिए सूत्रकार ने यहाँ बताया है कि जैसे कोई चोर, चोरी करने के लिए दीवाल श्रादि में सात खोदता है और वह उसी स्थान पर यदि पकड़ा जाता हे. तो उसे नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं, उसी प्रकार जो लोग पाप-कर्म को उपार्जन करते हैं उन्हें भी नाना प्रकार के कष्ट उस पाप-कर्म की बदौलत भोगने पड़ते हैं।
. जैसे चोर को चोरी का फल इसी जन्म में भेग लेना पड़ता है उसी प्रकार क्या समस्त पाप कमों का फल इसी जन्म में भोग लिया जाता है ? इस संदेह का निवारण करने के लिए सूत्रकार ने 'पंच' अर्थात परलोक का कथन किया है । अर्थात . किये हुए कमा का फल इस लोक में भी पीर पर लोश में भी भोगना पड़ता है । राजा सीर से चोरी का जो दगड मिलता है वह सामाजिक अपराध के रूप में होता है ।
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द्वितीय अध्याय
[ ११७ ] · पर कर्मों के द्वारा जो दण्ड मिलता है वह धार्मिक आध्यात्मिक अपराध के रूप में होता है। दोनों दण्डौ में यह विशेषता है। .. जैसे चतुर.चोर चोरी करके साफ बच निकलता है, उसे राज दंड का शिकार नहीं होना पड़ता, उसी प्रकार किये हुए पापों को कर्म-दंड से भी क्या कोई बच सकता है ? इस शंका का समाधान करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' अर्थात् कोई प्रवीण पापाचारी पुलिस की आँखों में भले ही धूल झोंक कर राज-दंड से बच जाए पर वह कर्म-दंड से कदापि मुक्त नहीं हो सकता प्रत्येक कर्म का फल कर्ता को अवश्यमेव भुगतना ही पड़ता है। कर्म अमोघ हैं-चे कभी निष्फल नहीं हो सकते।
एक उदहरण से पाप के फल का स्पष्टीकारण किया जाता है-एक बार कई चोर मिलकर चोरी करने जा रहे थे। उनमें एक बढ़ई (सुतार ) भी शामिल हो गया चोर किसी नगर में एक धनाढ्य सेठ के घर पहुंचे और उन्होंने सेंध लगाई । सैंध लगाते-लगाते दीवाल में कार का एक पटिया दिख पड़ा। चोरों ने सुतार से कहाभाई, अब तुम्हारी वारी है । इस पटिया को काटना तुम्हारा काम है। सुतार ने अपने औजार सँभाले और पटिया काटने लगा। उसने अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सँध के छेदों में चारों और तीखे-खे कंगूरे बना दिये । इसके बाद वह चोरी करने के लिए मकान में घुसा । ज्योंही वह घुस रहा था, त्योंही मकान मालिक ने उसका पैर पकड़ लिया। सुतार चिल्लाया-दौड़ो-दौड़ो, वचाओ-बचायो । उसे एक चालाकी सूझी। वह कहने लगा-मकान-मालिक, श्रो मकान मालिक ! मेरे पैर छुड़ायो।' पर होनहार टलती नहीं । चोरों ने ज्यों ही यह सुना त्यों ही वे झपटे और उसका सिर पकड़ कर खींचने लगे। बेचारा सुतार मुसीबत में फंस गया । भीतर और बाहर-दोनों ओर जोर की खींचातानी प्रारम्भ हो गई। अन्त में उसने जैसा किया था वैसा ही भोग भोगा। अपने बनाये हुए कंगूरों से ही उसके प्राणों का अन्त हो गया। . . .
. . आत्मा के लिए यही उदाहरण लागू होता है। श्रात्मा अपने ही अशुभ कर्मों के द्वारा इसलोक और परलोक में घोर कष्टों को सहन करता है । ऐसा समझ कर विवेकीज़नों को भली भांति सोच विचार कर, अपनी मनोवृत्ति को और अब की जाने वाली क्रिया को धर्म की कसौटी पर कस लेना चाहिए। जो किया धर्मानुकूल हो उसी को विधिपूर्वक करना चाहिए और प्रयत्नपूर्वक पाप कर्मों से बच कर प्रात्मश्रेय का साधन करना चाहिए । जो सत्पुरुष इस प्रकार विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं वे अक्षय आनन्द के भागी होते हैं। वे कर्मों से सर्वथा छुटकारा पा जाते हैं और तर । कर्म-दण्ड उनके समीप भी नहीं फटक सकता। मूल:-संसारमावराण परस्स अट्टा, साहारणं जंच करेइ कम्म।
कम्मरस ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उविति २३
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[ १८ ]
कर्म निरूपण
छाया:- संसारमापन्नः परस्यार्थाय साधारणं यच्च करोति कर्म । कर्मणस्ते तस्य तु वेदकाले, न बान्धवा बान्धवत्वमुपयान्ति ॥ २३ ॥
शब्दार्थः - संसार-सकर्म अवस्था को प्राप्त हुआ आत्मा दूसरों के लिए और साधारण-अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी जो कर्म करता है, उस कर्म को भोगते समय वे दूसरे - कौटुम्बिकजन - भाईचारा नहीं करते हैं-हिस्सा नहीं बँटाते हैं ।। २३ ॥
भाष्यः - पहले यह बतलाया गया था कि कर्म का फल अमोघ है- अनिवार्य है । किन्तु वह फल किसे भोगना पड़ता है ? जिसे उद्देश्य करके कर्म किया जाता वह फल भोगता है या कर्म करने वाला ही अपने कर्म का फल भोगता है ? इस शंका का समाधान करने के लिए सूत्रकार ने कहा है कि संसारी जीव चाहे दूसरे के ही लिए कोई कार्य करे, चाहे अपने और दूसरे के लिए कोई कार्य करे, उसका फल कर्त्ता अकेले को ही भुगतना पड़ता है । इस कथन से यह स्वयं सिद्ध हो गया कि अपने लिए जो कर्म किया जाता है उसका भी फल कर्त्ता को ही भोगना पड़ता है । तात्प यह कि प्रत्येक कार्य, चाहे वह किसी का भी उद्देश्य करके क्यों न किया जाय, कर्त्ता को ही फल प्रदान करता है ।
क्रिया का फल कर्ता को ही न होकर यदि दूसरों को होने लगता तो संसार में चढ़ी गढ़बड़ मच जाती । एक व्यक्ति- जो कर्म का कर्त्ता है-वह तो अपने किये हुए का फल भोगने से बच जाता और जिसने वह कर्म किया नहीं है उसे उस कर्म का फल भोगना पड़ता । इससे कृतनाश और अकृतागम नामक दो दोषों की प्राप्ति होती है । इन दोनों दोपों से बचने के लिए यही स्वीकार करना चाहिए कि जो करता है वहीं भरता है ।
सूत्रकार संसार की विषमता को प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि एक व्यक्ति अठारह पापस्थानक सेवन करके जो धन आदि प्राप्त करता है या भोगोपभोग की श्रन्य सामग्री जुटाता है उसे भोगने के लिए बन्धु बान्धव सम्मिलित हो जाते हैं किन्तु जब उन पापों के फल को भोगने का अवसर श्राता है तब उनमें से कोई भी हिस्सा नहीं बँटाता है । कर्म का फल उस अकेले कर्त्ता को ही भोगना पड़ता कहा भी है:
धन्यैस्तेनार्जितं वित्तं भूयः सम्भूय भुज्यते । सत्वको नरकफोडे, क्लिश्यते निजकर्मभिः ॥
अर्थात्ः- महा प्रारंभ और परिग्रह के द्वारा उपार्जित धन को भाई-बंध गैरह इकट्ठे होकर वार-चार भोगते हैं । किन्तु नरक में अकेला धनोपार्जन करने वाला ही अपने किये हुए कर्मों के कारण क्लेश पाता है । क्लेश भोगने के लिए कोई पास भी नहीं फटकता ।
दुःख रूपी भीषण अग्नि से धधकते हुए इस संसार रूपी वन में कर्मों से परतंत्र हुआ जीव केला ही भ्रमण करता है। दूसरे संबंधियों को तो जान दीजिए,
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द्वितीय अध्याय
[ ११६ ] जिस शरीर का बड़े अनुराग से पालन-पोषण किया जाता है, जिसे सिंगारने के लिए नाना प्रकार की चेष्टा की जाती है, वह शरीर भी परलोक में साथ नहीं देता है। जव इतना घनिष्ट संबंध वाला औदारिक शरीर भी साथ नहीं देता तो अपेक्षाकृत भिन्न बन्धु-बान्धव, पुत्र-कलत्र श्रादि परलोक में किस प्रकार साथ दे सकते हैं ?
. अतएव ज्ञानीजन को कोई भी सावध व्यापार करने से पूर्व यह सोच लेना चाहिए कि इस सावध व्यापार का फल मुझे अकेले को ही भोगना पड़ेगा। इस प्रकार का विचार करने से सावध क्रिया के प्रति अरुचि और विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और जितने अंशों में विरक्ति बढ़ती है उतने ही अंशों में पापमय प्रवृत्ति कम होती जाती है और भात्मा कल्याण मार्ग की ओर अग्रसर होता चला .. जाता है।
कई लोक मृत पितर आदि की सुगति के लिए श्राद्ध तर्पण श्रादि करते हैं। वे.यह समझते हैं कि उनके निमित्त से किया हुश्रा श्राद्ध उन्हें संतुष्ट कर देगा और उस पुण्य के भागी भी वही होंगे। किन्तु ऐसा होना संभव नहीं है। एक व्यक्ति के द्वारा किया हुश्रा धर्म या अर्धम, दूसरे व्यक्ति को फल प्रदान नहीं कर सकता। अगर ऐसा होने लगे तो पाप-पुण्य की व्यवस्था में श्रामूल-मूनं अव्यवस्था उत्पन्न हो जायगी। मूलः-न तस्स दुक्खं विभयंति नाइयो,
न मित्तवग्गां न सुया न बंधवा । इक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं,
कतारमेन अणुजाइ कम्मं ॥ २४ ॥ - छाया-न तस्य दुःखं विभजन्ते ज्ञातयः न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः ।
. एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं, कंतरमेवानुयाति कर्म ॥२५॥ शब्दार्थः-उस पाप कर्म करने वाले के दुःख को ज्ञाति-जन नहीं बाँट सकते और न मित्र-मंडली, पुत्र-पौत्र और भाई-बंद ही बाँट सकते हैं। पाप-कर्म करने वाला स्वयं ही अकेला दुःख भोगता है; क्योंकि कर्म, कर्ता का ही अनुसरण करता है।
भाष्यः-पहले यह बताया था कि दूसरों के लिए अथवा अपने तथा दूसरे के लिए किये हुए कर्म का फल अकेले कर्ता को ही भोगना पड़ता है। यहाँ उसी अभिप्राय को सामान्य रूप से कथन करके पुष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जाति के लोग, मित्र लोग, पुत्र-पौत्र श्रादि कुटुम्बीजन तथा अन्य भाई-बंद पाप का श्राचरण . करने वाले के दुःखों का चटवारा करने में समर्थ नहीं है। कर्म कर्ता स्वयं ही पाए कर्म जन्म दुःख को भोगता है क्योंकि कर्म अपने कर्ता का ही पीछा करते हैं। कहा
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- कर्म निरूपण
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[ १२० ]
स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं मोक्षञ्च गच्छति ॥ अर्थात:-आत्मा स्वयं-अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उस कर्म का फल भोगता है । अकेला ही संसार में भ्रमण करता है और मोक्ष प्राप्त करता है। ..
जब बन्धु-वान्धव सांसारिक पदार्थों में हिस्सा बँटा लेते हैं तब वे दुःख में हिस्सा क्यों नहीं बँटा सकते ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि श्रात्मा का संसार के किसी भी जड़ या चतन पदार्थ के साथ वास्तविक सम्बन्ध नहीं है । श्रात्मा एकाकी है-अद्वितीय है। उसका चेतनामय स्वभाव ही अपना है और स्वभाव के सिवाय अन्य सय विभाव है। विभाव पर-वस्तु है और पर-वस्तु का संयोग विनश्वर है-सदा काल स्थायी नहीं है। उस संयोग को मोही जीव नित्य-सा मान बैठता है। यह उसका घोर अज्ञान है और यह अज्ञान ही दुःखों का मूल है। क्योंकि पर वस्तु का संयोग विनश्वर होने के कारण सदा टिक नहीं सकता । उसका अन्त अवश्य होता है और मोही जीव उसके अन्त से दुःखी होता है । फिर भी संयोग अपने स्वभाव के अनुसार नष्ट हुए बिना रह नहीं सकता। यही कारण है कि श्रायु पूर्ण होने पर यह शरीर भी जीव से अलग हो जाता है। ऐसी दशा में भला अन्य पदार्थ कैसे साथ दे सकते हैं ? प्राचार्य श्रमितगति कहते हैं
यस्यास्ति नैक्यं वपुषाऽपि सार्धम् , तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्र ? पृथकृते. चर्मणि रोपकूपाः, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ? ॥
अर्थात् शरीर के साथ भी जिसकी एकता नहीं है, उसकी पुत्र, पत्नी और मित्रों के साथ क्या कभी एकता होना संभव है ? शरीर में से यदि चमड़ी को अलग कर दिया जाय तो उस पर लगे हुए रोम-बाल क्या शरीर में टिके रह सकते हैं ? कदापि नहीं।
तात्पर्य यह है कि जैसे चमड़ी पर श्राधित रोम, चमड़ी हट जाने पर शरीर में नहीं रह सकते इसी प्रकार शरीर के जुदा हो जाने पर पुत्र-कलत्र श्रादि के साथ भी संयोग स्थिर नहीं रह सकता, क्योंकि यह पुत्र है, यह पिता है, यह पत्नी है, यह पति है, इत्यादि सम्बन्ध शरीर पर ही आश्रित है । यह सब सांसारिक सम्बन्ध शरीर के निमित्त से ही उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार जब भाई-बन्द का संयोग शरीर पर श्राथित है और इस जन्म का शरीर इसी जगह रह जाता है-वह साथ में जाता नहीं है, तब पुत्र-कलन श्रादि दुःख में भाग चटाने के लिए कैसे साथ जा सकेंगे ? इसीलिए भगवान् ने स्वयं यह उपदेश दिया है
अभागमितमि वा दुहे, अहवा उक्कमिते भवतिए।
पगस्स गती य यागती, विदुमंता सरणं न मनाई . अर्थात् जब प्राणी के ऊपर दुःख पाता है तब वह उसे अकेला ही भोगता है. तथा उपक्रम के कारण भूत विष शस्त्र प्रादि से श्रायु नष्ट होने पर अथवा यथाकाल
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द्वितीय अध्याय
[ १२१ ]
मृत्यु उपस्थित होने पर जीव अकेला ही परलोक जाता है और परलोक से अकेला
श्राता है। ऐसा जानकर विद्वान पुरुष किसी को अपना शरण नहीं समझता । विवेकीजन कभी यह नहीं सोचते कि कोई मेरे कर्मोदय जन्य फल में भाग लेगा ।
मूलः - चिच्चादुपयं च चउप्पयं च
सम्म
वित्तं सिंहं धणधरणं च सव्वं । सो पाइ,
परं भवं सुन्दरं पावगं च ॥ २५ ॥
छाया:- त्यक्त्वा द्विपदं चतुष्पदं च, क्षेत्रं गृहं धनधान्यं च सर्वम् । स्वकर्मद्वितीयोऽवशं प्रयाति परं भवं सुन्दरं पापर्क वा ॥ २५ ॥ शब्दार्थः--यह जीव द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्र, गृह, धन-धान्य आदि समस्त पदार्थों को छोड़ कर, सिर्फ अपने कर्मों के साथ, पराधीन होकर उत्तम या अधम- - स्वर्ग या नरक आदि -- लोक को प्रयास कर जाता है
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भाग्य:- सूत्रकार ने यहां परिग्रह की पृथक्ता दिखलाते हुए अपने किये हुए कर्मों का साथ जाना प्रगट किया है । संसारी जीव मोह का मारा दिन-रात धनसम्पत्ति संचित करने में लगा रहता है। संपत्ति का संग्रह करने के लिए वह अपनी पद - मर्यादा को भी भूल जाता है और येन-केन-प्रकारेण अधिक से अधिक संचय करने का प्रयत्न करता है । वह लोभ से इस प्रकार ग्रसित हो जाता है कि अल्पप्रारंभ और महा-प्रारंभ का तनिक भी विचार नहीं करता। धन जोड़ने के लिए यह मोही जीव हिंसा करता है, त्रस और स्थावर प्राणियों के प्राण लूटता है, असत्य आपण करता है, चोरी करता है । कोई अपने प्राणों की भी परवाह न करके पैसे के लिए युद्ध में लड़ने जाता है, कोई डाका डालता है, कोई सट्टा आदि नाना प्रकार का जुआ खेलता है, कोई पन्द्रह कर्मादानों का सेवन करता है । धन के लिए कोई अपने से अधिक धनवान् की चाकरी स्वीकार है । पद-पद पर अपमान सहन करता है । देश विदेशों में भ्रमण करना है । समुद्र- यात्रा करता है । अपने प्राणों को हथेली पर रखकर अत्यन्त साहसपूर्ण कार्य करता है । सारांश यह है कि परिग्रह के पाश में जकड़ा हुआ मोही जीव धन-सम्पत्ति का संग्रह करने के लिए सब प्रकार के निंदनीय कार्य करने पर उतारू रहता है । जगत् में जितने भीषण पाप होते हैं वे सब के सब प्रायः परिग्रह के लिए ही होते हैं । परिग्रह के लिए मनुष्य सदा श्राकुल- व्याकुल बना रहता हैं । यद्यपि प्रयत्न करने पर भी लाभ उतना ही होता है जितना लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम हो, किन्तु मनुष्य को जरा भी संतोष श्रौर साता नहीं है । लखपति करोड़पति बनना चाहता है । मकान वाला महल बनवाना चाहता है | अकेला आदमी कुटुम्ब की सेना तैयार करना चाहता है । प्राप्त वस्तुओं में किसी को संतोष नहीं है । पर इन सब पदार्थों का अन्त में परिणाम क्या है ? क्या यह सब पदार्थ
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कर्म निरुपण
[ १२२ ]
गगन
किसी भी जीव को अन्त तक सदा काल सुख देते हैं ? क्या कोई द्विपद अर्थात् स्त्री, पुत्र, मित्र, दास-दासी. श्रादि किसी के साथ कभी जाते हैं ? गाय, भैंस, बैल, घोड़ा श्रादि चौपाये क्या परलोक की यात्रा करते समय एक कदम भी साथ दे सकते हैं ? कोसों तक चारों दिशाओं में फैले हुए नेत प्राणान्त के समय किस काम आते हैं ? -स्पर्शी महल और हवेली को परलोक जाते समय कौन अपने साथ ले जाता हैं ? धन-धान्य से भरे हुए कोठों में के धान्य का एक भी कण क्या परलोक की महा यात्रा में पाथेय-भाता-बन सकता है ? अत्यन्त परिश्रमपूर्वक उपार्जन किया हुआ कौन-सा पदार्थ श्रात्मा के साथ परलोक में जाता हैं ? कुछ भी नहीं । सब पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं । श्रात्मा सब पदार्थों को त्याग कर जैसा अकेला उत्पन्न हुआ था ही अकेला रवाना हो जाता है ।
वैना
परलोक-गमन करते समय इसलोक का एक भी कण आत्मा के साथ नहीं गया, न जाता है और न कभी जायगा । यह जीव सदव इस अटल सत्यं का साक्षात्कार कर रहा है फिर भी मोह की प्रबलता के कारण उसे प्रतीति नहीं श्राती ! सचमुच, मोह के पाश बड़े भयंकर हैं। मोह का अंधकार श्रद्भुत है, जिसके कारण जीव आंखें रहते भी श्रंधा बना हुआ है, सत्य सामने रहते भी उसे दिखाई नहीं देता । मोह की मदिरा में साधारण चमत्कार है, जिसके प्रभाव से जीव सत्-असत् का भान अनादिकाल से भूला हुआ है ।
हां, परलोक का दीर्घ प्रवास करने को उद्यत हुए जीव के लाथ सिर्फ एक ही वस्तु जाती है । सूत्रकार कहते हैं - 'सकम्मबीओ' अर्थात् अपने किये हुए शुभअशुभ कर्म ही सिर्फ उसके साथी होते हैं। वह अपने कर्मों को साथ लेकर ही पर-लोक जाता है । श्रतएव सुख के श्रभिलापी पुरुषों को सोचना चाहिए कि यह लोक तो बहुत थोड़े-से समय का है और परलोक बहुत अधिक लम्बे समय तक चलना है । इसलिये इस लोक को परलोक के सुखों का साधन बनाना चाहिए । इसलोक पर परलोक को न्यौछावर नहीं करना चाहिए, वरन् परलोक को सुधारने के लिए इसलोक के विषयजन्य सुखों का परित्याग करना चाहिए ।
-यह जीव पराधीन होकर परलोक जाता है। यहां 'पराधीन' सूत्रकार कहते हैंकहने का प्रयोजन यह हैं कि मोदी जीव परलोक में भोगने योग्य सुख -सामग्री का संग्रह तो करता नहीं है, सिर्फ इसी लोक के लिए धन-धान्य आदि का संग्रह किया करता है । ऐसी अवस्था में वह इस धन-धान्य आदि परिग्रह को त्याग कर जाना नहीं चाहता, फिर भी श्रायु के क्षय हो जाने पर उसे जाना पड़ता है । वह जाने के लिए बाध्य हो जाता है इसलिए 'श्रवसो पयाई' कहा गया है। इसके विपरीत जो पुण्यशाली पुरुष हसलोक को परलोक के सुखों का साधन बना लेते हैं और धर्माचरण करके श्रागामी भव के लिए सुख की सामग्री इकट्टी कर लेते हैं, उन्हें श्रन्त समय में, इस भय का त्याग करते समय रंच मात्र भी खेद नहीं होता ! मृत्युका मित्र की भांति स्वागत करते हैं क्योंकि वह परलोक में पहुंचा कर किये हुए धर्मा
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द्वितीय अध्याय
[ १२३ ]
चरण का फल भोगने का अवसर देती है । अतः धर्मात्मा जीव मृत्यु के समय भी निराकुल रहता है, जब कि वर्त्तमान भव को ही सब कुछ समझने वाला जीव मृत्युकाल उपस्थित होने पर व्याकुल, क्षुब्ध और संक्लेश परिणाम से युक्त हो जता है ।
ऊपर के कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्माचरण करने वाला व्यक्ति मृत्यु के समय भी शान्त रहता है और मृत्यु के पश्चात् परलोक से भी उसे अनुपम शान्ति और सुख की प्राप्ति होती है । श्रतएव विवेकशील पुरुष वर्त्तमान को ही सब कुछ मान कर श्रीचरण नहीं करता, बल्कि वह भविष्य काल का खयाल रखता है और प्रत्येक क्रिया करते समय इस बात को सोच लेता है कि-'मेरी सुदीर्घ संसारयात्रा में यह जीवन एक छोटा-सा पड़ाव है— मात्र चिड़िया रैन बसेरा है । एक 'नवीन प्रभात शीघ्र ही उदय होगा और उसके उदय के साथ ही मेरी यात्रा फिर 'श्रारम्भ हो जायगी ।' ऐसा सोच कर वह अगली यात्रा का सामान तैयार करता है ।
तात्पर्य यह हैं कि संसार के सभी पदार्थ यहीं रह जाते हैं, सिर्फ किये हुए कर्म साथ जाते हैं । कर्म बिना भोगे जीव का पिंड नहीं छोड़ते । कहा भी है: -
आकाशमुत्यततु गच्छतु वा दिगन्त, सम्मोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेच्छ । जन्मान्तरार्जित शुभाशुभकृन्नराणां छायेव न त्यजति कर्म-फलानुबन्धः ॥
अर्थात:- जीव चाहे आकाश में चला जाए, चाहे दिशाओं के अन्त में चला जाए, चाहे वह समुद्र के तल में छिप जाए चाहे और किसी सुरक्षित स्थान में चला जाए, परन्तु पूर्व जन्म में उपार्जन किये हुए शुभ - अशुभ कर्म परछाई की नाई उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं । कर्मों का फल भोगे बिना कोई किसी भी अवस्था में छुटकारा नहीं पा सकते हैं । अतएव कर्मों का उपार्जन करते समय यह भी सोच लेना चाहिये कि इस कर्म का फल मुझे किस रूप में भुगतना पड़ेगा ! जो बुद्धिमान् पुरुष अपनी अपनी प्रत्येक क्रिया के फल का विचार पहले कर लेते हैं वे अनेक पापों से चच जाते हैं ।
मूलः - जहा य चंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमवे मोहाययणं खुतराहा, मोहं च तरहाययणं वयंती ॥२६॥
छाया:-यथा च श्रण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च । एवमेव मोहापतनं खलु तृष्णा, मोहं च वृष्णायतनं वदन्ति ॥ २६ ॥
शब्दार्थः — जैसे अण्डे से बगुली उत्पन्न होती है और बगुली से अंडा उत्पन्न होता है उसी प्रकार मोह से तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा से मोह उत्पन्न होता है ।
भाष्यः- सामान्य रूप से कर्मों के फल का निरुपण करने के पश्चात् यहाँ मोह कर्म की उत्पत्ति का कारण बतलाया गया है, क्योंकि मोह कर्म कर्मों में प्रधान है। वह कर्मों का राजा
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जैसे वगुली से अंडा उत्पन्न होता है और अंडे से बंगुली उत्पन्न होती है
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[ १२६ ]
कर्म निरूपण
इस प्रकार कर्म में और मोह में परस्पर प्रभयमुख कार्य-कारण भाव सिद्ध होता है। इस समय जो मोहनीय कर्म का उदय होता है उससे अनुकूल समझने वाले पदार्थों पर राग-भाव उत्पन्न होता है और प्रतिकूल प्रतीत होने वाले पदार्थों पर हैप-भाव उत्पन्न होता है । यह दोनों प्रकार के भाव कपाय रूप होने के कारण कर्मबंध के कारण हैं अतः इनसे मोहनीय कर्म का बंध होता है । इस प्रकार भाव कर्म से द्रव्य कर्म उत्पन्न होता है और द्रव्य कर्म उदय में आकर भाव कर्म का कारण हो जाता है । कार्य-कारण का प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है । इसी प्रवाह में संसारी जीव बहता जाता है और उसे कहीं ठहरने का ठिकाना नहीं मिलता । इसी कारण सूत्रकार ने कहा है- 'कम्मं च जाईमरणस्स मूलं' अर्थात् जन्म और मरण का मूल कारण कर्म ही है ।
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इन्द्रियों और शरीर आदि के संयोग को जन्म कहते हैं और इनके वियोग को मृत्यु कहते हैं । श्रात्मा स्वरूप से श्रमूर्त्तिक है, वह पांचों इन्द्रियों से भिन्न हैं. मन, वचन और काय रूप तीनों बलों से सर्वथा भिन्न है, श्वासोच्छ्लास सक तथा श्रायु से भी सर्वथा भिन्न है । अतएव शुद्ध नय की अपेक्षा आत्मा इन प्राणों से अतीत श्ररूपी, चेतनामयी कौर अमृत तत्त्व है । जन्म-मरण उसे स्पर्श भी नहीं कर सकते | जन्म मरण से अछूता होने के कारण दुःखों से भी वह सर्वथा मुक्त हैं । श्रनन्त सुख श्रात्मा का स्वरूप है और जहां अनन्त सुख का सागर भरा है वहां दुःख की पहुंच नहीं हो सकती । इस कारण आत्मा अपने स्वरूप से दुःखमय नहीं है । वह शरीर है । उसका किसी भी अचेतन या चेतन पदार्थ से कुछ भी सरोकार नहीं है । वह अन्य पदार्थों से संबद्ध और श्रलिप्त है । परमानन्द और चित् चमत्कार श्रात्मा का स्वभाव है । किन्तु जैसे सोना स्वभावतः निर्मल और चमकीला होने पर भी खान मैं जब तक पड़ा रहता है तब तक वह अंतरंग और बहिरंग मल से मलीन बना रहता हैं और जब अग्नि में तपाया जाता है तब निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा स्वभाव से अमर होने पर भी जब तक कर्म के वशीभूत हो रहा हैं तब तक जन्ममरण के दुःखों को भोगता हैं और अनेक प्रकार के विकारों से युक्त वन रहा है, किन्तु जब तपस्या की श्राग में उसे तपाया जाता है तब उसके समस्त विकार - द्रव्य कर्म और भाव कर्म-भस्म हो जाते हैं और श्रात्मा श्रपने स्वाभाविक रूप में श्राकर चमकने लगता है - श्रर्थात् अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन की लौकिक और श्रद्भुत ज्योतियों से प्रकाशमान हो जाता है। उस समय वह जन्म-मरण के दुःखों से. छूट कर अमर बन जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्म का विनाश होने पर दुःख का स्पर्श नहीं होता ।
दुःख का कारण राग-द्वेष रूप विभाव परिणति हैं । किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि जीव की राम श्रादि रूप विभाव परिणति स्वयं नहीं होती है । यदि रागद्वेष श्रादि विभाव स्वतः उत्पन्न हो तो वे ज्ञान दर्शन के समान ही स्वभाव हो जाएंगे, और स्वभाव होने के कारण उन्हें अविनाशी मानना होगा तथा मुक्त दशा में भी उन की सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी । श्रतएव राग-द्वेष आदि श्रीपाधिक है
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द्वितीय अध्याय .. ... ... .
. [ १२७ निमित्त से उत्पन्न होते हैं। यह निमित्त कारण सूत्रकार ने यहां कर्म बतलाया है । ज्यों-ज्यों कर्म उदय अवस्था में आते हैं त्यों-त्यों श्रात्मा रागादि रूप विभाव परिणमन से युक्त बनता है। इस प्रकार कर्म ही विभाव परिणति का कारण है। . . . .
कर्म में अनन्त शक्तिशाली आत्मा को राग द्वेष श्रादि रूप विभावों में परिणत कर देने की शक्ति है, यह पहले बताया जा चुका है । वास्तव में कर्मों में यह शक्ति जीव के निमित्त से ही आती है । जैसे किसी मनुष्य पर मंत्र-जाप पूर्वक धूल डाली जाती है तो वह मनुष्य अपने आप को भूल कर नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने लगता है क्योंकि मंत्र के प्रभाव से उस धूल में भी ऐसी शक्ति पा जाती है कि वह चतुर से चतुर मनुष्य को भी पागल बना देती है, इसी प्रकार श्रात्मा के राग द्वेष आदि रूप विभाव परिणामों के निमित्त से पौद्गलिक कर्मों में भी ऐसी शक्ति पा जाती हैं कि वे आत्मा को जन्म-मरण आदि के दुःख देने में समर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार राग
आदि रूप भाव-कर्म द्रव्य कर्म को और द्रव्य कर्म भाव कर्म को उत्पन्न करते रहते हैं। यही अभिप्राय सूत्रकार ने यहां सूचित किया है।
... यहां जन्म-मरण को. दुःख कहा है । इस पर यह आशंका की जा सकती है कि जगत् में क्या जन्म-मरण के अतिरिक्त और कुछ दुःख रूप नहीं है ? इष्ट-वियोग और अनिष्ट संयोग दुःख रूप हैं, फिर जन्म-मरण को ही दुःख क्यों कहा ? इसका समाधान यह है कि इष्ट-वियोग और अनिष्ट संयोग आदि जन्म-मरण की वजह से ही होते हैं। जिसने जन्म-मरण को जीत लिया है उसे यह अथवा अन्य किसी भी प्रकार का दुःखं होना संभव नहीं है । जन्म-मरण ही संसार है और जिसे संसार से मकि मिली वह सभी दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। इसी कारण सूत्रकारने जन्म मरण को ही दुःख रूप प्रतिपादन किया है।
संसारी जीव मोह के कारण, दुःख से छूटने की इच्छा रखते हुए भी ऐसा विपरीत आचरण करते हैं जिससे दुःख अधिकाधिक बढ़ता जाता है। इस दयनीय दशा को दूर करने के लिए दयासिन्धु शास्त्रकार ने ठीक मार्ग बताया है। राग और द्वेष ही दुःख के जनक है अतएव जितने अंशों में पर-पदों से राग-द्वेष कम होता जायगा उतने ही अंशों में दुःखं घटता चला जायगा। इसी कारण शास्त्रों में कहा हैं कि मोहनीय कर्म का समस्त रूप से क्षय होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही अनन्त सुखं आत्मा से प्रकट हो जाता है । इसलिए प्रत्येक सुखाभिलाषा को राग-द्वेष का विनाश करने की सतत चेष्टा करनी चाहिए।
मध्यस्थ भावना का अभ्यास करने से राग-द्वेष में न्यूनता पाती है। इन्द्रियों को रुचिकर प्रतीत होने वाले पदार्थों में और अरुचिकर प्रतीत होने वाले पदार्थो में समता-भाव रखना ही मध्यस्थ भावना है । जैसे रंगमंच पर होने वाले अभिनय का दर्शक पुरुष, अभिनेताओं की नाना चेष्टाओं को देखता हुआ भी उन्हें काल्पनिक ही समझता है उसी प्रकार इस पृथ्वी रूपी रंगमंच पर होने वाले नाटक के अभिनेताओं की अर्थात् जीवों की चेष्टाओं को तथा जड़ पदार्थों के नाना भाँति परिणमन को देखता
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Aone
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। १२८ ]
कर्म निरूपण हुश्रा भी विवेकी पुरुष इसमें हर्ष-विपाद का अनुभव नहीं करता है।
यद्यपि राग-द्वेष को जीतना सरल नहीं है, क्योंकि जिन योगियों ने चिरकाल पर्यन्त साधना करके अपने अन्तःकरण को आत्मा की और उन्मुख कर लिया है श्रात्मा में डुबा लिया है-उन योगियों का अन्तःकरण भी कभी-कभी राग-द्वेष और मोह के प्रबल आक्रमण को सहन करने में असमर्थ हो जाता है । अत्यन्त सावधानी के साथ अन्तःकरण की चौकसी करने पर भी क्षण मात्र के लिए भी प्रमाद श्राजाने पर उसी समय राग-द्वेय उस पर हमला कर देते हैं। राग द्वेष का हमला यदि प्रबल होता है और उसे तत्काल हटा नहीं दिया जाता तो वह मन को ज्ञान हीन बना डालता है और अन्त में लेजाकर नरक में गिरा देता है। श्रपतव योगीजन राग-द्वेष से सदैव सावधान रहते हैं। वे सिंह, व्याघ्र और सर्प आदि प्राणहारी पशुओं से उतने भयभीत नहीं होते जितने राग और द्वेप से भयभीत होते हैं। क्योंकि सिंह आदि पशु केवल शरीर को ही हानि पहुँचाते हैं, जब कि राग-द्वेय अन्तःकरण को मलीनकर संयम की साधना को भी मिट्टी में मिला देते हैं । हिंसक पशु किसी को नरक-निगोद में नहीं भेज सकते, किन्तु राग-द्वेप नरक और निगोद में ले जाते हैं
और श्रात्मा के सर्वस्व के समान स्वाभाविक गुणों को लुट लेते हैं । राग-द्वेष ही मोक्ष में बाधक हैं। काम नादि अन्यान्य दोप राग के अनुचर है-राग के सहारे ही अपना प्रभाव दिखलाते हैं। मिथ्या अभिमान श्रादि दोप द्वेष के अनुगामी हैं। इन . दोनों का जनक मोह है । यह सब मिलकर जीव को संसार-सागर में गोते खिला रहे है। ऐसी अवस्था में इन पर विजय प्राप्त करना ही मुमुक्षु जीवों का प्रधान कर्तव्य हैं। जैसा कि अभी कहा है, मध्यस्थ भावना के द्वारा ही इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है। मध्यस्थ भावना अक्षय प्रानन्द को उत्पन्न करती है। समता के इस सुधामय सरोवर में अवगाहन करने वालों के राग-द्वेप रूपी मल निर्मूल हो हो जाता है। साम्यभाव की बड़ी महिमा हैं। अनेक वर्षों तक तीव्र तपश्चरण करने से भी जितने कर्मों की निर्जरा नहीं हो पाती, उतने कर्म एक क्षण भर के समता-भाव से नष्ट हो जाते हैं।
साम्यभाव के अवलम्बन से जब राग और द्वेष का नाश हो जाता है तब महामुनिजन अपने प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन करते हैं। चे समता रूपी सुधा का पान करके अजर-अमर-अविनाशी बन जाते हैं। उनकी श्रात्मा इतनी प्रभावशाली हो जाती है कि स्वभाव से विरोधी सर्प और न्यौला जैसे जीव भी उसके समीप अपने वैर को भूल जाते हैं। समता-भाव का यह माहात्म्य है। श्रतएव समता का श्राश्रय लेकर राग और द्वेष को जीतना चाहिए । राग-द्वेय को जीतने से जन्म-मरण रूप दुःख का सर्वधा नाश हो जाता है और श्रात्मा अपने असली स्वरूप में श्रा जाता है। मूलः-दुक्खं हयं जस्त न होइ मोहो,
मोहो झो जस्त न होइ तणहा ।
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द्वितीय अध्याय
[ १२६ } तणहा हया जस्स न होइ लोहो,
- लोहो हो जस्स न किंचणाई ॥२॥ छाया:-दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा ।
तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, लोभो हतो यस्य न किल्चन ॥ २८ ॥ शब्दार्थः-जिसने दुःख का नाश कर दिया है उसे मोह नहीं होता है । जिसने मोह का नाश कर दिया है उसे तृष्णा नहीं होती है। जिसने तृष्णा का नाश कर दिया है उसे लोभ नहीं होता है । जिसे लोभ नहीं रहता वह अकिंचन बन जाता है ।
भाष्य-पूर्व गाथा में जन्म-मरण रूप दुःख का कारण कर्म कहा है । अर्थात् कर्म कारण है और दुःख कार्य है। यहाँ कार्य अर्थात् दुःख में कारण का अर्थात् कर्म का आरोप करके, कर्म को ही दुःख कहा है। वास्तव में कर्म दुःख रूप भी है, अतएव कर्म को दुःख कह देना उचित है। अतएव जिसने साम्यभाव रूप संवर का अवलंबन करके कर्म को जीत किया है वह मोह को भी जीत लेता है-अर्थात राग-द्वेष का अन्त कर देता है । और जिसने राग-द्वेष को जीत लिया है उसकी तृष्णा अपने आप समाप्त हो जाती है, क्योंकि जर किसी भी पदार्थ के उपर राम भाव नहीं रहता तब उसे पाने की अभिलाषा भी नहीं रहती है और अभिलाषा ही तृष्णा है। तृष्णा का जब अंत हो जाता है तब संचित पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिए जीव में व्याकुलता नहीं रहती अर्थात् लोभ का भी अंत हो जाता है । लोभ का अन्त होने पर कोई भी विकार शेष नहीं रह पाता है।
दशवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का अस्तित्व रहता है । आत्मा जब दसर्व गुणस्थान से भागे बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करने लगता है उसी समय लोभ का सर्वथा क्षय हो जाता है । समस्त विकारों को उत्पन्न करने वाले मोहनीय कर्म की सेना का सबसे अंतिम सैनिक लोभ ही है । अन्यान्य सैनिकों का क्षय इससे पहले ही हो चुकता है । यह लोभ सब से अन्त में नष्ट होता है। अतएव सूत्रकार कहते हैं. कि "लोहो हो जस्स न कि चिणाइ ' अर्थात् जिसने लोभ रूपी अंतिम योद्धा को परास्त कर दिया, उसे फिर किसी को परास्त करने के लिए शक्ति नहीं लगानी पड़ती। लोभ-विजयी महात्मा शीघ्र ही बारहवें गुणस्थान में पहुंचकर अप्रतिपाती
और पूर्ण वीतराग बन जाते हैं । उस समय कर्म-कृत कोई भी विकार उन्हें स्पर्श नहीं करता । बारहवें गुणस्थान में भी वे महात्मा अन्तर्मुहर्त ही ठहरते हैं और फिर तेरहवें गुणस्थान में पहुंचते ही जीवन्मुक्त, सशरीर परमात्मा, अर्हन् , सर्वज्ञ और ' सर्वदर्शी बन कर अन्त में सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाते हैं।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन-द्वितीय अध्याय
समाप्त
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. * ॐ नमः सिद्धेभ्य * नित्य वचन .. ॥ तृतीय अध्याय ॥
धर्म स्वरूप वर्णन
श्री भगवानुवाचमूलः-कम्माणं तु पहाणाए, प्राणुपुवी कयाइ उ ।
जीवा सोहिमणुपत्ता, बाययंति मणुस्सयं ॥ १ ॥
छायाः कर्मणां तु प्रहाण्या, भानुपूर्त्या कदापि तु ।
___जीवाः शुद्धि मनु प्राप्ताः, श्राददते मनुष्यताम् ॥ १॥ .. शब्दार्थः-हे इन्द्रभूति ! अनुक्रम से कर्मों की हानि होने पर जीवं कभी शुद्धता प्राप्त कर मनुष्यता प्राप्त करते हैं। .:. .
भाष्यः-द्वितीय अध्ययन में कर्मों के स्वरूप का निरूपण किया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि कर्मों के प्रभाव से जीव नाना प्रकार के रागादि रूप विभाव परिणामों से युक्त होता है। किन्तु जीव सदा कर्मों के ही अधीन नहीं रहता। है। जीव में भी अनन्त शक्ति है अतएव जब क्रम से धीरे-धीरे कर्मों की न्यूनता होती है अर्थात् उनकी शक्ति घट जाती है तब जीव में शुद्धता की वृद्धि होती है और शुद्धता बढ़ जाने पर उसे मनुष्य भव की प्राप्ति होती है। ... · संसार में हम अनेक जीव-योनियां प्रत्यक्ष देखते हैं। लाखो प्रकार की वनस्पति रूप योनि, लाखों कीट-पतंग, लट, कीड़े-मकोड़े श्रादि-श्रादि की योनियां हैं। फिर उनसे कुछ चढ़ते हुए गाय, भैंस, हिरन, बकरा, मेढ़ा, घोड़ा, गधा, खच्चर, सिंह, व्याघ्र, शृगाल आदि चौपाये और कौवा, कबूतर, तोता, मैना, तीतर, मुर्गा, हंस आदि-श्रादि पक्षी जगत् में असंख्य प्रतीत होते हैं । यह सब जीव-योनियां ऐसी
जिन्हें हम अनुभव कर सकते हैं। पर अत्यन्त सूक्ष्म जीव भी असंख्य योनियों में, संसार में भरे हुए हैं। इन समस्त योनियों में संसार का. प्रत्येक जीव जाता है। आज हमारी आत्मा मनुष्य योनि में है, पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह सदा ही मनष्य योनि में रही है या रहेगी। नहीं, यह श्रात्मा संसार की समस्त योनियों में अनन्त वार जन्म ग्रहण कर चुका है। अब भी वह कमों की प्रबलता होने पर उन योनियों में जा सकता है । इस प्रकार विचार करने से मालूम होता हैं कि संसार की इन असंख्य योनियों से बच कर, सर्वश्रेष्ट मनुष्य योनि का मिल जाना कितना बड़ा सयोग है ! कितनी अधिक सौभाग्य की निशानी है !
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सृतीय अध्याय
। १३१ ] श्रव्यवहार-राशि-नित्य निगोद जीव की सब से अधिक निकृष्ट अवस्था है। . . उसमें अनन्तानन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने अब तक एकेन्द्रिय पर्याय का कभी त्याग ही नहीं किया है। उन्होंने कभी द्वीन्द्रिय, बीन्द्रिय आदि त्रस अवस्था नहीं पाई है। एक समय ऐसा था, जब हमारी आत्मा भी उन अभाग्यवान् अनन्तानन्त श्रात्माओं में से एक था । उस निगोद अवस्था में इस जीव ने अनन्त समय गवाया है। वहां नियतिवश जन्म-मरण की तथा गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास श्रादि की वेदनाएँ सहन करतेकरते, अनन्त कर्मों की अकाम निर्जरा हो गई । अकाम निर्जरा होने से जीव की शक्ति कुछ अंश में जागृत हुई और वह वहां से निकल कर व्यवहार राशि-इतर निगोद में श्रा गया । व्यवहार-राशि में चिरकाल तक रहने के पश्चात् फिर इस जीव ने अनन्त पुद्गल-परावर्तन पूरे किये हैं । यह परावर्तन या परिवर्तन आठ प्रकार के हैं-(१) द्रव्य पुद्गल परावर्तन (२) क्षेत्र पुनल परावर्तन ( ३) काल पुद्गल परावर्तन और (४) भाव पुद्गल परावर्तन । इन चारों के सूक्ष्म और स्थूल भेद होने ले पुद्गल परावर्तनों की संख्या अाठ हो जाती है । इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए:
- (१) स्थूल द्रव्य पुद्गल परावर्तन-औदारिक, वैक्रियक, तैजस और कार्मण शरीरों के तथा मनोयोग, वचन योग और श्वासोलास के. योग्य जितने समस्त लोकाकाश में परमाणु भरे हैं उन्हें ग्रहण करके पुनः त्यागना द्रव्य स्थूल पुद्गल परावर्तन कहलाता है।
। (२) सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्तन-पूर्वोक्त सातौ प्रकार के पुद्गल परमाणुओं में से प्रथम, लोक के समस्त औदारिक शरीर योग्य परमाणुओं को अनुक्रम से ग्रहण करके त्यगना, फिर लोक के समस्त वैक्रियक शरीर योग्य परमाणुओं को अनुक्रम से ग्रहण करके छोड़ना, इसके बाद फिर इसी प्रकार तैजस और कार्माण शरीर के योग्य समस्त लोकाकाशवर्ती परमाणुओं को क्रमशः ग्रहण करके छोड़ना तत्पश्चात् मनोवर्गणा के समस्त पुद्गलों को अनुक्रण से ग्रहण करके त्यागना, फिर वचन-वर्गणा के
और फिर श्वासोच्लास वर्गणा के सब पुगलों को अनुक्रम से ग्रहण करके त्यागना। इस तरह सातों प्रकार के सब पुद्गलों को अनुकम से, एक-एक के बाद एक-एक को स्पर्श करके ग्रहण करना और त्यागना । अनुक्रम से कहने का तात्पर्य यह है कि कोई जीव औदारिक के पुद्गलों का स्पर्श करते-करते बीच में किसी वैक्रियक आदि अन्य वर्गणा के पुद्गल को ग्रहण करले तो पहले ग्रहण किये हुए वे औदारिक के पुद्गल गिनती में नहीं पाते और न. वैक्रियक . के पुद्गल ही ग्रहण किये हुओं की गणना में आते हैं । किन्तु जिस वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण आरंभ किया है, उसके बीच में किसी भी अन्य वर्गरणा के पुद्गलों को न ग्रहण करके, श्रादि से अन्त तक एक ही वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण हो, उसे सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल-परावर्त्तन कहते हैं। ... (३) स्थूल क्षेत्र पुद्गल परावर्त्तन-जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु पर्वत से, लोक
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
॥ तृतीय अध्याय ||
धर्म स्वरूप वर्णन
श्री भगवानुवाच -
मूलः - कम्माणं तु पहाणार, प्राणुपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुपत्ता, आययंति मणुस्सर्यं ॥ १ ॥
छाया: कर्मणां तु प्रहाण्या, आनुपूर्व्या कदापि तु । जीवाः शुद्धि मनु प्राप्ताः, श्राददते मनुष्यताम् ॥ १ ॥
शब्दार्थ :- हे इन्द्रभूति ! अनुक्रम से कर्मों की हानि होने पर जीव कभी शुद्धत प्राप्त कर मनुष्यता प्राप्त करते हैं
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भाष्यः - द्वितीय अध्ययन में कर्मों के स्वरूप का निरूपण किया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि कर्मों के प्रभाव से जीव नाना प्रकार के रागादि रूप विभाव परिणामों से युक्त होता है । किन्तु जीव सदा कर्मों के ही अधीन नहीं रहता है । जीव में भी अनन्त शक्ति है अतएव जब क्रम से धीरे-धीरे कर्मों की न्यूनता होती है अर्थात् उनकी शक्ति घट जाती है तब जीव में शुद्धता की वृद्धि होती है और शुद्धता चढ़ जाने पर उसे मनुष्य भव की प्राप्ति होती है ।
संसार में हम अनेक जीव-योनियां प्रत्यक्ष देखते हैं। लाखों प्रकार की वनस्पति रूप योनि, लाखों कीट-पतंग, लट, कीड़े-मकोड़े आदि-आदि की योनियां हैं । फिर उनसे कुछ चढ़ते हुए गाय, भैंस, हिरन, बकरा, मेढ़ा, घोड़ा, गधा, खच्चर, सिंह, व्याघ्र, शृगाल आदि चौपाये और कौवा, कबूतर, तोता, मैना, तीतर, मुर्गा, हंस आदि-आदि पक्षी जगत् में असंख्य प्रतीत होते हैं । यह सब जीव-योनियां ऐसी हैं जिन्हें हम अनुभव कर सकते हैं। पर अत्यन्त सूक्ष्म जीव भी असंख्य योनियों में, संसार में भरे हुए हैं । इन समस्त योनियों में संसार का प्रत्येक जीव जाता है । श्राज हमारी श्रात्मा मनुष्य योनि में है, पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह सदा ही मनुष्य योनि में रही है या रहेगी। नहीं, यह श्रात्मा संसार की समस्त योनियों
अनन्त वार जन्म ग्रहण कर चुका है । अब भी वह कर्मों की प्रबलता होने पर उन योनियों में जा सकता है । इस प्रकार विचार करने से मालूम होता है कि संसार की इन असंख्य योनियों से चच कर, सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि का मिल जाना कितना बड़ा सुयोग है ! कितनी अधिक सौभाग्य की निशानी है !
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तृतीय अध्याय
। १३१ ] . अव्यवहार-राशि-नित्य निगोद जीव की सब से अधिक निकृष्ट अवस्था है। उसमें अनन्तानन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने अब तक एकेन्द्रिय पर्याय का कभी त्याग ही नहीं किया है। उन्होंने कभी द्वीन्द्रिय, नीन्द्रिय आदि त्रस अवस्था नहीं पाई है। एक समय ऐसा था, जब हमारी प्रात्मा भी उन अभाग्यवान् अनन्तानन्त आत्माओं में से एक था । उस निगोद अवस्था में इस जीव ने अनन्त समय गवाया है। वहां नियतिवश जन्म-मरण की तथा गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास आदि की वेदनाएँ सहन करतेकरते, अनन्त कर्मों की अकाम निर्जरा हो गई। अकाम निर्जरा होने से जीव की शक्ति कुछ अंश में जागृत हुई और वह वहां से निकल कर व्यवहार राशि-इतर निगोद में श्रा गया। व्यवहार-राशि में चिरकाल तक रहने के पश्चात् फिर इस जीव ने अनन्त पुद्गल-परावर्तन पूरे किये हैं। यह परावर्तन या परिवर्तन पाठ प्रकार के हैं-(१) द्रव्य पुद्गल परावर्तन (२) क्षेत्र पुद्गल परावर्तन ( ३) काल पुद्गल परावर्तन और ( ४ ) भाव पुद्गल परावर्तन । इन चारों के सूक्ष्म और स्थूल भेद होने से पुद्गल परावर्त्तनो की संख्या आठ हो जाती है । इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिएः
. (१) स्थूल द्रव्य पुद्गल परावर्तन-औदारिक, वैक्रियक, तैजस और कार्मण शरीरों के तथा मनोयोग, वचन योग और श्वासोवास के योग्य जितने समस्त लोकाकाश में परमाणु भरे हैं उन्हें ग्रहण करके पुनः त्यागना द्रव्य स्थूल पुद्गल परावतन कहलाता है।
. (२) सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्तन-पूर्वोक्त सातों प्रकार के पुद्गल परमाणुओं में से प्रथम, लोक के समस्त औदारिक शरीर योग्य परमाणुओं को अनुक्रम से ग्रहण करके त्यगना, फिर लोक के समस्त वैक्रियक शरीर योग्य परमाणुओं को अनुक्रम से ग्रहण करके छोड़ना, इसके बाद फिर इसी प्रकार तैजस और कार्मारणं शरीर के योग्य समस्त लोकाकाशवर्ती परमाणुओं को क्रमशः ग्रहण करके छोड़ना तत्पश्चात् मनोवर्गणा के समस्त पुद्गलों को अनुक्रण से ग्रहण करके त्यागना, फिर वचन-वर्गणा के
और फिर श्वासोच्छवास वर्गणा के सब पुद्गलों को अनुक्रम से ग्रहण करके त्यागना। इस तरह सातों प्रकार के सब पुद्गलों को अनुक्रम से, एक-एक के बाद एक-एक को स्पर्श करके ग्रहण करना और त्यागना । अनुक्रम से कहने का तात्पर्य यह है कि कोई जीव औदारिक के पुद्गलों का स्पर्श करते-करते बीच में किली वैक्रियक आदि अन्य वर्गणा के पुद्गल को ग्रहण करले तो पहले ग्रहण किये हुए वे औदारिक के पुद्गल गिनती में नहीं पाते और न. वैक्रियक के पुद्गल ही ग्रहण किये हुओं की गणना में श्राते हैं..। किन्तु जिस वर्गणा के पुद्गलों का · ग्रहण प्रारंभ किया है, उसके बीच में किसी भी अन्य वर्गणा के पुतलों को न ग्रहण
करके, आदि से अन्त तक एक ही वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण हो, उसे सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल-परावर्तन कहते हैं।
(३) स्थूल क्षेत्र पुद्गल परावर्चन- जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु पर्वत से, लोक
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[ १३२ ]
धर्म स्वरूप वर्णनं के अन्त तक, समस्त दिशाओं और विदिशाओं में, बीच में जरा भी अन्तर न रहते हुए, आकाश के समस्त प्रदेशों को जन्म-मृत्यु के द्वारा स्पर्श करना कहीं चालाय जितना स्थान भी न छोड़ना स्थूल क्षेत्र पुद्गल परावर्तन है ।
(४) सूक्ष्म क्षेत्र पुगल परावर्त्तन-लोक में श्राकाश के प्रदेशों की समस्त दिशाओं में असंख्यात श्रेणियाँ - पंक्तियाँ बनी हुई हैं। उन श्रेणियों में से पहले एक श्रेणी का अवलम्बन करके, चीच में एक भी श्राकाश-प्रदेश न छोड़कर, मेरु पर्वत के रुचक प्रदेशों से लेकर लोकाकाश के अन्त तक, अनुक्रण से समस्त प्रदेशों को जन्म मरण के द्वारा स्पर्श करना, फिर दूसरी श्रेणी के समस्त प्रदेशों को पहले की तरह ही स्पर्श करना, और इसी प्रकार असंख्यात श्रेणियों को स्पर्श करना सूक्ष्म क्षेत्र पुलपरावर्त्तन कहलाता है । यहाँ श्रनुक्रम से स्पर्श करने को कहा है सो उसका आशय यह है कि यदि बीच में किसी दूसरी श्रेणी में या कम से भिन्न उसी श्रेणी के किसी अन्य प्रदेश में जन्म-मरण करे तो वह दोनों ही श्रेणियों का जन्म-मरण इस गणना में सम्मिलित नहीं किया जाता ।
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(५) स्थूल काल पुगल परावर्त्तन – (१) समय, (२) श्रावलिका ( ३ ) श्वासोक्लास (४) स्तोक (५) लव ६) मुहूर्त्त (७) श्रहोरात्रि ८) पक्ष (६) महीना (१०) ऋतु (११) अपन (१२) सम्वत्सर (१३) युग (१४) पूर्व (१५) पल्य (१६) सागर (१७ श्रवसर्पिणी (१८) उत्सर्पिणी और (१६) कालचक्र, इस उन्नीस प्रकार के काल को जन्ममरण के द्वारा स्पर्श करना स्थूल काल पुद्गल परावर्तन कहलाता है ।
(६) सूक्ष्म काल पुनल परावर्त्तन - जय अवसर्पिणी काल का श्रारंभ होतो उसके प्रथम समय में जन्म लेकर, आयु पूर्ण कर, मृत्यु को प्राप्त हो; फिर दूसरी बार व सर्पिणी काल प्रारंभ होने पर उसके दूसरे समय में जन्म लेकर मरे । फिर तीसरी बार, फिर चौथीवार, इसी प्रकार असंख्यात वार असंख्यात अवसर्पिणी कालों में अनुक्रम से जन्म लेवे । श्रसंख्यात वार जन्म लेने पर जब श्रावलिका काल लग जाय तच पूर्वोक्त रीति से प्रथम अवसर्पिणी की प्रथम आवलिका में दूसरी अवसर्पिणी की दूसरी श्रावलिका में इस प्रकार अनुक्रम से जन्म ले ले कर मरे । जब श्वासोलास का समय लग जाय तो इसी प्रकार अनुक्रम से श्वासोवाल को पूर्ण करे और इसी प्रकार स्तोक, लव मुहूर्त्त आदि पूर्वोक्त उन्नीस में से सत्तरह को क्रम क्रम से स्पर्श करे । बीच में यदि अन्य काल में कभी जन्म ले ले तो वह काल गिना नहीं जाता । यह सूक्ष्म कील पुल परावर्त्तन है ।
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(७) स्थूल भाव पुंगले परावर्त्तन - पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और घाट स्पर्श, इन वीस प्रकार के पुगलों को स्पर्श करना स्थूल भाव पुद्गल परावर्त्तन है ।
(८) सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त्तन - उक्त चसि प्रकार के पुद्गलों में से सर्वप्रथम एक गुण काले वर्ण के पुलों को ग्रहण करके त्यागे, फिर दो गुण काले वर्ण के पुलों को ग्रहण करके छोड़े, इसी प्रकार अनुक्रम से अनन्तगुण काले वर्ण को ग्रहण करके त्यागे । फिर एक गुण हरित वर्ण को दो गुण हरित वर्ण को यावत् अनन्तगुण हरित
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तृतीय अध्याय
[ १३३ । चर्ण को ग्रहण करके त्यांगे। इसके बाद एक गुण आदि के इसी क्रम से पांचो वा को, दोनों गंधों को, पांचों रसों को और आठो स्पर्शों को अनुक्रम से ग्रहण करके त्याग करे । इसे सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्तन कहते हैं।
. इन आठो पुद्गल-परावर्तनों के समूह को एक पूर्ण पुदगल परावर्तन कहते हैं। ऐसे-ऐसे अनन्त पुद्गल-पगर्तन इस जीव ने किये हैं। एक- एक पुद्गल-परावर्त्तन को पूर्ण करने में असंख्य अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल समाप्त हो जाते हैं।
संभव है, इतनी लम्बी काल-गणना को पढ़ कर कुछ संकुचित मस्तिष्क वाले उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखें, मगर जरा महराई के साथ विचार करने पर इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा। जर जीव अनादिकाल से है और सकाल भी अनादिकालीन है तथा जीव संसार भ्रमण भी अनादिकाल से कर रहा है, तब इतना लस्बा प्रतीत होने वाला समय क्या आश्चर्यजनक है ?
इस अत्यन्त लरुवे असे में संसारी जीव जन्म-मरण करते-करते असहा वेदनाएं भोग चुकता है । अकाम निर्जरा होने से पाप-कर्म शिथिल हो जाने से तथा पुण्य के दलिक बढ़ जाने से, जब अनन्त पुण्य संचित हो जाता है, तर अनन्त कार्माण-वर्गणा खपाने वाला और मोक्ष-गमन योग्यता उत्पन्न करने वाला, सोक्ष मार्ग की साधना में सहायता देने वाला मनुष्य जन्म प्राप्त होता है।
ऊपर नित्यनिगोद और इतरनिगोद का जो उल्लेख किया गया था उससे यह नहीं समझना चाहिए कि जीव इतर निमोद से सीधा ही मनुष्यभव प्राप्त करलेता है। उल्लिखित पुद्गल-परावर्तनों के समय वह विभिन्न-विभिन्न योनियों में जन्म लेता
और मरता रहता है । अनंत काल पर्यन्त नित्य निगोद में रहने के बाद, अकाम निर्जरा के प्रभाव से, अनन्त पुण्य की वृद्धि होने पर जीव इतरनिगोद की अवस्था में
आता है । फिर अनन्त पुण्य की वृद्धि होने पर, सूक्ष्म अवस्था से वादर अवस्था पाता है । वादर अवस्था में पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय श्रादि पांच एकेन्द्रिय स्थावरों के रूप में चिरकाल पर्यन्त रहता है । अर्थात् वनस्पति काय में अनन्त और शेष चार स्थावरों में असंख्यात काल व्यतित करता है । स्थावर काय में भी अकाम निर्जरा के प्रभाव से अनन्त पुण्य की वृद्धि होने पर फिर कहीं नस पर्याय की प्राप्ति होती है।
नस पाँध मिल जाने पर भी जीव स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों का धारक लट, शंख आदि रूगों को धारण करता है। इसके पश्चात् यदि निरन्तर अनन्त-अनन्त पुण्य की वृद्धि होती जाय तो त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और फिर असंझी पंचेन्द्रिय होता है। यहां भी सुयोग से अगर अनन्त पुण्य का संचय हुआ तो जीव संशी (विशिष्ट मन वाला ) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च हो पाता है। तिर्यकच संझी पंचेन्द्रियों की बहुत सी जातियां हैं, जिनका उल्लेन आगे किया जायगा । तिर्यञ्च संक्षी पंचेन्द्रिय होने के बाद यदि नरक में चला गया तो फिर दीर्घ काल तक घोर व्यथाएँ भोगता है।
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धर्म स्वरूप वईन इस प्रकार भव भ्रमण करते-करते अनन्तानन्त पुण्य का संचय होने पर, बड़ी ही कठिनाई से मनुष्य भव की प्राप्ति होती है। सव चौरासी लाख योनियां और एक करोड़ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ कुल कोटियां हैं। इनमें से चौदह लाख जीव की योनियों को और बारह लाख करोड़ कुल कोटियों को, जो कि मनुष्य हैं, छोड़कर शेष योनियों और कुल कोटियों को ग्रहण करने से बचकर मनुष्य योनि को पा लेना कितना बड़ा सौभाग्य है ! कितने जबर्दस्त पुण्य का फल है !
मगर मनुष्य-भव मिल जाने से ही विशेष लाभ नहीं होता। क्योंकि असं. ख्यात मनुष्य ऐसे हैं जो सम्मूर्छिय होते हैं और पर्याप्त अवस्था प्राप्त होने से पहले ही मत्य को प्राप्त हो जाते हैं । वे मनुष्य अवश्य कहलाते हैं वि.न्तु वास्तविक मनुष्यता उनमें नहीं होती। अतएव मनुष्य हो जाने पर गर्भज मनुध्य होना और भी कठिन है. जिसके बिना मोक्षमार्ग की आराधना नहीं होती । सब प्रकार के जीवों में गर्भज मनुष्य ही सब से थोड़े हैं । तिर्यश्च अनंत हैं, नारकी असंख्यात हैं, देव भी असंख्यात हैं, पर गर्भज मनुष्य संख्यात ही हैं।
इसी लिए सूत्रकार ने कहा है कि अानुपूर्वी से-कम से शुद्धता प्राप्त करने पर जीव मनुष्यता प्राप्त करता है । भूल:-वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया ।
उविति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥२॥ छायाः-विमानामि: शिक्षाभिः, ये न। गृहि-सुव्रताः । . उपयान्ति मानुष्यं योनि, कर्मसत्या हि प्राणिनः ॥२॥ " शब्दार्थ:-जो मनुष्य विविध प्रकार की शिक्षाओं के साथ गृहस्थ के सुव्रतों का आचरण करते हैं, वे फिर मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं।
भाष्यः-पहले मनुष्य भव की दुर्लभता का प्रतिपादन किया है। मनुष्य भक एक बार प्राप्त हो जाने पर भी मिथ्यात्व अव्रत आदि का श्राचरण करने से, मृत्य के पश्चात जीव नरक में चला जाता है । अतएव नरक श्रादि योनियों से बचकर फिर मनुष्य भव किस प्रकार पाया जा सकता है, यह यहां बताया गया है।
मनुष्य भव पुनः प्राप्त करने का साधन सूत्रकार ने शिक्षाओं के साथ सुव्रत का पालन करना निरुपण किया है।
शंका-शास्त्रों में व्रतों का पालन देव गति का कारण बतलाया गया है। सराग संयम, संयमासंयम (अणुव्रत ) अकाम निर्जरा और चाल तप, ये सब देव श्रायु के वंध के कारण हैं । इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन के सातवें अध्याय की सातवीं गाथा में कहा है-.. .
एवं सिक्खासमावरणे गिहिवासे वि सुव्वस । .. .मुच्चई छविपवाओ, गच्छे जक्खस लोगयं ॥
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तृतीय अध्याय .
. [ १३५ ] अर्थात् शिक्षा से युक्त सुव्रती गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर पक्ष-लोक.अर्थात् स्वर्ग में जाता है। . इस प्रकार यह निश्चित है कि संयमासंयम-देशविरति अर्थात् अणुव्रतों के पालन से देव गति प्राप्त होती है । फिर यहां मनुष्य गति की प्राप्ति का कथन किस प्रकार संगत हो सकता है ?
समाधान-यहां अनन्तर भव की अपेक्षा कथन नहीं किया गया है। अणुव्रतों का पालन कर के देवगति होने पर फिर मनुष्य योनि की प्राप्ति होती है, ऐसा आशय समझना चाहिए । अथवा यहां जो सुव्रतों का पालन करना बताया है वह ऐसी अन्य तीर्थिकों की अपेक्षा से है जो सम्यक्त्वधारी तो नहीं हैं, फिर भी लोक प्रतीत सत्य बोलते हैं, शीलव्रत का पालन करते हैं और निर्जल उपवास आदि करते हैं। ऐसे व्रतों का पालन करने वाले अन्यतीर्थी मनुष्य, मृत्यु के पश्चात् फिर मनुष्य योनि । प्राप्त करते हैं। . विविध प्रकार की शिक्षा से यहां उन सदगुणों का ग्रहण करना चाहिए, जो मनुष्य गति की प्राप्ति में सहायक होते हैं । जैसे-अभिमान न होना, मायाचार न होना, संतोष का भाव रखना, परिग्रह को व्यर्थ आवश्यकता से अधिक न रखना, अनावश्यक प्रारंभ न करना, श्रादि । इन सब कारणों से जीव मानव-जन्म प्राप्त करता है।
क्या यह संभव है कि कोई जीव किसी कर्म का उपार्जन करे और उसे उसीके अनुरूप फल की प्राप्ति न हो ? इस शंका का निरास करने के उद्देश्य से सूत्रकार ने कहा है-'कम्मसच्चा हु पाणियो।' अर्थात् प्राणी कर्म-सत्य हैं । जीव जैसे कर्म करता है उसे वैसी ही ग्मति प्राप्त होती है। जैसे बंवूल बोने वाले को श्राम नहीं मिलता और श्राम बोने वाले को वंचूल नहीं मिलता. उसी प्रकार अशुभ कर्म करने वाले को शुभ फल और शुभ कर्म करने वाले को अशुभ फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।
जो कर्म अशुभ है, उसे चाहे अशुभ समझकर किया जाय चाहे शुभ समझ कर किया जाय, पर उसका फल अशुभ ही होगा । अनेक लोग धर्म समझकर हिंसा
आदि अधर्म का आचरण करते हैं। यही नहीं, धर्म के लिए किये जाने वाले पाप को ब पाप ही नहीं समझते । तात्पर्य यह है कि जगत् में अनेक ऐसी विपरीत इष्टियां हैं, जिनके कारण अधर्म, धर्म प्रतीत होता है। इसलिए अधर्म का फल धर्म रूप कदापि नहीं हो सकता । धर्म मानकर अधर्म का श्राचरण करने वाले लोग चाहे. यथार्थता को न समझे, फिर भी उन्हें अधर्म सेवन का फल अशुभ ही प्राप्त होगा। हां, अज्ञात भाव और मातभाव से कर्म के प्रास्त्रव और बंध में अंतर पड़ता है । ' यह जीव है, मैं इसे मारता हूं' यह समझकर हिंसा करना ज्ञात हिंसा है और प्रमाद या पागलपन के कारण हिंसा हो जाना अज्ञात हिंसा है । इसके फल में अन्तर होता है, पर अज्ञात होने के कारण हिंसा का फल, अहिंसा का पाचरण करने से मिलने वाले फल के समान नहीं हो सकता।
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धर्म स्वरूप वर्णन . किसी ने कहा भी है
यथा धेनु सहस्रेषु, बत्लो विन्दति मातरम्। . . . . . . . तथा पूर्वकृतं कर्म, कर्तारमनुगच्छति ॥ .. अर्थात् हजारों गायों में से बछड़ा अपनी माता के पास जा पहुँचता है उसी प्रकार यूर्वकृत कर्म, कर्ता का पीछा करता है। - श्रतएव भव्य जीवों को सदा वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित चारित्र धमें अनुसरण करना चाहिए और विपरीत श्रद्धा का परित्याग करके कभी उसके अनुसार व्यवहार नहीं करना चाहिए। प्रात्मकल्याण का यही राजमार्ग है।
मूला-बाला किड्डा य मंदा य, बला पन्ना य हायणी । . ./ पवंचा पभारा य, मुम्मुही सायणी तहा ॥३॥
छाया:-बाला क्रीडा च मन्दा च, बला प्रज्ञा च हायनी ।
प्रपञ्चा प्रारभार। च, मुन्मुखी शायिनी तथा ॥ ३ ॥ शब्दार्थ-मनुष्य की दस दशाएँ हैं-(१) बाल-अवस्था (२) क्रीड़ा-अवस्था (३) मन्दावस्था (४) बलावस्था (५) प्रज्ञावंस्था (६) हायनी-अवस्था (७) प्रपञ्च -अवस्था । (८) प्राग्भार-अवस्था (६) मुम्मुखी-अवस्था और (१०) शायनी अवस्था। . . .
भाध्य-मनुण्य भव की प्राप्ति का. प्ररूपण करने के पश्चात् मनुष्य की दश . दशानों का निरूपण यहां किया गया है । दशाओं का यह विभाग आयु के क्रम से समझना चाहिए अर्थात् जिस समय मनुष्य की जितनी श्रायु हो. उस श्रायु को दस विभागों में बराबर-बराबर विभक्त करने से दस अवस्थाएँ निष्पन्न होती हैं। उदाहरणार्थ-सौ वर्ष की आयु हो तो दल दस वर्षों की दस अवस्थाएँ समझना चाहिए । इन अवस्थाओं का विभाजन शारीरिक एवं मानसिक-दोनों दृष्टियों को. लक्ष्य रखकर किया गया है। दस अवस्थाओं का परिचय इस प्रकार है:
(१) वाल्यावस्था-जिल अवस्था में किसी प्रकार का चिंक नहीं होता, खाने पीने, धनोपार्जन करने आदि की कुछ चिन्ता नहीं रहती है।
(२) क्रीडावस्था - दस वर्ष से लगाकर वीस वर्ष पर्यन्त क्रीड़ा-अवस्था रहती . है, क्योंकि इस अवस्था में खेलने-कूदने की धुन सवार रहती है।
. (३) मन्दावस्था-यह अवस्था बीस वर्ष से तीस वर्ष तक रहती है। इस अवस्था में पूर्वजों द्वारा संचित सम्पत्ति और भोगोपभोग की सामग्री को ही भोगन की इच्छा रहती है और नवीन अर्थ- धन के उपार्जन में उत्साह नहीं होता है, इस लिए इस अवस्था को मन्दावस्था कहा गया है। ... : (४). बल-अवस्था-तीस से चालीस वर्ष तक बल-अवस्था रहती है। क्योंकि इस अवस्था में यदि अस्वस्थता आदि कोई विशेष वाधा उपस्थित न हो तो मनुष्य बलवान होता है।
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तृतीय अध्याय .. (५। प्रज्ञा-अवस्था-चालीस से पचास वर्ष पर्यन्त प्रज्ञा-अवस्था रहती है। इस अवस्था में अभीष्ट अर्थ का उपार्जन करने के लिए तथा कुटुम्ब की वृद्धि के लिए मनुष्य अपनी बुद्धि का खूब उपयोग करता है।
(६ हायनी-अवस्था-पचास से साठ वर्ष तक यह अवस्था रहती है । इस अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य इन्द्रियों संबंधी भोग भोगने में हीनता का. अनुभव. करने लगता है । इस कारण इले हायनी अवस्था कहते हैं।
(७) प्रपंच-अयस्था-साठ से सत्तर.वर्ष तक प्रपंच अवस्था रहती है । इस अवस्था में कफ निकलने लगता है, खांसी आने लगती है और शरीर संबंधी संकटें. बढ़ जाती हैं, अतएव इसे प्रपंच अवस्था कहते हैं ।
- (८) प्रारभार-अवस्था- सत्तर वर्ष से अस्सी वर्ष तक की हालत प्रारभारअवस्था कहलाती है। इसमें शरीर में झुर्रियां पड़ जाती हैं और शरीर झुक जाता हैं, अतः इसे प्रारभार अवस्था कहा है।
(6) मुम्मुखा-अवस्था-अस्सी से नव्वे वर्ष की अवस्था मुम्मुखी कहलाती है । इस अवस्था में मनुष्य जरा रूपी राक्षसी के पंजे में पूर्ण रूप से फंस जाता है । अर्धमृतक के समान यह अत्यन्त शिथिल अवस्था है।
(१५) शायनी-अवस्था-नव्वे वर्ष से लेकर सौ वर्ष की अवस्था शायनी अवस्था है । इस अवस्था में मनुष्य का शरीर, इन्द्रियां और मन अपना-अपना व्यापार प्रायः बन्द कर देते हैं. अतएव सुस्त मनुष्य कीसी दशा हो जाती है। श्रन्त में मनुष्य महा-निगा में शयन करता है- उसका जीवन समाप्त हो जाता है, अतएव इसे शायनी अवस्था कहा गया है । इस प्रकार सानव-जीवन दस अवस्थाओं में बंटा हुआ है।
मनुष्य की इन अवस्थाओं पर विचार करने से प्रतीत होगा कि अत्यन्त . कठिनता से प्राप्त हुआ मनुष्य भव अनेक अवस्थाओं में बँटा है और इन अवस्थाओं में धर्म-क्रिया करने का बहुत कम अवकाश है । मनुष्य जय बालक होता है तब उसे धर्म-अधर्म का बाध ही नहीं होता, इसलिए वह धर्म क्रिया से विमुख रहता है। युवावस्था में विषयों की और भुक जाने के कारण, धर्माचरण का सामर्थ्य होने पर भी.मनुष्य धर्म की विशिष्ट आराधना नहीं करता और वृद्धावस्था में फिर सामर्थ्य नष्ट हो जाती है । इल प्रकार मनुष्य तीनों अवस्था वृथा गँवा देता है । और अनन्त पुण्य के व्यय से प्राप्त हुआ मानव-भव रूपी अनमोल हीरा निष्प्रयोजन बीत जाता है । इसलिए कविवर सूधरदास ने ठीक ही कहा हैजौलों देह तेरी काहू रोग सौंन घेरी, जौलो जरा नाहिं तेरी जासों पराधीन परी है। जौलो जम नामा वैरी देय न दमामा जोलो, माने कान रामा बुद्धि जाइन चिगरी है। तौलो मित्र मेरे ! निज कारजः सवार ले रे, पौरुप थकेंगे फेर पीछे कहा करी है। अहो आग लाये जब झोपड़ी जरन लागी, कुत्रा के खुदायों तब कौन काम सरि है ?...
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[ १३८ ।
धर्म स्वरूप वर्णन जब तक शरीर में सामर्थ्य है, इन्द्रियों में बल है और मस्तिष्क में हिताहित के विवेक की शक्ति है, तब तक मनुष्य को अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेना चाहिए -
आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो लेना चाहिए। जब शरीर और इन्द्रियां आदि चेकार होजाएँगी तव आत्मा के कल्याण की चेष्टा करना, झोपड़ी में आग लगने पर कुत्रा खुदवाने के समान असामयिक और अनुपयोगी है । अपने जीवन की अनमोलता का विचार करो। निश्चय समझो कि सदा इतने पुण्य का उदय नहीं रह सकता कि पुनः पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति हो सके । इस जीवन को विषय-वासनाओं के पोषण में व्यतीत न करो। तुम्हें जो बहुमूल्य चिन्तामणि हाथ लग गया है लो उसका अधिक से अधिक सदुपयोग करो। उसे कौवा उड़ाने के लिए न फैंकदो। .
_ मनुष्य अायु अत्यन्त परिमित है और वह भी अनेक विघ्न-बाधाओं से भरी हुई है । जिस क्षण में जीवन विद्यमान है उससे अगले क्षण का विश्वास नहीं किया जा सकता। अतएव अप्रमत्त भाव से प्रात्म हित का मार्ग ग्रहण करो। स्त्री-पुरुष के एक बार के संयोग से असंख्यात सममूर्छिय मनुष्य और नौ लाख संज्ञी मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। उनमें से एक-दो-तीन या चार जीव ही अधिक से अधिक बच पाते हैं । शेष सब दीर्घायु के अभाव में मरजाते हैं । इस बात का विचार करो कि तुम्हें दीर्घ जीवन प्राप्त करने का भी सुयोग्य मिल गया है । सूयगड़ांग सूत्र में कहा है
डहरा वुड्ढा या पासह, गम्भत्था वि चयति माणवा।
सेणे जह वयं हरे, एवं पाउखयंमि तुहई ॥ श्री आदिनाथ भगवान् ने अपने पुत्रों से कहा है-वालक, वृद्ध और यहांतक कि गर्भस्थ मनुष्य भी प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। जैसे बाज पनी तीतर पनी के ऊपर झपट कर उसे मार डालता है उसी प्रकार आयु का क्षय होने पर मृत्यु मनुष्य के प्राणों का अपहरण कर लेती है।
जीवन का अन्त करने के इतने अधिक साधन जगत् में विद्यमान हैं कि जीवना के अन्त होने में किंचित् भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आश्चर्य की बात हो तो मनुष्य का जीवितं रहना ही श्राश्चर्यजनक हो सकता है। मानव-जीवन चक्की के दोनों पाटों के बीच पड़े हुए दाने के समान है, जो किसी भी क्षण चूर-चूर हो सकता है इस प्रकार विनश्वर जीवन का आधा हिस्सा रात्रि में शयन करने में व्यतीत हो जाता है और आधा हिस्सा संसार सम्बन्धी प्रपंचों में मनुष्य बिता देते हैं । यह कितने खेद की बात है।
हे भव्य जीव ! तू अपनी आयु की दुर्लभता का विचार कर, उसकी परिमितता और विनश्वरता को सोच । फिर शीघ्र से शीघ्र उसके अधिक से अधिक सदुपयोग का विचार करके सदुपयोग कर डाल । जो क्षण जा रहा है वह कभी-वापिस नहीं पायगा। उसके लिए पश्चात्ताप न करना पड़े, ऐसा कर्तव्य कर और मानव-जीवन सर्वश्रेष्ठ साधना-मुक्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रह । समय अत्यन्त अल्प है।
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तृतीय अध्याय :
। १३६ । और कर्तव्य महान् है, इसलिए जो अवसर हाथ लगा है उसे व्यर्थ न जाने दे । यही सूचित करने के लिए सूत्रकार ने मानव-जीवन का कालिक विश्लेषण करके दस अवस्थाओं का वर्णन किया है। मूलः-माणुस्सं विग्गहं लधु, सुई धम्मस्स दुल्लहा । . जं सोचा पडिवति, तवं खतिमहिंसयं ॥४॥
छायाः-मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा ।।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः शान्तिमहिंस्रताम् ॥ ४॥ शब्दार्थः-मानव-शरीर पाकरके भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है धर्म-श्रवण करने का अवसर मिलना कठिन है, जिसको सुनने से तप, क्षमा, और अहिंसा को पालन करने की इच्छा जागृत होती है ।
भाष्यः-पहले मनुष्य की दस अवस्थाओं का निरूपण किया है। यदि वह अवस्थाएँ जीव को प्राप्त हो जाएँ तो भी धर्म के स्वरूप का श्रवण दुर्लभ है अर्थात सर्वज्ञ और वीतराग द्वारा निरूपित निर्गन्थ-प्रवचन के उपदेश को सुनने का सौभाग्य अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होता है।
धर्म के उपदेश को श्रवण करने के लिए दीर्घायु, परिपूर्ण इन्द्रियाँ, शारीरिक आरोग्य, सद्गुरु का समागम आदि निमित्त कारणों की आवश्यकता होती है। इन निमित्त कारणों का मिलना सरल नहीं है।
उक्त निमित्त कारणों में से दीर्घायु के विषय में कहा जा चुका है। पुण्य के प्रबल उद्य से यदि दीर्घायु मिल जाती है, तो भी जब तक इन्द्रियाँ परिपूर्ण नहीं होती तब तक आत्महित चाहने वाले मुमुक्षु प्राणियों का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसी कारण शास्त्रों में कहा है
जाविन्दिया न हायति ताव धम्म समायर । अर्थात् जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होने पाती तब तक धर्म का आचरण कर लो। फिर धर्म का आचरण होना कठिन हो जायगा। क्योंकि संसार में अनेक ऐसे प्राणी हैं जो इन्द्रियों की विकलता के कारण जीवन का सदुपयोग नहीं कर पाते, वरन् उन्हें जीवन भारभूत प्रतीत होता है । जो वधिर (वहरे ) हैं, वे धर्म-श्रवण करने में असमर्थ हैं। जो नेत्रहीन हैं वे शास्त्रों का अवलोकन नहीं कर सकते इसी प्रकार जो गूगा श्रादि अन्य किसी इन्द्रिय ले हीन होता है वह भी भली भाँति धर्म का श्रवण और तदनुसार सम्यक् आचरण नहीं कर सकता।
___ इन्द्रियाँ परिपूर्ण और कार्यकारी होने पर भी यदि शरीर नीरोग न रहे तो भी धर्म की आराधना नहीं हो पाती । इसलिए शास्त्र में कहा है-'चाही जाव न बर्ह अर्थात् जब तक शरीर में व्याधि नहीं बढ़ती है तब तक धर्म का आचरण करलो। शाखकार ने इस वाक्य में 'बड्ढई' पद दिया है। इसका आशय यह है कि शरीर में
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धर्म स्वरूप वर्णन रोग तो सदा विद्यमान ही रहते हैं । जब वे बढ़ जाते हैं तब रोग का होना कहलाता है शरीर में ३५०००००० रोम कहे जाते हैं और प्रत्येक रोम के साथ पौने दो रोगों के हिलाव से करोड़ों रोग इस श्रदारिक शरीर को घेरे हुए हैं । कुछ साधारण रोग इनमें अत्यन्त भयंकर और असाताकारी होते हैं । उनमें से एक भी रोग यदि प्रवल हो जाता है तो इतनी अधिक व्याकुलता उत्पन्न होती है कि धर्म-आराधना की ओर मन ही नहीं जाता है इस प्रकार श्रदारिक शरीर को जब रोगों की आशंका सदा ही चनी रहती है तब कौन कह सकता है कि किस समय किस रोग की प्रबलता हो जायगी ? किसी भी क्षण कोई भी रोग कूपित होकर समस्त शान्ति और साता को धूल में मिला सकता है । जीवन को भारभूत बना सकता है । अतएव मानव-शरीर पा लेने पर भी शारीरिक नीरोगता रहना कठिन है और जब वह रहती है तभी धर्म का श्रवण हो सकता है । पुण्य के योग से जिन्हें शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त है उन्हें धर्म-श्रवण करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए ।
1
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शारीरिक नीरोगता भी प्राप्त हो जाय पर सद्गुरु का समागम न मिले तो सच्चे धर्म के श्रवण का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता । कंचन - कामिनों के त्यागी, स्व-पर कल्याण के अभिलाषी, यथार्थ वस्तु-स्वरूप के ज्ञाता, और संसारी जीवों पर करुणा करने वाले सद्गुरुओं की संगति हो मनुष्य को धर्म की ओर आकृष्ट करने में कारणभूत होती है । ऐसे सद्गुरुओं का समागम भी बड़े पुएय के उदय से होता है, क्यों कि संसार में दुराचारी, अर्थ के दास, पाखण्डप्रिय और वञ्चक गुरु कहलाने वालों की कमी नहीं है। हजारों-लाखों विभिन्न वेषधारी साधु जगत् में बिना किसी उच्च उद्देश्य के पेटपूर्ति के लिए अथवा अपने शिष्यों को ढंग कर थपार्जन करने के लिए घूमते फिरते हैं । वे कचन - कामिनी के क्रीतदास हैं । धर्माधर्म के विवेक से विहीन हैं । कर्त्तव्य - श्रकर्त्तव्य का ज्ञान उन्हें लेशमात्र भी नहीं है । वे ख्याति, लाभ और पूजा-प्रतिष्ठा के लोलुप हैं । संसार-सागर को पार करने के लिए उनका आश्रय लेना पत्थर की नौका का श्राश्रय लेने के समान है । असंख्य प्राणी इन कुगुरुओं के चक्कर में पड़े हुए धर्म से विमुख हो रहे हैं । वे अधर्म को ही धर्म समझकर, काच को हीरे के रूप में, ग्रहण कर रहे हैं । उन्हें सच्चे धर्म का श्रवण दुर्लभ है । अव इन्द्रियों की पूर्णता और शारीरिक नीरोगता प्राप्त हो जाने पर भी यदि सद्गुरु की संगति न मिले जो धर्म- श्रुति दुर्लभ हो जाती है । इस प्रकार धर्मोपदेश श्रवण के लिए सद्गुरु का समागम होना आवश्यक है ।
इसी प्रकार श्रार्यक्षेत्र का मिलना, सुकुल की प्राप्ति होना भी धर्म-श्रवण के प्रबल निमित्त हैं। क्योंकि मनुष्य शरीर पा लेने पर भी बहुत से मनुष्य अनार्य क्षेत्र मैं उत्पन्न होते हैं । वहां धर्म की परम्परा न होने के कारण मनुष्य धर्म से सर्वथा विमुख, हिंसा आदि पाप कर्मों में लीन और सदा अशुभ अध्यवसायों से युक्त होते हैं । उन मनुष्यों का यह ज्ञान नहीं होता कि मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? कहाँ जाऊंगा ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? श्रात्मा का दित क्या है और अहित क्या है . ?
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तृतीय अध्याय -
[ १४१ ]
आर्यक्षेत्र में जन्म लेने पर भी धार्मिक कुल में जन्म मिलना दुर्लभ होता है । क्योंकि आर्यक्षेत्र में भी अधिकांश कुल ऐसे होते हैं जिनमें वास्तविक धर्म के संस्कार नहीं होते । कोई धर्म से उपेक्षा करते हैं कोई धर्म को दंभ कहते हैं, कोई धर्म को उपादेय समझते हुए भी मिथ्या धर्म को ग्रहण करके उलटा श्राहित कर बैठते हैं । ऐसे कुल में जन्म लेने वाली सन्तान भी प्रायः उसी प्रकार के संस्कार ग्रहण कर लेती है ।
अब यह स्पष्ट है कि मानव शरीर पा लेने पर भी धर्म श्रवण का पुण्य अवसर मिलना दुर्लभ हो जाता है । अतएव इन सब दुर्लभ निमित्तों को पा लेने के पश्चात् प्रत्येक प्राणी को अप्रमत्त भाव से धर्म-श्रवण करना चाहिए । इस बहुमूल्य कारण सामग्री को प्राप्त कर चुकने पर भी जो धर्म-श्रवण नहीं करते वे चिन्तामणि पाकर भी उसे अपने अविवेक के कारण अथाह समुद्र में फेंक देते हैं ।
धर्म, आत्मा का स्वभाव है । अतएव वह सदैव आत्मा में विद्यमान रहता है | फिर उसे श्रवण करने से क्या लाभ है ? इस शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार ने उत्तरार्ध में कहा है- ' जं सोचा पंडिवज्जति तवं खंतिमहिसयं । ' अर्थात् धर्मश्रवण करने से तप, क्षमा और अहिंसकता की प्राप्ति होती है । श्रागे निरूपण किये जाने वाले बारह प्रकार के तप को, क्रोध के प्रभाव रूप क्षमा को और पर-पीड़ा का श्रभाव रूप अहिंसकता को, मनुष्य धर्म-श्रवण करके ही जानता है और जब उनके यथार्थ स्वरूप को जान लेता है तभी उन्हें श्राचरण में लाता है । अतएव धर्म श्रवण का साक्षात् फल तप, शान्ति और हिंसा के स्वरूप का ज्ञान हो जाना और परम्परा फल मुक्ति प्राप्त होना है । भगवती सूत्र में कहा है
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प्रश्न - हे भगवन् ! श्रवण का क्या फल है ? उत्तर- हे गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान 1 प्र०—हे भगवन् ! ज्ञान का क्या फल है ?
उ०- हे गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है ( हेयोप देय का विवेक हो जाना
विज्ञान कहलाता है | )
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प्र००-हे भगवन् ! विज्ञान का क्या फल 7?
- उ० - हे गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है ।'
प्र०
- हे भगवन् ! प्रत्याख्यान का क्या फल है ? उ०- हे गौतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम है । प्र० - हे भगवन् ! संयम का क्या फल है ?
है 1
उ०- हे गौतम! संयम का फल श्रस्रव का रुकना - हे भगवन् ! श्रस्रव रुकने का क्या फल है ?
प्र०
उ०
०-- हे गौतम ! श्रास्रव रुकने से तपश्चरण शक्य होता है ।
प्र०-हे भगवन् ! तपश्चरण का क्या फल है ?
उ०- - हे गौतम ! तपश्वरण से श्रात्मा का कर्म-मल नष्ट होता है । प्र०-हे भगवन् ! कर्म-मल के नाश का क्या फल है ?
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। १४२ ]
धर्म स्वरूप वर्णन उ०-हे गौतम ! कर्म-मल के नाश से योग (मन-वचन-काय के व्यापार )
का निरोध होता है। प्र०-हे भगवन् ! योग के निरोध का क्या फल है ? उ०हे गौतम ! योग के रुकने से सिद्धि प्राप्त होती है।
-भगवती श० ३, उ०५ इस प्रश्नोत्तर से धर्म-श्रवण के फल का भली भांति बोध हो जाता है और साथ ही यह भी ज्ञात हो जाता है कि किस क्रम से आत्मा अग्रसर होते-होते अन्त में मुक्ति को प्राप्त करता है।
अतएव मनुष्य-भव पा लेने के पश्चात् जिन भात्यशालियों को सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्ररूपित, कल्प वृक्ष के समान समस्त अभीष्टों को सिद्ध करने वाले सद्धर्म के श्रवण का सुअवसर प्राप्त हुआ है उन्हें अान्तरिक अनुराग के साथ उसे श्रवण करना चाहिए और उसके अनुसार आचरण करना चाहिए। मूलः-धम्मो मंगलमुक्किठं, अहिंसा संजमो तवो ।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥५॥ छाया:-धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टं, अहिंसा संयमस्तपः ।
देवा अपितं नमस्यन्ति, यस्य धर्म सदा मनः ॥ ५ ॥ — शब्दार्थः-अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म सर्वश्रेष्ट मंगल है । जिसका मन इस धर्म में सदा रत रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
भाष्यः-मानव-शरीर पा लेने के बाद भी जिस धर्म का श्रवण दुर्लभ है, उस धर्म का स्वरूप सूत्रकार ने यहां बताया हैं।
मं-पापं, गालयति-इति मङ्गलस् , ' अर्थात् जो पाप का विनाश करता है वह मंगल कहलाता है । अथवा 'मंग-सुखं लातीति मंगलम् ' अर्थात् जो मंग ( सुख । को लगता है जिससे सुख की प्राप्ति होती है उसे मंगल कहते हैं। धर्म मंगल है, अर्थात् धर्म से ही पापों का विनाश होता है और धर्म से ही सुख की प्राप्ति होती है।
संसार में अनेक प्रकार के मंगल-माने जाते है । परदेश गमन करते समय जल से भरे हुए घड़े का दीखना, फूलमाला का नज़र श्राना तथा हल्दी, श्रीफल, श्राम्र पत्र, पान आदि-श्रादि अनेक वस्तुएँ मंगल रूप मानी जाती हैं । धर्म भी क्या इसी प्रकार-इन्ही वस्तुओं के समान मंगल है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए ' उक्किएं । ( उत्कृष्ट ) पद सूत्रकार न ग्रहण किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अन्य वस्तुएँ लोक में मंगल रूप अवश्य मानी जाती हैं किन्तु उस मंगल में भी अमंगल छिपा रहता है अथवा उस मंगल के पश्चात् फ़िर अमंगल प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ-वाणिज्य के लिए परदेश जाने वाले व्यक्ति को सजल घट सामने मिला। जाएँ तो वह मंगल समझेगा। पर इस मंगल का क्या परिणाम होगा.? उसे व्यापार
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गम
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तृतीय अध्याय
[ १४३ ] में लाभ होगा - उसके परिग्रह की वृद्धि होगी, और परिग्रह पाप रूप होने के कारण अमंगल है | इसी प्रकार धनोपार्जन में होने वाले सावद्य व्यापार से हिंसा की पाप होगा और हिंसा भी अमंगल है | अतएव यह स्पष्ट है कि सजन घट रूप मंगल, परिणाम में अमंगल का जनक है- - उस मंगल में घोर श्रमंगल छिपा हुआ है । यही नहीं, वह मंगल क्या भविष्यकाल के समस्त अमंगलों का निवारण कर सकता है ? कदापि नहीं । इस प्रकार लोक में जो मंगल समझा जाता है वह मंगल उत्कृष्ट मंगल नहीं है । उत्कृष्ट मंगल तो धर्म ही हो सकता है, जिसकी प्राप्ति होने पर अमंगल की संभावना नहीं रहती और जिस मंगल में अमंगल का रंचमात्र भी सद्भाव नहीं है । यही भाव प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने धर्म को सिर्फ मंगल नहीं, किन्तु उत्कृष्ट मंगल कहा
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'धम्मो मंगलमुकिक' इस पद की दूसरी तरह से भी व्याख्या की जा सकती । वह इस प्रकार है- जो उत्कृष्ट मंगल रूप है, जो दुःख एवं पाप का विनाशक है और जिससे सुख की प्राप्ति होती है वही धर्म है । जो इस लोक में और परलोक में श्रात्मा के लिए अनिष्टजनक है वह मंगल रूप न होने के कारण अधर्म है । इस व्याख्या के अनुसार यह भी कहा जा सकता है कि जो श्रात्मा के लिए मंगल रूप है वह आत्म- धर्म है, जो समाज के लिए मंगल रूप है अर्थात् जिससे समाज में सुख और शान्ति का प्रसार होता है वह समाज धर्म है । । जिल प्राचरण या व्यवहार से राष्ट्र का मंगल सिद्ध होता है - राष्ट्र में अमनचैन की वृद्धि होती है वह आचरण राष्ट्र धर्म है । जिस व्यवहार से जाति सुखी होती है, जाति के पाप अर्थात् बुराइयाँ दूर होती हैं, वह जातीय धर्म हैं । इस व्याख्या से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी परम्परा, चाहे वह अर्वाचीन हो या प्राचीन हो, तभी उपादेय हो सकती है जब उसमें कल्याण करता का तत्त्व विद्यमान हो । जो श्राचार राष्ट्र के लिए अकल्याण कर है वह राष्ट्रीय अधर्म है, जिसके व्यवहार से समाज और जाति का अहित होता है वह चाहे प्राचीन ही क्यों न हो. वह सामाजिक अधर्म और जातीय अधर्म है । तात्पर्य यह है कि कल्याण और अकल्याण ही धर्म और अधर्म की कसौटी है । इस व्यवहार धर्म के स्वरूप को भलीभाँति हृदयंगम कर लिया जाय तो पारस्परिक वैमनस्य क्षीण हो सकते हैं और राष्ट्र में, समाज में एवं जाति में कल्याणकारी परम्पराओं की प्रतिष्ठा - की जा सकती है।
इस प्रकार सूत्रकार ने धर्म का कल्याण के साथ संबंध स्थापित करने के पश्चात् धर्म के स्वरूप का भी निर्देश कर दिया है । वह मंगलमय धर्म क्या है ? इस पश्न के समाधान में सूत्रकार कहते हैं - ' अहिंसा संजयो तवो, ' अर्थात् श्रहिंसा, संयम और तप धर्म के तीन रूप हैं। यह तीनों ही धर्म के रूप पाप के विनाशक और सुख-शांति के जनक हैं । जैसे आत्मा के कल्याण के लिए इन तीनों की अनिवार्य आवश्यकता है उसी प्रकार समाज के कल्याण के लिए भी इनकी श्रावश्यकता है। जिस व्यक्ति के जीवन में और जिस समाज के जीवन में यह तीन दिव्य गुण श्रोत-प्रोत नहीं होते
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ध- स्वरूप वर्णन वह व्यक्ति और वह समाज कभी स्थायी शान्ति और सुख का भोग नहीं कर सकता। इन तीनों में सर्व प्रथम अहिंसा को स्थान दिया गया है, क्योंकि अहिंसा इनमें प्रधान है। अहिंसा प्रधान. इस कारण है कि वह साध्य है और संयम तथा तप: अहिंसा के साधन हैं। - प्रत्येक मत में अहिंसा को धर्म स्वीकार किया गया है। जिन मतों में यक्ष-त्याग . तथा अन्य प्रकार के बलिदान के रूप में हिंसा का विधान है, वह मन भी उस हिसा को अहिंसा समझ करके ही धर्म स्वीकार करते हैं। हिंसा को धर्म मानने का अभिप्राय किसी ने भी प्रकट नहीं किया है । अतएव यह कहना भ्रमपूर्ण नहीं है कि अहिंसा की व्याख्या, अहिंसा की मर्यादा और अहिंसा संबंधी समझ, भले ही विभिन्न मतो विभिन्न प्रकार की हो, परन्तु 'अहिंसा धर्म है' इस सिद्धान्त में किसी को विवाद . नहीं है।.
. .. अहिंसा को सब धर्मों मतों और पंथों में जो सम्माननीय स्थान प्राप्त है सो निष्कारण नहीं है अहिंसा के बल पर ही जगत् के प्राणियों की स्थिति है। एक.व्यक्ति, यदि दूसरे व्यक्ति की हिंसा पर उतारू हो जाय, एक जाति दूसरी जाति का संहार करने में तत्परं बन जाय और एक देश दूसरे देश की हत्या करने पर कमर कस ले तो संसार की क्या दशा होगी? यह कल्पना करना भी कठिन हो जाता है । अतएव अहिंसा वास्तव में जीवन है और हिंसा मृत्यु हैं । जगत् यदि जीवित रहना चाहे तो उसे अहिंसा का अवलम्बन लेना ही होगा । अहिंसा के बिना जगत् घोर कत्लखाना बन . जायगा । यही कारण है कि अहिंसा प्रत्येक प्राणी के अन्तःकरण में निवास करती है। परम्परागत संस्कार या वातावरणजन्य प्रभाव के कारण अहिंसा भले. ही न्यूनाधिक . रूप में पाई जाय, पर जन्म से हिंसक समझे जाने वाले पशुओं पर भी उसका प्रभाव .. स्पष्ट देखा जाता है। सिंह कितना ही क्रुर क्यों न हो, पर अपने बाल बच्चों के प्रति उसके हृदय में भी हिंसा की भावना नहीं होती । उतने अंशों में वह भी अहिंसक रहता ही है। इससे यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि अहिंसा प्राणी का स्वाभा.. विक धर्म है और वह धर्म वातावरण या संस्कारों के कारण कुछ अंशों में छिप जाने' . पर भी इसका सर्वथा लोप कदापि नहीं होता । यही कारण है कि प्रत्येक धर्म में । उसे आदरणीय स्थान प्राप्त हुआ है। .
अात्मिक बल की वृद्धि के अनुपात से जीवन में अहिंसा का विकास होता है। जिस व्यक्ति की आत्मिक शक्ति जितनी अधिक विकसित होती जाती है वह उतनी ही मात्रा में अधिक-अधिक अहिंसा का आचरण करता चला जाता है । जिसमें श्रामिक वल नहीं है वह . अहिंसा की प्रतिष्ठा अपने जीवन में नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि बलवान पुरुष ही अहिंसक हो सकता है । अतएव कतिपय लोगों की यह धारणा सर्वथा मिथ्या है कि अहिंसा कायरता रूप है। भारतीय इतिहास के . .. अवलोकन से प्रतीत होता है कि जब तक भारतवर्ष में, अहिंसा का आचरण करने वाले राजाओं का राज्य था तबतक किसी विदेशी राजा ने पाकर भारत को पराधीन
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नहीं बनाया। इसके विरुद्ध अहिंसा का अनुसरण न करने वाले मुगल सम्राटों के हाथ से भारत का साम्राज्य चला गया । इस से यह साबित होता है कि साम्राज्य का उदय या स्त हिंसा और अहिंसा पर अवलम्बित नहीं है । तात्पर्य यह है कि हिंसा शक्तिशाली का धर्म है, उसमें कायरता के तत्व की कल्पना करना मिध्या और ज्ञानपूर्ण है ।
प्रश्नध्याकरण मैं कहा 'है - 'अहिंसा, देव मनुष्य और असुरों साहेत समस्त जगत के लिए पथप्रदर्शक दीपक है और संसार - सागर में डूबते हुए प्राणीको सहारा देने के लिए द्वीप है, त्राण है, शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है । यह भगवती अहिंसा भयभीतों के लिए शरण है, पक्षियों को श्राकाशगमन के समान हितकारिणी है । व्यासों को पानी के समान है । भूखे को भोजन समान है। समुद्र में जहाज समान है । चौपायों के लिए श्राश्रम के समान है, रोगियों के लिए औषधि के समान है । ... यही नहीं, भगवती अहिंसा इनसे भी अधिक कल्याणकारिणी है । यह पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, वीजं, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, त्रस, स्थावर, समस्त प्राणियों के लिए मंगलमय है ।
अहिंसा का निरूपण जिनागम में बहुत सूक्ष्म रूप से किया गया है । यहां संक्षेप में ही उसका स्वरूप लिखा जाता है, परन्तु अहिंसा के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए पहले हिंसा का स्वरूप समझ लेना उचित हैं । कषाय के वश होकर द्रव्य-भाव प्राणों का व्ययरोपण ( घात ) करना हिंसा है । वात्पर्य यह है . कि जब किसी मनुष्य के अन्तःकरण में क्रोध आदि कषाय की उत्पत्ति होती है तब सर्व प्रथम उसके शुद्ध-उपयोग रूप भाव प्राणों का घात होता है, यह हिंसा है । तत्पश्चात क्रोध के प्रावेश में वह मनुष्य यदि अपनी छाती पीटता है, सिर फोड़ लेता है या आत्मघात करता है तो उसके द्रव्य प्राणों का घात होता है, यह द्रव्यं हिंसा है । यदि वह मनुष्य क्रोध आदि के वश होकर दूसरों को मर्मभेदी वचन बोलता है और दूसरे के चित्त की शान्ति को घात करता है तो उसके भाव प्राणों का व्ययरोपण करने के कारण भाव-हिंसा करता है । अन्त में यदि दूसरे पुरुष का अंग-छेदन करता है या उसे मार डालता है तो वह द्रव्य हिंसा करता है ।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि राग-द्वेष रूप भावों की उत्पत्ति होना हिंसा है और इन विकृत भावों का उदय न होना श्रहिंसा है । जो व्यक्ति कषाय के वश ढोकर, अतना से प्रवृत्ति करता है वह हिंसा का भागी हो जाता है, चाहे उसकी प्रवृत्ति से जीवों की द्रव्य हिंसा हो या न हो, क्योंकि काय का सद्भाव होने से भावहिंसा अनिवार्य है | इसके विपरीत जो यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता है - अर्थात् जो भाव हिंसा से रहित है उसकी प्रवृत्ति से द्रव्य हिंसा कदाचित् होजाय तो भी यह हिंसा का भागी नहीं होता !
हिंसा दो प्रकार की होती है - ( १ ) अविरति रूप हिंसा और ( २ ) परिणति रूप हिंसा । जो प्राणी, जीव-हिंसा करने में प्रवृत्त नहीं है, फिर भी जिसने हिंसा
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धर्म स्वरूप वर्णन त्याग की प्रतिज्ञा. नहीं की है, उसे अविरति रूप हिंसा का दोष लगता है, क्योंकि उसके परिणाम में हिंसा का अस्तित्व रूप में सद्भाव है। मन, बचन अथवा काय के द्वारा किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाना. किसी का दिल दुखाना, किसी के प्राणों का घात करना परिणति रूप हिंसा है। दोनों प्रकार की हिंसा में प्रमाद का सदभाक पाया जाता है और जब तक प्रमाद का सद्भाव है तब तक हिंसा का भी सद्भाव रहता है।
हिंसा का संबंध मुख्य रूप से अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाले परिणामों से हैं। कोई पुरुप हिंसामयं परिणामों के कारण, हिंसा न करने पर भी हिंसा का पाफ उपार्जन करता है और कोई पुरुष, हिंसा हो जाने पर भी-हिंसा के पाप का पात्र नहीं होता। . अर्थात् गौतम स्वामी पूछते हैं--भगवन् ! बस जीवों की हिंसा का.त्यागी
और पृथ्वीकाय की हिंसा का त्याग न करने वाला श्रावक यदि पृथ्वी खोदते समय । किसी त्रस जीव की हिंसा करे तो क्या उसके व्रत में दोष लगता हैं ? .
भगवान महावीर स्वामी उत्तर देते हैं-नहीं, यह नहीं हो सकता। क्योंकि श्रावक त्रस जीव की हिंसा के लिए प्रवृत्ति नहीं करता।।
.. --भगवती श० ७, उ०१ तीव कषाय से आविष्ट परिणाम के कारण, अल्प द्रव्य हिंसा होने पर भी तीव्र फल भोगना पड़ता है और मन्द कषाय के कारण हिंसा के तीव्र परिणाम न होने पर भी अधिक हिंसा हो जाती है तो भी हिंसा का फल तीव्र नहीं होता। . . .
कुछ लोग यह सोचते हैं कि सिंह, व्याघ्र, सर्प. विच्छू आदि आदि हिंसक प्राणी, . अन्य अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं। उन्हें यदि मार डाला जाय तो अनेक जीवों की रक्षा हो जायगी और मारने वाले को पाप की अपेक्षा पुण्य का बंध अधिक होगा। यह विचार अज्ञान-मूलक है। हम पहले यह बता चुके हैं कि कर्म का फल उसीको . भोगना पड़ता है जो करता है। ऐसी अवस्था में पाप कर्म करके अशुभ फल को
आमंत्रित क्यों करना चाहिए ? इसके अतिरिक्त प्रायः कहावत प्रसिद्ध है कि-'जीवो जीवस्य जीवतम्' अर्थात् जगत में एक जीव दूसरे जीव की हिंसा करके अपना जीवन-यापन करते हैं । सो अव एक जीव दूसरे जीव के घातक हैं तो.मारने वाला किन-किन जीवों को, कहाँ तक मारेगा? और यदि मारने पर उतारू हो जायगा तो उसकी हिंसा का पार नहीं रहेगा। उस हिंसा का फल उसे ही भुगतना पड़ेगा. अतएक जीव रक्षा के उद्देश्य से जीव-हिंसा करना योग्य है।
इससे यह भी सिद्ध है कि करुणा के वश होकर हिंसक जीवों की हिंसा करना : .. उचित नहीं है कोई-कोई अझ जीव रोगी अथवा अन्य प्रकार से दुःखी प्राणी की हिंसा करके समझते हैं कि हम उस प्राणी का उपकार कर रहे हैं ! उसे दुःख से. बचाकर शान्ति प्रदान करते हैं। यह समझ भी मिथ्या है। क्योंकि दुःख पाप. कर
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फल है । जो दुःख भोग रहा है उसने पाप कर्म का उपार्जन अवश्य किया है । अतएव पाप के फल को भोगना उसके लिए श्रनिवार्य है । इस जन्म में, या आगामी जन्म में 'फल-भोग जब अनिवार्य है तो कोई प्राणी की हिंसा करके उसे फल-भोग से कैसे 'चंचा सकता है ! अतएव जो श्रास्तिक पुण्य पाप और परलोक में श्रद्धान रखता है वह ऐसा घृणित और अज्ञानतापूर्ण कार्य कदापि नहीं कर सकता । इसके अतिरिक्त दुःखी जीव भी मरना नहीं चाहते । मरण उन्हें अप्रिय है, इसलिए भी उन्हें मारना उचित नहीं कहा जा सकता ।
अगर दुःखी प्राणियों को मारना कर्त्तव्य समझा जाय तो सुखी जीव बहुत पाप करते हैं, अतः उन्हें पाप से बचाने के लिए उन्हें भी मार देना कर्त्तव्य ठहरायगा । इस प्रकार हिंसा की परम्परा बढ़ती चली जायगी । उसका कहीं भी अन्त नहीं होगा ।
कई लोग कुसंस्कारों से प्रेरित होकर देवी-देवताओं को बलि चढ़ा कर हिंसा करते हैं और उसे अधर्म नहीं मानते । उन्हें यह सोचना चाहिए कि देवता क्या कभी मांस-भक्षण करते हैं ? यदि नहीं, तो उनके लिए किसी प्राणी के प्यारे प्राणों का घात करना उचित कैसे कहा जा सकता है ? हिंसा और धर्म का आपस में विरोध है । जो हिंसा है वह धर्म नहीं और जो धर्म है वह हिंसा नहीं है । ऐसी स्थिति में चाहे चेदोन हिंसा हो, चाहे किसी अन्य शास्त्र में प्ररूपित हिंसा हो, वह धर्म कदापि नहीं हो सकती । जो वेदोक्त हिंसा को हिंसा ही नहीं समझते, उनसे यह पूछना चाहिए कि क्या वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके की जाने वाली हिंसा से प्राणी का घात नहीं होता है ? क्या उसे घोर दुःख नहीं होता है ? यदि यह दोनों बातें होती है तो फिर उसे हिंसा न मानने का क्या कारण है ? यदि यह कहा जाय कि मंत्रोच्चारण- पूर्वक की हुई हिंसा से मरने वाला प्राणी स्वर्ग-लाभ करता है अतएव यह हिंसा पाप नहीं है, तो इस कथन की सचाई का प्रमाण क्या है ? क्या कभी कोई जीव स्वर्ग से आकर कहता है कि मैं वैदिक हिंसा से मर कर स्वर्ग में देव हुआ हूँ ? ऐसा न होने पर भी केवल मिथ्या श्रद्धा के कारण जो लोग इस प्रकार की हिंसा करते हैं उन्हें अपने माता-पिता आदि प्रियजनों पर उपकार करके उन्हें भी स्वर्ग भेज देना चाहिए | स्वर्ग प्राप्ति का जब इतना सरल और सीधा उपाय है तो क्यों नहीं अपने प्रियजनों को ही लोग बलि चढ़ा कर स्वर्ग पहुँचाने का पुराय लूटते हैं ? उनकी करुणा बेचारे दीन, हीन और मूक पशुओं पर ही क्यों बरसती है ?.
बलि चढ़ने वाले पशु को स्वर्ग प्राप्ति होती हैं, ऐसा कहने वाले कर्मों के फल भोग के विषय में क्या कहेंगे ? बध्य पशु ने यदि पाप का उपार्जन किया है तो.. उसे पापों का फल नरक आदि अशुभ गति न मिल कर स्वर्ग गति कैसे मिल सकती है ? यदि मिलती है तो कृत कर्म नाश और अकृत कर्म का भोग मानना पड़ेगा, जो फि उचित नहीं है । अतएव यह स्पष्ट है कि धर्म मान कर की जाने वाली हिंसा भी उसी प्रकार घोर दुःख देने वाली है जैसी कि दूसरी हिंसा है | अतः विवेकजिनों को उससे भी बचना चाहिए ।
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धर्म स्वरूप वर्णन एएच किसी ने ठीक ही कहा है-हिंसा नाम भवेद धर्मो न भूतो न भवि. ..... यति' अर्थात् हिंसा धर्म नहीं है, न थी और न कभी होगी। अतएव हिंसा सदा ही
घोर पाप है । जिन प्राणों की रक्षा के लिए प्राणी अपने विशाल साम्राज्य का भी तृण की तरह लाग कर देता है उन -प्राणों के घात करने से इतना भीषण पाप लगता है कि समस्त पृथ्वी का दान कर देने से भी उस पाप का शमन नहीं हो सकता । अला विचार कीजिए कि बन में घास-पानी खा-पीकर जीवन-निर्वाह करने वाले निर्बल पशुओं की हत्या करने वाला पुरुष क्या कुत्ते के समान ही नहीं है ? तिनके की नोंक चुभाने से मनुष्य दुःख का अनुभव करता है तो तीखे शस्त्रों से मूक प्राणियों का शरीर चलनी बनाने ले उन्हें कितनी वेदना होती होगी ? अतएव जो नरक की भीषण्ण ज्वालानों में पड़ने से बचना चाहते हैं उन्हें हिंसा से बचना चाहिए और अपने सुरज दुःख की कसौटी पर ही दूसरे जीवों के सुख-दुःख की परख करना चाहिए । जो दूसरे को सुख पहुंचाता है उसे सुख प्राप्त होता है और दूसरों को दुख देने वाले को दुःख भोगना पड़ता है। यह सिद्धान्त अटलं और अचल है ।
पूर्वोक्त सब प्रकार की हिंसा का त्याग करना अहिंसा है। यह अहिंसा उत्कृष्ट मंगल रूप है । अहिंसा से संसार में दीर्घ श्रायु, सुन्दर शरीर, निरोगता प्रतिष्ठा, विपुल ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है और परम्परा से मुक्ति-लाभ होता है । अतएव अहिंसा सभी जीवों के लिए माता के समान हितकारिणी है, पाप-निवारिणी है, संसार-सागर ले तारिणी है, सर्वसंताप-हारिणी है । जगत् में अहिंसा ही स्थायी शान्ति स्थापित कर सकती है। अहिंसा ही जीवन को शान्ति प्रदान कर सकती है। अहिंसा के बिना संसार श्मशान के तुल्य भयानक है । अहिंसा के विना जीवन घोर अभिशाप है । अहिंसा दोनों लोकों में एक मात्र अवलम्बन है। हिंसा विनाश है. विनाश का मार्ग है, विनाश का आह्वान है । अहिंसा अमृत है, अमृत का 'अक्षय कोश है, अमृत का अाह्वान है । सुन और शान्ति केवल अहिंसा पर ही अवलंबित हैं।
धर्म का द्वितीय रूप यहाँ संयम बतलाया गया है। संयम का अर्थ है-इन्द्रियों और मन का दमन करना तथा प्राणी की हिंसा जनक प्रवृत्ति से बचना । संयम अहिंसा रूपी वृक्ष की ही एक शाखा है । कहा भी है-..... ___... ... ... अहिंसा निउणा दिट्ठा सयभूएसु:संजमो .... ...
अर्थात् लमस्त प्राणियों पर संयम रखना यही अाहिला है। इस प्रकार संयम और अहिंसा एक रूप होने पर भी यहाँ संयम को पृथक् कहने का प्रयोजन इतना हीं है कि अहिंसा की आराधना के लिए संयम की मुख्य अपेक्षा है। संयम का पाचरंग करने से अहिंसा का ठीक-ठीक आचरण हो सकता है। असंयमी पुरुप अहिंसा का आचरण नहीं कर सकता। संयम. संक्षेप से दो प्रकार का है। (१) इंद्रिय संयम और । २)प्राणी संयम । पाँचों इन्द्रियों को और मन को अपने-अपने विषयों में. प्रवृत्ति करने से रोक कर श्रात्मा की ओर उन्मुख करना इन्द्रिय संयम. है। और षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना प्राणी संयम है। . . . . . . . . . .
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[ १४६ ] :तात्पर्य यह है कि मन, वचन और काय के अधीन न होना बल्कि मन, वचन, काय को अपने अर्धान बना लेना संयम कहलाता है। विषय-भेद से संयम के सत्तरह भेद होते हैं । वे इस प्रकार हैं:-(१) पृथ्वीकाय संयम (२, अपूकाय संयम (३) तेजस्काय संयम (१) वायुकाय संयम (५) वनस्पतिकाय संयम ६) द्वीन्द्रिय संयम(७)त्रीन्द्रियसंयम (E) चतुरिन्द्रिय संयम (8) पञ्चेन्द्रिय संयम (१०) प्रेक्ष्य संयम (११) उपेक्ष्य संयम (१२) अपहृत्यसंयम. (१३) प्रमज्य संयम (१४) कायसंयम (१५) वाक्संयम (१६) मनःसंयम और (१७) उपकरणसंयम, पृथ्वीकाय की घात का मन से विचार न करना, घात-जनक वचन न बोलना और घात करने वाली शारीरिक चेष्टी न करना अर्थात् पृथ्वीकाय की विराधना से चचना पृथ्वीकाय संयम है। इसी प्रकार आगे भी पंचेन्द्रिय संयम पर्यन्त समझना चाहिए । श्रांखों से दिखाई देने योग्य पदार्थों को देखकर ही रखना उठाना प्रेक्ष्य संयम कहलाता है। गुप्तियों के पालन करने में प्रवृत्त मुनियों द्वारा राग-द्वेष का त्याग करना-साम्यभाव होना उपेक्ष्य संयम कहलाता है। निरवद्य आहार ग्रहण करना, निदोष स्थान ग्रहण करना आदि बाह्य साधनों का ग्रहण अपहृत्यसंयम कहलाता है। किसी वस्तु को पूंछकर लेना बिना पूंछे न लेना प्रम्ज्यसंयम कहलाता है। मन, वचन और काय को सावध प्रवृत्ति से बचाना मनःसंयम, बचनसंयम और काय संयम है.। संयम. में सहायक उपकरणों का यतनापूर्वक उपयोग करना उपकरण संयम कहलाता है। .
. संयम की इस व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है कि संयम अहिंसा का ही यतनाचार रूप-साधन है इसीलिए सूत्रकार ने अहिंसा के बाद संयम को स्थान दिया है।
धर्म का तीसरा रूप तप है । संयम के अनन्तर तप का ग्रहण करने से यह सूचित होता है कि तपं संयम का प्रधान सहायक है । तप की सहायता से ही संयंत पुरुष संयम का आचरण करने में समर्थ होते हैं । तप के विशद विवेचन सूत्रकार स्वयं श्राग करेंगे, अतएव यहां उसका विस्तार नहीं किया जाता।
इस प्रकार यह सिद्ध हुश्रा कि अहिंसा परम मंगलमय होने से धर्म है और उसका साधन संयम और संयम का साधन तप भी मंगल के हेतु होने के कारणं मंगल रूप हैं।
धर्म के फल को प्रकट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'जिसका मन सदा धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। यहां भवि (अपि-भी) अव्यय यह सूचित करता है कि धर्मात्मा पुरुष के चरणों में राजा-महाराजा और चक्रवर्ती तो प्रणाम करते ही हैं परलोक में माननीय और पूजनीय समझेजाने वाले देव भी उसे पूजते है-उसे नमस्कार करते हैं।
- यहां यह आशंका की जा सकती है कि यदि देवता, इन्द्र और चक्रवत्ती धर्मास्मा के चरणों में नमस्कार करते हैं, तो भी इससे धर्मात्मा पुरुष की आत्मा का क्या कल्याण हुश्रा ? पूजा-प्रतिष्ठा तो इस लोक संबंधी ऐश्वर्य है-सांसारिक लाभ है। धर्म के आचरण से यदि सांसारिक लाभ होता है तो धर्म का आचरण नाध्यात्मिक
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धर्म स्वरूप वर्णन लाभ के लिए नहीं करना चाहिए । धर्म से यदि आध्यात्मिक लाभ होता है तो सूत्रकार ने उसे क्यों नहीं प्रकट किया ? . . . ....
......... :: इस शंका का समाधान यह है कि सूत्रकार संक्षेप में ही अपने भाव प्रकट करते . हैं। उनके शब्द थोड़े होते हैं पर उन शब्दों का भाव बहुत विस्तृत और गहन होता है। यहां पर धर्मात्मा को देवों द्वारा नमस्कारणीय कहा गया है । इसका प्राशय यह हुआ कि धर्मात्मा महापुरुष देवों का भी देव-देवाधिदेव-बन जाता है. । देवाधिदेव वही हो सकता है जिसका आध्यात्मिक विकास, चरम सीमा पर पहुंच चुका हो। इससे स्पष्ट हो गया कि जिसका मन सदा धर्म में ही संलग्न रहता है उसे न केवल जगत् नमस्कार करता है वरन् वह मुक्ति भी प्राप्त करता है और मुक्ति ही प्रात्मा के . लिए परम कल्याण रूप है। .. 'जस्स धम्मे सया मणो' यहां सया (सदा ) शब्द भी विशेष अभिप्राय का सूचक है। 'सदा' शब्द से यह अर्थ प्रतीत होता है कि धर्म जीवन के प्रतिक्षण में श्राराधना के योग्य है । धर्मस्थानक में ही धर्मानुकूल वृत्ति बनाने वाले और धर्मस्थानक से बाहर निकल कर, अन्य सांसारिक कार्यों में धर्म की सवथा उपेक्षा करने वाले पुरुष धर्म का यथावत् आचरण नहीं करते । जिसका अन्तःकरणं धर्म में डूब जाता है उसका प्रत्येक जीवन-व्यवहार धर्म से समन्वित ही होता है। धर्मस्थान और मकान या दुकान में उसका व्यवहार परस्पर विरोधी नहीं होना चाहिए । धर्मात्मा पुरुष आजीविका उपार्जन करता है फिर भी धर्म से निरपेक्ष होकर नहीं। वह उठता है, वैठता है, वार्तालाप करता है, पर इन सब क्रियाओं में धर्म की अवहेलना नहीं करता । तात्पर्य यह है कि सच्चे धर्मात्मा का प्रत्येक व्यवहार, अपनी पदमर्यादा के अनुसार धर्ममय ही होता है। जिसके व्यवहार में धर्म की अवहेलना होती. है.वह सच्चा धर्मात्मा नहीं है। यही श्राशय व्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने 'सया' शब्द का प्रयोग किया है । अतएव धर्म के प्राचरण द्वारा जो आत्मिक विकास या श्रात्मकल्याण चाहते हैं उन्हें अपने प्रत्येक व्यवहार में, प्रतिक्षण, धर्म को सन्मुख रखना चाहिए। ऐसा करने से ही धर्म की सच्ची आराधना होती है । . .. . 'मणो' पद भी यहां एक विशिष्ट श्राशय को सूचित करता है। शरीर के द्वारा की जाने वाली वंदना-नमस्कार या अन्य कोई भी क्रिया तभी धर्म रूप हो सकती है जब मन उसके साथ होता है। जिलद्रव्य क्रिया के साथ मन का संबंध नहीं होता अर्थात् विना मन के लोक-दिखावे के लिए जो शारीरिक क्रिया की जाती है वह निष्कल है। अतएव धर्म की आराधना करने वाले पुरुषों का यह परम कर्तव्य है कि उनकी समस्त धार्मिक क्रियाएँ हृदयस्पर्शी हो-मात्र-शरीर-स्पर्शी न हो, इस बात का ध्यान रक्खें । मन की क्रिया ही मुख्य रूप से बंध और मोक्ष का कारण होती है। 'मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः। अतएव मन को धर्माचरण के अनुकूल. बनाना ही मुख्य रूप से धर्म की साधना है । इस अभिप्राय को प्रकट करने के लिए, सूत्रकार ने 'मणो' पद का प्रयोग किया है।
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तृतीय अध्याय .
[ १५१ ] मूलः-मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुविति साहा।
... साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता,तो से पुष्पं च फलं रसोय ६ - छाया:-मूलात्कन्धप्रभवो द्रुमस्य, स्कन्धात् पश्चात् समुपयन्ति शाखाः। .. - शाखाप्रशाखाभ्यो विरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रसश्च ॥ ६॥
· शब्दार्थः-वृक्ष के मूल से स्कन्ध अर्थात तना उत्पन्न होता है, तदन्तर स्कंध से शाखाएं उत्पन्न होती हैं । शाखाओं और प्रशाखाओं से पत्ते उत्पन्न होते हैं। फिर उस वृक्ष में फूल लगते हैं, फल लगते हैं और फलों में रस उत्पन्न होता है ।
भाष्यः-आगे कहे जाने वाले दाष्ट्रान्तिक को सुगमता से समझने के लिए यहां पहले दृष्टान्त का प्रयोग किया गया है । तात्पर्य यह है कि जैसे मूल के विना स्कन्ध, स्कन्ध के बिना शाखाएँ, शाखाओं के बिना प्रशास्त्राएँ ( पतली डालियां टहनियां), शाखा-प्रशाखाओं के बिना पत्ते पत्तों के बिना पुष्प, पुष्पों के बिना फल और फलों के बिना रस नहीं उत्पन्न होता अर्थात यह सब क्रम से ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार नाग कहे जाने वाले विनय रूपी मूल के बिना हृदय में धर्म का उदय नहीं होता। - गाथा का अर्थ स्पष्ट है अतएव विशेष विवरण की आवश्यकता नहीं है। मूलः-एवं धम्मस्स विणो, मूलं परमो से मुक्खो। .
जेण कित्तिं सुनं सिग्घ, नीसेसं चाभिगच्छइ ॥७॥ - छाया:-एवं धर्मस्य विनयो मूलं, परमास्तस्य मोक्ष। ..
___ येन कीर्ति श्रुतं शीघ्र, निश्शेषं चाभिगच्छति ॥ ७ ॥ शब्दार्थः-इसी प्रकार धर्म का मूल विनय है और धर्म का अन्तिम रस मोक्ष है । विनय से कीर्ति, तथा सम्पूर्ण श्रुत को शीघ्र प्राप्त कर लेता है।
भाष्यः-जैसे वृक्ष के मूल से स्कन्ध श्रादि क्रम से उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार विनय से श्रुत आदि की प्राप्ति होती है। वृक्ष का अस्तित्व जैसे मूल पर अवलम्बित है उसी प्रकार धर्म विनय पर अवलम्बित है। विना मूल के वृक्ष क्षण भर भी नहीं टिक सकता, इसी प्रकार विना विनय के धर्म क्षणं भर नहीं टिक सकता । अतएव धर्म को यहां विनय-मूलक कहा गया है । वृक्ष के मूल से स्कन्ध, शाखा आदि क्रमपूर्वक अन्त में रस का उदय होना बतलाया गया है उसी प्रकार विनय से ध्रुत श्रादि की प्राप्ति होते-होते क्रमशः मोक्ष रूपी परम-चरम-रस-मोक्ष की प्राप्ति होती है। .
विनय का जैनागम में बहुत विस्तृत अर्थ प्रतिपादन किया गया है। विनय का अर्थ सिर्फ नम्रता ही नहीं है, किन्तु सम्पूर्ण श्राचार-विचार का विनय में समावेश होता है । 'संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगाररस मिक्खुणो, विणयं पाउ करिस्लामि आणुपुचि सुणेह मे।' यहां साधु के श्राचार को विनय शब्द से ही निरूपण किया है। नम्रता के अर्थ में भी विनय शब्द का प्रयोग किया गया है, क्योंकि नम्रता प्रद
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धर्म स्वरूप वर्णन र्शित करना भी प्राचार का ही एक अंग है । अतएव दोनों अर्थों में अन्तर नहीं है, यह सहज ही समझा जा सकता है । ज्ञाता धर्म कथा में कहा है- . ..
'विणयमूले धम्मे परणत्ते, से वि य विणये दुविहे परणत्ते, तंजहा-आगारविणए य अणगार विणए य । तत्थ णं जे से श्रागार विणए से णं पंच अणुव्वयाई, सत्तसिक्खावयाई, एक्कारस उवासग.पडिमाओ..। तत्थ णं. जे से अणगार विणए स णं पंच महत्वयाइं ... । दुविहेणं विणयमूलेणं धम्मेणं अनुपुत्वेणं अट्ठसम्मपगडीओ खवेत्ता लोयग्गपयट्ठाणे भवन्ति ।' .
- अर्थात् धर्म विनयमूलक कहा गया है। वह विनय भी दो प्रकार का है:श्रागार विनय और अनगार विनय । इसमें जो आगार विनय है सो पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह श्रावक को प्रतिमाएँ हैं । अनगार विनय में पांच महाव्रत हैं। दो प्रकार के इस विनय-मूलक धर्म से क्रमशः कर्म की आठ प्रकृतियों का क्षय करके (जीव) लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है।
. इस प्रकार श्री उत्तराध्ययन और नायाधम्मकहा के उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'विनय' में समस्त प्राचार.का. अन्तर्भाव हो जाता है। नम्रता और श्रादर प्रदर्शन के अर्थ में 'विनय' शब्द. व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रयुक्त किया गया है। उसका उल्लेख आगे किया जायगा।
सत्कार-विनय करने योग्य व्यक्ति का आदर करना; सन्मान-यथोचित सेवा करना, कृतिकर्म-वन्दना करन:योग्य को वन्दैना, अभ्युत्थान-गुरुंजन को देखते ही श्रासनं त्याग कर खड़ा हो जाना, अञ्जलिकरण-हाथ जोड़ना, आसनाभिग्रह-आसन देना, श्रासनानुप्रदान-गुरुजन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर शासन ले जाना, गौरव योग्य व्यक्ति के सामने जाना, बैठे हुए की सेवा करना, उनके. गमन करने पर पीछे-पीछे चलना, इत्यादि विनय के रूप हैं।
विनय के सात भेद हैं:-(१) ज्ञान विनय (२) दर्शन विनय (३) चारित्र विनय (४) मन विनय (५) वचन विनय (६) काय विनय और (७) लोकोपचार विनय ।
- ज्ञान के पांच भेद हैं अतएव विषय भेदं से ज्ञान विनय भी पांच प्रकार का है। मतिज्ञान की आराधना करना और श्रौत्पातिक-श्रादि वुद्धियों के धनी पुरुषों के प्रति विनम्रता का भाव रखना मतिज्ञान विनय है । इसी प्रकार श्रुतज्ञान और श्रुतज्ञानी के प्रति, अवधिज्ञान और अवधिज्ञानी के प्रति, मनः पर्याय ज्ञान और मनः पर्याय ज्ञानी के प्रति, तथा केवलज्ञान केवलज्ञानी के प्रति वहुमान.का. भाव अन्तःकरण में होना क्रमशः श्रुतज्ञान विनय आदि समझना चाहिए। . . . . . . .
दर्शन विनय दो प्रकार है-(१).शुश्रुपा विनय और (२) अनाशातना विनयः ।। शुद्ध सम्यग्दृष्टि के आने पर सत्कार, सन्मान, कृतिकर्म श्रादि पूर्वोक्त प्रकारसे उसकी यथोचित. सेवा-भक्ति करना.शुश्रूषा विनय है । अनाशातना विनय के पैंतालीस भेद.. हैं। वे इस प्रकार हैं:- ..... .. ... ... ... ... . . . . . . .
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मृतीय अध्याय ":: (१) अमुक अरिहन्त के नाम-स्मरण से उपद्रव होता है, दुर्भिक्ष होता है, या शत्रुका नाश होता है, इस प्रकार कहना अरिहंत की आशातना है। .. .... (२ जैन धर्म में स्नान आदि शौच का विधान नहीं है, अतएव यह धर्म मलीन है, इस प्रकार कहना अईन्त भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म की आशातना है।
(३) पांच प्राचार के पालक श्राचार्य की श्राशातनी करना । जैसे-यह प्राचार्य तो बच्चे हैं-थोड़ी उम्रके हैं, शास्त्रज्ञ भी नहीं हैं।
(४) दादशांग के ज्ञाता, स्व-पर सिद्धान्त के पारणामी उपाध्याय का वर्णवाद चोलना उपाध्याय की आशातना है । जैसे-इन उपाध्याय को क्या पाता है ? इन से ज्यादा ज्ञानी तो में हूं ? इत्यादि कहना।।
(५) साठ वर्ष की उम्र वाले वयःस्थविर, वीस वर्ष की दीक्षा वाले दक्षिास्थविर और स्थानांगसूत्र तथा समवायांग सूत्र के गुह्य अर्थ के ज्ञाता श्रुतस्थविर की निन्दा करना स्थविर श्राशातना है। .
__(६) एक गुरु के समीप अध्ययन करने वाले शिष्य-समूह को कुल कहते हैं। उस कुल की निन्दा करना कुलं की आशातना है।
(७) साधुओं का समुदाय गण कहलाता है । उस गण की बुराई करना गण.. की ओशांतना है। . .
(८) साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप संघ की आशातना करना संघ.की. पाशातना करना कहलाता है।
(६) शास्त्रोक्त शुद्ध क्रिया की अवहेलना करना क्रिया की आशातना है। ...
(१०) एक साथ आहार श्रादि करने वाले सांभोगिक मुनि की निन्दा आदि करना सांभोगिक की भाशातना है ।
(११-१५) मतिज्ञान आदि परचो हानों की बुराई करना ज्ञान की पांच श्राशातनाएँ हैं। . . .
इन पन्द्रह की श्राशातना का त्याग करना, इन्हीं की भक्ति और बहु-मान करना तथा इन्हीं के गुणों का कीर्तन करना १५४३-४५.भेद अनाशातना विनय के समझने चाहिए। . . .
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्यराय और यथाख्यातं, इस पांच प्रकार के चारित्र का विनय करना और इनका भाचरण करने वालों के प्रति प्यादरभाव होना पांच प्रकार का चारिष विनय है। ..
.. मन, वचन और काय का व्यापार क्रमशः मनविनय, पचनविनय और कारविनय कहलाता है । मनविनय के दो सूल भेद है-प्रशस्त मनविनय और अप्रशस्त मनविनय । प्रशस्त मनविनय सात प्रकार का है-(१) पाप रहिस (२) क्रोध आदि रहित (३) किया में श्रासाप्ति रहित (७) शोक श्रादि उपफ्लेशों आदि से रहित (५)
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[ १५४. ]
धर्म स्वरूप वर्णन श्रानव रहित (६ स्व-पर के श्रायास से रहित (७) और जीवों को भय उत्पन्न न हो, इस प्रकार मन की प्रवृत्ति करना प्रशस्त मनविनय है। इससे विपरित पाप: युक्त विचार करना, क्रोध श्रादि रूप मन को प्रवृत्त करना, आदि लात प्रकार का अप्रशस्त भनविनय है।
वचन-योग की शुभ और अशुभ. की प्रवृत्ति के कारण वचन-विनय भी प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। मनविनय में कहे हुए लात दोषों से युक्त वचन की प्रवृत्ति करना सात प्रकार का अप्रशस्त वचन विनय है और उन दोषों से रहित वचन बोलना सात प्रकार का प्रशस्त वचन विनय है।.
काय विनय के भी प्रशस्त-अप्रशस्त के भेद से दो भेद होते हैं । यतनापूर्वक गमन करना, यतनापूर्वक स्थित होना, यतनापूर्वक वैठना, यतना के साथ बिस्तर पर लेटना, सावधानी से उल्लंघन करना, सावधान होकर विशेष उल्लंघन करना, सावधान होकर सव इन्द्रियों की प्रवृत्ति करना, यह सात प्रकार का प्रशस्त काय विनय है। इससे विपरीत प्रवृत्ति करना सात प्रकार का अप्रशस्त कायविनय है।
सातवें लोकोपचार विनय के भी सात प्रकार हैं-१) गुरु श्रादि बड़ों के पास जाना (२) उनकी इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करना (३) उनका कार्य सिद्ध करने के लिए सुविधा कर देना (४) किये हुए उपकार का बदला चुकाना (५) रोगी की सारसँभाल करना (६. देश-काल के अनुसार व्यवहार करना ७) सब कार्यों में अनुकूल रूप से वर्ताव करे ऐसे कार्य करे जिससे किसी को बुरा न लगे।
भगवती सूत्र मे उल्लिखित इन भेद-प्रभेदों से यह स्पष्ट होजाता है कि विनय में नम्रता के अतिरिक्त समस्त प्रवृत्तियां-सम्पूर्ण आचार विचार अन्तर्गत है।
इस प्रकार की विनय से युक्त पुरुप विनीत कहलाता है । विनीत के पन्द्रह लक्षण बताये गये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) निरर्थक न भटकना २) स्थिर पालन से बैठना (३) निरर्थक भाषण न करता (४) स्वभाव में स्थिरता होना (५) चिरकाल तक क्रोध न रखना ६) अपने साथियों से मिल-जुल कर रहना (७) विद्वान् होने पर भी अभिमान न करना ( स्वयंकृत अपराध स्वीकार कर लेना-दूसरों पर दोष न डालना ) साधर्मीपर कुपित न होना (१० , शत्रु के भी गुणों की प्रशंसा करना (२१) किसी की गुह्य वात प्रकट न करना (१२) मिथ्या आडम्बर न करना (१३) तत्वज्ञानी बनना १४) श्रेष्ट बनना, १५) लज्जाशील तथा जितेन्द्रिय होना।
. जो पुरुप इन विनीत के लक्षणों को धारण नहीं करता, प्रत्युत इनसे विपरीता श्रांचरण करता है वह अविनीत होता है । . . .
विनीत पुरूप को क्या फल प्राप्त होता है, यह बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि विनय से इस लोक में कीर्चि प्राप्त होती है और श्रुत की प्राप्ति होती है। अर्थात विनीत शिष्य शीघ्र ही शास्त्रों का मर्मज्ञ बन जाता है और क्रम से मुक्ति प्राप्त करता है।
निस्सेयसं' पद के स्थान पर. 'निस्सेसं पाठ भी कहीं-कहीं दृष्टिगोचर
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तृतीय अध्याय
[ १५५ ]
होता है । ' निस्सेसं ' अर्थात् सम्पूर्ण । यह श्रुत का विशेषण है अतः उससे यह श्राशय निकलता है कि विनय से सम्पूर्ण श्रुत की प्राप्ति होती है । सम्पूर्ण श्रुत की प्राप्ति होने से पुरुष श्रुत केवली पद प्राप्त करना है और श्रुत के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता बन जाता है ।
मूलः - अणुसिंहं पि बहुविहं, मिच्छदिट्टिया जे नरा अबुद्धिया । बद्धनिकाइयकम्मा, सुति धम्मं न परं करेति ॥ ॥
छाया:- अनुशिष्टमपि बहुविधं, मिथ्यादृष्टयो ये नरा श्रबुद्धयः । बद्धनिकाचितकर्माणः शृण्वन्ति धर्मं न परं कुर्वन्ति ॥ ८ ॥
शब्दार्थः—जो मनुष्य मिध्यादृष्टि, और बुद्धिहीन होते हैं, और जिन्होंने प्रगाढ़ कर्म बांधे हैं, वें गुरु के द्वारा नाना प्रकार से प्रतिपादित धर्म को सुन तो लेते हैं पर उसका आचरण नहीं करते ।
भाष्यः–धर्म का स्वरूप और धर्म का मूल प्रतिपादन करने के पश्चात् यहां यह बताया गया है कि धर्म का आचरण करने का पात्र कौन होता है और कौन नहीं होता ?
जिनकी दृष्टि मिथ्या है अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से जिन्हें जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्वों पर श्रद्धा नहीं है. और सम्यग्दृष्टि न होने के कारण जो अज्ञानी हैं- जिन्हें सत्-असत् का विवेक नहीं है और जिन्होंने तीव्र संक्लेश परिणामों के कारण गाढ़े और चिकने कर्म वांधे हैं वे सद्गुरु द्वारा भांतिभांति से उपदिष्ट धर्म के स्वरूप को सुनकर भी उसका श्राचरण नहीं करते हैं । तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि और मिथ्याज्ञानी होने के कारण वे सम्यक् चारित्र रूपधर्म को अंगीकार करने में समर्थ नहीं होते हैं ।
प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षय या उपशम से सर्व विरति रूप चारित्र होता है और प्रत्याख्यानावरण के क्षय या उपशम से देशविरति चारित्र की प्राप्ति होती हैं। जो मिध्यादृष्टि है उसके अनन्तानुबन्धी कपाय का उदय होता है और अनन्तानुचन्धी कषाय सम्यक्त्व और चारित्र दोनों का घात करती है । अतएव मिध्यादृष्टि जीव धर्म का श्राचरण नहीं कर पाते । सूत्रकार ने इस कथन से यह भी सूचित किया है कि अतिशय पुण्योदय से जिन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है और जो हिताहित का विचार करने में समर्थ हैं और जिनके कर्म निकाचित नहीं हैं, उन्हें धर्म का श्रवण करके यथाशक्ति अवश्य पालन करना चाहिए ।
मूल :- जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न बड्ढई 1 जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ ६ ॥
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धर्म स्वरूप वर्णन ...: छायाः-जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्न वर्द्धते । ... यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धर्म समाचरेत् ॥ ६॥ . . . . :
शब्दार्थ:-जब तक वृद्धावस्था नहीं सताती, जब तक व्याधि नहीं बढ़त्ती और जब . तक इन्द्रियां शिथिल नहीं होती, तब तक धर्म का आचरण कर ले। ......
भाष्यः-पहले यह बताया गया था कि मिथ्यादृष्टिं धर्म का आचरण नहीं करते, किन्तु जो सम्यग्दृष्टि हैं और जो धर्म का आचरण करने में समर्थ हैं, वे भी प्रमाद में ऐसे तन्मय रहते हैं कि धर्माचरण की और उनका ध्यान नहीं जाता । वे सोचते हैं कि अभी जीवन वहुत लम्बा है। कुछ दिनों बाद ही धर्म का श्राचरण कर लेगे । उन्हें वोध देने के लिए सूत्रकार ने कहा है कि वृद्धावस्था-जन्य पीड़ा उत्पन्न होने से पहले ही धर्म का आचरण कर लो। वृद्धावस्था पाने पर अपने शरीर को संभालना ही कठिन हो जाता है। उस अवस्था में सम्यक् रूप से धर्म का आचरण होना कठिन है । इसके अतिरिक्त कौन कह सकता है कि वृद्धावस्था जीवन में आवंगी ही ? क्योंकि संसार में बहुत से बालक, युवा और प्रौढ़ व्यक्ति भी यमराज के.अतिथि बन जाते हैं । जव वृद्धावस्था का श्राना निश्चित नहीं है तब उसके. भरोसे बैठे रहना बुद्धिमत्ता नहीं है। .. कभी-कभी वृद्धावस्था श्राने से पूर्व ही व्याधि इतनी अधिक बढ़ जाती हैं कि जीवन भारभूत हो जाता है और इन्द्रियां भी किसी भी समय धोखा दे सकती हैं। इस प्रकार जीवन को वृथा बनाने वाले बहुसंख्यक विनों की विद्यमानता में कौन विवेकी व्यक्ति वृद्धावस्था के विश्वास पर बैठा रह सकता है ? कोई नहीं । अतएक भविष्य की अपेक्षा न रख कर शीघ्र ही धर्म को प्राचरण करना चाहिए। ____ . सूत्रकार ने यहां व्याधि के लिए बढ़ जाना कहा है, उत्पन्न, होना नहीं कहा। इसका आशय यह है कि व्याधि शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की सदा विद्यमान रहती हैं। वह नवीन उतान्न नहीं होती । जव वह अतिशय मंद. रूप में रहती है तब यह समझा जाता है कि व्याधि है ही नहीं और जब बढ़ जाती है तब उसका उत्पन्न होना कहा जाता है । परन्तु-वास्तव में व्याधि सदा विद्यमान रहती है।
. अथवा जर शारीरिक वेदना रूप है और व्याधि शब्द यहां मानसिक वेदना के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। कहा भी है-- .. ___.. 'जे,णं जीवा सारीरं वेयणं वेदेति, तेसि. ए. जीवाणं जरा, जे णं जीवा 'माणसं वेयणं वेदेति तेसि ण जीवाण सांग .. .. भगवती सूत्र, श० १६, उ०२
अर्थात् जो जीव शारीरिक वेदना बेदते हैं उन जीवों को जरा होती है और जो जीव मानसिक वेदना वेदते हैं उन जीवों को शोक होता है। ___इस प्रकार व्याधि शब्द को मानसिक वेदना (शोक:) के अर्थ में लिया जाय तो गाथा का अर्थ यह होता है, कि जब तक शारीरिक और मानसिक वेदना नहीं बढ़ जाती और इन्द्रियां शिथिल नहीं पड़ती तव तक धर्म का प्राचरण: कर लेना चाहिए।
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तृतीय अध्याय .
[ १५७ ] मूलः-जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनिप्रत्तइ।
अहम्म कुणमाणस्स, अफला जति राइनो ॥१०॥ छाया:-या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्त्तते ।
अधर्म कुर्वाणस्य, अफला यान्ति रात्रयः ॥ १०॥ शब्दार्थः-जो-जो रात्रि चली जाती है वह लौटकर नहीं आती । अधर्म करनेवाले की रात्रियां निष्फल जाती हैं।
. भाप्यः-सभ्यदृष्टि जीवों को धर्म में उन्मुख करने की विशेष प्रेरणा करने के लिए काल का मूल्य यहां बताया गया है । सूत्रकार का आशय यह है कि परिमित समय तक रहने वाले जीवन का एक-एक दिन और रात्रि भी अमूल्य है, क्योंकि संसार का उत्तम से उत्तम पदार्थ मूल्य देकर खरीदा जा सकता है । गया हुआ जवाहरात रुपयों से फिर प्राप्त किया जा सकता है, गया हुआ राज्य भी मिल सकता है, नष्ट हुश्रा धन पुनः उपार्जन किया जा सकता है । अतएव यह सब पदार्थ बहुमूल्य भले ही हों पर अमूल्य नहीं हैं। मगर जीवन का एक एक दिन और एक-एक घंटा, घड़ी, मिनिट, क्षण और समय-जो बीत जाता है सो फिर किसी भी भाव नहीं खरीदा जा सकता । समस्त पृथ्वी बदले में देकर भी कोई अपने जीवन के बीते हुए क्षण वापिस नहीं पा सकता । अतः जीवन के क्षण अमूल्य हैं। इन क्षणों को सफल बनाने का एक मात्र उपाय धर्म का सेवन करना ही है । धर्म-सेवन के अतिरिक्त . जीवन की और कोई सार्थकता या सफलता नही है।
___ जो लोग अधर्म का सेवन करते हैं अर्थात् हिंसा आदि पापमय व्यापारों में संलग्न रहते हैं, विषय-कपाय का पोषण करने में लगे रहते हैं और धर्म का आचरण नहीं करते, उनके जीवन की रात्रियां निष्फल जाती है । उनका जीवन निरर्थक हो जाता है। असीम पुण्योदय से प्राप्त जीवन को अधर्म के सेवन में व्यतीत कर देना कितना बड़ा प्रमाद है ? इसलिए हे भन्य जीव ! तुझे अनुपम अवसर मिला है। चेत, शीघ्र सावधान हो । जीवन को सफल बनाने के लिए धर्म-सेवन कर।
यहां और अगली गाथा में अधर्म करने वाले की रात्रि निष्फल और धर्म करने चाले की रात्रि सफल बताई है, सो 'रात्रि' शब्द उपलक्षण है। उससे वर्ष, मास, पक्ष, सप्ताह, दिन मुहर्त, घंटा, मिनिट आदि अन्य काल विभागों का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। मूलः-जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनिअत्तइ । .
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जति राइनो ॥ ११ ॥ ___ छायः-या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । ।
__भमं च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः ॥ ११ ॥
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[ १५८ ]
धर्म स्वरूप वर्णन
शब्दार्थ : - जो-जो रात्रि व्यतीत होजाती है वह फिर नहीं लौटती । धर्म करनेवाले की रात्रियां सफल हो जाती हैं ।
भाण्यः - जीवन का समय निरर्थक किस प्रकार व्यतति होता है, यह बताने के पश्चात् उसकी सफलता कैसे होती है, सो यहां बताया गया है । जीवन की सार्थकता धर्म के सेवन करने में हैं । सांसारिक ऐश्वर्य और भोग-विलास की सामग्री का संचय करने में जीवन को कृतार्थ- सफल समझने वाले जीवों के नेत्र खोलने के लिए सूत्रकार कहते हैं - उसी का जीवन सफल होता है जो धर्म का आचरण करता है । अपरिमित पुराय की पूंजी लगाकर खरीदा हुआ जीवन पाप के उपार्जन में लगादेना और उससे नाना दुःखों को आमंत्रण देना विवेकशीलता नहीं है । भाव सुगम है ऋतएव उसके विशेष व्याख्यान की आवश्यकता ही नहीं है ।
मूलः - सोही उज्जुभूयस्स, धम्मो सहस्स चिट्ट | व्विाणं परमं जाइ, घयसित्तिव्व पाव ॥ १२ ॥
ン
निर्वाणं परमं याति घृतसिक्त इव पावकः ॥ १२ ॥
शब्दार्थः -- सरलस्वभाव वाले को ही शुद्धता प्राप्त होती है और शुद्ध पुरुष के हृदय
में ही धर्म ठहरता है और वह उत्कृष्ट निर्वाण प्राप्त करता है, जैसे घी का सिंचन करने से अनि प्रदीप्त हो जाती है ।
छया:-शुद्धिः ऋजुभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति ।
भाग्यः -- धर्माचरण की प्रेरणा करने के पश्चात् सूत्रकार यह व
धर्म कहां स्थिर रह सकता है ? इसी प्रश्न का समाधान करने के लिए कहा गया है कि ऋजुता से युक्त पुरुष ही शुद्धि प्राप्त करता है । योग की अता को ऋजुता या श्रार्जव या सरलता कहते हैं। तत्पर्य यह है कि मन वचन और काय की प्रवृत्ति में एक रूपता होना ऋजुना है । जो पुरुष अपने मन में जैसा विचार करता है, वैसा ही वचन कथन करना चाहिए और उसी के अनुसार शारीरिक चेष्टा होना चाहिए । यही निष्कपट व्यवहार है । इसके विरुद्ध जो कपटाचारी होता है जिसके मन में कुछ, वचन में कुछ और शरीर से और ही कुछ प्रवृत्ति होती है उसे मायाचारी कहते हैं । निष्कपट हृदय वाला पुरुष ही शुद्धता प्राप्त करता है क्योंकि उसके परिणामों में संक्लेरा नहीं होता | मायावी का अन्तःकरण सदैव संक्लिष्ट रहता है । उसके योगों मैं एक रूपता न होने से उसे सदा अपना कपट प्रकट होने का भय बना रहता है । ऐसी अवस्था में उसे सदैव नाना प्रकार की मिथ्या कल्पनाएँ करनी पड़ती है। उसक चित्त सदा उधेड़बुन में फँसा रहता है । इस कारण उसके परिणामों में निरन्तर मलिनता छाई रहती है और जहां परिणामों में मलिनता होती है वहां शुद्वको काश नहीं मिलता। इसीलिए माया को तीन शल्यों में परिगणित किया गया है और उसका त्याग होने पर ही व्रतों की स्थिति बताई गई है । इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने यहां ऋजु अर्थात् श्रभायी जीव की ही शुद्धि का प्रतिपादन किया है ।
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तृतीय अध्याय
[ १५६ ] जहां निरन्तर संक्लेशमय परिणाम होते हैं वहां धर्म की स्थिति नहीं होती अतएव सूत्रकार ने कहा-शुद्ध पुरुष के हृदय में ही धर्म ठहरता है।
जैसे अग्नि में घृत क्षेपण करने से अग्नि प्रदीप्त और विशिष्ट तेज वाली हो जाती है, साथ ही उसकी ज्वालाएँ ऊँची उठने लगती हैं उसी प्रकार सरलता-जन्य शुद्धि प्राप्त होने पर श्रात्मा चारित्र से विशिष्ट तेजस्वी बन जाता है और ऊर्ध्वगमन करके निर्वाण को प्राप्त करता है । निर्वाण का स्वरूप आगे सविस्तर प्रतिपादन किया जायगा। मूल:-जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ १३ ॥ __ छाया:-जरामरणवेगेन, बाह्यमानानां प्राणिनाम् ।
धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:--जरा-मरण रूप (जल के) वेग से बहाये जाते हुए प्राणियों को धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति हैं और उत्तम शरण है। . भाष्यः-धर्म की उपयोगिता का यहां वर्णन किया गया है। पहले यह बतलाया गया था कि ऋजुता युक्त पुरुप में ही धर्म का वास होता है, किन्तु उस धर्म की उपयोगिता क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यहां दिया गया है।
नंदी के तीव्र प्रवाह में बहने वाली कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रहती, इसी प्रकार संसार में जन्म-मरण के कारण कोई भी जीव एक अवस्था में स्थिर नहीं रहता। आज जन्म लेता है, कल मृत्यु वा घेरती है, इस प्रकार यह जीव जन्म और मरण के प्रवाह में अनादिकाल से बहता चला आ रहा है । जन्म-मरण का यह प्रवाह कहीं . समाप्त होगा या अनन्त काल तक इसी भांति चलता रहेगा? यह प्रश्न प्रत्येक विचारवान् व्यक्ति के मस्तिष्क में उद्भूत होता है और प्रत्येक पुरुष अपने-अपने मन्तव्य के अनुसार समाधान करके संतोप मान बैठता है। कोई कहता है-जैसे दीपक जलते-जलते अकस्मात् बुझ जाता है उसी प्रकार यह आत्मा जन्म-मरण करते-करते अचानक ही समाप्त हो जाती है । कोई कहते हैं कि जैसे नटी रंगमंच पर अपना अभिनय प्रदर्शित करने के पश्चात् स्वतः अभिनय से निवृत्त हो जाती है उसी: प्रकार प्रकृति जब अपना अभिनय समाप्त कर देती है तब पुरुष जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है । पर विचार करने से यह सब कल्पनाएं निराधार ठहरती हैं। इनके सम्बन्ध में आगे विचार किया जायगा।
प्रस्तुत प्रश्न का समाधान सूत्रकार ने यह दिया है कि जन्म-मरण के बेग में चहने से बचने के लिए धर्म ही एक मात्र द्वीप के समान आधारभूत. है । धर्म ही. प्राणी को स्थिरता प्रदान कर सकता है। उसके अतिरिक्त और कोई गति नहीं है और कोई शरणभूत नहीं है। धर्म ही जन्म-मरण के प्रवाह से बचा कर किनारे लगा . सकता है। कहा भी है:-. . . . . . . . . .
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[ १६० ]
धर्म स्वरूप वर्णन
धम्मो मंगलमडलं, श्रीसंहमउलं च सव्वदुक्खाणं । धम्मो बलमवि विडलं, धम्मो ताणं च सरणं च ॥
अर्थात् - धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है, धर्म ही समस्त दुःखों की सर्वश्रेष्ठ औषधी. है, धर्म ही विपुल बल है, धर्म ही त्राण है, धर्म ही शरण 1
जो लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं वे धर्म को पारस्परिक वैमनस्य का हेतु कह कर उसकी अवहेलना करते हैं । पर धर्म में प्राणी मात्र पर मैत्रीभाव रखने का आदेश दिया जाता है, वैमनस्य का नहीं। किसी धर्म का कोई अनुयायी यदि अन्यायी है तो उस अन्याय को धर्म का दोष नहीं समझना चाहिए । जो लोग किसी अनुयायी के व्यवहार को धर्म की कसौटी बनाते हैं, उनकी कसौटी ही खोटी है । धर्म अपनी कल्याणकारिता की कसौटी पर कसा जा सकता 1. शास्त्र प्रतिपादित धर्म के स्वरूप का निरीक्षण करने से धर्म एकान्त सत्य वस्तु स्वरूप का दर्शक, एकान्त कल्याणकारी और जगत् को शरणभूत प्रतीत होगा ।
मूलः - एस धम्मे धुवे णिच्चे, सासए जिणदेसिए ।
सिद्धा सिज्यंति चाणेणं, सिज्झिसंति तहावरे ॥ १४॥
छाया:- एपो धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो जिनदेशितः ।
सिद्धाः सिध्यन्ति चानेन, सेत्स्यन्ति तथाऽपरे ॥ १४ ॥
शब्दार्थः - जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट यह धर्म ध्रुव है, नित्य है, और शाश्वत है । इस धर्म के निमित्त से अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं, वर्त्तमान में सिद्ध हो रहे हैं तथा भविष्य में सिद्ध होंगे ।
भाष्यः – यहां पर सूत्रकार ने धर्म का माहात्म्य बतलाते हुए उसकी नित्यता का प्रतिपादन किया है ।
राग द्वेष आदि श्रन्तरिक शत्रुओं को जीतने वाला महापुरुष जिन कहलाता है । 'जिन' भगवान् के द्वारा जिस धर्म का निरूपण किया जाता है वह "जिनदेशित ' धर्म कहलाता है । इस अध्याय में जिस धर्म का निरूपण किया गया है वह धर्म जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट है और ध्रुव, नित्य तथा शाश्वत है । इसी धर्म का श्राश्रय लेकर अनादिकाल से अब तक अनन्त जीव सिद्धि ( मुक्ति ) प्राप्त कर चुके हैं, वर्त्तमान में भी इस धर्म के अनुष्ठान से जीव सिद्धि प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में भी इसी धर्म के श्राचरण से जावों को सिद्धि प्राप्त होगी ।
यहां यह जिज्ञासा हो सकती है कि यदि धर्म जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित हुआ है तो वह नित्य अर्थात् श्रनादिकाल से अनन्त काल तक स्थिर रहने वाला किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि प्रत्येक जिन सादि हैं और उनकी प्ररूपणा भी सादि: ही होती है । इसका समाधान यह है कि यद्यपि प्रत्येक जिन सादि है- अनादिकालीन 'जिन' का होना असंभव है, तथापि जिन भगवान् की परम्परा अनादिकालीन है ।
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तृतीय अध्याय
। १६१ ] और प्रत्येक जिन की प्ररूपणा एक ही होती है अतएव उनका उपदिष्ट धर्म भी अनादि. कालीन है।
इसके अतिरिक्त प्ररूपणा सादि होने पर भी धर्म अनादिकालीन हो सकता है। श्राकाश के स्वरूप का अाज निरूपण करने से जैसे श्राकाश अद्यतत नहीं हो सकता उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान् द्वारा अमुक काल में धर्म की प्ररूपणा करने के कारण धर्म अमुककालीन नहीं हो सकता । धर्म वस्तु का स्वभाव है । वस्तु का स्वभाव अनादिकालीन ही होता है अतएव धर्म अनादिकालीन है।
- धर्म को ध्रुव बतलाकर सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि विभिन्न तीर्थंकरों के शासन में, विभिन्न देशों और कालों में, धर्म कभी अन्यथा रूप नहीं होता । धर्म तीनों कालों में सदा एक रूप ही रहता है। जैसे अग्नि का स्वभाव भूतकाल में दाह रूप था; वर्तमान में दाह रूप है और भविष्य में भी दाह रूप ही रहेगा, उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु का स्वभाव संदा काल एक रूप ही रहता है और वस्तु का स्वभाव ही धर्म कहलाता है श्रतएव वह कभी अन्यथा रूप नहीं हो सकता।
संसारी जीव की जन्म-मरण-जरा आदि व्याधियां त्रिकाल में एक-सी हैं और इन व्याधियों के निदान मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय भी त्रिकाल में एकसे रहते हे अतएव इन व्याधियों की औषधि (धर्म) भी सदा एक-सी रहती है। अथवा पांच और पांच संख्याओं का योग दस होता है, यह भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनों कालों के लिए सत्य है. इसमें समय के भेद ले भेद नहीं होता उसी प्रकार धर्म में भी काल भेद से भेद नहीं होता । यही सूचित करने के लिए उत्तरार्ध में कहा गया है कि इसी धर्म के द्वारा जीव सिद्ध हुए हैं, होते हैं और होंगे।
अवसर्पिणी काल के इस पांचवें भारे में यद्यपि कोई जीव भरतक्षेत्र से मुक्त नहीं होते तथापि विदेहक्षेत्र आदि की अपेक्षा से वर्तमान काल का कथन समझना चाहिए। क्योंकि विदेहक्षेत्र में वीस तीर्थकर विद्यमान रहते हैं और वहां से वर्तमान में भी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-वृतीय अध्याय
समाप्तम्.
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ॐ नमः सिद्धेभ्य
निर्ग्रन्थ-प्रवचन ॥ चतुर्थ अध्याय ||
आत्म शुद्धि के उपाय
श्री भगवानुवाच -
मूलः - जह परगा गम्मंति, जे परगा जा य वेयणा परए । सारीर माणसाईं, दुक्खाई तिरिक्खजोणी ॥ १ ॥
छाया:-यथा नरका गच्छन्ति ये नरका या च वेदना नरके ! शारीरमानसानि दुःखानि तिर्यकयोनौ ॥ १ ॥
शब्दार्थः—(श्रमण भगवान् महावीर इन्द्रभूति गौतम से कहते हैं ) जैसे नारकी जीव नरक में जाते हैं और वे नरक में वेदना सहन करते हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्च यो में भी जीव शारीरिक और मानसिक वेदनाएँ सहते हैं ।
भाष्यः - तृतीय अध्याय में धर्म के स्वरूप का वर्णन किया गया है । धर्म के अनुष्ठान के लिए प्रेरणा भी की गई है । धर्म के अनुष्ठान से ही आत्म-शुद्धि होती है । अतएव इस चतुर्थ अध्याय में आत्म- -शुद्धि के उपायों का विवेचन किया गया है ।
सांसारिक दुःखों का परिज्ञान होने पर ही, उससे बचने के लिए मनुष्य आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है । श्रतएव सर्वप्रथम दुःखों का दिग्दर्शन यहां कराया गया है । चतुर्गति रूप संसार में सर्वत्र दुःख का सद्भाव है । उसमें से यहां नरक गति और तिर्यञ्च गतिं के दुःखों का निर्देश किया गया है । संसारी जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार नरक में घोर वेदनाएं सहन करते हैं । कदाचित् तिर्यञ्च गति में जाते हैं तो वहां भी अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्ट सहने पड़ते हैं । वध, बन्धन, छेदन, भेदन, भूख, प्यास, भार-वंदन आदि की असंख्य वेदनाएँ तिर्यञ्च गति में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं । कुछ तिर्यञ्च ऐसे हैं जो शारीरिक वेदनाएँ ही सहन करते हैं क्योंकि वे असंज्ञी हैं - विना मनके हैं। संज्ञी जीव शारीरिक वेदनाओं के साथ मानसिक वेदनाएँ भी सहते हैं । इस प्रकार यह दोनों गतियां श्रत्यन्त दुःख रूप हैं | नरक गति का विस्तृत विवेचन आगे किया जायगा ।
मूल:- माणुस्सं च णिच्चं वाहिजरामरणवेयणापउरं । देवे देवलोए, देविड्ढि देव सोक्खाई ॥ २ ॥
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चतुर्थ अध्यायं .
। १६३ ] छायाः-मानुष्यं च नित्यं, व्याधिजरामरणवेदनाप्रचुरम् । .
- ... देवश्च देवलोको देवा देवसौख्यानि ॥२॥ . शब्दार्थ:--मनुष्य भव अनित्य है और वह व्याधि, जरा, मरण रूपी प्रचूर वेदना से परिपूर्ण है । देवभव में देवपर्याय, देव--ऋद्धि और देव-सुख भी अनित्य है । : भाष्यः-नरक और तिर्यञ्च गति के दुःखों का निर्देश करने के पश्चात् यहां मनुष्यगति और देवगति के दुःखों का निरूपण किया गया है । साधारणतया मनुष्य गति और देवगति सुख रूप समझी जाती है। जीव इन गतियों की कामना करते हैं, इसलिए यह दोनों शुभ गतियां मानी गई हैं, फिर भी वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो यह दोनों गतियां भी सुख रूप नहीं हैं। सर्व प्रथम बात तो यह है कि यह दोनों गतियां अनित्य हैं । किञ्चित् काल के अनन्तर इन भवों का नाश हो जाता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य गति नाना प्रकार की व्याधियों से युक्त है । वृद्धावस्था आने पर जब समस्त अंगोपांग अत्यन्त शिथिल हो जाते हैं, अपना शरीर आप से नहीं संभलता, उठने-बैठने और चलने-फिरने में मनुष्य असमर्थ हो जाता है, तब उसकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाती है । मुख से लार टपकने लगती है, कमर झुकजाती है, सिर हिलने लगता है, और हाथ-पैर काबू में नहीं रहते । इस दुर्दशा का जब कुछ भी प्रतीकार करना संभव नहीं रहता तव मनुष्य अपने आपको एकदम असहाय अनुभव करता है । वह अपने आपको काल के विकराल गाल में प्रवेश करता हुआ समझता है। उस समय उसकी शारीरिक और मानसिक वेदना इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उसका शब्दों द्वारा उल्लेख नहीं किया जा सकता। थोड़े दिनों के पश्चात् मृत्यु उसे घेर लेती है । मृत्यु के समय भी मनुष्य अनिर्वचनीय दुःख का अनुभव करता है। : .
. इसी प्रकार देवगति में देवता संबंधी सुख और ऋद्धि संसार में सबसे श्रेष्ठ है, पर वह भी स्थायी नहीं रहती। जब उसका विछोह होने लगता है तो देवता घार दुःख का अनुभव करता है । तत्पश्चात् तियञ्च आदि गतियों में उसे फिर भटकना पड़ता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार में कहीं भी सुख नहीं है । संसार में सुख होता. तो बड़े-बड़े चक्रवर्ती अपना अखण्ड. पट्खण्ड साम्राज्य त्याग कर क्यों निर्ग्रन्थ बनते १ अतएव संसार में चारों गतियों की वेदनाओं को भली भांति विचार कर विवेकी पुरुषों को उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए । सूल:-गरगं तिरिक्खजोणिं, माणुसभावं च देव लोग च । सिद्धे य सिद्धवसहि, छज्जीवणियं परिकहेइ ॥३॥
छाया:-नरकं तिर्यग्योनि, मानुप्य भवं देवलोकशे ।
. सिद्धश्च सिद्धवसति, पट्लीवनिकायं परिकथयति ॥ ३॥ शब्दार्थः-जो जीव पाप कर्म करते हैं वे नरक में जाते हैं या निर्यञ्च योनि प्राप्त
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[ १६६ ]
श्रात्म-शुद्धि के उपाय
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बंधक है और राग द्वेष सूक्ष्म प्रतिबंधक हैं - वे मन को अयथार्थ बना देते हैं । राग-द्वेष का आवरण जिसके मन पर चढ़ जाता है वह किसी वस्तु को 'सुखदायी, किसी को दुःखदायी, किसी को भली, किसी को बुरी समझने लगता है । पर वास्तवमै न कोई वस्तु बुरी है, न भली है । यह सब राग-द्वेष की क्रीड़ा है। रागद्वेष का खिलौना बनकर यह जीव किसी वस्तु को प्राप्त करके हर्ष-विभोर हो जाता है और किसी का संयोग पाकर दुःख से व्याकुल बन जाता है । यह हर्ष-विषाद हीं कर्म - बंध का जनक है और इसी से दुःखों के सागर में निमग्न होना पड़ता है । जो योगी राग-द्वेष से रहित है, वह प्रत्येक पदार्थ को वीतराग भाव से देखता है । पदार्थ परिणति का दृष्टा होते हुए भी उसमें राग-द्वेष का अनुभव नहीं करता। वह जानता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने संयोगों के अनुसार परिणमन कर रहा है । उसमें राग द्वेष का संबंध स्थापित करने से श्रात्मा की समता भावना मलीन हो जाती है । अतएव योगी के लिए न कोई पदार्थ इष्ट होता है, न कोई अनिष्ट ही होता है । इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का भेद न होने से संयोग की अवस्था में न हर्ष का अनुभव होता है और न वियोग की अवस्था में विषाद का अनुभव होता है । योगीजन दोनों अवस्थाओं में समान बने रहते हैं । अन्तःकरण में जब इस प्रकार की साम्यभाव रूप परिणति रहती है तब जीव कर्मों के समूह का - जिनका वर्णन द्वितीय अध्ययन में किया जा चुका - श्रन्त कर देता है ।
मूलः - जह रागेण कडा, कम्माणं पावगो फल विवागो ।
जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति ॥ ६ ॥
छाया: - यथा रागेण कृतानां, कर्मणां पापकः फलविपाकः ।
. यथा च परिहीणकर्माणः सिद्धाः सिद्धालयमुपयान्ति ॥ ६ ॥ शब्दार्थः—जैसे राम भाव से बांधे हुए कर्मों का फल पाप रूप ( दुःख रूप ) होता है, वैसे ही कर्मों से सर्वथा रहित सिद्ध भगवान् सिद्धालय को प्राप्त होते हैं ।
भाष्य:--: -जैसे तराजू की डंडी में अगर उंचाई होती है तो निचाई भी अवश्य होती है, इसी प्रकार जहां राग होता है वहां द्वेप भी अवश्य होता है । राग के बिना द्वेप की स्थिति संभव नहीं है । इसीलिए राग द्वेष श्रादि समस्त दोषों को हटा देने वाले महापुरुष को वीतराग कहते हैं। वीतराग' कहने से ' वीतद्वेष ' का बोध स्वत: हो जाता है । इसी प्रकार यहां गाथा में राग के ग्रहण करने से द्वेष का भी ग्रहण समझना चाहिए। अतएव तात्पर्य यह है कि जो जीव राग और द्वेष के वशः होकर अशुभ कर्मों का उपार्जन करता है, उसे पापमय फल की प्राप्ति होती यै । कम की अशुभ प्रकृतियां पहले बतलायी जा चुकी हैं । उन प्रकृतियों का परिणाम उस जीव को भोगना पड़ता है ।
इससे विपरीत जो राग-द्वेष मय परिणामों का त्याग करके समस्त कर्मों का
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चतुर्थ अध्याय
[ १६७ ) पूर्ण रूप से अन्त कर देते हैं घे सिद्ध पर्याय अर्थात विशुद्ध श्रात्म-परिणति प्राप्त करके सिद्धालय को प्राप्त करते हैं। कर्मों का सर्वथा विनाश होने पर श्रात्मा स्वभा. चतः ऊर्ध्वगमन करके लोकाकाश के अन्त में विराजमान हो जाता है । वही लोकान सिद्धालय कहलाता है। मूलः-भालोयणनिरवलावे, प्रावई सुदढधम्मया ।
अणिस्सिोवहाणेय, सिक्खा निप्पडिकम्मया ॥७॥ अण्णायया अलोमेय, तितिक्खा अजवे सुई। सम्मदिट्ठी समाहीय, आयारे विणोवए ॥ ८॥ धिई मई य संवेगे, पणिहि सुविहि संवरे । अत्तदोसोचसंहारे, सव्वकामविरत्तया ।। ६ ।। पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लवालवे । माणसंवर जोगे य, उदये मारणंतिए ॥ १०॥ संगाणं य परिणणाया, पायच्छित्त करणेविय। श्राराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ॥ ११ ॥ छाया:-अालोचना निरपलापा, अापत्तोसुदृथधर्मता ।
अनिश्चितोपधानश्च, शिक्षा निःप्रतिकर्मता ॥ ७ ॥ अज्ञातता.अलोभश्च, तितिक्षा चार्जवः शुचिः।। सम्यग्दृष्टिः समाधिश्च, प्राचारो विनयोपेतः ॥ ८॥ धृतिः मतिश्च संवेगः, प्रणिधिः सुविधिः संवरः। , प्रारमदोपोपसंहारः, सर्वकाम विरता ॥६॥ . प्रत्यारल्यानं ध्युत्सर्गः, अप्रमादो लशालयः । ध्यान-संवर योगाश्च, उदये मारणान्तिके ॥ १०॥ सङ्गानान्च परिझाय; प्रायश्रित्तकरणमपि च । .
पाराधना च मरणान्ते, द्वात्रिशतिः योगसंग्रहा. ॥ ५॥ शब्दार्थः-बत्तीस योग-संग्रह इस प्रकार हैं-(१) आलोचना (२) निरपलाप (३) आपत्ति में भी धार्मिक दृढ़ता (४) अनिश्रतोपधान (५) शिक्षा (६) निःप्रतिकर्मता (७) अज्ञानता (5) अलोभ (E) तितिक्षा (१०) आर्जव (११) शुचिता (१२) सम्यग्दृष्टि (१३) समाधि (१४) आचार (१५) विनय (१६) धृति (१७) मति (१८) संवेग (१८) प्रणिधि (२०) संवर (२१) आत्मदोपोपसंहार (२२) सर्वकामविरक्ति (२३) प्रत्यारपान (२४)
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[ १६८ ]
श्रात्म-शुद्धि के उपाय व्युत्सर्ग (२५) अप्रमाद (२६) लवालव (२७) ध्यान (२८) संवरयोग (२६) मरणान्तिकउदयः (३०) संगपरिज्ञातना (३१) प्रायश्चित्त और (३२) मारणान्तिक आराधना ।
भाष्यः-जिस विधि का अनुसरण करने से मन, वचन और काय अर्थात् तीन योगों का निग्रह होता है और जिसस योग की साधना सुकर बनती है, उस विधि का अनुसरण करना: योग संग्रह कहलाता है। प्रत्येक मनुष्य को और विशेषतः योगीजनों को यह विधियां अवश्यमेवं पालनीय हैं। इनसे श्राध्या सक शुद्धि होती है । बत्तीससंग्रह का स्वरूप इस प्रकार हैं:- : . . . . .
(१) पालोचना-शिष्य को जान में या अनजान में जो कोई दोष लगा हो, उसे अपने गुरु के समक्ष प्रकाशित कर देखें।
(२) निरपलाप-शिष्य द्वारा प्रकाशित दोपों को गुरुकिल्ली और से न कहे।
(३) धार्मिक दृढ़ता-घोर से घोर कष्ट प्रा पड़ने पर भी अपने धर्म में दृढ़अटल-रहना।
(४) अनिश्रित-उपधान-निष्काम तपस्या करना अर्थात् तप के फल स्वरूफ स्वर्ग के सुखों की.या इसलोक सम्बन्धी ऋद्धि, महिमा, प्रशंसा, यश-कीर्ति श्रादि की इच्छा न रखते हुए तप तपना।
(५) शिक्षा-श्रासेविनी-(ज्ञान-लाभ सम्बन्धी ) शिक्षा तथा ग्रहणी (चारित्रलाभ सम्बन्धी) शिक्षा के दाता का उपकार मानकर शिक्षा को अंगीकार करना ।
(६) निःप्रतिकर्मता-शरीर आदि को नहीं सजाना । . (७). अज्ञातता-गृहस्थ को मालूम न हो सके, इस प्रकार गुप्त रूप से तपस्या करना। . . . . . . . . . . . . . :.
(८) अलोभ-बाह्य पदार्थों का तथा कीर्ति श्रादि का लोभ न करना। (ह) तितिक्षा-परीपह और उपसर्ग सहन करना। (१०) आजैव-योग की कुटिलता का त्याग कर सरलता धारण करना । (११) शुचिता-अन्तःकरण को राग-द्वेष प्रादि से दूषित न होने देना। (१२) सम्यग्दृष्टि-शंका श्रादि दोषों से रहित सम्यक्त्व का पालन करना। (१३) समाधि-अन्तःकरण को सदा स्वस्थ और स्थिर रखना। (१४) आचार-ज्ञान आदि पांच प्राचारों की यथाशक्ति वृद्धि करना । (१५) विनय-पूर्वोक्त विनय का आचरण करना। (१६) धृति-संयमादि के अनुष्ठान में धैर्य धारण करना । (१७) मति-सदा वैराग्यमयी बुद्धि रखना। (१८) संवेग, संसार से तथा भोगोपभोगों से उदासीन रहना।
(१६) प्रणिधि-प्रात्मा के शान प्रादि गुणों को खजाने की भांति यत्नपूर्वक सुरक्षित रखना-दृषित न होने देना।
(२०) सुविधि-संयम पालन में ढील न करना-शिथिलता न आने देना । .. (२१) श्रात्म दोषोपसंहार-अपने प्रात्मा में चोर की तरह घुसे हुए दोषों को
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चतुर्थ अध्याय
[ १६६ ] खोज-खोज कर निकालना। . . . . . .
(२२) सर्व काम विरक्तता-इंद्रियों के भोगों से तथा सब प्रकार की कामनाओं से विरक्त रहना।
(२३) प्रत्याख्यान यम, नियम, तप, त्याग की शक्ति के अनुसार वृद्धि करते रहना।
(२४) व्युत्सर्ग-उपाधि से रहित होना, शिष्य श्रादि का अभिमान न करना ।
(२५) अप्रमाद-निद्रा, विकथा, जाति, कुल आदि का अहंकार श्रादि किसी भी प्रकार का प्रमाद न करना।
(२६ लवालव-जिस काल में जो क्रिया करनी चाहिए उस काल में उस क्रिया का निर्वाह करना।
(२७) ध्यान-भात-ध्यान और रौद्र-ध्यान का त्याग करके धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान धारण करना ।
__ (२८) संवर योग-मन वचन काया के अशुभ योगों को सम्यक् प्रकार से रोकना। - (२६) मारणान्तिक उदय-जीवन का अन्त करने वाले कष्ट उपस्थित होने पर भी चित्त में क्षोभ न होने देना।
(३०) संगपरिक्षाय-संसार का कारण समझ-बूझकर स्वजन परिजन संबंधी स्नेह को त्यागना।
(३१) प्रायश्चित्त-किये हुए पापों की निन्दा म करना, पश्चात्ताप करना और शल्य रहित वन जाना।
(३२) मारणान्तिक आराधना-श्रायु का अन्त सन्निकट पाया जानकर आहार आदि का त्याग कर देना, शारीरिक ममता का त्याग कर संथारा करना-समाधिभाव के साथ देह का परित्याग करना।
इस वत्तीस प्रकार के योग-संग्रह को जो मुनि अपने हृदय-प्रदेश में स्थापित कर तदनुकूल प्रवृत्ति करते हैं वे शीघ्र ही मुक्ति के अधिकारी वन जाते हैं । इनका आचरणं श्रात्म-शुद्धि का उत्कृष्ट उपाय है। मूलः-अरहंतसिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुए तवस्सीसु ।
वच्छल्लया तेर्सि अभिक्ख, णाणोचोगे य ॥ १२ ॥ दंसणविणए प्रावस्सए य, सीलब्बए निरइयारो। खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही यः ॥ १३ ॥ अपुव्वणाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहिं कारणेहिं, तित्थपरत्तं लहइ जीवो ॥ १४ ॥
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[ १७०
आत्म-शुद्धि के उपाय छाया:-अहसिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुतेषु तपस्विषु। .
वत्सलता तेषां अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥ १२ ॥ दर्शनविनय अावश्यकं च शीलव्रतं निरतिचारम् ।
क्षणलवस्तपस्त्यागः वैयावृत्यं समाधिश्च ॥ १३ ॥
__ अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचनप्रभावनया। - एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ १४ ॥ . शब्दार्थः-अरिहंत, सिद्ध, वीतरागोक्त आगम, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत तथा तपस्वी पर वात्सल्य भाव रखना-इनके गुणों का कीर्तन करना, सदा ज्ञान में उपयोग रखना। निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करना, विनीत होना, षट् आवश्यक का पालन करना, अतिचार रहित शीलों और व्रतों का पालन करना, शुभ ध्यान ध्याना, तप करना, त्याग करना, वैयावृत्य (सेवा) करना, अविकृत चित्त रखना। नित्य नया ज्ञान ग्रहण करना, श्रुत की भक्ति करना, निग्रन्थ-प्रवचन की प्रभावना करना, इन कारणों से जीव तीर्थकरत्व प्राप्त करता है। . भाष्यः-तीर्थकर गोत्र की प्राप्ति निम्न लिखित वीस कारणों से होती है:- .
(१) अर्हन्त भगवान् का गुणानुवाद करना। (२) सिद्ध भगवान् का गुणानुवाद करना।
(३) प्रवचन अर्थात् वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट शास्त्र का गुणानुवाद करना। . . . . . . . . . . . . .
(४) पञ्च महाव्रतधारी गुरु महाराज का गुणानुवाद करना। : (५) स्थविर श्रोत् वृद्ध मुनिराज का गुणानुवाद करना। '. (६) बहुश्रुत अर्थात् शास्त्रों के विशिष्ट नाता ज्ञानी पुरुषों का गुणानुवाद करना।
(७) तपस्वी का गुणानुवाद करना। (८) बार-बार ज्ञान में उपयोग लगाना।
(8) निर्मल-निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करना अर्थात् शुद्ध श्रद्धा में किंचित् भी दोष न लगने देना।
(१०) गुरु आदि महा पुरुषों का यथोचित विनय करना।
(११) देवसी, रायसी, पाक्षिक, चातुर्मालिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण को यथासमय भावशुद्धिपूर्वक करना तथा अन्य शास्त्रोपदिष्ट आवश्यक क्रियाओं का आचरण करना। . . . . .
(१२) शील अर्थात् ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का तथा प्रत्याख्यानों का अतिचार न लगाते हुए पालन करना। " .. .. ... ..
(१३) निरन्तर वैराग्यमयी वृत्ति-अनासक्ति का भाव रस्वती । (१४ चारह प्रकार की तपश्चर्या करना । ... ६१५) सुपात्र को प्रीतिपूर्वक दान देना। . . . . . . :: ..."
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चतुर्थ अध्याय
[ १७१ ] (१६) गुरु, रोगी, तपस्वी, वृद्ध और नवदीक्षित का वैयावृत्य करना। (१७) समाधि भाव रखना।
(१८) नित्य नये सान का अभ्यास करना। ... (१६) श्रुत-भक्ति अर्थात् सर्वक्ष भगवान के वचनों पर श्रद्धा-भक्ति रखना। .
(२०) जिनधर्म की प्रभावना करना-अर्थात् अपने विशिष्ट शान से, चारित्र से, वाक् कौशल से तथा शास्त्रार्थ प्रादि करके जैन धर्म की महिमा का विस्तार करना एवं धर्म के विषय में फैले हुए अज्ञान को दूर करना ।
उल्लिखित बीस कारणों से जीव को तीर्थकर नाम कर्म का बंध होता है। तीर्थकर प्रकृति समस्त पुण्य प्रकृतियों में श्रेष्ठ है । उसकी प्राप्ति के लिए उच्चतर श्रेणी की निर्मलता अपेक्षित है । इन बीस कारणों में उत्कृष्ट रसायन श्राने से ही तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है।
इस महान पुण्य प्रकृति के बंध के लिए भावों की अत्यन्त निर्मलता की भावश्यकता होती है । क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्व या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की अवस्था में, अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवे अप्रमत्त संयत नामक गुणस्थान तक चार गुणस्थान वाले मनुष्य ही इसे बांध सकते हैं । और वे भी उसी समय वांध सकते हैं जब केवली भगवान् या द्वादशांग के सम्पूर्ण ज्ञाता श्रुतकेवली के निकट मौजूद हो।।
आठ कर्मों में से चार घातिया कमों का क्षय करने वाले, जीवन मुक्त-सशरीर परमात्मा अरिहंत कहलाते हैं । अरिहंत भगवान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग और अनन्त श्रामिक सुख से संपन्न होते हैं। मोहनीय कर्म का क्षय कर देने के कारण उनकी समस्त इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं । उनके चार श्रघातिक कर्म शेष रहते हैं और उन्हीं के कारण वे परा मुक्ति नहीं पाते । शुक्ल ध्यान के पालम्बन से जब चार अघातिक कर्म भी क्षीण हो जाते हैं तब अदेह दशा या परम मुक्ति प्राप्त होती है । उस समय चह सिद्ध कहलाने लगते हैं। प्रकृष्ट वचन को प्रवचन कहते हैं । अर्थात् जो वचन प्राप्त पुरुष द्वारा उच्चारण किया गया हो, युक्तियों द्वारा खंडित न हो सकता हो, प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमारणों से प्रतिकूत न हो, पूर्वापर विरोध से युक्त न हो, प्राणी मात्र का कल्याण करने वाला हो, वह वचन प्रवचन अथवा श्रागम कहलाता है । संस्कृत-व्याकरण के अनुसार 'प्रकृष्टस्य वचनं प्रवचनं' अर्थात् 'प्रकट पुरुप का वचन' ऐसी भी व्युत्पत्ति हाती है । उसके तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं थाता। इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी प्राप्त पुरुष का वचन ही 'प्रवचन ' पद का अभिधेय सिद्ध होता है।
श्रझान-अंधकार का विनाश करके सम्यम्झान का प्रकाश करने वाले, तथा निर्मल सम्यक्त्व के दाता, पंच महाव्रतधारी सुनिराज गुरु कहलाते हैं । गुरुयों में जो ज्येष्ठ होते हैं वे स्थविर कहलाते हैं। सूत्र-सिद्धान्तों के मर्मन विद्वान बटुश्रुत हैं। अनशन श्रादि विशिष्ट तप करने वाले तपस्वी कहलाते हैं। इन सब में वात्सल्य भाव
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[ १७२ ]
आत्म-शुद्धि के उपाय रखने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है। ............. .
विशुद्ध सम्यक्त्व का धारण करना, पूर्व प्रतिपादित विनय का पालन करना, प्रतिदिन नियमित रूप से, नियत समय पर शुद्ध भावों से प्रावश्यक क्रिया करना, सात शील और पांच व्रतों में अतिचार न लगाते हुए उनका पालन करना, प्रशस्त ध्यान में तत्पर होना, यथाशक्ति तप और त्याग (दान) करना, मुनियों की वैयावृत्य करना, और समाधि रखना भी तीर्थकरत्व की प्राप्ति का कारण हैं। ...
नित्य नवीन ज्ञान का अर्जन करना: श्रत के प्रति आदर और भक्ति की भावना रखना, तपस्या ज्ञान वादविवाद आदि के द्वारा वीतराग भगवान् के उपदेश की प्रभावना करना अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् द्वारा जगत के कल्याण के लिए जिस धर्म का प्ररूपण किया गया है उसका महत्त्व सर्वसाधारण में चढ़ाना, उसके संबंध में जो अज्ञान फैला हुश्रा हो उसका निवारण करके जिनशासन का प्रभाव विस्तार करना,. इन कारणों से जीव को तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। ...
__ संसार में जितने पदार्थ पुण्य के द्वारा प्राप्त होते हैं उन सब में तीर्थ कर पद सर्वश्रेष्ट है। इससे अधिक उत्कृष्ट अन्य कोई भी पुण्य का फल नहीं है इसी से यह जाना जा सकता है कि तीर्थकर पद की प्राप्ति के लिए कितने अधिक पुराय की अपेक्षा रहती है। यहां इस पद की प्राप्ति के जो कारण बताये गये हैं उनमें से किसी भी कारण से तीर्थकर पद प्राप्त हो सकता है, पर वह प्रगाढ़ और चरम सीमा को प्राप्त होना चाहिए । साधारण कारण से. तीर्थकर पद प्राप्त नहीं होता। यही कारण है कि जब असंख्यात जीव मुक्त होते हैं तब भी. तीर्थकर' चौवीस ही होते हैं। अतएव तीर्थकर पदवी पाने की अभिलाषा रखने वाले भव्य जीवों को विशिष्ट अतिशय विशिष्ट प्रयत्न करना चाहिए । ........ . .. . . .
: मुक्त और तीर्थकर में इतना भेद हैं कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने वाला प्रत्येक आत्मा मुक्त कहलाता है परन्तु तीर्थकर भगवान् सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त करके श्रावक-श्राविका-साधु-साध्वी रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करते हैं । जगत में तीर्थकर का धर्म-शासन चलता है । धर्मशासन की प्रवृत्ति करने के पश्चात् वे मुक्ति प्राप्त करते हैं । तीर्थकर, अतिशय पुण्य रूप तीर्थकर नाम-प्रकृति के उदय से होते हैं, प्रत्येक मुक्तात्मा को इस प्रकृति का उदय नहीं होता । एक-एक तीर्थकर के शासन में अगणित श्रात्मा सिद्धि-पद प्राप्त करते हैं । प्रत्येक तीर्थकर अवश्यमेव मुक्ति प्राप्त करते हैं पर प्रत्येक मुक्त तीर्थकर नहीं होते।
. ..' वन्ध के प्रकरण में तीर्थकर नाम कर्म के बंध की सामग्री का उल्लेख किया जा चुका है। अतएव यहां उसका विस्तार नहीं किया जाता । जिज्ञासुओं को वह प्रकरण देख लेना चाहिए।
मूल:-पाणाइवायमलियं, चोरिक्कं मेहुणं दवियमुच्छं। . ... कोहं माणं मायं, लोभं पेजं तहा दोसं ॥ १५ ॥ .
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चतुर्थ अध्याय
[ १७३ ] कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्नरइ-अरइसमाउत्तं । परपरिवायं माया-मोसं मिच्छत्तसल्लं च ॥ १६ ॥ छाया:-माणातिपातमलीक, चौर्य मैथुनं द्रव्यमूर्छाम् । .
क्रोधं:मानं मायां, लोभं प्रेम तथा द्वेषम् ॥ १६ ॥ कलहमभ्याख्यानं, पैशून्यं रत्यरती सम्यगुक्तम् ।
परपरिवादं माया-मृपां मिथ्यात्वशल्यम् च ॥ १६ ॥ शब्दार्थः--प्राणातिपात, असत्य, चौर्य, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, मैथुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, मायामृषा, और मिथ्यात्वशल्य को तीर्थंकरों ने सम्यक प्रकार से पाप रूप प्रतिपादन किया है।
भाष्यः-आत्मशुद्धि के उपायों का अनुष्ठान करने के साथ-साथ ही आत्मा को अशुद्ध वनाने वाले पापों का परिहार करना भी अनिवार्य है । ऐसा किये बिना श्रात्म-शुद्धि नहीं हो सकती । आत्मिक मलीनता के जनक पापों का त्याग भी-आत्मशुद्धि का हेतु हैं। इसी कारण यहां पापों का उल्लेख करके उनके त्याग की आवश्यकता प्रदर्शित की गई है।
यो तो अनन्त जीवों की पाप रूप क्रियाएँ भी अनन्त हैं, उनका शब्दों द्वारा कथन और उल्लेख नहीं हो सकता किन्तु उन तमाम क्रियाओं का वर्गीकरण करने पर अठारह वर्ग होते हैं। इन्हीं बों को शास्त्र में अठारह पापस्थानक कहते हैं। प्रकृत गाथाओं में इन्ही अटारह पापस्थानों का निर्देश किया गया है। उनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार हैं--(१) प्राणातिपात-किसी भी प्राणी के इस प्राणों में से किसी प्राण का घात करना, प्राणी को वेदना पहुंचाना, किसी का दिल दुखाना अथवा अपने द्रव्य भावे प्राणों का घात करना प्राणातिपात या हिंसा है। . .
(२ अलीक-मिथ्या भापण अरना अंर्थात् असत् वस्तु को सत् कहना, सत् को असत् कहना, दूसरे के चित्त को विपाद करने वाले वचन बोलना, हिंसा-जनक चचन प्रयोग करना, सावध भाषा का प्रयोग करना, संशयजनक तथा कर्कश-कठोर वाणी का उच्चारण करना, ।
(३) चौर्य-विना आज्ञा लिए किसी की वस्तु को ग्रहण करना।
(४) मैथुन-स्त्री-पुरुष के परस्पर गुह्य व्यापार को मैथुन कहते हैं । ब्रह्मचर्य का पालन न करना।
१५) परिसह-संसार के पदार्थों पर, संयम के उपकरणों पर तथा शारीर पर भी ममता भाव रखना परिग्रह कहलाता है ।
(६) क्रोध (७) मान (८) माया (६) लोभ (१०) प्रेम अर्थात् इष्ट पदार्थों पर अनुगग करना (११) उप-अनिष्ट पदार्थों से घृणा करना (१२) कलह करना (१३) यभ्याख्यान-किसी की गुप्त बात प्रकट करना (१४) पैशुन्य-चुगली खाना (१५) रति
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[ १७४ .
श्रात्म-शुद्धि के उपाय अरति-संसार के कारणभूत भोगोंपमोगों को पाकर प्रसन्न होना तथा धर्म-साधना में अप्रसन्नता रखना (१६) परपरिवाद-दूसरों को कलंक लगाना-निन्दा करना (१७) माया मृषा-कपटयुक्त असत्य भाषण करना तथा (१८) मिथ्यादर्शनशल्य-मिथ्या श्रद्धान करना।
इन अठारह प्रकार के पापों का सेवन करने से संसार की वृद्धि होती हैं, क्यों कि इनके सेवन से श्रात्मा में मलिनता उत्पन्न होती है । अतएव श्रात्म-शुद्धि का उपाय करने वालों को इन पापों का परित्याग अवश्य करना चाहिए । मूलः-अज्झवसाणनिमित्ते, श्राहारे वेयणापराघाते ।
फासे अणापाणू, सत्तविहं झिझए अाऊ ॥ १७॥ 'छाया:-अध्यवसान निमित्ते, श्राहारो वेदना पराघात :
स्पर्श प्रानप्राणः सप्तविधं क्षीयते श्रायुः ॥ १७ ॥ शब्दार्थः-आयु सात प्रकार से क्षीण होता है--(१) भयंकर वस्तु का विचार आने से (२) शस्त्र आदि के निमित्त से (३) विषैली वस्तुओं के आहार से या आहार के निरोध से (४) शारीरिक वेदना से (५) गढे में गिरने आदि से (६) सर्प आदि के स्पर्श से (७) श्वासोच्छ्वास की रुकावट से।
भाष्यः--अकाल मृत्यु के संबंध में पहले किंचित् उल्लेख किया गया है। यहां सूत्रकार ने अकालमृत्यु के कारणों का निरूपण किया है। अकालमृत्यु का तात्पर्य यह है कि जो श्राय धीरे-धीरे लम्बे समय में भोगी जाने वाली थी वह जल्दी-जल्दी अन्तर्महर्त में भी भोगी जाती है। ऐसा प्रसंग क्यों उपस्थित होता है-नियत समय से पूर्व ही श्रायु कर्म को भोगने का कारण क्या है ? इसी प्रश्न का यहां सात कारण बतलाकर समाधान किया गया है । भयंकर वस्तु के दर्शन से अथवा दर्शन न होनेपर भी उसका विचार श्राने से प्रायु क्षीण हो जाती है । इसी प्रकार लकड़ी, डंडा, अस्त्रशस्त्र प्रादि निमित्तों से, आहार का निरोध होने से या अधिक श्राहार करने से, शूल श्रादि की असह्य शारीरिक वेदना होने से, गड्ढे में गिरना श्रादि वाह्य आघात लगने से, सर्प आदि के काट लेने ले अथवा स्पर्श करते ही शरीर में विष फैला देने वाली किसी भी वस्तु के स्पर्श करने से तथा सांस बंद होने से अकालमृत्यु हो जाती है।
सोपक्रम आयु वाले ही अकालमृत्यु से मरते हैं । अकालमृत्यु व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए।
_ज्ञानावरण आदि समस्त प्रकृतियों का, आयुकर्म की भांति शुभाशुभ परिणामों के अनुसार अपवर्तनाकरण के द्वारा स्थिति आदि के खंडन से उपक्रम होता है। वह उपक्रम प्रायः उन कर्मों का होता है जिनका निकाचना करण के द्वारा निकाचित रूप से (प्रगाढ़ ) बंध नहीं होता है। कभी-कभी तीव्रतर तपश्चर्या का अनुष्ठान करने से निकाचित कम का भी उपक्रम हो जाता है । कर्मों का यदि उपक्रम न हो तो कभी कोई जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि तद्भव मोक्षगामी जीव जव चतुर्थ
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चतुर्थ अध्याय
[ १७५ ]
गुणस्थान में होता है तब उसके अन्तः कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति वाले कर्मों की सत्ता होती है । यदि इस स्थिति का खंडन न हो और समस्त कर्म जितनी स्थिति वाले बंधे हैं उतनी ही स्थिति भोगनी पड़े तो मोक्ष का अभाव हो जायगा । फिर भी यहां केवल आयु कर्म का ही उपक्रम होना बतलाया गया है, उसके दो कारण हैं-प्रथम यह कि आयु कर्म का उपक्रम प्रासेद्ध है, दूसरा यह कि आयु कर्म का उपक्रम वाह्य कारणों से होता है, जब कि अन्य कर्मों का उपक्रम सिर्फ आन्तरिक अध्यवसाय के निमित्त से ही होता है।
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धीरे-धीरे दीर्घ काल में भोगने योग्य कर्म को शीघ्र भोग लिया जाता है, विना ओगे उसकी निर्जरा नहीं होती है, अतएव किये हुए कर्म का नाश ( कृत-नाश ) दोष यहां नहीं आ सकता । इतना विशेष समझना चाहिए कि समस्त कर्म प्रदेशोदय की अपेक्षा श्रवश्य भोगने पड़ते हैं, अनुभागोदय की अपेक्षा कोई कर्म भोगा जाता है, कोई नहीं भी भोगा जाता । श्रागम में कहा है:
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जं तं श्रणुभागकम्मं तं अत्थेोगइयं वेप, अत्थेोगइयं नो वेदइ, तत्थ गं जं तं पएसम्मं तं नियमा वेपइ ।"
अर्थात् अनुभाग कर्म को कोई भोगता है, कोई नहीं भोगता, पर प्रदेश कर्म को नियम से सब भोगते हैं ।
कर्म के उपक्रम के लिए साध्य रोग का दृष्टान्त दिया गया है । जैसे कोई साध्य रोग औषध आदि उपक्रम के बिना लम्बे समय में नष्ट होता है और औषध आदि उपक्रम से शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, और जो असाध्य रोग होता है वह सैंकड़ों औषधियों का सेवन करने से भी नष्ट नहीं होता है, इसी प्रकार कोई कर्म बन्ध के समय उपक्रम योग्य ही बँधता है । अगर उपक्रम का कारण न मिले तो वह अपनी बँधी हुई स्थिति पर्यन्त भोगे बिना नहीं छूटता और यदि उपक्रम की सामग्री मिल जाय तो अन्तर्मुहूर्त्त आदि अल्पकाल में ही प्रदेशोदय द्वारा मुक्त होकर नष्ट हो जाता है । परन्तु जो कर्म निकाचित रूप में बँधता है वह उपक्रम के अनेक कारण उपस्थित होने पर भी, जितने समय में भोगने योग्य होता है उससे पहले प्रायः नहीं भोगा जा
सकता ।
कर्म का उपक्रम सिद्ध करने करने के लिए निम्न लिखित उदाहरण उपयोगी - (१) जैसे फल वृक्ष की शाखा में लगा हो तो धीरे-धीरे यथा समय पकता है और जिस फल को तोड़ कर घास श्रादि से ढँक दिया जाता है वह काल में ही एक जाता है, इसी प्रकार कोई कर्म, चन्धकाल में पड़ी हुई स्थिति के अनुसार नियत समय पर भोगा जाता है और कोई कर्म श्रपवर्त्तना आदि करण के द्वारा अन्तर्मुह भी भोग लिया जाता है ।
(२) जैसे मार्ग बराबर होने पर भी किसी पथिक को गति की तीव्रता के कारण कम समय लगता हैं और किसी को गति की मंदता के कारण अधिक समय लगता है, इसी प्रकार कोई कर्म शीघ्र भांग लिया जाता है, कोई धीरे-धीरे भोगा जाता है ।
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[ १७६: 1
आत्म-शुद्धि के उपाय .:. (३) जैसे दो शिष्य एक ही शास्त्र का अध्ययन करते हैं। उनमें एक की ग्रहण और धारण करने की शक्ति अधिक होने से वह शीघ्र ही शास्त्र का अध्ययन कर लेता है और दूसरा धीरे-धीरे बहुत समय में अध्ययन कर पाता है, उसी प्रकार कर्म की स्थिति एक समान होने पर भी अध्यवसान श्रादि परिणामों से तथा चारित्र श्रादि . के भेद से कर्म के अनुभव में उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य काल-भेद होता है।
(४) जैसे लम्बी रस्सी को एक छोर से सुलगाने पर क्रमशः सुलगते-सुलगते लम्बे समय में सुलग चुकती है और यदि उसे इकट्ठा करके सुलगाया जाय तो शीघ्र ही सारी सुलग जाती है, उसी प्रकार कोई कर्म शीघ्र भोग लिया जाता है और कोई धीरे-धीरे भोगा.जाता है।
(५) जैसे गीला वस्त्र फैला देने से शीघ्र सूख जाता है और इकट्ठा कर रखने से उसके सूखने में बहुत काल लगता है इसी प्रकार कोई कर्म अपवर्तना आदि करण के द्वारा शीघ्र भोग लिया जाता है और कोई यथा-समय बन्धकालीन स्थिति के अनुसार भोगा जाता है। . .
इन उदाहरणों के अतिरिक्त और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिन से यह सिद्ध होता है कि दीर्घकाल में निष्पन्न होने वाली क्रिया को प्रयत्न की विशिमृता से अल्पकाल में ही लम्पन्न किया जा सकता है। अतएव पूर्वोक्त सात कारणों से श्रायु कर्म का उपक्रम होना युक्ति-संगत ही है। जो लोग मिथ्या धारणा के अनु.सार यह समझते हैं कि अकाल में आयु क्षीण नहीं होते, वे भी अपनी या अपने . कुटुम्बीजनों की.रुग्ण अवस्था में औषधोपचार कराते हैं । समय समाप्त हो जाने पर श्रायु टिक नहीं सकती, तो औषध आदि का उपचार निरर्थक ही सिद्ध होता है। इससे जान पड़ता है कि जो श्रायु का अकाल में क्षय होना नहीं कहते वे भी व्यवहार में क्षय होना अवश्य स्वीकार करते हैं। ..
- जब कि यह सिद्ध हो चुका कि अकाल में भी आयु टूट जाती है तव विवेकशील पुरुषों को जावन का विश्वास न करके, शीघ्र ही आत्म-शुद्धि के अनुष्टान में सलग्न हो जाना चाहिए । मूलः-जह मिउलेवालितं, गरुयं तुवं. अहो वयइ एवं ।
प्रासवकयकम्मगुरू, जीवा वचंति अहरगइं ॥ १८ ॥ तं चेव तविमुक्क, जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुक्का, लोयग्गपइट्ठिया होति ॥१६॥ छाया:-यथा मृल्लेपालिप्तं गुरु तुम्बं अधो व्रजत्येवम् ।
यात्रवकृतकर्मगुरवों जीवा ब्रजन्त्यधोगतिम् ॥ १८ ॥ तञ्चैव तद्विमुक्नः जलोपरि तिष्ठति जातलंधुभावः ।। यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकानप्रतिष्ठिता भवन्ति ॥ १६ ॥ .
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चतुर्थ अध्याय -
[ १७७ ]
शब्दार्थ:--मिट्टी के लेप से लिप्त तूम्बा भारी होकर पानी में नीचे चला जाता है, इसी प्रकार आस्रव द्वारा उपार्जित कर्मों से भारी हुए जीव अधोगति प्राप्त करते हैं--नीच योनि में उत्पन्न होते हैं। वही तूम्बा जब मिट्टी के लेप से छूट जाता है तो लघुता प्राप्त कर के जल के ऊपर आ ठहरता है, उसी प्रकार कर्मों से छुटकारा पाने पर जीव लघु होकर ऊपर-- लोक के अग्र भाग पर स्थित हो जाते हैं ।
भाष्यः -- श्रात्मा श्रधोगति और उच्चगति किस कारण से प्राप्त करता है, यह जाने बिना उच्च गति के लिए प्रयास नहीं किया जा सकता और इस प्रयास के बिना आत्मिक शुद्धि नहीं हो सकती, श्रतएव श्रात्म-शुद्धि के प्रकरण इसका उल्लेख किया. गया है ।
यहां आत्मा को तूं की उपमा दी गई है। आत्मा उपमेय है और तूंबा उपमान है । ऊर्ध्वगमन दोनों में समान धर्म पाया जाता है। तूंचा स्वभाव से हलका है, किन्तु मृत्तिका का लेप होने से वह भारी हो जाता है, इसी प्रकार जीव स्वभाव से हलका अतएव ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है, किन्तु कर्म रूपी मृत्तिका के संसर्ग से वह भारी हो रहा है । जब गुरुता - भारीपन का कारणभूत कर्म - संसर्ग हट जाता है तो जीव तूंबे के समान अपने मूल रूप में आकर ऊर्ध्वगमन करता है। तूंचा ऊर्ध्वगमन करके अपनी शक्यता के अनुसार जलकी ऊपरी सतह पर ही जाता है किन्तु आत्मा तूं बे की अपेक्षा अनन्त गुणा हलका होने के कारण लोक के अन्तिम प्रदेशों तक पहुंचता है । आगे धर्मास्तिकाय का - जो कि गति में सहायक है - प्रभाव होने के कारण आत्मा की गति नहीं होती । इसी कारण कर्म - त्रिमुक्त आत्मा को 'लोकाग्रप्रतिष्ठित ' कहा गया है ।
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इसके विपरीत जो जीव अपने अशुभ श्रध्यवसायों के कारण पाप कर्मों का उपार्जन करता है वह कर्मों के भार से गुरु होकर तूंवे के समान श्रधोगमन करता है नरक आदि नीच गति प्राप्त करता है । तात्पर्य यह है कि जो श्रात्मा अपनी शुद्धि चाहता है उसे कर्मों के भार से हलका बनना चाहिए ।
श्री गौतम उवाच -
से कहं सए ?
कहं भुंजतो भासतो, पावं कम्मं न वंधई ? ॥२०॥
मूलः - कहं चरे कहं चिट्ठे कहं
छाया:- कथञ्चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासित कथं शयीत् ? कथं भुञ्जानो भाषभाखः पापं कर्म न बनाति ? ॥ २० ॥
शब्दार्थः - श्री गौतम स्वामी भगवान् से प्रश्न करते हैं किस प्रकार चलना चाहिए ? किस प्रकार ठहरना चाहिए ? किस प्रकार बैठना चाहिए ? किस प्रकार सोना चाहिए ? किस प्रकार भोजन करते हुए और किस प्रकार बोलते हुए पाप कर्म नहीं बंधते ?
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[ १७८]
श्रात्म-शुद्धि के उपाय भाष्यः-आत्मशुद्धि का वर्णन करते हुए पूर्व गाथा में यह बताया गया है. कि कर्म से मुक्त श्रात्मा ऊर्ध्व गति करके लोकान में प्रतिष्ठित हो जाता है, किन्तु पाप कर्म से मुक्ति तभी हो सकती हैं जब नवीन कर्मों का बंध होना रुक जाता है । जिस तालाव में सदा नवीन जल पाता रहता है उस तालाव के जल का पूर्ण क्षय नहीं हो सकता । इसी प्रकार जो श्रात्मा नवीन कर्मों का आदान करता रहता है वह पूर्ण रूप से निष्कर्म कदापि नहीं हो सकता। अतएव नये कर्मों के बंध का निरोध होना निष्कर्म अवस्था प्राप्त होने के लिए अनिवार्य है। .
यही सोचकर श्रीगौतम स्वामी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, परम वीतराग, श्रमणोत्तम श्रीमहावीर से विनय पूर्वक प्रश्न करते हैं कि-भगवान् ! किस प्रकार चलने, ठहरने, बैठने, सोने, भोजन करने से और किस प्रकार भाषण करने से पाप-कर्मों के बंध से बचा जा सकता है ? प्रत्येक क्रियापद के साथ 'कथे' ( कैसे-किस प्रकार ) का प्रयोग यह सूचित करता है कि इन सब क्रियाओं को करते समय, विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है। .
यहाँ जिन क्रियाओं का शाब्दिक उल्लेख किया गया है, वे उपलक्षण मात्र हैं। उनसे अन्य क्रियाओं का भी जिनका उल्लेख गाथा में नहीं किया गया है-ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार उत्तरवर्ती गाथा में भी उपलक्षण से ही उत्तर दिया गया है। वहाँ अन्यान्य क्रियाओं का ग्रहण करना चाहिए।
गाथा में 'बंध' क्रिया के कर्ता का उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु सामर्थ्य से 'जीव' अथवा 'मुनि' कर्ता का अध्याहार करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि किस प्रकार की प्रवृत्ति करने से जीव अथवा मुनि पाप कर्म का बंध नहीं करता है ?
श्रीभगवान् उवाचमूलः-जयं चरे जयं चिट्टे, जयं अासे जयं सए ।
जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥ २१ ॥ छायाः-यतं चरेत् यतं तिष्ठेत्, यत्तमासीत् यतं शयीत् ।
___यतं भुजानो भापभाणः, पापं कर्म न बन्नाति ॥ २१ ॥ शब्दार्थः-श्रीभगवान् उत्तर देते हैं-यतना पूर्वक चलना चाहिए । यतना पूर्वक ठहरना चाहिए। यतना पूर्वक बैठना चाहिए । यतना पूर्वक सोना चाहिए । यतना पूर्वक भोजन करने वाला और यतना पूर्वक भापण करने वाला पाप कर्म नहीं बाँधता है।
भाष्यः-श्रीगौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं-हे गौतम ! आत्म-शुद्धि के अभिलापी और कर्म बंध से बचने की आकांक्षा रखने वाले मुनि या अन्य मुमुनु को चाहिए कि वह यतना के साथ चले, बैठे, ठहरे, सोवे, भोजन करे और भाषण करे । इन सब क्रियाओं को संतना के साथ करने वाला पाप कर्म का बंधन नहीं करता हैं ।
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चतुर्थ अध्याय
[ १७६ ]
जिन धर्म में यतना का बड़ा महत्व है। सावधानता, श्रप्रमाद अथवा हिंसारहित प्रवृत्ति या जागरूकता को यतना कहते हैं । जो प्रवृत्ति यतना के साथ की जाती है उसमें शुभ योग होता है और यतनापूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति में अशुभ योग होता है | शुभ योग के सद्भाव में पाप कर्म का बन्ध नहीं होता । अतएव पाप से बचने के लिए यतनापूर्वक ही प्रवृत्त होना चाहिए । यतना के साथ क्रिया करने में यदि विराधना हो भी गई तो वह भाव पाप का कारण नहीं होती ।
इसके विरुद्ध जो विना यतना के प्रतिलेखन आदि धार्मिक क्रिया करता है वह विराधना का भागी होता है । कहा है
पुढवी आक्काए, तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । पडिलेापमत्तो, छरहं पि विराहओ होइ ॥
अर्थात् प्रतिलेखना में प्रमादी ( यतनापूर्वक आचरण करने वाला ) पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छहों कार्यो की विराधना करता है ।
( इन अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ही काल में, एक ही क्षेत्र में, एक-सी ही क्रिया करने वाले दो पुरुषों में से जो यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता है वह नवीन कर्मों को नहीं बांधता, इतना ही नहीं किन्तु पूर्व-वद्ध कर्मों का क्षय ( निर्जरा ) भी करता है और अयतना से वही प्रवृत्ति करने वाला नवीन पाप कर्म का बन्ध करता है । श्रर्थात् एक के पुराने बँधे हुए कर्म खिरते हैं और दूसरे के नये कर्म बँधते हैं ! इतना महान् श्रन्तर केवल यतना-श्रयतना के कारण हो जाता है । इससे जाना जा सकता है कि आचार धर्म में यतना का कितना महत्वपूर्ण और उच्च स्थान है ? वास्तव में यतना में ही धर्म और प्रयतना में ही अधर्म है । श्रतः सुमुक्षुजनों को प्रत्येक प्रवृत्ति यतना- श्रप्रमाद - पूर्वक करनी चाहिए ।
गाथा में 'जयं' शब्द विशेषण है । उससे क्रिया की विशेषता प्रकट होती है । क्रिया विशेषण नपुंसक लिंग और एकचचन में ही प्रयुक्त होता है, तदनुसार यहां भी 'जय' पद नपुंसक लिंग एकवचन है।
पूर्व गाथा में कहे अनुसार यहां भी उपलक्षण से प्रतिलेखना, प्रभार्जना आदि अन्य समस्त क्रियाओं का ग्रहण करना चाहिए ।
मूल:- पच्छा वि ते पयाया, खिपं गच्छति अमरभवणाई ।
जो पियो तवो संजमो य, खंती य वंभचेरं च ॥ २२॥
छाया:- पश्चादपि ते प्रयाताः, क्षिप्रं गच्छन्ति श्रमरभवनानि । येषां प्रियं तपः संयमश्च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्यञ्च ॥ २२ ॥
शब्दार्थ:संयम और क्षमा तथा ब्रह्मचर्य प्यारा है, वे शीघ्र देवभवनों को जाते हैं ।
:- पश्चात् अर्थात् वृद्धावस्था में भी संयम को प्राप्त हुए मनुष्य, जिन्हें वप
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[ १८० ]
आत्म-शुद्धि के उपाय ... . . भाष्यः-जो जीव अपने जीवन में धर्म की आराधना न करते हुए वृद्ध-अवस्था में जा पहुँचे हैं, उनकी श्रात्म-शुद्धि संभव है या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए यह गाथा कही गई है। ...........................
आत्मा नित्य है, अजर है, अमर है। वह न कभी बालक होता है, न युवा होता है, न वृद्ध होता है । बालक श्रादि अवस्थाएँ शरीर की विभिन्न पर्याय हैं । ऐसी हालत में यह प्रश्न ही कैसे उठ सकता है कि वृद्धावस्था में धर्म-लाधना संभव है या नहीं ?
और जब यह प्रश्न ही संगत नहीं है तब-सूत्रकार ने उसके समाधान का प्रयत्न क्यों किया है ? इसके उत्तर में यह समझना चाहिए कि वास्तव में प्रात्मा कभी बूढ़ा या . वालक नहीं होता। फिर भी कर्मों के कारण उसकी स्वाभाविक शक्तियां अव्यक्त हो रही हैं । अतएव वह जो भी चेष्टा करता है, उसमें शरीर की सहायता की श्रावश्यकता पड़ती है। जानना और देखना आत्मा का स्वाभाविक गुण है. किन्तु वह भी बिना इन्द्रियों की सहायता के व्यक्त नहीं होने पाता । इसी प्रकार अन्यान्य व्यापार भी शरीराश्रित हो रहे हैं। इसी कारण मुक्ति की प्राप्ति में वज्र-ऋषभनाराच संहनन को भी निमित्त कारण के रूप में स्वीकार किया गया है । तात्पर्य यह है कि शरीर यदि सुदढ़ होगा तो मोक्ष-प्राप्ति के अनुकूल प्रबल.पुरुषार्थ हो सकेगा। शरीर.यदि शिथिल, रुग्ण और निर्बल होगा तो उससे वैला पुरुषार्थ नहीं हो सकता, जिसके होने पर भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है। ऐसी अवस्था में यह प्रश्न उठना अलंगत नहीं वरन् सुसंगत ही है। .. - प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार ने बतलाया है कि जिन्हें तप, संयम, शान्ति
और ब्रह्मचर्य प्यारा है, वे वृद्धावस्था में भी यदि सन्मार्ग की ओर उन्मुख होते हैं तो उन्हें देवलोक की प्राप्ति होती है । अतएव वृद्धावस्था में प्राप्त पुरुषों को निराशं न होकर तप आदि के आराधन में दत्तचित्त होना चाहिए। ___. गाथा में 'पियो' शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है । जो शक्तिशाली-पुरुष तप, संयम आदि का अनुष्ठान करते हैं उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है और जो वृद्धावस्था आदि के कारण संयम 'प्रादि के अनुष्ठान में समर्थ नहीं होते, किन्तु जिन्हें लयम, तप,
आदि प्यारो लगता है, जिनकी रुचि, अभिलाषा अथवा प्रीति संयम आदि के अनुप्टान में होती है, वे अपनी पवित्र रुचि-प्रीति के कारण अमर-लोक (स्वर्ग) प्राप्त अवश्य करते हैं।
... ___इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वृद्धावस्था में पहुंच जाने पर भी जिन मुमुक्षुत्रों को संयम, तप, दहमा और ब्रह्मचर्य केवल प्रिय ही नहीं है वरन जो उनका पालन.भी करते हैं, वे मोल भी प्राप्त करते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि तप, संयम आदि की और जिनकी हार्दिक रूचि है , देवलोक में जाते हैं, जो उनका अनु. छान करते हैं वे अन्य जीवों की भांति ही मुशि प्राप्त कर लेते हैं। ...
__'अमरभवणाई का अर्थ है--अमरो अर्थात् देवों के भवन । यहां अमर शब्द ले देव का अर्थ लिया गया है, जो कोश-प्रसिद्ध । अमरकोश में कहा है-'अमरा निर्जरा देवाः' इत्यादि । यहां पर यह शंका हो वक्रती है कि देव भी मनुष्य, तिर्यञ्च श्रादि
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चतुर्थ अध्याय.. ....
[ १८१ ] अन्य योनिवाले जीवों की तरह अपनी-पायु पूर्ण होने पर मरते हैं, फिर उन्हें 'अमर' क्यों कहा गया है ? इस शंका का समाधान यह है कि देव, मनुष्यों और तिर्यञ्चों की भाँति मरते तो हैं किन्तु उनकी नाई अकाल मृत्यु से नहीं मरते । इसी अपेक्षा से. उन्हें 'अमर' कहा गया है। . . ... .. ...... !
जो जीव देवलोक में जाते हैं, उनकी मुक्ति का द्वार सदा के लिए बंद नहीं हो जाता। वे पुनः मनुष्य भव प्राप्त करके संयम आदि का विशिष्ट अनुष्ठान करके मुक्ति-लाभ कर सकते हैं । अत: यौवनकाल. में, जब शरीर बलिष्ठ और इन्द्रियाँ
समर्थ होती है, तभी संयम धर्म का आचरण करना चाहिए । कदाचित् अनुकूल • सामग्री न मिलने से ऐसा न हो सका हो और वृद्धावस्था प्रांगई हो तो भी हताश नहीं होना चाहिए और शक्ति के अनुसार धर्म का अनुष्टसरण करना चाहिए। जो शक्ति से परे हो उस पर प्रेम और श्रद्धान रखना चाहिए । क्यों कि धर्म पर श्रद्धान और प्रेम रखने वाला जीव भी-शनैः शनैः मुक्ति प्राप्त करता हैं। मूलः-तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं।
कम्मेहा संजम जोग संती, होम हुणामि इसिणं पसत्थं २३ छाया:-तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिःस्थानम्, योगाः सुच शरीरं करीपाङ्गम् ।
कमेधाः संयमयोगाः शान्तिः, होमं जुहोमि ऋपाणां प्रशस्तम् ।। २३ ॥ शब्दार्थः-जिसमें जीव आदि अग्नि का स्थान. (कुंड) है, तप अग्नि है, योग कुड़छी है, शरीर कंडे हैं, कर्म समिधा है, संयम रूप व्यापार शान्ति पाठ है ऐसा ऋपियों द्वारा प्रशंसनीय होम मैं करता हूँ।
भाष्यः-आत्म-शुद्धि के उपायों के दिग्दर्शन में सूत्रकार ने अग्निहोत्र, होम या यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप बताया है। भारतवर्ष में प्राचीनकाल में भगवान महावीर. के पूर्व और उनके समय में, वैदिक धर्म के अनुयायी यज्ञ किया करते थे । इन यज्ञों में . गाय, घोड़ा, आदि विभिन्न पशुओं की अग्नि में आहुति दी जाती थी। इतना ही नहीं, नरमेध यज्ञ भी उस समय प्रचलित था, जिसमें मनुष्य का बलिदान किया जाता था। यह यज्ञ अनेक उद्देश्यों को सन्मुख रखकर किये जाते थे। कोई यज्ञ.ऐश्वर्य वैभव की प्राप्ति के लिए किये जाते थे, कोई राज्य प्राप्ति के लिए, कोई पानी बरसाने के लिए, कोई देवता को प्रसन्न करने के लिए और कोई सद्गति की प्राप्ति के लिए । इस प्रकार लौकिक कामनाओं से प्रेरित होकर अनेक प्रकार के यज्ञ वैदिक धर्म के अनुयायी लोग करते थे। इसमें संदेह नहीं कि यह सब यश घोर हिंसाकारक थे और इनके द्वारा मानव-समाज. में एक प्रकार की नृशंसता, कठोरता अथवा निर्दयता ने अपना पासन जमा लिया था।
'श्राश्चर्य की घात तो यह थी कि इस भयानक हिंसा को चेद का समर्थन प्राप्त था। वेद में इन सब यज्ञों का विधान होने के कारण लोग हिंसा-जन्य इस पातक को पातक नहीं समझते थे, वरन धर्म समझकर करते थे । कोई भी पार यदि पाप .
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[ १८२ ]
.. अात्म-शुद्धि के उपाय, समझकर किया जाता है तो वह उतना भयावह नहीं होता, जितना धर्म की प्रोट में 'धर्म के नाम पर-धर्मशास्त्र के विधान के आधार पर किया जाने वाला पाप भयावह . होता है। यज्ञ करना शास्त्रविहिन कत्र्तव्य समझा जाता था अतएव उसकी भयंकरता जनता के खयाल में भी नहीं आती थी और बिना किसी झिझक के-बिना किसी संकोच के-हिंसा का दौर-दौरा चल रहा था। .. उस समय जो लोग धर्म के वास्तविक अहिंसात्मक स्वरूप के ज्ञाता थे, वे यज्ञ के विरुद्ध प्रचार अवश्य करते थे, फिर भी. याज्ञिक लोग 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' अर्थात् जिस हिंसा का विधान वेद में किया गया है, वह हिंसा, हिंसा ही नहीं है, हिंसा तो सिर्फ वही कहला सकती है जिसकी आज्ञा वेद नहीं देता इस प्रकार कह कर उस घोर हिला को अहिंसा का जामा पहनाने का प्रयत्न करते थे। . भोली-भाली जनता अन्ध-श्रद्धा के.अतिरेक के कारण इस हिंसा के विरुद्ध . खुल्लम-खुल्ला विद्रोह नहीं करती थी। इसी कारणं याज्ञिक लोग विना किसी झिझक के हिलाकारी यज्ञा में लगे रहते थे। उन्होंने यज्ञ के संबंध में तरह-तरह के विधिविधानों की कल्पना की थी। वे यहां तक कहने से नहीं चूकते थे
औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यचःपक्षिणस्तथा। ..
यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः, प्राप्नुवन्त्युच्छितं पुनः ॥ . अर्थात्:-औषधियां घास आदि ), पशु, वृक्ष, तिर्यञ्च और पक्षी, जो भी . कोई प्राणी यज्ञ के लिए प्राणं-त्याग करता है अर्थात् जिसकी यज्ञ में बलि दी जाती .. है वह स्वर्ग:प्राप्त करता है ।
. . , श्रमण भगवान महावीर ने इस हिंसाकारी यज्ञ के विरुद्ध जनता को उपदेश देकर वास्तविक धर्म की प्रतिष्ठा की। उन्होंने यज्ञ के भौतिक एवं भयंकर यज्ञ के चंदले आध्यात्मिक यज्ञ की प्रतिष्ठा की । वह यन्त्र क्या है, यही सूत्रकार ने इस गाथा में बताया है । सूत्रकार कहते हैं-तप रूपी अग्नि में, कर्म रूपी समिधाएँ झोंकना चाहिए । योग को कुड़छी बनाना चाहिए और शरीर को कंडा बनाना चाहिए। यही यज्ञ सच्चा यश है। लोकिक लाभों के लोलुप जो यज्ञ पशुओं को. आग में होमकर के . करते हैं, वह ऋपियों द्वारा प्रशंसित नहीं है । 'ऋषि तो इसी आध्यात्मिक यज्ञ की प्रशंसा करते हैं। इसी यज्ञ से, कर्मों का विनाश हो जाने के कारण आत्म-शुद्धि
और परिणाम स्वरूप परम पद की प्राप्ति होती है। .हिंसा करने से कभी सदगति का लाभ नहीं हो सकता। हिंसा प्रत्येक अवस्था में हिंसा है । किसी भी शास्त्र का कोई. वाक्य हिंसा को अहिंसा के रूप में नहीं पलट सकता। . ... भगवान् के उपदेश से जनता ने अहिंसा की महिमा समझी और उसका व्यापक प्रभाव हुआ। फल स्वरूप वैदिक धर्म में भी अहिंसात्मक यज्ञ की प्रतिष्ठा होने लगी और हिंसात्मक यज्ञ के प्रति लोगों की आस्था घट गई । वैदिक महर्षि व्यास ने कहा
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चतुर्थ अध्याय
ध्यानाग्नौ जीवकुण्डस्थे; दुममारुतदीपिते । .. . . . : ... असत्कर्मसमिक्षेपैराग्रिहोत्री कुरुत्तमम् ॥
कषायपशुभिर्दुधर्मकामार्थनाशकैः।:. ... ... .. शममन्त्रहुतैर्यशं, विधेहि विहितं बुधैः॥
प्राणिघातात्तु या धर्ममर्माहते मूढमानसः।
स वाच्छति सुधावृष्टिं कृष्णाहिमुखकोटरात् ॥ ." ... अर्थात्-ध्यान को अग्नि बनायो । जीव को अग्नि का कुंड बनायो । इन्द्रियदमन रूपी वायु से अग्नि को प्रदीप्त करो। फिर उसमें असत् कर्म रूपी समिधा डालकर श्रेष्ठ अग्निहोत्र ( होम ) करो।
कषाय रूपी पशु अत्यन्त दुष्ट हैं। वे धर्म, अर्थ और काम के वाधक हैं। अतएव शान्ति रूपी मंत्रों का पाठ करके उन्हें आग में-तप की भाग में-भस्म करो। विद्वानों के द्वारा इसी यज्ञ का विधान किया गया है । तात्पर्य यह है कि पशुओं को अग्नि में जलाना रूप यज्ञ वुद्धिमानों द्वारा विहित नहीं है। ... ....
'महर्षि व्यास, इतने से ही सन्तुष्ट न हो कर आगे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि पशु आदि प्राणियों की हिंसा करके जो सूढ़-मानस वाले मनुष्य धर्म की (पुण्य की) कामना करते हैं वे काले सांप के मुख से अमृत की वर्षा होने की कामना करते हैं। जैसे कृष्ण सर्प के मुख से अमृत नहीं निकल सकता, वरन् विप ही निकलता है, उसी प्रकार प्राणियों के घात से धर्म नहीं हो सकता बल्कि अधर्म ही होता है। • यज्ञ-याग आदि क्रियाकांड के विषय में निर्ग्रन्थों का जो अभिप्राय है वह इस एक ही गाथा से स्पष्ट समझा जा सकता है। इससे जैन धर्म और वैदिक धर्म के क्रियाकांड विषयक मौलिक अन्तर की भी कल्पना-श्रा सकती है। . :: .. ...
जो मुमुक्षु इस प्रकार का यज्ञ प्रतिदिन करते हैं, तपस्या.के द्वारा कपायों को भस्म करते हैं या पाप कर्मों का होम करते हैं, वही श्रात्मा को सर्वथा विशुद्ध बनाकर . परम पद के अधिकारी बनते हैं।
यहां अहिंसा के उपदेशक के रूप में भगवान् महावीर का कथन इसलिए किया गया है कि वर्तमान में उन्हीं का शासन प्रचलित है और अब तक के काल में वही अंतिम तीर्थकर हुए हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य तीर्थकर अहिंसा का प्रतिपादन नहीं करते। पहले बतलाया जा चुका है कि समस्त तीर्थकरों का. उपदेश समान ही होता है। दो सर्वज्ञ एक विषय में परस्पर विरोधी कथन नहीं करते। मूलः--धम्मे हरए वंभे सतितित्थे,
प्रणाविले अत्तपसनलेसे। - जहिं सिणाम्रो विमलो विशुद्धो, .....
. . सुसीतिभूतो पजहामि दोसम् ॥ २४ ॥
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[.१८४.. . .... ............... .. अात्म-शुद्धि के उपाय
छाया:-धो हृदो ब्रह्म शान्तितीर्थ, अनाविल अात्मप्रसन्नलेश्यः ।
यस्मिन् स्नातो विमलों विशुद्धः, शुशीतीभूतः प्रजहाभि दोषम् ॥ २४ ॥ - शब्दार्थ:-मिथ्यात्व आदि के विकारों से रहित स्वच्छ, आत्मा के लिए प्रशंसनीय
और अच्छी भावनाएँ उत्पन्न करने वाले धर्मरूपी सरोवर और ब्रह्मचर्यरूपी शान्तितीर्थ है। जहां पर स्नान करके निर्मल और विशुद्ध होकर तथा शान्त-राग-द्वेष आदि से . रहित-होकर मैं निर्दोष-शुद्ध बन जाता हूं। ... .. . . . . . . . . . . .
- भाष्या-श्रात्म-शुद्धि के विषय में इतर मतावलम्बियों की. धारणाओं में संशोधन करके वास्तविक आत्म-शुद्धि का स्वरूप प्रदार्शत करने के लिए सूत्रकार ने इस गाथा: में प्राध्यात्मिक स्नान का वर्णन किया है। . ....: लोक में प्रायः स्नान को. आत्म-शुद्धिका कारण समझा जाता है। इसीलिए दूर-दूर देशो से यात्रा करके, लोग जिस. जलाशय को अपनी धारणा के अनुसार पवित्र समझते हैं उसमें स्नान करते हैं और स्नान करके प्रात्मा को पवित्र मानते हैं। कोई-कोई तो गंगा श्रादि नदियों में जीवित ही डूब मरते हैं और उसे जल:समाधि लेना कहते हैं। जो लोग जीवित अवस्था में जल समाधि नहीं लेते, उनकी मृत्यु के अनन्तर उनके पुत्र पौत्र आदि कुटुम्बीजन उनकी अस्थियां गंगा, यमुना आदि जलाशयों में डालते हैं। अस्थियों का जलाशय में डालना स्नान का ही एक रूप है और इससे यह समझा जाता है कि जिसकी अस्थियां पवित्र जलाशय में क्षेपण की, जाती हैं उसकी आत्मा पवित्र हो जाती है । इस प्रकार की अनेक मिथ्या धारणाएँ जगत् में फैल रही है । इन धारणाओं का निराकरण करना इस गाथा का उद्देश्य है और साथ ही यह बताना भी कि श्रात्म शुद्धि के लिए किस प्रकार का स्नान उपयोगी । और आवश्यक है। संक्षेप में इस विषय पर विचार किया जाता है। .........
श्रास्तिकों को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। श्रात्मा अरूपी, अमूर्तिक और.भूतों से भिन्न स्वतन्त्र अनन्त गुणात्मक सत्ता है और शरीर रूपी, मूर्तिक और भूतात्मक है। दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न होने के कारण दोनों की अशुद्धि-मलीनता-भी भिन्न-भिन्न प्रकार की है। . श्रात्मा की मलीनता अज्ञान, कषाय आदि सूक्ष्म रूप और शरीर की मलीनता स्थूल . मैल आदि रूप है । जब दोनों की मलीनता भिन्न-भिन्न रूप है: तो शरीर को निर्मल बनाने से ही श्रात्मा निर्मल कैसे हो सकता है? जैसे कपड़ा धोने से शरीर नहीं : चलता. उसी प्रकार शरीर को धोने से प्रात्मा नहीं धुल सकता। शरीर को निर्मल . बनाने से यदि श्रात्मा में भी निर्मलता का प्रादुर्भाव हो जाता तो संसार' के सभी मनुष्य स्नान करते ही मुक्ति प्राप्त कर लेते। और मनुष्य ही क्यों, जल में निवास . करने वाले मत्स्य श्रादि जलचर जीव भी आत्मिक विशुद्धता प्राप्त कर लेते । चल्कि जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जल में ही निवास करने के कारण जलचर जीवों को, कभी-कभी स्नान करने वाले मनुष्यों की अपेक्षा भी अधिक उच्च पद की प्राप्ति होती। . ऐसी अवस्था में शान, ध्यान, दान, संयम, तपस्या आदि आत्म-शोधक उपायों का
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चतुर्थ अध्याय अवलम्बन करना निरर्थक ही हो जायगा । जव स्नान करने से ही आत्मा शुद्ध हो.. जाता है, तब तपस्या के.झगड़े में पड़कर कष्ट सहन करने की क्या आवश्यकता है? अतएव यह स्पष्ट है कि शारीरिक स्नान से पात्मिक शुद्धि नहीं होती।
स्नान से श्रात्म-शुद्धि नहीं होती, इतना ही नहीं, किन्तु स्नान से प्रात्मा अशुद्ध होता है । जल, जीवों का शरीर है। जल के एक बिन्दु में असंख्यात जीव होते हैं। माइक्रोफोन यन्त्र के द्वारा छत्तीस हजार जीव चलते-फिरते तो कोई भी देख सकता है। जल के ये छोटे-छोटे जीव अत्यन्त हल्के-से प्राघात से ही मर जाते हैं। जब स्नान किया जाता है तो जल के अनगिनते विन्दु व्यय किये जाते हैं। इसमें कितने जीवों की हिंसा होती है, यह कल्पना सहज ही की जा सकती है । इस हिंसा के पाप से आत्मा मलीन होता है। अतएव जल-स्नान से आत्मिक शुद्धि नहीं किन्तु अशुद्धि ही होती है । इसलिए आत्म-शुद्धि के उद्देश्य से स्नान करना मिथ्यात्व है। . . जल में समाधि लेना तो स्पष्ट ही आत्मघात है। उसके सम्बन्ध में यहां अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। मृत पुरुष की अस्थियां गंगा आदि जलाशयों में डालने से मृत पुरुष की प्रात्माशुद्ध हो जाती है, यह समझना अज्ञानता का अतिरेक है। सद्गति और दुर्गति उपार्जित किये हुए शुभ या अशुभ अष्ट पर अवलस्वित. है । जिसने शुभ अदृष्ट का अर्जन किया है उसे सद्गति मिलेगी ही, चाहे उसका शरीर या अस्थियां कहीं भी मौजूद रहे। इसके विपरीत जिसने अशुभ अदृष्ट का उपाजन किया है वह दुर्गति का अतिथि बनेगा ही, फिर भले उसकी अस्थियां किसी भी पवित्र जलाशय में क्यों न डाली जाएँ। अगर ऐसा नहीं है तो किये हुए शुभ-अशुभ, कर्म निष्फल हो जाएँगे और प्राचार-प्रतिपादक ग्रन्थ-राशि की कुछ भी आवश्यकता नहीं रह जायगी।
- जलाशय में अस्थियां डालने से जीवों का घात होता है । अस्थियों में एक प्रकार का क्षार होता है और वह जलचर उस जीवों के तथा जलकायिक स्थावर जीवों के लिए शख रूप परिणत होता है। अतएव जलाशय में जितनी दूर तक अस्थियों का असर फैलता है, उतनी दूर तक के अवेक स्थावर और जंगम जीवों की हिंसा होती है। इसी प्रकार चिता की भस्म जलाशय में डालने प्रचुर हिंसा होती है। श्रतएव विवेकशील व्यक्तियों को निरर्थक हिंसा से अवश्य बचना चाहिए और साथ . ही मिथ्यात्व-पोषक लोकाचारों से भी दूर ही रहना चाहिए ।
यह जल स्नान प्रात्म-शुद्धिजनक नहीं है, तो किस प्रकार के स्नान से शात्मा शुद्ध हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए खुधकार कहते है जिसमें मिथ्यात्व, अविरति आदि का कीचड़ नहीं है, जो भात्मा के लिए प्रशंसनीय एवं उच्च भावनाओं को प्रकट करने में सहायभूत हैं, ऐसे धर्म रूपी सरोवर में श्रात्मा को स्नान करना चाहिए । इस सरोवर में स्नान करने से आत्मा विमल अर्थात् द्रव्यमल से रहित तथा विशुद्ध अर्थात् भावमल से रहित हो जाता है । आत्मा के समस्त . संतापों का अभाव होने से वह शीतल हो जाता है और सय दोषों का अन्त हो जाता
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। १८६ ।
श्रात्म-शुद्धि के उपाय है। इसलिए धर्मरूपी सरोवर में प्रवेश करने के लिए 'शान्ति' तीर्थ की यात्रा करना .. चाहिए ! कहा भी है- . . . . . .
.. कौटिल्ये वन्धभेदेच, तीर्थ शास्त्रावतारयोः। . . . . . . . ..पुण्यक्षेत्रमहापात्रोपायोपाध्यायदर्शने ।
. -विश्वलोचन कोश ... ... तात्पर्य यह है कि जहां शान्ति है. वहीं धर्म का वास होता है। इसीलिए यहां . धर्म-सरोवर को शान्ति रूप तीर्थ में होना कहा है। ........... .... . : महर्षि व्यास ने भी इसी प्रकार के स्नान का विधान किया है। वे कहते हैं---
... ज्ञानपालीपरिक्षित, ब्रह्मचर्यदयाम्भलि: . . . . . . . . . . : ..स्नात्वाऽति विमले तीर्थे, पापपङ्कापहारिणि ॥ . . . .
अर्थात् ज्ञान की पाल से चारों ओर घिरे हुए, निर्मल, पापरूपी कीचड़ को थो डालने वाले और ब्रह्मचर्य तथा दया रूपी पानी से भरे हुए तीर्थ में स्नान करना चाहिए। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .
यही प्राध्यात्मिक स्नान आत्म-शुद्धि का जनक है । यही संयमी पुरुषों के लिए उपादेय है। ..."
- निर्ग्रन्थ-प्रवचन-चतुर्थ अध्याय...
... समाप्तम्
S
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ॐ नमः सिद्धेस्य *
निर्ग्रन्थ-मक्वन
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॥ पांचवां अध्याय ॥
ज्ञान-प्रकरण
श्री भगवान् उवाच --
मूलः- तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिणिवाहियं । हिनाणं च तयं, मणनाएं च केवलं ॥ १ ॥
छाया:-तन्त्रं पञ्चविधं ज्ञानं श्रुतमाभिनिबोधिकम् ॥
श्रवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥ १ ॥
शब्दार्थः- ज्ञान पांच प्रकार है- ( १ ) श्रुतज्ञान ( २ ) आभिनिबोधिकज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मन:पर्ययज्ञान और ( ५ ) केवलज्ञान ।
8
. भाष्यः - चतुर्थ अध्याय में श्रात्म-शुद्धि के उपायों का निरूपण किया गया है । उन निरूपित उपायों की समझ और व्यवहार में लाना ज्ञान पर निर्भर है । सम्यग्ज्ञान के बिना आत्म-शुद्धि के उपाय यथावतन जाने जा सकते हैं और न उनका अनुष्ठान ही किया जा सकता है । अतः ज्ञान का निरूपण करना आवश्यक है । इस सम्बन्ध से प्राप्त ज्ञान की प्ररूपण इस पंचम अध्याय में किया जाता है ।
जिसके द्वारा पदार्थ का स्वरूप जाना जाता है उसे ज्ञान कहते हैं । ज्ञान आत्मा का अनुजीवी गुण है । वह जीव का श्रसाधारण धर्म है और प्रत्येक अवस्था में उस की सत्ता विद्यमान रहती है। ज्ञान मूलतः एक ही गुण है और वह ज्ञानावरण कर्मसे आच्छादित हो रहा है । परन्तु सूर्य बादलों से प्राच्छादित होने पर भी लोक मैं थोड़ा-बहुत प्रकाश अवश्य करता है, उसी प्रकार ज्ञान, ज्ञानावरण से आच्छादित होने पर भी थोड़ा-बहुत प्रकाश अवश्य करता है । हां, ज्ञानावरण कर्म का यदि प्रचलउदय होता है तो ज्ञान का प्रकाश कम होता है और यदि सूक्ष्म उदय होता है तो ज्ञान का प्रकाश अधिक होता है । जैसे सघनतर मेघपटल का श्रावरण होने से सूर्य कम प्रकाश करता है और विरत मेघ रूप आवरण होने से अधिक प्रकाश करता है । मेत्रों का सर्वथा अभाव होने से सूर्य अपने असली स्वरूप में उदित होता है और प्रर प्रकाश फैलाता है उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा प्रभाव होने पर ज्ञान संपूर्ण रूपेण अभिव्यक्त होकर, जगत् के समस्त पदार्थों को अवभासित करने लगता है ।
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[ १८८ ]
ज्ञान-प्रकरण इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि प्रत्येक आत्मा में ज्ञान समान रूप से अन- . . . न्त है, किन्तु जीवों में जो ज्ञान संबंधी तारतम्य दृष्टिगोचर होता है उसका कारण ज्ञानावरण कर्म है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के कारण ही ज्ञान की अनेक अवस्थाएँ होती हैं। यह सब अवस्थाएँ अनन्तानन्त हैं, फिर भी सुविधा पूर्वक समझने के लिए उन अवस्थाओं का वर्गीकरण करने पर मूल पांच वर्ग वनते हैं.। इन्हीं पांच वर्गों का यहां सूत्रकार ने उल्लेख किया है। (१) श्रुतज्ञान (२) श्राभिनिबोधिकज्ञान (३) अवधिज्ञान (8) मनःपर्यायज्ञान और. (५) केवल जान, ये जान के पांच भेद हैं। . .
यद्यपि यहां श्रुतनान का प्रथम और श्राभिनियोधिक अर्थात् मतिजान का तदनन्तर कथन किया है, किन्तु नन्दी प्रादि सूत्रों में मतिज्ञान का उल्लेख सर्वप्रथम किया गया है। यहां श्रुतजान को प्रधान मान कर आदि में उसका उल्लेख किया है, जब कि नन्दी अादि सूत्र-ग्रंथों में अन्य अपेक्षा से मतिज्ञान का आदि में उल्लेख पाया जाता है। चाहे मंतिज्ञान का श्रादि में उल्लेख किया जाय, चाहे श्रुतज्ञान का, किन्तु दोनों का उल्लेख, एक साथ ही सब स्थानों पर किया गया है । इसका कारण यह है कि मतिनान और श्रृंतनान के स्वामी एक ही है । जिस जीव को मतिजान होता है उले थुतजान अवश्य होता है और जिले श्रुतज्ञान होता है उले. मतिजान अवश्य होता है । इसके अतिरिक्त अनेक जीवों की अपेक्षा और एक जीव की-अपेक्षा दोनों की स्थिति भी समान है । अनेक जीवों की अपेक्षा मति ज्ञान और श्रुतजान-दोनों सर्वकाल रहते हैं और एक जीव की अपेक्षा छयासठ सागरोपम काल पर्यन्त दोनों जान निरन्तर होते हैं। इन दोनों ज्ञानों के इन्द्रिय और मन रूप कारण भी समान हैअर्थात् दोनों ही शान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं । सभी द्रव्यों को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों जान सकते हैं, श्रतएव दोनों में विषय की समानता भी है। मतिज्ञान भी परोक्ष हैं और श्रुतज्ञान भी.परोक्ष है । इस प्रकार परोक्षता की समानता भी दोनों में पाई जाती है । इस कारण सर्वत्र दोनों ज्ञानों का एक साथ उल्लेख पाया जाता है। ... ... . . . . . . . . . . . . . ..
...दोनों का एक साथ उल्लेख होने पर भी इन्हें श्रादि में कहने का क्या कारण है? इस प्रश्न का समाधान यह है कि माते-श्रुतं ज्ञान के होने पर ही अवधि आदि जानो. की प्राप्ति हो सकती है। इन दोनों ज्ञानों के अभाव में अवधि जान-श्रादि की प्राप्ति . नहीं हो सकती । अतएव दोनों जानों को आदि में कहा है। इन दोनों में भी प्रायः मतिज्ञान का आदि में और श्रुतशान का बाद में उल्लेख किया जाता है सो उत्पत्ति की अपेक्षा समझना चाहिए । अर्थात् पहले मति-झान की उत्पत्ति होती है और फिर श्रुतझान उत्पन्न होता है । इसके अतिरिक्त श्रुतज्ञान को एक प्रकार से मतिज्ञान का । ही भेद स्वीकार किया गया है. इसलिए भी मंतिज्ञान का पूर्व-निर्देश पाया जाता है..
मंतिज्ञान और श्रुतज्ञान के पश्चात् ही अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है। उसका कारण यह है कि अवधिज्ञान काल, विपर्यय; स्वामित्व और लाभ की दृष्टि से इन दोनों कानों से मिलता-जुलता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का जो स्थितिकाल
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पांचवां अध्याय ( छयासठ सागरोपम ) बतलाया है उतना ही स्थितिकाल अवधिनात का होने के कारण काल की समानता है । सम्यक्त्व प्राप्ति से पहले जैले.. मतिजान और श्रुतज्ञान विपरित ( मियाजान ) होते हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय की अवस्था में अवधिजान भी विपरीत होता है, इस प्रकार तीनों में विपर्यय रूप से लमानता. है । जो मतिज्ञान और शुनजान का स्वामी होता है वही अवधिजान का स्वामी हो सकता है, अतएव स्वामी संबंधी समानता है । सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर तीनो ज्ञान प्रज्ञान मिट कर एक ही साथ जान रूपता का लाभ करते हैं, अतः लाभ की अपेक्षा भी तीनों ज्ञानों में साधय है। इन सब सदृशताओं के कारण श्रुतज्ञान और मतिज्ञान के पश्चात् अवधिजान का उल्लेख किया गया है। अवधिज्ञान की मनःपर्यायज्ञान के साथ अनेक समानताएँ है अतएव अवधिनान के पश्चात् मनःपर्याय ज्ञान का उल्लेख किया है। जैसे-अवधिजान छद्मस्थों को होता है और मनःपर्यायजान भी छद्मस्थों को होता है। अवधेिज.न पुद्गल को विषय करता है और मनःपर्यायजान भी पुद्गल को विषय करता है अतएव विषय की अपेक्षा भी दोनों में सादृश्य है । इसके अतिरिक्त दोनों जान, जनावरण कर्म के क्षयोपक्षम से ही उत्पन्न होते हैं इसलिए भी अवधिज्ञान के अनन्तरं मनःपर्याय ज्ञान का उल्लेख किया गया है।
केवलजान अन्त में प्राप्त होता है इसलिए अन्त में उसका निर्देश किया गया है। इन पांचों ज्ञानों में मतिजान और श्रुतजान परोक्ष हैं और शेष तीन जाने प्रत्यक्ष है।
... जीव के द्वारा जो लुना जाता है उसे श्रुत कहते हैं । मतिजान के पश्चात जो विशेष जान शब्द के बाच्य-वाचक भाव की अपेक्षा रख कर होता हैं वह श्रुतनानं कहलाता है । वस्तुतः ज्ञान प्रात्मा से कथंचित् अभिन है अतएव अात्मा भावश्रुत रूपं है, क्योंकि वह सुनता है । जिसे सुना जाता है वह शब्द द्रव्य-श्रुत है। द्व्य-श्रुतं रूप शन्द यद्यपि पुद्गल रूप होने के कारण अचेतन है-'अज्ञानमय है, इसलिए उसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता, फिर भी वक्ता के द्वारा प्रयोग किया जाने वाला शब्द श्रोता के श्रुतज्ञान का कारण होता है और वक्ता का श्रुतीपयोग बोले जाने वाले शब्दं का कारण होता है, अतएव श्रुतझान के कारणभूत या कार्यभूत शब्द में श्रुत का उपचार किया जाता है । इससे यह स्पष्ट हो चुका कि शब्द परमार्थ से श्रुत नहीं है किन्तु उपचार से श्रुत कहलाता है। परमार्थ से श्रुत वह है जो सुनता है-श्रर्थात् आत्मा अथवा श्रात्मा का शब्द-विपयात्मकं उपयोग रूप धर्म।
पदार्थ के श्रभिमुख अर्थात् पदार्थ के होने पर ही होने वाला, निश्चयात्मक, इन्द्रिय और मन से उद्भूत ज्ञान अभिनिबोध ज्ञान या मतिज्ञान कहलाता है।
. . मतिज्ञान और श्रुतशान दोनों हो शान इन्द्रियों और मन से उत्पन्न होते हैं फिर भी दोनों में काफ़ी अन्तर है। श्रुतज्ञान संकेत-विषयक परोपदेश रूप होता है अर्थात् संकेत कालीन शब्द का अनुसरण करके वाच्य-वाचक भाव संबंध से युक्त होकर 'घट-घट' इस प्रकार आन्तरिक शब्दोल्लेन सहित, इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान श्रुत:
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[ १६० ]
ज्ञान-प्रकरण ज्ञान कहलाता है। यह श्रुतज्ञान शब्दोल्लेख के साथ उत्पन्न होता है अतएव अपने विषयभूत घट श्रादि पदार्थों के प्रतिपादक. घट आदि शब्दों का जनक होता है और उसले अर्थ की प्रतीति कराता है। मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता है।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि श्रुतज्ञान का यहाँ जो लक्षण कहा गया है वह एकेन्द्रिय जीवों में नहीं पाया जा सकता है। इसका समाधान यह है कि-एकेन्द्रिय जीवों के द्रव्य श्रुत का अभाव होने पर भी सोते हुए साधु के समान भाव-श्रुत है। पृथ्वीकाय आदि जीवों को द्रव्य इन्द्रिय का प्रभाव होने पर भी सूक्ष्म भाव-इन्द्रिय का ज्ञान होता है इसी प्रकार द्रव्य श्रुत का अभाव होने पर भी उनके भाव श्रत का सद्भाव है।
. इस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का भेद यहाँ बतलाया गया है। उससे यह नहीं समझना चाहिए कि दोनों ज्ञान सर्वथा भिन्न ही हैं। क्योंकि एक प्रकार का विशिष्ट मातश्चान ही श्रुतज्ञान है । जैसे सूत और सूत से बनी हुई रस्सी में अत्यन्त भेद नहीं है.उसी प्रकार मतिज्ञान से उत्पन्न होने वाला श्रुतज्ञान मतिज्ञान से सर्वथा भिन्न नहीं है। दोनों में कार्य-कारण भाव संबंध है और कार्य-कारण में सर्वथा भेद नहीं होता। जैसे सोना और सोने से बना हुश्रा कुंडल एकान्त भिन्न नही है, उसी प्रकार मतिज्ञान और मतिज्ञान-जन्य श्रुतज्ञान भी.एकान्त भिन्न नहीं हैं। : '. आत्मा जब किसी वस्तु को जानने के लिए उन्मुख होता है तब सर्वप्रथम उसे उस वस्तु के सामान्य धर्म अर्थात् सत्ता का प्रतिभास होता है सत्ता या महासामान्य के प्रतिभास को दर्शनोपयोग कहा गया है । दर्शनोपयोग यद्यपि ज्ञान से भिन्न माना जाता है, क्योंकि उसमें विशेष का प्रतिभास नही होता, तथापि वह भी झान का ही प्रारंभिक रूप है और ज्ञान की सामान्य मात्रा उसमें भी पाई जाती है। दर्शन के अनन्तर अात्मा वस्तु के विशेष धर्मों को जानने योग्य बनता है। उस समय मतिज्ञान का प्रारंभ होता है । मतिज्ञान के, विकासक्रम के अनुसार चार मुख्य भेद माने गये हैं-(१) श्रवग्रह (२) ईहा (३) अंवाय और (४) धारणा । दर्शन के अनन्तर अव्यक्त रूप से अर्थात् अवान्तर सामान्य रूप वस्तु को ग्रहण करने वाला ज्ञान श्रवग्रह कालाता है। दर्शन भी सामान्य को ग्रहण करता है और प्रवग्रह शान भी सामान्य को ग्रहण करता है, फिर भी दोनों के विषयभूत सामान्य में भेद है। दर्शन सत्ता सामान्य । महासामान्य ) को विषय करता है और अवग्रह मनुष्यत्व श्रादि अवान्तर सामान्य को जानता है । 'कुछ है' ऐसा ज्ञान दर्शन के द्वारा होता है। उसके अनन्तर जव ज्ञान का किञ्चित् विकास होता है तो मनुष्य है' ऐसा ज्ञान अवग्रह द्वारा होता है। प्रवग्रह ज्ञान के अनन्तर नियम से संशय होता है । वह 'यह मनुष्य दक्षिणी है या पश्रिमी है। इस प्रकार से उत्पन्न होता है । इस संशय का निवारण करते हुए, ईहा बान की उत्पत्ति होती है। संशय में सद्भुत और सद्भूत-दोनों धर्म तुल्य कोटि के होते हैं। न तो सद्भूत धर्म का सद्भाव सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण होता है और न असद्भूत धर्म का अभाव सिद्ध करने वाला ही प्रमाण उस समय
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अभ्या
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मालूम होता है । ईहा ज्ञान सद्भूत धर्म को ग्रहण करने के लिए उन्मुख होता है और श्रसद्भूत धर्म को त्याग करने के सन्मुख होता है । 'यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए' इस प्रकार सद्भूत पदार्थ की और भुकता हुआ ज्ञान ईहा कहलाता है । ईहा के पश्चात् श्रात्मा की ग्रहण - शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है, श्रतएव 'यह दक्षिणी ही है ' इस प्रकार के निश्चयात्मक बोध की उत्पत्ति होती है इसे पाप या वाय कहते हैं । अवाय के द्वारा पदार्थ को संस्कार या वासना के रूप में धारण कर लेना जिससे कि कालान्तर में उसकी स्मृति हो सके - धारणा ज्ञान कहलाता है ।
मतिज्ञान के इन भेदों की उत्पत्ति इसी क्रम से होती है । दर्शन, श्रवग्रह, संशय, ईहा, श्रवाय और धारणा - यही ज्ञानोत्पत्ति का क्रम है। बिना दर्शन के श्रवग्रह नहीं हो सकता, बिना श्रवग्रह के संशय नहीं हो सकता, इसी प्रकार पूर्व-पूर्व के बिना उत्तरोत्तर ज्ञानों का प्रादुर्भाव होना संभव नहीं है। कभी-कभी हम अत्यन्त परिचित वस्तु को देखते हैं तो ऐसा जान पड़ता है, मानों दर्शन - श्रवमद आदि हुए बिना ही सीधा श्रवाय ज्ञान हो गया हो, क्योंकि देखते ही वस्तु का विशेष व्यवसाय हो जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता । श्रतिशय परिचित पदार्थ का निश्चय भी दर्शनश्रवग्रह आदि के क्रम से ही होता है, पर शीघ्रता के कारण हमें क्रम का ज्ञान नहीं हो पाता । कमल के सौ पत्तों को, एक-दूसरे के ऊपर जमाकर कोई उसमें पूरी शक्ति के साथ यांदे भाला घुसेड़े तो वह भाला इतना जल्दी पत्तों में घुस जायगा कि ऐसा मालूम होगा, मानों सब पत्ते एक साथ ही छिंद गये हों । पर जरा सावधानी से विचार किया जाय तो मालूम होगा कि भाला सर्वप्रथम पहले पत्ते को छुश्रा, फिर उसमें घुसा और फिर उससे बाहर निकला। इसके बाद फिर इसी क्रमसे दूसरे, तीसरे आदि पत्तों को छेदता है । जब भाले जैसे स्थूल पदार्थ का व्यापार इस तेजी से होता है कि कम का भान ही नहीं हो पाता तो ज्ञान जैसी सूक्ष्म वस्तु का व्यापार उससे भी अधिक शीघ्रता से हो, इसमें क्या आश्चर्य है ! श्रतपव क्रम चाहे प्रतीत हो चाहे न हो, पर सर्वत्र यही क्रम होता है, यह निश्चित है ।
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पूर्वोक्त श्रवग्रह ज्ञान दो प्रकार का है - (१) व्यञ्जनावग्रह और (२) श्रर्थावग्रह ।
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. जैसे दीपक के द्वारा घट प्रकट किया जाता है उसी प्रकार जिसके द्वारा अर्थ प्रकट किया जाय वह व्यञ्जन कहलाता है । वह उपकारखेन्द्रिय और शब्द आदि रूप परिणत द्रव्य का संबंध रूप है । तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय और विषय का संबंध व्यंजन कहलाता है और उसमें ज्ञान की मात्रा अल्प होती है, अतएव वह अव्यक्त होता है । जैसे नवीन सिकोरे पर एक-दो पानी के बिन्दु डालने से वह श्राई नहीं होता, उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले पदार्थ एक-दो समय में व्यक्त नहीं होते, किन्तु वारम्वार महस करने से व्यक्त होते हैं। यहां व्यक्त अवग्रह से पहले जो श्रवग्रह होता है वह व्यंजनावग्रह है । व्यंजनावग्रह चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों द्वारा ही होता है, क्योंकि यही चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं । चक्षु और मन, पदार्थ का स्पर्श किये बिना ही पदार्थ को जानते हैं, जबकि
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ज्ञान-प्रकरण स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियाँ, क्रमशः स्पर्श, रस, गंध और शब्द को स्पर्श करके ही जानती हैं। अतएव व्यञ्जन अवग्रह के चार भेद होते हैं। : ::
. कोई-कोई लोग स्पर्शनं आदि की भांति चक्षु को भी प्राप्यकारी मानते हैं, सें उचित नहीं है। चक्षु-इन्द्रिय यदि पदार्थ को स्पर्श करके पदार्थ को जाने तो अग्नि को जानते समय, अग्नि के साथ उसका स्पर्श होना स्वीकार करना पड़ेगा और एसी स्थिति में वह दग्धं क्यों न होगी? इसी प्रकार कांच की शीशी में स्थित वस्तु के साथ चक्षु का सम्बन्ध न हो सकने के कारण उसका ज्ञान न हो सकेगा । अतएवं चनु को अप्राप्यकारी ही स्वीकार करना चाहिए । विस्तार भय से यहां इस विषय का विशेष-विचार नहीं किया गया है। ...................... • इसी प्रकार मन भी अप्राप्यकारी है। जो लोग मन को प्राप्यकारी मानते हैं वे भाव मन को प्राप्यकारी कहेंगे या द्रव्य मन को ? अर्थात्.भावमन पदार्थ के पाल जाता है या द्रव्यमन ? भावमन चिन्तन-ज्ञान रूप है और चिन्तन ज्ञान जीव ले. अभिन्न होने के कारण जीव रूप ही है। जीव रूप सावमन शरीर में व्याप्त है। वह शरीर में बाहर नहीं निकल सकता, जैसे कि शरीर का रूप शरीर से बाहर नहीं निकलं सकता। यदि यह कहा जाय कि- द्रव्यमन विषय-देश में जाता है और विषय को स्पर्श करके उसे जानता है, सो यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है । काययोग के अवलस्बनासे, जीव द्वारा ग्रहण किये हुए, चिन्तन को प्रवृत्त कराने वाले मनोवर्गणा के. अंन्तर्गतःद्रव्यों का समूह द्रव्यमन कहलाता है। द्रव्यमन पुगल रूप होने के कारक जड़ है. अचान रूप हैं। वह विषय-देश में जा करके भी विषय को ग्रहण नहीं कर लकता। अतएव उसें प्राप्यकारी मानना निरर्थक है। इस प्रकार मन भी अप्राप्यकारी सिद्ध होता है.
.. ...... ................ ... अव्यक्त शब्द आदि विषय को ग्रहण करने वाला अर्थावग्रह कहलाता है। यह अर्थावग्रह सिर्फ एक समय मान रहता है और अपेक्षा भेद से असंख्यात समय
का भी होता है । अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों से तथा मन से होता है, अतएव उसके .. छह भेद होते हैं।..::....: . ......... ............
.....: अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, बारह प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करते हैं। वे इस प्रकार हैं:- (१) बहु-बहुत को (२) एक को (३) बहुत प्रकार के पदार्थ को (४) एक प्रकार के पदार्थ को (५) क्षिप्र-जिसका ज्ञान शीन हो जाय (६. अक्षिणजिसका ज्ञान देर से हो (७, अनिःसृत-जों पदार्थ पूरा बाहर न निकला हो (E) नि:
त-जो पूरा निकला हो (६) उक्त-कथित (१०) अंनुक्त-जिलका ज्ञान बिना कहे अभिप्राय से हों. (२) व-निश्चल (१२) अध्व-अनिश्चलः। इन बारह प्रकार के. पदाथों को विषय करने के कारण अंवग्रह आदि चारों के बारह-चारह भेद होकर अंडतालीस भंद मतिज्ञान के होते हैं । अड़तालीस प्रकार का यह मतिज्ञान पांचों-इन्द्रियों और मन स होता है. अतएव छह से गुणा करने पर दो सौ श्रद्धासी ( २८८.) भेदः, हो जाते हैं। . ..... . .. . .. ... .
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पांचवां अध्याय
[ १६३ } व्यजनावग्रह, बारह प्रकार के पदार्थों का चार इन्द्रियों द्वारा होता है अतएव उसके अड़तालीस होते हैं । इन अड़तालीस भेदों को पूर्वोक्त दो सौ अट्टासी भेदों में सम्मिलित कर देने से कुल तीन सौ छत्तीस (३३६) भेद मतिज्ञान के निष्पन्न होने हैं।
औत्पातिकी बुद्धि, वैनयिकी वुद्धि, कर्मज़ा बुद्धि और पारिणामिकी बुद्धि भी मतिमान रूप ही हैं। इन्हें उतभेदों में शामिल करने से तीन सौ चालीस भेद होते हैं । इन चारों वुद्धियों का स्वरूप और उनके उदाहरण अन्यत्र देखने चाहिए । प्रन्थविस्तार के भय से उनका यहां विवेचन नहीं किया जाता।
__यहां यह बता देना श्रावश्यक है कि श्रोत्रेन्द्रिय बारह योजन दूर से आये हुए शब्द को और स्पर्शन, रसना तथा प्राण इन्द्रियां नव योजन दुर से आये हुए प्राप्त अर्थ को ग्रहण कर सकती हैं । इससे अधिक दूरी से आये हुएं विषय को ये इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकती, क्योंकि अधिक दूरी के कारण द्रव्यों का परिणमन मन्द हो जाता है और इन्द्रियों में उन्हें ग्रहण करने की शक्ति नहीं होती। चक्षु-इन्द्रियः एक लाख योजन दूर तक के रूप को देख सकती है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत दूरवीक्षण यन्त्र (दुरबीन ) की सहायता से जितनी दूर के पदार्थ नेत्र द्वारा देखे जाते हैं, उनसे भी अधिक दूरवती पदार्थों को देखने का सामर्थ्य नेत्रों में है, यह बात इस से स्पष्ट हो जाती है।
श्रुनयान के विस्तार की अपेक्षा अनन्त भेद है । उन सब का कथन करना संभव नहीं है। अतएव संक्षेप की अपेक्षा उसके अंग प्रविष्ट और भंग चाह्य-दो भेद बतलाये गये हैं और मध्यम विवक्षा से चौदह भेद कहे गये हैं। .. . ..
- तीर्थकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट द्वादश अंग रूप श्रुत को अंग प्रविष्ट श्रुत कहते हैं। उसके बारह भेद इस प्रकार हैं:-(१),अाचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग (५) व्याख्याप्रनप्ति (६) झातृधर्मकथांग (७) उपासकदशांग (८) मन्त. रुत्दशांग (6) अनुत्तरॊपपातिकदशांग (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक (१२) रष्टिचाद । श्रमण भगवान् महावीर के पवित्र उपदेश इस द्वादशाहो में संकलन किये गये थे। इन अंगों का अधिकांश भाग विच्छिन्न हो गया है और बारहवां रष्टिवाद पूरा का पूरा विस्मृति के उदर में समा गया। इसी पवित्र भूत को अंग प्रविष श्रुत कहते हैं। शब्दात्मक ध्रुत पौद्गलिक होने से जान रूप नहीं है किन्तु ज्ञान का कारण होने से वह श्रुतं कहलाता है। इसी प्रकार द्वादशाही के आधार से निर्मित, प्राचार्य-विरचित दशवेकालिक, उत्तराध्ययन आदि श्रुत अंग वाद्यं श्रुत कहलाता है। जो भंग थाहा ध्रुत, अंग प्रविष्ट से विरुद्ध नहीं होता वही प्रमाण होता है । अंग बाहर भुत अनेक प्रकार है। .. श्रुतमान के चौदह भेद इस प्रकार हैं--(१) अक्षरश्रुत (२) अनतरभुत (३) संक्षिश्रुत (४, असंक्षिश्रुत (५) सम्यक्श्रुत (६) मिथ्याश्रुत (७) सादिश्रुत ( अनादि श्रुत (६) सपर्यवसितश्रुत (१०) अपर्यवसितश्रुत (११) गर्मिकश्रुत : (१३) अंगप्रविष्ट
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झान-प्रकरण . श्रुत (१४) अंगवाह्यश्रुत।
(१) अक्षरश्रुत-अनुपयोग अवस्था में भी जो चलित नहीं होता वह अक्षर कहलाता है। अक्षर तीन प्रकार के है-(१) संज्ञाक्षर (२) व्यंजनाक्षर और ३) लब्धि -अक्षर। . . . . . . . . . . . . . . . ... हंसलिपि, भूतलिपि, उड्डीलिपि, पवनीलिपि, तुरकीलिपि, कीरीलिपि,द्राविड़ी लिपि, मालवीलिपि, नटीलिपि, नागरीलिपि, लाटलिपि पारसीलिपि, अनिमित्तलिपि, चाणक्यलिपि, मूलदेवीलिपि, आदि-आदि लिपियों में लिखे जाने वाले अक्षर संज्ञाक्षर कहलाते हैं । मुख से बोले जाने वाले श्र, श्रा, क, ख, आदि अक्षर व्यंजन-अक्षर कहलाते हैं । इन्द्रिय या मन के द्वारा उपलब्ध होने वाले अतर लब्धि-अक्षर कहलाते हैं। यह अक्षर अथवा इनसे होनेवाला श्रुतज्ञान अक्षर-श्रुतं कहलाता है। . ... (२) अनक्षरश्रुत-उच्छास, निःश्वास, थूकना, खांसना, छींकना, सूंघना, .. चुटकी बजाना, इत्यादि अनवरश्रुत कहलाता है । क्योंकि विशिष्ट संकेत पूर्वक जब । यह चेष्टाएँ की जाती हैं तो दूसरे को इन चेष्टाओं से चेष्टा करने वाले का अभिप्राय विदित हो जाता है । यह सब पूर्व कथनानुसार उपचार से ही श्रुतज्ञान कहलाता है। '.. (३) संशि-श्रुत-विशिष्ट संज्ञा वाला जीव संझी कहलाता है। संजी जीव के श्रुत को संजीभुत कहते हैं। __.. (४) असंजिश्रुत-संजी अर्थात् अत्यल्प संशा वाले जीव असंत्री कहलाते हैं। उनका श्रुत श्रसंज्ञीश्रुत कहलाता है।
(५) सम्यक्श्रुत-सम्यक्त्वपूर्वक जो श्रुत होता है अर्थात् सम्यग्दृष्ट जीव को जो श्रुतज्ञान होता है वह सम्यक्श्रुत कहलाता है.. .... ... ... ... ... (६) मिथ्याश्रुत-मिथ्यादृष्टि जीवों का श्रुत मिथ्याश्रुत है। . ...... .
(७)मादिभुत-जिस श्रुत की आदि होती है वह सादिश्रुत है। . .
(E) अनादिश्रुत-जिस श्रुत की प्रादि नहीं होती वह अनादिश्रुत हैं। ...द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा द्वादशांगी रूप भुत नित्य होने के कारण अनादि और साथ ही अनन्त है। क्योंकि जिन जीवों ने यह श्रुत पढ़ा है या जो पढ़ते हैं. अथवा पढ़ेंगे. वे.अनादि.अनन्त है और उनसे अभिन्न-पर्यायरूप होने के कारण श्रुत भी अनादि-अनन्त है। पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से यह श्रुत सादि और सान्त है, क्यों कि वह पर्याय रूप है.और पर्याय सादि होती है और सान्त होती है। ...
.. (110) सपर्यवसित-अपर्यवसित श्रुत-जिसका अन्त हो वह सपर्यवसित श्रुत. और जिसका अन्त न हो वह अपर्यवसित श्रुत कहलाता है । इनका स्पष्टीकरण ऊपर किया जा चुका है। .. .....: (११) गमिक श्रुत-जिस भंगों की तथा गणित श्रादि की बहुलता होती है अथवा जिसमें प्रयोजनवश समान पाट होते हैं वह गमिक भुत कहलाता है। ...:
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पांचवां अध्याय
[.१६५ ] (१२) अगमिक श्रुत-गाथा, श्लोक आदि रूप विसदृश पाठ वाला श्रुत अगमिक श्रुत कहलाता है। .. ' (१३-१४) अंगप्रविष्ठ-अंगबाह्य श्रुत-दोनों का कथन पहले किया जा चुका है।
बिना इन्द्रिय और मन की सहयता से, मर्यादापूर्वक, रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है.। अवधिज्ञान के विभिन्न अपेक्षाओं से कई प्रकार से भेद होते हैं। संक्षेप से निमित्त की अपेक्षा उसको दो भेद हैं-(१) भवप्रत्यय अवधि और (२) क्षयोपशम प्रत्यय अवधि । जैसे पक्षियों का आकाशगमन भव-हेतुक है उसी प्रकार देव और नारकी जीवों को, भवके निमित्त से होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय अवधि कहलाता है । देव-नारकी के अतिरिक्त अन्य जीवों को क्षयोपशम निमित्रक होता है। __यद्यपि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव है अतएव देवों और नारकियों को भी बिना क्षयोपशम के अवधिज्ञान होना संभव नहीं है, फिर भी उनके अवधि को भवहेतुक कहने का आशय यह है कि देव भव और नारकी भव का निमित्त पाकर अवधिज्ञान का क्षयोपशम अवश्यमेव हो जाता है, इसी कारण उनका ज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है । मनुष्य भव और तिर्यञ्च भव में जो अवधिज्ञान होता है वह भव का निमित्त पाकर नहीं होता है । यही कारण है कि सब देवों और नारकियों को तो अवधिशान होता है पर सच मनुष्यों और तिर्यञ्चों को नहीं होता। - अवधिज्ञान के छह भेद उसके स्वरूप की अपेक्षा होते हैं। वे इस प्रकार हैं(१) अनुगामी (२) अननुगामी (३) वर्द्धमान (४) हीयमान (५) अवस्थित (६) अनवस्थित। .
(१) अनुगामी-जो अवधिज्ञान, अवधिज्ञानी के साथ एक स्थल से दूसरे स्थल पर जाने पर साथ जाता है, जैसे सूर्य का प्रकाश सूर्य के साथ जाता है।
___ (२) अननुगामी-जो अवधिमान, एक स्थल पर उत्पन्न होकर अवधिज्ञान के साथ अन्यत्र नहीं जाता, जैसे वचन । '
(३) वर्द्धमान-वांसों की रगड़ से उत्पन्न होने वाली अग्नि सूखा ईधन अधिकअधिक मिलने से जैसे क्रमशः बढ़ता जाती है, उसी प्रकार जो अवधिमान जितने परिमाण में उत्पन्न हुआ था, वह परिमाण सम्यग्दर्शन आदि गुणों की विशुद्धि की वृद्धि का निमित्त पाकर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है ।।
(४) दीयमान-धन की कमी से जैसे अग्नि उत्तरोत्तर कम होती जाती है उसी प्रकार जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन श्रादि गुणों की हानि के कारण उत्तरोत्तर कम होता जाता है।
. (५) अवस्थित-जो अवधिज्ञान जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उतने ही परिमाण में श्राजीवन या केवलज्ञान की उत्पत्ति होने तक बना रहता है अर्थात् न पढ़ता है न घटता है, वह अवस्थित कहलाता है।
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[ १६६ ]
ज्ञान-प्रकरण
(६) श्रनवस्थित- जो अवधिज्ञान कभी बढ़ जाता है, कभी घट जाता है, स्थिर - एक ही परिमाण वाला नहीं रहता वह अनवस्थित कहलाता है । जैसे- जल की लहरें तीव्र वायु के निमित्त से वृद्धि को प्राप्त होती हैं और मन्द वायु के संयोग से हानि को प्राप्त होती हैं ।
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उत्कृष्ट अवधिज्ञान परमावधि । क्षेत्र की अपेक्षा लोकं के चराचर अलोक असंख्यात खंड, काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी - श्रवसर्पिणी, द्रव्य से समस्त रूपी द्रव्य और भाव से असंख्यात पर्यायें, जानता है । जघन्य अवधिज्ञान, तीन समय पर्यन्त आहार करने वाले सूक्ष्म पनक ( वनस्पति- विशेष ) जीव के जघन्य शरीर का जितना परिमाण होता है, उतने ही क्षेत्र को जानता है। इस ज्ञान के मध्यम भेद असंख्यात हैं, और उन सब का वर्णन करना शक्य नहीं है ।
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संज्ञी जीवों द्वारा मन में सोचे हुए श्रर्थ को जानने वाला ज्ञान मनःपर्याय ज्ञान कहलाता है | यह ज्ञान मनुष्य क्षेत्र प्रमाण विषय वाला है । गुणप्रत्यय है | विविध ऋद्धियों के धारक, वर्धमान चारित्र वाले, अप्रमत्त संयमी मुनिराजों को ही इसकी प्राप्ति होती है ।
मनुष्य क्षेत्र में संज्ञी जीवों द्वारा काय योग से ग्रहण करके मनोयोग रूप परिगत किये हुए मनोद्रव्यों को मनः पर्याय ज्ञानी जानता है । भाव से द्रव्य मन की
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"
तक भाव
समस्त पर्याय-राशि के अनन्तवे भाग रूपादि अनन्त पर्यायें जो चिन्तनानुगत हैं, उन्हें जानता ... 1 काल से प्रत्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण अतीत अनागत काल जानता है । भावमन की पर्यायों को मन:- पयाय ज्ञान नहीं जानता, "अरुपी है - श्रमूर्त्त है और अमूर्त पदार्थ को छद्मस्थ नहीं जान सकता ! साथ ही चिन्तनीय घट यादि पदार्थों को भी साक्षात् नहीं जानता है, किन्तु अनुमान से जानता है । मन की पर्याय अथवा आकृतियों से वाह्य पदार्थ का अनुमान होता है ।
क्योंकि
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}
मनः पर्याय ज्ञान दो प्रकार का होता - ऋजुमति और विपुलमति मनः, पर्याय । ऋजुमति केवलज्ञान की उत्पत्ति से पहले भी नष्ट हो जाता है और कम विशुद्धि वाला होता है । विपुलमति श्रप्रतिपाती होता - केवलज्ञान की उत्पत्ति पर्यन्त स्थिर रहता है और अधिक विशुद्ध भी होता है ।
जैसे अन्य ज्ञानों से पहले सामान्य को विषय करने वाला दर्शन होता है, वैसे मनःपर्याय से पूर्व दर्शन नहीं होता ।
- त्रिलोक और त्रिकालवतों समस्त द्रव्यों और पर्यायों को, युगपत् प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है । केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर श्रात्मा सर्वज हो जाता । जगत का सूक्ष्म या स्थूल कोई भी भाव केवलज्ञानी से श्रज्ञात नहीं रहता । जैसे क्षायोपशमिक मति, श्रुत आदि ज्ञानों के अनेक विकल्प, क्षयोपशम के तारतम्य के अनुसार होते हैं, वैसे कोई भी मेद केवलज्ञान में संभव नहीं हैं। क्योंकि यह जान चायक हैं और क्षय में तरतमता नहीं हो सकती । यद्यपि नंदी आदि सूत्रों में केवल
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पांचवा अध्याय
[ १६७ ] जान के भेद बताये हैं. पर वे भेद विषय की अपेक्षा नहीं किन्तु स्वामी के अपेक्षा से कहे गये हैं। कोई-कोई श्राधुनिक पण्डितमन्य लोग इन भेदों के आधार पर केवल जान के विषय में न्यूनाधिकता की कल्पना करके सर्वज को असर्वज सिद्ध करने कर प्रयास करते हैं किन्तु वह निराधार और युक्ति से विरुद्ध है । वास्तव में ज्ञान प्रात्म का स्वभाव है । वह स्वभाव, जान को-आच्छादित करने वाले जानावरण कर्म के द्वारा आच्छिन्न हो रहा है, फिर भी वह समूल नष्ट नहीं होता।.एकेन्द्रिय जीवों में भी उस की कुछ न कुछ सत्ता बनी ही रहती है। जब श्रात्मा विकास की ओर अग्रसर होता है तब ज्ञानावरण कर्म शिथिल होता जाता है और जितने अंशों में ज्ञानावर शिथिल होता है उतने अंशों में झान प्रकट होता चलता है । इस प्रकार जब आत्मा पूर्ण विकास की सीमा पर जा पहुंचता है तब शान भी परिपूर्ण रूप में प्रकाशमान हो जातर है। उस समय अक्षान कर अंश नहीं रह सकता।
अजान, विकारमूलक श्रतएव औपाधिक है । विकारों का विनाश हो जाने पर भी यदि अज्ञान का सर्वथा विनाश न हो तो अजान विकारमुलक न होकर आत्मा का स्वभाव ही सिद्ध होगा। श्रतएव जो लोग प्रात्मा का स्वभाव अजान नहीं मानते उन्हें उसका अत्यन्त विनाश स्वीकार करना पड़ेगा और अज्ञान का पूर्ण विनाश हो जाना ही सर्वज्ञ-अवस्था है। इस प्रकार युक्ति से सर्वज्ञता सिद्ध होती है। सर्वज-सिद्धि के लिए विशेष जिज्ञासुओं को न्याय-शास्त्र का अवलोकन करना चाहिए ।
उल्लिखित पांच ज्ञानों में से, एक श्रात्मा को, एक ही साथ अधिक से अधिक चार ज्ञान होते हैं। केवलजान केला होता है। जब केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है तो शेष चार क्षायोपशमिक ज्ञानों का सद्भाव नहीं रहता, क्योंकि वे क्षायोपशमजन्य है और अपूर्व हैं। - :
जान की उत्पत्ति यद्यपि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से या क्षय से होती है किन्तु उसमें सम्यक्पन या मिथ्यापन मोहनीय कर्म के निमित्त से पाता है । तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व मोहनीय के संसर्ग से जान-कुज्ञान-मिथ्याज्ञान या अजान यन जाता है। जैसे दूध स्वभावतः मधुर होने पर भी कटुक तूम्ये के संसर्ग से कदुक होजाता है उसी प्रकार मिथ्यात्व की संगति से बान मिथ्याज्ञान वन जाता है । पांच शानों में से सिर्फ मतिक्षान, भुतज्ञान और अवधिज्ञान ही मिथ्यादि जीवों को होते हैं । अतएच इन्हीं तीन भानों के कुमतिक्षान, कुश्रुतानं और कुंवधि या विभंगमान रूप होते हैं। मनःपर्यायशान और केवलज्ञान सम्यग्दृष्टियों को ही होते हैं इनके मिथ्या रूप नहीं होते। . , . . . . . . . . . . . . .
उपर्युक्त तीन मिथ्याशानों को अज्ञान कहते हैं। अजान का अर्थ बहा 'जान का अभाव' नहीं किन्तु कुत्सित अर्थ में न समास होने के कारण 'कुत्सित मान' ऐसा भर्ध होता है।
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A
[.. १६८
झान-प्रकरण - मूलः-अह सव्वदव्वपरिणामभावविएणत्तिकारणमणतं ।
सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं ॥ २ ॥
आया:-अंथ सर्वदन्यपरिणामभावविज्ञप्तिकारणमनन्तम् ।.... __" " . . . 'शाश्वतमप्रतिपाति च एकविध केवलं ज्ञानम् ॥ २॥ ... ... शब्दार्थ:- केवलज्ञान समस्त द्रव्यों को, पयर्थीयों को और गुणों को जानने का कारण है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है और एक ही प्रकार का है।... ... भाष्यः-पांचो ज्ञानों में केवलहान सर्वश्रेष्ठ है । मुक्ति में वहीं विद्यमान रहता है और जीवन्मुक्त अवस्था में उसी से प्रमेय पदार्थों को जान कर सर्वज्ञ भगवान् वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। वही श्रागम का मुंल है। अतएव सुत्रकार ने उसको पृथक् स्वरूप निरूपणं किया है। .
केवलझान अकेला ही रहता है, अन्य किसी ज्ञान के साथ उसका सदभाव नहीं पाया जाता, अतएव उसे 'केवल' ( अकेला ) शान कहा गया है । अथवा केवल का अर्थ 'असहाय' अर्थात् ' बिना किसी की सहायता से उत्पन्न होने वाला ऐसा भी होता है। यह ज्ञान अन्य-निरपेक्ष होता है. अतः इसे 'केवलं' कहते हैं । संस्कृत आषा के अनुसार केवल शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्तेसेवन्ते तत् केवलम्' अर्थात् अर्थीजन जिसे प्राप्त करने के लिए संयम-मार्ग का सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है.। ...................... ... केवलज्ञान समस्त द्रव्यों को, समस्त पर्यायों कों और समस्त भावों अर्थात गुणों को जानने में कारण हैं। अनन्त ज्ञेय इसके विषय है अतः यह ज्ञान भी अनन्त है। काल की अपेक्षा शाश्वत है और एक बार उत्पन्न होने पर फिर कभी उसका विनाशं नहीं होता अतएव वह अप्रतिपाती भी है। केवलज्ञान विषय की अपेक्षा से एक प्रकार का ही है, क्योंकि उसमें न्यूनाधिकता नहीं होती। श्रावरण के क्षयोपशम की न्यूनाधिकता से ज्ञान में न्यूनाधिकता होती हैं । केवलज्ञान प्रावरण के सर्वथा क्षय होने पर आविर्भूत होता है. इस कारण उसमें न्यूनाधिकता का संभव नहीं है। केवल ज्ञान का कुछ वर्णन पहली गाथा में किया जा चुका है, अतएव यहां नहीं दुहराया जाता........ ': - मूल:-एयं पंचविहं नाणं, दव्वाण य गुपाए य..... . .
पंजवाणं च सव्वेसि, नाणं नाणीहि देसियं ॥ ३॥ . .... . . छायाः-एतत् पञ्चविध ज्ञानम् , द्रल्याणां च गुणाणान। ..
' ..पर्यवाणान सर्वेषां ज्ञान शानिमिर्देशितम् ॥ ३॥ .:: ...शब्दार्थ:-यह पांच प्रकार का ज्ञान संव द्रव्यों को; संव गुणों को और सब पर्यायों को जानता है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। .
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'पांचवां अध्याय
[ १६६ ] . भाग्यः-पांच ज्ञानों का निरूपण करने के पश्चात् सूत्रकार ने ज्ञानों के विषय का निरूपण किया है । शानों का विषय जगत्-वर्ती द्रव्य, पर्याय और गुण है। जगत् में जितने भी द्रव्य और उनके गुण-पर्याय हैं वे सब इन पांचों ज्ञानों के द्वारा गृहीत हो जाते हैं। किसी भी द्रव्य या गुण आदि को जानने के लिए इन पांच के अतिरिक्त छठे शान की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है । इस कथन से यह भी नियमित हो जाता है कि शान के द्वारा द्रव्य श्रादि सभी का ग्रहण अवश्य हो जाता है । ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो इन शानों से अज्ञात रह जाय अथवा जिसे यह ज्ञानं जानने में समर्थ न हों। इस कथन से यह भी निश्चित हो जाता है कि शान, द्रव्य आदि बाह्य पदार्थों को अवश्यं जानता है।
प्रथम सूचन से उन लोगों के मत का निरास किया गया है जो कि प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण रूप इन पांच शानों से भिन्न और भी ज्ञानों की कल्पना करते हैं। " द्वितीय सूचन से यह सूचित किया गया है कि पदार्थ में प्रमेयत्व धर्म है अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में शान का विषय बनने की योग्यता हैं और मान में पदार्थों को विषय करने की योग्यता है। : - तृतीय सूचन से उन लोगों का भ्रम निवारण किया गया है जो शान को बाह्य पदार्थों का साता नहीं मानते। इस भ्रम में ग्रस्त कुछ लोग कहते हैं कि वाह्य पदार्थजान से भिन्न दूसरा कोई भी पदार्थ है ही नहीं, और कोई कहते हैं कि यह जगत् शून्य रूप है। न तो ज्ञान ही सत् है, न जान से मालूम होने वाले घट पर श्रादि पदार्थ ही सत् हैं। हमें घट श्रादि का जो जान होता है वह भ्रम मात्र है और अनादिकालीन कुसंस्कारों के कारण ऐसा प्रतिभास होता है। संक्षेप से इन मतों पर विचार किया जाता है। .. शून्यवादी लोग कहते है. अगर बाह्य पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार किया जाय तो उसे परमाणु रूप मानना चाहिए या स्थूल रूप मानना चाहिए ? अंगर यह कहा जाय कि बाह्य पदार्थ वस्तुतः परमाणु रूप है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि परमाणुओं का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष से होता है या अनुमान से होता है ? प्रत्यक्ष से परमाणुओं का मान होता तो अनुभव से विरुद्ध है, क्योंकि हमें परमाणु का झान स्वप्न में भी कमी नहीं होता । 'यह घट है 'यह पट है' ऐसा.शान हमें होता है पर यह परमाणु है' 'मैं इस परमाणु को देखता-जानता हूँ ऐसा प्रतिभास कभी किसी को नहीं होता है । इसलिए परमाणु रूप पदार्थ का प्रत्यक्ष मान मानना ठीक नहीं है । अगर अनुमान प्रमाण से परमाणु का ज्ञान होना माना जाय तय भी बाधा आती है। अनुमान प्रमाण तभी होता है जब व्याप्ति या भविनाभाव का निश्चय हो चुका हो । एक भवोध चालक धुंश्रा देख कर अग्नि का अनुमान नहीं कर सकता । किन्तु जो मनुष्य उनके अविनाभाव का शाता है भर्थात् जिसे यह पता है कि 'धुश्रा अग्नि के होने पर ही हो सकता है, अग्नि के अभाव में धुंआ नहीं हो सकता वही मनुष्य धूम्र को देख कर अग्नि का अनुमान कर सकता है। अतएर भनुमान करने के लिए
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[ २००
.. "झान-प्रकरण अविनाभाव.का ज्ञान होना आवश्यक है और अविनाभाव का ज्ञान धूम्र और अग्नि को चारस्वार एक साथ देखने से तथा अग्नि के अभाव में धूम्र का भी अभाव देखने से हुश्रा करता है। परमाणु को अनुमान से जानने के लिए भी परमाणु के साथ किसी अन्य पदार्थ के, अविनाभाव का निश्चय करना होगा और यह अविनाभाव निश्चित करने के लिए परमाणु को और उसके अविनाभावी उस पदार्थ को बार-बार एक साथ देखना पड़ेगा। पर यह पहले ही बताया जा चुका है कि हम कभी परमाणु को देख ही नहीं सकते। अतएव परमाणु को न देख सकने के कारण अविनाभाव निश्चित नहीं हो सकता.और अविनाभाव के निश्चय के बिना परमाणु का अनुमान नहीं किया जा सकता। ऐसी अवस्था में अनुमान से परमाणु का ज्ञान होना संभव नहीं है। .
अगर यह माना जाय कि परमाणु रूप बाह्य पदार्थ नहीं है किन्तु स्थूल रूप पदार्थ है, सो भी ठीक नहीं प्रतीत होता । स्थूल पदार्थ अनेक परमाणुओं के संयोग. से ही बनता है और जब परमाणु ही नहीं सिद्ध होते तो उनके समुदाय से स्थूल पदार्थ का बनना किस प्रकार सिद्ध किया जा सकता है ? अतः विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि जगत् में हमें जो पदार्थ मालूम होते हैं, वह सब भ्रम ही है। .. . जैसे वाह्य पदार्थों का अस्तित्व नहीं है उसी प्रकार ज्ञान का भी अस्तित्व नहीं है। पदार्थों को जानने के लिए ही ज्ञान की आवश्यकता होती है और जब पदार्थ ही नहीं है.तब ज्ञान किस लिए माना जाय ? इस प्रकार न क्षेय है, न ज्ञान है। यह जगत् शून्यमय है-कुछ भी नहीं है। . ..., यह शून्यवादी का अभिप्राय है। इस पर विचार करने के लिए शून्यवादी से . यह पूछना चाहिए कि-भाई ! तुम जो कहते हो वह प्रमाण-युक्त है या प्रमाण रहित है ? अगर तुम्हारा कथन प्रमाण रहित है तब तो वह स्वतः अमान्य ठहरता है, क्योंकि कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य अप्रामाणिक-प्रमाणहीन बात स्वीकार नहीं कर सकता। अगर तुम अपने मन को प्रमाण से सिद्ध मानते हो तो, प्रमाण को स्वीकार करना होगा। अगर प्रमाण को स्वीकार करते हो तो तुम्हारे शून्यवाद की धजियाँ उड़जाएगी। क्योंकि तुम प्रमाण को स्वीकार करते हो और साथ ही शून्यवाद को स्वीकार करते हो, यह परस्पर विरोधी बात है। इसलिए शून्यवाद को अंगीकार करना तर्क से सर्वथा असंगत है। ... पदार्थ तो अणु रूप भी है, स्थूल रूप भी है और आत्मा, आकाश आदि पदार्थ . ऐसे भी हैं जो न अणु रूप हैं और न स्थूल रूप ही हैं। आपका यह कथन सही नहीं है कि स्थूल पदार्थ परमाणुओं के संयोग से ही बनता है, क्योंकि स्थल से भी स्थूल की उत्पनि होती है, जैसे सूत से कपड़ा बनता है, आटे से रोटी बनती है। अतएव स्थूल पदार्थ का इस आधार पर निषेध नहीं किया जा सकता। और जब स्थल पदार्थ का निषेध नहीं हो सकता तो उससे परमाणु का भी अनुमान किया जा सकता है। . अतः सूत्रकार ने यह ठीक ही कहा है कि शान द्रव्य आदि को जानता है। ... . . शान का अस्तित्व मानते हुए भी वाहा पदार्थों का अस्तित्व न मानने वाले लोगों
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पांचवा अध्याय
[ २०१३ की मान्यता भी उपर्युक्त कथन से बाधित हो जाती है। वाह्य पदार्थों का वास्तव में अस्तित्व न होता और उनका मालूम होना भ्रम ही होता तो सभी मनुष्यों को, यहां तक कि पशु-पक्षियों तक को एक सा ही भ्रम क्यों होता? उदाहरण के लिए जल को लीजिए । जल वास्तव में जल नहीं है, फिर भी वह एक व्यक्ति को जल मालूम होता ह, तो दूसरे को भी उसी में जल का भ्रम क्यों होता है ? सभी मनुष्य उसी तरल चस्तु को जल क्यों समझते हैं ? पशु-पक्षी भी उसी को जल मानकर प्यास से. व्याकुल होकर क्यों उसकी और दौड़ते आते हैं ? कोई तेल को जल क्यों नहीं समझलेता? चालुका में जल का भ्रम क्यों किसी को नहीं होता ? इसके अतिरिक्त अगर जल वस्तुतः जल नहीं है, तो उसके पीने से तृपा की शान्ति क्यों हो जाती है ? भोजन वास्तव में भोजन नहीं है और बालू भी भोजन नहीं है, तो एक के खाने से क्षुधा की निवृत्ति क्यों होती है और दूसरे के खाने से क्यों नहीं होती ? विष-भक्षण से मृत्यु हो जाता है और औषधि-भक्षण से मृत्यु रुक जाती है. इस विभिन्नता का क्या कारण है ? शून्यवादी या बाह्य पदार्थों को भ्रम-निर्मूल कल्पना समझने वालों के मत के अनुसार सभी प्रतीत होने वाले पदार्थ कुछ नहीं है तो इन सब विचित्रताओं का
और लोक प्रसिद्ध व्यवहारों का क्या कारण है ?. वस्तुतः पदार्थ का सद्भाव है और भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं । उन विभिन्न शक्तियों का प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है और उसका हमें सदैव अनुभव होता है । इस लिए यह स्वीकार करना ही युक्ति-संगत है कि ज्ञान का अस्तित्व है और उस झान से प्रतीत होने वाले द्रव्यों का, गुणों का और पर्यायों का भी अस्तित्व है। ...
पांच प्रकार का जान सभी द्रव्यों को, गुणों को और पर्यायों को जानता है, इस कथन का तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक ज्ञान सब को ग्रहण करता है । क्योंकि मति-श्रुतजान सब द्रव्यों को जानते हैं पर सब पर्यायों को नहीं जानते । अवधिशान और मनःपर्यायलान सिर्फ रूपी द्रव्यों को ही जानते हैं। सूत्रकार का आशय यह है कि इन पांच जानों के विषय से अतिरिक्त और कोई विषय नहीं है।
द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप का विवेचन पहले किया जा चुका है अतएव यहां नहीं किया जाता।
ज्ञान श्रात्मा का गुण है और सूत्रकार के कथनानुसार सभी गुण जान के द्वारा जाने जाते हैं, इससे यह भी सिद्ध होता है कि ज्ञान स्वयं भी जान के द्वारा जाना जाता है। जैसे दीपक अन्य पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ अपने आप को भी प्रका- . शित करता है उसी प्रकार ज्ञान अपने श्राप को और अन्य बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करता है । जो ज्ञान अपने स्वरूप को न जाने वह बाह्य पदार्थों को भी नहीं जान सकता । कल्पना कीजिए हमें सामने खदे हुए घोड़े का ज्ञान तो हो जाब, परान का मान न हो अर्थात यह मालूम न हो कि हम घोड़े को जान रहे हैं, तो वास्तव में हमें चोरे का बोध होना संभव नहीं है। अतएव इस कथन से भह मतानुयायियों का तथा नैयायिकों का मत भी खंडित हो जाता है।
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[ २०२ ]
झान-प्रकरण मूल:-पढमं नाणं तो दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए।
अन्नाणी किं काही, किंवा नाहीइ छेयपावकगं ॥४॥ ...... छायाः-प्रथमं ज्ञानं नतो दया, एवं तिष्ठति सर्वसंगतः। :..::. . .. अज्ञानी किं करिष्यति, किंवा ज्ञास्पतिश्रेयः (छक ) पापकम् ॥
शब्दार्थः-पहले ज्ञान, फिर पांचरण, इसी प्रकार सब संयमी व्यवहार करते हैं। अज्ञानी क्या करेगा? यह पाप-पुण्यं को क्या समझेगा ?
. भाज्या-ज्ञान-स्वरूप के निरूपण के पश्चात सूत्रकार यहां ज्ञान की महत्ता का .. दिग्दर्शन कराते हैं।
. सब संयमी पुरुष पहले संयम के विषयभूत पदार्थों का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करते है, और सम्यग्ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् ही दया का अर्थात् संयम का यथावत आचरण करते हैं । जिसे जीव आदि प्रयोजन भृत तत्वों का ज्ञान नहीं है अथवा यथार्थः सम्यग्ज्ञान नहीं है वह जीव-रक्षा रूप संयम का आचरण नहीं कर सकता। जिसे सत् और असत् का विवेक ज्ञान नहीं है जो आस्रव और संवर के स्वरूप का जाता नहीं है वह पानव के कारणों का परित्याग करके संबर से संवृत नहीं बन सकता । श्रतएव निर्दोष संयम का पालन करने के लिए पहले प्रयोजनभूत संम्यग्ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है।
प्रयोजन भूत ज्ञान कहने का श्राशय यह है कि जगत् के पदार्थों का प्रयोजन .. शन्य ज्ञान न होने पर भी संयम-पालन में कोई त्रुटि नहीं हो सकती। किस प्रकार के रासायनिक-सम्मिश्रण से कौन-सी वस्तु उत्पन्न हो जाती है, किस यंत्र में कितने पुर्जे होते हैं और उनका किस प्रकार संयोग करने से कार्ययंत्र बन जाता है ? इत्यादि जान ममन पुरुषों के लिए प्रयोजन भूत नहीं है। यहां ऐसे जान की महत्ता का प्रतिपादन नहीं किया गया है । मुमुक्षु प्राणी के लिए तो यह ज्ञान होना चाहिए कि श्रात्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है ? वह अपने स्वरूप से च्युत क्यों हो रहा है ? किन उपार्यो से वह अपने असली स्वरूप की प्राप्ति कर सकता है ? जीव क्या है ? उसकी रक्षा किस प्रकार के व्यवहार से हो सकती है ? इत्यादि ! इन सब बातों को बिना जाने, लौकिक जान चाहे जितना हो, कार्यकारी नहीं होता। वह एक प्रकार का भार ही है। .. उस से आत्म-कल्याण में सहायता नहीं मिलती। .... ..
इसके विपरीत प्रयोजन भूत ज्ञान के बिना संयम का अनुष्ठान ही नहीं हो. सकता। शास्त्र में कहा है:
“गोयमा ! जस्स णं सव्वपाणेहि जाव सध्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणस्स गो एवं अभिसमरणागयं भवति-इमें जीवा, इमे अजीवा, इमे त्रसा, इमे थावरा, तस्सण सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वद्माणस्स नो सुपञ्चक्खायं भवति, दुपच्चक्खायं भवति । एवं खलु से दुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव -
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पांचवां अध्याय
। २०३ सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणे लो सच्चं भासं भासद, मो मासं भासाइ । एवं स्खलु से मुसाबाई सव्वपापहि जाव सधसत्तेहिं तिविहं तिविहेवं असंजयविरयपड़िहय पञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए, असंवुडे, एरंतदंडे, एगंतवाले यावि भवति ।"
. अर्थात् 'हे गौतम ! सच प्राणों में यावत् सब सरवों में प्रत्याख्यान किया है। ऐसा बोलने वाले को अगर यह जान्न नहीं होता कि-यह जीव हैं, यह अजीव हैं, यह त्रस है, यह स्थावर हैं तो उसका प्रत्याख्यान, सुप्रत्याख्यान नहीं होता, दुष्प्रत्याख्यान होता है । इस प्रकार वह दुष्प्रत्याख्यानी 'स्व प्राणों में यावत सर सत्वों में प्रत्याख्यान किया है' ऐसा बोलने वाला सत्य भाषा नहीं बोलता, मिथ्या भाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी, सद प्राणों में यावत् सब सत्वों में तीन करण तीन योग से असंपत, विरतिरहित, पाप कर्म का त्याग न करने वाला, क्रियासहित-कर्म दंघ युस्त संवररहित, एकान्त हिंसा करने वाला और एकान्त अक्ष होता है।
-भगवती सूत्र, श०७७०२ श्री भगवती सूत्र के कथन के अनुसार भी यही सिद्ध होता है कि जब तक जीव-अजीव श्रादि तत्वों का यथार्थ ज्ञान नहीं होता तब तक संयम की स्थिति नहीं होती। यही नहीं, अजानी यदि संयम पालने का दावा करता है तो वह मिथ्याभाषी है, संयमहीन है, एकान्त हिंसक है और पकान्त बाल है।
जिस रोगी को या चिकित्सक को रोग का स्वरूप नहीं मालूम है, उसके निदान का पता नहीं है, रोगी की प्रकृति (स्वभाव ) का भान नहीं है, और रोग को उपशांत करने के उपायों का ज्ञान नहीं है, वह रोग को दूर नहीं कर सकता। इसी प्रकार भवरोग का स्वरूप, भव-रोग का निदान, भव-रोग से मुक्त होने के उपाय, को जो सम्यक प्रकार से नहीं समझता है वह संसार की बीमारी से छूटकर आध्यात्मिक स्वस्थता नहीं प्राप्त कर सकता। कहा भी है
श्रात्माजानभवं दुःखं, प्रात्मशानेन हन्यते ।
तपसाऽप्यात्मरिशानहीनेश्छेनुं न शक्यते ॥ आत्मा के यथार्थ स्वरूप को न जानने से जो दुल उत्पन्न हुआ है वह आत्म-झान से ही विनए किया जा सकता है। श्वात्मा के शान से रहित पुरुष तपस्या के द्वारा भी दुःख का विनाश नहीं कर सकते हैं। क्योंकि श्रात्म-ज्ञानहीन तए का फल अल्प होता है। कहा भी है
जनतासी कम्म खरेइ कटुश्राहि वासकोडीहि ।
तं नाखी तिहि गुत्तो, खवह उसासमेत्तेग . प्रर्धाद नशानी जीव करोड़ों वर्षों में जितने कर्म नपाला है, इतने कर्म मन वचन काय से संवृत्त मानीजन एक उच्दास जितने समय में ही मर डालता है।।
'अतएव श्रात्मकत्याण की कामना करने वाले भव्य जीवों को प्रथम प्रान कीयोजनभूत यात्मशान की--परराधना करनी चाहिए। यह मान ही संयमरूपी वृध
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झान-प्रकरण का मूल है। जैसे बिना मूल के वृक्ष नहीं रहता उसी प्रकार ज्ञान के विना संयम नहीं. रह सकता! ..... ... यहां मूलं गाथा में 'दया' शब्द उपलक्षण है । उससे समस्त चारित्र अर्थात् . संयम का ग्रहण करना चाहिए। ..... मूलः-सोचा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणइ पावगं ।
उभयं पि जाणई सोचा, जं छेयं तं समायरे ॥५॥
छाया:-श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् । . उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत् ॥ ५॥ .. . . . . . शब्दार्थः-(पुरुष) सुन कर कल्याण को जानता है, सुन कर पाप को जानता है, सुन करके ही कल्याण-अकल्याण-दोनों को जानता है। जो कल्याणकारी हो उसका आचरण करना चाहिए।
भाष्यः-आत्म-ज्ञान का महत्व बताने के पश्चात् उसकी प्राप्ति के उपाय का कथन करना आवश्यक है, अतएव सूत्रकार ने यहां यह बताया है कि उस ज्ञान की प्रांहिं का उपाय क्या है ? :
श्रुत्वा का अर्थ है-सिद्धान्त को गुरु महाराज से सुनकर। तात्पर्य यह है कि सिद्धान्त को श्रवण करने से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है और श्रुतज्ञान से पाप-पुण्यशुभ-अशुभ का विवेक अर्थात् विज्ञान की प्राप्ति हो जाने से पाप का प्रत्याख्यान होता है और संयम का आचरण किया जा सकता है । भगवती सूत्र में कहा है- .
.. ‘से णं भंते ! सवणे किं फले ? णाणफले । सेणं भंते ! णाणे किंफले ? विन्नाणफले । से णं भंते ! विन्नाणे किं फले ! पञ्चमवाफले । सेणं भंते ! पच्चखाणे किं फले? संजम फले ।' यहां श्रवण का फल ज्ञान, ज्ञान का फल विज्ञान (हेयोपादेय का विवेक), विज्ञान का फल प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान का.फल संयम बताया गया है।
. .. श्रवण करने के लिए श्रांठ गुणों की आवश्यकता होती है। जो इन गुणों से रहित होते हैं उन्हें श्रवण का परिपूर्ण फल प्राप्त नहीं होता।
आगमसत्थम्गहणं जं वृद्धि गुणहिं अट्टाहि दिह। वेति सुयनाणलाभ, तं पुच विसारया धीरा ॥ . · सुस्सूसई षडिपुच्छइ, सुइ गिरहइ य ईहए यावि।
तंत्तो अपोहती य, धारेह करेइ य सम्मं ॥ ... ; बुद्धि के आठ गुणों से भागम-शास्त्र का ग्रहण कहा गया है । जो इन गुणों सहित श्रवण करते हैं उन्हीं को श्रुतशान का लाभ होता है, ऐसा पूर्वी के वेत्ता कहते हैं । वुद्धि के आठ गुण इस प्रकार हैं:-१) विनयपूर्वक गुरु-मुख से श्रवण करने की इच्छा करे (२) पूछे अर्थात् श्रवण किये हुए श्रुत में संदेह का निवारण करे (३) पठित ..
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पाँचवां अध्याय
{ २०५१
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श्रुत को अर्थ सहित सुने सुनकर उसे श्रवग्रह से ग्रहण करे ( ५ ) श्रवग्रहित करके ईहा से विचार करे (६) विचार करके अपनी बुद्धि से भी उत्प्रेक्षा करे (७) तदनन्तर उसकी धारणा करे अर्थात् श्रुत को चित्त में धारण कर रखे (=) अन्त में शास्त्र में निरूपित जो श्रेयस्कर अनुष्ठान है उसे व्यवहार में लावे |
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इस क्रम के साथ जो श्रुत का श्रवण किया जाता है वह शीघ्र ही फलदायक होता है । श्रविनय, श्रववधान या उपेक्षा के साथ श्रवण करने से श्रुतज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । श्रतएव प्रत्येक श्रोत्रा- शिष्य को इन विशेषताओं के साथ ही सिद्धान्त का श्रवण करना चाहिए ।
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दूसरे स्थल पर श्रोता के इक्कीस गुणों का उल्लेख भी मिलता है । वे गुण भी शिष्य वर्ग को ध्यान में रखने योग्य हैं, श्रतएव उनका यहाँ उल्लेख मात्र किया जाता है— श्रोता (१) धार्मिक रुचि वाला हो ( २ ) संसार से भयभीत हो (३) सुख का अभिलाषी हो (४) चुद्धिशाली हो (५) मननशील हो (६) धारणा शक्ति वाला हो ( ७ ) योपादेय का ज्ञाता हो (८) निश्चय व्यवहार का जानकार हो ( ३ ) विनीत हो (१०) डढ़ श्रद्धालु हो (११) अवसर कुशल हो (१२) निर्वितिमिच्छी-श्रवण के फल में सन्देह करने वाला न हो (१३) जिझासु हो - शास्त्र - श्रवण को भार न समझकर आन्तरिक उत्कंठा से तत्वज्ञान का अभिलाषी हो (१४) रस-ग्राही उत्सुकतापूर्वक श्रवण का लाभ उठाने वाला हो (१५) लौकिक सुख-भोग में अनासक्त हो । १६) परलोक के स्वर्ग यदि संबंधी सुखों की श्राकांक्षा न करे (१७ सुखदाता - गुरु- श्रध्यापक की सेवा करने वाला हो (१८) प्रसन्नकारी - गुरु को अपने व्यवहार से प्रसन्न करने वाला हो (१६) निर्णयकारी सुने हुए सिद्धान्त की आलोचना - प्रत्यालोचना करके अर्थ का निश्चय करे ( २० ) प्रकाश गृहीत श्रुतज्ञान को दूसरों के सामने प्रकट करे उसका व्याख्यान करे (२१) गुणग्राहक - गुणों का विशेषतः गुरु के गुणों का ग्राहक हो ।
श्रोता इन गुणों से युक्त होता है तो वह अपने गुरु के हृदय मैं शीघ्र ही अपना स्थान बना लेता है । वह उनका स्नेह सम्पादन करने में समर्थ होता है और गूद से गृढ़ ज्ञान की उपलब्धि करके विशिष्टं श्रुतज्ञानशाली बन जाता है । उसकी चुद्धि का विकास भी इनसे होता है । अतएव शिष्यों को सिद्धान्त श्रवण करने वालों को इन गुणों का सम्पादन करना तीच उपयोगी और कार्यसाधक हैं ।
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इन गुणों से सुसंस्कृत हृदये बना कर शास्त्र श्रवण करने वाले पाप का, त्रस का, और उभय का ज्ञान संपादन करते हैं। तत्पश्चात् श्रेयस्कर कार्य में प्रवृत्ति करके अनुत्तर आत्महित को प्राप्त करते हैं । अतएव सिद्धान्त श्रवण करना प्रत्येक का परम कर्त्तव्य है |
उभयंपि जाइ सोच्चा' इस वाक्य में ' उभयं ' पद से ऐसे व्यापार का ग्रहण किया गया है, जिससे पाप और पुण्य दोनों का बंध होता है । जिस व्यापार से एकान्त संवर और निर्जरा होती हैं वही साधुओं का कर्तव्य होता है | आवक उभयात्मक क्रिया भी करते है - जिससे अल्पतर पाए और बहुतर पुण्य की प्राप्ति
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शान-प्रकरण होती है। उसी को यहां ' उभयं' पद से ग्रहण किया गया है। __ मूलः-जहा सूई ससुत्ता पडिपा विण विणस्सइ । ...
- तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥ ६॥ छाया:-यथा सूची ससूत्रा, पतिताऽपि न विनश्यति। : . .. :
तथा जीवः ससूत्रः संसारे न विनश्यति ।। ६ ॥ .. . ." शब्दाथ:-जैसे ससूत्र-धागा सहित सुई गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती-नहीं . गुमती, इसी प्रकार ससूत्र-श्रुतज्ञान सहित जीव संसार में विनष्ट नहीं होता-कष्ट नहीं पाता है।
भाष्यः-श्रुतज्ञान की प्राप्ति के उपायों का निर्देश करके सूत्रकार ने यहां श्रुतज्ञान का प्रभाव प्रदर्शित किया है और इहलोक में भी श्रृंतजान की उपयोगिता दिखलाई है।
श्रुतज्ञान का फल परम्परा से मुक्ति प्राप्त करना है. किन्तु इस लोक में भी उसकी अत्यन्त उपयोगिता है। सूत्र (सूत-डोरा.) से युक्त सुई कभी गिर जाय तो. भी वह सदा के लिए गुम नहीं जाती-किन्तु डोरा के संयोग से पुनः प्राप्त हो जाती हैं उसी प्रकार जो मनुष्य भूतज्ञान से युक्त होता है वह संसार में रहता हुआ भी दुःखों से मुक्ल प्राय हो जाता है।
.... .. ... ... ... · शंका-आगम में सब संसारी जीवों को श्रुतज्ञानवान बतलाया है अतएव किसी को भी संसार में रहते हुए दुःख नहीं होना चाहिए। ... ...... समाधान-जैसे: यह पुरुष धनवान है ' ऐसा कहने से विशेष धन वाला अर्थ समझा जाता है, उसी प्रकार ससूत्र कहने से यहां विशिष्ट श्रुतज्ञानवान् से तात्पर्य है। अर्थात् जिसे विशिष्ट श्रुतज्ञान की प्राप्ति हो गई है वह दुःख नहीं पाता । श्रुतजान. की कुछ मात्रा तो समस्त छद्मस्थ जीवों में होती है पर विशिष्ट श्रुत का सद्भाव सब में नहीं होता । इसलिए सब जीव दुःख से नहीं बच पाते... ......
- संसार में सब से अधिक दुःख इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग से उत्पन्न होते हैं। इन्हीं दो कारणों में प्रायः अन्य कारणों का समावेश हो जाता है । जानीजन. इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग की अवस्था में व्याकुल, सुब्ध और संतप्त नहीं होता। जिसे प्रशानीजन दुःख का पर्वत समझकर उसका भार वहन करने में अपने को असमर्थ पाता है, नानीजन उसे वस्तुओं का स्वाभाविक परिणमन समझकर मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करता है । अज्ञानी जीव इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग रूप दुःस्त्रों की उत्तुंग तरंगों में इधर-उधर बहता हुआ अस्थिर रहता है। ज्ञानीजन उन तरंगों में चट्टान की तरह निश्चल बना रहता है। पुत्र कलत्र प्रादि इष्ट जनों के वियोग से अंजानी जीव आर्तध्यान के वशवती होकर घोर दुःख का अनुभव करता है परन्तु सिद्धान्तवेता बानी पुरुष उसे कर्मों की क्रीडा समझकर साम्यमाव का आश्रय लेता
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पांचवां अध्याय
[२०७ ] है-वरन् संसार से विरक्त होकर राग के बन्धन को अधिकाधिक काटने का प्रयत्न करता है। इसी प्रकार धन, सम्पत्ति, राज्य, वैभव आदि पदार्थों का वियोग होने पर भी वह दुःख का अनुभव नहीं करता है । वह विचारता है कि संसार के समस्त संयोग. विनश्वर है, शोक करने से उनका विनाश रुक नहीं सकता। अतएव उनके लिए शोक करने से लाभ ही क्या है ? संसार में- . . . . . .
मातापितसहस्राणि पुत्रदाहशतानि च ।
'प्रतिजन्मनि वर्तन्ते कस्य माता पिताऽपिवा ॥ अर्थात् हजारों माता-पिता हो चुके हैं, सैंकड़ों पुत्र और कलत्र बन चुके हैं। यह तो प्रत्येक जन्म में होते रहते हैं । वास्तव में कौन किसकी माता है ? कौन्द किसका पिता है ? तथा- .
रिद्धी सहावतरला, रोगजराभंगुरं हयसरीरं।
दोरह पि गमण सीलाण, किपचिरं होज्ज संबंधो ? ॥ अर्थात् ऋद्धि स्वभाव से चंचल है। यह गया-बीता शरीर रोग और जरा के कारण नाशशील है । जव धन-सम्पदा और शरीर दोनों ही विनश्वर हैं तो दोनों का संबंध कितने काल तक रह सकता हैं ?
इस प्रकार की विचारधारा में अवगाहन करने वाले ज्ञानी को दुःखों का संताए तनिक भी संतप्त नहीं कर पाता । वह विकट से विकट समझे जाने वाले प्रसंगों पर भी शान्त, विरक्त, साम्यभावी और धैर्य सहित बना रहता है। कमों के फल की विचिअता का विचार करके दुःखों को परास्त कर देता हैं । मान रूपी महामहिम यंत्र में दुःखों को ढाल कर वह सुख रूप परिणत कर सकता है। इसीलिए शालकार ने कहा है कि श्रुतजानी पुरुष संसार में रहती हुश्रा भी दुःख नहीं उठाता । ज्ञानी पुरुष की अनासक्ति ही उसकी रक्षा करने वाले कवच का काम देती है । उसका साम्यभार ही उसकी दाल है, जिससे दुःख का ऋर से ऋर प्रहार भी उसके सामने. वृथा वन जाता है । जान सुख-प्राप्ति की सर्वश्रेष्ठ कला है। झान सुख के अक्षय कोप की कुजी है । जान मुक्ति का द्वार है। जान शिव का सोपान है। 'झानं न कि किं कुरुते नराणाम' अर्थात ज्ञान से मनुष्यों का सभी अभीष्ट सिद्ध हो जाता है। अतएर हे भन्य जीवों ! जान की प्राप्ति के लिए प्रवल पुरुषार्थ करो। निरन्तर अममत्त भाव से ज्ञान की आरधना करो। ऐसा करने से कल्याण तुम्हारे सन्मुख आजायगा । दुःख पास भी नहीं फटक सकेंगे। शान की दिव्य ज्योति पाकर तुम अपने असली रूप को देख पाओगे। .....
मूलः-जावंतविजा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा। ।
लुप्पति वहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए ॥ ७ ॥.
..... छाया:-यावन्तोऽविराः पुरषाः सर्वे ते दुसाभवाः ।
लुप्यन्ते बहुशो मूहाः, संसारे भनन्त के ॥७॥
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२०८ ]
. ज्ञान-प्रकरण शब्दार्थः--जितने अज्ञानी पुरुष हैं वे सब दुःखों के पात्र हैं । इसीसे वे मूढ़ पुरुषः । अनन्त संसार में कष्ट भोग रहे हैं।
... भाष्यः-सम्यग्ज्ञान के प्रभाव की प्ररूपणा के अनन्तर उसके प्रभाव का दुष्परिणाम बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं-जो पुरुष अविध अर्थात् सम्यग्ज्ञान से रहित हैं वे सब नाना प्रकार के दुःखों के भाजन होते हैं और उन्हें अनन्त संसार में भ्रमण करना पड़ता है।
पहले सम्यग्ज्ञान का महत्व बतलाते हुए यह कहा गया है कि शानी पुरुष इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में समभाव रखता है अतएव वह दुःख का वेदन नहीं करता।. इसके विपरीत अज्ञानी पुरुष इष्ट वियोग आदि प्रतिकूल अवसर श्राने पर अत्यन्तः शोक और संताप करके इस जन्म में दुःखी होता है और श्रातध्यान से निकाचित, याप कर्मों का वन्ध करके परलोक में भी दुःख का पात्र बनता है । इसी प्रकार इष्ट संयोग श्रादि अनुकूल प्रसंगों पर हर्ष और अभिमान आदि के वश होकर पाप कर्मों का उपार्जन करता है और उनका फल दुःख रूप होता है। इतना ही नहीं, अज्ञानी पुरुष, अपने अज्ञान के कारण जों संयम का अनुष्ठान करता है वह संयम भी उसके संसार-म्रमण का ही कारण होता है । अतएव सूत्रकार ने अजान का फल दुःख एवं संसार-भ्रमण बतलाया है। अज्ञान की निवृत्ति सम्यक्त्व की प्राप्ति से होती है अतएव भव्य जीवों को सम्यक्त्व ग्रहण करना चाहिए । तदनन्तर पूर्वोक्त श्रोता के गुण से युक्त होकर श्रुतज्ञान का लाभ करके ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिए। ..... मूलः-इहमेगे उ मरणंति, अप्पच्चक्खाय पावगं । . : आयरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ ॥ ८ ॥ . छाया:-इहैके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम् । । -
आचारिको विदित्वा, सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यते ॥८॥ ..शब्दार्थ:--यहां कोई-कोई ऐसा मानते हैं कि पाप का प्रत्याख्यान न करके भी चारित्र को जानकर ही समस्त दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। ....
.... ... .. भाष्यः-जो लोग दुःखों से मुक्त होने के लिए ज्ञान को ही पर्याप्त मानते हैं और चारित्र की आवश्यकता नहीं समझते, उनके मत का दिग्दर्शन यहां कराया गया है। पहले ज्ञान का जो माहात्म्य बताया गया है उसमें विशेषता घोतित करने के लिए यहां: ... 'तु' अव्यय का प्रयोग किया गया है। :..... :: .. ................. :
संसार में मोहनीय कर्म के उदय से अनेक प्रकार के एकान्त प्रचलित हैं। उनमें ज्ञानैकान्त और क्रियकान्त भी है। कोई-कोई लोग एकान्त रूप से. ज्ञान को ही मुक्ति का कारण मानते हैं और कोई एकान्त क्रिया को ही मोक्ष का हेतु स्वीकार करते . हैं । पञ्चमार्क व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा है
अनउत्थियाणं भंते ! एवं श्राइक्वंति, जाव परुवैति-एवं खलु (१) सीलं .
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पांचवां अध्याय
[ २०६ ] सेयं, ( २ ) सुयं सेयं, ( ३ ) सील सेयं सुयं सेयं । “से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जे णं ते अन्नउत्थिया एवं श्राइक्खंति जाव ते एवं आलु, मिच्छा ते एवं ग्राहंसु, अहं पुण गोयमा! एवं श्राइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-(१) सीलसंपरणे नामं एगे गो सुयसंपरणे (२) सुयसंपने नामं एगे को सीलसंपन्ने ( ३ ) एगे सीलसंपन्ने वि सुयसंपन्ने वि ( ४ ) एगे णो सीलसंपन्ने णो सुयसंपन्ने । तत्थ पंजे से पढमे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुवयं, उवरए अविनायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहएपन्नत्ते । तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसाजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं अणुवरए विनायधम्मे एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहएपन्नत्ते । तत्थ णं. जे से तच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं सुयवं उवरए विनायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वाराहए पन्नते। तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसाजाए से णं पुरिसे असीलपं असुयवं अणुवरए अविराणायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सबविराहएपन्नत्ते।" . . . . . . . : .
अर्थात्-गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं-"भगवन् ! अन्य मतावलम्बी ऐसा कहते हैं कि (१) शील ही श्रेय है, (२) कोई कहते हैं कि ज्ञान ही श्रेय है और (३) कोई कहते हैं परस्पर निरपेक्ष शील और ज्ञान ही श्रेय है। भगवन् ! क्या यह सत्य है ?" ..... . ... . . . ... .. .
भगवान् उत्तर देते हैं-" हे गौतम! उनका यह कथन मिथ्या है । हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूं-पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई शील संपन्न होते हैं (.२) कोई ज्ञान संपन्न होते हैं. (३) कोई शील और ज्ञान दोनों से संपन्न होते हैं (४) कोई न शील संपन्न होते हैं और न ज्ञान संपन्न होते हैं । : इनमें पहला. पुरुष शीलवान् है परन्तु श्रुतवान् नहीं है वह पाप से निवृत्त है पर धर्म को नहीं जानता वह देश--(अंशतः) श्राराधक है । दूसरा पुरुष शीलवान् नहीं है, श्रुतवान् है, वह. अनुपरत है.पर धर्म को जानता है वह अंशतः विराधक है। तीसरा पुरुप शील और श्रुत दोनों से संपन्न है, पाप से उपरत है और धर्म को जानता है वह पूर्ण आराधकः . है । चौथा पुरुष न शीलयुक्त है न ज्ञानयुक्त है वह पाप से निवृत्त भी नहीं है और धर्म को जानता भी नहीं है वह पुरुप पूर्ण विराधक है, ऐसा मैंने कहा है।" .
शास्त्र के इस प्रश्नोत्तर से स्पष्ट है कि ज्ञान और चारित्र-दोनों से युक्त पुरुष ही पूर्ण रूप से श्राराधक हो सकता है और पूर्ण श्राराधक हुए विना मुलि लाम नहीं. होता अतएव मुमुनु पुरुपों को ज्ञान और क्रिया-दोनों की पाराधना करनी चाहिए। दोनों की श्राराधना के विना मुक्ति की प्राप्ति होना संभव नहीं है । तथापि अनेक लोग अकेले झान को ही मुक्ति का कारण मानते हुए कहते हैं
जान ही मोक्ष का मार्ग है-उसके लिए क्रिया की प्रायश्यकता नहीं है । यदि क्रिया से मोक्ष मिलता होता तो मिथ्यासानपूर्वक क्रिया करने वाले को भी मोक्ष मिल जाता, क्योंकि मिथ्याशानी भी क्रिया करता है और क्रिया से मुक्ति मिलती है । पर ऐसा नहीं होता, अतः सम्यमान ही मुक्ति का कारण है । कहा भी है
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....................मान-प्रकरणं
[ २१०
विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता।
मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलाऽसंवाददर्शनात् ॥ . अर्थात् जान ही फलदायक है, क्रिया फलदायक नहीं है । क्रिया फलदायक होती तो मिथ्याशानी की क्रिया भी फलदायक होती। .. ... इसके विरुद्ध क्रियावादी कहते हैं कि क्रिया ही फलदायक होती है, ज्ञान नहीं । यथा-
. ... . .. ... ... .. . .........
. .. क्रियैव फलदा पुंसां न, जानं फलदं मतम् । ....
यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत्॥........ शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः; यस्तु क्रियावान् पुरुपः स विद्वान् । . . . संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, न जानमात्रेणं करोत्यरोगम् ॥ .. .......
अर्थात् क्रिया ही पुरुषों को फल देती है; जान फलप्रद नहीं होता, क्योंकि स्त्री, __ भोजन और भोगोपभोगों को जान लेने वाला पुरुष, जान लेने से ही सुखी नहीं हो जाता।
. शास्त्रों का अध्ययन करने वाले भी मूर्ख होते हैं । सच्चा विद्वान् तो क्रियावान् ही होता है । अच्छी तरह विचार कीजिए, क्या औषधि को जान लेने मात्र से वह रोगी को नीरोगं कर देती है ? नहीं कर देती; तो ज्ञान किस काम का है ? - यह दोनों एकान्तवादियों का अभिप्राय है । एक क्रिया को अनावश्यक ठहराता है, दूसरा ज्ञान को अनुपयोगी कह कर उसकी भर्त्सना करता है। वस्तुतः दोनों एक .. दूसरे के मत-पर प्रहार करके दोनों मतों को असंगत ठहराते हैं। ...
.. क्या मुक्ति की प्राप्ति और क्या अन्य सांसारिक कार्यों में सफलता की प्राप्ति सर्वत्र ही जीन और क्रिया-चारित्र की आवश्यकता होती है। जानहीन क्रिया और क्रिया शून्य ज्ञान से कहीं भी फल की प्राप्ति नहीं होती। किन्तु ज्ञान के द्वारा जानकर तदनुकूल श्राचरण करने से ही कार्य-सिद्धि होती हैं। कहा भी है-...'
.. हयं नाण कियाहीणं, हया अन्नाणो किया।
.पासंतों पंगुलो दड्ढो, धावमाणो अंधओं ॥ अर्थात-नगर में आग लगने पर पंगु पुरुपं आग को देखता हुश्रा भी जल मरता है और अंधा प्रादमी भागता हुश्रा भी ( आग की और दौड़कर) जल जाता है. दोनों में से कोई भी वचने में समर्थ नहीं होता । इसी प्रकार किया.हीन ज्ञान और जान हीन क्रिया भी निष्फल होती है।
. यदि अंधा और पंगु पुरुष दोनों मिल जावे-अंधा, पंगु को अपने कंधे पर विठाले और पंगु; अंधे को ठीक दिशा बताता चले तो दोनों विपदा से बच सकते हैं। इसी प्रकार जान और चारित्र दोनों जब मिल जाते हैं तो मनुष्य दुःख से वचकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है । अज्ञानी पुरुष, सुन के लिए प्रयत्न करता हैं किन्तु सुत्र के स्वरूप का और सुख के मार्ग का यथावत जान न होने के कारण वह ऐसा प्रयत्न .
...
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।
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पांचवां अध्याय
[ २११ ] कर बैठता है जिससे सुख के बदले और अधिक दुःख की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार जो ज्ञानवान तो है, सुख के उपायों को भली भांति जानता है, पर सुखप्राप्ति के लिए उचित श्राचरण नहीं करता उसे भी सुख नहीं प्राप्त होता, जैसे कोई रोगी
औषधी को जानता है पर उसका व्यवहार नहीं करता तो वह नीरोग नहीं हो सकता। वास्तव में जान का फल संयम है-सदाचार है । जिस ज्ञानवान को संयम की प्राप्ति • नहीं हुई, उसका जान बन्ध्य है-निष्फल है. । श्रतएव विद्वानों को चरित्रनिष्ठ बनना
चाहिए और चारित्रनिष्ठ पुरुषों को ज्ञान की प्राप्ति के लिए उद्यत होना चाहिए। तभी दोनों की साधना में पूर्णता पाती है। जैसे एक चक्र से रथ नहीं चलता उसी प्रकार अकेले ज्ञान या चारित्र से सिद्धि नहीं मिलती, जैसे चंदन का भार ढोने वाला गर्दभ चन्दन की सुगंध का आनंद नहीं ले सकता उसी प्रकार चारित्र के बिना ज्ञानी, ज्ञान का भार भले ही लादे फिरे पर वह ज्ञान का रसास्वाद नहीं कर सकता। इसी लिए सर्वक्ष प्रभु ने ज्ञान और क्रिया से सिद्धि-लाभ होने का निरूपण किया है। .
. मूलः-भयंता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो। ..
बायावीरियमित्तेणं, समाससति अप्पयं ॥ ६ ॥
छाया भणन्तोऽकुर्वन्तश्न, वन्धमोक्ष प्रतिशिनः ।
. वाग्ववीर्यमानेण समाश्वलन्त्यात्मानम् ॥६॥ शब्दार्थः-ज्ञान को ही बंध और मोक्ष का निमित्त मानने वाले लोग कहते हैं पर करते नहीं हैं। वे अपनी वाचनिक वीरता मात्र से आत्मा को आश्वासन देते हैं।
भाष्यः-पूर्वोक्त ज्ञानेकान्त का निरसन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो लोग श्रुत का अभ्यास करते हैं-पढ़ते-लिखते हैं, दूसरों को लच्छेदार भापा में उपदेश देते हैं किन्तु प्राप्त ज्ञान के अनुसार पाचरण नहीं करते और जो मात्र जान से.बंध-मोक्ष का होना मानते हैं, वे घोखे में पड़े हुए हैं। वे अपनी आत्मा को मिथ्या श्राश्वासन दे रहे हैं। वस्तुतः वे आत्मा का कल्याण साधन नहीं कर सकते। यही नहीं 'स्वयं नष्टः परान्नाशयति' अथवा 'अन्धेन नीयमानः अंधः' इन लोकोक्तियों के अनुसार वे श्रात्मा का ही नहीं वरन् दूसरों का भी घोर अहित करते हैं । वे अपनी कुतर्क गाथाओं के द्वारा अन्य भद्र जीवों को भी श्राचरए से विरत करके उन्हें उन्मार्ग में ले जाते हैं।
शत्रुओं का आक्रमण होने पर जैसे मौखिक वहादुरी से-जवानी शूरता से उन्हें परास्त नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भात्मा के शत्रुत्रों को जान बघारने मात्र से पराजित नहीं किया जा सकता । उन्हें पराजित करने के लिए क्रिया की चारित्र की आवश्यकता होती है।
शंका-जान से मोक्ष मानने वाले सांरुप श्रादि बंध शान से नहीं मानते, किन्तु अशान अथवा मिथ्याशान से मानते हैं फिर यहां मान से बंध-मोक्ष मानने वाला उन्हें , क्यों कहा है ?
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शान-प्रकरण ... समाधान-जो लोग सिर्फ ज्ञान से मुक्ति मानते हैं उन्होंने बंध मिथ्याज्ञान से । माना है, यह ठीक है। पर मिथ्याज्ञान, ज्ञान की ही एक विकारमय अवस्था है और सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की अपेक्षा न करके मिथ्याज्ञान को भी सामान्य रूप.से ज्ञान कहा जा सकता है। अतएव सूत्रकार का कथन संगत ही है । तात्पर्य यह है,कि जैसे शान और क्रिया दोनों को स्वीकार करने वाले बंध का कारण मिथ्याज्ञान और असंयम दोनों मानते हैं उस प्रकार ज्ञान कान्तवादी नहीं मानते। वे असंयम या अविरति को बंध का कारण न स्वीकार करते हुए मिथ्याज्ञान को ही बंध का कारण मानते हैं और मिथ्यांज्ञान भी सामान्यं की अपेक्षा ज्ञान ही है इसलिए 'ज्ञान से बंध-मोक्ष मानते हैं' यह कथनं प्रयुक्त नहीं कहा जा सकता। . • जैसे मोक्ष ज्ञान और क्रिया अर्थात् सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र कारणक हैं . उसी प्रकार संसार उनसे विपरीत मिथ्याज्ञान और मिथ्यांचारित्र मूलक है । संसार बन्धनात्मक होने से यहाँ बंध को ही संसार कहा गया है। मुक्ति से यह बात भलीभाँति सिद्ध होती है । यथा-संसार मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रं कारणंक है, क्योंकि इनके नाश होने पर संसार का भी नाश हो जाता है, जो जिसके नाश होने से नष्ट . होता है वह तत्कारणक ही होता है, जैसे वात के विचार से उत्पन्न होने वाला रोग, बात की निवृत्ति से निवृत्त होता है अतएव वह रोगः वात निमित्तक माना जाता है। इसी प्रकार मिथ्यानान आदि की निवृत्ति से भव की निवृत्ति होती है अतएव भव मिथ्यानान आदि कारणों से उत्पन्न होता है। ................
यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यहाँ यद्यपि सम्यक्ज्ञान और चारित्र को मोक्ष का तथा मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को संसार का कारण कहा गया है, तथापि सम्यग्दर्शन भी मुक्ति का कारण है और मिथ्यादर्शन भी संसार का. कारण है। उनका साक्षात् शब्दों द्वारा कथन इसलिए नहीं किया गया है कि जान में ही दर्शन का समावेश हो जाता है। अतएव संसार के कारण मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान -
और मिथ्याचारित्र हैं। इनके क्षय से संसार का क्षय होता है। जैसे-मिथ्यादर्शन का क्षयःहोने से अनन्त संसार का क्षय हो जाता है, अर्थात् सम्यग्दृष्टि:जीव का संसार परिमित-संख्यात भव ही शेष रह जाता है। मिथ्याज्ञान के क्षय से भी इसी प्रकार संसार का क्षय होता है और मिथ्याचारित्र का क्षय होने से संसार का समूल. ही विनाश हो जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि संसार के कारण मिथ्यानान आदि ही हैं। - शंका:-बंध तत्त्व के विवेचन में पहले पाँच कारणों से बंध होना कहा है और जितने कारणों से बंध होता है उनके विरोधी उतने ही कारणों से मोक्ष भी होना चाहिए अर्थात् मोक्ष के भी पाँच कारण होना चाहिए। फिर श्राफ रत्नत्रय को ही मोक्ष का कारण क्यों कहते हैं ? '.. समाधान-बंध के कारणों के प्रतिपक्ष भूत सम्यग्दर्शन, विरति, अप्रमत्तता निष्कपायता और अयोगत्व को मोक्ष का कारण मानना हमें अनिष्ट नहीं है प्रत्युत इन पाँच कारणों से मोक्ष होना हमें अभीष्ट ही है, पर विरति आदि चार कारण
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पांचवां अध्याय
२१३ सम्यक्चारिज में ही अन्तर्गत हो जाते है, इस कारण उनका पृथक् नाम-निर्देश नहीं । किया गया है।
- शंकाः-यदि इन पाँच कारणों से आप सुक्ति होना मानते हैं तो इनमें सम्यरशान का समावेश नहीं होता। अतएव या तो सम्यग्ज्ञान को मोक्ष का कारण न माने अथवा पाँच के बदले छह कारणं बतलावें। __समाधान:-जैसे बंध के पाँच कारणों में, मिथ्यादर्शन में ही मिथ्याज्ञान का समावेश किया गया है, उसी प्रकार मोक्ष के कारणों में सम्यग्दर्शन में ही सम्यग्ज्ञान का समावेश किया गया है। यदि वंध के कारणों में मिथ्यादर्शन और मिथ्यानान को पृथक्-पृथक् गिन कर छह कारणों को माना जाय तो मोक्ष के कारणों में भी सम्परदर्शन और सम्यग्ज्ञान को जुदा-जुदा गिनकर छह कारण मानना सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। क्योंकि मिथ्यादर्शन से होने वाला बंध सम्यग्दर्शन से रुकता है, मिथ्याज्ञान से होने वाला बंध, सम्यग्ज्ञान से रुकता है, मिथ्याचारित्र से होने वाला बंध संस्यक्चारित्र के द्वारा रुक जाता है, इसी प्रकार प्रमाद, कपाय और योग से होने वाला बंध अप्रमाद, अकषाय और प्रयोग से रुकता है।
.इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि संसार और मोक्ष का कारण न अकेला शान है, नन अकेला चारित्र है, किन्तु ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही कारण होते हैं । शान आदि की मिथ्या रूप परिणति संसार का कारण है और सस्यक रूप परिणति मोक्ष का कारण है।
जब मुक्ति चारिन के बिना प्राप्त नहीं हो सकती तो सिर्फ ज्ञान से मुक्ति की आशा करना अंसिद्धि को आमंत्रण करना ही है। ऐसे लोग अपने हृदयं को भले ही समझाले कि हम जान से ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे, पर उनका आश्वासन अन्त में मिथ्या ही सिद्ध होगा और उन्हें धोखा खाना पड़ेगा। मूलः-न चित्ता तायए भासा, कुत्रो विजाणुसासणं ।
विसगणो पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो॥१०॥ छाया.-न चिन्नासायन्ते भाषाः, कुतो विद्यानुशासनम् ।
विपरणाः पापकर्ममिः, व लाः पण्डित मानिनः ॥ १० ॥ शब्दार्थः-अपने को पंडित मानने वाले-वस्तुतः अज्ञानी लोग पाप कर्मों के कारण दुःखी होते हैं। सीखी हुई नाना प्रकार की भाषाएँ उनकी रक्षा नहीं कर सकतीं। तथा विद्याएँ और व्याकरण आदि शाल कैसे रक्षा कर सकते हैं ?
. भाप्यः-सानेकान्त में पुनः दोप दिखाने के लिए सूत्रकार ने इस सूत्र का फथन किया है।
पंडित अर्थात् सत्-असत् का विवेक करने वाली द्धि जिसे प्राप्त होवद पंडित' कहलाता है। जो वास्तव में सत्-असत् के मान से शून्य होने के कारण पंडित तो नदी है फिर भी अपने को पंडित समझता है उसे पंडितमानी या पंडितम्मन्य कहते
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samne
[ २१४ ।
.: शान-प्रकरण हैं। ऐसे विवेकहीनजन वास्तव में बाल-अनानी है । साधारण अज्ञानी की अपेक्षा. अपने को पंडित मानने वाले अज्ञानी अधिक दुर्गति के पात्र होते है। जो अज्ञानी, अपने अज्ञान. को जानता है वह अपने अज्ञान को भी न जान सकने वाले पंडित-मानी अन्नानी की अपेक्षा कम अज्ञानी है । पंडितमन्य अज्ञानी पुरुष उस से भी अधिक
जानी होता है। जो मनुष्य अपने अजान को जानता और स्वीकार करता है, वह अपने अज्ञान को दूर करने का प्रयत्न करता है और ज्ञान के मद में मत्त होकर ज्ञानीजनों की अवहेलना नहीं करता। किन्तु पण्डितंमन्य अजानी, जानीजनो से स्पर्धा करता है, भ्रान्तिवश अपने को ज्ञानी समझकर वास्तविक नानियों की अवहेलना करता है । उनके द्वारा प्रदर्शित हित-मार्ग को धृष्टता पूर्वक ठुकरा देता है और स्वयं उपदेशक बनने का दावा करता है । ऐसे ज्ञानी की अंन्त में वही दशा होती है. जो अपने रोग को न जानने वाले और न स्वीकार करने वाले, अतएव असाध्य रोगी की दशा होती है। स्वयं अज्ञान और चिकित्सकों की सम्मति को ठुकरा देने वाले तथा रोगी होते हुए भी अपने को नीरोग समझने वाले रोगी को अन्त में घोर विषाद का अनुभव करना पड़ता है। इसी प्रकार पण्डितंमन्य अजानी को भी अन्त में घोरतर विषाद का अनुभव करना पड़ता है । रोग की व्यथा बढ़ जाने पर पश्चात्ताप पूर्वक रोगी को द्रव्य प्राणों का त्याग करना पड़ता है और ऐसे अनानी को ज्ञान प्रादिभाव प्राणों से हाथ धोना पड़ता है और अपरिमित कालतक जन्म-मरण के कष्ट सहन करने पड़ते हैं। .
. उन्मार्गगामी पुरुष, किसी कारुणिक द्वारा उन्मार्ग गमन का ज्ञान करा देने पर अद्रता के कारण अपना भ्रम स्वीकार करके सन्मार्ग ग्रहण करता है और अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है, उसी प्रकार भद्र अजानी-अपना भ्रम जानकर उसे त्याग देता है और सन्मार्ग पर आरूढ़ हो कर गन्तव्य स्थान-मुक्ति-को प्राप्त करलेता है। जैसे कोई वक्र उन्मार्गगामी अपने उन्मार्गगमन को न जानता हुश्रा, सन्मार्गगामी समझता है और दूसरे जाता की बात सुनता तो वह चिरकाल पर्यन्त भी अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता, इसी प्रकार पंडितंमन्य अजानी दीर्घकाल के पश्चात् भी मुक्ति में नहीं पहुंच सकता । इस प्रकार पंडितअन पुरुप अधिक दुःख का पात्र होता है। इसीलिए सूत्रकार ने केवल अज्ञानी न कहकर पंडितमानी जानी कहा है।
ऐसा पंडितमानी अजानी, अपने असाध्य अजान के कारण पाप कर्मों का उपार्जन करता है। वह पाप को पाप नहीं समभाता और निःसंकोच होकर पाप-कर्मों में प्रवत्ति करता है । 'जन पाप कर्मों का उदय होता है तो उसे अत्यन्त विपाद का । अनुभव होता है। पाप द्वारा उपार्जित दुःखों को भोगते समय पंडितमानी अज्ञानी द्वारा सीखी हुई संस्कृत श्रादि भाषाएँ तथा व्याकरण आदि विभिन्न शास्त्र एवं नाना प्रकार की चमत्कार दिखाने वाली विद्याएँ उसे शरण नहीं दे सकती । अर्थात् इन सब के कारण. वह दुःख भोग से नहीं बच सकता। . .... . . तात्पर्य यह है कि जो सम्यक्चारित्र का अनुष्ठान नहीं करता, ज्ञान के फलस्वरूप विरति को अंगीकार नहीं करता और सिर्फ ज्ञान के बल पर ही संसार-सागर:
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पांचवां अध्याय
{ २१५ । को पार करना चाहता है, वह एक भुजा वाले पुरुष की भाँति अथाह सागर में डूब जाता है। श्रथवा जैसे एक पक्ष (पंख ) वाला पक्षी ऊपर की ओर उड़ नहीं सकता उसी प्रकार चारित्र रहित अकेले ज्ञान वाला पुरुषः ऊर्ध्वगमन-मोक्ष-गति-के योग्यः नहीं हो सकता। एक पंख वाला पक्षी जैले नीचे गिर पड़ता है उसी प्रकार कोरा ज्ञानी अधोगति को प्राप्त होता है। - जैसे रसायन को जानने वाला पुरुप, रसायन के ज्ञान मात्र से सुखी नहीं होता अथवा भोजन का ज्ञान ही क्षुधा की शांति नहीं कर देता, उसी प्रकार मोक्ष का ज्ञान मात्र मोक्ष नहीं प्राप्त करालकता । अतएव जो वास्तविक कल्याण के अभिलाषी हैं उन्हें कल्याणं के मार्ग का लम्यग्ज्ञान, सम्यक श्रद्धान और सम्यक अनुष्ठान करना चाहिए । इसी त्रिपुटी का अवलंबन करके अतीतकाल में अनन्त महापुरुष कृतार्थ हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में भी होंगे।
जानकान्त में जो वाधाएँ उपस्थित की गई हैं वही सब बाधाएँ समान रूप से क्रियकान्त में भी आती हैं । अतएव उन्हें स्वयं समझलेना चाहिए। पुनरावृत्ति करके ग्रंथ-विस्तार नहीं किया गया है। - मूलः-जे के सरीरे सत्ता, वरणे रूवे य सव्वसो।। - मणसा काय वक्केणं, सव्वे ते दुक्खसंभवा ॥ ११ ॥
. छाया:-ये केचित् शरीरे सक्ताः ; वर्णे रूपे च सर्वशः। . . . . . . . . . मनसा काय वाक्याभ्याम् , सर्वे ते दुःखसम्भवाः ॥ १॥
शब्दार्थ:-जो कोई प्राणी मन, वचन और काय से, शरीर में आसक्त हैं तथा वर्ण, और रूप में पूर्ण रूपेण आसक्त हैं, वे दुःख के भाजन होते हैं।
भाष्यः -- ज्ञानेकान्तबादी, चारित्र से विमुख होकर क्या फल पाते हैं, यह इस गाथा में प्ररूपण गया किया है।
. जो शरीर में तथा रूप आदि में आसक्त होते हैं, जिन्हें विषयभोगों में अत्यन्त समता है, वे बहिरात्मा जीव हैं। उन्हें प्रात्मा का अनुभव नहीं है अतएव आत्मिक सुख के अपूर्व स्वाद से अनभिज्ञ हैं। वे इन्द्रिय सुत्रों के कामी बन कर इन्द्रियों से प्रेरित होते हैं-इन्द्रियों के क्रीत दास बन जाते हैं । इन्द्रियाँ उसके अन्तःकरण में नाना प्रकार की कामनाएँ जागृत कर देती हैं और वह कामनाओं की पूर्ति करने में ही अहर्निश उद्यत रहता है। कामनाओं की पूर्ति करने के साधन रूप धन कमाने की प्रवल लोलुपता से प्रेरित होकर वह पुरुप घृणित और निन्दनीय कार्य करने से भी नहीं डरता है। वह धनोपार्जन के लिए भोले और गरीयों को चूसता है, नीति अनीति के विचार को ताक पर रख देता है। यर्थ के अतिरिक्त और सय उसके लिए मनर्थ बन जाता है। . . इन्द्रियलोलुप पुरुप विवेकशून्य होकर भक्ष्य-अभक्ष्य का भान भूल जाता है,
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ज्ञान-प्रकरण अपनी जाति और कुल की प्रतिष्ठा को कलंकित करते हुए संकोच नहीं करता। उनका चित्त सदा चंचल, निर्बल. और उद्विग्न रहता है। वह इन्द्रियों की प्यास बुझाने के , . लिए ज्यों-ज्यों प्रयत्न करके भोगोपभोग की सामग्री संचित करता है त्यों-त्यों इन्द्रियों. की ध्यास वढ़ती जाती है । ज्यों-ज्यों इन्द्रियों की प्यास बढ़ती जाती है त्यों-त्यों) इन्द्रिय लोलुप की व्याकुलता बढ़ती जाती है ज्यों-ज्यों व्याकुलता बढ़ती जाती है। त्यों-त्यों उसका आर्तध्यान बढ़ता जाता है और ज्यों-ज्यों आर्तध्यान बढ़ता जाता है
त्यों-त्यों पापकर्मों का बंध बढ़ता जाता है। इस प्रकार इन्द्रिय-लोलुप मनुष्य अन्त में... | भीषण व्यथाएँ सहन करता है।
शरीर पर ममता होने से दृष्टि वहिर्मुख हो जाती है । वहिर्मुख व्यक्ति आत्मा के अनन्त सौन्दर्य को दृष्टिगोचर करने में अन्धा हो जाता है... वह आत्मा के सदगुण रूपी सुरभि-समन्वित प्रसूनों को नहीं संघ सकता । निर्मल. अन्तःकरण
से उद्भूत होने वाले अन्तनोंद को वह नहीं सुन सकता.। वह शरीर की बनावट में , ही जीवन की कृतार्थता मानता है । शरीर को अपना' समझकर उसकी सेवाशुश्रूषा करता है । वह शरीर के असली अपावन रूप को नहीं देखता । वहं आत्मा और शरीर का पार्थक्य नहीं मानता । श्रात्मा चेतनमय है, शरीर जड़ है, आत्मा अमर तत्व है और शरीर विनश्वर पुद्गल की पोय है, यह भेद-ज्ञान उसके अन्तर में परिस्फुरित नहीं होता । इसलिए वह शरीर को महत्तम उद्देश्य.की पूर्ति का साधन समझकर उसका उपयोग नहीं करता वरन् शरीर के लिए महत्तम उद्देश्य का परित्याग करदेता है । वहिरात्मा जीव की स्थिति बड़ी दयनीय है! . .
अन्तरात्मा शरीर को आत्महित-साधन का निमित्त मानकर उसका पोषण करते हैं। वे उस पर अणुमात्र भी शासक्ति नहीं रखते । शरीर पर मोह रखने वाले का मोह क्रमशः विस्तृत हो जाता है, क्योंकि शरीर का मोही शरीर को.साताकारी. पुद्गलों पर राग और असताकारी पुद्गलों पर द्वेष भी करने लगता है । तदनन्तर उन पुदगला की प्राप्ति में जिसे वह बाधक समझना है उससे भी द्वेष करने लगता है। इस प्रकार शरीर-मोह से मोह की परम्परा क्रमशः परिवर्धित होती जाती है और उसका कहीं अन्त नहीं प्रतीत होता । अतएव अन्तरात्मा, पुरुप शारीरिक मोह को हृदय में अवकाश ही नहीं देते । वह सोचता है कि-मोह के फंदे से सदा वचते. रहना चाहिए । मोह ही श्रात्मा के शत्रुओं का सेनापति हैं। इसके अधीन होकर श्रात्मा अपनी ज्ञान-प्रानन्दमय कोष को. लुटा रहा है । जो इसके कैद से मुक्त हो. जाता है वह चिदानन्द का पात्र, परम वीतरागी, परम अविनाशी, सर्वज्ञ, सिद्ध, वद्ध और शुद्ध बन जाता है। भला. श्रात्मा और शरीर जैसे विपरीत.गुण वाले पदार्थों का । परस्पर क्या संबंध ! मोह और श्रात्मा की कैसी मैत्री ? एक श्राकुलता उत्पन्न करने वाला और आत्मा निराकुलतामय है। मोह दुःख रूप है, श्रात्मा सुखमयी है। आत्मा. अजान के कारण ही मोह के चकर में पड़ा है। जव शरीर और आत्मा का. भेदविजान हो जाता है तो आत्मा निर्मल दृष्टि करता है और विरक्ति एवं अनासक्ति के तीक्ष्ण, शस्त्र से; आत्मिक अनुभूति के पराक्रम का अवलंबन करके मोह आदि शत्रुओं
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पांचवां अध्याय
को पल भर में पराजित कर देता है ।
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[ २१७ ]
मोह ही वह घोर शत्रु है जो श्रात्मा को अपने अनन्त सुख का भान नहीं होने देता और सुख के लिए क्षुद्र, विनश्वर, पापजनक भोगों का आश्रय लेने के लिए प्रेरित होता है । श्रात्मा का स्वभाव ही अनंत श्रानंदमय है । वह श्रानंद काल से और परिमाण से परिमित नहीं है । उसके भोगने के लिए पापाचार नहीं करना पड़ता । वह तो आत्मा को श्रात्मा के द्वारा, आत्मामें स्थिर करने से प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार जो अपना है, अपने समीप है, उसे प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों की गुलामी. जगत् की गुलामी और भोगोपभोगों की अभ्यर्थना करने की क्या श्रावश्यकता है ?फिर भी मोह के प्रभाव से मूढ़ बने हुए मनुष्य इस तथ्य को नहीं समझते । वे श्रात्मा के भीतर प्रवेश नहीं करते । वे इन्द्रियजन्य, अतृप्तिकारक, तृष्णावर्द्धक, पराश्रित, विनाशशील, शान्त, दुःखों से व्याप्त और परिमित सुख के लिए निरन्तर लालायित रहते हैं।
बाह्य पदार्थ वास्तव में न सुखदाता है, न दुःखदाता है, न बंध का कारण है, नमुक्ति का कारण है । श्रात्मा का रागभाव-मोह रूप परिणाम ही दुःखदायक है और वीतरागभाव अर्थात् शरीर यादि के समस्त पर-पदार्थों के प्रति अनासक्ति रूप परिणति ही सुख का कारण है । जिसे धन-धान्य, वैभव, आदि प्राप्त नहीं हैं, वह भी यदि उनमें मूर्छा-ममता-प्रासक्ति रखता है तो उसे अवश्य बंध होता है । व चाह्य पदार्थों की अपेक्षा श्रात्मा की राग-द्वेष परिणति ही अधिक अनर्थकारी होती है । श्रतएव सूत्रकार ने यहां शरीर संबंधी तथा इन्द्रिय-विषय संबंधी आसक्ति को दुःखजनक वतलाया है । .
. सूत्रकार ने शरीर संबंधी तथा वर्ण और रूप संबंधी श्रासक्ति को यहाँ दुःख का कारण कहा है सो इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य धन जन आदि के प्रति होने वाली अथवा स्पर्श आदि विषयों में होने वाली आसक्ति दुःख का कारण नहीं है । 'जैसे साँपनाथ वैसे नागनाथ' की कहावत के अनुसार पर-पदार्थों की सभी प्रकार की आसक्ति एकान्त दुःख का ही कारण है । श्रतएव उपलक्षण से सभी आसक्तियों का ग्रहण करना चाहिए ।
• वर्ण और रूप सामान्य रूप से एकार्थक से प्रतीत होते हैं, किन्तु सूत्रकार ने दोनों का एक प्रयोग किया है, अतएव रूप का तात्पर्य यहाँ सुन्दरता समझना चाहिए। वर्ष अर्थात् रंग और सौन्दर्य में भेद प्रसिद्ध है । सुन्दरता का किसी व विशेष में संबंध नहीं हैं । कोई भी वर्ण हो, जो जिसे रुचिकर है वह उसे प्रिय लगता है । सौन्दर्य श्राकृति आदि की भी अपेक्षा रखता है अतएव दोनों की मिश्रार्थकता सिद्ध है।
'मनसा कायवक्केण' कहने का प्रयोजन यह है कि जो मनुष्य केवल मन से आसक्त होते हैं उन्हें भी दुःख भोगना पड़ता है, तो जिनका सम्पूर्ण योग सर्वशः अर्थात् पूर्ण रूप से वाह्य पदार्थों में आसक्त है उनकी कितनी दुर्गति होगी ! उन्हें
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[ २२० ।
झान-प्रकरण राग और खस्ने-सूख्ने, नीरस भोजन के प्रति द्वेष नीं करते । जिसे जिस पदार्थ से राग नहीं है उसे उस पदार्थ की प्राप्ति हो जाय तो वह प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता है । इस प्रकार लच्चा ज्ञानी भोजन, वस्त्र, शिष्य प्रादि की प्राप्ति और श्रप्राप्ति में साश्यभाव धारण करते हैं।
सुख-दुःख में भी शानी मध्यस्थभाव धारण करते हैं। उनकी दृष्टि इतनी अन्त. भुख हो जाती है कि वे शरीर में रहते हुए भी शरीर से परे हो जाते हैं। उन्हें श्रात्मा, अनात्मा का भेदज्ञान हो जाता है । अतएव शारीरिक कष्ट को वे आत्मा का कष्ट अनुभव नहीं करते और शारीरिक सुख को आत्मा का सुख नहीं समझते । वे आत्मा के स्वरूप में सदा विचरते रहते हैं। ..
दुःखे सुस्ने वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने बने वा।।
निराकृता शेष ममत्वं बुद्धेः, समं मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ ॥ :: . अर्थात् हे प्रभो ! दुःख में, सुख में, वैरी और बन्धुवर्ग में, संयोग और वियोग में, भवन में और वन में, सब प्रकार की ममता-वुद्धित्याग कर मेरा मन निरन्तर सम वना रहे।
इस प्रकार की प्रान्तरिक अभ्यर्थना का परिपाक हो जाने से अथवा. इस भावना के मूर्तिमान हो जाने के कारण उन्हें सुख-दुःख में हर्ष-विषाद नहीं होता । ज्ञानीजनं सोचते हैं कि आत्मा अनन्त सुन का भंडार है, सुख प्रात्मा का स्वाभाविक धर्म है, उसमें दुःस्त्र का प्रवेश कैसे हो सकता है ? अगर कोई अज्ञानी पुरुष ताड़ना करता है, शस्त्र का प्रहार करता है. अथवा अन्य किसी उपाय से दुःख को उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है तो करता रहे, ऐसा करके वह अपना ही अहित करेगा। मेरा क्या जिगहेंगा ? मेरा आत्मा उसकी पहुंच से बाहर है। वह सिर्फ शरीर का ही वध-बंधन
आदि कर सकता है, पर मैं शरीर नहीं हूं। में शरीर से निराला आत्मा हूं। अमूर्तिक हूं । जैसे कोई अमूर्तिक आकाश में शस्त्र-प्रहार करता है तो.श्राकाश की क्या हानी . है ?' इसी प्रकार मुझे यह हानि नहीं पहुंचा सकता। इसके सिवाय ज्ञानी पुरुप यह विचार करते हैं कि अमुक व्यक्ति मुझे दुःख दे रहा है, ऐसा समझना ही मिथ्या हैं। असल में दुःख देनेवाला तो अंलातावेदनीय कर्म है.। यदि मैंने असातावेदनीय कर्म का बंध किया है तो उसका फल मुझे भोगना ही. पढ़ेगा । विना भोगे वह छुट नहीं सकता। इस पुरुष का मुझपर बड़ा उपकार है कि इसने निमित्त बनकर बंधे हुए कर्म को भोगने का अवसर दिया है। अब मैं इस कर्म से मुक्त हो जाऊंगा। पहले लिया हुश्रा ऋण मुझपर चढ़ा था सो इस पुरुष के निमित्त से श्राज चुक गया। मेरा भार । कम हो गया।
सुख का अवसर प्राप्त होने पर ज्ञानी पुरूप विचारता है कि यदि कोई अपना अनमोल सजाना गयाकर, उसके बदले एक कौड़ी पाये तो उसे हर्ष मनाने का क्या कारण है ? मैंने आत्मिक सुख का अक्षय कोप लुटाकर यदि इन्द्रियजन्य किंचित मुख पाया भी,, तो यह कौन-सी प्रसन्नता की बात है.? इत्यादि विचार करके वह
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पांचवां अध्याय
। २२१ } सुख में फूलता नहीं है। दोनों अवस्थाओं में वह सम रहता है।
जीवन और मरण में भी सस्यज्ञानी पुरुष समता भाव का ही सेवन करता है। ज्ञानी की विचारणा इस प्रकार होती है-श्रात्मा अजर-अमर अविनश्वर है । जो वस्तु उत्पन्न होती है उसका नाश होता है । श्रात्मा की कमी उत्पत्ति नहीं होती, न कभी उसका विनाश होता है। द्रव्य प्राणों की संयोग अवस्था जीवन कहलाती है
और वियोग अवस्था मरण कहलाती है । इस प्रकार वाह्य वस्तु के संयोग और वियोग में अर्थात् जीवन और मरण में हर्ष-विषाद करने की क्या आवश्यकता है? पर पदार्थों का संयोग तो विनश्वर है ही। जब उन्हें कोई अज्ञानवश अपना मानता है तब उनके वियोग में विपाद का अनुभव होता है। परन्तु वास्तव में वे अपने नहीं है, अतएव उन्हें अपना समझना यही दुःख का कारण है। मरण में दुःख मानने का क्या कारण है ? जैसे कोई पुराने वस्त्र का परित्याग कर नूतन वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार पुरातन तन का त्यागकर नूतन तन को धारण करना मृत्यु का प्रयोजन है। इस जन्म में श्राचरण किये हुए धर्मकृत्यों का फल मृत्यु की कृपा से प्राप्त होता है, अतएव मृत्यु का मित्र की भांति स्वागत करना चाहिए। ऐसा विचार कर ज्ञानी । पुरुष मृत्यु के प्रसंग पर दुःखी नहीं होते हैं। इसी प्रकार जीवन से वे प्रसन्नता अनुभव नहीं करते । यह जीवन, शरीर आदि पौगलिक पदार्थों पर आश्रित है। जो वस्तु पर पदार्थ पर अवलंबित हो, दूसरे के सहयोग से प्राप्त हो और जिसके भंग हो जाने की पल-पल पर संभावना बनी रहती हो, उसे पाकर प्रसन्नता क्यों होनी चाहिए ?. . . . . . . . . . :
निन्दा और प्रशंसा में भी ज्ञानी की चित्तवृत्ति सम रहती है । निन्दक व्यक्ति जय ज्ञानी की निन्दा करता है तब ज्ञानी विचारने लगता है-यह व्यक्ति मेरे अवगुणों को प्रकट कर रहा है. लो इसकी मुझपर बड़ी कृपा है । मुझमें अनगिनते दोए है और उनका मुझे ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता। यह पुरुप उन दोपों को प्रकाशित. कर रहा है । यह दोपान्वेषण में मेरी सहायता कर रहा है। मुझे इसका आभारी होना चाहिए । निन्दक जिन दुर्गुणों का मुझमें यारोप कर रहा है, चद्द दुर्गुण यदि मुझमें हैं तो यह सत्य-भापण करके उसे दूर करने की प्रेरणा करता है । कदाचित् वह दुर्गुण उसमें नहीं होता तो वह सोचता है-यह बेचारा निन्दक अपने श्रान्तरिक संताप से संतप्त होकर शान्ति प्राप्त करने के लिए मेरी निन्दा करता है । यह इतना अशानी है कि शान्ति-लाभ के लिए परिणाममें अशान्ति जनक कार्य करता है । अतएव यह शोध का पात्र नहीं है, किन्तु दया का पात्र है । निन्दा करके यह को का चंध कर रहा है तो मैं शोध करके कर्मों का बंध क्यों करूं? फिर मुझमें और उसमें भेद ही क्या रह जायगा? . . . अपनी प्रशंसा, स्तुति या कीर्ति लुगकर शानी प्रसन्न नहीं होता । यह सोचता ६-यह प्रशंसा मेरी नहीं है, ये भगवान् तीर्थकर द्वारा प्रमापित चारिन की हैं, क्योंकि उसका अनुसरण करने से ही प्रशंसा होती है। यदि मैं सम्यया चारित या पालन
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ज्ञान-प्रकरण न करता तो मेरी प्रशंसा न होती, अतएव इस प्रशंसा का श्रेय चारित्र को ही है। . अथवा, प्रशंसक जब किसी गुण-विशेष की प्रशंसा करता है तब नानी उस गुण संबंधी अपनी अपूर्णता का विचार करता है और उस अपूर्णता को दूर करनेके लिए संकल्प करता है । इस प्रकार वह प्रशंसा सुनकर प्रसन्न नहीं होता।
. ज्ञानी सन्मान और अपमान में भी समताभाव का ही सेवन करता है। वन्दना, नमस्कार करके संयमोपयोगी श्राहार प्रादि देकर सम्मान करने वाले पर वह राग नहीं करता और गाली देने वाले पर द्वेष नहीं करता। इन सब प्रसंगों पर वह अपने उपार्जित कर्मों को ही कारण समझकर समता का सहारा लेता है। . समता-भाव का चमत्कार अपूर्व है । जन्म के वैरी. जंतु भी समताभावी के संसर्ग में आकर अपना वर त्यागकर मित्र बन जाते हैं । समताभावी महात्मा सदा साम्य-सरोवर में निमग्न रहकर, अद्भुत सुख-सुधा का पान करके; सुखोपभोग करता रहता है । साम्यभाव के प्रभाव से कर्मों का विध्वंस होकर आत्मा अकलंक बन जाता है।
.
.. साम्यभावी जानी पुरुष संसार में इष्ट या अनिष्ट समझे जाने वाले पदार्थों में मोहित नहीं होता। श्रोता और निन्दक पर राग-द्वेष नहीं करता। प्रत्येक प्रसंगपर अरक्त-द्विष्ट रहता है। · मूल:-अणिस्सिनो इहं लोए, परलोए अणिस्सियो।
वासीचंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ॥ १४ ॥ - . . छाय.:-अनिश्रित इह लोके, परलोकेऽनिश्रितः।
वासी-चन्दनकल्पश्च, अशनेऽनशने तथा ॥ १४ ॥ ___शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! जो इस लोक में अनपेक्ष होता है, परलोक में अनपेक्ष होता है और वासी-चंदन के समान अर्थात् जैसे चंदन अपने को काटने वाले वसूले को भी सुगंधित करता है, उसी प्रकार कष्ट देने वाले को भी साता पहुंचाता है, और . . भोजन करने तथा अनशन करने में समभाव रखता है, वही ज्ञानी पुरुष है।
भाष्य-सस्थरझानी पुरुष के साम्यभाव को पुनः प्रदार्शत करते हुए सूत्रकार ने यहां यह बतलाया है कि जिसे सम्यग्ज्ञान का फल लाम्यभाव प्राप्त हो जाता है वह इसलोक के धन, धान्य, राजपाट, आदि वैभवों, की अभिलापा नहीं रस्त्रता और न परलोक में स्वर्ग आदि के दिव्य सुखों की कामना करता है। वह अपने को दुःख पहुंचाने वाले पुरुप की भी शुभ कामना ही करता है । जैसे चन्दन का वृक्ष, काटने वाले वसूला को भी अपनी मनोहर सुगंध से सुगंधित बना देता है उसी प्रकार समताभावी योगी परीपह और उपसर्ग देनेवाले पुरुप को भी सुख ही पहुंचाता है भोजन मिलने और न मिलने की श्रावस्था में भी उसे हर्ष-विपाद नहीं होता।
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पांचवां अध्याय
२२३ ] तात्पर्य यह है कि ज्ञानी पुरुष वस्तुओं के स्वभाव को वास्तविक रूप से जानने लगता है । श्रात्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के संयोग को ही वह आपत्ति का मूल समझता है। अतएव वह किसी भी बाह्य पदार्थ के संयोग की अभिलाषा नहीं करता और संयोग हो जाने पर उसमें हर्ष-भाव उत्पन्न नहीं होने देता। संयोग में जिसे हर्ष नहीं होता उसे वियोग होने पर विपाद भी नहीं होता है । समता भावी पुरुष जगत् के अभिनय का निरीह दृष्टा होता है। कोई भी दृश्य उसके हृदय पर अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता । इसी कारण वह राग-द्वेष से मुक्त बना रहता है । साम्य की यह मनोवृत्ति प्रबल साधना से प्राप्त होती है। इसके लिए आत्म-निष्ठा की अपेक्षा होती है । साम्य भाव योगियों का परम श्राश्रय है इसीसे संवर, निर्जरा होती है यही मुक्ति का प्रधान कारण है। अतः समताभाव का प्राश्रय लेना चाहिए।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-पांचवां अध्याय
समाप्तम्
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निन्छ छवचन
॥ छठा अध्याय ॥
.......... सम्यक्त्व-निरूपण मूलः-अरिहंतो. महं देवो, जाव जीवाए सुसाहुणो गुरुणो ।
जिणपण्णत्तं तत्तं, इन सम्मत्तं मए गहियं ॥ १ ॥ छायाः-पहन्तो मम. देवाः, यावजीवं सुसाधवो गुरवः ।।
जिनप्रज्ञप्तं तत्त्वं, इति 'सम्यक्व मया गृहीतम् ॥ १ ॥ शब्दाथैः-जीवन पर्यन्त अर्हन्त भरावान् मेरे देव हैं, सच्चे साधु मेरे गुरु हैं, जिन द्वारा प्ररूपित तत्त्व ही वास्तविक तत्त्व है, इस प्रकार का सम्यक्त्व मैंने ग्रहण किया।
भाष्यः-गत पांचवें अध्याय में सम्यग्ज्ञान का निरूपण किया गया है, किन्तु ज्ञान तभी सम्यम्ज्ञान होता है जब सस्यग्दर्शन की विद्यमानता होती है । विना सम्यग्दर्शन के समस्त ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। ज्ञान में सम्यक्पन लाने में सम्यग्दर्शन ही उपयोगी है। इसलिए ज्ञान के निरूपण के पश्चात् सम्यग्दर्शन का विवेचन किया जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में सम्यग्दर्शन की व्याख्या बतलाई गई है और उसे ग्रहण करने की भव्य जीव की प्रतिज्ञा का रूप भी प्रदर्शित किया गया है । सम्यग्दर्शन के यहां तीन अंग मुख्य बताये गये हैं। अन्यान्य विषयों का इन्हीं तीन में समावेश हो जाता है। तीन रूप इस प्रकार है
(१) अर्हन मेरे देव हैं। (२) सच्चे साधु मेरे गुरु हैं। (३ ) जिन द्वारा निरूपित ही तत्व है।
अईन् , अरिहंत और अरुहन्त पद एक ही अर्थ के वाचक हैं, यद्यपि. इनकी व्यत्पत्ति भाषा शास्त्र के अनुसार भिन्न-भिन्न है । लुरेन्द्र और नरेन्द्र श्रादिद्वारा पूजनीय होने से अईन् , राग-द्वेष श्रादि आत्मा के शत्रुयों को जीत लेने के कारण अरिहन्त, और कर्मों का प्रात्यन्तिक विनाश कर देने के कारण अरुहन्त कहलाते हैं। इस प्रकार व्युत्पतिजन्य अर्थ में पार्थक्य होने पर भी, यह तीनों शब्द आत्मा की जिस अवस्था के वाचक है, वह अवस्था एक ही है। जो आत्मा निरन्तर विशिष्ठ साधना-उपासना के द्वारा चार घातिया कर्मों का समूल विनाश करके सर्वज्ञ, सर्वदशी
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ठा-अध्याय
[ २२५ । बीतराय और अनन्त शक्तिशाली बन जाता है, जो जीवन्मुक्तदशा को प्राप्त कर लेता है वह श्रात्मा अर्हन् पदवी का पात्र होता है। अर्हन् भगवान में मुख्य बारह गुण होते हैं । जैसे- (१) अनन्तज्ञान (२) अनन्त दर्शन (३) अनन्त चारित्र (४) अनन्त तए (५) अनन्त बल (६) अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व (७) वनऋषभनाराच संघयन (८) समचतुरस्त्र संस्थान (8) चौतीस अतिशय (१८) पैंतीस वाणी के गुण (११) एक हजार श्राट उत्तम लक्षण और .१२) चौसठ इन्द्रों द्वारा पूज्यतम् ।।
अहन भगवान् अठारह प्रकार के दोषों से रहित होते हैं । वे दोष इस प्रकार हैं--(१) मिथ्यात्व (२) अजान (३) मदं (1) क्रोध (५) माया (६) लोभ (७) रति (८) अरति. (६) निद्रा (१०) शोक (११) असत्य भाषण (१२ चौर्य कर्म (१३) मत्सर (१४) अय (१५) हिंसा (१६) प्रेम (१७) क्रीड़ा (१८) हास्य । इन अठारह दोपों का महन्त में सम्पूर्ण रूप से प्रभाव होता है और इनके प्रभाव से प्रकट होने वाले गुण परिपूर्ण रूप में व्यक्त हो जाते हैं, जिनका उल्लेख अभी किया गया है।
अर्हन्त भगवान् को केवल चार अघातिक कर्म शेष रहते हैं, जिनके कारण वे शरीर में विद्यमान रहते हैं । इन कर्मों का नाश होने पर वही सिद्ध परमात्मा बन्द जाते है। ऐसे अरिहन्त भगवान को देव समझना लस्यग्दर्शन का पहला रूप है।
सच्चे साधु वह हैं जो पूर्ण रूप से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महावतों का पालन करते हैं । भिक्षोप जीवी होते हैं, निष्काम • भाव से तपस्या, जान, ध्यान आदि पवित्र अनुष्ठानों में संलग्न रहते हैं, अनगार होते
हैं, पैदल चलते हैं, नंगे पैर, नंगे सिर रहते हैं, साम्यभाव का अवलम्बन करके सांसारिक बखेड़ों से सर्वथा दूर रहते हैं। इनका स्वरूप और चारित्र भागे विस्तार से बताया जायगा। ऐसे साधु ही सब्जे साधु हैं। इन पर श्रद्धान् करना सम्यग्दर्शन का दूसरा रूप है। .
राग-द्वेष आदि पूर्वोक्त अठारह दोषों को जीतने वाला 'जिन' कहलाता है। जिन सर्वश और वीतराग होते हैं। सर्वज होने के कारण उनमें श्मशान का लेशमात्र नहीं होता और वीतराग होने के कारण कंपाय का सर्वथा ही प्रभाव हो जाता है। अंजान और कपाय का अभाव हो जाने के कारण जिन भगवान् का तत्व-निरूपण सत्य, यथार्थ ही होता है। अतएव जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित दयामय धर्म, और अनेकातमय तत्व ही वास्तविक है, इस प्रकार दृढ़ श्रद्धान करना सस्यग्दर्शन का तीसरा
तीन प्रकार की श्रद्धा, सम्यग्दृष्टि पुरुप में इतनी सुदृढ़-अनिश्चल होती है कि उसे कोई भी, यहां तक कि देव-दानव भी भंग नहीं कर सकता । शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण है, जिनमें सस्यग्दृष्टि श्रावकों को, सम्यग्दर्शन से च्युत करने का देवताओं ने प्रयास किया है, पर वे अपनी श्रद्धा से रंच मात्र भी विचलित नहीं हुए।
सम्यस्त्व की प्राप्ति दो प्रकार से होती है-(१) निसर्ग से और (२) अधि. गम से । विसर्ग ले नर्थात् विना गुरु नादि के उपदेश के जो सस्यन्दर्शन उत्पन्न होता
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सम्यक्त्व-निरूपणं है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और गुरु आदि के उपदेश से उत्पन्न होने वाला .. सम्यग्दर्शन अधिजगम कहलाता है।
जैले तीव्र वेग वाली नदी में बहने वाला पत्थर, अन्य पत्थरों से टकराताटकराता गोलमोल बन जाता है, उसी प्रकार ना-ना योनियों में भ्रमण करते-करते, अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक क्लेश सहन करते-करते कर्मों की कुछ निर्जरा होती है। उस निर्जरा के प्रभाव से जीव को पांच लब्धियों की प्राप्ति होती है-( १ ) क्षयोपशम लब्धि (२) विशुद्धि लब्धि ( ३ ) देशना लब्धि (४) प्रयोग लब्धि और (५) करण लब्धि । अनादिकाल से संसार में पर्यटन करते हुए कभी संयोगवश, ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों की अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को प्रति समय अनन्त-अनन्त गुना न्यून करना क्षयोपशम लब्धि है । जब क्षयोपशम लब्धि प्राप्त हो जाती है तो इसके प्रभाव से अशुभ कर्मों का अनुभाग मंद होने के कारण परिणामों में संक्लेश की हानि होती है शुभ प्रकृतियों के बंध का कारणभूत शुभ परिणाम उत्पन्न होता है। इसे विशुद्धि लब्धि कहते हैं। विशुद्धि लब्धि के प्रभाव से जिनेन्द्र भगवान् की वाणी सुनने की, साधु-संगति करने की इच्छा होती है । इसके फल स्वरूप जीव को तत्त्व का सामान्य ज्ञान हो जाता है। यह देशना लब्धि है। इस के पश्चात् जीव अपने परिणामों की विशुद्धता करता हुआ, श्रायु को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति कुछ कम कोडाकोड़ी सागरोपम की करता है और घातिया तथा अघातिया कर्मों के रस को तीव्रतर से मंद करता है। यह प्रयोग लब्धि है । प्रयोग लब्धि के पश्चात् पांचवीं करण लब्धि होती है । इलमें तीन प्रकार के परिणाम होते हैं यथा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । करण आत्मा के परिणाम को कहते हैं । अनादिकालीन राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रंथि भेदने के समीप पहुंच जाने वाला प्रात्मा का परिणाम यथाप्रवृत्तिकरण कहलाता है। यह करण अभव्य जीव को भी हो जाता है। इस परिणाम के पश्चात् अधिक विशुद्धतर परिणाम होता है वही अपूर्वकरण कहलाता है। इस परिणाम के द्वारा जीव राग-द्वेप की ग्रंथि को भेदने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है और किसी-किसी प्राचार्य के मतं से ग्रंथि-भेद कर डालता है। ग्रंथि-भेद करने से आत्मा में पूर्व निर्मलता प्रकट होती है। उसके अनन्तर अनिवृत्तिकरण होता है। यह अत्यन्त विशुद्ध परिणाम है और इसकी प्राप्ति होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का और श्रात्मा की विशुद्धि का क्रम बतलाया जा चुका है। जब अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशय, क्षय या क्षमोपशम होता है तभी सम्यक्त्वं की प्राप्ति होती है। उक्त सातों प्रकृतियों के उपशम से उत्पन्न होना वाला' सम्यग्दर्शन श्रीपशमिक, सातों के क्षय से होने वाला क्षायिक कहलाता है। उदय को प्राप्त हुए मिथ्यात्व मोहनीय का क्षय होने पर तथा अनुदित मिथ्यात्व का उपशम होने पर और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय होने पर उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक कहलाता है । इन तीनों
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छठा अध्याय .
[ २२७ ] से क्षायिक सम्यक्त्व सब से अधिक निर्मल होता है । एक बार उत्पन्न होने के पश्चात् फिर उसका नाश नहीं होता, जब कि औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर फिर नष्ट हो जाते हैं।
सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर श्रात्मा में एक प्रकार की ऐसी निर्मलता श्रा जाती है, जो मिथ्यात्व की अवस्था में कभी प्राप्त नहीं हुई थी। यही कारण है कि थोड़ी-ली देर, एक अन्तर्मुहूर्त, के लिए भी जिसे सम्यक्त्व प्राप्त हो गया है वह संसार को परिमित कर डालता है और अर्द्ध पुद्गल-परावर्तनकाल में अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
मुक्ति प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की अपेक्षा होती है। जबतक दृष्टि निर्मल नहीं है तब तक समस्त ज्ञान मिथ्याज्ञान और समस्त चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है। मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र भव-भ्रमण का ही कारण है और मुक्ति का प्रतिबंधक है । इसी कारण सम्यग्दर्शन को मुक्ति-महल की पहली पंक्ति कहा गया है । जैसे अंक के विना विन्दु यों की लम्बी लकीर बना देने पर भी उसका कुछ श्रर्थ नहीं होता-उससे कोई भी संख्या निष्पन्न नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना किया जाने वाला प्रयत्न मुक्ति के लिए उपयोगी नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि जीव संसार में रहता हुआ भी, और सांसारिक कार्य-कलाप करता हुश्रा भी, जल में रहने वाले कमल की भांति अलिप्त रहता है । उसके परिणामों में संसार के प्रति विरक्ति बनी रहती है। वह चारित्र का पालन न करे तो भी इन्द्रियों के भोगोपभोगों में लोलुप नहीं होता । शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और प्रास्तिक्य के पवित्र भाव उसमें अभिव्यक्त हो जाते हैं । निश्चय सम्यग्दृष्टि प्राणी के राग-द्वेष
और मोह अत्यन्त मंद होते हैं । वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी श्रात्मीय गुणों के परम रस का आस्वादन करता है । वह पर पदार्थों से आत्म-भाव हटा लेता है। वह देह में रहता हुआ भी देहातीत हो जाता है । यह लक्षण जिसमें पाये जाते हैं वद्द निश्चय सम्यग्दृष्टि है । अरिहन्त भगवान् को देव मानना, छत्तीस गुणों से युक्त निर्ग्रन्थ मुनियों को गुरु समझना और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को ही कल्याणकारी धर्म मानना व्यवहार सम्यस्त्व है । व्यवहार सम्यक्त्व,निश्चय सम्यक्त्य में कारण होता है, अतएव सूत्रकार ने यहां प्रथम व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप दिखलाया है। मूलः-परमत्थसंथवोवा, सुदिट्टपरमत्थसेवणा वादि ।
वावरणकुदंसणवजणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥२॥ पाया:-परमार्थ संस्तयः सुदृष्टपरमार्थसंचनावाऽपि ।
यापनकुदर्शनवर्जन असम्यक्त्यप्रदानम् ॥२॥ शब्दार्थः-तात्विक पदार्थ का चिन्तन करना, तात्विक पदार्थों को सम्यक प्रकार में जानने वालों की शुध्या करना, सम्यग्दर्शन का बनन-त्याग करने वालों तथा मिथ्या
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सम्यक्त्व-निरूपण दृष्टियों की संगति का त्याग करना, यहीं सम्यक्त्व का श्रद्धान है। ...
भाष्यः-सस्यमत्व का सामान्य स्वरूप बताने के पश्चात् सूत्रकार ने यहां यह बताया है कि सम्यकत्व संबंधी श्रद्धान की स्थिरता और सुरक्षा किस प्रकार हो सकती है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो जाने पर भी उसकी स्थिरता का उपाय न किया जाय तो वह विनष्ट हो सकता है अतएव सम्यग्दृष्टि जीवों को अत्यन्त कठिनता से प्राफा हुए अनमोल खजाने की तरह, चिन्तामणी की तरह, पारल पाषाण की तरह और अपने प्रिय प्राणों की तरह सम्यकत्व की रक्षा करनी चाहिए। यहां सम्यक्त्व की रक्षा के चार साधन बताये गये हैं।
(१) परमार्थसंस्तव-परम का अर्थ श्रेष्ठ, कल्याणकारी या उत्तम होता है। ऐसे परम अर्थ का अर्थात् मोक्ष का सदा चिन्तन करना । अथवा परमार्थ का अर्थ है श्रात्मा, क्यों कि मोक्ष प्रात्मा की ही अवस्था-विशेष है। इस प्रकार आत्मा-तत्व का चिन्तन करना, परमार्थ-संस्तव है। अथवा मोक्ष प्राप्ति में जो पदार्थ उपयोगी होते हैं, वे परमार्थ कहलाते हैं और उनका परिचय पाना, उनके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना और चिन्तन करना भी परमार्थसंस्तव है । अथवा, संसार की नाश-शील, अधःपतन की कारण भूत लक्ष्मी की अपेक्षा पर अर्थात् उत्कृष्ट जो या अर्थात् लक्ष्मी-अनन्त जान दर्शन, सुख आदि रूपभाव लक्ष्मी है अर्थ अर्थात् प्रयोजन जिलका, ऐसा संस्तव करना। तात्पर्य यह है कि प्राध्यात्मिक विभूति प्रदान
करने वाला संस्तव परमार्थ संस्तव कहलाता है। . परमार्थ संस्तव-पद से विभिन्न व्युत्पत्तियां करके अनेक आशय निकाले जा सकते हैं। ऊपर जो अर्थ दिये गये हैं वे सभी प्रासंगिक हैं और सभी से सम्यक्त्व की रक्षा होती है । मोक्ष की चिन्ता करने से सम्यक्त्व दृढ़ होता है। श्रात्मा के स्वरूप का चिन्तन करने से भी सम्यक्त्व में प्रगाढ़ता पाती है । मोक्ष प्राप्ति में उपयोगी अर्थोंका अर्थात् नवं तत्वों का चिन्तन करने से सम्यक्त्व की स्थिरता होती है। मैं कौन हूं? मेरा वास्तविक-स्वभाविक स्वरूप क्या है ? किस कारण से में जन्म-जरा-मरण की वेदनाएँ भोग रहा हूं? इन सब वेदनाओं के चंगुल से छुटकारा पाने की उपाय क्या है ? कौन सी शक्ति है जिसने मुझे अपने स्वाभाविक गुणों से च्युत कर दिया है ? इत्यादि प्रश्नों का सुक्ष्म समाधान पाने के लिए जीव, अजीव, श्राश्रव, संवर श्रादि सभी तत्वों के ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह ज्ञान ही श्रात्म-कल्याण में उपयोगी है। श्रतएव इनका निरन्तर चिन्तन-मनन करने से सम्यवत्व प्रगाढ़ बनता है, इसी प्रकार मुक्ति रूपी लक्ष्मी प्रदान करने वाला चिन्तन करना भी सम्यक्त्व की स्थिरता का कारण है। इस चिन्तन में संसार की यथार्थ दुःस्त्रमयी दशा का चिन्तन करना, शरीर की अशुचिता, अस्थिरता, इन्द्रियों का श्रात्मा पर
आधिपत्य क्यों, किस प्रकार और क्या फल देने वाला है, अादि विचार करना, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ भावना का बारम्बार चिन्तन करना, वारह भावनाओं की अनुप्रेक्षा करना, श्रादि सम्मिलित है। कमों के वशीभूत होकर जगत् के प्राणी
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छठा अध्याय
[ २२६ } किस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूप को त्यागकर चक्रवर्ती से चाकर, राजा से रंक उत्कृष्ट से निकृष्ट बन रहा है. ? इत्यादि विचार करना भी परमार्थ संस्तर कहलाता है। यह सम्यक्त्व-श्रद्धान का प्रथम कारण है।
... (२) सुदृष्टपरमार्थ लेवा-जिन महापुरुषों ने परमार्थ को सम्यक् प्रकार से जान लिया, देख लिया या अनुभव किया है उनकी सेवना अर्थात् सेवा करने सेपरमार्थ का परिचय होता है । यहां 'सुज्ञान ' न कह कर सूत्रकार ने सुदृष्ट कहा है, उससे यह भाव निकलता है कि जिन्हों ने परमार्थ का शास्त्र के आधार से जान ही नहीं प्राप्त किया है, वरन् इ.नं. प्राप्त करके उसे चिन्तन-मनन, ध्यान आदि उपायों से आत्मा में रमा लिया है, आत्मसात् कर लिया है, अनूभूति की कोटि में पहुंचा दिया है, ऐसे अनुभवशाली महा-पुरुषों की सेवा-शुभपा से लम्यक्त्व रूप अद्धान होता है। पहले व्याख्या-प्रज्ञप्ति सूत्र के प्रमाण से यह बतलाया जा चुका है कि सत्संगति का फल सिद्धान्त का भ्रवण है और श्रवण का फल जान है।
(३) व्यापन-वर्जना-जैसे दो मल्लों में जब कुश्ती होती है तब कभी पहला. दूसरे को नीचे गिराता है, कभी मौका पाकर दूसरा पहले को दे मारता है । अथवा दो सेनाओं में जब युद्ध होता है तो कभी एक सेना आगे बढ़ती और पीछे हटती है
और कभी दंसरी लेना पीछे हटती और आगे बढ़ती है। इसी प्रकार प्रात्मा में और कर्मों में अनादिकाल से संग्राम चल रहा है। यह संग्राम निरन्तर-अ-स्थगित रूपमें जारी रहता है । कभी प्रबल होकर भात्मा कर्मों को पीछे हटाती है और कमी कर्म सबल होकर यात्मा को पछाड़ देते हैं। जिस आत्मा ने एक बार शक्ति-सम्पादन कर के कर्म-शत्रुओं के चल को भेद करके सम्यस्त्व प्राप्त किया, वही श्रात्मा कभी कर्म शटो द्वारा फिर पराजित हो जाता है और उसके द्वारा पाया हुश्रा सम्यस्त्व रूपी मुकुट उससे छिन जाता हैं। इस प्रकार एकवार सम्परत्व प्राप्त कर फिर मिथ्याष्ट्रि वना हुश्रा व्यक्ति व्यायन कहलाता है। उसके संसर्ग से सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व में मलीनता पाने की तथा सम्यक्त्व के नाश होने की संभावना रहती है। श्रतएर सम्यक्त्व की रक्षा चाहने वालों को ऐसे व्यापन्न व्यशि से दूर ही रहना चाहिए ! . () कुदर्शन-वर्जना-मिथ्या श्रद्धान करने वाले को कुदर्शन कहते हैं । अथवा एकान्तवाद की स्थापना करने वाला, असर्वज्ञ पुरुप द्वारा प्ररूपित, पू पर विरोध से युक्त प्रत्यक्ष-अनुमान शादि प्रमाणों से बाधित, अहितकारी एवं मुशि में प्रति. बन्धक, शसत्य रूप सिद्धान्तों का निरूपण करने वाला शास्त्र कुदर्शन कहलाता है। अथवा कुत्सित अर्थात् वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप से प्रकट न करने वाला जिसका दर्शन भर्थात् सिद्धान्त हो उस एकान्तवादी शास्त्रप्रणेता को-जिसे अन्य लोग देव के रूप में स्वीकार करते है-कुदर्शन कहते हैं । इस प्रकार कुंदन' शब्द ले मिथ्या गुरु, मिथ्या शारन और मिथ्या देव का नहरण होता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष को इनकी संगति का परित्याग करना चाहिए।
जिनमें साधुता के शालो लक्षण नहीं पाये जाते, फिरभी जो भांति-भांति का
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सम्यक्त्व-निरूपण भेष धारण करके अपने आपको साधु-संन्यासी, जोगी, आदि कहते हैं वे मिथ्यागुरु हैं। उन्हें जीव-अजीव के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता अतएव वे षटुकाय की विराधना करते हैं, असत्य भाषण करते हैं, चोरी करते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, धन उपार्जन करते हैं, भक्ष्याभक्ष्य के विवेक से विहीन हैं, रात्रि में भोजन करते हैं, अपने निमित्त स्वयं बनाते और दूसरों से वनवाते हैं, सचित वनस्पति आदि का भक्षण करते हैं, स्नान करके असंख्य जीवों की विराधना करते हैं, मदिरा, मांस
आदि पापमय पदार्थों का सेवन करते हैं, गांजा, सुलका, बीड़ी, चिलम आदि का दम लगाते हैं, फूलमाला श्रादि धारण करते हैं, फिर भी अपना गुरुत्व प्रकट करने के लिए गृहस्थों से वेष की विलक्षणता जताते हैं । यह सब कुगुरु या मिथ्यागुरु कढ़लाते हैं । ये स्वयं कुपथगामी हैं, कुपथप्रदर्शक हैं और कुपथ में लेजाने वाले हैं। संसार रूप समुद्र को पार करने में पत्थर की नौका के समान हैं। इनके संलग से ज्ञान की वृद्धि तो होती नहीं, क्योंकि जो स्वयं अज्ञानी हैं वे दूसरों को ज्ञानी कैस बना सकते हैं, प्रत्युत सम्यग्ज्ञानी भी उनके संलग से मिथ्याज्ञानी बन जाता है। उनके मिथ्यात्व पूर्ण कथन और व्यवहार से सम्यक्त्व-रत्न भी चला जाता है। अतः । एव कुगुरुओं के संसर्ग से सम्यग्दृष्टि को बचना चाहिए। . जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों का विनाश करके सर्वज्ञता, वीतरागता और अात्मिक सम्पूर्णता प्राप्त की है वही सच्चे देव कहलाते हैं । जिसमें यह लक्षण नहीं पाये जाते फिर भी जो देव रूप से लोक में मान्य समझे जाते हैं वे कुदेव कहलाते हैं।
- इसी प्रकार मिथ्या एकान्तवाद की प्ररूपणा करके जगत् को अज्ञान के घोर अंधकार में गिरा देने वाले भी देव नहीं कहला सकते हैं । गाय को देव या देवों का स्थान मान कर उसकी पूजा करना और मूसल, ऊखल, चुल्हा, देहली, पीपल, जल, सूर्य आदि को देव मानना देव-विषयक मिथ्यात्व है।
अहिंसा, संयम और तप ही उत्कृष्ट मंगलमय धर्म है । स्वर्ग, सम्पत्ति, देवता का प्रसाद और सुगति प्राप्ति श्रादि सांसारिक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए यज्ञ-याग श्रादि के रूप में जीवधारियों की हिंसा करना, अपने लाभ के लिए असत्य बोलना, इत्यादि अधर्म है। इस अधर्म को धर्म मानना धर्मविषयक मिथ्यात्व है। सम्यकदृष्टि को इसका भी परित्याग करना चाहिए ।
- सूत्रोक्त यह चतुष्टय सम्यग्दर्शन के संरक्षण के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। श्रतएव विवेक के साथ इसे समझकर पालन करना चाहिए। . ___ मूलः-कुप्पवयणयाडी, सव्वेउम्भग्गपट्टिा। ... - सम्भग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ॥३॥
छाया:-कुप्रवचनपाखण्डिनः सर्वे उन्मार्ग प्रस्थिताः ।।
सन्मार्ग तु जिनण्यात, एपोमार्गो हयुत्तमः ॥ ३ ॥
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छठा अध्याय
[ २३१ ]
शब्दार्थ : - दूषित वचनं बोलने वाले, पाखण्डी सभी कुमार्ग में चलने वाले हैं । जिन भगवान् द्वारा कहा हुआ मार्ग ही सन्मार्ग है । यही उत्तम मार्ग है ।
भाष्य:--
- पूर्ववत गाथा में कुदर्शन के त्याग का निरूपण किया था किन्तु कुदर्शन कौन हैं ? जब तक यह बात भलीभांति न जान ली जाय तबतक उनका त्याग नहीं किया जा सकता । अतएव इस गाथा में कुदर्शन का कथन किया है । किन्तु सम्यग्दर्शन एकान्त प्रतिषेध रूप नहीं है, वरन् विधि का उसमें प्राधान्य है । अतएव यह शंका उपस्थित होती है कि कुदर्शन का त्याग करना ही यदि सम्यक्त्व नहीं है तो ग्रहण किसका करना चाहिए ? इस शंका के समाधान के लिए गाथा का उत्तरार्ध कहा गया है ।
कुप्रवचन ' में शब्द कुत्सित श्रर्थात् मिथ्या के अर्थ में है । श्रतः 'कप्रवचन ' का अर्थ होता है—मिथ्या भाषण करने वाले । अनेकान्तात्मक वास्तविक वस्तु का कथन न करके उसे एकान्त रूप प्रतिपादन करने वाले कुप्रवचन कहलाते हैं । संस्कृत भाषा के अनुसार 'कुत्सितं प्रवचनं यस्यासौ कुप्रवचनः ' ऐसा पद निष्पन्न होता है । यह बहु-व्रीहिसमासान्त पद है । विशेषण - विशेष्यभाव समास करने से ' कुत्सितं प्रवचनम कुप्रवचनम् ' मिथ्या वचन कुप्रवचन कहलाता है । इससे एकान्तवाद के निरूपण करने वाले मिथ्या शास्त्रों का ग्रहण होता है ।
"
'पापराडी ' दंभ करने वाले व्यक्ति को कहते हैं । अथवा पापण्डी सामान्य रूप से व्रती के अर्थ में प्रयुक्त होता है । जब सामान्य रूप से व्रती का अर्थ विवक्षित हो तो ' कुप्यवयणपासंडी ' इस समास युक्त पद के आदि में विद्यमान 'कु' का पापंडी के साथ भी श्रन्वय करना चाहिए । इस प्रकार कुपापण्डी का अर्थ कुवती अर्थात् मिथ्या चारित्रवान् होता है । तात्पर्य यह है कि मिथ्या प्रवचन करने वाले, मिथ्यावचन और मिथ्या चारित्रवान् व्यक्ति कुमार्ग की ओर चले जा रहे हैं । जो उनका अनुसरण करेगा वह भी कुमार्ग में दी जायगा और अपने लक्ष्यस्थान - -सिद्धि क्षेत्र को प्राप्त न हो सकेगा । सम्यग्दृष्टि पुरुष को चाहिए कि वह इनका अनुसरण न करे ।
मोहरूपी नट के नाट्य के अगणित प्रकार हैं । उसके एक-एक नाट्य से एक-एक मिथ्यात्व की सृष्टि होती है । तथापि प्राचीन ऋषियों ने पाखण्ड मतों का ३६३ ( तीन सौ त्रेसठ ) भेदों में वर्गीकरण किया है । एकान्तवाद का अवलम्बन करने से प्रत्येक मत पाखण्ड मत बन जाता है । मूल में एकान्तवादियों के पांच भेद हैं - (१) कालवादी (२. स्वभाववादी (३) नियतिवादी (४) कर्मवादी और (४) उद्यमवादी ।
(१) कालवादी - एकान्त कालवादी समस्त कार्यों की उत्पत्ति और जगत् का नियंत्रण काल ही के निमित्त से स्वीकार करता है । वह न क्रिया को कार्योत्पात में कारण मानता है, न उद्योग को ही । काल के अतिरिक्त अन्य सब कारणों का निषेध
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[. २३२ ..
सम्यक्त्व-निरूपण कर एकान्त काल को कारण मानने से यह एशान्ताद है । काल-एकान्तवाद के सम.. र्थन में यह कहा जाता है कि प्रजा की उत्पत्ति, नियत समय पर ही माता के गर्भ से होती है; अमुक-अमुक वनस्पतियां नियत समय पर ही ( मौसिम के छानुसार) उत्पन्न होती है-दिना नियत समय के उनकी उत्पत्ति नहीं होती । नियत समय पर अर्थात् तीसरे और चौथे आरे में ही मुक्ति प्राप्त होती है, नियत समय पर उत्सर्पिणी
और अवसर्पिणी काल: का प्रारंभ ओर अन्त होता है । नियत समय से अधिक किसी का जीवन स्थिर नहीं रह सकता। तात्पर्य यह है कि संसार का समस्त व्यवहार काल पर अवलंवित है । काल रूप निमित्त को पाकर ही प्रत्येक कार्य उत्पन्न होता है। कहा भी है
कालः पचति भूतानि, काल: संहरते प्रजाः। ........... कालः सुप्तेपु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः॥ ... अर्थात् काल ही भूतों का परिपाक करता है, काल ही जीवधारियों का संहार करता है, काल लोये हुओं में जागरूक रहता है-जबलवं सोते हैं तब भी काल जागृत रहता है और काल का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । अर्थात् काल जो चाहता है वही होता है, काल के विरुद्ध कुछ भी नहीं हो सकता। . ... ... ... .
इस कालैकान्तवाद पर जरा विचार करना चाहिए। यदि प्रत्येक कार्य में काल ही एक मात्र कारण है और पुरुषों का उद्योग आदि कारण नहीं है तो जगत् में लमस्त प्राणी जो निरन्तर उद्योगशील रहते हैं, उनका उद्योग निरर्थक हो जायगा। काल का श्राश्रय लेकर चुपचाप बैठ जाने वाले पुरुप की भूख-प्यास क्या भोजन. का नियत समय आने पर बिना भोजन-व्यापार के ही मिट सकती है ? इसके. अतिरिक्त काल सदैव विद्यमान रहता है। वह अनादि अनन्त द्रव्य है। अतएव प्रत्येक कार्य की प्रति. क्षण उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि कार्योत्पत्ति का कारण काल प्रतिक्षण विद्यमान रहता है। यदि यह कहा जाय कि काल कभी किसी कार्य को उत्पन्न करता है, कभी किसी कार्य को, अतएव सक कार्य एक साथ उत्पन्न नहीं होते । तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि काल के इस क्रम का कारण ज्या है ? यदि काल का स्वभाव इस क्रम का कारण है तो कालेशान्तवाद खरिंडत हो जाता है, क्योंकि काल के अतिरिक्त स्वभाव को भी कारण मानना एड़ो । यदि काल के क्रम में काल को ही कारण माना जाय तो कम वन नहीं सकता, क्योंकि काल सदा विद्यमान होने के कारण नित्य है । अतएक एकान्ततः काल को कारण मानना युक्ति-संगत नहीं सिद्ध होता और अनुभव से भी सिद्ध नहीं होता।
(२) स्वभाववादी-स्वभाववादी लमस्त कार्यों की उत्पत्ति में अकेले स्वभाव . को ही कारण मान कर काल आदि अन्य कारणों का सर्वथा निषेध करता है । वह कहता है-स्त्रीत्व की समानता होने पर भी बन्ध्या के पुत्र न होना, शिर की तरह शरीर का एक अंग होने पर भी हथेली पर रोम न होना, इन्द्रित्व की समानता होने पर भी चनु से शब्द का सुनाई न देना, कानों से दिखाई न देना, इत्यादि सय स्वभाव
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इंद्या अध्याय ..
[ २३३ ] पर निर्भर है। अग्नि की उष्णता, हिम की शीतलता, वायु का ति चलना, गुरुत्व चाले पदार्थ का ऊपर से नीचे गिरना श्रादि-आदि न काल से होते हैं, न किसी पुरुप के प्रयत्न से ही । यह सव स्वभाव का खेल है । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव के कारण ही भिन्न-भिन्न रूपों में परिणत हो रहा है। स्वभाव के विरुद्ध कभी किसी पदार्थ का प्रयोग नहीं किया जा सकता। अतएव स्वभाव को ही कारण के रूप में स्वीकार करना चाहिए। '. इस प्रकार जो एकान्त रूप ले स्वभाव कारणवादी है, उन्हें सोचना चाहिए कि प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव तो लदेव विद्यमान रहता है, फिर क्या कारण है कि पदार्थ क्रम से नाना रूपों में परिणत होता? पदार्थ के जितने परिणमन होते हैं वे सय स्वभाव रूप कारण विद्यमान होने पर एक साथ क्यों नहीं होते ? उदाहरणार्थ-जीव यदि स्वभाव से ही मनुष्य होता है, स्वभाव से ही पशु-पक्षी आदि होता है, और स्वभाव से ही मुक्त होता है तो एक ही साथ मनुष्य, पशु-पक्षी और मुक्त श्रादि विभिन्न और विरोधी रूप क्यों नहीं धारण करता ? क्योंकि जीव जब मनुष्य है तर भी पशु-पक्षी श्रादि होने का स्वभाव उसमें विद्यमान है । यदि यह कहा जाय कि उस समय पशु रूप परिणत होने का स्वभाव नहीं है तो यह बतलाना होगा कि वह स्वभाव बाद में किस कारण से उत्पन्न हुअा है ? यदि स्वभाव से ही उत्पन्न हुश्रा तो पहले ही क्यों नहीं उत्पन्न हो गया ? इसके अतिरिक्त स्वभाव से स्वभाव की उत्पत्ति होना नहीं बन सकता, क्योंकि कोई भी पदार्थ अपने-श्रापको उत्पन्न नहीं कर सकता। ऐसा मानने से स्वभाव की अनित्यता भी सिद्ध होती है । अतएव एकान्त स्वभाववादी श्री युति-संगत नहीं है ।
(३) नियतिवाद-भवितव्यता या होनहार को नियति कंदते हैं। नियतिवादी का कथन है कि प्रत्येक कार्य भवितव्यता से ही होता है । जीव को जो सुख-दुःख्न प्रादि होते हैं वे काल, ईश्वर, स्वभाव या जीव के उद्योगले नहीं होते । जो लोग उद्योग से सुख-दुःख की उत्पत्ति होना मानते हैं उन्हें विचारना चाहिए कि उद्योग समान करने पर भी दो पुरुषों को समान फल क्यों नहीं मिलता ? स्वामी और सेवक में से सेक्क अधिक उद्योग करता है फिर भी फल की प्राप्ति सेवक को कम और स्वामी को अधिक होती है। इसीलिए किसी कवि ने कहा है
यदावि न तद्भाथि, भावि चेन्न तदन्यथा । अर्थात् जो होनहार नहीं है वह नहीं हो सकता और जो होनहार है यह बदल नहीं सकता।
पूर्वोक्त रीति से एकान्त नियतिवाद भी मिथ्या सिद्ध होता है। नियतिवादी भी होनहार के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बेटा नहीं रह सकता । भूख अगर मिटनहार है तो स्वयं मिट जायगी, भोजन पकानहार है तो स्वयं एक जायगा, इस प्रकार सा निश्चय करके उद्योग का त्याग करने वाला समानी एकान्त दुःन का पात्र बनेगा। एकान्त नियतिवाद अनुभव-विरुद्ध और युक्ति से भी प्रतिकूल है । समान उद्योग
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[ २३४ ]
सम्यक्त्व-निरूपण
करने वाले अनेक पुरुषों को समान फल की प्राप्ति न होना उनके पूर्वोपार्जित श्रदृष्ट घर निर्भर है अतएव उससे नियतिवाद की सिद्धि नहीं होती । इसीलिए कहा गया है कि
न दैवमिति संचिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्नुमर्हति ॥
•
अर्थात् जो होनहार है सो होगा, ऐसा विचार कर अपना उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए | बिना उद्योग किये तिलों से तेल कौन पा सकता है ? तिलों में तेल तो विद्यमान रहता है पर उद्योग करने वाला ही उसे प्राप्त कर सकता है, भाग्य के भरोसे रहने वाला नहीं ।
(४) कर्मवादी - एकान्त रूप से कर्म को ही सुख-दुःख आदि का कारण मानने वाला कर्मवादी कहलाता है - सब मनुष्य मनुष्यत्व की अपेक्षा समान हैं, सभी की इन्द्रियां और श्रृंगोपांग भी समान हैं, फिर भी एक राजा होता है, दूसरा रंक होता है । समान परिश्रम करने वाले दो शिष्यों में से एक प्रतिभाशाली, अपने विषय में पारंगत विद्वान् हो जाता है और दूसरा कर्म के कारण मूर्ख ही बना रहता है । भगवान् ऋषभदेव सदृश पुण्यशाली महापुरुष को एक वर्ष तक अन्न का एक भी कण प्राप्त न हो सका, चरम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी को घोर उपसर्ग सहने पड़े, सागर चक्रवतीं के साठ हजार पुत्र एक साथ काल के कवल बने, यह सब कर्म का ही माहात्म्य समझना चाहिए ।
एकान्त कर्मवादी से यह पूछा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न प्राणियों के भिन्न-भिन्न कर्म होने का क्या कारण है ? क्या विना क्रिया किये ही विना व्यापार ही-कर्म का संयोग जीव के साथ हो जाता है ? यदि हो जाता है तो सभी जीवों के एक सरीखे कर्मों का संयोग क्यों नहीं होता ? तथा मुक्त जीवों को भी कर्म- संयोग नहीं होता ? यदि जीव के व्यापार की भिन्नता के कारण कर्मों में भिन्नता होती है तो जीव के व्यापार को अर्थात् उद्योग को भी कारण मनना चाहिए । फिर सिर्फ कर्म को ही कारण क्यों कहते हो ? इस प्रकार एकान्त कर्मवाद भी विचार करने पर खंडित हो जाता है ।
( ५ ) उद्यमवादी - एकान्त उद्यमवादी, कर्म, काल, स्वभाव आदि का सर्वथा निषेध करके एकान्ततः उद्यम को ही कारण स्वीकार करता है । वह कहता है- प्रत्येक कार्य उद्यम से ही सिद्ध होता है । उद्योगी पुरुष ही प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है । उद्योगी पुरुष अपने उद्योग की प्रबलता से दुस्साध्य कार्य भी सुसाध्य चना लेता है | पुरुष ने उद्योग करके वायुयानों का निर्माण किया है, विद्युत को -अधीन करके उससे अनेक कौतूहल बर्द्धक और श्राश्चर्यजनक आविष्कार कर लिये हैं। उद्योग से रंक राजा, मूर्ख पंडित और निर्धन पुरुष संघन वन जाता है । उद्योग का महत्व सब के सामने हैं । श्रतएव उद्योग को ही कारण के रूप में अंगीकार करना चाहिए |.
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छठा अध्याय
[ २३५ ) किन्तु अन्यान्य एकान्तवादों की तरह उद्यमैकान्तवाद भी तर्क की कसौटी पर सच्चा नहीं सिद्ध होता। मनुष्य तो क्या, देवराज इन्द्र भी अग्नि को शीत रुपता प्रदान नहीं कर सकता। वह कोटिशः प्रयत्न करके भी आत्मा को मूर्तिक, पुद्गल को श्रमूर्तिक और आकाश को हस्तगत करने में असमर्थ ही रहेगा । वास्तव में जिस वस्तु का जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि निमित्तों से जिस रुप परिणत होने का स्वभाव है, वही वस्तु उद्यम के द्वारा उस रूप में परिणत हो सकती है । अतएक अकेले उद्यम को कारण मानना सर्वथा अनुचित है।
__ उल्लिखित एकान्तवाद, इसी कारण मिथ्या है कि वे सिर्फ एक कारण को,अन्य कारणों का अप्रलाप करके स्वीकार करते हैं। यदि ये एकान्तवादी अन्य कारणों को भी यथोचित रूप से स्वीकार करें तो छानेकान्तवादी होकर पाखंडी नहीं रहेंगे। उक्त पांचो एकान्तवादी मूलतः चार प्रकार के हैं-१) क्रियावादी (२) अक्रियावादी (३) अज्ञानवादी और (४) विनयवादी । इन चारों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है:
(१) क्रियावादी-जो लोग ज्ञान आदि की अपेक्षा न करके एकान्त रूप से क्रिया में ही लीन रहते हैं, सिर्फ क्रिया को ही मोक्ष का कारण स्वीकार करते हैं, अथवा जो जीव को एकान्ततः क्रिया-परिणत ही स्वीकार करते हैं वे भी क्रियावादी कहलाते हैं । क्रियावादियों के १८० भेद होते हैं । पूर्वोक्त पांच एकान्तवादों को स्व और पर की अपेक्षा द्विगुणित करने से दस भेद होते हैं। दस भेदों को शाश्वत और अशाश्वत के भेद से द्विगुणित करने पर रीस भेद हो जाते हैं । इन बीस भेदों को लव तत्व के साथ गुणाकार करने से १८० भेद हो जाते हैं । एकान्त क्रियावाद पर रहले विचार किया जा चुका है। अतएव यहां पुनरावृत्ति नहीं की जाती।
- (२ प्रक्रियावादी-श्रक्रियावादी का मन्तव्य है कि भात्मा न स्वयं कोई झिया करता है और न दुसरों से कराता है। यहां तक कि गमनागमन आदि क्रियाएँ भी श्रात्मा नहीं करता, क्यों कि श्रात्मा व्यापक और नित्य है । जैसे श्राकाश व्यापक और नित्य होने के कारण कोई क्रिया नहीं कर सकता उसी प्रकार श्रात्मा भी क्रिया का कर्ता नहीं है । अफ्रियावावादी का यह मत युक्ति और अनुभव दोनों से बाधित है। यदि यात्मा क्रिया नहीं करता तो चतुर्गति रूप संसार किस प्रकार वन सकता है ? फिर समस्त आत्माएँ सदा मुक्त क्यों नहीं हैं ? दुःख-सुख श्रादि की विचित्रता जीवों में किस कारण पायी जाती है ? इसके अतिरिक्त गमन-श्रागमन श्रादि क्रिया प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतीत होती है । प्रत्यक्ष से निर्धान्त प्रतीत होने वाली वस्तु का श्रमलाप नहीं किया जा सका । श्रतएव नीव को एकन्त रूप से किया हीन मानना मिथ्यात्व है। इन मिथ्यात्वियों के चौरासी (२४) भेद होते हैं । उक्त पाँच भेदों तथा ब्रह्मा की इच्छा से जगत् की उत्पत्ति की अपेक्षा छह कारणों को स्वात्मा और परत्मा की अपेक्षा द्विगुणित करने से बारद भेद होते हैं। बारह भेदों को सात तत्वों के साध गुणाकार करने पर चौरासी भेद बनते हैं। पुण्य और पाए रूप दो तत्वों को छोड़ दिया गया है, क्योंकि प्रक्रियावादी पुण्य और पाप का आत्मा के साथ संबंध होना नहीं मानते हैं।
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[ २३६ ]
- सभ्यस्त्व-निरूपण :: (३) अज्ञानवादी-अज्ञानवादी कहता है कि यद्यपि संसार में अनेक त्यागी, वैरागी, पंडित-विद्वान् और शास्त्रकार अपने-अपने ज्ञान का वर्णन करते हैं, परन्तु उन सब का ज्ञान परस्पर विरोधी है। एक मत का प्राचार्य जो ज्ञान बतलाता है, उसे अन्य सभी प्राचार्य मिथ्या कहते हैं, इसी प्रकार सभी के ज्ञान दूसरों की दृष्टि में मिथ्या प्रतीत होते हैं। अतएव अज्ञान ही श्रेष्ठ है, ज्ञान की कल्पना करना निरर्थक है । जैसे म्लेच्छ पुरुष; आर्य पुरुष के कथन का अनुवाद मात्र करता है, अर्थ को नहीं समझता, उसी प्रकार सभी मतवाले अपने मतप्रवर्तक को सर्वश मानकर उनके उपदेशानुसार प्रवृत्ति करते हैं परन्तु सर्वज्ञ के वास्तविक अभिप्राय को, असर्वज्ञ पुरुष नहीं जान सकता। इसके अतिरिक्त कौन सत्यवादी है और कौन भलत्यवादी है ? इस प्रकार का निर्णय करना किसी के लिए संभव नहीं है । ऐसी दशा में ज्ञान के फंदे में न फँस कर अज्ञान को ही स्वीकार करना चाहिए । ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों-त्यों दोप भी. बढ़ते जाते हैं, क्योंकि जानने वाला अगर अपराध करता है उसे प.प लगता है और न जानने वाला पाप से मुक्त रहता है । वर्तमान में भी अवोध बालक द्वारा किये हुए अपराध कानून की दृष्टि में उपेक्षणीय होते हैं, जानकार द्वारा कृत अपराध तीन दण्ड के कारण होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान ही अधिक श्रेयस्कर है । अंज्ञान वह कवचं है जिससे दुःखों से. रक्षा . हो जाती है। .. :: . ... ....
अज्ञानवादी का पूर्वोक्त कथन ठीक नहीं हैं। यदि अज्ञानवाद ही श्रेष्ठ है तो स्वयं अज्ञानवादी ज्ञान मिथ्या है, अज्ञान श्रेष्ठ है। इस प्रकार की मीमांला क्यों करता है ? यदि सब ज्ञान मिथ्या है तो अज्ञानवादी का ज्ञान भी मिथ्या ही मानना होगा और फिर मिथ्याज्ञान मूलक उसका कथन सत्य कैसे हो सकता है ? जर 'उनका कथन और ज्ञान मिथ्या है तो अज्ञानवाद केले सिद्ध हो सकता है ? अज्ञानचांद यदि सस्या होता तो स्वयं अज्ञानवादी अपने मत की-अज्ञानवाद की-शिक्षा क्यों देता? इसले स्पष्ट है कि अज्ञानवादी स्वयं अज्ञान को सस्या नहीं समझता। यही कारण है कि वह अपने मत का ज्ञान दूसरों को कराता है। . . . . .
... समस्त मत परस्पर विरोधी होने के कारण मिथ्या है, यह कथन सर्वथा मिथ्या है । मिथ्या का विरोधी सब मिथ्या नही होता । मिथ्या मतों से विरुद्ध होने पर भी सर्वज्ञ वीतरोग द्वारा उपदिष्ट मत सत्य है। छातएव अमानवाई मिथ्या है । अजानवादियों के ६७ भेद होते हैं । पूर्वप्रतिपादित संप्त भंगी के सिर्फ एक-एक भंग को लेकर नव तत्वों के साथ गुणाकार करने से त्रेस: विकल्प निष्पन्न होते हैं। अर्थात् नव तत्वों संबंधी प्रत्येक भंग के ज्ञान का निषेध करने से उक्त भेद सिद्ध होते हैं । सांख्यमत, आदि चार जोड़ने से ६७ भेद हो जाते हैं। .... (४ विनयवाद- सम्प-अप्सम्यक् सदोष-निदोष आदि का विधेक न करके एकान्ततः विनय से मुलि मानना विनयवाद कहलाता है। इसे चैनयिक मिथ्यात्व भी कहते हैं । वैनयिक मिश्या दृष्टि अपनी सूढ़ता के कारण यह निश्चय नहीं करता कि
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छठा अध्याय
[ २३७ ]
कौन देव - गुरु वन्दनीय हैं, कौन चन्दनीय हैं ? जैसे अज्ञानी पुरुष कांच और हीरे को समान समझता है उसी प्रकार वैनयिक, सब देवों को, सब गुरुओं को, चाहे वे सुदेव हों चाहे कुदेव हों. चाहे सुगुरु हों, चाहे कुगुरु हो, समान रूप से विनय का भक्ति का पात्र समझता है । किन्तु यह ठीक नहीं है । जगत् में जो अनेक धर्म प्रच लित हैं, उनकी प्रकृति सर्वाश में एक नहीं है उनके तत्वज्ञान में और आचार-विचार में स्पष्टतः भेद प्रतीत होता है । ऐसी हालत में सभी धर्मों को समान समझ लेना सत्य का तिरस्कार करना ही है । यह ठीक है कि सत्यं सत्य ही है, चाहे वह कहीं भी उपलब्ध हो उसे ग्रहण करना चाहिए और विधर्मी या विधर्म के प्रति विद्वेष की भावना हृदय में नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। तथापि सब धान बाईस पंसेरी नहीं होना चाहिए । सत्य-असत्य की मीमांसा श्रवश्य कर्त्तव्य है, यही मानवीय बुद्धि के प्रकर्ष की सर्वाधिक उपयोगिता है ।
विनयवादी - (१) सूर्य (२) राजा (३) ज्ञानी (४) वृद्ध (५) माता (६) पिता (७) गुरु (८) धर्म, इन आठों का मन, वचन और काय से सत्कार करना और विनयभक्ति करना मानते हैं । इस प्रकार आठों को मन, बचन, काय और भक्ति से गुणित करने पर वैनयिकों के ३२ भेद होते हैं । पाखंड मत के सब मिलाने से तीन सौ त्रेसठ भेद वन जाते हैं । यह भेद मध्यम विवक्षा से समझने चाहिए ।
इस प्रकार यह सब पाखंड मतावलम्बी कुमार्ग की और ले जाते हैं अर्थात् हित पथ में प्रवृत्त कराते हैं । इन सब का त्याग करके अनेकान्तवाद की पवित्रता से अंकित, जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित सन्मार्ग को ही हित-पथ समझना चाहिए । जो इस प्रकार का दृढ़ श्रद्धान रखते हैं, वही वास्तव में सम्यग्दृष्टि होते हैं ।
मूलः - तहित्राणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं ।
भावेण सद्धहंतस्स, सम्मत्तं तं विद्याहियं ॥ ४ ॥
छाया:- तथ्यानाम् तु भावानां सद्भाव उपदेशनम् । भावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तत् व्याहृतम् ॥ ४ ॥
शब्दार्थ:- :- तथ्य भावों का अर्थात् जीव आदि नव पदार्थों की स्वतः या दूसरे के उपदेश से, भावपूर्वक श्रद्धा करना सम्यक्त्व कहा गया है ।
भाष्य:- जीव, जीव, पुण्य, पाप, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह न पदार्थ हैं। मुमुक्षु जीवों को इनका वास्तविक स्वरूप समझकर इन पर भावपूर्वक श्रद्धान करना आवश्यक है। इसी श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा गया है ! - अन्य के उपदेश के बिना और अन्य के उपदेश से । प्रथम प्रकार का सम्यक्त्व निसर्गज सम्यग्दर्शन - लाता है । दूसरा अधिगम कहलाता है । इनका स्वरूप पहले ही कहा जा चुका है 1
तत्वार्थश्रद्धा रूप सम्यक्त्व दो प्रकार से होता हैं
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सम्यक्त्व-निरूपण __ मूलः-निसग्गुवएस6ई, प्राणरुई सुत्तबीअरुइमेव ।
अभिगमविस्थाररुईः, किरियासंखेव धम्मलईः ॥५॥ छायाः-निसर्गोपदेशरुचिः, प्राज्ञारुचिः सूत्रबीजरुचिरेव। .
अभिगमविस्ताररुचिः, क्रिय संक्षेप धर्मरुचिः ॥५॥ - शब्दार्थः-सम्यक्त्व के कारण की अपेक्षा दस प्रकार हैं-(१) निसर्ग रुचि (२) उपदेशरुचि (३) आज्ञारुचि (४) सूत्ररुचि (५) बीजरुचि (६) अभिगमरुचि (७) विस्तार रुचि (८) क्रिया रुचि (6) संक्षेपरुचि और (१०) धर्मरुचि । : . . . . .
भाष्यः-सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करके उसके भेदों का यहां कथन किया गया है । सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है, तथापि दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से आत्मस्वरूप भूत सम्यक्त्व विकारग्रस्त हो जाता है जब अन्तरंग कारण दर्शनमोह का क्षय, क्षयोपशम और उपशम प्राप्त हो जाता है और बाह्य निमित्तों का भी सद्भाव होता है तब दर्शन गुण की विकृति दूर हो जाती है। वही सम्यक्त्व कहलाता है। यहां सम्यक्त्व के बाह्य निमित्तों की अपेक्षा दस लक्षण बताये गये हैं। इनका स्वरूप इस भांति है-.
.. ... . . . . . . . . . :: (१) निसर्गरुचि-गुरु श्रादि का उपदेश श्रवण किये विना ही कर्मों की विशिष्ट निर्जरा होने पर स्वभाव से जो सम्यक्त्व हो जाता है वह निसर्ग रुचि कहलाता है ।
(२) उपदेश रुचि-तीर्थकर भगवान् का अन्य मुनिराज श्रादि का उपदेश श्रवण करने से होने वाला सम्यक्त्व उपदेश रुचि है। - (३) प्राज्ञारुचि-अर्हन्त भगवान की परम कल्याण कारिणी, समस्त संकटों का अन्त करने वाली श्राशा को श्राराधन करने से होने वाला सम्यक्त्व प्राज्ञारुचि है. अथवा भगवान् की आज्ञा को विशेष रूप से श्राराधन करने की, तदनुकूल व्यवहार । करने की रुचि होना भाजा-रुचि है।
(४) सुत्ररुचि-द्वादशांग रूप श्रुत का अभ्यास करने से होने वाली रुचि सूत्र रुचि है। अथवा द्वादशांगी का पठन-पाठन, चिन्तन-मनन करते हुए, ज्ञान के परम रस-सरोवर में श्रात्मा को निमग्न करने की रुचि सूत्र रुचि कहलाती है।
(५) वीजरुचि-जैसे छोटे से बीज से विशालकाय वटवृक्ष उत्पन्न हो जाता है, श्रथवा पानी में डाला हुआ तैल-बिन्दु खूब फैल जाता है, उसी प्रकार एक पद भी जिसे अनेक पद रूप परिणत हो जाता है अर्थात् थोड़े का बहुत रूप परिणमन होना चीज रुचि है। ... (६) अभिगम रुचि-अंगोपांगों के अर्थ रूप ज्ञान की विशेष शुद्धि होने से तथा ज्ञान का दूसरों को अभ्यास कराने से होने वाली रुचि अभिगम रुचि कहलाती है।
(७) विस्तार रुचि-पद्रव्य, नवतत्व, प्रमाण, नय, निक्षेप, द्रव्यगुण, पर्याय
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छठा अध्याय
[ २३६ ] श्रादि का विस्तार पूर्वक अभ्यास करने से जो रुचि होती है वह विस्तार रुचि है।
(E) क्रिया रुचि-विशिष्ट क्रिया करने से जिस सम्यक्त्व की प्राप्ति हो उसे क्रियारुचि सम्यक्त्व कहते हैं।
१६) संक्षेप रुचि-थोड़े से ज्ञान की प्राप्ति होते ही जिसे सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है वह संक्षेप रुचि है।
(१०) धर्मरुचि--श्रुतधर्म, चारित्र धर्म आदि का निरूपण सुनने से होने वाला सम्यक्त्व धर्मरुचि सम्यक्त्व है।
शास्त्रों में सम्यक्त्व के अनेक प्रकार से भेद किये गये हैं। जैसे-चार प्रकार से दो-दो भेद हैं -
(१) द्रव्य सम्यक्त्व (२) भाव सम्यक्त्व, (१) निश्चय सम्यक्त्व (२) व्यवहार सम्यक्त्व. (१) निसर्गज सम्यक्त्व :२) अधिगमज सम्यक्त्व, (१) पौद्गलिक सम्यक्त्व (२) अपौद्गलिक सम्यक्त्व ।
- यहां विशुद्ध बनाये हुए मिथ्यात्व के पुद्गलों को द्रव्य सम्यक्त्व समझना चाहिए और उन पुद्गलों के निमित्त से होनेवाली तत्व-श्रद्धा को भाव सम्यक्त्व समझना चाहिए । क्षायोपशामिक सम्यक्त्व पौद्गलिक और क्षायिक तथा औपशमिक सस्यत्व अपोद्गलिक सम्यक्त्व कहलाता है। शेप भेदों का कथन पहले श्राचुका है।
सम्यक्त्व के अपेक्षाभेद से तीन-तीन भेद भी होते हैं। जैसे-(१) औपशमिक सम्यक्त्व (२) क्षायोपशामिक सम्यक्त्व (३) क्षायिक सम्यक्त्व । तथा--(१) कारक सम्यक्त्व २) रोचक सम्यक्त्व और (३) दीपक सम्यक्त्व ।
औपशामिक श्रादि तीन भेदों का कथन पूर्वोक्त प्रकार से समझना चाहिए । जिस सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर जीव सम्यक् चारित्र में श्रद्धा करता है, स्वयं चारित्र का पालन करता है तथा दूसरों से कराता है.वह कारक सम्यक्त्व है जिस सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर प्राणी संयम-पालन में विशिष्ट रुचि रखता है, पर चारिजमोह के उदय से अभिभूत होने के कारण संयम का श्राचरण नहीं कर पाता बद रोचक सम्यक्त्व कहलाता है। जिस जीव की रुचि सम्यक् तो न हो परन्तु अपने उपदेश से दूसरों में सम्यक् रुचि उत्पन्न करे उसे दीपक सम्यक्त्व कहा गया है। सम्यग्दर्शन का कारण होने से इसे उपचार से लम्यक्त्व माना गया है।
किसी अपेक्षा से सम्यक्त्व के पांच भेद भी कहे गये है। जैसे-(१) उपराम सम्यक्त्व (२) सास्वादन सम्यक्त्व (३) क्षायोपशामिक सम्यक्त्व (४) वेदक सम्यक्त्य और (५) क्षायिक सम्यक्त्व । ___ उपशम सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहर्त है। अन्तमुहर्त के पश्चात् यह सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है। जीव जब उपशम सम्यत्व से गिरकर मिथ्यात्व की और उन्मुख होना दै-पूर्ण रूप से मिथ्यादृष्टि नहीं बन पाता, उस समय की उसकी श्रद्धा कप परिणति को सास्वादन या सासादन सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्य जवन्य एक समय तक
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[ २४० ]
सम्यक्त्व-निरूपण और उत्कृष्ट छह प्रावलिका और सात समय तक रहता है। .
क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव जव सम्यक्त्व मोहनीय के पुदलों के अंतिम रस का आस्वादन करता है. अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व के प्रगट होने से एक समय पहले जीव के जो परिणाम होते हैं, वह वेदक सम्यक्त्वं कहलाता है। वेदक सम्यक्त्व के पश्चात् दूसरे ही समय में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है । क्षायिक .. सम्यक्त्व उत्पन्न होने पर फिर नष्ट नहीं होता। ... . इन्हीं पांच भेदों के निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो-दो भेद करदेने से भी सम्यक्त्व दस प्रकार का हो जाता है।
जैसा कि पहले कहा गया है और आगे भी कहा जायगा, सम्यक्त्व प्रात्मा के विकास का प्रथम सोपान है । जब तक जीव की दृष्टि निर्मल नहीं होती. तब तक वह वस्तु का सच्चा स्वरूप नहीं समझ पाता । वह दृष्टि दोष के कारण हित. को अहित
और अहित को हित मान लेता है । अतः सर्वप्रथम दृष्टि को निदोष बनाना ही भव्य जीव का कर्तव्य है। दृष्टि निर्मल हो जाने पर अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो चुकने पर भी जिन-जिन कारणों से उसमें दोष आते हों. उन कारणों का परित्याग करना चाहिए। ऐसे कारण मुख्य रूप से पांच हैं। कहा भी है
शङ्काकालाविचिकित्सा-मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । . . . . . " . . . . तत्संस्तवश्च पञ्चापि, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ॥ - अर्थात् (१) शंका (२) कांक्षा (३) विचिकित्सा (४). मिथ्यादृष्टि प्रशंसा और (५) मिथ्यादृष्टिसंस्तव, यह पांच कारण सम्यग्दर्शन को अत्यन्त दोषयुक्त बना देते है । इनका स्वरूप इस प्रकार है
(१) शंका-सर्वज्ञ वीतराग भगवान द्वारा उपदिष्ट तत्वों में संदेह करना शंका दूपण है । जैसे-जीव है या नहीं ? यदि है तो वह शरीर-परिमाण है या सर्वव्यापक है ? इस प्रकार सर्वोश में या देशांश में संदेह करना । : :(२) कांक्षा-एकान्तवादी, सर्वज्ञ, राग-द्वेषयुक्त पुरुषों द्वारा प्रवर्तित मतों की आकांक्षा करना कांक्षा दोप है । जैसे-दुसरे साधु-संन्यासी मज़ामौज लूटते हुए भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, तो हम भी उसी सातकारी मार्ग का अवलम्बन लें, ऐसा सोचना। ..... ......... ........ .. . ....... (३) विचिकित्सा-क्रिया के संबंध में अविश्वास करना, ग्लनि करना, अथवा निन्दा करना विचिकित्सा दोष हैं । जैसे-यह साधु कभी स्नान नहीं करते, कैसे मलिताचारी हैं ! अचित्त जल से स्नान कर लेने में क्या हानि हैं ? इत्यादि।
() मिथ्यादृष्टि प्रशंसा-जिनकी दृष्टिं दूपित है, जो मिथ्यात्व मार्ग के अनुगामी हैं उनकी प्रशंसा करना, मिथ्यादृष्टि प्रशंसा दोष है। मिथ्या दृष्टि की प्रशंसा करने से मिथ्यात्व की भी प्रशंसा हो जाती है, अतः सम्यग्दृष्टि को इस दोप से भी वचना चाहिए।
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छठा अध्याय
[ २४९ ]
(५) मिथ्यादृष्टि संस्तव -- मिध्यादृष्टियों के साथ रहना, उनसे आलाप-संलाप करके घुल-मिल जाना, परिचय करना मिध्यादृष्टि संस्तव कहलाता है । एक साथ रहने आदि से सम्यक्त्व के नष्ट होने की संभावना रहती है । श्रतएव सम्यग्दृष्टि को इस दोष का भी परित्याग करना चाहिए । यह सम्यक्त्व के पाँच दूषण हैं |
सम्यक्त्व को विशिष्ट बनाने के लिए पाँच भूषण हैं । जैसे सुन्दर शरीर श्रभूपण से अधिक सुन्दर हो जाता है उसी प्रकार इन गुणों से सम्यक्त्व भूषित होता है, अतएव इन्हें भूषण कहां है ।
स्थैर्य प्रभाव क्तः, कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पञ्चास्य, भूषणानि प्रचक्षते
अर्थात् ( १ ) स्थैर्य ( २ ) प्रभावना ( ३ ) भक्ति ( ४ ) कौशल और ( 2 ) संघ की लेवा, ये सम्यक्त्व के पाँच भूषण हैं |
( १ ) स्थैर्य-जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट शासन में स्वयं दृढ़-चित्त होना और अन्य को दृढ़ करना स्थिरता भूषण है ।
( २ ) प्रभावना-जिनशासन के विषय में फैले हुए ज्ञान को दूर करके शासन की महत्ता का प्रकाश करना प्रभावना भूषण है । प्रभावक प्रायः आठ प्रकार के होते हैं - ( १ ) द्वादशांग का विशिष्ट अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करने वाले (२) धर्मोपदेश देने वाले ( ३ ) वादविवाद में प्रतिपक्षी को पराजित करने वाले वादी ( ( ४ ) नैमित्तिक- त्रिकाल संबंधी लाभ - श्रलाभ बताने वाले निमित्त शास्त्र का ज्ञाता ( ५ ) विशिष्ट तपस्या करने वाले तपस्वी ( ६ ) प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं को जानने वाले (७) अंजन, पादप, तिलक आदि सिद्धियां प्राप्त करने वाले सिद्ध (८) गद्य, पद्य या उभयात्मक रचनां द्वारा कविता का निर्माण करने वाले कवि । यह घाट प्रभावक माने गये हैं ।
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( ३ ) क्लि - विनय करना, वैयावृत्य करना, सम्यक्त्व यदि गुण की अपेक्षा जो बड़े हों उनका यथोचित सत्कार-सन्मान करना ।
( ४ ) कौशल - जिन मत में कुशल होना । सर्वोक्त सिद्धान्तों के मर्म को समने-समझाने में निपुण होना ।
(५) संघ की सेवा - साधु, साध्वी, धारक, धाविका रूप चतुर्विध संघ या तीर्थ की सेवा करना ।
प्रत्येक सद्गुण को प्राप्त करने और प्राप्त करने के पश्चात् उसे नष्ट न होने देने के लिए भावना एक प्रबल कारण है । सम्यक्त्व की स्थिरता के लिए भी भावनाओं की आवश्यकता होती है । वे भावनाएँ छह है
(१) सम्यस्त्व, धर्म रूपी वृक्ष का मूल है। जैसे बिना मूल के वृक्ष नहीं टिक सकता और मूल यदि सुरट्ट होता है तो वृक्ष की स्थिति दीर्घकालीन होती मीर वह आंधी श्रादि के उपद्रवों से नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्व के विना धर्म
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सम्यक्त्व-निरूपण रूपी वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता । सम्यक्त्व की दृढ़ता होने पर धर्म अनेक विघ्नवाधाओं के होने पर भी स्थिर रहता है। सम्यक्त्व की विद्यमानता में ही धर्म-तरु में दया रूप पत्र लगते हैं, सदगुण रूप सुरभिमय सुमन खिलते हैं और अव्यावाध सुख रूपी फल लगता है।
(२) सम्यक्त्व, धर्म रूपी नगर की चहारदीवारी है । जैसे. चहारदीवारी से सुरक्षित नगर पर शत्रु सहज ही आक्रमण नहीं कर सकता, उसी प्रकार सम्यक्त्व से सुरक्षित धर्म पर अन्य तीर्थी या आध्यात्मिक शत्रु आक्रमण करने में समर्थ नहीं हो सकते । नगर में प्रवेश करने के लिए द्वार में से जाना पड़ता है, उसी प्रकार धर्म में सम्यक्त्व के द्वार से ही प्रवेश करना पड़ता है।
(३) सम्यक्त्व, धर्म रूपी महल की नींव है । नींव जितनी अधिक दृढ़ होगी मकान भी उतना ही अधिक दृढ़ रहेगा। कच्ची नींव वाला महल प्रकृति के उत्पातों को सहन नहीं कर सकता। इसी प्रकार जिसका सम्यक्त्व अचल है, उसका धर्म भी अचल होता है । कच्ची श्रद्धा वाले का धर्म स्थिर नहीं रहता । वह तनिक से उत्पात से ही भ्रष्ट हो जाता है। अतएव धर्म को स्थिर रखने के लिए सम्यक्त्व को निश्चल बनाना चाहिए। . . . . . . . . . . . .
(४) लम्यक्त्व, धर्म रूपी अनमोल रत्न की मंजूषा (पेटी) है। जैसे लोक में बहुमूल्य रत्न को सुरक्षित रखने के लिए पेटी का उपयोग किया जाता है उसी प्रकार धर्म रूपी अमूल्य चिन्तामणि-रत्न की सुरक्षा के लिए सम्यक्त्व रूपी पेटी की आवश्यकता है।
रत्न चाहे जितना मूल्यवान् हो, पर वास्तव में वह पुदल है-जड़ है। उसका मूल्य भी काल्पनिक है। मनुष्य-समाज ने उसे मूल्य प्रदान किया है, पर धर्म चेतना का स्वभाव है। संसार के समस्त रत्नों की एक राशि चनाई जाय तो भी धर्म के सर्व से न्यून एक अंश की भी बरावरी वह राशि नहीं कर सकती । ऐसी अवस्था में धर्म को रक्षित रखने के लिए कितनी सावधानी रखनी चाहिये ? धर्म चैतन्यमय है अतएव चैतन्यमय सम्यक्त्व में ही उसकी सुरक्षा हो सकती है।
(५) सम्यक्त्व, धर्म रूपी भोजन का भाजन है । जैसे मधुर भोजन को भाजन (पात्र) ही अपने भीतर रखता है उसी प्रकार धर्म रूपी भोजन के लिए सम्यक्त्व रूपी पात्र की आवश्यकता होती है । विना भाजन के भोजन नहीं ठहर सकता उसी प्रकार बिना सम्यक्त्व के धर्म की स्थिति नहीं हो सकती।
(६) सम्यक्त्व, धर्म रूपी किराने का कोठा है। जैसे छिद्र रहित. कोठे में स्थापित किया हुआ किराना चूहा श्रादि तथा चोर आदि के उपद्रव से सुरक्षित रहता है उसी प्रकार धर्म रूपी किराना छिद्र रहित अर्थात् अतिचार रहित सम्यक्त्व रूपी कोठे में सुरक्षित रहता है । निरतिचार सम्यक्त्व धर्म को सब प्रकार की याधाओं से बचा कर निर्दोप बनाता है।
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जटा अध्याय
[ २४३ ] सम्यक्त्व के विषय में इस प्रकार का बारम्बार चिन्तन करना अत्यन्त उपयोगी है। इस प्रकार के चिन्तन से सम्यक्त्व की महत्ता का प्रतिभास होता है, सम्यक्त्व के विषय में श्रादर का भाव उत्पन्न होता है और उसे सुरक्षित रखने के लिए उद्यम करने में उत्साह बढ़ता है।
सम्यक्त्व को स्थिर रखने के लिए छह स्थानों को भी प्रतिपादन किया गया है। जैसे-(१) श्रात्मा है (२) श्रात्मा द्रव्यतः नित्य है (३) प्रात्मा अपने कर्मों का कर्ता है (४) आत्मा अपने कृत कर्मों के फल को भोगता है (५) श्रात्मा को मुक्ति प्राप्त होती है (६) मोक्ष का उपाय है । इन छह स्थानकों को विस्तार से समझ कर इनका विचार करने से भी सम्यक्त्व की स्थिरता होती है और श्रात्मा अपने हित के लिए चेष्टा करता है। मूलः-नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दसणे उ भइ अव्वं ।
सम्मत्तं चरित्ताई, जुगवं पुव्वं व सम्मत्रं ॥ ६॥ छाया:-नास्ति चारित्रं सम्यस्त्वविहीन, दर्शने तु भक्तव्यम् ।
सम्यक्त्व चास्नेि, युगपत् पूर्व वा सम्यक्त्वम् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:-सन्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक् चारित्र नहीं होता । सम्यग्दर्शन के होने पर चारित्र भजनीय है । सम्यक्त्व और चारित्र एक साथ होते हैं अथवा सम्यग्दर्शन पहले होता है।
भाध्यः-सम्यग्दर्शन के भेद-प्रभेदों का निरूपण करने के पश्चात् उसका महत्व बताने के लिए तथा मोक्ष मार्ग में सम्यग्दर्शन की प्राथमिकता सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने इस गाथा का निर्माण किया है।
__सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र का आविर्भाव नहीं होता । सम्यक्त्व रहित अवस्था में भी मिथ्याष्टिबत, नियम, कायक्लेश श्रादि क्रियाएँ करते हैं किन्तु उनकी दृष्टि विपरीत (मिथ्या ) होने के कारण वे समस्त क्रियाएँ मिथ्या क्रियाएँ होती है और संसार-भ्रमण की हेतु हैं । उन क्रियाओं से मोक्ष की आराधना नहीं होती।
दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय नादि से जर सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो जाती है तव जीव चतुर्थ गुरणस्थानवत्ती हो जाता है। चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्यास्थानावरण कपाय का सद्भावरहता है और इनके सद्भाव में न देशविरति होती हैं और न सर्वविरति होती है। जब इन कपायों का क्षय या उपशाम श्रादि होता है तब क्रमशः एक देश चारित्र और सकल चारित्र की प्राप्ति होती है । इसीलिए यहां सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यक् चारित्र को भजनीय कहा गया
है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन की विद्यमानता होने पर भी किसी जीव को 'चारिध होता है, किसी को चारित्र नहीं होता । अविरत सम्यग्दष्टि नामक चतुर्थ
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[ २४४ ]
सम्यक्त्व-निरूपण 'गुणस्थानवर्त्ती जीव को सम्यक् चारित्र नहीं होता, देशाविरत सम्यग्दृष्टि को एक देश चारित्र होता है, प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर उत्तरवत्र्त्ती समस्त गुण: स्थानों में सर्वविरति चारित्र होता है ।
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यदि सम्यक् चारित्र, सम्यग्दर्शन के होने पर भजनीय हैं, तो सूत्रकार ने दोनों का एक साथ होना क्यों कहा है ? इस शंका का समाधान यह है कि सम्यग्दर्शन होते ही चारित्र सम्यक् हो जाता है, इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र का एक साथ होना कहा गया है । अथवा अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व और चारित्र-दोनों का घात करती है । जब अनन्तानुबंधी का क्षय या उपशम होता है तब सम्यग्दर्शन के साथ ही साथ सामायिक चारित्र भी उत्पन्न हो जाता है । वह चारित्र यद्यपि त्याग प्रत्याख्यान रूप नहीं होता, किन्तु उससे सम्यग्दृष्टि की प्रवृत्ति श्रात्मो न्मुखी हो जाती है । इस अपेक्षा से दोनों को युगपद्भावी कहा गया है।
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शंका-यदि दोनों सहभावी हैं तो सूत्रकार ने संस्यग्दर्शन को पहले होने वाला क्यों प्रतिपादन किया है ?
समाधान - जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक् चारित्र नहीं होता, अतएव सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यक् चारित्र उसका कार्य है । कार्य-कारण भाव दो सहभावी पदार्थों में नहीं होता, श्रव्यवहित पूर्वोत्तर क्षणवर्त्ती पदार्थों में ही कार्य-कारण भाव संबंध हुआ करता है । इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन को पूर्ववर्ती और सस्यक् चारित्र को उत्तरक्षणवर्त्ती निरुपण किया गया है ।
तात्पर्य यह है कि अनन्तानुबंधी प्रकृति चारित्रमोहनीय प्रकृति के अन्तर्गत है और चारित्र मोहनीय प्रकृति चारित्र का घात करती है इस लिए अनन्तानुबंधी का क्षय आदि होने पर चारित्र का आविर्भाव अवश्य होना चाहिए, अन्यथा अनन्तानुः बंधी को चारित्रमोहनीय में अन्तर्गत नहीं किया जा सकता । चारित्र का आविर्भाव होने पर भी चतुर्थ गुणस्थानवत्ती जीव को अविरत सम्यग्दृष्टि कहा गया है, इससे यह भी स्पष्ट है कि चतुर्थ गुणस्थान में विरति रूप चारित्र नहीं होता । इन दोनों विवक्षाओं को ध्यान में रखते हुए यहां सम्यग्दर्शन के होने पर चारित्र को भजनीय बताने के साथ ही, दोनों को सहभावी और सम्यक्त्व को पूर्वकाल भावी कहा गया है । इसी लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात् बची हुई कर्मों की स्थिति में से पल्योपम पृथक्त्व की स्थिति कम होने पर देशविरति का लाभ होना बतलाया है और इस स्थिति में से भी संख्यात सागरोपम की स्थिति कम होने पर सर्वविरति की प्राप्ति होना कहा गया है ।
मूल:- नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विषा न होंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि मुक्खस्स निव्वाणं ७
छाया:- नादर्शिनो ज्ञान, ज्ञानेन बिना न भवन्ति चरणगुणाः ।
'गुणिनो नास्ति मोचः, नास्त्यमुक्रस्य निर्वाणम् ॥ ७ ॥
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छठा अंध्याय
[ २४५ ] - शब्दार्थ:-सम्यक्त्व-रहित को ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के बिना चारित्र के गुण नहीं होते । चारित्र रहित को मोक्ष नहीं प्राप्त होता और बिना मुक्त हुए निर्वाण प्राप्त नहीं होता।
भाज्य:-यहां सस्यरदर्शन को निर्वाण का मूल कारण बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्रं के विना मुक्ति नहीं होती और मुक्ति के बिना निर्माण अवस्था प्राप्त नहीं होती।
जैसे सम्यग्दर्शन के अभाव में होने वाली समस्त क्रियाएँ मिथ्या चारित्र हैं उसी प्रकार सस्यग्दर्शन के अभाव में समस्त ज्ञान मिथ्याज्ञान ही होता है । ज्ञान यद्यपि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से उत्पन्न होता है किन्तु उसमें सस्यपन दर्शनमोहनीय के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से श्राता है । मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, उसकी आत्मा में रहे हुए मिथ्यात्व का संसर्ग पाकर मिथ्या बन जाता है । जय मिथ्यात्व का नाश होता है तब वही मिथ्याशानं सम्यज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। अतएवाजैसे सूर्य का उदय होने पर उसका प्रताप और प्रकाश एक साथ उत्पन्न होता है उसी प्रकार सस्यग्दर्शन का आविर्भाव होने पर सस्यग्झाने साथ ही प्रकट हो जाता है। इस प्रकार.यद्यपि दोनों सहभावी है, फिर भी उनमें कार्य-कारण भाव विद्यमान है। अतएव सम्यग्दर्शन के अभाव में यहां ज्ञान का जो अभाव बताया गया है सो सम्यरज्ञान ही समझना चाहिए । इसी तरह आगे भी 'ज्ञान' शब्द से सस्यग्ज्ञान का ही ग्रहण करना चाहिए।
सम्यज्ञान के बिना सस्यक चारित्र नहीं होता। जब तक जीव 'श्रादि तत्वों का यथावत् ज्ञान न होजाय और सत्-असत् का विवेक जाग न उठे तबतक संयम श्रादि की साधना सम्यक् प्रकार से होना असंभव है । यह जीव है, यह अजीव है, इस प्रकार का ठीक बोध होने पर ही जीव की विराधना से कोई बच सकता है, अन्यथा नहीं।
सम्यग्ज्ञान के होने पर ही सम्यक् चारित्र का सदभाव होता है और सस्य चारित्र की सत्ता होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है । क्रिया रहित शान और शान रहित क्रिया मात्र से मुक्ति नहीं प्राप्त होती, यह पहले कहा जा चुका है। जय चारित्र की परिपूर्णता होती है, तब समस्त कर्मों का सर्वधा और समूल धंस होता है। इस " अवस्था को मुक्ति कहा गया है। पाठकों का सर्वथा विध्वंस होने पर परमवीतराग श्रवस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था को निर्वाण कहा गया है।
यद्यपि मोक्ष और निर्वाण-दोनों समानार्थक शब्दों के रूप में प्रसिद्ध है, पर यहां सूक्ष्म दृष्टि से दोनों' को भिन्न माना गया है और दोनों में कार्य-कारण भाव की सिद्धि की गई है अर्थात् मोक्ष को कारण और निर्वाण को उसका कार्य माना गया है। कहा भी है-'कृत्स्मकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः।' अर्थात् समस्त कर्मों का प्रात्यनिक नाश हो जाना मोक्ष है । कर्म-नाश से आत्मा में एक अपूर्व, अनन्त शक्तियों से
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[ २४६ 1
सम्यक्त्व-निरूपण समन्वित, निराकार अवस्था-विशेष का उद्भव होता है। वह अवस्था निर्वाण अवस्था कहलाती है। ..
इस विवेचन से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन मोक्ष-रूपी महल की प्रथम सीढ़ी है। सम्यग्दर्शन पाने पर ही मनुष्य मोक्ष की और उन्मुख होता है। बिना सम्यग्दर्शन के समस्त ज्ञान और चारित्र मिथ्या होते हैं, उनसे सलार-भ्रमण की वृद्धि होती है। अतएव मुमुक्षु पुरुषों को सब से पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए और जिन्हें वह प्राप्त है उन्हें सुदृढ़ और निर्मल बनाना चाहिए । सम्यक्त्व को मलीन न होने देना श्रात्मकल्याण के लिए अनिवार्य है । सम्यक्त्व के बिना किया जाने वाला पुरुषार्थ विपरीत दिशा में ही ले जाता है। मूलः-निस्संकिय निक्कंखिय,निव्वितिगिच्छाअमूढदिट्ठी य ।
उववूह-थिरीकरणे,वच्छल्ल-पभायणे अट्ठथ ॥ ८॥ छाया:-निश्शंकित निःकाक्षित, निर्विचिकित्साऽमूदृष्टिश्च ।
. उपवृंह-स्थिरी करणे, वात्सल्य-प्रभावनेऽष्टौ ॥८॥ ... शब्दार्थः--निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूदृष्टि, उपह,स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना, यह आठ सम्यग्दर्शन के अंग हैं।
भाष्यः-सम्यग्दर्शन के स्वरूप का विश्लेषण पूर्वक विशिष्ट विवेचन करने के लिए सूत्रकार ने यहां सम्यग्दर्शन के पाठ अंगों का निरूपण किया है।
जैसे शरीर का स्वरूप समझने के लिए उसके अंगोपांगों का स्वरूप जानना श्रावश्ययक है, क्योंकि अंगोपांगों का समूह ही शरीर है । समस्त अंगों से अलग. शरीर की सत्ता नहीं है। अंगोपांगों का स्वरूप समझ लेने से ही शरीर का स्वरूप ज्ञात होजाता है। इसी प्रकार निःशंकित श्रादि पूर्वोक्त अंगों के समुदाय को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन अंगों के पालन से ही सम्यक्त्व का पालन हो जाता है। अतएव श्राठ अंगों के विवेचन से सम्यग्दर्शन का विवेचन हो जाता है । पाठों अंगों का अर्थ इस प्रकार है
(१) निःशंकित-वीतराग और सर्वज्ञ होने से जिन भगवान् कदापि अन्यथा. . वादी नहीं हो सकते, जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट तत्व यही है, ऐसा ही है-अन्य रूप नहीं हो सकता, इस प्रकार की सुदृढ़ प्रतीति निःशंकित अंग है। . ..
(२) निःकांक्षित-सरागी देव, परिग्रहधारी गुरु और एकान्तमय धर्म आत्मा के लिए अहितकारक हैं, ऐसा समझकर अथवा मिथ्यात्रियों के प्राडम्बर से प्राकृष्ट होकर उनके मार्ग को ग्रहण करने की जरा भी आकांक्षा न होना निःकांक्षित अंग है।
(३) निर्विचिकित्सा-गृहस्थधर्म और साधुधर्म का अनुष्ठान करने का इस लोक में या परलोक में कुछ फल होगा या नहीं ? हस्तगत काम-भोगों को त्यागकर जो उपवास, त्याग-प्रत्याख्यान किया जाता है वह कहीं निष्फल तो नहीं होगा ? इस
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छठा अध्याय
[ २४७ ] प्रकार धर्म-क्रिया के फल में संदेह न करना, प्रत्युत धर्म-क्रिया के फल-स्वरूप सुगति, दुर्गति या मुक्ति श्रादि की प्राप्ति के विषय में पूर्ण श्रद्धा न रखना निर्विचिकित्सा अंग है।
(४) अमूदाहित्व--सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादृष्टियों की देखादेखी कोई प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए, अन्धश्रद्धा के अधीन होकर निरर्थक, संघ-विघातक, कपोलकल्पित क्रियाओं में व्यापार नहीं करना चाहिए । 'सम्यग्ज्ञान से विचार कर, जो पाचरण संघ को लाभप्रद हो, श्रात्मा में मलीनता न लाने वाला हो और सावधानी से सोचविचार कर निश्चित किया गया हो, उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक विषय में पटुता रखना, अपनी प्रज्ञा को जागृत रखना और विचार कर गुणकारक कार्य करना अमूढदृष्टित्व अंग है।
(५) उपबृंह-सम्यग्दृष्टि पुरुषों की प्रशंसा करके सम्यक्त्व की वृद्धि करना, उनके गुणों की वृद्धि में सहायक होना, अवगुणों का परित्याग कर गुण ग्रहण करना उपह अंग है।
(६) स्थिरीकरण -सांसारिक कष्टों में पड़कर या अन्य प्रकार से बाध्य होकर जो सम्यग्दृष्टि अपने सम्यग्दर्शन से च्युत होने वाले हैं, अथवा चारित्र से भ्रष्ट होने वाले हैं, उनका कष्ट दूर करके, भ्रष्ट होने का निमित्त हटाकर उन्हें सम्यग्दर्शन या सम्यक् चारित्र में स्थिर करना स्थिरीकरण अंग है। ..
(७) वात्सल्य-संसार संबंधी नातेदारियों में साधर्मी भाई की रिश्तेदारी सर्वोच्च है। अन्यान्य नातेदारियां संसार में फंसाने का जाल है, मोह का प्रसार करने वाली है, संसार रूपी घोर अंधकारमयी सुरंग में ले जाने वाली है, किन्तु साधी-पन का संबंध अप्रशस्त राग का निवारण करने वाला, प्रकाश के प्रशस्त पथ में ले जान वाला है । ऐसा सोच कर साधर्मी के प्रति अान्तरिक स्नेह का होना, गो-बत्ल की तरह प्रेम होना वात्सल्य अंग है ।
(८) प्रभावना-जिन प्रवचन का जगत् में माहात्म्य-विस्तार करना, धर्म संबंधी अशान का निवारण करना, धर्म का प्रचार करना और धर्म का चमत्कार संसार में फैलाना प्रभावना अंग है।
. इन आठों अंगों का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला पुरुष पूर्ण सम्यक्त्य का धारक कहलाता है । सम्यक्त्वी जीच नरक गति, तिर्यञ्चगति, नपुंसकत्व, जीत्व, दुकुल, अल्पायुष्कता, विकृत जीवन, याण-व्यन्तर, भवनवासी देवता आदि में उत्पन्न नहीं होता । श्रतएव जो इन कुयोनियों या दुरवस्थाओं से बचना चाहे उन्हें सम्यक्त्व को सुदृढ़ बनाना चादिप । मूल:-मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा।
इय जे मरन्ति जीवा, तेसिं पुण दुल्हा वोही ॥ ६ ॥
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[ २४८ ]
सम्यक्त्व - निरूपण..
छाया: - मिथ्यादर्शनरक्ताः सनिदाना हि हिंसकाः । इति ये म्रियन्ते जीवाः, तेषां पुनर्दुर्लभा बोधीः ॥ ६ ॥
शब्दार्थः - मिथ्यादर्शन में आसक्त, निदान - सहित और हिंसक होते हुए जो जीव मरते हैं, उन्हें पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति दुर्लभ है ।
भाष्यः - सम्यग्दर्शन के अंगों का निरूपण करके यह बताया जा रहा है कि जो इन अंगों का सेवन नहीं करते, श्रतएव जो मिथ्यादृष्टि हैं, उन्हें क्या फल प्राप्त होता है ?
मन
जो जीव मिथ्यादर्शन से युक्त हैं अर्थात् कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और कुतत्त्व पर श्रास्ता रखते हैं, जो निदान शल्य वाले हैं अर्थात् श्रागामी विषय-भोगों की आकांक्षा में रखकर धर्म क्रिया करते हैं और जो हिंसक हैं अर्थात् जीव-बंध रूप पाप-कर्म हैं, वे यदि इन दोषों से युक्त होते हुए मरते हैं तो मिथ्यादृष्टि होने के कारण तथा निदान और हिंसा शील होने से उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति होना बहुत कठिन होता है ।
में
मूलगाथा में ' पुण ' शब्द यह सूचित करता है कि मिथ्या दर्शन में आसक्ति आदि कारणों से जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन करदिया है, उन्हें फिर से अर्थात् आगामी भव में सम्यक्त्व दुर्लभ हो जाता है ।
मूलः - सम्मदंसणरत्ता, अनियाणा सुकलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, सुलहा तेसिं हवे बोही ॥१०॥
छाया: सम्यग्दर्शनरका प्रनिदाना शुक्लेश्यामवगाढाः । इति ये म्रियन्ते जीवाः, सुलभा तेषां भवति बोधिः ॥ १० ॥
शब्दार्थः--जो जीव सम्यक् दर्शन में आसक्त हैं, निदान से रहित हैं, शुक्ल लेश्या से सम्पन्न हैं, उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति सुलभ होती है ।
प
:
भाष्यः - मिथ्यादर्शन आदि में आसक्त अन्तःकरण वाले जीवों को बोधि की दुर्लभता प्रतिपादन कर सूत्रकार यह बताते हैं कि वोधि अर्थात् सम्यक्त्व सुलभ किसे होता है ?
जो प्राणी सम्यग्दर्शन में रक्त हैं- जिनवर के वचन में प्रगाढ़ श्रद्धान रखते हैं, जिनोक्ल मार्ग में अविचल रहते हैं, तथा जो निदान शल्य से रहित हैं और जो शुक्ल लेश्या से शोभित हैं, उन्हें बोधि की उपलब्धि सुलभ होती है ।
तपस्या, व्रत - नियम आदि आध्यात्मिक क्रियाएँ करते समय, कर्त्ता को निष्काम होना चहिए । जो सांसारिक सुख की अभिलाषा रखकर धर्म-क्रिया करता है वह उस अभागे, किसान के समान है जो सिर्फ भूसा पाने के लिए धान्य-चपन करता है । वास्तव में धान्य-लाभ के उद्देश्य से की जाने वाली कृषि के द्वारा कृपक को धान्य के साथ भूसा भी मिल जाता है, इसी प्रकार जो श्रनन्त श्रात्मिक सुख को
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जठा अध्याय .
[ २४६ ) सन्मुख रख कर धर्मानुष्ठान करता है उसे सांसारिक सुन तो अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं, उनकी कामना करने से आध्यात्मिक फल की प्राप्ति रुक जाती है । सांसा. रिक लाभ के लिए की जाने वाली क्रिया का दुरुपयोग इसी प्रकार है जैसे को श्रा उड़ाने के लिए समुद्र में चिन्तामणि फेंक देना । निदान से धर्म क्रिया संसार के असार विषय-भोगों के लिए विक जाती है। इसी प्रकार निदान को शल्य कहा गया है। शल्य-रहित जीव ही व्रती होता है । कहा भी है-'निःशल्यो व्रती।' श्रतएव स्तम्यग्दर्शन में श्रासरत होकर, निदानशल्य का त्यागकर, उत्कृष्ट परिणाम बनाये रखना ही सम्यक्त्व की सरलता पूर्वक पाने का मार्ग है। मूलः-जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करोति भावणं ।
अमला असंकिलिट्ठा, ते होत परिचसंसारी ॥ ११ ॥ छाया:-जिनवचनेऽनुरका, जिनवचन ये कुर्वन्ति भावेन ।
अमला असंलिप्टाः, ते भवन्ति एरीसंसारिणः 11 शब्दार्थ:--जो जीव जिन भरवान् के वचन में श्रद्धावान हैं और ओ अन्तःकरण ले जिन-वचन के अनुसार अनुष्ठान करते हैं, ये मिथ्यात्व रूपी मल से रहित तथा संक्लेश से रहित होकर परीत संसारी बन जाते हैं।
भाज्य-समयदर्शन के फल का निरूपए करते हुए सूत्रकार ने यह बताया है कि जो भाग्यवान् प्राणी जिन भगवान के वचनों में आसक्त होते हैं अर्थात् बीतरागोस्त आपस पर सुदृढ़ श्रद्धा रखते हैं, किसी भी अवस्था में, किसी भी संकट के श्रा पड़ने पर भी वीतराम-प्ररूपित आगम से किएरीत श्रद्धान नहीं करते है, साथ ही पंजिनोल आगम के अनुसार ही चलते हैं, वे मिथ्यात्व आदि रूप कर्म-गल से रहित हो जाते हैं। उन्हें कर्म-संधजनक संल्लेशं भी नहीं होता है और वे अन्दन्त काल तक के भव-धमए को घटा कार सीमित कर लेते हैं। अर्थात् अर्द्ध पुद्गल परावतन फाल तक, अधिक से अधिक रे संसार में रहते हैं । तदनन्तर उन्हें मुश्ति प्राप्त हो
लाती है।
__... संसारी पाणी चाहे जितना और चाहे जितने विषयों का गंभीर शान प्राप्त कर ले किन्तु उसका शान अत्यन्त शुद ही रहता है। जगन में अनन्त सूक्ष्म और सनम तर भाय ऐसे हैं जिनका शान शस्थ जीवों को कदापि नहीं हो सकता । अनन्त पदार्थी लो जाने दिया जाय, और केवल एक दी पदार्थ को लिया जाय तो भी रही कहना होगा कि अनन्त धर्मात्मक एक पदार्थ को, उसकी कालिक अनन्तानन्त
र्यायों सहित जानना छद्मस्थ के लिए संभव नहीं है । एक पदार्थ में अनन्त धर्म मीर एक-एक धर्म की पनन्त पर्याय मला सर्चम जीर कैसे जान सकता है । इस प्रकार एकही पदार्थ का पूर्ण सान न हो तब सम्पूर्ण पदाधों के वास्तविक स्वरूप को जानते का दावा कौन कर सकता है। इसीलिए यागम में कहा है--
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[ २४८ ]
सम्यक्त्व-निरूपण..
छाया:
- मिथ्यादर्शन रक्ताः सनिदाना हि हिंसकाः ।
इति ये म्रियन्ते जीवाः तेषां पुनर्दुर्लभा बोधीः ॥ ६॥
शब्दार्थः - मिथ्यादर्शन में आसक्त, निदान - सहित और हिंसक, होते हुए जो जीव मरते हैं, उन्हें पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति दुर्लभ है !
भाष्यः:- सम्यग्दर्शन के अंगों का निरूपण करके यह बताया जा रहा है कि जो इन अंगों का सेवन नहीं करते, श्रतएव जो मिथ्यादृष्टि हैं, उन्हें क्या फल प्राप्त होता है ?
जो जीव मिथ्यादर्शन से युक्त हैं अर्थात् कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और कुतत्व पर प्रास्ता रखते हैं, जो निदान शल्य वाले हैं अर्थात् आगामी विषय-भोगों की आकांक्षा मन में रखकर धर्म क्रिया करते हैं और जो हिंसक हैं अर्थात् जीव-व -वध रूप पाप कर्म . हैं, वे यदि इन दोषों से युक्त होते हुए मरते हैं तो मिथ्यादृष्टि होने के कारण तथा निदान और हिंसा शील होने से उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति होना बहुत कठिन होता है ।
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मूलगाथा में ' पुण ' शब्द यह सूचित करता है कि मिथ्या दर्शन में श्रसक्कि आदि कारणों से जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन करदिया है, उन्हें फिर से अर्थात् श्रागामी भव में सम्यक्त्व दुर्लभ हो जाता है ।
मूल :- सम्मदंसणरत्ता, अनियाणा सुकलेसमोगाढा | इय जे मरंति जीवा, खुलहा तेसिं हवे वोही ॥१०॥
छाया:- सम्यग्दर्शनरका ग्रनिदाना शुक्लेश्यामवगाढाः । इति ये त्रियन्ते जीवाः, सुलभा तेषां भवति बोधिः ॥ १० ॥
शब्दार्थः--जो जीव सम्यक् दर्शन में आसक्त हैं, निदान से रहित हैं, शुक्ल लेश्या से सम्पन्न हैं, उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति सुलभ होती है ।
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भाग्यः - मिथ्यादर्शन आदि में आसक्त अन्तःकरण वाले जीवों को बोधि की दुर्लभता प्रतिपादन कर सूत्रकार यह बताते हैं कि वोधि अर्थात् सम्यक्त्व सुलभ किसे होता है ?
जो प्राणी सम्यग्दर्शन में रक्त हैं- जिनवर के वचन में प्रगाढ़ श्रद्धान रखते हैं, जिनोक्ल मार्ग में अविचल रहते हैं, तथा जो निदान शल्य से रहित हैं और जो शुक्ल लेश्या से शोभित हैं, उन्हें बोधि की उपलब्धि सुलभ होती है।
तपस्या, व्रत-नियम आदि आध्यात्मिक क्रियाएँ करते समय, कर्त्ता को निष्काम होना चाहिए। जो सांसारिक सुख की अभिलाषा रखकर धर्म- क्रिया करता है वह उस अभागे, किसान के समान है जो सिर्फ भूसा पाने के लिए धान्य-चपन करता है | वास्तव में धान्य-लाभ के उद्देश्य से की जाने वाली कृषि के द्वारा कृषक को धान्य के साथ भूसा भी मिल जाता है, इसी प्रकार जो अनन्त श्रात्मिक सुख को
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छठा अध्याय
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सन्मुख रख कर धर्मानुष्ठान करता है उसे सांसारिक सुख तो अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं, उनकी कामना करने से आध्यात्मिक फल की प्राप्ति रुक जाती है । सांसा रिक लाभ के लिए की जाने वाली क्रिया का दुरुपयोग इसी प्रकार है जैसे कौश्रा उड़ाने के लिए समुद्र में चिन्तामणि फेंक देना । निदान से धर्म क्रिया संसार के असार विषय-भोगों के लिए बिक जाती है । इसी प्रकार निदान को शूल्य कहा गया है । शल्य - रहित जीव ही व्रती होता है । कहा भी है-' निःशल्यो व्रती । ' अतएव सम्यग्दर्शन में श्रसस्त होकर, निदानशल्य का त्यागकर, उत्कृष्ट परिणाम बनाये रखना ही सम्यक्त्व की सरलता पूर्वक पाने का मार्ग है ।
मूल:- जिणवयणे अणुरता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं । मला असंकि लिट्टा, ते होंति परिचसंसारी ॥ ११ ॥
छाया:- जिनवचनेऽनुरक्ता, जिनवचने ये कुर्वन्ति भावेन । अमला असंक्लिष्टाः, ते भवन्ति परीत संसारिणः ॥ ११ ॥
शब्दार्थः -- जो जीव जिन भगवान् के वचन में श्रद्धावान हैं और जो अन्तःकरण से जिन-वचन के अनुसार अनुष्ठान करते हैं, वे मिध्यात्व रूपी मल से रहित तथा संक्लेश से रहित होकर परीत संसारी बन जाते हैं ।.
भाग्य - सम्यदर्शन के फल का निरूपण करते हुए सूत्रकार ने यह बताया है कि जो भाग्यवान् प्राणी जिन भगवान् के वचनों में आसक्त होते हैं अर्थात् वीतरागोक्त श्रागम पर सुद्दढ़ श्रद्धा रखते हैं, किसी भी अवस्था में, किसी भी संकट के आ पढ़ने पर भी वीतराग - प्ररूपित आगम से विपरीत श्रद्धान नहीं करते हैं, साथ ही जिनोक्ल आगम के अनुसार ही चलते हैं, वे . मिध्यात्व आदि रूप कर्म - मल से रहित हो जाते हैं। उन्हें कर्म-बंधजनक संक्लेशं भी नहीं होता है और वे अनन्त काल तक के अव-भ्रमण को घटा कर सीमित कर लेते हैं । अर्थात् श्रई पुगल परावर्त्तन काल न्तक, अधिक से अधिक वे संसार में रहते हैं । तदनन्तर उन्हें मुक्ति प्राप्त हो लाती है।
संसारी प्राणी चाहे जितना और चाहे जितने विषयों का गंभीर ज्ञान प्राप्त कर लेवे किन्तु उसका ज्ञान अत्यन्त क्षुद्र ही रहता है । जगत् में अनन्त सूक्ष्म और सूक्ष्म तर भाव ऐसे हैं जिनका ज्ञान छुशस्थ जीवों को कदापि नहीं हो सकता । अनन्त पदार्थों को जाने दिया जाय, और केवल एक ही पदार्थ को लिया जाय तो भी यही कहना होगा कि अनन्त धर्मात्पक एक पदार्थ को, उसकी चैकालिक अनन्तानन्त पर्यायों सहित जानना छद्मस्थ के लिए संभव नहीं है । एक पदार्थ में अनन्त धर्म और एक-एक धर्म की अनन्त पर्यायें भला सर्व जीव कैसे जान सकता है ? इस प्रकार एक ही पदार्थ का पूर्ण ज्ञान न हो तब सम्पूर्ण पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानते का दावा कौन कर सकता है ? इसीलिए आगम में कहा है
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[ २५० ]
सम्यक्त्व-निरूपण 'जे एगं जाण्इ से सव्वं जागइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाण । अर्थात् जो एक पदार्थ को उसकी समस्त सदभारी और क्रमभावी पर्यायों सहित जानता है वही समस्त पदार्थों को जानता है और जो समस्त पदार्थों को परिपूर्ण रूपेण जानता है वही एक पदार्थ को परिपूर्ण रूप से जानता है। तात्पर्य यह है कि एक पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी अनन्तज्ञान की आवश्यक्ता है और जब अनंत ज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब सभी पदार्थ स्पष्ट प्रतिभासित होने लगते हैं। ..
___ जब संसारी जीव ज्ञान के विषय में इतना दरिद्र है तो उसे किसी ज्ञानी का शरण लेना चाहिए । अंधा यदि सुझते की सहायता के बिना ही यात्रा करेगा तो गर्त में गिरकर असफल होगा। इसी प्रकार प्रात्मकल्याण के दुरुह पथ पर अग्रसर होते समय जो ज्ञानी जनों के बचन को पथप्रदर्शक न बनाएंगा वह अपनी यात्रा में सफल नहीं हो सकता । ज्ञानी महापुरुष के वचनों का आश्रय लेकर-उन्हीं के सहारे प्रगति करने वाला पुरुष ही अपने लक्ष्य पर पहुंच सकता है।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ज्ञानीके वचनों पर पूर्ण श्रद्धान रख कर चलने से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है, यह तो ठीक है, किन्तु जानी किले माना जाय? संसार में अनेक मत-मतान्तर है और सभी मतावलम्बी अपने इष्ट प्राराध्य पुरुष को जानी मानते हैं । फिर भी उन सव मतों में पर्याप्त अन्तर है । एक मत श्रात्मकल्याण की जो दिशा सूचित करता है, दुसरा मत उससे विपरीत दिशा सुझाता है । ऐसी अवस्था में मुमुनु को किसका ग्रहण और किसका परिहार करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार ने यहां उदारता पूर्वक दिया है । जिस महा पुरुष ने राग-द्वेष श्रादि समस्त आत्मिक विकारों पर अंतिम विजय प्राप्त करली है, उसे जिन कहते हैं । जिन अवस्था तभी प्राप्त होती है जब सर्वज्ञ दशा प्राप्त हो जाती है । इस कारण जो सर्वज हैं और जिन अर्थात वीतराग हैं, उनका वचन अन्यथा रूप नहीं हो सकता । अतएवं मुमुनु जीवों को 'जिन' के वचनों पर ही. श्रद्धान करना चाहिए उन्हीं के वचनों को अपनी मुक्ति-यात्रा का प्रकाश-स्तम्भं . बनाना चाहिए। जिन कदापि अन्यथावादी नहीं हो सकते, इस प्रकार की अविचल.. प्रतिपत्ति के साथ प्रवृत्ति करने वाला पुरुष ही मुक्ति प्राप्त कर सकता हैं। जो जिनबचन पर श्रद्धान नहीं करता अर्थात जो संशयात्मक है अथवा रागी-द्वेषी पुरुषों के. वचन प्रमाण मानता है, वह या तो श्रेयोमार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकता या विपरीत प्रवृत्ति करके अश्रेयस. का भागी होता है। सम्यग्दृष्टि पुरुष को श्रद्धा योग्य विषय में . श्रद्धा करनी चाहिए और तर्क द्वारा निश्चय करने योग्य पदार्थ का तर्क से निर्णय करना चाहिए। तर्क के विषय में आगम और आगम के विषय में तर्क का प्रयोग करना उचित नहीं है। आचार्य सिद्धसेन कहते हैं
जो हेउवायपक्खम्मि हेडो, श्रागमें य आगम श्रो। सो ससमयपरणवो, सिद्धंतविराह ओ अन्ना ॥
-सन्मति तर्क, गाथा ४५ . ..
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छठा अध्याय
[ २५१ ] . अर्थात् जो हेतुवाद के विषय में हेतु से और भागमवाद के विषय में आगम से प्रवृत्त होता है वह स्वसमय का प्ररूपक (श्राराधक ) है और जो हेतुवाद के विषय में पागम से तथा आगम के विषय में हेतु से प्रवृत्त होता है वह सिद्धान्त का जिराधक है।
इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष न तो एकान्त श्रद्धा पर अवलम्बित रहता है और न एकान्त तर्क पर आश्रित होता है। प्ररूपणीय विषय की योग्यता का विचार करके यथायोग्य विवेक के साथ निश्चय करता है । जो विषय केवल श्रद्धा का होता है उसमें तर्क का हस्तक्षेप नहीं होने देता. क्योंकि ऐसा करने से यथार्थ निर्णय होना संभव नहीं है तथा तर्क द्वारा निर्णय होने योग्य विषय में श्रागम का ही श्राग्रह नहीं रखता है। ऐसा करने से उसकी श्रद्धा भी अविचलित रहती है और विचारशक्ति की भी वृद्धि होती है, पर सम्यग्दृष्टि इस बात का ध्यान अवश्य रखता है कि तर्क का निर्णय आगम से विरुद्ध नहीं होना चाहिए। जो तर्क आगम के विरुद्ध वस्तु तत्त्व उपस्थित करता है, समझना चाहिए कि उसमें कहीं दोष अवश्य है । विशुद्ध तर्क श्रागम से समन्वित होता है, आगम का साधक होता है, नागम का प्रतियही नहीं होता। मूल:-जातिं च बुट्टिं च इहज पास,
भूतेहिं जाणे पडिलेह सायें। तम्हाऽतिविजो परमंति णचा,
सम्मत्चदंसी ए करेइ पावं ॥१२॥ झाया:-जाति च वृद्धिं च इह दृष्ट्वा, भूतात्वा प्रतिलेय सातम् । . .. तस्मादतिविज्ञः परममिति ज्ञात्वा, सम्यक्तदर्शी न करोति पापम् ॥१२॥ . शब्दार्थः-इस संसार में जन्म और वृद्धावस्था को देखो और यह देखो कि सब प्राणियों को सात्रा-सुख प्रिय है । ऐसा विचार कर, मोक्ष को जान्द कर तत्त्वज्ञ सम्यग्दृष्टि पाप नहीं करता है।
. भाष्यः-संसार में जन्म और वृद्धावस्था प्रत्येक प्राणी को पीडित कर रही है। जगत् के समस्त जीव साता अर्थात् सुख चाहते हैं। सब जीव सुख के लिए ही प्रवृत्ति कर रहे हैं। क्या मनुष्य, क्या पशु-पक्षी, और क्या कीड़े-मकोड़े-सभी की एक मात्र इच्छा सुख पाने की है। सभी दुःख से बचना चाहते हैं । जिस तिर्यञ्च योनि में कोई मनुष्य जाना नहीं चाहता, उसमें भी गये हुए जीव मृत्यु के भय से भीत होकर मरना नहीं चाहते । जैसे हमें सुख प्रिय है, उसी प्रकार सब अन्य प्राणियों को श्री सुख प्रिय है । जैसे हमें दुःन अप्रिय है वैसे ही दूसरों को भी वह अप्रिय है। ऐसा विचार करके और मोक्ष का विचार करके तत्त्व को यथार्थ रूप से जाननेवाला सम्यग्दर्शनवान् व्यक्ति पाप नहीं करता है। ....
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[ २५२ ]
सम्यक्त्व-निरूपण'
तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव जितने अंश में स्वात्मा में स्थित और परंपदार्थों से निरपेक्ष होता है उतने अंश में उसे पाप का बन्ध नहीं होता है। कहा भी हैयेनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य वन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥
अर्थात् जिस अंश से सम्यग्दर्शन है उस अंश से बन्धन नहीं है और जिस अंश से राग है, उस अंश से बन्धन होता है ।
मूलः - इो विद्धंसमाणस्स, पुणेो संबोहि दुल्लहा । दुल्लहा तहच्चाओ, तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥ १३ ॥
छाया:- इतो विध्वंसमानस्य पुनः संबोधिदुर्लभा ।
दुर्लभा तथा, ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति ॥ १३ ॥
शब्दार्थ:- यहाँ से मरने के अनन्तर पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होना प्रायः दुर्लभ हैं तथा धर्म रूप अर्थ का प्रकाश करने वाले मानव शरीर का मिलना भी कठिन हैं ।
भाष्यः – सम्यक्त्व नामक अध्ययन का उपसंहार करते हुए, अंत में यह बताया गया है कि जिन्हें सम्यक्त्व को प्राप्त करने का सद्भाग्य हो चुका है, उन्हें अत्यन्त सावधानी के साथ सम्यक्त्व की रक्षा करनी चाहिए । जब जड़ रूप पदार्थ भी संभाल कर रखे जाते हैं तब सम्यक्त्व जैसे अभीष्ट फल प्रदान करने वाले परमोत्तम चिन्तामणि रत्न की, लोकोत्तर आनन्द का अभ्यास कराने वाले साक्षात् कल्पवृक्ष की तथा भव-भव की तृषा शान्त करने वाला क्षीर प्रदान करने वाली दिव्य कामधेनु को अर्थात् सम्यक्त्व को सुरक्षित, स्वच्छ और निरतिचार बनाये रखना तो मानव प्राणी का सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य है । मिथ्यात्व की और आकृष्ट करने वाले आकर्षण से बचना; आत्मा की अमोघ शक्ति पर श्रद्धा रखना, जीवन को पवित्र और श्रद्धामय बनाना इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ है । जो प्राणी पाप कर्म के उदय से, स्वार्थ, वासना या निर्बलता से सम्यक्त्वं का त्याग कर देते हैं मिध्यावियों का आडम्बर देखकर सन्मार्ग से फिसल जाते हैं, वे कई जीवन की कमाई को गँवा देते हैं और में मिथ्यात्व की अवस्था में मृत्यु प्राप्त करके नरक- निगोद आदि दुर्गतियों के अतिथि बनते हैं । उन्हें फिर लम्यक्त्व की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन हो जाता है, यहाँ तक कि मनुष्य-शरीर भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है.। अतएव सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए तथा उसकी विशुद्धि के लिए निरन्तर उद्यत रहना चाहिए। ऐसा करने से अन्त में एकान्त सुख की प्राप्ति होती है ।
अति
निर्ग्रन्थ- प्रवचन- छठा अध्याय "
समाप्तम्
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * नियता छचन
। सातवां अध्याय ॥
धर्म-निरूपण
श्रीभगवान् उवाचमूलः-महव्वए पंच अणुव्वए य, तहेव पंचासवसंवरे य । विरतिं इह सामणियंमि पन्ने, लवावसकी समणे तिमि ॥१॥ छाया:-महाव्रतानि पञ्च अणुव्रतानि च, तथैव पञ्चास्रवान् संवरं च ।
विरतिमिह श्रामण्ये प्राज्ञः, लवापशाङ्कीः श्रमण इति ब्रवीमि ॥1॥ शब्दार्थः-पांच महाव्रतों का पालन करना, पांच प्रकार के प्रास्रव से संवृत होना, इसे साधु-विरति कहते हैं । जो बुद्धिशाली और कर्मों का नाश करने में समर्थ होता है वह श्रमण है। पांच अणुव्रतों को देशविरति कहा गया है।
भाष्यः-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र मुक्ति का मार्ग है, यह निरूपण किया जा चुका है। इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। इनमें से ज्ञान और दर्शन का पछले दो अध्ययनों में विवेचन करके अब क्रमप्राप्त चारित्र का वर्णन किया जाता है । रत्नत्रय में चारित्र का अन्त में वर्णन इसलिए किया जाता है कि चारित्र सम्यरदर्शन और सस्यग्ज्ञान का फल है। दोनों की प्राप्ति के पश्चात् ही चारित्र की प्राप्ति होती है-पहले नहीं।
जिनप्रणीत धर्म सार्व है-सर्व कल्याणकारी है । अतएव उसमें चारित्र का जो प्ररूपण किया गया है वह श्रमणों और श्रावको-दोनों को लक्ष्य करके किया गया है। इस कारण अधिकारी के भेद से चारित्र के भी दो भेद होते हैं-(१) सकलचारित्र या सर्वविरति और (२) विकलचारित्र या देशविरति । जिनागम-प्रतिपादित अहिंसा आदि व्रतों का सर्वाश से पालन करना सर्वविरति है और सांसारिक व्यापारों में लीन होने के कारण सर्वांश में अहिंसा आदि व्रतोंका पालन करने में असमर्थ गृहस्थों द्वारा कुछ अंशों में उक्त व्रतों का पालन करना देशविरति है। साधु और श्रावक के बत यद्यपि समान हैं, परन्तु उनकी पालन करने की मर्यादा विभिन्न होती है। जैसे साधु त्रस, स्थावर, सापराधी, निरपराधी आदि समस्त प्रकार के जीवों की हिंसा का तीन करण और तीन योग से त्याग करते हैं और गृहस्थ केवल उस जीवों की, उसमें भी निरपराधी जीव की संकल्पी हिंसा का परित्याग करता है । यही विषय आगे विशद किया जाता है। पाँच महावत इस प्रकार हैं:
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धर्म-निरूपण (१) अहिसा महाव्रत-मन से, वचन से और काय से किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, न दूसरे से कराना और हिंसा करने वाले की अनुमोदना न करना।
(२) सत्य महाव्रत-असत्य, अप्रिय, क्लेशकारक, संदेहजनक तथा हिंसाजनक भापण न करना, हित, मित और पथ्य वचन बोलना।
(३) अचौर्य महाव्रत-सूक्ष्म या स्थूल कीमती या अनकीमती, यहाँ तक कि दांत साफ करने के लिए घास का सूखा तिनका भी विना दिये न ग्रहण करना।
(४) ब्रह्मचर्य महाबत--ब्रह्मचर्य का पूर्णरूपेण पालन करना अपनी समस्त इन्द्रियों का संयम करना, विपयविकार को समीप न आने देना।
(५) अपरिग्रह महाव्रत- बाह्य और श्रान्तरिक परिग्रह का परित्याग करना, आत्मा से भिन्न समस्त पदार्थ पर हैं उन सब से ममता हटा लेना, शासक्ति का त्याग करना, मू भाव का समूल नाश कर देना अपरिग्रह महावत कहलाता है।
__ यहां सर्वविरति के रूप में महाव्रता का उल्लेख उपलक्षण मात्र है। इससे पांच समितियों और तीन गुप्तियों का भी ग्रहण करना चाहिए और शास्त्र-प्रतिपादित अनाचीर्ण आदि समस्त विधि-विधानों का समावेश करना चाहिए । जैसे स्नान न करना, शरीर-संस्कार न करना, मालिश और उबटन न करना, खुले माथे रहना, पैदल विहार करना, पलंग आदि पर न बैठना, चिकित्सा न करना, वस्ती कर्म और . विरेचन का त्याग करना, आदि-आदि साधु का समस्त आचार. यहां समझ लेना चाहिए । दशवकालिक आदि सूत्रों में उसका प्रतिपादन विस्तारपूर्वक किया गया है, अतएव जिज्ञासु वहां देखें । विस्तार के प्राधिक्य से यहां उसका निरूपण नहीं किया जाता है। ... मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच अानव हैं,इन पांचों प्रकार के प्रास्त्रवों से रहित होना भी साधु-विरति है। गृहस्थ सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मिथ्यात्व ले और देशविरति प्राप्त करके एक देश अविरति से मुक्त होते हैं, पर पांचों प्रकार के प्रास्त्रवों से महामुनि ही मुक्त होते हैं।
देशविरति, देशसंयम, संयमासंयम और गृहस्थधर्म या अणुविरति समानार्थक शब्द हैं। श्रावक देशविरति का अाराधक होता है । देशविरत्ति मुख्य रूप से वारह व्रत रूप है । वारह व्रत इस प्रकार हैं:... (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण-त्रस जीवों की, विना अपराध किये जान वझकर-मारने की बुद्धि से हिंसा का त्याग करना । तात्पर्य यह है कि गृहस्थ श्रावक जीविकोपार्जन के लिए वाणिज्य, कृषि आदि अनेक ऐसे कार्य करता है जिनमें स जीवों की भी हिंसा हो जाती है, किन्तु वह हिंसा संकल्पी-मारने की बुद्धि से की हुई नहीं है। वह प्रारंभी हिंसा है । उस हिंसा से श्रावक बच नहीं पाता, अतएव वह केवल संकल्पी हिंसा का ही त्याग करता है । फिर भी श्रावक यथासंभव यतता के साथ ही प्रवृत्त होता है और त्रस जीवों की तथा स्थावर जीवों की निष्प्रयोजन हिंसा
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सातवां अध्याय -
[ २५५. ] से बचने का सदैव ध्यान रखता है । श्रावक विरोधी हिंसा का भी प्रागार रखता है। यदि कोई श्रावक राजा, मंत्री या सेनापति है और उसके देश पर कोई आक्रमण करता है तो वह देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए शस्त्र उठाता है। इसी प्रकार यदि कोई डाकू या अन्य शत्रु उस पर या उसके कुटुम्ब आदि पर हमला करता है अथवा अन्याय का प्रतीकार करने के लिए जब शस्त्रप्रयोग की आवश्यकता समझता है तब वह शस्त्र ग्रहण करता है इस प्रकार की विरोधी हिंसा स्थूल प्राणातिपात विरमण बत की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती।
अलवता, जब हिंसा अनिवार्य होती है तभी वह इस प्रकार की हिंसा में प्रवृत्त होता है। प्राचीन काल में अाक्रमण करने से पहले, जिस पर आक्रमण किया जाता था उसे समस्या सुलझाने के लिए शान्तिपूर्ण उपायों का अवलम्बन करने की सूचना दे दी जाती थी। उसका उद्देश्य यही था कि हिंसा के बिना ही यदि प्रयोजन सिद्ध होने की संभावना हो तो हिला का प्रयोग न किया जाय, क्योंकि ऐसा करने से वह हिंसा निरपराधी की हिंसा हो जायगी और श्रावक निरपराधी की हिंसा का त्यागी होता है । पहले सूचना देने पर भी यदि अन्यायी व्यक्ति अपने अन्याय का प्रतिकार नहीं करता तो वह अपराधी हो जाता है और उस अवस्था में उसकी हिंसा सापराधी की हिंसा कहलाएगी। इस हिंसा का श्रावक श्रागार रखता है । सारांश यह है कि युद्ध से पहले सूचना देने के नियम में सापराधी और निरपराधी की हिंसा का भेद ही कारण है, और इस भेद पर श्रावक का अहिंसाणुव्रत टिका हुआ है। जैन शास्त्रों का यह विधान प्राचीन काल में प्रायः सर्वसम्मत बन गया था और किसी रूप में आज तक चलता आ रहा है, यद्यपि आज कल वह निष्प्राण बन गया है।
श्रावफ निरर्थक हिंसा से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहता है। वह गृहस्थी के प्रत्येक कार्य इस प्रकार सम्पादन करता है कि जिस से अधिक से अधिक हिंसा से बच सके। उदाहरणार्थ-सच्चा थावक रात्रि में दधि का विलोवन नहीं करताकराता अर्थात् छाछ नहीं बनाता, भोजन नहीं बनाता, रात्रि भोजन नहीं करता, तीक्षण झाडू से जमीन नहीं बुहारता आदि । क्यों कि ऐसा करने से त्रस जीवों की हिंसा की संभावना रहती है । इसी प्रकार मल-मूत्र आदि.अशुचि पदार्थों से व्याप्त पाखाने में शौच क्रिया करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि इससे असंख्यात सस्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती है। यही नहीं, किन्तु उपदंश और प्रमेह आदि रोग के रोगियों के पेशाब पर पेशाब करने से उपदंश आदि रोग भी हो जाते हैं । मत्कुण आदि जीवों का बध करने के लिए वस्त्रों को, पट्टों को अथवा पलंग आदि को उष्ण जल में डालना या अन्य प्रकार से उनकी निर्दयतापूर्ण हिंसा करना भी श्रावक के योग्य कर्तव्य नहीं है । चूल्हा, चक्की, ईधन, वस्त्र, पात्र श्रादि-आदि गृहोपयोगी पदार्थों को विना देखे-भाले काम में लाने से मी त्रस जीवों की हिंसा होती है। अतएव पापभीरु श्रावक छानों का प्रायः उपयोग नहीं करते, घुनी हुई लकड़ी का उपयोग नहीं
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धर्म-निरूपण करते हैं, चक्की और चूल्हे को भली भांति देख लेते हैं कि कोई उस जीव उसका श्राश्रय लेकर स्थित न हों। मिर्च और धनिया आदि मसालों में कुछ दिन के बाद जीवों की उत्पत्ति हो जाती है अतएव श्रावक उनका उपयोग भली भांति देख कर ही करता है । इसी प्रकार पिसाहुश्रा आटा, चेसन आदि की मर्यादा दस दिन की हैं। इस से अधिक समय तक रखा हुअा अाटा वेसन वगैरह काम में नहीं लिया जाना चाहिए । इस प्रकार दाल, भात, रोटी, पूढ़ी, मिठाई, दूध, दही, आदि-आदि समस्त भोज्य पदार्थ विकृत होगये हों, उनका स्वाद बिगड़ गया हो, वे तड़बड़ा गये हों, उन में फूलण व लाला उत्पन्न होगई हो तो उन्हें नहीं खाना चाहिर । क्यों कि फिर उनमें जीवों की उत्पत्ति हो जाती है।
रसोई घर में, जल गृह, भोजन करने की जगह, ऊखली, आटा आदि छानने की जगह, चक्की के ऊपर, इत्यादि स्थानों पर ऊपर चंदोवा न होने से छोटा-बड़ा जीव-जन्तु गिरकर भोज्य सामग्री में मिल जाता है। इसले जीव हिंसा होती है और अभक्ष्य-भक्षण का भी दोप लगता है। अतएव ऐसे स्थानों पर विवेकी श्रावक चंदोका बांधता है। साथ ही चूल्हा, चाकी श्रादि चीजों को, जब उनका उपयोग न करना हो तो खूला नहीं रखना चाहिए । खुला छोड़ देने से सूक्ष्म जीव उनमें घुल जाते हैं और उपयोग करते समय उनकी हिंसा हो जाती है । प्राचार या इस प्रकार की अन्य वस्तुओं के पात्र खुले रखनेसे भी हिंसा आदि अनेक अनर्थ होते हैं, अतएव ऐसे पात्रों को खुला नहीं रखना चाहिए।
विचारशील श्रावक जल के उपयोग के सम्बन्ध में भी विवेक से काम लेता है। जल के एक बूंद में केवली भंगवान् ने असंख्यात जीवों की विद्यमानता बताई है। माइक्रोफोन नामक प्राधुनिक यंत्र से भी हजारों चलते-फिरते जीव एक वृंद में देखे जाते हैं। ऐसी अवस्था में एक विन्दु जल का व्यर्थ व्यय करने से असंख्यात जीवों की निरर्थक हिंसा होती है। अहिंसाणुव्रती श्रावक इस हिंसा से बचने का सदैव प्रयत्न करता है। जितना जल स्नान-पान आदि के लिए अनिवार्य है उतना ही व्यय करता है. उससे अधिक नहीं। और वह भी बिना छने हुए जल का कदापि उपयोग नहीं करता । ग्रन्थों में जल छानने के सम्बन्ध में कहा है कि-रंगे हुए और पहने हर वस्त्र से जल नहीं छानना चाहिए । श्रावक दो पड़ती खादी के वस्त्र से जिस
की किरणें साफ न नज़र आती हो-जल छानते है । छानते समय ऐसी सावधानी रखनी है कि एक भी द जल ज़मीन पर न गिरने देते। छानने पर छन्ने में जो कडा-कचरा या चिंउटी आदि जन्तु इकठ्ठा हो जाते हैं, उन्हें हाथ से नहीं खाते किन्तु यतनापूर्वक, धीरे से, दुसरे पात्र में जोधा कर छना हुआ जल दूसरी ओर से डाल देने के कारण वह कचरा आदि उस दूसरे पात्र में श्रा जाता है। उस पानी को 'जिवानी' कहते हैं। जिवानी इधर-उधर भूमि पर नहीं डालना चाहिए और न दूसरे जलाशय में ही डालना चाहिए । जिस जलाशय का जल हो उसी जलाशय में जिवानी डाल कर श्रावक जीव-रक्षा करते हैं । जिवानी डालने में भी प्रयतना नहीं करनी
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सातवां अध्याय
[ २५७ ] चाहिए। ऊपर से जिवानी डालने पर हिंसा होती है अतः जिस पात्र से जिवानी डालनी हो उसमें श्रावक दो रस्सियां लगा देते और पानी के निकट पात्र पहुंच जाने पर नीचे वाली रस्सी खेंच कर यतनापूर्वक जिवानी पानी में मिला देते हैं।
सारांश यह है कि श्रावक का श्राचार इस प्रकार नियमित हो जाता है कि बह स्थावर जीवों की निष्प्रयोजन हिंसा से बचने का सदा प्रयत्न करता रहता है और प्रत्येक कार्य में यतना तथा विवेक का ध्यान रखता है। प्रथम अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार इस प्रकार है
(१) बन्ध-क्रोध के वश होकर किसी जीव को बांधना । बन्ध दो प्रकार का है-द्विपदबन्ध और चतुष्पदबन्ध । इन दोनों बन्धों के भी दो-दो भेद हैं-सार्थकबंध और निरर्थकबंध । निरर्थकबन्ध श्रावक के लिए त्याज्य है । सार्थकबन्ध के दो भेद हैं-सापेक्षबन्ध और निरपेक्षबन्ध । ढीली गांठ आदि से बांधना सापेक्षबन्ध है और गाढ़े बन्धन से बांधना निरपेक्षबन्ध है। श्रावक को यथायोग्य रूप से पशु आदिको को इस प्रकार न बांधना चाहिए जिससे उन्हें कष्ट हो और अग्नि आदि का उत्पात होने पर सहज ही वह बन्धन खोला जा सके ।
- (२) वध-कषाय के आवेश से लकड़ी, चाबुक आदि से ताड़ना करना वध नामक अतिचार है । वध के भी सापेक्ष और निरपेक्ष के भेद से दो भेद हैं और श्रावक को निरपेक्ष वध का सर्वथा त्याग करना चाहिए ।
(३) छविच्छेद-शरीर को या चमड़ी श्रादि अवयों को छेदन करना छविच्छेद अतिचार है। जो छविच्छेद कषाय के आवेश से किया जाता है वह श्रावक धर्म को दूषित करता है।
(४) अतिभारारोपण-घोड़ा, बैल, ऊँट, मनुष्य आदि के सिर पर, कंधों पर या पीठ पर अधिक बोझ लाद देना, जो उन्हें असह्य हो, अतिभारारोपण अतिचार कहलाता है। क्रोध या लोभ के वश होकर अनेक मनुष्य बैलगाड़ी, तांगा आदि पर असा बोझ लाद देते हैं, या अधिक मनुष्य बैठ जाते हैं, जिससे उसमें जुतने वाले बैल आदि मूक पशुओं को बहुत कष्ट होता है । अहिंसाणुव्रती दयालु श्रावक को ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए।
(५) अन्नपाननिरोध-क्रोध के वश होकर अपने आश्रित मनुष्य और पशु. श्रादि को भोजन-पानी न देना अन्नपाननिरोध अतिचार है । श्रावकं को ऐसा निर्दय ब्यवहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि तीव्र भूख लगने से कभी किसी प्राणी की मृत्यु हो जाती है। अगर मृत्यु न हो तो भी उसे अत्यन्त कष्ट होता है। अतएव जब भोजन का समय हो तो अपने आश्रित समस्त मनुष्यों और पशुओं की सार-संभाल किए बिना नहीं रहना चाहिए और जो भूखे-प्यासे हों उन्हें यथोचित ओजव-पान दिए बिना श्रावक वर्ग भोजन नहीं करते । बीमारी की दशा में भोजन न देना अन्नपान निरोध अतिचार वहीं है। यह बताने के लिए ' क्रोध के वंश होकर' ऐसा कहा गया है।
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धर्म-निरूपण (२) स्थूलमृषावाद विरमणव्रत-साधु मृषावाद का पूर्णरूपेण परित्याग करते हैं, किन्तु श्रावक के लिए ऐसा करना कठिन है । लोकव्यवहार में ऐसा अवसर अनेक बार उपस्थित हो जाता है जब उसे लत्य से किंचित अंशों में च्युत हो जाना पड़ता है अतएव जिनेन्द्र भगवान् ने श्रावक को स्थूल मृषावाद अर्थात् मोटे असत्य का परित्याग करना ही अनिवार्य बतलाया है । स्थूल असत्य के पांच भेद हैं । वे इस प्रकार हैं
(१) कन्यालीक-कन्या के विषय में असत्य भाषण करना कन्यालीक है। यहां यह शंका की जा सकती है कि केवल कन्या के विषय में ही असत्य बोलना स्थूल असत्य क्यों हैं ? अन्य पुरुष, स्त्री या बालक के विषय में असत्य बोलना क्यों स्थल असत्य नहीं है ? इसका समाधान यह है कि 'कन्या' शब्द यहां उपलक्षण है । अतएव कन्या शब्द से यहां मनुष्य जाति मान का अथवा द्विपद मात्र का ग्रहण होता है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य जाति या किसी भी द्विपद प्राणी के विषय में मिथ्या भाषण करना कन्यालीक कहलाता है और श्रावक को इसका परित्याग करना चाहिए । यहां 'कल्या' शब्द को ग्रहण करने का प्रयोजन कन्या की प्रधानता प्रकट करना है। कन्या मनुष्य जाति या द्विपद प्राणियों में प्रधान है । उसके विषय में अलत्य भाषण करने से बड़े-बड़े अनर्थ होते देखे जाते हैं। कन्या सुन्दरी, गुणवती, वुद्धिशालिनी हो और स्वार्थवश उसे कुंरूपा, काली कलूटी, अंधी, लली, लंगड़ी मूर्ख आदि कह देना, श्रावक को उचित नहीं है। इसी प्रकार अन्य मनुष्यों और द्विपदों के विषय में भी असत्य न कहना चाहिए। . .
(२) गवालीक-गो के विषय में मिथ्या भाषण करना गवालीक शब्द का अर्थ होता है । किन्तु जैसे कन्यालीक शब्द में कन्या उपलक्षण है उसी प्रकार गवालीक शब्द में गो उपलक्षण है । कन्या शब्द से जैसे मनुष्य मात्र का अंथवा द्विपद मात्र का ग्रहण किया गया है, उसी प्रकार यहां गो शब्द से पशु जाति मात्र का अथवा चतुष्पदों (चौपायों) का ग्रहण किया जाता है। अंतएवं किसी भी पशु अथवा किसी भी चौपाये के विषय में असत्य भाषण करना गबालीक है । जैसे-किसी के तेज चलने वाले वैल को गरियाल कहना, शुभ लक्षणों से सम्पन्न अश्व को अशुभ लक्षण सम्पन्न कहना, दुधारी भैंस को विपरीत बतलाना आदि । इस प्रकार का स्थूल असत्य आपण श्रावकों के लिए सर्वथा परित्याज्य है। ... (३) भौमालीक-भूमि संबंधी मिथ्या भाषणं को भौभालीक कहते हैं। यहां पर भी भूमि शब्द उपलक्षण है। अतः भूमि शब्द से समस्त अपद वस्तुओं का ग्रहण किया जाता है अथवा भूमि से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थों का भूमि शंन्द से संग्रह किया जाता है। जैसे वृक्ष के विषय में असत्य भाषण करना, रत्न आदि वस्तुओं के संबंध में अन्त भापण करना, इत्यादि । श्रावक को इस असंत्य का भी त्याग करना चाहिए। ... (४) न्यास्तपहार अलीक-न्यास अर्थात् धरोहर का अपहरण करने के लिए
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सातवां अध्याय
२५६ ] किया जाने वाला मिथ्या भाषण न्यासापहार अलीक है। किसी की रक्खी हुई धरोहर के विषय में कह देना कि यह धरोहर हमारे यहां रक्खी ही नहीं है, अथवा बिना धरोहर धरे ही किसी से मांग लेना; इत्यादि अन्त भाषण का इसमें समावेश होता है।
. (५) कूटसाक्षी-अपने लाभ के उद्देश्य से, अपने प्रिय जन के लाभ के उद्देश्य से अथवा किसी को हानि पहुंचाने के लक्ष्य से, न्यायाधीश या पंचायत के समक्ष असत्य साक्षी देना अर्थात् सत्य घटना को असत्य और असत्य को सत्य रूप में चित्रित करना कूटसाक्षी कहलाता है । श्रावक के लिए यह सब अलीक अग्राहा हैं।
स्थूलमृषावाद विरमणव्रत के भी पांच अतिचार हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) सहसाभ्याख्यान (२) रहोऽभ्याख्यान (३) स्वदारमन्त्रभेद (४) मिथ्या-उपदेश और (५) कूटलेखकरण । .
(१) सहसास्याख्यान-बिना सोचे-विचारे सहसा किसी को कलंक लगा देना सहसास्याझ्यान है। जैसे-तू चोर है, तू दुराचारी है, आदि।
(२) रहस्यास्याख्यान-एकान्त में बैठ कर किसी बात का विचार करते हुए पुरुषों को देख कर कहना कि 'ये लोग राजा के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे होंगे' इस प्रकार की असत् और आपत्तिजनक संभावना लोक में प्रसिद्ध कर देना रहस्याभ्याख्यान अथवा रहोऽस्याख्यान नामंक अतिचार है।
(३) स्वदारमन्त्रभेद-विश्वासपात्र समझकर अपनी पत्नी द्वारा कही हुई किली गुप्त बात को प्रकाशित कर देना स्वदारमन्त्रभेद अतिचार है । गुप्त बात सच' होने पर भी, उसके प्रकाशन से लज्जाजन्य मृत्यु आदि अनेक अनर्थ हो सकते हैं। इस प्रकार हिंसाजनक वक्षन होने के कारण भेद का प्रकट करना सत्याणुव्रत का
अतिचार है। यह अतिचार पुरुष को प्रधान मान कर बताया गया है । स्त्रियों के लिए 'स्वपतिमन्त्रभेद' लमझना चाहिए अर्थात् अपने पति की गुप्त बात प्रकाशित करना स्त्रियों के लिए अतिचार है।
(४) मिथ्या-उपदेश-अनजान में अथवा असावधानी में मिध्या-उपदेश दिये जाने से यह अतिचार लगता है । जान-बूझकर समझ-सोचकर मिथ्या-उपदेश देने से व्रत का सर्वथा भंग हो जाता है । अथवा दूसरे को असत्यभाषण का उपदेश देना मिथ्या-उपदेश कहलाता है । जैसे-'अमुक अवसर पर मैंने अमुक मिथ्या वात कह कर अमुक काम बना लिया था। इस प्रकार कहने वाला व्यक्ति यद्यपि सत्य कहता है, फिर भी प्रकारान्तर से वह श्रोता को असत्यभाषण करने को उद्यत बनाता है, श्रतएव इस प्रकार का सत्यभापण भी मिध्या-उपदेश से समाविष्ट है और अणुव्रतधारी श्रावक को इसका त्याग करना चाहिए ।
(५) कूटलेखकरण-मिथ्या लेख लिख लेना, किसी की भूठी मोहर बना कर लगा लेना, जाली अँगूठा चिपका देना, इत्यादि कूटलेखकरण कहलाता है । भूठे दस्तावेजों का लिखना, झूठे समाचार प्रकाशित करना, निबंध लिखना, हुंडी आदि
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धर्म-निरूपण लिखना, यह सब इस अतिचार में सम्मिलित है, पर असावधानी में होने पर ही यह : अतिचार हैं, उपयोगपूर्वक करने पर अनाचार की कोटि में चले जाते हैं।
' (३) स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत-साधु दांत साफ करने के लिए तृण जैसी तुच्छ वस्तु भी विना दी हुई ग्रहण नहीं करते हैं, परन्तु श्रावक इस कोटि के अदत्तादान का त्याग करने में समर्थ नहीं हो सकता। अतएव वह राजा द्वारा दंडनीय
और लोक में निन्दनीय स्थूल चोरी का अवश्य ही त्याग करता है। शास्त्रकारों ने स्थूल चोरी के प्रधानतः पांच प्रकार प्ररूपित किये हैं। यथा
(१) सेंध लगा कर, दीवाल फोड़कर, किवाड़ तोड़कर, तिजोरी तोड़कर, दीवाल फांदकर, डाका डालकर या इसी प्रकार के किसी अन्य उपाय से किसी का . धन चुरा लेना, हर लेना।
(२) बाहर जाते समय कोई भद्र पुरुप किसी पड़ोसी आदि पर विश्वास करके अपनी गांठ, सन्दृक श्रादि उसके यहां रख जाय और वह पड़ोसी उसके परोक्ष में गांठ आदि खोल कर उसमें की मूल्यवान् वस्तु निकाल ले और ज्यों की त्यो गठड़ी वांध कर दे, इसी प्रकार सन्दुक आदि में वन्द कर दे, इस प्रकार का अदत्तादान भी स्थल अदत्तादान है। .
- (३) सबल पुरुष या अनेक साहली पुरुषों द्वारा निर्बल पुरुष को लूट लेना, उसका माल हरण कर लेना भी स्थूल अदत्तादान है।
(१) बहुत-से मनुष्य अपने मकान, दुकान आदि का ताला बन्द करके चाबी किसी विश्वासपात्र दूसरे को सौंप देते हैं । वह विश्वासपात्र व्यक्ति विश्वासघात कर के, ताला खोलकर कोई वस्तु निकाल लें और फिर ताला बन्द कर दे, तो उसका यह कृत्य स्थूल अदत्तादान है।
(५) किसी.की कोई वस्तु मकान के बाहर या रास्ते में गिर पड़ी हो, या कोई कहीं रखकर भूल गया हो, तो 'यह वस्तु उसकी है' ऐसा समझते हुए उसे उठाकर अपनी बना लेना भी स्थूल अदत्तादान है। ..
तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु के ग्रहण करने से राज्य द्वारा दंड मिल सकता है और जा.चोरी लोक में गहरे के योग्य समझी जाती है, तथा जिसके बिना दिये ग्रहण करने से उस वस्तु के स्वामी को दुःख होता है उस वस्तु को स्वामी की प्राज्ञा बिना ग्रहण करना स्थूल अदत्तादान में सम्मिलित होता है। श्रावक को ऐसी चोरी से वचना चाहिए। . .. . अदत्तादान विरमण व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं
(१) स्तेनप्रयोग (२) स्तेनहतादान (३) विरुद्धराज्यातिक्रम (8) प्रतिरूपक व्यवहार (५) हीनाधिकमानोन्मान । - . (२) स्तेनप्रयोग-चोर की चोरी करने की प्रेरणा करना, चोरी की अनुमोदना करना, चोरी के साधन उन्हें देना या बेचना स्तेनप्रयोग नामक प्रथम अतिचार हैं।
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सातवां अध्याय
। २६१ ] 'मैं चोरी करूं नहीं, इस प्रकार का व्रत लेने वाले श्रावक.का व्रत साक्षात चोरी करने से भंग हो जाता है। अतएव यहां अतिवार का स्वरूप इस प्रकार समझना चाहिए । जैसे-कोई किसी से कहे-' इस समय आप वेकार हैं क्या ? अगर आप की चुराई हुई वस्तुएँ बेचने वाला दूसरा न हो तो मैं उन्हें बेच दूंगा।' इस प्रकार कहकर चोर को प्रेरणा करने वाले और अपनी बुद्धि से प्रेरणा का परित्याग करने चाले को एक देशभंग रूप अतिचार लगता है ।
(२) स्तेनाहृतादान-चोर के द्वारा चुराई हुई वस्तु को ग्रहण करना । व्रती श्रावक 'मैं व्यापार ही कर रहा हूं, चोरी नहीं' इस प्रकार विचार करके जब चोरी की वस्तु ग्रहण करता है तब उसे अतिचार लगता है । चोरी की बुद्धि से ग्रहण करने पर व्रत सर्वथा खंडित हो जाता है।
(३) विरुद्धराज्यातिक्रम-विरोधी राज्यों द्वारा सीमित की हुई भूमि का उल्लंघन करना अर्थात् दूसरे राजा के राज्य में प्रवेश करके व्यापार आदि करना । व्यापार बुद्धि से सीमा का अतिक्रमण करने पर यह अतिचार लगता है, चोरी की भावना. से मर्यादा का उल्लंघन किया जाय तो व्रत की सर्वथा विराधना होती है।
(४) प्रतिरूपक व्यवहार-अधिक मूल्य की वस्तु में अल्प मूल्यवान वस्तु मिलाकर अधिक मूल्य में बेचना प्रतिरूपक व्यवहार है।
(५) हीनाधिकमानोन्मान-तोलने के साधन मन, सेर, छटांक आदि तथा नापने के साधन गज, फुट, आदि छोटे-बड़े रखना । लेने के लिए बड़े-और देने के लिये छोटे रखना । व्यापारिक चातुर्य समझकर ऐसा करने वाले को अतिचार लगता है, चोरी की बुद्धि से करने पर अनाचार ही होता है ।।
(४) ब्रह्मचर्याणु व्रत-ब्रह्मचर्य के विषय में आगे विशेष निरूपण किया जायगा। मैथुन घोर हिंसा रूप है । उस से द्रव्य प्राणों का और भाव प्राणों का, घात होता है । अत्यन्त अशान्ति और संक्लेश का जनक है । शान्ति और समाधि की इच्छा रखने वालों को मैथुन का सर्वथा त्याग करके ब्रह्मचर्य की ही साधना करनी चाहिए । किन्तु जो इतने सामर्थ्यवान् नहीं हैं, उन्हें कम से कम पर स्त्री-सेवन का तो अवश्य ही त्याग करना चाहिए । इस प्रकार अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय संसारकी समस्त स्त्रियों को माता-बहिन आदि के समान समझना ब्रह्मचर्याणु व्रत कहलाता है । उसे स्वदार संतोष व्रत भी कहते हैं और पर स्त्री त्याग व्रत भी कहते हैं।
ब्रह्मचर्याणु व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(१) इत्वरिकापरिगृहीता गमन (२) अपरिगृहीता गमन (३) अनंगक्रीड़ा (४) परविवाह करण (५) तीवकाम भोगाभिलाषा। .... (१) इत्वारिका परिगृहीता गमन-थोड़े समय के लिए अपनी बनाई हुई स्त्री से गमन करना । इससे ब्रह्मचर्याणु व्रत में दोष लगता है।
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धर्म-निरूपण (२) अपरिगृहीता गमन-जो स्त्री किली के द्वारा गृहीत नहीं है, ऐसी कुमारी अथवा वेश्या आदि के साथ, उसे परस्त्री न मान कर, गमन करना अपरिगृहीता गमन नामक दूसरा अतिचार है, इससे भी चतुर्थ अणुव्रत में दोष लगता है।
(३) अनंगक्रीड़ा-काम भोग के प्राकृतिक अंगोंके अतिरिक्त अन्य अंगों से कहल-क्रीड़ा करना अनंग क्रीड़ा है । इससे भी द्रव्य और भाव प्राणों का घात होता है।
(४) परविवाहकरण-स्वकीय पुत्र, पुत्री, भाई श्रादि संबंधी जनों के अतिरिक्त पर का विवाह कराना अथवा अपना दूसरा विवाह कराना परविवाह करण नामक अतिचार है।
(५) तीव्र काम भोगाभिलाषा-काम-भोग सेवन करने की प्रबल अभिलाषा रखना, निरन्तर इन्हीं विचारों में डूबे रहना भी ब्रह्मचर्याणु व्रत का अतिचार है। .. (५) परिग्रह परिमाणव्रत-मुनिराज संसार की समस्त वस्तुओं का त्याग करके पूर्णरूपेण अकिंचन बन जाते हैं, किन्तु सांसारिक व्यवहारों में फँसा हुश्रा श्रावक परिग्रह का पूर्ण रूप से परित्याग नहीं कर सकता । उसे पद-पद पर धन प्रादि की आवश्यकता होती है। फिर भी उसे अपनी आकांक्षाएँ परिमित करनी चाहिए। यदि आकांक्षाओं का प्रसार रोका न जाय तो. जीवन अत्यन्त प्रशान्त, असन्तुष्ट और असम बन जाता है। अतएव श्रावक को परिग्रह की मर्यादा कर लेनी चाहिए। इससे अधिक परिग्रह में नहीं रक्खूगा, इस प्रकार मर्यादा बांध लेने से समता और संतोष का आविर्भाव होता है और तभी जीवन का रस लिया जा सकता है।
__ व्यक्तिगत जीवन को सरल और सन्तोषमय बनाने के लिए परिग्रह की मर्यादा आवश्यक है, यही नहीं वरन् समाज में एक प्रकार की आर्थिक समता लाने के लिए भी यह व्रत परमावश्यक है । जिस समाज में आर्थिक वैषम्य अधिक बढ़ जाता है जिसमें कुछ लोग अधिक धनसम्पन्न बन जाते हैं और अधिकांश लोग आवश्यक धन भी नहीं प्राप्त कर सकते, उस समाज में स्थायी शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। उसमें वर्ग-विग्रह का जन्म होता है । एक वर्ग दूसरे वर्ग के विरुद्ध तीव्र असंतोष से प्रेरित होकर क्रांति करता है और दोनों वर्गों की सुख-शांति शून्य में विलीन हो जाती है। तीन संघर्ष का दौरदौरा हो जाता है। इस अवांछनीय परिस्थिति से बचने के लिए भी परिग्रह की मर्यादा करना आवश्यक है। - इसके अतिरिक्त धन का संग्रह करना जीवन का साध्य नहीं है । सुख-पूर्वक जीवन-निर्वाह के लिए धन की अावश्यकता है, इसलिए वह साधन के रूप में ही व्यवहृत होना चाहिए। आवश्यकता से अधिक धन का संचय करना उचित नहीं है। प्रायः अनेक पुरुष अपने वाल-बच्चों के लिए धन-संचय कर जाना चाहते हैं, पर ऐसा करने की अपेक्षा बाल-बच्चों को सुयोग्य सुशिक्षित और सदाचारी वना देना ही अधिक योग्य है । चालक यदि सुयोग्य होगा तो वह स्वयं द्रव्याजैन करके सुखपूर्वक
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[ २६३ ] जीवन-निर्वाह कर सकेगा। अगर वालक अयोग्य हुआ तो संचित धन को एक दिन में समाप्त कर देगा। नीतीकार ने कहा भी है:
.यदि पुत्रः सुपुत्रः स्यात् , सम्पदा के प्रयोजनम् ?
यदि पुत्रः कुपुत्रः स्यात्, सम्पदा कि प्रयोजनम् ? अर्थात् पूत सपूत हुआ तो तुम्हारी संपत्ति से क्या प्रयोजन है ? वह स्वयं अपना निर्वाह कर लेगा। यदि कपूत हुआ तो संचित धन एक दिन में उड़ा डालेगा, फिर तुम्हारे संचय से क्या लाभ है ?
संसार का प्रत्येक प्राणी अपने संचित शुभ या अशुभ कर्मों के अनुसार ही फल का भागी होता है । फिर भी मनुष्य यह सोचता है कि मैं उसका पालन-पोषण कर रहा हूँ--मैं उसे सुखी बना रहा हूँ। वास्तव में यह विचार मनुष्य का मिथ्या अभिमान है । इत्यादि विचार करके विवेकशील पुरुषों को, संक्लेश भावो न्यूनता के लिए धन के प्रति अति लोलुपता का त्याग करना चाहिए और एक नियत अवधि से श्रागे धन का परित्याग कर देना चाहिए । जो ऐसा करते हैं वही धन के स्वामी बन सकते हैं। जीवन-पर्यन्त धन के लिए व्यस्त रहने वाले, धन की आराधना के लिए जीवन के वास्तविक आनन्द को तिलांजलि देने वाले लोलुप लोग धन का कदापि सदुपयोग नहीं कर पाते । वे धन के स्वामी नहीं है, धन के दास हैं । धन उन्हें भोगता है, वे धन को नहीं भोगते ।
सर्वज्ञ भगवान् ने परिग्रह के दोष दर्शाकर उसके त्याग की महत्ता का निरूपण किया है । अतएव श्रावकों को निम्नलिखित परिग्रह की मर्यादा कर लेना चाहिए:
(१) खेत, कूप, सरोवर, नहर, बाग-बगीचा, आदि की संख्या निर्धारित करके उससे अधिक का त्याग करना चाहिए। ___(२) महल, मकान, दुकान, पशुशाला, बंगला आदि इमारतों का परिमाण नियत करके अधिक का परित्याग करना चाहिए।
(३) सोना, चांदी आदि और उनसे बनने वाले श्राभूषणों की मर्यादा कर लेना चाहिए, मर्यादा से अधिक की अभिलाषा नहीं करना चाहिए ।
(४) रुपया, पैसा, मोहर, नोट श्रादि सिको का तथा हीरा, मोती, माणिक, पन्ना, पुखराज आदि जवाहिरात का परिमाण नियत कर लेना चाहिए। . (५) गेहूँ, चांवल, चना, मूंग, ज्वार, बाजरी, मोठ आदि समस्त धान्यों के संग्रह की सीमा निश्चित् कर लेना चाहिए । फल, मेवा श्रादि की मर्यादा भी इसीमें समाविष्ट है। .. (६. दास-दासी, नौकर-चाकर आदि की मर्यादा करनी चाहिए, तथा रथ, गाड़ी आदि समस्त द्विपदों का परिमाण करना चाहिए। __(७) गाय, भैंस, बैल, घोड़ा, हाथी, ऊँट आदि चौपायों की मर्यादा बांध लेना चाहिए, और मर्यादा से अधिक कभी नहीं रखना चाहिए।
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धर्म-निरूपण (८) सोने-चांदी के अतिरिक्त अन्य धातुओं का, जैसे-तांबा, पीतल, लोहा, सीसा, जर्मन-सिल्वर, नकली सोना आदि का परिमाण नियत कर लेना चाहिए। ': उल्लिखित वस्तुओं के परिमाण में समस्त पदार्थों का परिमाण आ जाता है। जिन वस्तुओं का नामोल्लेख नहीं हुआ है उन्हें यथायोग्य इन्हीं में सम्मिलित समझना चाहिए । आशय यह है कि श्रावक को प्रत्येक पदार्थ की मर्यादा वांध कर अधिक पाप से बचने का और संक्लेशजन्य वेदना से मुक्त होने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए।
इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं । वे इस प्रकार हैं
(१) क्षेत्रवास्तुपरिमाणातिक्रम-खेत आदि और मकान आदि की वांधी हुई मर्यादा का उल्लंघन करना । किसी ने पाँच घरं रखने की मर्यादा की हो और वह छटा घर रख ले तो व्रत सर्वथा खंडित हो जाता है । संख्या बरावर बनाये रखने के लिए यदि दो घरों को मिलाकर एक चड़ा घर वना ले तो अतिचार लगता है। इसी प्रकार खेत आदि के विषय में समझना चाहिए ।
(२) हिरण्यसुवर्णपरिमाणातिक्रम-चांदी-सोने की मर्यादा का उल्लंघन करना अगर किसी ने सोने के पाँच आभूषण मर्यादा में रक्खे हैं और छठा आ जाय तो दो का एक आभूषण करवा लेना अतिचार है । अथवा आभूषण स्वयं उपार्जन करके अपने पुत्रादि स्वजन को दे देना भी अतिचार है।
. (३) धन-धान्य परिमाणातिक्रम-रुपया, पैसा और धान्य के परिमाण का उल्लंघन करना । पहले की ही तरह एक देश भंग होने पर अतिचार होता है । सर्वया भंग होने पर अनाचार हो जाता है। .
द्विपद चतुष्पद परिमाणातिक्रम-दो पैर वाले और चार पैर वाले पशुपक्षी आदि तथा रथ आदि की मर्यादा- को एक देश भंग करना ।
(५) कुप्पधातु परिमारणातिक्रम-तांबा, पीतल आदि तथा अन्य फुटकल सामान की वांधी हुई मर्यादा का उल्लंघन करना । यह भी पूर्वोक्त रीति से ही अतिचार है। . . .
तीन गुण व्रत पूर्वोक्त पांच अणुव्रतों के पालन में जो गुणकारी होते हैं अथवा जो श्रात्मा का उपकार करने वाले गुणों को पुष्ट करते हैं, उन्हें, गुणवत कहते हैं । गुण तीन हैं(१) दिशा परिमाणव्रत (२) उपभोग परिभोगवत और (३) अनर्थ दण्ड विरमण व्रत ।
. (१) दिशापरिमाण व्रत-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, दिशाओं का, वायव्य, वैऋत्य आदि चार विदिशाओं का, ऊपर और नीचे, इस प्रकार दशों दिशाओं का परिमाण करना और नियत सीमा से आगे श्रास्त्रव के सेवन का प्रत्याख्यान करना दिशा परिमाण व्रत है। . . . . . . . . . . . . . . .
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सातवां अध्याय
[ २६५ ] ... (२) उपभोग परिभोग परिमाणवत-एक बार भोगने योग्य भोजन श्रादि उप. भोग कहलाता है और बारम्बार उपभोग किये जाने योग्य पदार्थ परिभोग कहलाते हैं इन की मर्यादा कर लेना उपभोग परिभोग व्रत है।
यह व्रत भोजन की अपेक्षा और कर्म ( कार्य ) की अपेक्षा से दो प्रकार का है। भोजन की अपेक्षा छब्बीस वस्तुओं की मर्यादा करनी चाहिए और कर्म की अपेक्षा पन्द्रह कर्मादान का त्याग करना चाहिए । पन्द्रह कर्मादानों का उल्लेख आगे किया जायगा। भोजन की अपेक्षा छब्बीस बोल इस भांति हैं:
(१) शरीर को साफ करने के लिए अंगोछा, रूमाल, ट्वाल आदि की मर्यादा करना (२) दांत स्वच्छ करने के लिए दातौन, मंजन आदि की मर्यादा करना (३) श्राम, नारियल, अंगूर आदि फलों के उपभोग की मर्यादा करना (४) इन, तेल, फूलेल आदि की मर्यादा करना।
(५) शरीर को स्वच्छ बनाने के लिए पीठी, उबटन आदि की मर्यादा करना। (६) स्नान तथा स्नान के लिए जल की मर्यादा करना। (७) ऊनी, सूती तथा रेशमी वस्त्रों के अोढ़ने, पहनने की मर्यादा करना। (८) केशर, चंपन, कुंकुम आदि विलेपन योग्य वस्तुओं की मर्यादा करना । (६) चस्पा, चमेली, गुलाब आदि फूलों की मर्यादा करना। . (१०) हार, कंठा, श्रादि-श्रादि आभूषणों की मर्यादा करना । (११) धूप, अगरबत्ती, आदि सुगंधी वस्तुओं की मर्यादा करना । (१२) दूध, शर्बत, आदि पीने योग्य पदार्थों की मर्यादा करना। (१३) फीके, मीठे आदि भक्षण करने योग्य पदार्थों की मर्यादा करना। (१४) चावल, खिचड़ी, थूली, दलिया आदि रंधैन पदार्थों की मर्यादा करना। (१५) चना, मूंग, मोठ, उड़द आदि दालों का तथा धान्यों की मर्यादा करना।
(१६) दुध, दही, घृत, तैल, गुड़, शक्कर आदि विगय (विकृति ) की मर्यादा करना।
(१७) शाक, भाजी की मर्यादा करना। (१८) बादाम, पिश्ता, चिरौंजी, खारक, द्राक्षा मेवा की भर्यादा करना। . . . (१६) भोजन में काम आने वाली वस्तुओं की सामान्य मर्यादा करना। (२०) तालाव, प, बावड़ी, नदी आदि के पानी की मर्यादा करना। (२१) सुपारी,इलायची,लौंग,पान आदि मुखशोधक पदार्थों की मर्यादा करना।
(२२) हाथी, घोड़ा, ऊंट, तथा मोटर, बग्घी, पालकी, स्याना, रथ, तांगा आदि लचारियों की मर्यादा करना।
(२३) जूता, खड़ाऊं, मोजे आदि पैर में पहनने के पदार्थों की मर्यादा करना।
(२४) खाट, पलंग, पाटा, तख्त, टेबिल, कुर्सी, कोच; वेंच आदि सोने, चैठने, विश्राम लेने योग्य वस्तुओं की मर्यादा करनार...
(२५) कच्चे दाने, कच्चा शाक, सचित्त जल, नमक, आदि की मर्यादा करना।
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[ २६६ ]
धर्म-निरूपण (२६) एक वस्तु के विभिन्न रूप पलटने पर स्वाद में भेद हो जाता है । स्वाद भेद से यहां द्रव्य भेद समझना चाहिए । जैसे गेहूं की रोटी, वाटी, पूड़ी आदि विभिन्न द्रव्य हैं । इस प्रकार द्रव्यों की मर्यादा करना।
संसार में अनगिनती पदार्थ मनुष्य के उपयोग में आते हैं । उन सब पदार्थों का यथायोग्य इन छब्बीस बोलों में समावेश करना चाहिए और सभी पदार्थों की मर्यादा करना चाहिए । इस प्रकार मर्यादा करने से इच्छाओं पर विजय प्राप्त होती है, राग भाव की न्यूनता होती है और राग भाव ज्यों-ज्यों न्यून होता है त्यों-त्यों प्रास्रव भी न्यून होता जाता है।
भोज्य पदार्थों में अतिशय पाप जनक होने के कारण कोई-कोई पदार्थ श्रावक को सर्वथा अभक्ष्य हैं। उन अभक्ष्य पदार्थों का श्रावक को त्याग करना चाहिए। . :
मद्य, मांस, पांच उदाम्बर-गुलर, फल, वड़ का फल, पीपल का फल, पाकर का फल, कलुबर का फल-अज्ञात, फल, रात्रि भोजन, लीलन-फूलन वाला भोजन, लड़ा-घुना अन्न, यह सब श्रावक को भक्षण करने योग्य नहीं हैं।
इनके अतिरिक्त जिन फलों में कीड़े पड़ गये हों वह फल भी भक्षणीय नहीं हैं। इस चलित आचार, सुरव्वा, पालव आदि पदार्थ भी त्याज्य है । तात्पर्य यह है कि श्रावक सात्विक भोजन ही करते हैं और जिन भोज्य पदार्थों के भक्षण से त्रस जीवों की अथवा स्थावर जीवों की निरर्थक हिंसा होती हो उनका त्याग करना चाहिए । भोजन के विषय में भोज्य पदार्थों की निर्दोषता का, स्वच्छता का और सात्विकता का ध्यान सदैव रखना चाहिए । भोजन का मानसिक विचारों पर भी प्रभाव पड़ता है, अतएव राजस और तामस पदार्थों का भक्षण नहीं करना चाहिए । भोजन संबंधी अन्य बातें, विवेकशील पुरुषों को विना विचार कर व्यवहार नहीं करना चाहिए । जैसे विदेशी शमकर न खाना, मांस-मदिरा मिश्रीत विदेशी औषधियों का उपयोग न करना आदि-आदि।
(३) अनर्थ दंड विरमणव्रत-निरर्थक पाप का त्याग करना अनर्थ दंड विरमणव्रत है। अनर्थ दंड के मुख्य रूप से चार भेद हैं-(१) अपध्यानाचरित (२) प्रमा-- दाचरित (३) हिंसाप्रदान और (४) पापकर्मोपदेश।
(१) अपध्यान-राग-द्वेषमय विचार करना, दुसरे का बुरा विचारना। " (२, प्रमादाचरित-पाठ मद, इन्द्रियों के विषय, कषाय, निन्दा और विकथा करना । ... . (३) हिंसाप्रदान-तलवार, बन्दूक, अग्नि प्रादि हिंसा के साधन दूसरों को देना। .
. (४) पापकर्मोपदेश-पापजनक कार्यों के करने का उपदेश देना। ..... श्रावकों की दृष्टि पाप से अधिक से अधिक बचने की होनी चाहिए । जिन सार्थक पापों का त्याग करना शक्य हो उन्हें व्रत मर्यादा के अनुकूल अवश्य त्यागे,
देना।
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सातवां अध्याय
[ २६७ 1 शेष का श्रागार रख सकता है, पर निरर्थक-निष्प्रयोजन पापों का तो त्याग करना ही चाहिए । निरर्थक पापों का त्याग करने ले आत्मा का बहुत कुछ कल्याण साधा जा सकता है।
गुणव्रतों के अतिचार दिशा परिमाणवत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(१-३) ऊर्ध्व-अधःतिर्यक् दिशा परिमाण-अतिक्रम (४) क्षेत्रवृद्धि (५) स्मृति-अन्तर्धान (४) ..
(१-३) ऊर्ध्व-अधः-तिर्यक्दशा परिमाणातिक्रम-श्रर्थात् ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और तिरछी दिशा का जो परिमाण किया हो, उसे भूल कर या नशे आदि के वश होकर उल्लंघन करना । यह स्मरण रखना चाहिए कि भूल-चूक में परिमाण का उल्लंघन हो तभी अतिचार लगता है। उल्लंघन करने की बुद्धि से-जानबूझ कर उल्लंधन करने से व्रत सर्वथा खण्डित हो जाता है।
(४) क्षेत्रवृद्धि-व्रत ग्रहण करते समय जिस दिशा का जितना परिमाण किया हो उसमें वृद्धि कर लेना । जैसे-उत्तर दिशा और दक्षिण दिशा का सौ-सौ योजन का परिमाण किया। पश्चात् उत्तर में सवा सौ योजन जाने की आवश्यकता हुई तो दक्षिण दिशा के सौ योजन में ले पच्चीस योजन कम करके उत्तर दिशा का सवा सौ योजन परिमाण कर लेना अतिचार है। . (५) स्मृति-अन्तर्धान-किये हुए परिमाण का कारणवश विस्मरण हो जाय, जैसे मैंने दक्षिण दिशा में सौ योजन का परिमाण रक्खा है या सवा सौ योजन का? फिर भी सवा लौ योजन चला जाय तो अतिचार लगता है।
तात्पर्य यह है कि दिशा परिमाणवत राग-द्वेष और प्रारम्भ की न्यूनता के उद्देश्य से ग्रहण किया जाता है। परिमित दिशाओं से आगे प्रारम्भ का त्याग हो जाता है । जिस कार्य से व्रत का उद्देश्य अंशतः मलिन हो जाता है-ऐसा कार्य करने से व्रत दूषित होता है । श्रावक को अतिचारों से बचना चाहिए। - उपयोग-परिभोगव्रत के भोजन सम्बन्धी पांच अतिचार यह हैं
(१) लचिचाहार-भूल से-विना उपयोग के त्याग किये हुए सचित्त पदार्थ: का आहार करना।
(२) सचित्तप्रतिवद्धाहार-जो फलादि ऊपर से अचित्त हो किन्तु चीज होने के कारण भीतर से सचित्त हो, उसका असावधानी पूर्वक आहार करना । अथवा सचित्त वृक्ष से सम्बद्ध गोंद, पका हुआ फल आदि खाना । यह अतिचार भी उसी अवस्था में समझना चाहिए जब संचित्त भक्षण की बुद्धि नहीं हो । सचित्त-भक्षण की वुद्धि से सचित्त आहार करने पर अनाचार दोष लगता है। . .
... (३) अपक्काहार-जो वस्तु पूर्ण रूप से पकी न हो, अधकच्ची हो उसका अक्षण करना । जैसे तत्काल पीसी हुई चटनी, आधा कच्चा शाक, फल आदि। .
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[ २६८ ]
धर्म-निरूपण ...: (४) दुष्पक्काहार-जो वस्तु बहुत पक कर सड़ गई हो, गल गई हो, जिसके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदल गये हों, ऐसी वस्तु का भक्षण करना।
(५) तुच्छाहार-जिन खाद्य पदार्थों में खाने योग्य अंश कम और त्याज्य अंश अधिक हो, जैसे सीताफल, बेर श्रादि तुच्छ पदार्थों का भक्षण करना ।
कम की अपेक्षा इस व्रत के पन्द्रह अतिचार होते हैं । उनका उल्लेख आगे किया जायगा.।
पाठवें व्रत अथवा तीसरे गुण व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार है. . (१) कन्दर्प-कामवासना जागृत करने वाले वाक्यों का प्रयोग करना तथा स्त्रियों के समक्ष पुरुषों की काम-चेष्टाओं का सरल वर्णन करना, और पुरुषों के समक्ष स्त्रियों के हाव-भाव, विलास आदि का कथन करना । .
(२) कौत्कुच्य-काम संबंधी कुचेष्टा करना । जैसे-भौंह. मटकाना, श्रांख दवाकर इशारा करना। अपनी काम-वासना को व्यक्त करने तथा..दूसरे की कामवासना जागृत करने के लिए शावक को इस प्रकार की भांडों सरीखी चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिए।
(३) मौखर्य-विना सोचे-समझे बोलना, असभ्य वचनों का प्रयोग करना, लाधारण वार्तालाप में भी गालियों का प्रयोग करना, धृष्टतापूर्वक बोलना, आदि।
... (४) संयुक्ताधिकरणं-अधिक्रियते दुर्गतावात्मा अनेन, इति अधिकरणम्.' अंर्थात् जिसके द्वारा श्रात्मा नरक आदि दुर्गति का अधिकारी बनाया जाय उसे अधिकरण कहते हैं । हिंसा के उपकरण शस्त्र, मूसल, हल आदि अधिकरण है। एक अधिकरण का दूसरे अधिकरण के साथ संबंध जोड़ना संयुक्ताधिकरण नामक अतिचार हैं। जैसे-अोखली हो तो नया भूसल बनवाना, फाल हो तो हल बनवाना, चक्की का एक पाट हो तो दूसरा पाट'बनवाना आदि ।
(५) उपभोग परिभोगतिरेक-उपभोग, परिभोग के योग्य वस्तुओं में अधिक आसक्त होना । जैसे-सदा नाटक, सिनेमा देखने के लिए लालायित रहना, इत्र तेल फुलेल आदि में लोलुप रहना, इन भोगोपभोग के लाधनों के लिए अधिक प्रारंभ करना, विकारजनक राग-रागिनी सुनने में अतीव लालसा रखना, सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होना। ऐसा करने से निकाचित कर्मों का बंध होता है । श्रावक को भोगोंपभोग में अत्यन्त आसक्त न होकर उदासीन वृत्ति रखनी चाहिए। ..
चार शिक्षा व्रत पूर्वोक्त पांच अणुव्रतों और तीन गुणवतों का यथायोन्य पालन करने की जिस्म स्ले शिक्षा मिलती है, उसे शिक्षाव्रत कहते हैं। शिक्षावत के चार भेद हैं-(१) सामा. यिक व्रत, (२) देशावकाशिक व्रत, (३) पौषधोपवास व्रत और (४) अतिथिसंविभाग व्रत । इन चारों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है।
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सातवां अध्याय
। २६६ ] (१) सामायिक व्रत-संसार के समस्त पदार्थों पर राग-द्वेष का अभाव होना, साम्यभाव-तटस्थवृत्ति या मध्यस्थता की भावना जागना, सामायिक व्रत है। यह साभ्यभाव तीन प्रकार से होता है अतएव सामायिक के भी तीन भेद हो जाते हैं(१) सम्यक्त्व सामायिक (२) श्रुतसामायिक और (३) चारित्र सामायिक ।' चारित्र सामायिक देशविरति और सर्वविरति के भेद से दो प्रकार का है । श्रुतसामायिक के तीन भेद हैं-सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ रूप सामायिक । सस्यक्त्व सामायिक भी औपशामिक सस्यक्त्व सामायिक, क्षायिक सस्यक्त्व सामायिक और क्षायोपशामिक सम्यक्त्व सामायिक के भेद से तीन प्रकार का है।
श्रात्मश्रेय के साधन में सामायिक की बहुत महत्ता है । सामायिक का अनुठान करनेवाला श्रावक, सामायिक की अवस्थामें श्रमण के समान बन जाता है। कहा भी है
.. सामाइयस्मि तु कए, समणो इव सावो हवइ जम्हा।
एएण कारगणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ अर्थात् सामायिक करने पर श्रावक, साघु सदृश बन जाता है, इस कारण श्रावक को पुनः पुनः सामायिक करना चाहिए ।
. संसार संबंधी समस्त सावध कार्यों से निवृत्त होकर निर्जीव भूमि पर, पौषध शाला आदि एकान्त स्थान में स्थित होकर वस्त्र-श्राभूषण का त्याग कर के, स्वच्छ दो वस्त्र मात्र धारण करके, भूमि पर आसन बिछाकर, आठ पुड की मुखबस्त्रिका बान्ध कर सामायिक नत धारण करे । कम से कम अड़तालीस मिनट तक इसी अरस्था में रहे । इस अवस्था में राग-द्वेष, का त्याग करे, समताभाव का नाश्रय ले, आत्मध्यान, नमस्कार मंत्र का जाप या प्राध्यामिक ग्रंथ का स्वाध्याय करे। यह व्रत दो करण, तीन योग से अर्थात् 'सावध व्यापार मन, वचन और काय ले न करूंगा, न कराऊंगा' इस प्रकार की प्रतिज्ञा के साथ धारण किया जाता है । सामायिक व्रत का यह वाह्य अनुष्ठान व्यवहार सामायिक है और सास्यभाव का उदय होना. निश्चय सामायिक है । सामायिक का विस्तृत विवेचन और परिपूर्ण विधि-अन्य देखना चाहिए । सामायिक व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार है- .
(१) मनोदुष्प्राणिधान-मन की असत्प्रवृत्ति होना। मन अत्यधिक चंचल है। वह शीघ्र ही कुमार्ग की और दौड़ जाता है । उसे अपने वशमें न रक्खा जाय तो सामायिक में अतिचार लगता है। ..
(२) वचन दुष्प्रणिधान-वचन की असत्-प्रवृत्ति को बचन दुष्प्रणिधान अतिचार कहा गया है । लामायिक में हिंसा जनक, पापमय, विना सोचे-विचारे, वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ..
(३) कायदुष्प्रणिधान-काय की असत्प्रवृत्ति होना। जैसे शरीर की चपलता, अनुचित आसन से वैठना, बार-बार शासन बदलना, चंचल नेत्रों से इधर-उधर देखना, आदि।
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[ २७० ]
धर्म-निरूपण (४) स्मृति-अकरणता-सामायिक के समय का परिमाण भूल जाने पर भी सामायिक पार लेना।
. (५) अनवस्थितकरणता-व्यवस्थित रूप से सामायिक न करना । जैसेलामायिक का समय पूर्ण होने से पहले सामायिक पार लेना । सामायिक करने का समय होने पर भी सामायिक न करना, सामायिकस्थ हो कर भी निरर्थक बातों में समय व्यतीत करना आदि ।
इन पांच अतिचारों से बचकर, श्रद्धा, भक्ति, रुचि और प्रतीति के साथ, प्रतिदिन, नियत समय पर श्रावक को सामायिक का अनुष्ठान करना चाहिए। सामायिक के विधिपूर्वक अनुष्ठान करने से चित्त में समाधि जागृत होती है और आत्मा के सहज स्वरूप का आविर्भाव और प्रकाश होता है। ..
(२) देशावकाशिकव्रत-पहले दिग्व्रत का निरूपण किया गया है । दिगवत में दिशाओं का जो परिमाण किया जाता है वह जीवनपर्यन्त के लिए होता है। जीवन में न जाने कव, किस दिशा में, कितनी दूर जाने की आवश्यक्ता पड़ जाय ? इस विचार से थावक प्रायः विस्तृत मयांदा रखता है। उस मर्यादा के अनुसार प्रति दिन जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अतएव थोड़े समय के लिए उस सीमा में संकोच किया जा सकता है । विवेकशील श्रावक, एक घड़ी, एक प्रहर. एक दिन, एक पक्ष, मास श्रादि नियत समय के लिए मर्यादा में जो न्यूनता करता है और अमुक नगर, गांव, पहाड़, नदी श्रादि तक उसे सीमित कर लेता है उसे देशावकोशिक व्रत कहा है । इस व्रत में कुछ आगार होते हैं । जैले- .. .
[क] राजा की आज्ञा से मर्यादा बाहर जाना पड़े तो श्रागार । '..खि ] देव या विद्याधर आदि हरण करके बाहर ले जाय तो श्रागार ।
[ग] उन्माद श्रादि रोग के कारण विवश होकर चला जाय तो श्रागार ।
| घ] मुनि दर्शन के निमित्तं जाना पड़े तो भागार। . .. |ङ] जीव रक्षा के लिए जाना हों तो श्रागार। . . . . . - [च] अन्य किसी महान् उपकार के लिए जाना पड़े तो भागार ।
आगार उस छूट को कहते हैं, जो दूरदर्शिता के कारण व्रत ग्रहण करते समय रखली जाती है। देशावकाशिक व्रत धारण करने से मर्यादा के बाहर के पापों का निरोध हो जाता है और आत्मा में सन्तोष, शान्ति तथा हलकापन आ जाता है। .
- दूसरे शिक्षा व्रत के पांच अतिचार यह हैं
. (१) भानयन प्रयोग-मर्यादा की हुई भूमि से बाहर की वस्तु अन्य व्यक्ति द्वारा मंगवाना।
(२) प्रेष्य प्रयोग-मर्यादा से बाहर दूसरे के साथ कोई वस्तु भेजना। .. (३) शब्दानुयात--शब्द का प्रयोग करके मर्यादा से बाहर स्थित किसी पुरुष .. को बुलाना।
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सातवां अध्याय
[ २७१ ]
(४) रूपामुपात - अपना रूप दिखाना अर्थात् ऐसी चेष्टा करना जिससे कोई पुरुष उसे देखकर उसके पास श्रा जाय ।
(५) बाह्य पुद्गल परिक्षेप - कंकर, लकड़ी आदि फैंक कर मर्यादा से बाहर स्थित पुरुष को बुलाने का प्रयत्न करना ।
इन पांच प्रतिचारों का सेवन न करता हुआ इस व्रत का अनुष्ठान करे । श्रतिचार का सेवन करने से व्रत का उद्देश्य खंडित हो जाता है। जहां श्रंशतः खंडन होता है वहीं अतिचार लग जाता है ।
(३) पौषधोपवासव्रत - जिस व्रत से धर्म का, आत्मा के स्वाभाविक गुणों का अथवा षटकाय जीवों का पोषण होता है उसे पौषधव्रत कहते हैं । यह व्रत प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या रूप चार विशिष्ट तिथियों में तो अवश्य किया जाता है | जिस दिन व्रत करना हो उससे एक दिन पूर्व एकाशन करना चाहिए, रात्रि-दिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। दूसरे दिन प्रातःकाल पौषधशाला में अथवा घर के किसी शान्त और एकान्त स्थान में निवास करना चाहिए । सम्पूर्ण दिन और रात्रि अनशन करके, धर्म-ध्यान में व्यतीत करे और तीसरे दिन फिर एकाशन करे । परिपूर्ण पौषधत्रत में चार वार के भोजन का त्याग किया जाता है ।
पौषधवत को ग्रहण करने पर सब प्रकार के सावद्य कार्यों का, ब्रह्मचर्य का, शरीर-संस्कार का, उबटन, लेपन, फूल माला धारण, सुन्दर वस्त्राभूषणों का परिधान इत्यादि सब का त्याग करना आवश्यक है । इस व्रत का अनुष्ठान करते समय श्रावक, साधु सदृश वृत्ति धारण करता है। पौषधवत दो प्रकार का है: - (१) सर्वतः और (२) देशतः । अर्थात् परिपूर्ण पौषध और एक देश पौषध । परिपूर्ण पौषध में आहार आदि का पूर्ण रूप से त्याग किया जाता है और देश पौषध में श्रांशिक त्याग किया जाता है | साधु-जीवन का अभ्यास करने के लिए, त्याग की ओर प्रयाण करने के लिए आत्मा में धार्मिक निश्चलता उत्पन्न करने के लिए यह व्रत परमावश्यक और परमोपयोगी है। इसकी पूर्ण विधि अन्यत्र देखना चाहिए |
पौषव्रत के पांच प्रतिचार इस प्रकार हैं
(१) अप्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तार - पौषध के स्थान को, विछानेश्रोढ़ने के वस्त्रों को, तथा पाठ आदि को प्रतिलेखन न करना अथवा यतना के साथ प्रतिलेखन न करना ।
(२) श्रप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तार - पूर्वोक्त वस्तुओं को रजोहरण आदि मुलायम उपकरण से पूंजना नहीं या यतना के साथ न पूंजना ।
(३) प्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रवणभूमि - मल-मूत्र कफ़ आदि त्यागने की भूमि को न देखना या यतनापूर्वक न देखना । तालर्य यह है कि यह स्थान जीव-रहित है या नहीं, इस प्रकार भलीभांति देखे बिना मल-मूत्र का त्याग करने से अतिचार लगता है ।
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[ २७२ ]
धर्म-निरूपण . (४) अप्रमार्जित- दुष्प्रमार्जित उच्चारप्रस्रवणभूमि-मल-मूत्र त्याग करने के स्थान को पूंजनी आदि से पूंजे बिना या देखे बिना अथवा सम्यक् प्रकार से पंजे, देखे. बिना मल-मूत्र आदि का उत्सर्ग करना ।
(५) सम्यक्-अननुपालन-पोषधव्रत का सम्यक प्रकार से पालन न करना। श्रद्धा-भक्ति, उत्लाह और प्रेम के साथ पौषधव्रत का पालन न करने से भी अतिचार लगता है।
. . .
. . (४) अतिथिसंविभाग-जिनके आने का समय नियत नहीं है उन्हें अतिथि कहते हैं। निम्रन्थ. श्रमण आहार के लिए पहले से सूचना दिये विना पाते हैं। श्रतएक उन्हें यहां अतिथि कहा गया है. । उन अतिथियों को अचित्त और निर्दोष आहार देने की भावना होना और यदि अवसर मिले तो आहार देना अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है।
इस व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार है
(१-२) सचित्तनिक्षेप-पिधान-साधु को कोई वस्तु न देने के उद्देश्य से उस वस्तु.को लचित्त पदार्थ के ऊपर रख.देना या सचित्त से ढक देना, क्योकि साधु सचित्त-संसर्ग वाली ग्रहण नहीं करते।. . . . . . . .
(३) कालातिकम--जब साधु भिक्षा लेने के लिए निकलते हैं, उस समय किवाड़ लगा लेना। अर्थात् गोचरी के समय का किसी प्रकार अतिक्रम करना, जिस से आहार आदि न देना पड़े। .. .
(४) परोपदेश--आहार देने योग्य होते हुए भी स्वयं श्राहार न देना और दूसरे से कहना कि-इन्हें अमुक वस्तु दे दो। या अपनी वस्तु को, न देने के अभिप्राय से, दूसरे की बता देना।
(५) मात्सर्य-मत्सरता का भाव धारण करना । जैसे--यह सोचना कि अंगर साधु को न देंगे तो निन्दा होगी, ऐसा विचार कर देना । प्रसन्नता और प्रेम के साथ न देना।
उल्लिखित व्रतों को पालन करने के लिए तथा सुख-संतोष के साथ जीवननिर्वाह करने के लिए श्रावक को निम्नलिखित गुण प्राप्त करने चाहिए । जो श्रावक इन गुणों को प्राप्त करता है वही धर्म का अधिकारी होता है । यथा-- . न्यायसम्पन्नविभवः शिष्टाचारप्रशंसकः।
कुलशीलसमैः सार्द्ध कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः॥ . . पापभीरुः प्रसिद्धं च, देशाचारं समाचरन् । ... अवर्णवादी न क्वापि राजादिषु विशेषतः ॥ अनतिव्यक्तगुप्ते च स्थाने सुप्रतिवेशिमके। अनेकनिर्गमद्वार- विवर्जितनिकेतनः ॥ कृतसङ्गः सदाचारैर्मातापित्रोश्च पूजकः।
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लातवां अध्याय
[ २७३ ] __. त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते ॥
व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः।
श्रष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः, शृवानो धर्ममत्वहम् ॥ . 'अजीर्ण भोजनत्यागी, काले भोक्ता च सात्स्यतः। अन्योन्याप्रतिवन्धेन त्रिवर्गमफि लाधयन् ॥ यथावदतिथौ साधो, दीने च प्रतिपत्तिंकृत् ।। सदानभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥ . अदेशाकालयोश्चर्यो त्यजन् जानन् बलावलम् । वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां पूजकः पोष्यपोषकः ॥ दीर्घदर्शी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः। सलज्जः सदयः सौम्यः, परोपकृति कर्मठः ।। अन्तरङ्गारिषट्वर्ग-परिहारपरायणः ।. .
वशीकृतेन्द्रियम्मामो गृहिधर्माय कल्पते ॥ . अर्थात् स्वामीद्रोह, मित्र द्रोह, विश्वासघात, ठगी, चोरी आदि अन्याययुक्त उपायों से धन त कमाकर न्यायपूर्वक धन का उपार्जन करने वाला, शिष्ट पुरुषों के प्राचार की प्रशंसा करने वाला, कुल और शील में सामान अन्य गोत्र वालों के साथ विवाह संबंध करने वाला, पाप ले डरनेवाला, परम्परा से आगत देशाचार का प्राचरण करने वाला, किसी की और विशेष रूप से राजा श्रादि की निन्दा न करने वाला, बहुत प्रकट या बहुत गुप्त स्थान में न रहने वाला, बहुसंख्यक द्वारों वाले मकान में नरहने वाला, सदाचारी पुरुषों की संगति करने वाला, माता-पिता की भक्ति करने वाला, उपद्रवकारी नगर, ग्राम आदि स्थानों से दूर रहने वाला, धर्मविरुद्ध देशविरुद्ध कुलविरुद्ध कार्यों का त्यागी, श्रामदनी के अनुसार स्वर्च करने वाला, आर्थिक स्थिति, उम्र तथा देशकाल के अनुसार वेज पहनने वाला, बुद्धि के * पाठ गुणों से युक्त, प्रति दिन धर्मोपदेश सुनने वाला, अजीर्ण होने पर भोजन का त्याग करने वाला, उचित और नियत समय पर लोलुपता रहित होकर परिमित भोजन करने वाला, परस्पर में विरोध न करते हुए धर्म, अर्थ और काम रूप त्रिवर्गका सेवन करने वाला, अतिथि, लाधु और दीनहीन जलों का यथायोग्य आदर करने वाला, सदा प्रवेश से रहित,गुणों का पक्षपाती, देशविरुद्ध और कालविरुद्ध प्राचरण का त्यागी, अपनी शक्ति और अशक्ति का ज्ञाता, चारित्र में तथा ज्ञान में जो बड़े हो उनका श्रादर-सत्कार करने बाला, अपने आश्रित कुटुम्बीजन आदि का पालन करने वाला, आगे-पीछे का विचार करने वाला, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, जगत् का वल्लभ (प्रिय ), लज्जाशील, दयालु, सौम्य, परोपकारपराण, काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष रूप अन्तरंग शत्रों के त्याग में लगा रहने वाला और इन्द्रियों को वश में करने वाला, श्रावक गृहस्थ धर्म का अधिकारी होता है।
- (१) धर्म श्रवण करने की इच्छा (२) श्रवण (३) शास्त्र का अर्थ ग्रहण करना (४) धारणा (५) अहा (६) अपोह (७) अर्थविज्ञान और (८) तत्त्वज्ञान, यह.बुद्धि के आठ गुण हैं।
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[ २७४ 1
धर्म-निरूपण इस लोक में और परलोक में सुखी बनने के लिए यह गुण अत्यंत आवश्यक हैं अतः श्रावक को इन गुणों से युक्त होना चाहिए। मूलः-इंगाली-वण-साडी-भाडी फोड़ी सुवजए कम्मं ।
वाणिजं चेव प दंत-लक्ख-रस केस विसविसयं ॥२॥ एवं खुजंतपिल्लणकम्मं, निलंछणं दवदाणं । सरदहतलायसोसं, असईपोसं च वजिजा ॥३॥ छाया:-अङ्गार-वन-शाटी-भाटिः स्फोटिः सुवर्जयेत् कर्म।
वाणिज्यं चैव च दन्त- लाक्षा-रस-केश-विष-विषम् ॥ २ ॥ एवं खलु यन्त्र पीडन कर्म, निलीन्छनं दवदानम् ।
सर दहतड़ागशोपं, असतीपोपम च वर्जयेत् ॥३॥ शब्दार्थः-श्रावक को (१) अंगार कर्म (२) वन कर्म.(३) शाटी कर्म (४) भाटिकर्म (५) स्फोटि कर्म (६) दन्तं वाणिज्य (७) लाक्षावाणिज्य (८) रसवाणिज्य (6) वेशवाणिज्य (१०) विषवाणिज्य (११) यंत्रपीडन कर्म (१२) निलाञ्छन कर्म (१३) दवदान कर्म (१४) सरद्रह तड़ाग शोषण कर्म (१५) असती पोषण कर्म, इन पन्द्रह कर्मादानों का .. त्याग करना चाहिए।
भाष्यः-सातवें व्रत का विवेचन करते समय उसके दो भेद बताये गये थे। उनमें से भोजन संबंधी व्रत का निरूपण वहां किया गया था । कर्म संबंधी. उपभोग परिभोग परिमाण व्रत का पालन करने के लिए पन्द्रह कर्मादानों का सर्वथा परित्याग करना आवश्यक है । यह कर्मादान कर्म संबंधी उपभोग परिमाण व्रत के अति-- चार हैं।
. कर्मादान श्रावक को जानने चाहिए पर इनका आचरण नहीं करना चाहिए। जिस कार्य से प्रगाढ़ कर्मों का बंध होता है उसे कर्मादान कहते हैं । कर्मादान के पन्द्रह भेद हैं । उनका अर्थ इस प्रकार है:- . . . . . . . .
(१) अंगार कर्म-कोयले तैयार करवाकार बेचना, भड़भूजा आदि का तथा . इसी प्रकार का अन्य कोई महान् श्रारंभवाला धंधा करना। .
... (२) वनकर्म-जंगल का ठेका लेकर कटवाना, फल, फूल आदि वनस्पति का वेचना वनकर्म कहलाता है।
.: (३) शाटी कर्म-गाड़ी, छकड़ा, रथ, बग्घी आदि बनाकर बेचना, इनके अंग जैसे पहिया वनाना और वेचना साडीकस्म या शाकट कर्म कहलाता है।
(४) भाटिकर्म-वैल, घोड़ा, ऊँट आदि को भाड़े पर देने का धंधा करना ।
(५) स्फोटि कर्म-जमीन खोदने का धंधा करना, कूप, तालाव आदि लोद ___ कर आजीविका चलाना। . . .
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सातवां अध्याय
[ २७५ ] .. (६). दन्त वाणिज्य-हाथी के दांत का व्यापार करना, तथा उपलक्षण से हिरन और व्यान के चर्म का व्यापार करना, उल्लू के नाखून का व्यापार करना, शंख, सीप श्रादि का व्यापार करना। व्याध आदि को पेशगी मूल्य देकर इन वस्तुओं को खरीदने ले दोष लगता है, क्योंकि पेशगी लेने से व्याध आदि उसके निमित्त हाथी आदि त्रस जीवों का बध करते हैं।
. (७) लाक्षावाणिज्य-लाख, मैनसिल, हड़ताल, श्रादि सावध वस्तुओं का व्यापार करना।
(E) रस वाणिज्य-मदिरा, मधु, मक्खन श्रादि वस्तुओं का व्यापार करना। दूध, दही का विक्रय भी इसमें सम्मिलित है।
(६) केशवाणिज्य-मनुप्य आदि द्विपद और गाय आदि चतुष्पद जीवों को बेचने का व्यापार करना।
(१०) विषवाणिज्य-प्राणघातक विष का व्यापार करना, तथा तलवार, बंदूक नादि का व्यवसाय करना ।
(११) यन्त्रपीडन कर्म-तिल आदि पील कर तैल निकालने का धंधा करना, चक्की चलाकर आजीविका करना आदि।
(१२) निर्लान्छन कर्म-बैल, घोड़ा श्रादि पशुओं को नपुंसक बनाने का धंधा करना। ..
(१३) दवदानकर्म-बगीचा, नेत तथा जंगल में, धान्य की विशेष उत्पत्ति के निमित्त आग लगाना ।
(१४) सरद्रह तडाग शोषण कर्म-तालाक, बावड़ी, नदी आदि को सूखाने का कर्म करना।
(१५) असतीजनपोषराकर्म-आजीविका के उद्देश्य से दुराचारिणी स्त्रियों का पोषण करना, उनसे दुराचार सेवन करवाकर द्रव्य उपार्जन करना । शिकारी कुत्ता शादि को पालकर बेचना आदि कार्य भी इसी के अन्तर्गत हैं।
उक्त पापपूर्ण और निन्दनीय व्यापार त्रस तथा स्थावर जीवों की घोर हिंसा के कारण हैं । अतः श्रावक को तीन करण तीन योग से इनका परित्याग करना चाहिए। . मूल:-दसणवयसामाइय पोसहपडिमा य बंभ अचित्ते । ... .. प्रारंभ पेसउहि वजए. समणभूए य.॥४॥ छाया:-दर्शन व्रत सामायिक पोपधप्रतिमा च ब्रह्म अचित्तं ।
प्रारंभ प्रेषणोद्दिष्टवर्जका भ्रमणभूतश्च ॥ ४॥.. शब्दार्थः- (१) दर्शन पडिमा (२) व्रत पडिमा (३) सामायिक पडिमा (४) पोषध पडिमा (५) प्रतिज्ञा पडिमा (६) ब्रह्मचर्य पडिमा (७) अचित्त पडिमा (1) आरंभत्याय
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[ २७६ ]
धर्म-निरूपण पडिमा (6) प्रेषणारंभ पडिमा (१०).उद्दिष्ठत्याग पडिमा और (११) श्रमणभूत पडिमा, यह श्रावक की ग्यारह पडिमाएँ हैं। . . भाव्यः-गृहस्थ श्रावक अपनी विशिष्ट शुद्धि के लिए ग्यारह विशुद्धि स्थानों का सेवन करता है। इन स्थानों का सेवन करने से श्रात्म-शुद्धि के साथ ही श्रमणचारित्र के परिपालन करने का अभ्यास भी होता है । अतएव श्रावक को इन का प्राचरण करना चाहिए । पडिमाओं का स्वरूप इस प्रकार है:-- .
(१) दर्शन पडिमा एक मास तक शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित, सर्वथा निर्दोष सम्यक्त्व का पालन करना।
(२) व्रत पडिमा--पहली पडिमा के अनुष्ठान के साथ दो मास तक निरतिचार बारह व्रतों का पालन करना.। किसी प्रकार का. अतिचार न लगावें।
(३) सामायिक पडिमा--पहली और दूसरी पडिमा के अनुष्ठान के साथ तीन माल तक सामायिक के समस्त दोषों से बचकर प्रातःकाल, मध्यहनकाल, और संध्याकाल में सामायिक करे। .
(४) पोषध पडिमा-पूर्वोक्त तीनों पडिमाओं का आचरण करते हुए चार मास तक पोषध के १८ दोषों से रहित होकर अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या को पोपधोपवास करना।
(५) *प्रतिज्ञा पडिमा--पूर्वोक्त चार पडिमाओं का अनुष्ठान करते हुए पाँच माल तक पाँच नियमों का पालन करे । पाँच नियम यह हैं-(१) बड़ा स्नान न करना (२) क्षौर कर्म न करना, (३) पाँव में जूता न पहनना, (४) धोती की एक लांग खुली रखना, (५) दिन में ब्रह्मचर्य पालना।
(६) ब्रह्मचर्य पडिमा--पूर्वोक्त पाँचों पडिमाओं का अनुष्ठान करते हुए छह मास पर्यन्त विशुद्ध और अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करना।
.. (७) सचित्तत्याग पडिमा--पिछली छहों पडिमानों को पालते हुए सात मास तक सब प्रकार की सचित वस्तुओं के उपभोग, परिभोग का परित्याग करना ।
(5) अनारंभ पडिमा--पूर्वोक्त लातों पडिमाओं का आचरण करते हुए पाठ माल तक पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा ऋस काय का स्वयं प्रारंभ न करना।
__(8) प्रेषणारंभ पडिमा--पिछली पाठों पडिमाओं का श्राचरण करते हुए पृथ्वी आदि षटकाय का आरंभ दूसरे से न कराना।
(१०) उद्दिष्टत्याग पडिमा--पूर्वोक्त ,नव पडिमाओं के,विधान का पालन करते हुए दस मास पर्यन्त, अपने लिए बनाये हुए आहार को ग्रहण न करना।
(११) श्रमणभूतपडिमा-पूर्वोक्त दस पडिमाओं के अनुष्ठान के साथ ग्यारह ... * प्रतिज्ञा पडिमा के स्थान परं किसी-किसी ग्रन्थ में कायोत्सर्ग पडिमा का विधान देखा जाता है । देखो हेमचन्द्राचार्य कृत योग शास्त्र, तृतीय प्रकाश ! ..
... ...
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सातवां अध्याय
[ २७७ ] महीने तक श्रमण का वेष धारण करना । तीन करण, तीन योग से सावद्य कार्य का त्याग करना | मस्तक तथा दाढ़ी के केशों का लुंचन करना, साधु के समान ही निर्दोष भिक्षा-वृत्ति करना । तात्पर्य यह है कि ग्यारहवीं पडिमा का धारी श्रावक प्रायः साधु के समान आचरण करता है । किन्तु वस्तुतः वह साधु नहीं है, क्योंकि वह यावज्जीवन यह अनुष्ठान नहीं करता । साधु होने का भ्रम दूसरों को न हो, इसलिए वह अपने रजोहरण की दंडी पर वस्त्र नहीं लपेटता, चोटी रखता है और धातु के पात्र रखता है ।
पडिमा सम्वन्धी पूर्ण विधि का अनुष्ठान करने के लिए उपवास करना अनिवार्य है । पहली पडिमा में एक दिन उपवास, एक दिन पारणा, दूसरी में दो दिन उपवास एक दिन पारणा, तीसरी में तीन दिन उपवास एक दिन पारणा, इसी प्रकार क्रमशः बढ़ते-बढ़ते ग्यारहवीं पडिमा में ग्यारह दिन उपवास, एक दिन पारणा, फिर ग्यारह दिन का उपवास और एक दिन पारणा, करना होता है ।
समस्त पडिमाओं के अनुष्ठान में साढ़े पांच वर्ष व्यतीत हो जाते हैं । यह स्मरण रखना चाहिए कि अगली पडिमा का श्राचरण करते समय पिछली समस्त पडिमाओं की विधि ( उपवास के सिवाय ) का पालन अनिवार्य है ।
मूल :- खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं ममं ण केइ ॥ ५ ॥
छाया:- क्षमयामि सर्वान् जीवान्, सर्वे जीवा क्षमन्तु मे । मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न के नापि ॥ ५ ॥
शब्दार्थ : - मैं सब जीवों से क्षमाता हूँ - क्षमायाचना करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा प्रदान करें । सर्व भूतों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है ।
भाष्यः - पूर्वोक्त समस्त श्राचार के पालन का उद्देश्य श्रात्मिक निर्मलता प्राप्त करना है । जो श्रावक इस आचार का पालन करता है उसमें इतनी सरलता और निर्मलता आ जाती है कि वह जगत् के प्रत्येक प्राणी पर - कीड़ी और कुंजर पर साम्यभाव धारण करता है । सब प्राणियों पर वह मैत्री भाव धारण करता है - सब को मित्र की भांति देखता है, किसी के साथ वैर की भावना नहीं रखता । ज्ञात रूप से अथवा अज्ञात रूप से किसी जीव के विरुद्ध कोई कार्य किया हो, प्रतिकूल वचन का उच्चारण किया हो अथवा किसी का बुरा चिन्तन किया हो तो वह उससे शुद्ध अन्त:करण से क्षमा की याचना करता है और अपनी ओर से सब को क्षमा का दिव्य दान देता है । तात्पर्य यह है कि जैसे कोई गृहस्थ, गृह में साँप का रहना सहन नहीं .कर सकता और जब तक साँप बाहर नहीं निकल जाता तब तक उसे शांति नहीं • मिलती उसी प्रकार किसी का अपराध करने पर सच्चा श्रावक, जब तक क्षमायाचना करके शुद्धि लाभ नहीं करता तब तक उसे शांति नहीं मिलती । एक चार
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[ २७८ ]
धर्म-निरूपण क्षमा-याचना करने के पश्चात् वह सतत् सावधान रह कर फिर उस भूल . को नहीं दुहराता है। .
प्रायः देखा जाता है कि अनेक बार हमें ज्ञान नहीं होता, फिर भी हमारी किसी . कायिक, वाचिक या मानसिक चेष्टा से अन्य जीवों को कष्ट पहुंच जाता है । इस कष्टदान का प्रतीकार शुद्ध अन्तःकरण से क्षमा-याचना करना है। इसी कारण श्रावक और साधु सामुदायिक रूप से समस्त जीवों से क्षमा-प्रार्थना कर लेते हैं और कभीकभी ज्ञात अपराध की अवस्था में विशेष व्यक्तियों से क्षमा-याचना करते हैं। क्षमायाचना, यदि सच्चे अन्त:करण से की जाय तो, आत्म-शुद्धि का प्रबल कारण होती है। इसी प्रकार अपने अपराधी को क्षमा-प्रदान करना भी महत्वपूर्ण है । हृदय में जर निष्कषायता की भावना उत्पन्न होती है, श्रावेश का प्रावल्य नहीं होता, तव अपराधी को क्षमा देकर अपने हृदय को निश्शल्य बनाया जा सकता है। क्षमायाचना और क्षमा प्रदान से आत्म संतोष की अनुभूति होती है और वैर की परस्परा एवं चिरंतनता उच्छेद हो जाता है। अतएव हृदय को हलका बनाने तथा भावी कल्याण के निमित्त क्षमा का आदान-प्रदान अतीव उपयोगी है। मूलः-अगारी समाइ अंगाई, सड्ढी काएण फासए ।
पोसहं दुहश्रो पक्खं, एगराइं न हावए ॥ ६॥ छायाः अगारी सामायिकाङ्कानि; श्रद्धी कायेन स्पृशति । ।
पोपधमुभययोःपक्षयोः, एकरात्रं न हाययेत ॥६॥ शब्दार्थः-श्रद्धावान् श्रावक (गृहस्थ ) सामायिक के अंगों को काया के द्वारा स्पर्श करे-शरीर से पाले और दोनों पक्षों में, पोषध व्रत करे । इसमें एक रात्रि भी न्यूनता न करे। . .
भाष्य:-श्रावक के समस्त प्राचार का मुख्य ध्येय सास्यभाव की प्राप्ति होना है। और साम्यभाव की प्राप्ति का साधन सामायिक है । अतएव विशेष रूप से सामायिक का विधान करते हुए. शास्त्रकार ने कहा है कि श्रावक को सामायिक के समस्त अंगों। समता, शान्ति आदि ) के पालन करने का विचार मात्र नहीं करना चाहिए . प्रत्युत शरीर से भी उसका अनुष्ठान करना चाहिए।.
इसी प्रकार एक मास के दो पक्षों में अर्थात् शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में तीन-तीन पोषधोपवास भी उसे अवश्यमेव करने चाहिए।
संस्कृत भाष्य में सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-'समस्य राग द्वेष विनिर्मुक्तस्य सतः, श्रायः-- ज्ञानादीनां.. लाभः प्रशमसुखरूपः, समायः, समायः एव सामायिकम् ' अर्थात् रागादि विकार रहित पुरुष को प्रशम आदि की प्राप्ति होना सामायिक है । ' पोषं-धर्मस्य पुष्टिं धत्ते इति पोषधः ' अर्थात् जिससे धर्म का पोपण होता है-जिस व्यापार से धर्म की पुष्टि होती है वह पोषध व्रत है।
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सातवां अध्याय
[ २७६ ] .. सामायिक और पोषध व्रत का निरूपण श्रावक के वारह व्रतों के विवेचन में किया जा चुका है । जिज्ञासुओं को वहीं देखना चाहिए । पुनरुक्ति के भय से यहां विस्तार नहीं किया जाता। . .
सामायिक और पोषध व्रत को काय से अनुष्ठान करने का विधान करने से सन और वचन से करने का विधान भी उसी में प्रान्तर्गत समझना चाहिए।
मूलः-एवं सिमखासमावण्णो, गिहिवासे वि सुव्वए । . मुच्चई छविपव्वाश्रो, गच्छे जक्खस लोगयं ॥७॥ छाया:-एवं शिक्षासमापन्न, गृहिवासेऽपि सुव्रतः ।
मुच्यते छविःपर्वणो, गच्छेत् यत्तस लोकताम् ।। ७ ॥ शब्दार्थः--इस प्रकार शिक्षा से युक्त गृहस्थ, गृहस्थी में रहता हुआ भी सुव्रती होता है । वह औदारीक शरीर का त्याग कर के यक्ष देवों का लोक-स्वर्ग प्राप्त करता है।
__भाष्यः-गृहस्थम का पहले जो विवेचन किया गया है, उसका फल प्रदार्शत करते हुए शास्त्रकार ने यह गाथा कही है ।
शिक्षा का अर्थ यहां चारित्र है । पूर्वोक्त द्वादश व्रत रूप चारित्र से सम्पन्न श्रावक, गृहस्थी में निवास करता हुआ अर्थात् गृहस्थोचित कर्तव्यों का पालन करता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त हो जाता है और स्वर्ग को प्राप्त होता है।
पहले बतलाया गया है कि मनुष्य और तिर्यञ्च जीवों का अस्थि, मांस, आदि सप्त धातु मय शरीर औदारिक शरीर कहलाता है और देवों का शरीर सप्त धातु वर्जित वैक्रिय शरीर कहलाता है। यक्ष, व्यन्तर देवों की एक विशेष जाति है किन्तु सम्यक्त्वधारी श्रावक काल करके व्यन्तर देव नहीं होता। अतएव यक्ष शब्द से यहां सामान्य देव योनि का अर्थ समझना चाहिए । विशेष का विचार करने पर वह वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है।
यह विधान सम्यक्त्व और व्रत से विभूषित श्रावक के लिए समझना चाहिए। सम्यक्त्वहीन तपस्या आदि करने वाले मनुष्य भी हो सकते हैं, जैसा कि तृतीय अध्ययन की दूसरी गाथा में बताया गया है । अतः पूर्वोक्त कथन में कोई विरोध नहीं है। मूल:-दीहाउया इढिमंता, समिद्धा काम रूविणो : .
अहुणोववन्नसंकासा, भुजो अच्चिमालिप्पभा ॥८॥ छायाः-दीर्घायुषः ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः ।
अधुनोत्पन्नसंकाशाः, भूयोऽर्चमालि प्रभाः॥८॥ 'शब्दार्थः-जो गृहस्थ, श्रावक धर्म का पालन करके देव योनि में उत्पन्न होते हैं, वे वहां दीर्घ आयु वाले, ऋद्धिमान, समृद्धिशाली, इच्छानुसार रूप बनानेवाले, तत्काल
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[ २८० ]
धर्म-निरूपण उत्पन्न हुए के समान-वृद्धावस्था से रहितं और अनेक सूर्यों की प्रभा के समान देदीप्यमान कान्ति से युक्त होते हैं।
भाष्यः-पूर्ववर्ती गाथा में श्रावक का देव गति में जाना चताया गया था। सूत्रकार ने यहां देवगति की विशेषताओं का कथन किया है । मनुष्यगति की आयु, ऋद्धि, समृद्धि, श्रादि ले देवों की आयु और ऋद्धि श्रादि की तुलना की जाय तो प्रतीत होगा सांसारिक सुख मनुष्य गति में एक विन्दु के बराबर है तो देवगति में समुद्र के समान है । और जो श्रावक, मानव जीवन में त्याग और तपश्चर्या का अनुण्ठान करते हैं उन्हें वह सुखमय देव योनि प्राप्त होती है।
___मनुष्य की आयु प्रथम तो कम ही होती है, और वह भी निरुपद्रव नहीं है। अग्नि, जल, विष, शस्त्र श्रादि से बीच में ही वह शीत्र समाप्त हो सकती हैं। देवों की सागरों तक की लम्बी श्रायु है और बीच में वह कदापि नहीं टूट सकती। देवों की ऋद्धि के आगे मनुष्य की ऋद्धि नगण्य है, संताप कारक है, किसी भी क्षण नष्ट हो जाने वाली है। यही हाल मनुष्यों की समृद्धि का है।
मनुष्यों में कोई अंधा, कोई काना, कोई लुला, कोई लंगड़ा, कोई बौना कुबड़ा, कोई कुरूप, विकृत अंगोपांग वाला और कोई चपटी नाक वाला होता है। इस कुरूपता का इच्छा करने पर भी मनुष्य प्रायः प्रतिरोध नहीं कर पाता । जो लोग सुन्दर समझे जाते हैं, उनमें भी कोई न कोई दोप विद्यमान रहता है। कदाचित् काई सौन्दर्य के समस्त लक्षणों से सम्पन्न पुरुप उपलब्ध हो जाय तो उसका शरीर औदारिक शरीर संबंधी स्वाभाविक दुर्बलता वाला होता है । तिसपर औदारिक शरीर भीतर से मल-मूत्र प्रादि घृणोत्पादक पदार्थों से भरपूर और अपावन है। देवों में, इन सव दोषों में से एक भी दोष नहीं पाया जाता । सभी देव सुन्दर एवं सौम्य होते हैं। उनका शरीर मल-मूत्र आदि अपावन वस्तुओं से सर्वथा रहित होता है और वे अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण कर सकते है।
' सुन्दर से सुन्दर मनुष्य भी वृद्धावस्था रूपी राक्षली का शिकार होने पर असु. न्दर दिखाई पड़ता है, पर देवों को वृद्धास्था का भोग नहीं बनना पड़ता । जब तक वे देव योनि में रहते हैं तब तक युवा ही रहते हैं । उनके गले में पहनी हुई माला का मुरझा जाना ही उनकी श्रायु की सन्निकट समाप्ति की सूचना देता है । ' उनके शरीर की भाभा की उपमा ही किसी के शरीर से नहीं दी जा सकती, अतएव खयं सत्रकार कहते हैं कि अनेक देदीप्यमान सूर्यों की भाभा के समान उनके शरीर की कान्ति होती है। ... . . .
__ अतएव यह स्पष्ट है कि मनुष्य का शरीर, मनुष्य का ऐश्वर्य, मनुष्य के भोगोपभोग, और मनुष्य के सौन्दर्य से देवों का शरीर आदि बहुत ही उत्तम कोटि का होता है । इस संव की प्राप्ति, मनुष्य भव में सेवन किये जाने वाले सदाचार से होती है। अतएव सम्यक् चारित्र का अनुष्ठान करना चाहिए ।
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सातवां अध्याय
[ २८१ ] ___ यद्यपि सख्यक चारित्र का अनुष्ठान करने से स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति होती है, पर सस्यक चारिन के अनुष्ठान का उद्देश्य यह सुख पाना नहीं होना चाहिए। चारित्र का अनुष्ठान तो अक्षय, अनन्त और आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए किया जाता है। जैसे कृषक धान्य-प्राप्ति के लिए कृषिकर्म करता है, फिर भी उसे आनुषंगिक फल के रूप में भूसा प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार स्वर्ग के सुख चारित्र-पालन का
आनुषंगिक फल है । ऐसा विचार कर अन्य पुरुषों को श्रात्मकल्याण के निमित्त ही बारित्र का प्रतिपालन करना चाहिए, सांसारिक भोगोपयोग की प्राप्ति के लिए नहीं। देवयोनि के सुख संसार में अनुपम होने पर भी लमय की सीमा से सीमित हैं, परिमाण की दृष्टि से परिसित हैं और नवीन कर्म-बन्धन के कारणभूत हैं । उच्च श्रेणी के देवों की अपेक्षा निम्न श्रेणी के देवों के भोगोपभोग ल्यून होने से वे संताप के भी सारण होते हैं। मल:-ताणि ठाणाणि गच्छति, सिक्खिता संजमं तव।।
भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिव्वुडा ॥॥ छाया:-तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः। '
भितुका वा गृहस्था वा, ये संति परिनिवृत्ताः ॥६॥ शब्दार्थः--जो भिक्षुक अथवा गृहस्थ क्रोध आदि से रहित हैं के संयम और तप का अभ्यास करके दिव्य स्थान प्राप्त करते हैं।
भाष्यः-यहां पर शास्त्रकार ले संयम और तप का पुण्य रूप फल प्रदर्शित किया है । इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो परिनिवृत्त हो जाते हैं अर्थात् पूर्ण रूप से कषाय श्रादि का त्याग कर अपनी आत्मा को विशुद्ध बना लेते हैं वे ही संयम और तप की यथावत् अाराधना कर सकते हैं। और जो संयम तथा तप की आराधना करते हैं उन्हें दिव्य स्थान प्राप्त होता है-स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
कहीं-कहीं 'संति परिनिव्वुडा' एक ही पद मान कर व्याख्या की गई है। इस व्याख्या के अनुसार 'शान्तिपरिनिवृत्ताः' ऐसा संस्कृत रूप सम्पन्न होता है। उसका अर्थ है-'शान्ति के द्वारा पूर्ण रूप से संताप रहित है। ऐसी व्याख्या करने में भी कोई बाधा नहीं है। मुल:-बहिया उड्ढमादाय, नावकंखे कयाइ वि।
पुवकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ॥ १०॥ ... छायाः-वाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदापि च । :
__पूर्वकर्मक्षयार्थ, इमं देहे समुद्धरेत् ॥ १० ॥ शब्दार्थः--संसार से बाहर ऊर्ध्व अर्थात् मोक्ष की अभिलाषा रख कर, सांसारिक विषय भोगों की आकांक्षा कदापि न करे। और पूर्व-संचित कर्मों का क्षय करने के लिए
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[ २८२ ]
धर्म-निरूपण . इस मानव-शरीर को निर्दोष आजीविका से धारण कर रक्खे।
__ भाष्य:--सांसारिक विषय-भोगों की आकांक्षा जब अंतःकरण में उत्पन्न होती _ है तब मनुष्य अत्यन्त सक्लेशमय परिणामों से मुक्त हो जाता है। उसके चित्त की
समाधि भंग हो जाती है । वह रात दिन भोगोपभोग की सामग्री जुटाने में व्यस्त रहने लगता है, क्योंकि सांसारिक भोगोपभोग पराश्रित हैं-बाह्य पदार्थों पर अवलंबित. हैं अतएव वाह्य पदार्थों को जुटाये बिना भोगोपभोग की प्राप्ति नहीं होती। जब मनुष्य भोगोपभोग जुटाने में व्यस्त हो जाता है तो घोर अशान्ति और चिन्ता का पात्र बनता है। यदि पाप का उदय हुआ तो वह सामग्री संचित होने के बदले नष्ट हो जाती है । पुण्योदय के फल-स्वरूप सामग्री की प्राप्ति हो जाती है तो उससे संतोष नहीं होता-प्रत्युत सामग्री-वृद्धि के अनुसार तृषणा की भी वृद्धि होती चलती है और उसके फल रूप में अशान्ति की उग्रता होती जाती है। उसके संरक्षण की एक नवीन चिन्ता का उदय होता है, दैवयोग से जब वह संरक्षण करने पर भी नष्ट हो जाती है तव वियोगजन्य संताप की अग्नि से मनुष्य भस्म होने लगता है।
___ यही नहीं, भोगोपभोग के सेवन से नवीन कर्मों का बंध होता है और बंध, मुक्ति का विरोधी है। अतएव जो मनुष्य मुक्ति की आकांक्षा करता है उसे बंध के कारणभूत विषयभोगों का परित्याग करना चाहिए।
विषय भोगों की आकांक्षा का त्याग करना चाहिए, यह निषेध प्रधान उपदेश है, पर आकांक्षा न करके करना क्या चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए सूत्रकार ने विधिप्रधान विधान किया है कि पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय करने के लिए इस देह को धारण करना चाहिए अर्थात् निरवद्य आजीविका के द्वारा शरीर का पालन-पोपण करना चाहिए ।
संसार में अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं जो अपने जीवन का उद्देश्य ही नहीं समझते। उन्हें मानव-जीवन प्राप्त हो गया है अतएव वे उस जीवन को भोग रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि लोग जीने के लिए ही जीते हैं । इसके अतिरिक्त उनके जीवन का अन्य कोई उद्देश्य नहीं होता । इसी कारण संसार के अबोध प्राणी मानव-शरीर को पा लेने के पश्चात् भी उससे लाभ नहीं उठाते हैं । सूत्रकार ने उन्हें बोध देने के लिए यहां अत्यन्त महत्वपूर्ण बात कही है । सूत्रकार कहते हैं-संचित कर्मों का क्षय करने के लिए शरीर का पोपण कहा है शरीर का पोषण करने के लिए कर्मों का संचय मत करो। देह के निमित्त श्रात्मा की. अपेक्षा न करो। शरीर में अनुरक्त वनकर श्रात्मकल्याण को न भूलो । प्रत्युत श्रात्म-हित के लिए ही शरीर का रक्षण करने का विधान है। शरीर को पात्मिक कल्याण का साधन बनाओ । इसीमें देह की सार्थकता है। इसी में जीवन के महत्तम साध्य की सिद्धि है। यही मानव जीवन का चरम ध्येय है। . . __ . शरीर का पोपण जव अात्महित की दृष्टि से किया जाता है तब उसके पोषण के लिए ऐसे साधनों का प्रयोग होता है जिनसे आत्महित में विघ्न न पड़े । जो लोग
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सातवां अध्याय
[ २८३ ] अधिवेक के अतिरेक से शरीर-पोषण को जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं वे उचितअनुचित, न्याय-अन्याय तथा धर्म-अधर्म का भेद भूलकर किसी भी उपाय का अवलम्बन करके शारीरिक सुख प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं । विवेकी जीव प्रात्महित के अनुकूल उपायों से ही शरीर की रक्षा करते हैं। यह भाव व्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने 'समुद्धरे' पद का प्रयोग किया है, जिसका प्राशय यह है कि निरवद्य वृत्ति से अर्थात् निष्पाप उपायों से ही शरीर-पोषण करना शाहिए । मूला-दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा ।
मुहादाई मुहाजीवी, दो विगच्छति सोग्गई ॥११॥ छायाः-दुर्लभस्तु मुधादायी, मुधाजीव्यपि दुर्लभः ।
मुधादायी मुधाजीवी, द्वावपिगच्छतः सुगीतम् ॥ ११ ॥ शब्दार्थ:--निष्काम बुद्धि से देने वाला और निष्काम बुद्धि से जीने वाला-दोनों दुर्लभ हैं । निष्काम बुद्धि से देने वाले और निष्काम बुद्धि से जीने वाला-दोनों सद्गति में जाते हैं।
भाष्यः-सूत्रकार यहां दाता और दानगृहीता की विशेषता प्रदर्शित करते हुए, दोनों को प्राप्त होने वाले फल का निर्देश करते हैं ।
सांसारिक विषय भोगों की कामना से अतीत होकर, शुद्ध वुद्धि से-निष्काम आवना ले या अनासक्त चित्त से किया जाने वाला कार्य वास्तविक फल प्रदान करता है। इस प्रकार की भावना में विषयों की अभिलाषा को स्थान नहीं मिलता, और इसी कारण उस कार्य की महत्ता बहुत बढ़ जाती है । निष्काम कर्म की बड़ी महिमा है । जो लोग विषय-भोग की प्राप्ति के लिए, इस लोक में धन-वैभव, पुत्र, पौत्र, श्रादि पाने के लिए अथवा परभव में स्वर्ग के सुख पाने की कामना से प्रेरित होकर दान
आदि धर्म-कृत्य करते हैं, वे वास्तव में धर्म-कृत्य नहीं करते वरन् एक प्रकार का सौदा करते हैं, व्यापार करते हैं और वृथा धर्म का प्राडस्बर करते हैं। जैले वणिक् अपने पास से कुछ धन लगा कर, अधिक धन पाने के लिए, दुकान करता है, उसका धन लगाना धर्म नहीं है, इसी प्रकार अधिक धन-सम्पत्ति या दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए थोड़े से धन का त्याग करने वाला व्यक्ति भी एक प्रकार का व्यापार ही करता है । उसका दान, दुकान में पूंजी लगाने के समान है अतएव वह धर्म नहीं कहला सकता। सच्चे दान का स्वरूप यही है कि
'स्वस्याति सर्गो दानम् अर्थात किसी वस्तु पर से अपना ममत्व हटा लेना-उसका त्याग कर देना दान है । जहां त्याग की हुई वस्तु के द्वारा अधिक प्राप्त करने की अभिलापा है वहां • ममता का त्याग नहीं है, बल्कि ममता की वृद्धि है और इस कारण वह दान सच्चा दान नहीं है।
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[ २८४ ]
... धर्म-निरूपण . ___इसका तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिए कि निष्काम बुद्धि से किये जाने वाले त्याग का फल प्राप्त नहीं होता है । वल्कि इसी प्रकार का त्याग वास्तविक और परिपूर्ण फल प्रदान करता है। केवल फल प्राप्ति की आशा अन्तःकरण में उद्भूत नहीं होनी चाहिए । फल की प्राशा हृदय में चुभे हुए शल्य की भांति सदा खटकती रहती है । वह विकलता उत्पन्न करती है। उससे अन्तरंग की समाधि स्वाहा हो जाती है। विशेष प्रकार की तृष्णा से अभिभूत होकर प्राणी शांति से वंचित हो जाता है। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं कि संसार में दाता तो बहुत हैं पर निष्काम भावना वाला दाता दुर्लभ है। . .
. संसार में सच्चा दाता ही दुर्लभ नहीं है किन्तु सच्चा अदाता-गृहीता-भी दुर्लभ है । कितने ऐसे महापुरुष हैं जो दाता का दान, निष्काम भावनापूर्वक जीवननिर्वाह करने के लिए ग्रहण करते हैं ? कठोर साधना करते हुए, नाना प्रकार के उपलगों और परीषहों की यातना भोगते हुए भी जिनके हृदय में स्वर्ग के सुखों की अभिलाषा का उदय नहीं होता, जो चक्रवर्ती के महान् और विपुल वैभव को विचार भी नहीं करते, उन धन्य पुरुपों की संख्या संसार में अधिक नहीं हो सकती । इसी कारण सूत्रकार ने कहा है कि मुधाजीवी भी दुर्लभ है।
जो सांसारिक भोगोपभोगों की कामना से रहित होता है, जो दाता के सामने दीनता प्रकट नहीं करता, दीनता का भाव जिसके हृदय में उत्पन्न नहीं होता, जो. बदले में दाता की कोई सेवा-चाकरी नहीं करता, शुद्ध धर्म-भावना से प्रेरित होकर जो जीवन-निर्वाह करता है, वह मुधाजीवी पुरुष कहलाता है । वास्तव में मुधाजीवी और मुधादाता-दोनों ही संसार की शोभा हैं। दोनों ही सद्गति प्राप्त करते हैं। मूलः-संति एगेहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा। ..
गारत्येहिं य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥ १२ ॥... ... छाया:-सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, गृहस्थाः संयमोत्तराः।
' आगारंस्थेभ्यः सर्वेभ्यः, सांधवः संयमोत्तराः ॥१२॥ शब्दार्थः-किसी-किसी शिथिलाचारी भिनु से गृहस्थ संयम में अधिक श्रेष्ठ होते हैं। और सब गृहस्थों से, साधु संयम में श्रेष्ठ हैं। .. .. भाष्यः-सूत्रकार ने यहां गृहस्थ-श्रावक और साधु की तुलना करते हुए दोनों की श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता का दिग्दर्शन कराया है।
इस अध्ययन के प्रारंभ में श्रावक और साधु के प्राचार का कुछ परिचय दिया गया है। उससे विदित होगा.कि.साधु महाव्रतधारी होता है। और श्रावक अांशिक व्रत अर्थात् अणुव्रतों का ही पालन करता है। साधु संसार संबंधी समस्त
व्यापारों का त्याग करदेता है, श्रावक संसार में रहता हुआ, संसार संबंधी श्रारंभ .. ... परिग्रह का सेवन करता है । इस प्रकार श्रावक का त्याग और तज्जन्य आत्मविकास
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सातवां अध्याय
[ २६५ ] न्यून कोटि का होता है जब कि साधु का त्याग और आत्मविकास उच्चश्रेणी पर पहुंच जाता है ।
यद्यपि श्रावक और साधु दोनों ही मुमुक्षु होते हैं । दोनों ही प्रात्म-शुद्धि के पथ के पथिक होते हैं । दोनों का उद्देश्य मुक्तिलाम करना है। दोनों पाप ले बचने का .
प्रयत्न करते रहते हैं। दोनों संयम की साधना करते हैं। दोनों कर्मों और कषायों से । पिण्ड छूड़ाना चाहते हैं। फिर भी दोनों की कक्षा में अन्तर. है । श्रावक अनन्तानु
बंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का विनाश कर पाता है, पर साधु प्रत्याख्यानाचरण कषाय को नष्ट कर चुकता है। दोनों के संयम में लाधना में और त्याग में पर्याप्त अन्तर है। इसी कारण चार तीर्थों में श्रावक को स्थान तो मिला है पर उसमें साधु का नाम सर्वप्रथम पाता है । इसी अभिप्राय से यहां समस्त गृहस्थों की अपेक्षा भिक्षु-साधु को श्रेष्ठ कहा गया है।
किन्तु लोक में देखा जाता है कि अनेक अयोग्य पुरुष साधु के विविध प्रकार के कल्पित वेष धारण करके, गौरव की आकांक्षा करते हैं। उनमें साधु-जीवन की • पवित्रता नहीं होती। साधु पद के योग्य त्याग, तप, संयम न होने पर भी वे साधु कहलाते हैं। उन्हें सचित्त-अचित्त का विवेक नहीं होता । कन्दमूल आदि अनन्त काय का निस्संकोच होकर भक्षण करते हैं। रात्रि-भोजन करते हैं, बिना छना जल पीते हैं। ऐसे-ऐसे कार्य करने के कारण वे स जीवों की हिंसा से भी निवृत्त नहीं होते हैं । अतएव ऐसे भिक्षुकों की अपेक्षा यतना पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला, निष्प्रयोजन बस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत, और अनन्त काय आदि के भक्षण का त्यागी गृहस्थ संयम की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ है।
जिन वचनों से सर्वथा अपरिचित, तत्वार्थ-श्रद्धान से हीन, हिंसा में धर्म मानने वाले और निरंकुश प्रवृत्ति करने वाले, इन लोगों को भी कोई-कोई श्रावक 'यह हमसे तो श्रेष्ठ ही है ' ऐसा समझकर धर्म-बुद्धि ले वन्दना आदि व्यवहार करते हैं। उन्हें सावधान करने के लिए शास्त्रकार का यह कथन है।
___ गाथा के पूर्वार्ध में 'भिक्ख' पद का प्रयोग किया गया हैं। और उत्तरार्ध में 'साहु' शब्द का । यह शब्द-भेद ऊपर से विशिष्ट प्रतीत न होने पर भी महत्वपूर्ण रहस्य प्रकट करता है। जिन भिक्षुओं से गृहस्थ भी श्रेष्ट हैं, वे सिर्फ 'भिक्षु' हैंभिक्षा मांग कर आजीविका निर्वाह करने वाले हैं, यह सूचित करने के लिए वहां 'भिक्खूहि' कहा गया है । ' साधु ' अर्थात् शास्त्रप्रतिपादित संयम-साधना में सतत उद्यत रहने वाले महापुरुषों से गृहस्थ श्रेष्ठ नहीं है । गृहस्थों से 'साधु' का (भिक्षु का नहीं ) पद सदैव ऊँचा होता है । यह बताने के लिए गाथा के उत्तरार्ध में 'साहू ' पद का प्रयोग किया गया है। कहा भी है
भयाशास्लेह लोभाच, कुदेवागमलिङ्गिनाम् ।
प्रणायं विनयं चैव, न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ .... अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष भयसे, आशा से, स्नेह से और लोभ से कुदेवों को,
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[ २८६ ]
धर्म-निरूपण्ड कुशास्त्रों को तथा कुलिंगी साधुओं को न प्रणाम करे और न उनका विनय ही करे। .
इस प्रकार व्यवहार करने वाला सस्यग्दृष्टि अपने धर्म के गौरव की रक्षा . करता है, मिथ्या-पाचार का प्रचार एवं अनुमोदन नहीं होने देता और अपने स्वीकृत मार्ग पर दृढ़ रहता है । इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह अन्य देव आदि का तिरस्कार करता है। उन पर सम्यग्दृष्टि की मध्यस्थ भावना रहती है। मूलः-चीराजिणं नगिणिनं, जडी संघाडि मुडिणं ।
एयाणि वि न ताइंति, दुस्सीलं परियागयं ॥ १३॥
छायाः-चीराजिनं नग्नत्वं, जटित्वं संघाटित्व मुण्डित्वम् । •
एतान्यपि न ब्रायन्ते, दुश्शीलं पर्यायगतम् ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-दुराचार का सेवन करने वाला पुरुष चाहे केवल वल्कल तथा चर्म के वस्त्र पहनने वाला, नग्न रहने वाला, जटा रखने वाला, चीथड़े सांध-सांध कर पहनने वाला, सिर मुंडाने वाला या लोच करने वाला हो, वह दीक्षा धारण करके भी रक्षा . नहीं कर सकता।
भाष्यः-जिनमत में बाह्य वेष और वाह्य श्राचार का कितना मूल्य है,यह बात इस गाथा ले स्पष्ट हो जाती है।
कोई पुरुष छाल के वस्त्र धारण करके, चमड़े से देह ढंक कर, अथवा सर्वथा नग्न रहकर, जटा बढ़ाकर, चीथड़े बटोर कर उनसे शरीर ढंक कर या मस्तक का मुंडन कराकर, भले ही तपस्वी कहलाए और भले ही काय को क्लेश पहुंचा कर कृश कर डाले, और गृह का त्याग करके अरण्य-वास करने लगे, किन्तु वह जगत् के जन्म . जरा-मरण आदि से न अपनी रक्षा कर सकता है और न अपने अनुयायियों की रक्षा कर सकता है।
सदाचार ही दुःखों ले रक्षा करने वाला है। सदाचार का सेवन करने वाला । पुरुष दुःनों से अपने को बचा सकता है और अपने भक्तों की भी रक्षा कर सकता है । जो अपनी रक्षा में समर्थ होगा वही दूसरों की रक्षा कर सकेगा। जो स्वयं कुमार्ग पर चलता है वह दूसरों को सन्मार्ग पर नहीं चला सकता। जो स्वयं अज्ञान है, वह अपने शिष्यों को सज्ञान कैसे दे सकता है ? जो लदाचार से रहित है और इस कारण जो अपना त्राण श्राप नहीं कर सकता वह दूसरों को सदाचार-परायण वना कर उनकी रक्षा कर सकेगा, ऐसी आशा करना वृथा है । अतएव जो अपनी रक्षा
और पर की रक्षा करना चाहते हो उन्हें सर्वप्रथम प्राचार का यथार्थ स्वरूप समझ । कर उसका पालन करना चाहिए । कहा भी है- .
... श्राचार प्रथमो धर्मः। . अर्थात्:-श्राचार-सदाचार-पहला धर्म है। . . . 'प्राचारः प्रथमो धर्मः' इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि प्राचार धर्म है और
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सातवां अध्याय
। २८७ ] धर्म प्राचार है। इससे सदाचार का स्वरूप सहज ही समझ में आ सकता है। धर्म का लक्षण पहले अहिंसा, संयम और तप बतलाया जा चुका है अतएव सदाचार का भी यही लक्षण लिद्ध होता है । तात्पर्य यह है कि जिस आचार में अहिंसा, संयम और तप की प्रधानता होती है वही आचार सदाचार कहलाता है।
इस सदाचार ले विहीन पुरुष चाहे जितना काय-क्लेश करे, वह आत्मस्पर्शी न हो कर शरीरस्पर्शी ही होगा। केवल शरीरस्पर्शी आचार का प्रभाव शरीर पर ही हो सकता है, उससे श्रात्मा की विशुद्धि की संभावना नहीं की जा सकती। और श्रात्म-विशुद्धि के अभाव में आत्मा की रक्षा नहीं हो सकती।।
अनादि काल से आत्मा के साथ कषायों की जो कलुषता चढ़ी है वही दुःख का कारण है । वह कलुषता, विशुद्धता के द्वारा घुलती है । इसलिए दुःख से बचने के लिए भात्मिक शुद्धि की श्रावश्यकता है । विना नात्मिक शुद्धि के किसी भी प्रकार का वेष धारण करके और कोई भी दीक्षा धारण करके मनुष्य स्व-पर रक्षा में समर्थ नहीं हो सकता। . मूल:-अत्थंगयांम प्राइचे, पुरत्था य अणुग्गए ।
आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ॥ १४ ॥ . छाया:-अस्तंघत श्रादित्ये, पुरस्ताच्यानुद्गते ।
आहारमादिकं सर्व, मनसापि न प्रार्थयेत् ॥ १४ ॥ शब्दार्थः--सूर्य अस्त हो जाने पर तथा पूर्व दिशा में उदित न होने पर आहार आदि सभी पदार्थों को मन से भी न चाहे। ___ भाष्य:-प्रकृत गाथा में रात्रि भोजन के त्याग का विधान किया गया है। रात्रि में अंधकार होने के कारण, भोजन में तथा भोजन के पात्रों में यदि जीव उड़कर गिरते हैं अथवा चढ़ जाते हैं तो उनका दिखाई देना संभव नहीं है। कोई-कोई जन्तु तो इतने छोटे होते हैं कि विशेष सावधानी रखने पर ही दिन के तीन प्रकाश में दृष्टिगोचर होते हैं। वे रात्रि में किसी प्रकार भी दिखाई नहीं दे सकते । रात्रि में, बिना प्रकाश के अंधकार में भोजन किया जाय तो बड़े जीव भी दिखाई न देंगे और प्रदीप
आदि का प्रकाश किया जाय तो आसपास के सब जन्तु लिमटकर आ जाते हैं। इस प्रकार रात्रि भोजन किसी भी अवस्था में करने योग्य नहीं है। रात्रि भोजन अनेकानेक दोषों का घर है, घोर हिंसा का कारण है और न केवल धार्मिक दृष्टि से वरन् स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सर्वथा हेय है कहा भी है। . . .
मेघां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका बान्ति, कुष्टरोगश्च कोकिलः ॥ करटको दारुखण्डम्च वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ ..
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[ २८८ ]
धर्म-निरूपण विलनश्च गले वालः स्वरभंगाय जायने । .. इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशिभोजने ॥ अर्थात् भोजन में कीड़ी (चिउँटी ) चली जाय तो बुद्धि का नाश होता है, जू चली जाय तो जलोदर नामक भयंकर रोग हो जाता है, मक्खी चली जाय तो वमन हो जाता है, छिपकली चली जाय तो कोढ़ हो जाता है, कांटा या फांस मिल जाय तो गले में व्यथा हो जाती है, व्यंजनों में मिलकर विच्छू पेट में चला जाय तो तालू वेध डालता है, बाल गले में चिपक जाय तो स्वर-भंग हो जाता है, उत्यादि अनेक दोष रात्रि भोजन में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। यह ऐसे दोष हैं जो मिथ्या दृष्टियों के लिए और सम्यग्दृष्टियों के लिए भी समान हैं । यही कारण है कि जैनेतर ग्रंथों में भी रात्रि भोजन का निषेध किया गया है।
रात्रि भोजन को जब मिथ्यादृष्टि भी हेय मानते हैं और प्रत्यक्षतः अनेक हानियां उससे होती हुई प्रतीत होती हैं तब.श्रावकों को रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए । रात्रि भोजन के त्याग का जो उद्देश्य है उसकी पूर्ति करने के लिए न केवल रात्रि में ही भोजन का त्याग करना चाहिए, किन्तु दिन में भी जहां श्रालोक का भली' भांति प्रसार न होता हो ऐसे स्थान पर भोजन नहीं करना चाहिए और साथ ही लन्ध्या के समय, जब सूर्य का प्रकाश मंद पड़ जाता है, भोजन का त्याग करना चाहिए । कहा भी है
दिवस्याष्टमे भागे, मन्दीभूते दिवाकरे ।
नक्तं तु तद्विजानीयान्न नक्तं निशिभोजनम् ॥ अर्थात् रात्रि में जीमना ही रात्रि भोजन नहीं है वरन् दिन के आठवें भाग में, सूर्य का प्रकाश मन्द हो जाने पर भोजन करना भी रात्रि भोजन की गणना में सम्मि- .. लित है, क्योंकि रात्रि भोजन सम्बन्धी दोष उस समय भी होते हैं। - इसी प्रकार कई लोग रात्रि भोजन का त्याग करके भी रात्रि में बना हुआ भोजन कर लेते हैं और रात्रि में भोजन बनाते हैं । ऐसा करने में भी घोर हिंसा होती है। त्रस जीवों की हिंसा से अन्धकार में बचना शक्य नहीं है। अतएवं वनाने वाला त्रस-हिला के पाप का भागी होता है और उस भोजन का उपभोग करने वाला मांसभक्षण का दोषी ठहर जाता है । ऐसे भीषण पाप से बचने के लिए रात्रि में भोजन वनाना, रात्रि में बना भोजन जीमना और रात्रि भोजन करना-सभी का त्याग करना चाहिए। रात्रि भोजन त्याग छठे व्रत के रूप में शास्त्रों में वर्णित है और प्रत्येक श्रावक को व्रत रक्षा के लिए रात्रि भोजन त्याग करना अनिवार्य है।
गाथा में आहार के साथ 'आदिक' पद का प्रयोग किया गया है। महाव्रतधारी साधुओं को आहार के अतिरिक्त अन्य आवश्यक पदार्थ भी रात्रि में ग्रहण नहीं करना चाहिए । इतना ही नहीं, श्राहार या औषध श्रादि कोई भी अक्षणीय पदार्थ, आगामी दिन उपभोग करने के लिए रात्रि में अपने पाल भी उन्हें रखना न चाहिए । जो साधु
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[ २८६ ] आदि रख छोड़ते हैं वे वस्तुतः गृहस्थ की कोटि में ही गिने गये हैं, लिए संग्रह करना गृहस्थ का कार्य है, साधु का नहीं ।
प्राय को अत्यन्त पुष्ट करने के लिए सूत्रकार ने 'मनसापि न प्रार्थयेत' मी इच्छा न करे, ऐसा कहा है ।
रूवं जहा महूं, निद्धंतमलपावगं । गदोसभयातीतं तं वयं बूम माहणं ॥ १५ ॥
,
याः - जातरूपं यथा मृष्टं, निध्मात मलपापकम् ।
रागद्वेषभयातीतं तं वयम् ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥ १५ ॥
-अग्नि में सपा हुआ और कसौटी पर कसा हुआ सुवर्ण गुणयुक्त होता है,
;
द्वेष और भय से अतीत पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं ।
- इस माथा में तथा अगली गाथाओं में सूत्रकार ने ब्राह्मण का सच्चा है ।
र्ष में, प्राचीन काल से एक ऐसा वर्ग चला आता है जो अपनी संत्ता, स्थापित करने के लिए तथा स्थापित की हुई सत्ता को अक्षुण्ण बनाये अखण्ड - एक जातीय मानव समाज को अनेक खण्डों में विभक्त करता कर्म के आधार पर समाज की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए विभाग उचित है, जिसमें व्यक्ति के विकास को भी अधिक से अधिक अवजन्म के आधार पर किसी प्रकार का विभाग करना सर्वथा अनुचित है। का परिहार करने का ही यहां प्रयत्न किया गया है । एक व्यक्ति न और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ष वाले के घर जन्म समाज में पूज्य, आदरणीय प्रतिष्ठित और ऊँचा समझा जाय और सुशील, ज्ञानी और सतोगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म कारण नीच और तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाजना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के एक बहुसंख्यक भाग होता है, प्रत्युत यह सद्गुण और सदाचार का भी घोर अपमान है । व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचार सदाचार से ऊँचा उठ जाता न पर विजय प्राप्त करता है और तमोगुण सत्वगुण के सामने भादराता है। यह ऐसी स्थिति है, जो गुण- ग्राहक विवेकीजनों को सह्य नहीं
व विभाग का आधार जन्म न होकर गुण और कर्म ही हो सकता है 1 ही कोई व्यक्ति आदरणीय या प्रतिष्ठित होना चाहिए या अनादरणीय ष्ठेत माना जाना चाहिए। इसमें भी एक बात और ध्यान देने वंश-परम्परागत कर्म के अनुसार हो तो समाज का अधिक
योग्य है । बिकास हो
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। २६२ ]
धर्म-निरूपण उन्हें बेकार बना देना नहीं हैं । प्राचीन वृत्तान्तों से ज्ञात होता है कि अनेक लोगों ने अपनी अमुक इन्द्रिय को वश न कर सकने के कारण वेकार बना दिया । किसी ने अपने नेत्र फोड़ डाले और किसी ने अन्य इन्द्रिय को नष्ट कर डाला। इस प्रकार का इन्द्रिय-दमन एक जाति की हिला है और उसले इन्द्रिय-दमन का प्रयोजन प्रांशिक रूप में भी सिद्ध नहीं होता। ऐसा करना अज्ञान मूलक है और दुर्वलता का सूचक है।
इन्द्रियों का राजा मन है । मन ही इन्द्रियों को विषयों की और प्रेरित करता है। जब तक मन पर अधिकार न किया जाय तब तक इन्द्रियों के निरोध का कोई अर्थ नहीं है। इसी लिए मन को ही वंध और मोक्ष का कारण बतलाया गया है। अतएव मन की उच्छंखलता को रोकना यही प्रधान इन्द्रिय-दमन है। जो तपस्वी मन को वश में कर लेता है-उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाता है-स्वयं उसके इंगित पर नहीं चलता, वह अनायास ही इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है । उसकी इन्द्रियां दासी की भांति उसके अनुसार प्रवृत्त होती हैं । यही इन्द्रिय-दमन का वास्तविक अर्थ है।
अपचित मांस-शोणित-अर्थात् जिसका मांस और रक्त क्षीण हो गया हो। यद्यपि शरीर की कृशता में इसका समावेश हो सकता है तथापि धर्म-साधन में शरीर का मोह नहीं रखना चाहिए, यह बात विशेष रूप से प्रकट करने के लिए यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है।
सुव्रत-सम्यक् प्रकार से व्रतों का अनुष्ठान करने वाला । व्रतों का सम्यक् अनुष्ठान करने के लिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है। श्रतएव जो सम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् व्रतों का आचरण करता है वही सुबत या सुव्रती कहलाता है।
प्राप्त निर्वाण-तृष्णा से रहित । जो सांसारिक पदार्थों और भोगोपभोगों की इच्छा से रहित हो।
'जिस पुरुष में उल्लिखित विशिष्टताएँ पाई जाती हैं वही सच्चा ब्राह्मण या महान कहलाता है। मूलः-जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ।
एवं अलितं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥ १७॥ छाया:-यथा पग जले जातं, वोपलिप्यते वारिणा।
__एवमलिप्तं कामः, तं वयंवमो ब्राह्मणम् ॥ १५ ॥ ... शब्दार्थः-जैसे कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार जो काम-भोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
भाष्यः-ब्राह्मण का विषेश रूप से स्वरूप प्रदार्शत करने के लिए कहा गया है कि कमल जल में ही उत्पन्न होता है और जल में ही रहता है, फिर भी वह जल से ..
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सातवां अध्याय
[ २६३ ] विलग बना रहता है, वह जल का स्पर्श नहीं करता। इसी प्रकार जो काम-भोगों की सामग्री के सम्पर्क में रहता हुआ भी, काम-भोगों से विलग रहता है-मन के साथ उनका संसर्ग नहीं होने देता वही सच्चा ब्राह्मण है।
तात्पर्य यह है कि कास-भोगों से बचने के लिए, उनसे दूर भागना अनिवार्य ' नहीं है । जिसने अपने मन पर अधिकार स्थापित कर लिया है उसके लिए महल
और श्मशान, वस्ती और वन समान हो जाते हैं। अनेक महात्माओं ने अपने मन को वशीभूत बना कर गृह में ही कैवल्य अवस्था प्राप्त की है । मुख्य वस्तु मानसिक अलिप्तता है। वन में रहने पर भी यदि मन अधीन न हुआ तो वन-वास से क्या लाभ है ? और यदि गृह-वास करते हुए भी मन पर परिपूर्ण नियंत्रण हो गया तो चन-वास की क्या आवश्यकता है?
यहां वनवाल का निषेध किया गया है, ऐसा नहीं समझना चाहिए । वनवास एक विशिष्ट वातावरण उत्पन्न करने में सहायक होता है और मानसिक एकाग्रता . प्राप्त करने के लिए भी उसकी आवश्यकता है। वहां चित्त को चंचल करने के
निमित्त प्रायः कम मिलते हैं । इसी कारण मुनि-जन वन-वास करते हैं । यहां तो केवल मानसिक अनासक्ति की प्रधानता प्रदर्शित की गई है,जो वनवास का ध्येय है। जो लोग मन को अलिप्त बनाये बिना ही, सिर्फ वन-वाल करके ही अपने को कृतार्थ मान लेते हैं, उन्हीं के विषय में यहां कहा गया है। अगली गाथा में सूत्रकार स्वयं यह विषय स्पष्ट करते हैं। मूलः-न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभयो ।
न मुणी रगणवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥१८॥ . छायाः-नापि मुण्डितेव श्रमणः, न ओंकारेण ब्राह्मणः। ::
न मुनिररण्यवासेन, कूशचीरेण न तापसः ॥ १८॥ शब्दार्थः-मस्तक मुंडा लेने से ही कोइ श्रमण नहीं हो जाता, ओंकार शब्द का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं बन सकता, अरण्य में निवास करने से ही कोई मुनि नहीं होता और कुश (डाभ) के वस्त्र पहनने मात्र से कोई तपस्वी नहीं हो सकता।
भाष्यः-सूत्रकार ने यहां बाह्याचार के संबंध में कथन किया है। समस्त वाह्य श्राचार, आभ्यान्तरिक श्राचार का पोषक होना चाहिए । जिन बाह्य क्रियाओं से, अात्मिक विशुद्धता सिद्ध नहीं होती, वे निरर्थक हैं। जैसे स्नान कर लेने से श्रात्मा की मलिनता दूर नहीं होती उसी प्रकार अन्य ऊपरी क्रियाओं से ही श्रात्मा की शुद्धि नहीं होती।
सभी वाक्य सावधारण होते हैं, यह साहित्यज्ञों का मत है । इसके अनुसार 'न वि मुंडिएण समणो' के कथन से ' न वि मुंडिएण एव समणों' ऐसा समझना - चाहिए । अर्थात् मूंड मुँडालेने मात्र से ही कोई श्रमण नहीं हो जाता, ओंकार का
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[ २६४ ]
धर्म-निरूपण जाप करने से ही कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता, सिर्फ अरण्य-वास से ही कोई मुनि-पद प्राप्त नहीं कर सकता और कुश (दूब ) के वस्त्र धारण करने से ही कोई धुरुष तपस्वी की पदवी का अधिकारी नहीं हो सकता।
तात्पर्य यह है कि यह सब बाह्य क्रियाएँ हैं। उन्हीं से आत्मविकासजन्य उच्च पद प्राप्त नहीं होता।
मस्तक मुंडाने से यदि मुनि पद प्राप्त होता हो तो सिर में फोड़ा-फुली होने पर सिर सफाचट करा लेने वाले सभी लोग सुनि कहलाते । शिक्षा देने पर तोता भी ओंकार का रटन करने लगता है। यदि ओंकार के रटन से ही ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो जाय उस तोते को भी ब्राह्मण मानना पड़ेगा। इसी प्रकार वन-वास मुनित्व का कारण नहीं है। वन-वास ही मुनि का लक्षण मान लिया जाय तो मुनि पद की बड़ी दुर्दशा होगी। समस्त जंगली जानवर और गौड़, भील, पुलिंद, शवर, व्याध, निषाद, दस्यु, लुब्धक, किरात आदि जंगली मनुष्य मुनि कहलाएँगे। और कुश-चीर के परिधान से यदि तपस्वी मान लिया जाय तो कुश का भी चीर ( वस्त्र) न पहनने वाले पशुओं को तो महातपस्वी मानना पड़ेगा । इस प्रकार बाह्य श्राचार को प्रश्रय देने से अहिंसा सत्य, ब्रह्मचर्य, समता भाव, आदि श्रान्तरिक गुणों की महत्ता का विनाश होता है और ढोंग की महत्ता बढ़ जाती है ।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि बाह्य वेष का. कोई मूल्य नहीं है तो जैन शास्त्रों तथा अन्यान्य सभी शास्त्रों में अपने-अपने सम्प्रदायों का वेष नियत क्यों किया गया है ? इस का समाधान यह है कि यहां बाह्य वेष का अथवा बाह्य प्राचार का निषेध नहीं किया गया है । यहां पर तो आन्तरिक गुणों के अभाव में एकान्त वेष अथवा बाह्य क्रिया-कांड के द्वारा महत्ता प्राप्त होने का निषेध किया गया है। आन्तरिक आचार से जो बाह्य प्राचार प्रति फलित होता है उसका विरोध नहीं किया गया है। यही नहीं, उस बाह्य प्राचार का विधान भी शास्त्रों में पाया जाता हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में वेष का प्रयोजन लोक-प्रत्याबन बतलाया है । अंर्थात वेष से लोग सहज ही समझ लेते हैं कि यह साधु, इस सम्प्रदाय का है। .... हृदय में जब कोई सद्गुण जागृत होता है तब बाहरी व्यवहार में भी उसका प्रभाव रहता है। उदाहरणार्थ-अन्तःकरण अहिंसा की भावना से जब श्रोत-प्रोत हो जाता है तब अहिंसक के अनेक बाह्य व्यवहारों में अन्तर पड़ जाता है । उल . समय वह चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलता है, प्रतिलेखन करता है श्रादि। इस प्रकार का बाह्य प्राचार-जो अन्तःकरण की विशुद्धि से स्वतः अदभूत होता है,
आदर की वस्तु है। .जैसे श्रात्मा के सद्भाव में ही शरीर उपयोगी होता है, विना प्रात्मा का शरीर निष्प्रयोजन है, उसी प्रकार आन्तरिक प्राचार के सद्भाव में ही वाह्य प्राचार की उपयोगिता है। आन्तरिक वृत्ति न होने पर बाह्य क्रियाकांड निरर्थक है । यही नहीं वह दूसरों के लिए भ्रामक होने के कारण भयंकर भी है और इस लिए वह गर्दा के
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सातवां अध्याय
[ २६५ ]
योग्य है । श्रतएव सिर्फ उपरी क्रियाएँ देखकर ही किसी व्यक्ति को किसी महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित नहीं करना चाहिए ।
भो ।
मूल :- समयाए समणो होई, बंभरेण नाय मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ॥ १६ ॥
छायाः-समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।
ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापसः ॥ १६ ॥
शब्दार्थः--समभाव से श्रमरण - साधु होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है, तपस्या करने से तापस होता है ।
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आप्यः -- जिसके निर्मल अन्तःकरण में समता - भावना की दिव्य ज्योति जग उठती है, जो शत्रु और मित्र पर समान भाव रखता है, ' अयं निजः परोवेति' अर्थात् 'यह मेरा है, यह दूसरे का है ' अथवा ' यह मेरा आत्मिय है यह पराया है ' इस भेद भावना को भूल जाता है, वही श्रमण का अन्तःकरण समस्त संसार पर समान भाव रखता है । वह साम्य का साक्षात अवतार है । निन्दक और स्तोता उसके लिए समान हैं । सभी पर-प्राणी मात्र पर एकाचार बुद्धि रखने से वह अद्भुत शान्ति का रसास्वादन करता 1
ब्रह्म अर्थात् श्रात्मा में रमण करने वाला और इन्द्रियों के मोगोपभोगों से सर्वथा विरक्त रहने वाला ब्राह्मण कहलाता है ब्राह्मण की विशेष व्याख्या पहले की जा चुकी है।
ज्ञान से मुनि होता है । संस्कृत भाषा के अनुसार जो मननशील हो उसे मुनि कहा जाता है । श्रर्थात् जो अपना मन, श्रात्मचिन्तन में संलग्न रखता है, सन की स्वच्छंदता को रोक देता है और आत्मा - अनात्मा का भेद-विज्ञान कर लेता है, वही मुनि कहलाता है ।
जो इन्द्रियों का दमन करने के लिए, पूर्व संचित पापों को भस्म करने के लिए तथा शरीर संबंधी ममता का त्याग करने के लिए विविध प्रकार की वाह्य और आभ्यन्तर तप करता है, तपस्या के फल स्वरूप इस लोक में कीर्ति की कामना नहीं करता और परलोक में सांसारिक भोगोपभोग, ऋद्धि और ऐश्वर्य की इच्छा नहीं करता वही सच्चा तपस्वी है ।
मूल :- कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो । कम्मा वसो होइ, सुद्धो हवइ कम्मुणा ||२०||
छाया:- कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा भवति क्षत्रियः ।
कर्मणा वैश्यो भवति, शुद्धो भवति कर्मणा ॥ २० ॥
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[ २६६ ]
धर्म-निरूपण 'शब्दार्थः-कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र होता है।
भाष्यः-वर्ण-व्यवस्था का प्राधार जैन संस्कृत में क्या है, इस बात को यहां स्पष्ट किया गया है।
कर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रसिद्ध है। उनमें से यहां श्राजीविका-निर्वाह के लिए की जाने वाली वृत्ति के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग किया गया है । तात्पर्य यह है कि भाजीविका के भेद से ही वर्गों में भेद होता है। जिन लोगों ने जन्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था की कल्पना की है,उनका प्रकारान्तर से यहां विरोध किया गया है।
समाज-की-सुव्यवस्था के लिए अथवा. राष्ट्र के विकास के लिए कार्यों का विभाग होना अत्युपयोगी होता है । किन्तु वह विभाग कर्त्तव्य के अाधार पर ही हो सकता है। ... . जो पठन-पाठन आदि ज्ञान-प्रचार संबंधी कर्तव्य करता है वह ब्राह्मण कहलाता है। जो समाज की तथा राष्ट्र की रक्षा करता है, निर्वलो को सबलों द्वारा सताने से रोकता है, शत्रुओं के साथ देश की रक्षा के लिए जूझता है वह सेनापति, सैनिक आदि क्षत्रिय कहलाते हैं। - देश की आर्थिक स्थिति उन्नत बनाने के लिए जो लोग व्यापार करते हैं वे वैश्य कहलाते हैं। सेवा-वृत्ति अंगीकार करने वाले शूद्र कहलाते हैं।
यहां यह स्पष्ट करदेना उचित होगा कि प्रत्येक व्यक्ति, समाज का एक अंग है। उसे अपने प्रत्येक व्यवहार में समाज के हित का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि समाज के हित में ही व्यक्ति का हित है और समाज के हित में व्यक्ति का अहित है। अतएव सव वर्ण वालों को समाज के हित को अग्रस्थान में रखकर ही अपनी आजीविका चलाना चाहिए । उदाहरणार्थ-क्षत्रिय अपने स्वार्थ के लिए, अपनी सत्ता स्थापित करने की लालसा से प्रेरित होकर, शस्त्र का प्रयोग न करे। इसी प्रकार वैश्य ऐसा कोई व्यापार न करे जिससे उसे लाभ होने पर भी देश को हानि पहुंचती हो। देश की हानि को भुलाकर अपना भला करने वाला कोई भी वर्ण चिरकाल तक सुखी नहीं रह सकता। समस्त नगर में आग लगने पर जैसे एक मकान का सहीसलामत बचा रहना शक्य नहीं है उसी प्रकार देश का अनिष्ट होने पर किसी व्यक्ति या किसी वर्ण का अनिष्ट नहीं रुक सकता।.....
जव. जिस देश में, चारों वर्णो के व्यक्ति इस प्रकार सामाजिक भावना से प्रेरित होकर अपना-अपना कर्तव्य पूणे करते है, तब वह देश सम्पन्न, सुखी, स्वतंत्र एवं सन्तुष्ट रहता है।
इस संबंध की प्रसंगोपात्त चर्चा अन्यत्र की जा चुकी ।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-सातवां अध्याय समाप्तम् .
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * निर्वाध प्रवचन
॥ आठवां अध्याय ।।
ब्रह्मचर्य-निरूपण
भगवान्-उवाच-. मूलः-श्रालयो थीजणाइएणो, थीकहा य मणोरमा ।
संथवो चेव नारीणं, तेसिं इंदियदंसणं ॥१॥ कूइयं रूइनं गीअं, हासभुत्तासिपाणि श्र। पणीअं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोयणं ॥२॥ गत्तभूसणमिटुं च, कामभोगा य दुज्जया । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥३॥ छायाः-प्रालयः स्त्रीजनाकीर्णः, स्वीकथा च मनोरमा ।
संस्तवश्चैव नारीणां, तासामिन्द्रिदर्शनम् ॥ १॥ कूजितं रुदितं गीतं, हास्यभुकासितानि च।। प्रणीतं भक्तपानं च, अतिमानं पानभोजनम् ॥२॥ गानभूषणमिष्टं च, कामभोगाश्च दुर्जया ।
नरस्यात्मगवेपिणः, विषं तालपुटं यथा ॥३॥ शब्दार्थः-स्त्रीजन से युक्त मकान में रहना, मनोरंजक स्त्री कथा कहना, स्त्री से अत्यन्त घनिष्ठता रखना---एक ही आसन पर बैठना, और स्त्रियों के अंगोपांग देखना। स्त्रियों सम्बन्धी मनोरम ध्वनि सुनना, रुदन सुनना, गीत सुनना, स्त्रियों के साथ पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण करना, बल-वर्द्धक आहार या पान का सेवन करना, परिमाण से अधिक भोजन-पान करना । प्रियकारी शरीर-शुश्रूषा करना--शरीर को सजाना, यह सव कामभोग आत्म-गवेषणा करनेवाले ब्रह्मचारी पुरुष के लिए तालपुट नामक विप के समान सिद्ध होते हैं।
आष्यः-सातवें अध्याय में धर्म का निरूपण किया गया है । ब्रह्मचर्य की साधना करने पर ही धर्म की आराधना होती है । ब्रह्मचर्य धर्म-क्रिया में प्रधान है
और तप में भी ब्रह्मचर्य सर्वश्रेष्ठ तप है । अतएव विस्तारपूर्वक उसका विवेचन करने के लिए यह पृथक् अध्याय कहा गया है।
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[ २६८ ]
ब्रह्मचर्य-निरूपण. यो तो प्रत्येक इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है, किन्तु अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा स्पर्शनेन्द्रिय को जीतना अधिक कठिन है। बड़े-बड़े तपस्वी
और योगी भी इसके आकर्षण से कभी-कभी विचलित हो जाते हैं। फिर भी सच्चा तपस्वी और सच्चा योगी वही है जिसने समस्त इन्द्रियों को अपना अनुचर बना लिया है।
स्पर्शनेन्द्रिय को वश में करना, वीर्य की रक्षा करना या स्त्री के संसर्ग का त्याग करना ब्रह्मचर्य का सर्व साधारण में प्रचलित अर्थ है । किन्तु उसके सूक्ष्म अर्थ पर दृष्टि डाली जाय तो प्रत्येक इन्द्रिय को जीतना और आत्म-निष्ठ बन जाना ब्रह्मचर्य का अर्थ है । जो महापुरुष स्पर्शनेन्द्रिय को पूर्ण रूप से जीत लेता है, वह शेष इंद्रियों को भी जीत लेता है। इसी कारण स्पर्शनेन्द्रिय रूप ब्रह्मचर्य पर विशेष चल दिया गया है। प्रकृत अध्याय में भी इसी अर्थ को मुख्य रख कर ब्रह्मचर्य का विचार किया गया है।
जैसे खेत की रक्षा करने के लिए किसान खेत के चारों तरफ बाड़ लगा देता' है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शास्त्रकारों ने बाड़ों का विवेचन किया है। इनकी संख्या नौ है। इन चाड़ों की रक्षा करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। यहां मुल गाथाओं में शास्त्रकार ने बाड़ों का स्वरूप बतलाया है । वह इस प्रकार है:
(१) जिस मकान में विल्ली रहती है उसी मकान में अगर चूहा रहे तो चुहे की जीवन-लीला समाप्त हुए बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार जिस मकान में कोई भी स्त्री रहती हो उसी मकान में अगर ब्रह्मचारी पुरुष रहे तो उसके ब्रह्मचर्य का विनाश हुए विना नहीं रह सकता । अतएव ब्रह्मचारी पुरुषको स्त्री वाले मकान में निवास नहीं करना चाहिए।
(२) जैसे नीवू, इमली प्रादि खट्टे पदार्थों का नाम लेने से मुँह में पानी आ जाता है, इसी प्रकार स्त्री के बनाव शृंगार, हावभाव, विलास आदि का बखान करने से-उसकी चर्चा करने से अन्तःकरण में विकार उत्पन्न हो जाता है। अतएव ब्रह्मचर्य की रक्षा की इच्छा रखने वाले पुरुष को स्त्री सम्बन्धी चर्चा वार्ता नहीं करनी चाहिए।
(३) सुना गया है कि जैसे चावलों के पास कच्चे नारियल रहने से उसमें कीड़े पड़ जाते हैं, अथवा आटे में भूरा कोला रखने उसका चन्ध नहीं होता, या पोदीना का अर्क, कपूर और अजवाइन का सत्व एकत्र करने से सब एकदम द्रवित हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री-पुरुष एक ही श्रासन पर बैठे-दोनों में शारीरिक घनिष्टता हो तो ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है। अतएव ब्रह्मचारी को स्त्री के साथ एक श्रासन पर नहीं बैठना और न घनिष्ठता ही बढ़ाना चाहिए । कहा भी है- .
घृतकुम्भसमा नारी, तप्ताङ्गारसमः पुमान् । .. .
तस्माद् वृतञ्च वा वह्नि च, नैकत्र स्थापयेद् वुधः॥ अर्थात् स्त्री घी के घड़े के समान है और पुरुष जलते हुए अङ्गार के समान है।
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Baira
[ २६६ ]
श्रतएव वुद्धिमान् पुरुष घी और अग्नि को एक स्थान पर न रक्खे - अर्थात् स्त्री और ब्रह्मचारी पुरुष एक ही स्थान पर न रहें ।
(४) जैसे सूर्य की ओर टकटकी लगाने से नेत्रों की हानि होती है, उसी प्रकार स्त्री के अंगोपांगों की ओर स्थिर दृष्टि से देखने से ब्रह्मचर्य की हानि होती है ।
(५) जैसे मेघों की गर्जना - ध्वनि सुनने से मयूर का चित्त एकदम चंचल हो उठता है उसी प्रकार पर्दा, दीवाल आदि की ओट में रहे हुए दम्पती के कामुकतापूर्ण शब्द श्रवण करने से ब्रह्मचारी का अन्तःकरण विचलित हो उठती है । अतएव ब्रह्मचारी को इस प्रकार के शब्द-श्रवण से बचना चाहिए। इसी प्रकार रुदन, गीत और हास्य-विनोद के शब्दों को भी नहीं सुनना चाहिए ।
(६) किसी वृद्धा के यहां कुछ पथिक छाछ पीकर चले गये । उनके चले जाने के पश्चात् वृद्धा ने तक (छाछ) देखा तो उसमें साँप निकला। छह महीने के अनन्तर वे पथिक उस वृद्धा के यहां लौटे तो उन्हें जीवित देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुई, क्योंकि वह जानती थी कि सर्प के विष के प्रभाव से सब पथिक काल के ग्रास बन गये होंगे । उसने उन पथिकों से कहा- बेटा ! मैं समझती थी- तुम्हारे कभी दर्शन न होंगे, क्योंकि जो तक तुमने पिया था उसमें मरा साँप निकला था । तुम्हें जीवित देख कर अब मेरे हर्ष का पारावार नहीं है।' इतना सुनते ही सब के सब पथिक मृत्यु को प्राप्त हुए । इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि पहले भोगे हुए भोग का स्मरण भी अत्यन्त अनिष्टकारक होता है । श्रतएव ब्रह्मचारी पुरुष को पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना चाहिए, इससे ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है ।
(७) जैसे सन्निपात रोग से पीडित पुरुष को मिष्टान आदि खिलाने से उसके जीवन का शीघ्र अन्त हो जाता है उसी प्रकार सदा सरस और पौष्टिक आहार करने से ब्रह्मचर्य का अन्त हो जाता है । अतएव ब्रह्मचारी पुरुष को गरिष्ठ पदार्थों का सदैव उपयोग नहीं करना चाहिए ।
(८) जैसे एक सेर की हँडिया में सवा सेर खिचड़ी पकाने से हँडिया फूट. जाती है, उसी प्रकार मर्यादा से अधिक आहार करने से, प्रमाद के कारण ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है ।
(१) जैसे दीन-दरिद्र व्यक्ति के पास चिन्तामणि रत्न नहीं ठहरता, उसी प्रकार मंजन, सिंगार श्रादि के द्वारा आकर्षक रूप बनाने से ब्रह्मचर्य नहीं ठहरता । जैसे तालपुट नामक विष जीवन का अन्त कर देता है, उसी प्रकार पूर्वोक्क स्त्री कथा आदि ब्रह्मचर्यं रूपी जीवन का अन्त कर देते हैं । श्रतएव जो शक्ति-सम्पन्न बनना चाहते हैं, वीर्य - लाभ के द्वारा आध्यात्मिक शुद्धि की वांछा रखते हैं, उन्हें इन सबका त्याग करना चाहिए ।
स्नान,
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ब्रह्मचर्य की साधना का मार्ग अत्यन्त नाजुक है । इन्द्रियां चंचल होती हैं । साधक अपनी साधना में तनिक भी असावधान हुआ नहीं कि इन्द्रियां स्वच्छन्द हो
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[ ३०० ]
· ब्रह्मचर्य-निरूपण कर विचरण करने लगती हैं और युग-युग की साधना का सर्वनाश कर डालती हैं। अतएव सतत् सावधान रह कर इन्द्रियों पर अंकुश रखना चाहिए और साधना से च्युत करने वाले निमित्तों से प्रतिक्षण वचते रहना चाहिए। मूलः-जहा कुक्कुडपोप्रस्स, निच्चं कुललो भयं ।
एवं खु बंभयारिस्स, इत्थविग्गहलो भयं ॥ ४ ॥ छायाः यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुल लतो भयम् ।
एवं खलु ब्रह्मचारिणः, स्त्री विग्रहतो भयम् ॥ ४ ॥ शब्दार्थः-जैसे मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से सदैव भय बना रहता है, इसी प्रकार : निस्सन्देह ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय रहता है।
भाष्यः- ब्रह्मचर्य के पथ में आने वाली बाधाओं का विशेष रूप से परिचय देने के अर्थ सूत्रकार ने यह कथन किया है।
जैसे मुर्गे का बच्चा अगर सावधानी से न रहे या न रक्खा जाय तो बिलाव किसी भी क्षण उसके प्राण हरण कर सकता है, इसी प्रकार स्त्री के शरीर से ब्रह्मचारी पुरुष के ब्रह्मचर्य को सदा खतरा रहता है। अगर ब्रह्मचारी सदैव सावधान न रहे तो किसी भी समय उसके ब्रह्मचर्य का अन्त हो सकता है । प्रतिक्षण ब्रह्मचारी को सावधान रहना चाहिए, यह बताने के लिए सूत्रकार ने निच्चं (नित्य ) शब्द का प्रयोग किया है। कोई-कोई वाधा ऐसी होती है जिससे चिरकाल में किसी गुण का विनाश होता है, पर ब्रह्मचर्य सम्बन्धी बाधा क्षण भर में ही ब्रह्मचर्य का विनाश कर डालती है।
पुरुष की प्रधानता से इस प्रकरण में ब्रह्मचर्य का कथन किया गया है, इसी कारण स्त्री कथा, स्त्री.शरीर श्रादि को ब्रह्मचर्य का बाधक कहा है। स्त्रियों के लिए इससे विपरीत यथायोग्य समझ लेना चाहिए । जैसे ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्री कथा .आदि का त्याग करना आवश्यक है, उसी प्रकार ब्रह्मचारिणी स्त्री को पुरुष कथा अर्थात् पुरुषों के सौन्दर्य आदि के बखान का परित्याग करना चाहिए । ब्रह्मचारिणी को पुरुप शरीर से सदैव खतरा रहता है।'
सूत्रकार ने बिलाव से कुक्कुट को भय रहता है ऐसा न कहकर कुक्कुट के बच्चे को भय रहता है, ऐसा कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चे में प्रौढ़ता का अभाव होता है और वह सहज ही विलाव का श्राहार बन सकता है, उसमें अपने वचाव का सामर्थ्य नहीं होता । इसी प्रकार स्त्री के सौन्दर्य विशिष्ट शरीर को देखने से ब्रह्मचर्य की साधना में लगा हुआ साधक पुरुष भी ब्रह्मचर्य की रक्षा करने में सामर्थहीन हो जाता है, क्योंकि वह साधना में प्रयत्नशील है-साधना को सम्पन्न नहीं कर पाया है। ... स्त्री शरीर के दर्शन से ब्रह्मचर्य-विनाश का भय रहता है, निश्चित रूप से
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श्राठवां अध्याय
[३०१ ] ब्रह्मचर्य नहीं हो जाता, यह अभिप्राय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने 'भय' शब्द को . स्थान दिया है । भय का प्राबल्य प्रकट करने के उद्देश्य से एक ही गाथा में दो बार 'भय' शब्द का प्रयोग किया गया है। मूलः-जहा विरालावसहस्स मूले,
न भूसगाणं वसही पसस्था । एमेव इत्थीनिलयस्य मज्झे,
न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥ ५ ॥ छायाः-यथा बिडालावसथस्य मूले, न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता।
एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये, न ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः ॥ ५ ॥ शब्दार्थः-जैसे बिलावों की बस्ती के सन्निकट, चूहों की बस्ती चूहों के लिए कल्याणकारी नहीं है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास स्थान के बीच ब्रह्मचारी पुरुष का निवास फरना भी कल्याणकर नहीं है।
भाष्यः-यहां पर ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए विपत्ति रूप निवास स्थान के विषय में कथन किया गया है।
विलावों के बीच रहने वाले चूहे कितने दिन सकुशल जीवित रह सकते हैं ? उनका जीवन किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है। इसी प्रकार स्त्रियों के निवास स्थान के बीच अगर ब्रह्मचारी पुरुष निवास करे तो उसका ब्रह्मचर्य कब तक अखंडित रह सकेगा? वह किसी भी क्षण खाडत हो सकता है। अनादिकालीन विषय-वासना से वासित मन को इस वासना से सर्वथा मुक्त बनाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की भावश्यकता होती है। जो पशु दो-चार बार हरित धान्य से परिपूर्ण खेत में चर लेता है, उसे यूथ में रहकर साधारण घास से संतोष नहीं होता । वह गोपालक की आंख बचाकर, उसी खेत में दौड़ जाता है और वहीं जाकर धान्य भक्षण करता है । दोचार वार धान्य-भक्षण करने से ही जब पशु में यह वासना घर बना लेती है, तब अनादिकाल से मैथुन-वासना से वासित मन को, उस वासना से मुक्त करने में कितना प्रयत्न, कितनी शक्ति, कितनी जागरुकता और कितनी तल्लीनता की आवश्यकता है, यह स्वयं समझलेना चाहिए । विषयवासना का दास, मन अवसर पाते ही वासना के सागर में पुरुष को डूवादेता है। जैसे उजाड़ करने वाली गाय बध-बंधन
आदि अनेक क्लेशों का पात्र बनती है, उसी प्रकार मन को अनेक क्लेश सहन करने पड़ते हैं। गाय के लाथ, गाय के खामी को भी दंड भुगतना पड़ता है, इसी प्रकार मन के साथ, आत्मा को भी इस लोक में तथा परलोक में अत्यन्त घोर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं । जैसे उजाड़ करने वाली गाय के गले में गुर (मोटी-सी लकड़ी) डाल दिया जाता है, जिससे वह शीघ्र इधर-उधर नहीं भाग सकती, इसी प्रकार मन . को रोकने के लिए तप रूपी ठेगुर डालना चाहिए । इस तरह विविध प्रयत्नों द्वारा
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३०२. ]
ब्रह्मचर्य-निरूपण मन का निरोध करने वाला और मनोविकार उत्पन्न करने वाले निमित्त कारणों से सदा बचने वाला पुरुष अपने ब्रह्मचर्य रूपी अनुपम रत्न की रक्षा करने में सफलता प्राप्त करता है। मूलः-हत्थपायपडिच्छिन्नं, कन्ननासावेगप्पिनं ।
अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवजए ॥ ६ ॥ छायाः-हस्तपाद प्रति चिन्ना, कर्णनासा विकल्पिताम् ।
अपि वर्षशतिका नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत् ॥ ६॥ शब्दार्थः-जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, कान-नाक विकृत आकार वाले हों, और . वह सौ वर्ष की उम्र वाली बुढ़िया हो तो भी ब्रह्मचारी पुरुष उस से दूर ही रहे।
भाष्यः-यहां भी ब्रह्मचर्य-रक्षा का उपाय बताया गया है । जैसे बहुत दिनों का भूखा मनुष्य भक्ष्याभक्ष्य का विचार भूल जाता है और भूख से विह्न होकर उच्छिष्ट भोजन भी खा लेता है, उसी प्रकार मन कामान्ध होकर योग्यायोग्य का विचार नहीं करता। इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि जिस स्त्री के हाथ-पैर छेद डाले गये हो, जिसके कान और नाक भी कट गई हो या विकृत आकार वाली हो, अर्थात् जो स्त्री के रूप में लोथ हो, उस पर भी विषय-वालना का भूखा मन अनुरक्त हो जाता है। अतएव ब्रह्मचारी पुरुष ऐसी सौ वर्ष की वृद्धा से भी दूर ही रहे । उसके साथ संसर्ग न रक्खे। उससे परिचय न करे।
- यहां पर भी स्त्री शब्द से पशु-स्त्री आदि का ग्रहण करना चाहिए। स्त्रियों के लिए इन्हीं विशेषणों से विशिष्ट सौ वर्ष. का बूढ़ा पुरुष त्याज्य है, ऐसा समझना चाहिए। मूल:-अंगपञ्चंगसंठाणं, चारुल्लवियपोहअं।
इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवड्ढणं ॥७॥
छाया:-अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं, चारूल्लपितप्रेक्षितम् । . . स्त्रीणां तन्न निध्यायेत्, कामरागविवर्धनम् ॥ ७ ॥
शब्दार्थः-ब्रह्मचारी पुरुष, काम-वासना जागृत करने वाले स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग की बनावट को तथा मनोहर बोली और कटाक्ष की ओर न देखे।
भाज्या स्त्रियों के अंगों की वनावट को, उनके सौन्दर्य को तथा स्त्रियों की मनोहर वोली एवं नेत्रोंके कटाक्ष श्रादि को देखने-सुनने से ब्रह्मचारी परुष की नवी हई काम-वासना उसी प्रकार जाग उठती है जिस प्रकार राख से दबी हुई अग्नि वायु . के लगने से प्रदीप्त हो जाती है। अतएव ब्रह्मचारी इन सब की और दृष्टिपात भी न करे । ब्रह्मचारिणी सती; पुरुषों के अंगोपांग तथा मधुर स्वर आदि के ओर ध्यान । 'न देवे। .
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आठवां अध्याय
___[ ३०३ ) मूलः-णो रक्खसीसु गिझिजा,गंडवच्छासुऽणेगचित्तासु ।
जाओ पुरिसंपलोभित्ता,खेलति जहा वा दासेहिं ॥८॥ छाया:-नो राक्षसीपु गृध्येत् , गण्डवक्षस्स्वनेकचित्तासु
याः पुरुषं प्रलोभय्य, क्रीडान्ति पथा वा दालः ॥ ८ ॥ शव्दार्थः--फोड़े के समान वक्षस्थल वाली, चंचल चित्त वाली या अनेक पुरुषों में आसक्त चित्त वाली राक्षसी स्त्रियों में-कुलटा तथा वेश्याओं में गृद्ध नहीं होना चाहिए, जो पुरुष को मुग्ध करके उनसे दासों के समान क्रीड़ा करती हैं।
भाष्यः-ब्रह्मवारी पुरुष को सामान्य स्त्रियों के साथ संसर्ग न रखने का, उनके समीप निवास न करने का तथा उनके अंगोपांग श्रादि को न निरखने का उपदेश देने के पश्चात् यहां राक्षली के समान व्यभिचारिणी स्त्रियों में आसक्त न होने का उपदेश दिया है । व्यभिचारिणी स्त्रियां तथा वेश्याएँ पुरुषों को अपनी ओर, विविध प्रकार के कामोत्तेजक हाव-भाव, भौंह तथा नेत्र के विकार आदि के द्वारा आकर्षित करती है फिर उन्हें अपना बनाकर क्रीड़ा करती हैं।
सूत्रकार ने ऐसी स्त्रियों का राक्षसी शब्द से उल्लेख किया है । यह उल्लेख द्वेष का नहीं वरन् विरक्ति का सूचक है और साथ ही उनके वास्तविक स्वरूप का निद. शक भी है । जैसे राक्षसी पुरुष को चूस लेती है और अपनी तृप्ति करती है इसी प्रकार दुराचारिणी स्त्रियां भी अपनी पालना-तृप्त करती है स्त्रियां भी अपनी वासना-तृप्ति के लिए पुरुषों की शक्ति को चूस लेती हैं। यही नहीं, इनके फंदे में फंसने वाला पुरुष अपनी प्रतिष्ठा, मान-सन्मान, सम्पत्ति आदि सर्वस्व से हाथ धो बैठता है । वह इल लोक से भी जाता है और परलोक से जाता है। इस लोक में इन्द्रिय-छेद, नपुंसकता आदि का पात्र बनता है और परलोक में भयंकर नारकीय दुःख सहन करता है । इससे भी अधिक अनर्थ जिनके संसर्ग से होते है उन्हें राक्षसी कहना अनुचित नहीं है।
सूत्रकार ने उन स्त्रियों के स्तनों को फोड़ों की उपमा दी है। फोड़ों का दर्शन जैसा वीभत्स है उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष के लिए स्तनों का दर्शन भी वीभत्स प्रतीत होता है। अनेक श्रृंगार रस प्रेमी कवि स्तनों की अनेक सुन्दर उपमाएँ देकर वर्णन करते हैं। कोई उन्हें सोने के घड़े बताकर नीलम के ढक्कन से ढंके हुए बतलाते हैं, कोई किसी फल के समान चित्रित करते हैं। ऐसे शृंगारी कवि स्वयं गड़हे में गिरने वाले अंधों को एक धका देने के समान व्यवहार करते हैं । वे स्व-पर का श्रहित करते हैं और काम वासना को उत्तेजित करके कला की सत्यता, शिवता एवं सुन्दरता का घात करते हैं। 'सव्वा कला धम्मकला जिणइ' अर्थात् धर्म की कला सब कलाओं में श्रेष्ठ है । इस सिद्धान्त के अनुसार धर्म-हीन कला निकृष्ट पंक्ति में स्थान पाने योग्य है।
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ब्रह्मचर्य-निरूपण दुराचारिणी स्त्रियां तथा वेश्याएं अनेक-चित्ता होती हैं। अनेक चित्ता के दो अर्थ है-अनेक पुरुषों में शासक्त चित्त वाली एवं चंचल चित्तवाली । वेश्या कभी किसी पुरुष में एकाग्र-मनस्का नहीं होती। पुरुष उसका खिलौना है । धन लूटना उसका व्यवसाय है। जिसले जब ज्यादा धन की प्राप्ति होती है, तब वह उसी की बन जाती है और कुछ ही क्षणों के पश्चात् किसी और की हो रहती है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है:
जात्यन्धाय च दुर्मुखाय च जराजीर्णाखिलांगाय च, . ग्रामीणाय च दुष्कुलाय च गलत्कुष्टाभिभूताय च। यच्छान्तीषु मनोहरं निजवपुर्लक्ष्मीलवश्रद्धया,
पण्यस्त्रीषू विवेककल्पलतिकाशस्त्रीषू रज्येत कः ? ॥ अर्थात् जो वेश्याएँ थोड़ा सा धन प्राप्त करने के लिए, जन्मांध, दुर्मुख, वृद्धावस्था के कारण शिथिल अंग वाले, गँवार, अकुलीन, कोढ़ी आदि सभी प्रकार के पुरुषों को अपना सुन्दर शरीर सौंप देती हैं, अतएव जो विवेक रूपी कल्पलता को काटने के लिए कुठार के समान हैं, उन वेश्याओं पर कौन बुद्धिमान पुरुष अनुरक्त होगा ? अर्थात् कोई भी नहीं
. और भी कहा है.. .अन्यस्मै दत्तसङ्केता, याचतेऽन्यं स्तुते परम् ।
. श्रन्यश्चित्ते परः पार्थे, गणिकानामहो नरः॥ .
अर्थातः-आश्चर्य है कि वेश्याएँ एक को संकेत देती हैं, दूसरे से याचना . करती हैं और तीसरे पुरुष की तारीफ करती हैं। उनके चित्त में कोई और पुरुष
होता है पर बगल में और ही कोई होता है ! यह गणिकापा का सामान्य स्वभाव है। फिर भी पुरुष अंधा होकर उन पर अनुराग करता है ! - कुलटा स्त्रियां या वेश्याएँ किसी सत्पुरुष के हृदय में कदाचित् स्थान पा लेती हैं तो उसके भी समस्त सद्गुणों का सर्वथा-समूल विनाश कर डालती हैं। कपटाचार, कठोरता, चंचलता, कुशीलता आदि उनके स्वभाव-सिद्ध दोष हैं। वास्तव में उनके दोषों का पूर्ण रूप से वर्णन होना ही संभव नहीं है । ऐसा समझकर विवेकी पुरुषों को ऐसी स्त्रियों पर जरा भी अनुराग नहीं करना चाहिए और न उनकी प्रतीति करनी चाहिए।
यह स्त्रियां अनेक प्रकार के प्रलोभनों के पाश फैलाकर पुरुषों को उनमें फँसा लेती हैं। जव पुरुष उनके पाश में फँस जाता है तब उसकी दशा एक दास के समान हो जाती है। क्रीत दास जैसे अपने स्वामी के इशारे पर नाचता है, उसी प्रकार वह पुरुष उन स्त्रियों के इशारे पर चलता है। वह धर्म-कर्म को. विस्मरण कर बैठता है, लोक-लजा को तिलांजलि दे देता है, विश्वासघात करता है, अपनी प्रीतिपात्री की कामनापूर्ति के लिए चोरी, द्यूत आदि निन्दनीय कार्यों में प्रवृत्ति करने लगता हैं ।
है कि उसे देखकर ही लोग घृणा व्यक्त
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श्राठवां अध्याय करने लगते हैं । वह सभ्य और प्रतिष्ठित पुरुषों के समीप भी नहीं फटक सकता । . इन अनर्थों से बचने के लिए सूत्रकार ने अमोघ धन बताया है कि 'नो रक्खसीसु गिझिज्जा' अर्थात् इन राक्षसियों में अनुराग न करो-इनसे बचते रहो। . मूलः-भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयस बुद्धिवोच्चत्थे ।
बाले य मंदिये मढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि । · छायाः-भोगामिषदोपविषण्णः, हितनिश्रेयलबुद्धिविपर्यस्तः ।
बालश्च मन्दो मूढः, बध्यते मक्षिकेव श्लेषमणि ॥ ६ ॥ शब्दार्थः--भोग रूपी मांस में, जो आत्मा को दूषित करने के कारण दोष रूप है. आसक्त रहने वाला तथा हितमय मोक्ष को प्राप्त करने की बुद्धि से विपरीत प्रवृत्ति करने बाला, धर्म-क्रिया में आलसी, मोह में फंसा हुआ, अज्ञानी जीव, कर्मों से ऐसे बँध जाते हैं जैसे मस्खी कम में फँस जाती है।
आष्यः-विषय-लोग आत्मा को दूषित करने वाले हैं और उनमें जो श्रासक्त होता है बह मोक्ष के मार्म से विपरीत चलने लगता है, धर्मक्रिया में प्रमादशील बन जाता है, सूड़ बन जाता है और हेयोपादेय के विवेक से भ्रष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह है कि विषय सोग उभयलोक में अहिलकारी है। इस लोक में विषयी मनुष्य एक दूसरे का शस्त्रों ले घात करते देखे जाते हैं । विषयासक्त पुरुष शस्त्रों को, धर्म को, और परस्परागत सदाचार को ताक में रख देता है। परलोक में महामोह रूपी घोर अंधकार से और यातना के कारणभूत नरक श्रादि स्थानों में पड़कर अपना अहित करता है। अतएव विषयभोग भयंकर हैं, दारुण हैं, असाता के जनक हैं। श्रात्मा का हित चाहने वाले प्रत्येक पुरुष को इनसे निवृत्त होना चाहिए । जो लोग विषयभोग से निवृत्त नहीं होते उनकी वही दशा होती है जैसे कफ में फँसी हुई मक्खी की होती है। मूलः-सल्लं कामा विसं कामा, कामा अासी विसोवमा ।
कामे पत्थेमाणा, अकामा जति दुग्गई ॥ १०॥ . छायाः-शल्यं कामा विषं कामाः, कामा श्राशी विषोपमा ।
- कामान् शर्थवमानर, अकामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ १०॥ . . शब्दार्थ:--काम-भोग शल्य के समान हैं, काम-भोग विप के समान हैं, काम-भोग दृष्टि विष सर्प के समान हैं । काम-भोग की अभिलाषा करने वाले, कास-भोग न भोगने पर भी दुर्गति पाते हैं।
भाग्यः-कामलोग का वास्तविक स्वरूप बतलाते हुए सूत्रकार ने तीन उपमाएँ
. कामभोग शल्प अर्थात् काँटे के समान हैं। जैसे शरीर के किसी अंग में कोटा लगने पर समस्त शरीर ही वेदना से व्याकुल-सा रहता है और जब तक कांटा नहीं
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[ ३०६ ]
ब्रह्मचर्य-निरूपण निकल जाता, तब तक वह वेदना बनी ही रहती है । इसी प्रकार कामभोग की अभिलाषा होने पर तन-मन में व्याकुलता उत्पन्न होती है । इस प्रकार की विचित्र घेचैनी का अनुभव होता है और किसी भी काम में मन निमग्न नहीं होता। .
. इतने अंश में समानता होने पर भी दोनों में कुछ विषमता भी है । कांटा केवल एक ही लोक में किंचिन्मात्र दुःख देता है, पर कामभोग परलोक में भी पीड़ा पहुंचाता है। कांटा निकल जाने के पश्चात् थोड़ी देर में असाता मिट जाती है, पर कामभोग भोग लेने पर भी भोग की अभिलाषा नहीं मिटती है। जैसे अग्नि में घृत की आहुति देने से वह अधिक उग्र होती है उसी प्रकार विषयभोग भोगने से भोगामिलापा की वृद्धि ही होती है। कहा भी है
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
दृविषा कृष्णवर्मैव भूय एवाभिवर्धते ॥ इस श्लोक का आशय ऊपर आ चुका है।
कामभोग विष के समान हैं। जैसे विष का भक्षण करने वाला पुरुष पहले मूर्छित होता है और अन्त में प्राण त्याग देता है, उसी प्रकार विषयभोग की इच्छा अन्तःकरण में उद्भूत होते ही मनुष्य पहले मोह-मुग्ध हो जाता है-हिताहित की पहचान नहीं कर सकता । अन्त में संयम रूप जीवन से हाथ धो बैठता है । विषभक्षण से शरीर को ही हानि पहुंचती है, आत्मा को नहीं । किन्तु विषयभोग से शारीरिक हानि होती है, आत्मिक हानि होती है, धर्म की हानि होती है, इसलोक में हानि होती है और परलोक में भी हानि होती है। अतएव विषयभोग विष की अपेक्षा भी अधिक भयानक है। कहा भी है
विषस्य विषयाणाञ्च, दृश्यते महदन्तरम् । . .
उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥ अर्थात् विष में और विषयों में यह बड़ा अन्तर है कि विष तो उपयोग करने के पश्चात् ही द्रव्य प्राणों का नाश करता है, पर विषय तो उनका स्मरण करते ही भाव प्राणों को नष्ट कर देते हैं।
कामदृष्टि विष सर्प के समान हैं । दृष्टि विष सर्प जिस पुरुष की ओर दृष्टि दौड़ाता है, उसी पर उसके विष का प्रभाव हो जाता है। यह सर्प समस्त सर्प-जाति में अत्यन्त भयंकर होता है। इस सर्प की दृष्टि से जैसे जीव के जीवन का अन्त हो जाता है, उसी प्रकार विषयभोगों की ओर दृष्टि जाने से ही जीवों के धर्म-जीवन की समाप्ति हो जाती है। . . सूत्रकार स्वयं विष आदि से काम की विशेषता प्रकट करते हुए कहते हैं कि, कामभोग न करने पर भी, केवल काम की कामना मात्र से ही दुर्गति की प्राप्ति होती है। ऐसे सर्वथा अहितकर, आदि और अन्त में असाता के उत्पादक काम का परि- . त्याग करना ही श्रेयस्कर है-इसी श्रात्मा का एकान्त विकास है। ...
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पाठवां अध्याय
[ ३०७ ] मूलः-खणमेत्तसुक्खा बहुकालदुक्खा,
पगामंदुक्खा अनिगामसुक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्खभूया,
खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥११॥ छाया:-क्षण मानसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखा अनिकम्मसौख्या।
___संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थानां तु कामभोगाः ॥ १९॥ शब्दार्थः-कामभोग क्षणभर सुख देनेवाले हैं और बहुत समयतेक दुःख देनेवाले हैं। कामभोग अत्यल्प सुख देनेवाले हैं और अत्यन्त दुःख देने वाले हैं। ये संसार से मुक्त होनेवाले के लिए निपक्षसूत हैं अर्थात् विरोधी है और अनर्थों की खान हैं।
___ भाष्य:-चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय के विषय काम कहलाते हैं और स्पर्शन, रसला तथा बाण इन्द्रियके विषय भोग कहलाते हैं । यहां पर सूत्रकार ने कामभोगों की सुखप्रदता और दुःखप्रदता की तुलना की है।
काम भोग एक क्षण भर सुख देते हैं और चिरकाल पर्यन्त दुःख देते हैं। जैसे मधु से लिप्त तलवार की धार जीभ से चाटने पर पल भर मधु का मिठास अनुभव होता है किन्तु जिह्वा कटने से घोर वेदना चिरकाल तक होती रहती है, उसी प्रकार कामभोग भी क्षण भर की तृप्ति का प्रानन्द देकर अनेक भव-भवान्तर तक दुःख देते हैं। काम-भोग की अभिलाषा और गृद्धि से जो चिकने कर्मों का बंध होता है, वह बंध जब जितने भवातक जीर्ण होने पर छूट नहीं जाता तब तक दुःख भोगना पड़ता है। अथवा जैसे कुत्ता सुखी हड्डी अपने दांतों से चबाता है और दांतों से निकलने वाले रजत को पीला हुमा यही समझता है कि वह हड्डी का रक्त चूस रहा है, इसी प्रकार संसारी जीव विषय-भोगजन्य सुखाभास में ही सुख की कल्पना कर दुःख को आमंत्रण देता है । अतएव कहा गया है कि काम-भोग अत्यन्त अल्प सुख देते हैं और बहुत अधिक दुःख देते हैं।
काम-भोग संसार-मोक्ष के विरोधी हैं अर्थात् जन्म-जरा-मरण रूप संसार से छुटकारा पाने में बाधक होते हैं।
मूल में 'संसार मोक्खस्स' पाट है । इस पद से दो श्राशय निकलते हैं। प्रथम यह कि काम-भोग संसार से मोक्ष (मुक्ति) पाने में बाधक हैं और दूसरा यह कि संसार और मोक्ष-दोनों के विरोधी हैं । 'संसारश्च मोक्षश्च, इति संसारमोतो. जयो संसार मोक्षयोः ' इस प्रकार द्वन्द समाप्त करने से उक्त अर्थ भी फलित होता है।
प्राकृतभाषाओं में द्विवचन का अभाव होने से ' संसार मोक्खस्स ' ऐसा प्रयोग किया गया है, अथवा बहुवचन के अर्थ में एक वचन प्रयुक्त हुश्रा है।
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[ ३०८ ]
ब्रह्मचर्य-निरूपण. - इस अर्थ का तात्पर्य यह है कि काम-भोग संसार में भी हानिजनक हैं और मोक्ष के भी.बाधक हैं। कामी और भोगीजन न तो संसार में ही शान्ति और साता का अनुभव कर पाते हैं, न मोक्ष ही प्राप्त करते हैं। ____ इस प्रकार काम-भोग विविध प्रकार के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक अनों की खानि हैं । काम-भोगों से क्या-क्या अनर्थ होते हैं, यह बात प्राचीन कथानकों से स्पष्ट है । रावण आदि के दृष्टान्तो को कौन नहीं जानता ? मूलः-जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥१२॥
छायाः-यथा किस्पाकफलानां, परिणामो न सुन्दरः ।
__ एवं भुक्तानां भोगानां, परिणामों न सुन्दरः ॥ १२ ॥ शब्दार्थ:--जैसे किंपाक फल के भक्षण का परिणाम अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम अच्छा नहीं होता।
भाष्यः-किंपाक नामक फल खाने में स्वादिष्ट होता है, सूझने में सुगंध युक्त होता है, और देखने में अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है, किन्तु उसका भक्षण करना हलाहल विष का काम करता है । बाह्य-सौन्दर्य से मुग्ध होकर जो उलका भोग करता है वह प्राणों से हाथ धो बैठता है। इस प्रकार उसके भक्षण का जीवन-विनाश रूप अत्यन्त अनिष्ट परिणाम होता है। इसी प्रकार भोगे हुए मोगों का परिणाम भी अतीव अनिष्टजनक है । भोग भी ऊपर से बड़े लुभावने, आनन्ददायी, तृप्ति कारक और मधुर से प्रतीत होते हैं, पर उनका नतीजा बड़ा बुरा होता है । कहा भी है
रम्यमापातमात्रे यत्, परिणामेऽति दारुणम् । . किंपाकफल संकाशं, तत्कः सेवेत मैथुनम् ? ॥ अर्थात् जो मैथुन पहले-पहल रमणीय मालूम होता है परन्तुं परिणाम में अत्यन्त भयंकर होता है, अतएव जो किंपाक वृक्ष के समान है, उसे कौन विवेकशील पुरुष सेवन करेगा?
काम और भोग शब्द के अर्थ में सूक्ष्म रूप से भेद है, फिर भी दोनों शन्द पर्याय रूप में भी प्रयुक्त होते है अतएव यहाँ सिर्फ भोग शब्द का प्रयोग किया गया है। श्रथवा भोग शब्द 'काम' का भी उपलक्षण है। मूलः-दुपरिच्चमा इमे काया, नो सुजहा अधीरपुरिसेहि। ..
अह संति सुव्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया व ॥१३॥ छायाः-दुःपरित्याज्या इमे कामाः, न सुत्यजा अधीर पुरुषैः ।।
अथ सन्ति सुव्रता: साधवः, ये तरन्त्यतरं वणि केनैव ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:-यह काम-भोग जीवों द्वारा अत्यन्त कठिनता से छोड़े जा सकते हैं, कायर
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आठवां अध्याय
[ ३०६ ] पुरुष इन्हें सरलता से नहीं त्याग सकते । हाँ, जो सुव्रती साधु हैं वे इस अ-तर संसार सागर को वणिक की तरह तर जाते हैं अर्थात् विषय-भोग का सर्वथा त्याग कर देते हैं।
भाष्यः-जो महापुरुष ही चीर हैं, जिन्होंने अपने अत्यन्त शक्तिशाली मन पर विजय प्राप्त करली है, जो सम्यक् प्रकार से वीतराग भगवान् द्वारा प्ररूपित व्रतों का अनुष्ठान करते हैं, वहीं कामयोगों का त्याग कर सकते हैं । इसले विपरीत जो अधीर हैं अर्थात् जिनका चित्त चंचल है, आत्मनिष्ठ नहीं बन सका है, वे कामभोगों का त्याग नहीं कर सकते।
कामभोगों का त्याग करने के लिए मन की स्थिरता. अत्यन्त आवश्यक है। जो अपने मन को अपनी इच्छा के अनुसार नहीं चलाते किन्तु मन के अनुसार आप चलते हैं-जो मन के दास हैं, इन्द्रियां जिन पर शासन करती हैं, वे कामभोगों से कदापि मुक्त नहीं हो सकते हैं। अतएव कामभोगों का त्याग करने के लिए मन को
और समस्त इन्द्रियों को अपने वश में करना चाहिए । इन्हें काबू में किये बिना विषयभोग से छुटकारा नहीं मिलता। मूलः-उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ ।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ॥१४॥ छायाः-उपलेपो भवति भोगपु, अभोगी नोपलिप्यते ।
भोगी भ्रमति संसारे। अभोगी विप्रसुच्यते ॥ १ ॥ शब्दार्थः--भोग भोगने से कर्मों का बंध होता है । अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है, अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है।
__भाष्यः-भोग कर्म-बंध के कारण हैं । सर्वप्रथम जब भोगों को भोगने की अभिलाषा उत्पन्न होती है तब रागजन्य कमरे का बंध होता है । तदनन्तर मनुष्य भोग सामग्री संचित करने के लिए उद्यत होता है तो नाना प्रकार का प्रारंभ-समारंभ करता है । उससे भी कर्मों का बंध होता है । प्रारंभ-समारंभ करने पर भी यदि सामग्री का संचय न हुआ तो विविध प्रकार का पश्चात्ताप होता है, उससे भी कर्मचंध होता है । सामग्री-संचय हो गयी तो भोगोपभोग में मनुष्य ऐसा निमन्न वन जाता है कि उसे मानव-जीवन को सफल बनाने का ध्यान ही नहीं आता। रात-दिन विषयभोग में ही डूवा रहता है । इससे वह घोर कर्म-बन्धन करता है।
जो भोगों से विमुख रहता है, जिसने भोगों की निस्सारता और परिणाम में दुःख प्रदता को भलीभांति समझ लिया है, अतएव जो आत्म-समाधि में ही डूवा रहता है, उसके रागभाव न होने से वह कर्म से लिप्त नहीं होता।
कोई यह कह सकता है कि कर्म का लेप या अलेप होने से क्या हानि-लाभ है ? तो इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि भोगी भव-भ्रमण करता है और अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है । एक पर्याय से दूसरी पर्याय में जाना भव
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ब्रह्मचर्य-निरूपण भ्रमण कहलाता है । भव-भ्रमण करने से गर्भ, जन्म, जरा मृत्यु श्रादि की अपरिमित वेदनाएँ भोगनी पड़ती है। नरक और तिर्यञ्च योनियों में जो असह्य यातनाएँ होती हैं वे सब भोगी जीवों को ही भोगनी पड़ती हैं । भोगों से पराङ्मुन मनुष्य इन वेदनाओं का शिकार नहीं होता । वह मोक्ष के अनन्त, अक्षय,अव्याबाध,असीम, अनिर्वचनीय और अपूर्व प्रानन्द का अनुभव करता है।
तात्पर्य यह है कि आनन्द श्रात्मा का स्वभाव है । जो पुरुष शालिक आनन्द के रस का आस्वादन करते हैं वे इन जघन्य, घृणित विषयभोगों की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखना चाहते । और जो इन तुच्छ विषयभोगों में रचे रहते हैं वे चिन्तामणि का त्याग कर कांच के टुकड़े में अनुराग करते हैं। उन्हें वह स्वाभाविक, स्वाधीन ब्रह्मानन्द स्वप्न में भी उपलब्ध नहीं हो सकता। अतएव विवेकशील पुरुषों को चाहिए कि भोगों से विमुख होकर सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हो। सुख प्राप्ति के उद्देश्य से दुःख को अंगीकार न करें। मूलः-मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स,
संसार भीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए,
जहित्थित्रो बालमणोहरात्रो ॥ १५ ॥ छायाः-मोक्षामिकांक्षिणोऽपि मानवस्य, संसारभीरोः स्थितस्य धर्म।
नेतादृशं दुस्तरमस्ति लोके, यथा स्त्रियो बालमनोहराः ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले, संसार से भयभीत, और धर्म में स्थित भी मनुष्य के लिए, मूखों के मन को हरने वाली स्त्रियों से बचना जितना कठिन है, संसार में और कोई वस्तु इतनी कठिन नहीं है।
भाष्यः-संसार में यों तो अनेक प्रलोभन की वस्तुएँ हैं। धन के लिए लोग जामका सहन करते हैं। स्वजन की ममता प्रत्येक प्राणी के हृदय में विद्यमान रहती है। पत्र-पौत्र आदि के लिए तरह-तरह की विडम्बनाएँ लोग भोगते देखे जाते हैं। अपयश की वृद्धि के लिए लोग आकाश-पाताल एक कर डालते हैं। मनुष्य इत्यादि अनेक प्रलोभनों की शृंखलाओं में बुरी तरह जकड़ा हुआ है। किन्तु इन सबसे बड़ा एक अत्यन्त उग्र बंधन मनुष्य के लिए है-स्त्री । स्त्री का आकर्षण इतना प्रबल है कि उससे छटना सहज नहीं है। यह प्रलोभन इतना व्यापक है कि इसने समस्त संसारी जीवों को अपने में फँसा लिया है । मूर्ख तो मूर्ख हैं ही, पर इस प्रलोभन में पड़ कर बड़े-बड़े विद्वान् भी भूखों में मुख्य वन जाते हैं । यह आकर्षण योगियों को भी भोगियों की श्रेणी में खींच लाता है। तात्पर्य यह है कि राजा-रंक, पंडित-मूर्ख, रोगीनिरोगी. मनुष्य, पशु-पक्षी श्रादि सब के सब इस भयंकर फांसी को अपने गले में जाते हैं और वह भी स्वेच्छा से । जो लोग दैववश इस पाश में अब तक नहीं फंसे,
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श्राठवां अध्याय
[ ३११ । वे भी उसी की ओर खिंचे जा रहे हैं । इस श्राकर्षण से प्रायः कोई नहीं बच पाया।
जो लोग अपने आपको शक्तिशाली समझते हैं, अजेय मानते हैं, वे लोग भी स्त्री के समीप होते ही असमर्थ से बन जाते हैं। उनका अभिमान पल भर में नष्ट हो जाता है। यथा
च्याकर्णिकेसर-करालमुखा मृगेन्द्राः, नागाश्च भूरिमदराजिविराजमानाः । मेधाविनश्च पुरुषाः समरेषु शूराः, स्त्रीसनिधौ परम कापुरुषा भवन्ति ।
अर्थात् फैली हुई अयाल के कारण विकराल मुख वाले केसरी सिंह, भरते हुए मद से सुशोभित हस्ती, बुद्धिशाली पुरुष, युद्ध में वीरता प्रदर्शित करने वाले शूरवीर, स्त्री के लमीप पहुंचते ही बिलकुल कायर बन जाते हैं। बुद्धिमानों की बुद्धि, शूरवीरों की शूरवीरता, निविवेकियों का विवेक, स्त्री के समीप न जाने कहां हवा हो जाता है !
मनुष्यों और पशुत्रों की बात जाने दीजिए । एकेन्द्रिय होने के कारण जिनकी संज्ञा प्रायः व्यक्त नहीं है, जिनमें चैतन्य की मात्रा अधिकांश में आवृत है, ऐसे वृक्ष भी इस प्रलोभन से नहीं बच पाते।
इस प्रकार स्त्री रूप अाकर्षण संसार में सर्वत्र च्यात है । इल आकर्षण की प्रवलता का विचार करके तथा इसके भयंकर परिणाम का विचार करके अपना क्षेमकुशल चाहने वालों को सदैव बचना चाहिए। मूलः-एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चैव भवति सेसा ।
जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाना।१६॥ छायाः-एतांश्च संगान् समतिकम्प, सुखोत्तर.श्चैव भवन्ति शेपाः।
यथा महासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गंगासमाना॥१६॥
शब्दार्थ:-इस स्त्री-प्रसंग का त्याग करने के पश्चात् अन्य संग (वासनाएँ) सुगमता से त्यागी जा सकती हैं । जैसे महासमुद्र को पार कर लेने के पश्चात् गंगा के समान नदी भी सरलता से पार की जा सकती है।
भाष्यः-स्त्री-संभोग सम्बन्धी वासना की उत्कृष्टता बतलाई जा चुकी है। अन्यान्य वासनाओं की तुलना इसके साथ करते हुए सूत्रकार ने बतलाया है कि अन्य चासनाएँ अगर नदी के समान हैं तो काम वासना महासमुद्र के समान है। महासमुद्र को पार करना जैसे कठिन है, उसी प्रकार काम-वासना को पार करना अत्यन्त कठिन है। जो सत्त्वशाली पुरुप महासमुद्र को पार कर लेते हैं, उनके लिए बड़ी से बड़ी नदी भी तुच्छ-सी है। वे उसे सहज ही पार करते हैं। श्रतएव वासनाओं पर विजय पाने की इच्छा रखने वाले पुरुषों को सर्वप्रथम और पूर्ण शक्ति के साथ इस वासना को जीतना चाहिए।
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[ ३१२ 1
मूलः - कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं,
ब्रह्मचर्य - निरूपण
सव्वस्त लोगस्स सदेवगस्त ।
जं काइयं माणसिश्रं च किंचि,
तस्संतगं गच्छ वीयरागो ॥ १७ ॥
छाया:- कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य । यत् कायिक मानसिकं च किन्चित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ||१७|| शब्दार्थः -- देवों सहित सम्पूर्ण लोक के प्राणी मात्र को कामासक्ति से उत्पन्न होने वाला दुःख लगा हुआ है। वीतराग पुरुष शारीरिक और मानसिक समस्त दुःखों का न्त करते हैं।
भाष्यः - जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, काम-वासना संसार के प्रत्येक प्राणी के हृदय में विद्यमान है । कोई भी संसारी जीव इसके चंगुल से नहीं बच सका है | क्या देवता, क्या मनुष्य और क्या पशु-पक्षी, सभी इस महान् व्याधि से ग्रस्त हैं। सभी काम-वासना से उत्पन्न होने वाली व्याकुलता से वेचैन हैं । वैमानिक देव अप्सराओं के साथ मोह-सुग्ध होकर ब्रह्म का सेवन करते हैं । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवता भी विषयों की तृष्णा के दास हैं, विषयभोग की पीड़ा से व्याप्त हैं, अत्यन्त मूर्छित हैं और काम-भोगों का सेवन करते हुए मोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं ।
चौंसठ हजार सुन्दरी स्त्रियों का स्वामी चक्रवर्त्ती, विशिष्ट पराक्रमशाली होने पर भी विषयों का दास है । वह सम्पूर्ण भरतखण्ड पर आधिपत्य प्राप्त करता है, चौदह अनुपम रत्नों और नौ निधियों का स्वामी है। उसके प्रचण्ड पराक्रम से बड़ेबड़े सम्राटों के हृदय कम्पित होते हैं और उसके चरणों में नतमस्तक होते हुए अपने को भाग्यशाली मानते हैं । फिर भी वह ' अवला ' के आगे श्रवल है । काम-वासना है 1
का दास
इस वासना के कीचड़ में फँसने से जो बचे हैं, वह वीतराग हैं । जिन्होंने भोगों की निस्सारता अपनी विवेक-बुद्धि से जान ली है, भोगों की क्षणभंगुरता और चिरकाल पर्यन्त दुःखदायकता को भलीभांति समझलिया है, जो श्रात्मानन्द में मन हैं, वे काम - भोगों की और दृष्टिपात भी नहीं करते ।
प्रत्येक प्राणी दुःख से भयभीत है, दुःख से दूर रहना चाहता है । मनुष्य, देवता आदि से लेकर निकृष्ट श्रेणी के जीवधारी सदैव इसी प्रयत्न में लगे रहते हैं कि उन्हें दुःख की प्राप्ति न हो । किन्तु दुःख के कारण क्या हैं ? दुःख का स्वरूप क्या है ! दुःख का प्रतीकार किस प्रकार हो सकता है ? इन बातों को भलीभांति न समझने से या विपरीत समझने से, यह होता है कि वे उसी मार्ग पर चलते हैं, जो दुःखों की
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श्राठवां अध्याय
[ ३१३ ] दारुणता ले व्याप्त है और जिल पर चलने से दुःखों का अन्त नहीं होता वरन् वृद्धि होती है। अज्ञानी जीव भ्रमवश जिन्हें दुःख-सुक्ति का कारण समझता है, वह वास्तव में दुःख-वृद्धि के कारण हैं। वह जिसे सुख मानता है वह वास्तव में सुखभास है। विपरीत उपचार करने से जैसे रोग की वृद्धि होती है, उसी प्रकार दुःख-विनाश के विपरीत उपाय करने से दुःख का विकास हो रहा है। मूढ़ पुरुष संसार के भोगोपभोगों और उनके साधनों को ही सुख रूप मान बैठा है और उन्हीं के भरोले दुःख से बचने का मनोरथ करता है। इस विपरीत बुद्धि को दूर करने के लिए सूत्रकार ने यहां दुःखों की उत्पत्ति का मूल बताया है-'कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्ख।' अर्थात् दुःखों के जिस प्रयल प्रवाह में प्राणी वहे जा रहे हैं उनका मूल स्रोत-उद्गम स्थान कासभोग की अभिलाषा है।
दुःखों का उद्गम-स्थान समझलेने पर उनके निरोध का उपाय सहज ही सम. झा जा सकता है । काम-भोग की लालसा को अगर त्याग दिया जाय और वीतराग वृत्ति को धारण किया जाय तो समस्त दुःखों का अन्त पा सकता है। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं-'तस्संतगं गच्छद वीयरागो । अर्थात् वीतरागता की वृत्ति से शारीरिक और मानसिक समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है । राग से उत्पन्न होने वाले दुःख अराम-भाव से ही नष्ट हो सकते हैं।
सूत्रकार द्वारा उपदिष्ट दुःखों के विनाश का मार्ग ही राजमार्ग है, जिस पर अग्रसर होकर, अनादि काल से, अनन्त आत्माओं ने, अपना एकान्त कल्याण किया है, अपने दुःखों का समूल उमूल किया है और सुन के अक्षय कोष पर आधिएत्य प्राप्त किया है। मूल:-देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा।
बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति ते॥१८॥ छाया:-देवदानवगन्धर्वाः, यक्षराक्षसकिन्नराः।
ब्रह्मचारिणं नमस्यन्ति, दुष्करं ये कुर्वन्तितम् ॥ १८ ॥ शब्दार्थः-कठिनाई से आचरण में आने वाले ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले ब्रह्म. चारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर नमस्कार करते हैं।
भाष्यः-सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य पालन करने की महत्ता का यहां दिग्दर्शन कराया है।
पहले यह बतलाया जा चुका है कि देव दानव से लगाकर सभी जीवधारी फास के कीचड़ में फंसे हुए हैं। जो लोग कास-भोगों की तुच्छता को समझ लेते हैं,
और उनका त्याग करना चाहते हैं, वे भी मन की चंचलता और इन्द्रियों की श्रदस्यता के कारण उनका त्याग करने में असमर्थ हो जाते हैं । ऐसी अवस्था में ब्रह्मचर्य का पालन करना लचमुच ही अत्यन्त दुष्कर है।
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ब्रह्मचर्य-निरूपण फिर भी श्रात्मा में अनन्त शक्ति है और इतनी शक्ति है कि यदि उसके प्रयत्न अनुकूल दिशा में किये जाएँ तो वह इन्द्रियों का दमन करके और मन की नकेल अपने हाथों में संभाल कर उनका स्वामी बन सकता है। जिन्होंने इस पथ का अनुसरण किया है, वे सब प्रकार के काम-विकार पर विजय प्राप्त कर सके हैं। वे पूर्ण ब्रह्मचारी बने हैं । उनके पवित्र चरणों में देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर देवता मस्तक झुकाते हैं। ऐसी ब्रह्मचारी पुरुष की महिमा है।
ब्रह्मचर्य इतना महान् व्रत है कि उसके यशोगान का अन्त नहीं हो सकता। भगवान् ने सूयगडांगसूत्र में स्वयं कहा है-'तवेसुवा उत्तम चंभचेरं' अर्थात् ब्रह्मचर्य समस्त तपों में उत्तम है।
ब्रह्मचर्य की महता से प्रेरित होकर प्रत्येक धर्म के अनुयायी और प्रत्येक देश के निवासी उसकी आवश्यकता का अनुभव करते हैं और मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा करते हैं । दक्षस्मृति में कहा है
ब्रह्मचर्य सदा रक्षेदष्टया रक्षणं पृथक । स्मरणं कर्तिनं कलिः, प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।। . संकल्पोऽध्यवसायश्च, क्रियानिवृत्तिरेव च।
एतन्मधुनमष्टांग, प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ अर्थात्-स्मरण, कीर्तन (प्रशंसा ), क्रीड़ा, देखना, गुप्त भाषण करना, संकल्प-कामभोग का इरादा करना, अध्यवसाय-कामभोग के लिए प्रयत्न करना और काय से ब्रह्मचर्य का भंग करना, यह पाठ प्रकार का मैथुन है। अतएव आठों प्रकार से सदैव ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए। ब्रह्मचर्य की महिमा प्रकट करते हुए शास्त्रकार ने कहा है:
शीलं प्राणमृतां कुलोदयकरं, शीलं वपूभूषणम् । शीलं शौचकर विपद्भयहरं, दोर्गत्यदुःखापहम् ।। शीलं दुर्भगतादिकन्ददहन, चिन्तामणिः प्रार्थिते,
व्याघ्रव्यालजलानलादिशमनं स्वर्गापवर्गप्रदम् ॥ अर्थात-शील मनुष्यों के कुल की उन्नति करने वाला है-शीलवान के कुल की वद्धि होती है। शील शरीर का श्रृंगार है अर्थात् शील-पालन से शरीर तेजस्वी श्रोजस्वी, प्रभापूर्ण और सुन्दर बनता है । शील से अन्तःकरण पवित्र बनता है। शील के प्रभाव से विपत्ति का भय दूर हो जाता है । शील दुर्गति के दुःखोंको दलन करने वाला है। वह दुर्भाग्य का समूल नाश करने वाला है । इष्ट सिद्धि के चिन्तामणि के सहश है अर्थात शीलवान् के समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं-उसे कहीं असफलता नहीं होती। शील के प्रभाव से व्याघ्र, सर्प, जल, अग्नि आदि की समस्त वाधाएँ दूर होती हैं और शील से अन्त में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्रश्नव्याकरण सूत्र में भगवान ने ब्रह्मचर्य की महिमा इस प्रकार कही है
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आठवां अध्याय
[ ३१५ ॥ 'ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है । यम और नियम रूप प्रधान गुणों से युक्त है । हिमवान पर्वत से महान और तेजस्वी है । ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करने से मनुष्य का अन्तःकरण प्रशस्त, गंभीर और स्थिर हो जाता है । साधुजन ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं। वह मोक्ष का मार्ग है। निर्मल सिद्ध गति का स्थान है, शाश्वत है, श्रव्याबाध है। जन्म-मरण का निरोध करने वाला है । प्रशस्त है, सौम्य है, सुख रूप है, शिव रूप है, अचल और अक्षय बनाने वाला है। मुनिवरों ने, महापुरुषों ने धीर-वीरों ने, धर्मात्माओं ने, धैर्यवानों ने ब्रह्मचर्य का सदा पालन किया है। भव्यजनों ने इसका आचरण किया है । यह शंका रहित है, भय-रहित है, खेद के कारणों से रहित है, पाप की चिकनाहट से रहित है। यह समाधि का स्थान है। ब्रह्मचर्य का भंग होने पर सभी व्रतो का तत्काल भंग हो जाता है। सभी व्रत, विनय, शील तप, नियम, गुण, आदि दही के समान मथ जाते हैं, चूर-चूर हो जाते हैं, बाधित हो जाते हैं पर्वत के शिखर से गिरे हुए पत्थर के समान भ्रष्ट हो जाते हैं, खंडित हो जाते हैं।
'निरतिचार ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ही सुव्राह्मण है, सुश्रमण है, नुसाधु है। जो ब्रह्मचर्य का शुद्ध पालन करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयमी है, वही भिक्षुक है।'
'अध्यात्म-भावना-प्रधान ऋषियों और मुनियों ने ब्रह्मचर्य को प्राचार में सर्व श्रेष्ठ स्थान दिया है । इसके अतिरिक्त धर्म भावना हीन पाश्चात्य देशीय विद्वान् भी इसके असाधारण गुणों से मुग्ध होकर ब्रह्मचर्य का श्रादर करते हैं और उसकी महिमा का बखान करते हैं । अध्यापक मोण्टेग्जा कहते हैं
'ब्रह्मचर्य से तत्काल अनेक लाभ होते हैं । ब्रह्मचर्य से तुरन्त ही स्मरण शक्ति स्थिर और संग्राहकं वन जाती है, बुद्धि उर्वरा और इच्छा-शक्ति बलवती हो जाती है । मनुष्य के सारे जीवन में ऐसा रूपान्तर हो जाता है कि जिसकी कल्पना भी स्वेच्छाचारियों को कभी नहीं हो सकती । ब्रह्मचर्य जीवन में भी ऐसा विलक्षण सौन्दर्य और सौरभ भरदेता है कि सारा विश्व नये और अद्भुत रंग में रंगा हुआसा प्रतीत होता है और वह अानन्द नित्य नया मालूम होता है । एक और ब्रह्मचारी नवयुवकों की प्रफुल्लता, चित्त की शान्ति और तेजस्विता, दूसरी और इन्द्रियों के दालों की अशांति, अस्थिरता और अस्वस्थता में श्राकाश-पातल का अन्तर होता है। भला इन्द्रिय-संयम से भी कोई रोग कभी होता सुना गया है ? पर इन्द्रियों के असंयम से होने वाले रोगों को कौन नहीं जानता ? इन्द्रियों के असंयम से शरीर सड़ जाता है और उससे भी बुरा परिणाम मनुष्य के मन, मस्तिष्क, हृदय और संज्ञा शक्ति पर पड़ता है।'
इन अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मचर्य आत्मिक, मानसिक और · नैतिक उन्नतिको अत्यन्त उपयोगी व्रत है। साथ ही शारीरिक आरोग्य और शारीरिक
शक्ति के लिए भी उसकी अनिवार्य आवश्यकता है।
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[ ३१६ ]
ब्रह्मचर्य-निरूपण मनुष्य जो आहार करता है, उससे सप्त धातुओं का निर्माण होता है अर्थात् आहार का सात धातुओं के रूपमें परिवर्तन होता है । सर्वप्रथम आहार से रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद ले हड्डी, हड्डी से मजा और मज्जा से वीर्य की निष्पत्ति होती है । श्राहार का सार रस, रस का सार रजत, रक्त का सार मांस श्रादि आगे की धातुएँ हैं । इस क्रम के अनुसार वीर्य लमस्त धातुओं का सार है। आहार ले वीर्य बनने में लगभग तीस दिन का समय लगता है । '.
वैज्ञानिकों के कथनानुसार एक मन आहार से एक सेर रक्त चनता है और एक सेर रक्त से सिर्फ दो तोला वीर्य बनता है । इस क्रम के अनुसार विचार करने से प्रतीत होगा कि यदि कोई पूर्ण स्वस्थ पुरुष प्रतिदिन एक सेर आहार करे तो चालीस दिनों में उसे लिर्फ दो ही तोला वीर्य की प्राप्ति हो सकेगी।
वीर्य ही शरीर का मुख्य आधार है । शरीर की शक्ति, इन्द्रियों का सामर्थ्य और मन का बल, सभी कुछ वीर्य पर अवलंवित है और वीर्य एक दुर्लभ वस्तु है। ऐसे उपयोगी और जीवन के लिए अनिवार्य बहुमूल्य पदार्थ को जो लोग एक क्षण भर की तृप्ति के लिए गँवा देते हैं, उनके अज्ञान का कहा तक वर्णन किया जाय ? ____ एक बार वीर्य नष्ट करने का अर्थ है-लगभग चालीस दिन की कमाई को धूल में मिला देना, चालीस दिन तक किये हुए आहार को वृथा कर देना और मूल्यवान जीवन के चालीस दिन कम कर लेना ! यही नहीं जीवन का सामर्थ्य, स्वास्थ्य, शरीर की कान्ति और मानसिक शान्ति, आदि सव वीर्य-नाश से नष्ट हो जाता है । 'मरणं विन्दुपातेन जीवन बिन्दुधारणात्' अर्थात् वीर्य के धारण करने पर ही जीवन धारण किया जा सकता है और वीर्य के एक बिन्दु का पतन होना मृत्यु के समान है। वीर्यरक्षा ही सौभाग्य का कारण है, वीर्य-रक्षा से ही विद्या-बुद्धि प्राप्त होती है, वीर्य-रक्षा लें ही प्रात्मा के सामर्थ्य की वृद्धि होती है, वीर्य-रक्षा ही सब प्रकार की उन्नति का मूल-मन्त्र है।
साधारणतया वीर्य-रक्षा को ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है, किन्तु वास्तव में ब्रह्मचर्य का अर्थ है समस्त इन्द्रियों का संयम । जब तक समस्त इन्द्रियों पर संयम न रक्खा जाय तब तक स्पर्शनेन्द्रिय संयम रूप ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो सकता । इसी कारण शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य की-नववाड़ों का उल्लेख करते हुए उसमें पौष्टिक आहार, विकारोत्पादक मसाले आदि के भोजन का त्याग करने का उपदेश दिया है। अर्थात् ब्रह्मचर्य पालन के लिए जिह्वा इंद्रिय पर संयम रखना अत्यन्त आवश्यक है। इसी प्रकार स्त्रियों की ओर देखना और उनके कामोत्तेजक गीत आदि सुनने का निषेध करके चक्षु और श्रवण इन्द्रिय के संयम की आवश्यकता प्रदार्शत की है।
ब्रह्मचर्य की महत्ता को अंगीकार करने वाला समाज और विशेषतः भार्यप्रजा भी इसकी और पर्याप्त लक्ष्य नहीं दे रही, यह खेद का विषय है। प्राचीन काल में बालक जव विद्याभ्यास के योग्य वय प्राप्त कर लेता था, तब उसे कलाचार्य के समीप विविध कलाओं का अभ्यास करने के लिये भेज दिया जाता था। वहां का
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आठवां अध्याय
[ ३१७ | वातावरणं अत्यन्त स्वच्छ, सर्वथा विकारहीन, शान्त और सौम्य होता था । बालक पच्चीस वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ सब प्रकार की विद्या और कला की शिक्षा ग्रहण करता था। इस प्रकार बाल्यकाल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने के कारण लोगों का शारीरिक संगठन खूप दृढ़ होता था और वे दीर्घ जविन प्राप्त करते थे, साथ ही स्वस्थ, बलिष्ठ और विविध प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न होते थे। आज वह परम्परा विच्छिन्न हो जाने से वालक विकारमय वातावरण में बाल्यावस्था व्यतीत करते हैं और अनेक अज्ञान माता-पिता तो कोमल वय में ही विवाह करके उनके जीवन के सर्वनाश की सामग्री प्रस्तुत कर देते हैं । युग युगान्तर से ब्रह्मचर्य की महिमा के गीत गाने वाले धर्म प्रधान इस देश में जितनी छोटी उम्र में बालकों का विवाह हो जाता है, वैसा किसी अन्य देश में नहीं !
ब्रह्मचर्य के विषय में अनेक भ्रम जनता में फैले हुए हैं। कोई यह समझता है कि गृहस्थ ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता और कोई-कोई ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए भी उसे असाध्य समझते हैं । इन भ्रमों का निराकरण करने के लिए कुछ पंक्तियां लिखना आवश्यक है ।
वीर्य - रक्षा की आवश्यक्ता प्रत्येक प्राणी को है। चाहे वह साधु हो, चाहे गृहस्थ हो । अपनी वासनाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त न कर सकने के कारण गृहस्थ पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य न पाल सके तो उसके लिए एक देश ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए | पर स्त्रियों में मातृ-बुद्धि रखना चाहिए । स्वस्त्री में संतुष्ट रहकर तीव्र काम-भोग की अभिलाषा का त्याग करना चाहिए । दिवा ब्रह्मचर्य की आराधना करना चाहिए । काम-वासनावर्द्धक चेष्टाएं नहीं करना चाहिए। पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का संकल्प करते रहकर यथा शक्ति तैयारी करना चाहिए । राजस और तामस आहार से बचना चाहिए । इस प्रकार संयम के अनुकूल आहार-विहार करते हुए जीवनपालन करना चाहिए । धर्म भावना के साथ समय बिताने से काम-वासना को गृहस्थ भी शिकरूप में अवश्य जीत सकता है ।
जो लोग ब्रह्मचर्य को असाध्य समझते हैं, उन्हें प्राचीन काल के महात्माश्र के पवित्र चरित पढ़ना चाहिए। उन्होंने जीवन का जो क्रम वनाया था उस क्रम पर चलन से ब्रह्मचर्य असाध्य नहीं रह सकता । ब्रह्मचर्य को असाध्य मानना श्रात्मा की शक्ति को अस्वीकार करना है । जो आध्यात्मिक पक्तियों से अनभिज्ञ हैं और प्रबल विकार के शिकार हैं वही विकार- विजय को असंभव समझते हैं ।
ब्रह्मचर्य - - साधना के लिए और उसकी रक्षा के लिए इस अध्याय की यादि ही नव बाड़ों का उल्लेख किया गया है । उनके अतिरिक्त थोड़ी-सी बातें यहां दी जाती है, जो ब्रह्मचर्य की लाधना के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं । वे यह हैं
(९) पवित्र संकल्प - अर्थात् भावना की पवित्रता । भावना में श्रद्भुत शक्ति 'है भावना अन्तः संसार में और बाह्य जगत् में अनेक प्रकार के कार्य सदा करती रहती है। उसका शरीर और वचन पर गहरा प्रभाव पड़ता है । भावना में अपूर्व निर्माण
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ब्रह्मचर्य - निरूपण
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करने का सामर्थ्य है । जो मनुष्य अपनी भावना को पवित्र बनाता है वह पवित्र चन जाता है और जिसकी भावना निकृष्ट होती है वह स्वयं विकट वन जाता है । हमारे समस्त कार्य-कलाप भावना के ही मूर्त रूप होते हैं । अतएव जो मनुष्य जैसा बनना चाहे उसे उसी प्रकार का संकल्प दृढ़ करना चाहिए । ' मैं ब्रह्मचारी हूं 'ब्रह्मचर्यं पालन मेरा पवित्रतम् कर्त्तव्य है', 'जीवन भले ही नष्ट हो जाय पर मेरा व्रत खंडित नहीं होगा' ' मैं अपना सर्वस्व ठुकरा कर भी ब्रह्मचर्य का ही पोलन करूंगा " संसार की कोई भी प्रचंड शक्ति मुझे अपने वृत से च्युत नहीं कर सकती', मेरी संकल्पशक्ति के सामने जगत् नहीं ठहर सकता, ' मेरा निश्चय सुमेरु की तरह अटल और अकंप ही है और रहेगा ', ' मेरे संकल्प में पूर्व और सर्वोपरि क्षमता है " जगत् के सलिन एवं निकृष्ट प्रलोभन सुझे कदापि आकर्षित नहीं कर सकते' इत्यादि रूप से अपने संकल्प में दृढ़ता लाने से चिंत्त में स्थिरता उत्पन्न होती है और आत्मा में प्रलोभनों पर विजय पाने की शक्ति जागृत होती है । श्रतएव ब्रह्मचारी पुरुष को अपना संकल्प सुदृढ़ बनाना चाहिए ।
(२) निर्मल दृष्टि - जैसे माता और वहिन पर नजर पड़ते ही चित्त में एक प्रकार की श्रद्धापूर्ण सात्विकता का उदय होता है और विकारों को कोई स्थान नहीं रहता, यह दृष्टि की निर्मलता का प्रभाव है ! यह दृष्ट्रि-निर्मल्य स्त्री मात्र में जगाने की सदा चेष्टा करना चाहिए। सर्व प्रथम तो स्त्री की और आँख उठाकर देखना ही नहीं चाहिए | अगर अचानक दृष्टि उस ओर चली जायतो तत्काल उसे हटा लेना चाहिए। दृष्टि हटा लेने पर भी मन से वह न निकले तो उसमें मातृत्वक श्रारोप करना चाहिए। अपनी माता या बहिन के साथ उसकी तुलना करना चाहिए। जब कभी किसी स्त्री से बातचीत करने का अनिवार्य श्रवसर आ जाय तो उसे माता या बहन कहकर संबोधन करना चाहिए ।
(३) सत्संगति - सत्पुरुषों की संगति करने से अज्ञान, चित्तविकार आदि दोष दूर होते हैं अनेक गुणों की प्राप्ति होती है । कहा भी है
सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्व निश्चतत्वं, निश्चलतत्वे जीवन्मुक्र्तः ||
श्रर्थात् - संतजनों की संगति से मनुष्य निःसंग ( अनासक्त ) वनता है, निःसंग होने से निर्मोह हो जाता है, निर्मोह होने से नित्य तत्व अर्थात् श्रात्मा की उपलब्धि होती है और आत्माकी उपलब्धि होने पर जीवनमुक्त हो जाता है । जीवित रहते हुए भी-शरीरकी विद्यमानता में भी अपर मोक्ष - श्रार्हन्त्य दशा - प्राप्त हो जाती है। वास्तव में संत पुरुषों का समागम एकान्त हित का कारण है और आत्म-श्रेय का प्रथम सोपान है। संत पुरुष के हृदय की पवित्रता का प्रभाव उनके समपिवर्त्ति - यों पर पड़ता है और नीच प्राणी भी पवित्रता प्राप्त कर सकता है ।
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(४) सत्साहित्य का अभ्यास - संत पुरुष जीवित साहित्य हैं । पर उनका योग 'जब न मिले तो उनकी पवित्र भावनाओं का जिस साहित्य में चित्रण किया गया है
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आठवां अध्याय
३१६ उस साहित्य का, एकान मन से, शान्त और एकान्त स्थान में बैठकर अध्ययन करना चाहिए। ऐसा करने से ज्ञान की बुद्धि होती है, भावना में प्रबलता आती है, हृदय स्वच्छ होता है और नवीन पावन विचारों से अनुपम आनन्द की उपलब्धि होती है।
साहित्य के अध्ययन में ब्रह्मचारी महापुरुषों के जीवन-चरित अवश्य पढ़ने चाहिए। उनसे ब्रह्मचारी को बड़ा सहारा, बड़ा बल मिलता है । उन्होंने ब्रह्मचर्य की साधना के लिए जिन उपायों का अवलम्बन किया था उनका हमें ज्ञान होता है। विपत्ति-काल में उन्होंने चहान की तरह दृढ़ता रखकर अपने पवित्र प्रण को, प्राणों की परवाह न करके निभाया, यह बात हमें भी शक्ति और दृढ़ता प्रदान करती है, ब्रह्मचारीवर्य सुदर्शन का चरित पढ़कर कौन प्रफुल्लित नहीं होता? उल महात्मा की प्रणवीरता किले साहस नहीं प्रदान करती? जब हम प्राणों की मोहममता का त्याग कर सुदर्शन को ब्रह्मचर्य पर स्थिर रहते देखते हैं तब हृदय में साहसकी वृद्धि होती है और ब्रह्मचर्य-रक्षा का प्रबल भाव उत्पन्न होता है।
अनेक पुरुष काम-राग-बर्द्धक पुस्तकें पढ़कर अपना समय ही व्यर्थ नहीं खोते, वरन् जीवन का भी सत्यानाश करते हैं । शृंगार रस से भरे हुए उपन्यास कहानी, काव्य आदि का पठन करने से सोई हुई काम-वालाना जाग उठती है और बह कभी-कभी पुरुष को लाचार करदेती है । आजकल के साहित्य में कुछ उच्छृखल लेखक अनेक प्रकार की गंदगी इधर-उधर से खोज कर भर रहे हैं । उस साहित्य का पठन करले ले पाठक का नैतिक पतन होते देर नहीं लगती। अतएव सात्विक साहित्य का ही अध्ययन करना चाहिए ।
(५) सिनेमा और नाटक देखने का विवेक-सिनेमा का श्रव अत्यधिक प्रचार बढ़ रहा है । सिनेमा के व्यवसायी अपने सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्व को विस्मरण करके, व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर अधिकांश चित्र कुरुचिपूर्ण-कामोत्तजक ही तैयार करते हैं। उनमें अनेक प्रकारकी चिकारकारक भावभंगी का, कायिक कुचेष्टाओं का, राजस प्रेम का और अश्लील नाच-गान का प्रदर्शन होता है । यह प्रदर्शन जनता की नैतिक भावना पर कुठार-प्रहार कर रहा है । कोमल चित वाले चालकों और बालिकाओं को भी यह चित्र दिखाए जाते हैं । इससे उनका मन श्रारंभिक अवस्था में ही अत्यन्त दूषित हो जाता है । आश्चर्य है कि लोग विना सोचे-समझे, निर्लज होकर ऐसे चित्र स्वयं देखते और अपनी संतान को दिखलाते हैं । किन्तु ऐसे चित्र आंखों के मार्ग से अन्तस्करण में जहर पहुंचाते हैं और वह जहर नैतिकता एवं धार्मिकता का ससूल विनाश किये बिना नहीं रहसकता । राज्य-शासन यदि ऐसे चित्रा के प्रदर्शन की मनाई नहीं करता तो वह प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य पालन नहीं करता । वह प्रजा के विनाश का प्रकारान्तर से अनुमोदन करता है । प्रजा अपने सम्मिलित बल से यदि ऐसे चित्रों का बहिष्कार नहीं करती तो वह अपने और अपनी संतान के सर्वनाश का समर्थन करती है।
राजा या प्रजा जब तक इस घोर अभिशाप को दूर करने का प्रयत्न न करें तव
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ब्रह्मचर्य-निरूपण तक विवेकी व्यक्तियों को अश्लील चित्र-सिनेमा देखने में बहुत विवेक रखना चाहिए
और नैतिकता होन, अश्लीलतापूर्ण, व्यभिचारवर्द्धक सिनेमा न स्वयं देखना चाहिए, न अपनी संतान को दिखलाना चाहिए । ब्रह्मचर्य-साधना में यह भयकंर अन्तराय है।
(६) व्यसन-त्याग-आजकल अनेक दुर्व्यसन लोगों में घर वनाये हुए हैं। सौ व्यक्तियों में से पांच भी ऐसे व्यक्ति मिलना कठिन है जो किसी न किसी दुर्व्यसन से अस्त न हो। कोई तमाखू पीता है, कोई खाता है कोई नाक के द्वारा उसका सेवन करता है। कोई वीड़ी के रूप में, कोई सिगरेट के रूप में, कोई किसी रूप में तमाखू की अाराधना करता है। कोई गांजा पीता है, कोई अफीम खाता है, कोई भंग या मदिरा का पान करता है । काफी का काफी से अधिक प्रचार बढ़ गया है और चाय की चाह भी अत्यधिक फैल गई है। तात्पर्य यह कि इन सव विषयाक्त वस्तुओं का विभिन्न रूपों में सेवन किया जा रहा है और इस कारण ब्रह्मचर्य की आराधना में वड़ी वाधा पड़रही है।
तमाखू के सेवन से वीर्य उत्तेजित होकर पतला पड़ जाता है, पुरुषत्व शक्ति क्षीण होती है, पित्त विकृत हो जाता है, नेत्र ज्योति मंद होती है, मस्तिष्क और छाती कमजोर हो जाती है, खांली दमा और कफ की वृद्धि होती है । इसी प्रकार चाय, काफी आदि समस्त नशैली वस्तुओं का सेवन करने से स्वास्थ्य के साथ ब्रह्मचर्य को हानि पहुँचती हैं । श्रतएव इनका त्याग करना आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले पुरुष का कर्तव्य है कि वह न केवल खान-पान के संबंध में, वरन् अपने प्रत्येक व्वहार में खूब सतर्क और विवेकवान् हो . और विरोधी व्यवहारों से सर्वदा बचता रहे ऐसा करने पर ही ब्रह्मचर्य व्रत स्थिर रह सकता है।
ब्रह्मचर्य व्रत का यथाविधि अनुष्ठान करने वाले महात्मा में एक प्रकार का विचित्र तेज आ जाता है । उसमें ऐसी शक्तियां आविर्भूत होती है जिनकी car, साधारण लोग नहीं कर सकते। ब्रह्मचर्य के प्रताप से सीता के लिए अग्नि कमल बन गई थी. सुदर्शन के लिए शूली ने सिंहासन का रूप धारण कर लिया था । यह सव ब्रह्मचर्य का अलौकिक प्रभाव है। विषय-वासना के कीट, नास्तिक और बहिरात्मा लोग जिस महत्ता को कल्पना समझते हैं वही महत्ता ब्रह्मचारी प्राप्त करता है। या शास्त्रकार ने बतलाया है कि देव, दानव, श्रादि ब्रह्मचारी के सामने नम्र हो जाते हैं। उनके चरणों में नमस्कार करते हैं । सो यह प्रभाव उपलक्षण समझना चाहिए । ब्रह्मचारी पुरुप अक्षय और अनन्त सुख प्राप्त करता है। इसलोक में उसे अदभत शांति, संतोष, निराकुलता और स्वस्थता प्राप्त होती है। साथ ही वह श्रावागमन के चक्र से छूट जाता है । इस प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत उभयलोक में हितकारी है, सखकारी है, एकान्त कल्याणकारी है। प्रियकारी है। वही नर और नारी का परम श्राभूषण है। उसके बिना अन्य प्राभूषण दूषण रूप हैं । व्यर्थ हैं । ब्रह्मचर्य ही जीवन
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आठवां अध्याय
[ ३२१ ] का परम साध्य है। उसके बिना जीवन अनुपयोगी है।
जिन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया, वे महापुरुष अत्यन्त धन्य हैं, माननीय हैं, वन्दनीय हैं । जो एकदेश ब्रह्मचर्य पालते हैं वे भी धन्य हैं। किसी कवि ने कहा है-'परती लख जे धरती निरखें धनि हैं धनि हैं धनि हैं नर ते।' अर्थात् परस्त्री पर दृष्टि पड़ते ही जो पृथ्वी पर-नीचे की ओर देखने लगते हैं, वे पुरुष धन्य हैं, धन्य हैं धन्य हैं।' ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए उचित ही कहा है
मेरू गरिठ्ठो जह पव्वयाणं, एरावणो सारबलो गयाणं ।
सिंहो बलिट्ठो जह सावयाणं, तहेव सालं पवरं वयाणं ॥ जैसे समस्त पर्वतों में मेरु बड़ा है, समस्त हस्तियों में एरावत बलिष्ठ है, वन्य पशुओं में सिंह बलवान् है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ व्रत है। • इस व्रत के आधार पर ही अन्य व्रत टिकते हैं। जो ब्रह्मवर्य व्रत से च्युत हो जाता है वह अहिंसा, सत्य आदि व्रतों से भी भ्रष्ट हुए बिना नहीं रहता । अतएव ब्रह्मचर्य के महत्व को समझो, उसकी उपयोगिता का ज्ञान करो, उसकी विधिपूर्वक आराधना करो। यही निश्रेयस का मार्ग है, मुक्ति का द्वार है, प्राध्यात्मिक-विकास का साधन है और समस्त सुखों का भंडार है।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-पाठवां अध्याय समाप्तम्
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य . निन्ध-प्रवचन ... ॥ नववा अध्याय ।। ..
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साधु धर्म-निरूपण
श्री भगवान्-उवाचमूलः-सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिजिउं ।
तम्हा पाणिवहं घोरं, गिग्गंथा वजयंति णं ॥१॥ छाया:-सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम् ।
__ तस्मात् प्राणिवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम् ॥ १॥ शब्दार्थः-हे इन्द्रभूति ! संसार के सब जीव जीवन की इच्छा करते हैं, मरने की इच्छा कोई नहीं करता। अतएव निर्ग्रन्थ साधु घोर जीव-वध का त्याग करते हैं।
भाष्यः-अणुव्रतों का पालन करने के पश्चात् और ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर साधु पद प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। अतएव सातवें अध्याय्य में अणुव्रत तथा उनके पालन में सहायक प्राचार का और पाठवें अध्याय में ब्रह्मचर्य का निरूपण करने के अनन्तर इस अध्याय में साधु-धर्म की प्ररूपणा की जाती है।
साधु-धर्म में पञ्च महाव्रतों का सर्वप्रथम और सर्वोपरि स्थान है। यह महाव्रत इतने व्यापक और विशाल अर्थ से परिपूर्ण हैं कि लमस्त मुनि-आचार का इन्हीं में समावेश हो जाता है । इली कारण इन्हें साधु के मूल गुण कहते हैं। जिनागम में विस्तारपूर्वक इनकी विवेचना की गई है । उसी का संक्षिप्त अंश यहां लिखा जाता है।
जैसे समस्त प्राचार में पांच महाव्रत मुख्य हैं, शेष श्राचार इन्हीं व्रतों का विस्तार है, उसी प्रकार पांच महाव्रतों में अहिंसा महाबत मुख्य है और शेष व्रत उसके विस्तार हैं। जहां अहिंसा की पूर्ण रूप से प्रतिष्ठा हो जाती है वहां असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह समीप भी नहीं फटक सकते । पूर्ण अहिंसक असत्य का सेवन कर ही नहीं सकता, इसी प्रकार अन्य पापाचरण की भी उलसे संभावना नहीं की जा सकती। इसी कारण महाव्रतों में अहिंसा का आद्य स्थान है । यहां अध्याय की आदि में भी सर्वप्रथम अहिला का ही कथन किया गया है।
निर्ग्रन्थ अर्थात् बाह्य और श्रान्तरिक परिग्रह से मुक्त मुनि । अथवा जो अनादिकालीन राग-द्वेष की गांठ का भेदन कर चुके हैं, उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं। निर्ग्रन्थ शब्द की व्याख्या प्रथम अध्याय में की गई है।
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नवां अध्याय -
[ ३२३ । निम्रन्थ-मुनि प्राणी-वध का सर्वथा त्याग करते हैं, क्योंकि वह घोर है-रौद्र रूप है । वह घोर इसलिए है कि प्रत्येक प्राणी जीवित रहने का अभिलाषी है। प्रत्येक जिन्दा रहना चाहता है। कोई भी प्राणी मृत्यु की इच्छा नहीं करता।
___ जब प्रत्येक व्यक्ति जीवित रहना चाहता है, तो उसे जीवित न रहने देना उस्ल के प्रति घोर अन्याय है । जब कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता तो बलात्कार से उसे . मौत के मुँह में ढकेलना भी उसके प्रति तीन अत्याचार है।
संसार अनादिकाल से विद्यमान है । इस भूमि का निर्माण किसी व्यक्ति ने नहीं किया है। समस्त भूमण्डल और भूमण्डल पर निसर्ग से उत्पन्न होने वाली समस्त वस्तुएं सर्व साधारण की लस्पति हैं। उन पर किसी एक या अनेक व्यक्तियों का आधिपत्य होना अप्राकृतिक है। अगर वह आधिपत्य अन्य प्राणीवर्ग के जीवननिर्वाह में या निवारत में बाधा डालता है, तब वह और पाप का रूप धारण कर लेता है।
तात्पर्य यह है कि जगत् जीव मात्र का निवाल-स्थान है और उसमें उत्पन्न होने वाले समस्त साधनों पर जीक मान का समान अधिकार है । जैसे एक पिता के बार पुत्रों का पिता की सम्पत्ति. पर समान अधिकार होता है, उसमें बड़े-छोटे, सबल-निर्बल श्रादि के भेद से कोई विषमता नहीं पाती, उसी प्रकार प्राणी मात्र को जगत् के पदार्थों पर समान अधिकार प्राप्त है। सबल होने के कारण किसी को अधिक और निर्मल होने से किसी को न्यून अधिकार नहीं है।
अमर प्राणी न्याय-नीति को आधार मानकर चले तो उसे इस सहज और मुलंगत सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । इस नैतिक मर्यादा में स्वाभाविकत्ता और सुव्यवस्था का मूल है।
अगर नीति की यह मर्यादा स्वार्थ से प्रेरित होकर प्राणी ने भंग कर दी है। एक व्यक्ति स्वयं जीवित रहना चाहता है, पर दूसरे के जीवित रहने का अधिकार स्वीकार नहीं करना चाहता। एक समाज अपना अस्तित्व चाहता है किन्तु दूसरे समाज का अस्तित्व नहीं चाहता। एक राष्ट्र सुख और शांति के साथ अपनी सत्ता स्थापित रखना चाहता है, पर दूसरे राष्ट्र की सत्ता की उपेक्षा करता है। - इतना ही होता तो गनीमत थी । एक व्यक्ति, समाज या राष्ट्र अगर दूसरे व्याक्ति, समाज या राष्ट्र का लदायक न होता, उसके प्रति उदालीन रहता तो भी खैर थी। पर दुनिया एक कदम आगे बढ़ गई है । एक व्यक्ति दूसरे के अधिकार को अस्वीकार करके ही संतुष्ट नहीं है, पर उसके अधिकार को हड़प कर, उसका हिस्सा स्वयं हस्तगत करके, उसके जीवन का भोग लेकर जीवित रहना चाहता है। इसी प्रकार एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का भाग स्वयं अधिकृत करना चाहता है, उसके जीवन को विपद् में डालकर जीवित रहना चाहता है। यही नहीं उसके रक्ल और मांस से अपना संडार भरने की चिन्ता में संलग्न है।
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[ ३२४ ]
साधु-धर्म निरूपण - स्वार्थ की मात्रा यहां तक भी सीमित नहीं है। मनुष्य इतना अधिक क्रूर वन गया है कि वह अन्य प्राणियों की हिंसा करके, उनके जीवन का अन्त करके, उनके शरीर से अपने पेट की पूर्ति करता है । इस क्रूरता के परिणाम स्वरूप 'जीवो जीवस्य जीवनम्' की लोकोक्ति प्रचलित हो गई है । इस लोकोक्ति का अर्थ यह होना चाहिए था कि एक जीव दूसरे जीव के जीवन का अत्यन्त सहायक है अर्थात् प्रत्येक प्राणी दूसरे सब प्राणियों के जीवन-निर्वाह में कारणभूत है । पर ऐसा न होकर जीवन का अर्थ 'भक्ष्य' समझा जाता है और लोग कहते हैं एक जीव दूसरे जीच का लक्ष्य है !
. सूत्रकार ने अहिंसा महाव्रत का स्वरूप समझाते हुए यहां अत्यन्त सुगम और सीधी युक्ति बताई है । प्राणी-वध घोर है, क्योंकि कोई भी प्राणी अपने वध की अभिलाषा नहीं करता। जो लोग इस युक्ति का महत्व स्वीकार नहीं करते उन्हें श्रात्म निरीक्षण करना चाहिए। यदि दूसरा व्यक्ति उनका वध करे तो क्या उन्हें इप्ट होगा नहीं, तो अन्य प्राणियों को भी वह इष्ट नहीं है। अतएव उनका वध करना भी पाप है, घोर है।
जैसे मनुष्य को जीवन प्रिय है, उसे जीवित रहने का अधिकार है, उसी प्रकार पशुओं को, पक्षियों को, कीटों-पतंगों को, वृक्ष, लत्ता आदि समस्त जीवों को अपना अपना जीवन प्यारा है, उन्हें जीवित रहने का अधिकार है। उनके जीवन का अंत करने का किसी को अधिकार नहीं हैं ।
मनुष्य अधिक शक्तिशाली और विवेकवान है, इसलिए उसे अन्य प्राणियों का वध करने का अधिकार है, यह सोचना अत्यन्त भ्रमपूर्ण है और भयंकर अन्याय है। फिर तो मनुष्यों में भी जो अपेक्षाकृत अधिक वल शाली होगा उसे अपने लाभ के लिए निर्बल मनुष्यों के वध का अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार न्याय-नीति की प्रतिष्ठा होकर शक्ति की ही पूजा होने लगेगी और संसार घोर नरक बनेगा। वस्तुतः सबल मनुष्य के बल की सार्थकता निर्बल की सहायता करने में है, न कि उसे भक्षण कर जाने में । यही नीति पशुओं के प्रति, पक्षियों के प्रति तथा अन्य जीवधारियों के प्रति वर्ती जानी चाहिए।
तात्पर्य यह है कि संसार के समस्त प्राणियों को एक दूसरे के जीवन में सहा. यक होना चाहिए, दूसरे को कष्ट और अनिष्ट से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए, स्वयं जीना चाहिए और दूसरे को जीवित रहने देना चाहिए, अत्यन्त स्वार्थी बन कर अपने जीवन को आनन्दमय बनाने के लिए अथवा अपनी क्षणिक तृप्ति के लिए किसी प्राणी को नहीं सताना चाहिए।
इस प्रकार जो प्राणीमात्र को अपना बन्धु समझता है वही सच्चा अहिंसक है। जिसके हृदय में यह बन्धुभाव पूर्ण रूपेण विकसित हो जाता है वह निम्रन्थ है, श्रमण है।
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. . . . . ... सामान्य रूप से जीव और प्राणी शब्द समानार्थक है, पर सूक्ष्म दृष्टि से उनके
अर्थ में कुछ भिन्नता है । द्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को प्राणी कहते
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नववां अध्याय
[ ३२५ ) हैं। वनस्पति काय को भूत कहते हैं। पंचेन्द्रिय प्राणियों को जीव कहा गया है ! पृथ्वी, ऊप, तेज और वायु, काय के जीव सत्त्व कहलाते हैं । इस सूक्ष्म अर्थ भेद की, यहां विवक्षा नहीं की गई है अथवा जीव शब्द अलक्षण है और उससे प्राण, भूत
और सस्व का भी ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार 'प्राणीवध' शब्द के लिए सम. झना चाहिए।
निर्ग्रन्थ मुनि त्रस और स्थावर-सभी जीवों की मन, वचन, काय से, स्वयं सा नहीं करते, दूसरों से नहीं कराते और हिंसक की अनुमोदन नहीं करते। वे जीवन-पर्यन्त के लिए इस महान् व्रत को अंगीकार करते हैं।
अहिंसा संबंधी विवेचन पहले किया जा चुका है। अतएक यहां पुनः विस्तार नहीं किया जाता। मूलः-मुसावाश्रो य लोगम्मि, सव्वसाहहि गरिहियो।
अविस्सासो य भूयाएं, तम्हा मोसं विवजए ॥२॥ छाया:-मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्हितः।
___ अविश्वासश्च भूतानां, तस्मान्मृषां विवर्जयेत् ॥ २॥ शब्दार्थः-हिंसा के अतिरिक्त मृषावाद ( असत्य भाषण ) भी लोक में समस्त सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय है और मृषावाद से अन्य प्राणियों को अविश्वास होता है, इसलिए मृषावाद का भी निर्ग्रन्थ पूर्ण रूप से त्याग करें।
भाष्य-अहिंसा महाव्रत का निरूपण करने के पश्चात् यहां द्वितीय सत्यमहाब्रत का उपदेश कियागया है।
मूल में 'य' अव्यय पद पूर्वोक्त अहिंसा का समुच्यय करने के लिए है। उससे यह तात्पर्य निकलता है कि जैसे हिंसा लोक में सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय है, उसी प्रकार असत्य भाषण भी निन्दनीय है। असत्य भाषण अविश्वास का जनक भी है। अर्थात् जो व्यक्ति असत्य भाषण करता है उसकी बात पर कोई विश्वास नहीं करता । असत्य-भाषण शील व्यक्ति का सत्यभाषण भी अविश्वास के कारण असत्य ही समझा जाता है।
असत्य भाषण की सत्पुरुषों ने निन्दा की है । प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है:
'जो लोग गुण-गौरव से रहित तथा चपल होते हैं वे असत्य भाषण करते हैं । असत्य भाषण भयंकर है, दुःखकर है, अयशकर है, वैर-वर्धक है, राग-द्वेष
और संक्लेश का जनक है, शुभ फल से शून्य है, मायाचार और अविश्वास को उत्पन्न करता है। नीच लोग इसका आचरण करते हैं। यह अप्रशस्त है। श्रेष्ठ साधु. जनों द्वारा निन्दनीय है। दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है । परम कृष्णलेश्या से युक्त है। दुर्गति-गमन कराता है । पुनः पुनः जन्म-मरण उत्पन्न करता है, दारुण फल देने वाला है।
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साधु-धर्म निरूपण मृषावाद के फल का निरूपण करते हुए बतलाया गया है कि. सृपावाद के श्रादत वाले लोग पुनर्भव रूप अंधकार में भ्रमण करते हैं, दुर्गति में वास करते हैं । वही लोग इस जन्म में बेहाल बुरा फल भोगने वाले, पराधीन, निर्धन, भोगोपभोग की सामग्री से हीन और दुःखी देखे जाते हैं। मृषावादियों के शरीर फूट निकलते हैं । वे वीभत्स और कुरूप होते हैं। उनके शरीर का स्पर्श कठोर होता है। उन्हें किसी जगह चैन नहीं मिलती। उनका शरीर निस्तार, निष्कान्ति और उज्ज्वलता से शून्य होता है। उनकी वाणी अस्फुट और अमान्य होती है। वे अर्सस्कृत असभ्य और अनादरणीय होते हैं। दुर्गध युक्त शरीर वाले, असंज्ञी, तथा अनिष्ट अप्रिय एवं काक के समान स्वर वाले होते हैं। असत्यवादी जड़. बहरा, अंधा और गूंगा होता है । उसकी इन्द्रियां बुरी और विकारवाली होती हैं । वे स्वयं नीच होते हैं और उन्हें नीच लोगों की सेवा करनी पड़ती है । उन्हें लोक में निन्दनीय समझा जाता है और दूसरों के टुकड़ों पर निर्वाह करना पड़ता है। वे अपमान सहते हैं। दूसरे लोग उनकी चुगली करते हैं। उनके प्रेमियों के साथ प्रेम का नाता तुड़वा दिया जाता है वे गुरुजनों, वन्धुजनों और स्वजनों के अपशब्द श्रवण करते हैं और विविध प्रकार के अपवाद (धारोप । सहन करते हैं । उन्हें बुरा भोजन, बुरे वस्त्र मिलते हैं। उन्हें कुरी वस्ती में वास करना पड़ता है । असत्यवादी लोग अगले भव में इस प्रकार अनेक क्लेश पाते हैं। उन्हें मानसिक शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। वर्तमान भव और आगामी भव में घोर दुःख, महान् भय, प्रचुर-प्रगाढ़ दारुण और कटोर वेदना भोगे बिना हजारों वर्षों में भी वे असत्यभाषण के फल से छुटकारा नहीं पा सकते और न मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
__शास्त्रकारों ने अलत्य भाषण का यह भयंकर परिणाम प्रकट किया है । इस दारुण परिणाम का विचार करके प्रत्येक विवेकी को असत्य का त्याग करना चाहिए। असत्य का त्याग करके सत्य वचन का ही सदा प्रयोग करना चाहिए।
सत्य वचन निर्दोष, पवित्र, शिव, सुजात और सुभाषित रूप हैं। उत्तम पुरुष काही सेवन करते हैं । सत्य के प्रभाव से विविध प्रकार की विद्याएँ सिद्ध होती है स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सत्य सरल है, अकुटिल है, वास्तविक अर्थ का प्रतिपादक है, प्रयोजन से विशुद्ध है, उद्योतकारी है, अविसंवादी है, मधुर है, प्रत्यक्ष देवता के समान श्राश्चर्यजनक कार्यों का साधक है।
महासमुद्र के मध्य में स्थित भी प्राणी सत्य के प्रभाव से डूबता नहीं है। सत्य के प्रभाव से अग्निं भी जलाने में असमर्थ हो जाती है । सत्यवादी पुरुष को उबलता हा तेल, रांगा, शीशा या लोहा भी नहीं जला सकता । पर्वत से पटक देने पर भी . सत्यवादी का बाल बांका नहीं होता। विकराल युद्ध में, शत्रुओं से चारों ओर घिर जाने पर भी सत्यनिष्ट पुरुष सही-सलामत निकल पाता है । सत्यवादी की देवता सहायता करते हैं । सत्य साक्षात् भगवान् है। .
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। ३२७ } सत्य लोक में सारभूत है। समुद्र से भी अधिक गंभीर है, सुमेरु से भी अधि- . क निश्चल है, चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है, सूर्यमण्डल से भी अधिक दीप्तिमान है, शरद ऋतु के आकाश से भी अधिक निर्मल है और गंधमादन पर्वत से भी अधिक सुरभिमय है । समस्त मंन योग-जप-तप सत्य में प्रतिष्ठित हैं । सत्य के बिना इनकी सिद्धि नहीं होती । इस प्रकार सत्य की अद्भुत महिमा है । सत्य का स्वरूप समझकर सदा सत्य का ही सेवन करना चाहिए।
प्रमाद और कषाय के वश होकर अन्यथा रूप अथवा स्व-पर हानि करने वाले वचनों का प्रयोग करना असत्य भाषरण कहलाता है। असत्य मुख्य रूप से चार प्रकार का है-(१) सत् को असत् कहना (२) असत् को सत् कहना (३) अन्यथा स्थित को अन्यथा रूप कहना और (४) सावध कथन करना।
(२) विद्यमान पदार्थ का निषेध करना प्रथम प्रकार का असत्य है। जैसे नात्मा का अभाव बतलाना । स्वर्ग, नरक, परलोक और मोक्ष का अभाव कहना।
(२) जो वस्तु जैसी नहीं है उसका अस्तित्व वचन द्वारा प्रकट करना दूसरे प्रकार का असत्य है । जैसे ईश्वर में जगत् को निर्माण करने का स्वभाव न होने पर भी उस स्वभाव का सद्भाव कहना।
(३) वस्तु का स्वरूप वास्तव में अन्य प्रकार का है किन्तु उसे किसी अन्य रूप ही कहना । जैसे श्रात्मा शरीर-परिमित है किन्तु उसे सर्वव्यापक कहना या अणुपरिमाण घाला कहना। वस्तु मात्र अनेकान्तात्मक है पर एकान्त रूप कथन करना।
(४) चतुर्थ सावध वचन के तीन भेद हैं-पति, सावध और अप्रिय वचन । दुष्टतापूर्ण वचन बोलना, हास्य युक्त वचन बोलना और प्रलापमाय कथन करना गर्हित वचन कहलाता है । छेदन, भेदन, वध-बन्धन, व्यापार, चोरी आदि के विधान करने वाले वचन सावध वचन कहलाते हैं । अन्य प्राणियों को अप्रति उपजाने वाले भय का संचार करने वाले, खेद उत्पन्न करने वाले, वैर शोक और कलह करने वाले, तथा और किसी प्रकार संताप करने वाले वचन अप्रिय वचन कहलाते हैं। यह तीतों प्रकार के असत्य तथा पूर्वोक्त तीनों असत्य साधु को सर्वथा त्याज्य हैं।
असत्य भाषण के सर्वथा त्यागी मुनिराज हेयोपादेय का उपदेश करते हैं, उनके पापनिंदक वचन किसी श्रोता को अप्रिय भी लग सकते हैं, मांस-मदिरा आदि घृणित वस्तुओं के त्याग का उपदेश देने से कसाई, कलार, श्रादि को कष्ट पहुंचता है, ब्रह्म 'चर्य के उपदेश से स्वार्थ में बाधा पहुँचाने के कारण वेश्या को चुरा लगता है, इस प्रकार अनेक जीवों को मुनिराज का हितोपदेश अनिष्ट प्रतीत होता है, फिर भी उन्हें असत्य भाषण का दोष नहीं लगता है, क्योंकि उनका भाषण कषाय या प्रमाद से प्रेरित होकर नहीं है।
तात्पर्य यह है कि जो भाषण कपाय से प्रेरित होकर किया जाता है और जो , हिंसाकारक या असत् पदार्थ की प्ररूपणा करता है वह असत्य कहलाता है । मुनि
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' साधु-धर्म निरूपण राज सब प्रकार के असत्य का परिहार करके सत्य, न्याय, हितकारी, प्रियकारी और परिमित बचन बोलते हैं।
सत्यव्रत की रक्षा के लिए शास्त्रों में पांच भावनाएँ बतलाई गई हैं । वे इस प्रकार हैं
(१) बिना विचारे, उतावला होकर, अवलर के प्रतिकूल वचन नहीं बोलना चाहिए । ऐसा विना सोचे-समझे बोलने से कभी असत्य या सावंद्य भाषण हो लकता है
(२) क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए । क्रोध के आवेश में मनुष्य को उचित अनुचित, सत्-असत् का भान नहीं रहता । झुध मनुष्य कठोर वचन बोलता है; सत्य का हनन करता है, निन्दा का पात्र बनता है। क्रोध से अभिभूत व्यक्ति अपनी मर्यादा को भी भूल जाता है। अतः सत्य का सेवन करने के लिए क्रोध का त्याग अवश्य करना चाहिए ।
(३) लोभ का त्याग करना चाहिए । लोभी मनुध्य धन आदि के लिए असत्य भाषण करता है, कीर्ति के वश असत्य भाषण करता है। भोजन-पान, वैभव, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, आदि पदार्थों के लिए भी असत्य भाषण करता है। लालची व्यक्ति लैकड़ों कारणों से असत्य का पात्र बन जाता है। श्रतएव सत्यव्रती को लोभ का त्याग करना चाहिए।
(४) भयभीत नहीं होना चाहिए । भय, सत्य का संहार कर डालता है। जो . निर्भय नहीं है वह शरीर-सुख के लिए, सम्पत्ति नष्ट होने के भय से, दंड के भय से असत्य भाषण करने लगता है।
(५) सत्यवादी को हंसी-मस्करी नहीं करनी चाहिए । हंसोड़ असत्य और अशोभन वचन बोलते हैं । हास्य अपमान का जनक है और उस से परनिन्दा और पर पीड़ा हो जाती है । हंसी के समय उचित-अनुचित का भेदज्ञान नहीं रहता। अंतएव सत्यवादी को हास्यशील नहीं होना चाहिए।
असत्य भाषण के इन पांच कारणों का त्याग करने से असत्य भाषण का अवसर नहीं आता। इसी कारण शास्त्रकारों ने इन्हें सत्य व्रत की भावना कहा है। मूलः-चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं ।
दंतसोहणमेत्तं पि, उग्गहसि अजाइया ॥३॥ . . . छाया:-चित्तवन्तमचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु ।
___ दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहमयाचित्वा ॥ ३ ॥ .. शब्दार्थः-अल्प या बहुत, सचेतन अथवा अचेतन, यहां तक कि दांत साफ करने का तिनका भी बिना याचना के ग्रहण नहीं करते हैं।
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[ ३२६ ] भाष्यः-द्वितीय महाव्रत का स्वरूप बताने के अनन्तर तृतीय महावत का । स्वरूप यहां बताया गया है।
सुनिजन संसार की कोई भी वस्तु, बिना उसके खामी की आज्ञा प्राप्त किये, ग्रहण नहीं करते । चाहे वह सजीव शिष्य आदि हो, चाहे निर्जीव घास आदि हो। यहां तक कि दांत साफ करने का तिनका भी विना प्राज्ञा के वे ग्रहण नहीं करते हैं।
अदत्तादान इसलोक में और परलोक में एकान्त दुःख का कारण है । वह संताप, मरण, भय और लोभ का सबल हेतु है । उसले अपयश फैलता है। अदत्तादानी सदा दूसरे के घर में घुसने का मौका देखता रहता है और कभी उचित समय देखकर सेंध लगा कर, द्वार तोड़ कर या दीवाल फांद कर घुस जाता है, और एकड़ा जाता है तो उसे भयंकर दंड मिलता है। वह अपने इष्टजनों को मुख दिखलाने योग्य नहीं रहता। उनके सामने जाने में लजाता है। इस प्रकार अदत्तादानी को उसके श्रात्मीयजन भी त्याग देते हैं, मित्रगण उसका तिरस्कार करते हैं। सर्व साधारण के अपमानजनक धिक्कार आदि शब्दों से उसे जीवित रहते हुए भी मृत्यु सरीखा कष्ट भोगना पड़ता है।
मृत्यु के पश्चात् अदत्तादानी छोर नरक में उत्पन्न होता है । लरक में जलते हुए अंगारों से सैंकड़ों गुनी उष्णवेदना और हिमपटल से भी अत्यधिक शीतवेदना श्रादि अनेक प्रकार के कष्ट प्रतिक्षण भोगते हैं। नरक की यह वेदनाएँ सहन्न करने के पश्चात् अगर उन्हें तिर्यच भव की प्राप्ति होती है तो वहां भी अनेक वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं, जिन्हें हम प्रत्यक्ष देखते हैं । कसी पुरययोग से मानवभव की प्राप्ति हुई तो वहां भी अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार अदत्तादानी उभयलोक में दुःख उठाता है। अदत्तादान के इस भीषण परिणाम का विचार कर उससे निवृत होना श्रेयस्कर है।
अदत्तादान विरमण व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन के लिए पांच भावनाएँ बताई गई हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) स्वामी या उसके नौकर की प्राक्षा लेकर ही निर्दोष स्थानक में निवास करना चाहिए।
(२) गुरु या अन्य ज्येष्ठ मुनि की श्राज्ञा लिए विना आहार नादि का उपभोग न करे।
(३) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा पूर्वक सदा गृहस्थ की आशा ग्रहण करना चाहिए।
(४) सचित्त शिष्य आदि, अचित्त तृण आदि और मिश्र उपकरण सहित शिष्य आदि के लिए पुनः पुनः प्राज्ञा लेना चाहिए. मर्यादा के अनुसार ही ग्रहण करना चाहिए।
(५) एक साथ रहने वाले सहधर्मियों ( साधुनो) के वस्त्र-पात्र श्रादि, उनकी
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Doora
- साधु-धर्म निरूपण राज सब प्रकार के असत्य का परिहार करके सत्य, न्याय, हितकारी, प्रियकारी और परिमित बचन बोलते हैं।
सत्यव्रत की रक्षा के लिए शास्त्रों में पांच भावनाएँ वतलाई गई है । वे इस प्रकार हैं
(१) बिना बिचारे, उतावला होकर, अवलर के प्रतिकूल वचन नहीं बोलना चाहिए। ऐसा विना सोचे-समझे बोलने से कभी असत्य या सावध भाषण हो लकता है
(२) क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। क्रोध के आवेश में मनुष्य को उचित अनुचित, सत्-असत् का भान नहीं रहता । क्रुध मनुष्य कठोर बचन बोलता है, सत्य का हनन करता है, निन्दा का पात्र बनता है। क्रोध से अभिभूत व्यक्ति अपनी मर्यादा को भी सूल जाता है। अतः सत्य का सेवन करने के लिए क्रोध का त्याग्रह अवश्य करना चाहिए।
(३) लोभ का त्याग करना चाहिए । लोभी मनुष्य धन आदि के लिए असत्य भाषण करता है, कीर्ति के वश असत्य भाषण करता है । भोजन-पान, वैभव, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, श्रादि पदार्थों के लिए भी असत्य भाषण करता है। लालची व्यक्ति लैकड़ों कारणों से असत्य का पात्र बन जाता है। श्रतएव सत्यवती को लोभ का त्याग करना चाहिए।
(४) भयभीत नहीं होना चाहिए । भय, सत्य का संहार कर डालता है। जो निर्भय नहीं है वह शरीर-सुख के लिए, सम्पत्ति नष्ट होने के भय से, दंड के भय से असत्य भापण करने लगता है।
(५) सत्यवादी को हंसी-मस्करी नहीं करनी चाहिए । हंसोड़ असत्य और अशोभन वचन बोलते हैं। हास्य अपमान का जनक है और उस से परनिन्दा और पर पीडा हो जाती है । हंसी के समय उचित-अनुचित का भेदज्ञान नहीं रहता। श्रतएव सत्यवादी को हास्यशील नहीं होना चाहिए। ,
असत्य भाषण के इन पांच कारणों का त्याग करने से असत्य भाषण का श्रवसर नहीं पाता। इसी कारण शास्त्रकारों ने इन्हें सत्य व्रत की भावना कहा है। मूलः-चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं ।
दंतसोहणमेत्तं पि, उग्गहसि अजाइया ॥३॥ छायाः-चित्तवन्तमचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु ।
___ दन्तशोधनमानमपि, अवग्रहमयाचित्वा ॥ ३ ॥ - शब्दार्थः-अल्प या बहुत, सचेतन अथवा अचेतन, यहां तक कि दांत साफ करने का तिनका भी चिना याचना के ग्रहण नहीं करते हैं।
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[ ३२६ ] भाष्यः-द्वितीय महाव्रत का स्वरूप बताने के अनन्तर तृतीय महाव्रत का स्वरूप यहां बताया गया है।
मुनिजन संसार की कोई भी वस्तु, बिना उसके स्वामी की श्राज्ञा प्राप्त किये, ग्रहण नहीं करते । चाहे वह सजीव शिष्य आदि हो, चाहे निर्जीव घास आदि हो । यहां तक कि दांत साफ करने का तिनका भी विना शाला के वे ग्रहण नहीं करते हैं।
अदत्तादान इसलोक से और परलोक में एकान्त दुःख का कारण है। वह संताप, मरण, भय और लोभ का लबल हेतु है । उससे अपयश फैलता है । अदत्तादानी सदा दूसरे के घर में घुसने का मौका देखता रहता है और कभी उचित समय देखकर सेंध लगा कर, द्वार तोड़ कर या दीवाल फांद कर घुस जाता है, और पकड़ा जाता है तो उसे भयंकर दंड मिलता है । वह अपने इष्टजनों को मुख दिखलाने योग्य नहीं रहता। उनके सामने जाने में लज्जाता है । इस प्रकार अदचादानी को उसके श्रात्मीयजन भी त्याग देते हैं, मित्रगण उसका तिरस्कार करते हैं। सर्व साधारण के अपमानजनक धिक्कार आदि शब्दों से उसे जीवित रहते हुए भी मृत्यु सरीखा कष्ट भोगना पड़ता है।
मृत्यु के पश्चात् अदत्तादानी घोर नरक में उत्पन्न होता है। नरक में जलते हुए अंगारों से सैंकड़ों गुनी उष्णवेदना और हिमपटल से भी अत्यधिक शीतवेदना श्रादि अनेक प्रकार के कष्ट प्रतिक्षण भोगते हैं। नरक की यह वेदनाएँ सहन करने के पश्चात् अगर उन्हें तिर्यच भव की प्राप्ति होती है तो वहां भी अनेक वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं, जिन्हें हम प्रत्यक्ष देखते है । कभी पुराययोग ले मानवभव की प्राप्ति हुई तो वहां भी अनेक कष्टो का सामना करना पड़ता है । इस प्रकार अदत्तादानी उभयलोक में दुःख उठाता है। अदचादान के इस भीषण परिणाम का विचार कर उससे निवृत होना श्रेयस्कर है।
अदत्तादान विरमण द्रत का सम्यक् प्रकार से पालन के लिए पांच भावनाएँ बताई गई हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) स्वामी या उसके नौकर की आहा लेकर ही निर्दोष स्थानक में निवास करना चाहिए।
(२) शुरु या अन्य ज्येष्ठ मुनि की आज्ञा लिए विना आहार आदि का उपभोग न करे।
(३) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा पूर्वक सदा गृहस्थ की श्राक्षा ग्रहण करना चाहिए।
(४) सचित्त शिष्य श्रादि, अचित्त तृण आदि और मिथ- उपकरण सहित शिष्य आदि के लिए पुनः पुनः आज्ञा लेना चाहिए. मर्यादा के अनुसार ही ग्रहण करना चाहिए।
. (५) एक साथ रहने वाले सहधर्मियों ( साधुनों) के वस्त्र-पात्र श्रादि, उनकी
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साधु-धर्म निरूपण आशा लेकर ही ग्रहण करना चाहिए । इन पांच भावनाओं का सेवन करने से अदत्तादान विरमणवत का रक्षण और सम्यक् प्रकार से पालन होता है ।
अदत्त के चार भेद इस प्रकार किये जाते हैं.: (१) खामी-अदत्त-किसी भी वस्तु को उसके स्वामी की आज्ञा बिना ग्रहण करना।
(२) जीव-अदत्त-कोई भी जीव अपने प्राण हरण की श्राज्ञा नहीं देता। अतः एव किसी के प्राण हरण करना जीव-श्रदत्त है।
(३) सर्वज्ञोपदिष्ट शास्त्रों में विधान किये हुए साधु के चिह्न (वेष) से विपरीत वेष धारण करना या विपरीत प्ररूपणा करना तीर्थकर-अदत्त है । - (४) गुरु-श्रदत्त-गुरु श्रादि ज्येष्ठों की आज्ञा भंग करना गुरु-अदत्त है। इन चारों प्रकार के अदत्तादानों का साधु तीन करण और तीन योग से सर्वथा त्याग . . करते हैं। मूलः-मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयंति णं ॥ ४ ॥ छायाः-मूलभेतदधर्मस्य, महोदोपसमुच्छ्रयम् । ।
तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम् ॥ ४ ॥ शब्दार्थ:-मैथुन-सेवन अधर्म का मूल है और महान् दोषों को बढ़ाने वाला है, इसलिए निम्रन्थ मुनि उसको त्याग करते हैं।
भाष्यः-तृतीय महाव्रत के विवेचन के अनन्तर क्रम प्राप्त चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत का यहां विधान किया गया है।
वेद के राग रूप योग से स्त्री-पुरुष का सहवास होना अब्रह्म कहलाता है। . अब्रह्म के यहां दो विशेषण हैं-महादोषों को बढ़ाने वाला और अधर्म का मूल। अर्थात् अब्रह्म बड़े-बड़े दोषों की वृद्धि करने वाला एवं पाप का मूल है।
जहां अब्रह्म का सेवन है वहां हिंसा अवश्यमेव होती है। विना हिंसा के प्रब्रह्म का सेवन नहीं हो सकता। अब्रह्म सेवन से द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा-दोनों, प्रकार की हिंसा होती है । स्त्री योनि में रहने वाले सम्मूर्छम जीवों की हिंसा होने से तथा शारीरिक बल की क्षीणता के निमित्त से द्रव्य हिंसा होती है । कहा भी है
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां, तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
वहवो जीवा योनौ, हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥ .. अर्थात् तिलों से भरी हुई नली में तपी हुई. लोहे की सलाई डालने से तिल नष्ट . हो जाते हैं, उसी प्रकार योनि में बहुत से जीव नष्ट हो जाते हैं। . . उक्त कथन से स्व-द्रव्य हिंसा और पर-द्रव्य हिंसा का होना स्पष्ट है । इसके
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नववा अध्याय
[ ३३१ । अतिरिक्त कामोद्रेक रूप राग भाव की विशिष्टता के कारण भाव हिंसा भी होती है।
अन्य पापों की अपेक्षा भी अब्रह्म में अधिक गुरुता इस कारण है कि इस पाप की परम्परा अधिक काल तक और अधिक भयंकर रूप से चलती रहती है । इससे होने वाले अनर्थों की गणना नहीं हो सकती। कामान्ध पुरुष उचित-अनुचित का भान नहीं रखता और एक बार अनुचित प्रवृत्ति कर डालने पर अनेकानेक अनुचित और विकराल कार्य उसे करने पड़ते हैं। इसी कारण उसे महान् दोषों का वर्द्धक और पाप का मूल बतलाया है। शास्त्रकारों ने कहा है
जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिट्ठो कया।
सन्चमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए । अर्थात् जिन महाभाग पुरुषों ने स्त्री-संसर्ग तथा कामविभूषा की ओर से पीठ फेर ली है, चे समस्त उपलगों पर विजय प्राप्त करके समाधि में स्थित होते हैं। वास्तव में स्त्री परीषह अत्यन्त दुस्सह्य परीषह है, जो इसे सहन कर लेते हैं उन्हें अन्य परीषद और उपसर्ग सहना सरल हो जाता है।
इस विषय का विशेष विवेचन ब्रह्मचर्य नामक अध्ययन में किया जा चुका है। जिज्ञासु पाठक वहां देखें। मूलः-लोभस्लेसमगुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि ।
जे सिया सन्निहीकामे, गिही पव्वइए न से ॥ ५ ॥ छाया:-लोभस्यैष अनुस्पर्शः, मन्येऽन्यलरामपि।
___ यः स्यात् सन्निधिं कामयेत् , गृही प्रव्रजितो न सः॥५॥ शव्दार्थः-लोभ नहीं करने के सम्बन्ध में यहां तक यह विशेषता बताई है कि गुड़, घी, आदि खाद्य पदार्थों में से किसी भी एक पदार्थ को, साधु होकर जो अपने पास रात भर रखने की इच्छा करे तो वह साधु नहीं है-गृहस्थ है।
भाष्यः-शास्त्रकार क्रम प्राप्त पञ्चम महाव्रत का निरूपण करते हुए कहते हैं कि लोभ इतना बड़ा दुर्गुण है कि साधु यदि पाहार-पानी को भी, यदि रात भर रख कर दूसरे दिन उपभोग करने की इच्छा करे, तो इच्छा करने मात्र से ही वह साधु के पद से पतित हो जाता है और गृहस्थ की कोटि में आ जाता है।
इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब खाने-पीने योग्य वस्तुओं को, अगले दिन के लिए संग्रह कर रखने की इच्छा मात्र से साधु अपने उच्च पद से गिर जाता है तो संग्रह करने से वह किसी भी प्रकार साधु नहीं रह सकता । इससे लाधुओं की अकिंचिनता का आभास मिलता है । वास्तव में सच्चा साधु वह है जो भविष्य की चिन्ता से सर्वथा मुक्त है और धर्मोपकरण के अतिरिक्त संसार के किसी श्री पदार्थ से, कुछ भी सरोकार नहीं रखता। ", लोभ बुरी विपदा है । वह एक बार किसी को चिपटा नहीं कि उसे पूरी तरह
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[ ३३२ ]
साधु-धर्म निरूपण . अपने अधीन बना लेता है। धीरे-धीरे बढ़ता हुआ वह अनन्त हो जाता है और मनुध्य उससे श्राकृष्ट होकर, पथ से विचलित हो जाने की चिन्ता न करता हुआ, उसी के पीछे-पीछे भागता रहता है। परिग्रह, लोभ का कार्य है और लोभ को बड़ाने का कारण भी है । परिग्रह का फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि-परिग्रह के पाश में पड़े हुए जीव परलोक में नष्ट होते हैं और अजान रूपी अंधकार में डूबे रहते हैं। परिग्रह इस लोक और परलोक में अत्यल्प सुख और विपुल दुःस्त्र रूप है । वह महाभय का कारण है और प्रगाढ़ कर्म रज को उत्पन्न करता है। वह दारुण है, कठोर है, असाताकारक है और हजारों वर्ष पर्यन्त भी भोगे विना वह (फल ) छूटता नहीं है।
परिग्रह परिभाषा-रहित है, शरणदाता नहीं है, उसका अन्त दुःखपूर्ण है, वह अध्रुव है अनित्य है, क्षणभंगुर है, पाप का कारण है, सत्पुरुषों के लिए अग्राह्य है, विनाश का मूल है, अतिशय बध-बंध तथा क्लेश का कारण है, उससे अनन्त संक्लेरा उत्पन्न होता है, वह लब प्रकार के दुःखों का जनक है।
अपरिग्रह व्रत का अनुष्ठान करने के लिए निम्नलिखित पांच भावनाओं का प्राचरण करना चाहिए
(१) श्रोत्रेन्द्रिय ले मनोहर एवं भद्र शब्द सुनकर उदासीन रहना चाहिए । हास्यपूर्ण शब्दों तथा स्त्रियों आदि के आभूषणों के शब्दों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, उनमें अनुरक्त नहीं होना चाहिए । इसी प्रकार अमनोज्ञ और पाप रूप वचन सुन कर रोष नहीं करना चाहिए। कोई गाली दे तो भी उस पर द्वेष-भाव नहीं लाना चाहिए । उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। श्राशय यह है कि मनोज्ञ और अमनोज शब्दों पर समताभाव रखना चाहिए।
(२) चतु इन्द्रिय के विषय में समभाव रखना चाहिए । मनोहर रूप देख कर अनुरत नहीं होना चाहिए और वोभत्ल रूप दिखाई देने पर द्वेष या घृणा का भाक नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए।
(३) घ्राणेन्द्रिय के विषय में मध्यस्थवृत्ति रखनी चाहिए। सुगंध में अनु-- रक्त एवं दुर्गन्ध से द्विष्ट न होकर दोनों पर एक-ला भावना रखनी चाहिए।
- (४) जिह्वा इन्द्रिय के विषय में निस्पृद्ध होना चाहिए। सरस, स्वादिष्ट और मनोज्ञ भोजन-पान पाकर प्रसन्न होना और रूखा-सूखा, निःस्वादु आहार-पानी प्राप्त होने पर विवाद करना उचित नहीं है। दोनों प्रकार के भोजन पर समान भाव रखकर उखका उपभोग करना चाहिए ।
(५) सुन्दर, सुखद और लाताकारी स्पर्श प्राप्त होने पर हर्षित होना एवं कठोर कर्कश तथा असाताजनक स्पर्श का संलगे होने पर स्वेद करना योग्य नहीं है । निस्पृह वृत्ति, वीतराग भावना अथवा अनासक्ति ही साधु के प्राचार का भूषण है। प्रासक्ति पाप-बंध का कारण है और अनासक्त भाव से ही पाप होता है।
तात्पर्य यह है कि पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ विषयोंपर राग-द्वेष ..
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नववां अध्याय
[ ३३३ ]
न धारण करने से सम्भाव रखने से परिग्रह के प्रति लालसा नहीं उत्पन्न होती । इस लिए अपरिग्रह व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करने के लिए इन्द्रियोंके विषयों संबंधी राग-द्वेष की निवृत्ति होना आवश्यक है । जो रागभाव एवं द्वेषभाव से श्रतीत हो जाते हैं वे ही अपना कल्याण करते हैं ।
मूलः - जं पिवत्थं व पायं वा, कम्बलं पायपुच्छणं । तं पि संजमलज्जट्टा, धारेति परिहिंति य ॥६॥
छाया:-- यदपि वस्त्रं वा पानं वा पानं वा, कम्बलं पादपुञ्छनम् । तदपि संयम लज्जार्थम् धारयन्ति परिहरन्ति च ॥ ६ ॥
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शब्दार्थ : - मुनिजन जो वस्त्र, पात्र, कम्बल अथवा पैर पोंछने का वस्त्र धारण करते ई-अथवा मर्यादा युत वस्त्रादि में भी अल्प रखकर अवशेष वस्त्रादि का त्याग कर देते हैं वह अप और मर्यादा युत वस्त्रादि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही हैं -- लोभ या राग के कारण नहीं ।
भाष्यः - परिग्रहत्याग महाव्रत के विषय में विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए सूत्रकार ने यह गाथा कही है ।
इससे पहली गाथा में बताया गया था कि खाद्य सामग्री संग्रह करने वाला लाधु भी गृहस्थ की श्रेणी में आ जाता है । इस कथन से यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि जब भोजन-सामग्री केवल एक रात्रि भर रखने से साधुत्व नष्ट हो जाता है तो वस्त्र - पात्र आदि रखने से साधुत्व किस प्रकार टिक सकता है ? भोजन की भांति वस्त्र - पात्र आदि भी यदि परिग्रह ही है तो उसके धारण करने से साधुता की मर्यादा भी नहीं रहनी चाहिए । इल शंका का समाधान अगली गाथा में किया है, किन्तु समाधान का बीज इस गाथा में विद्यमान है ।
साधु जो वस्त्र रखते हैं, वह शरीर के प्रति अनुराग होने के कारण, उसे साता पहुंचाने के लिए नहीं, वरन् लज्जा - निवारण के लिए तथा संयम की रक्षा के लिए रखते हैं । इसी प्रकार पात्र, कम्बल आदि भी संयम के समुचित निर्वाह के लिए ही धारण करते हैं । यह सब उपकरण शास्त्रोक्त मर्यादा के अनुसार परिमित रूप में ही ग्रहण किये जाते हैं । पात्र आदि उपकरणों के दिना संयम की रक्षा और वाह्य शुद्धि आदि का यथायोग्य निर्वाह नहीं हो सकता है ।
इस विषय का विशेष स्पष्टीकरण आगे दिया जाता है ।
मूल:- न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो तो, इईं वृत्तं महोसिया ॥७॥
छाया:-न सः परिग्रह उक्तः, ज्ञातपुत्रेण प्रायिया ।
मूर्च्छा परिग्रह उक्तः, इत्युक्तं महर्षिणा ॥ ७ ॥
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[ ३३४ ]
.. साधु-धर्म निरूपण ‘शब्दार्थ:--जीव मात्र के रक्षक ज्ञातपुत्र श्री महावीर ने, संयम और लज्जा के हेतु धारण किये हुए वस्त्र, पात्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है। उन्होंने मूछी को अर्थात् ममता को परिग्रह कहा है, ऐसा महर्षियों ने कहा है।
भाष्य:-भोजन-सामग्री एक रात भी अपने पास न रखने वाले मुनियों को वस्त्र-पात्र-कस्बल आदि रखने पर भी दोष नहीं लगता । इसका कारण यहां स्पष्ट रूप से शास्त्रकार ने प्रदर्शित किया है । बह यह है कि वस्त्र- पात्र आदि परिग्रह नहीं है, क्योंकि साधु में उनके प्रति मूच्छी नहीं है । भगवान महावीर स्वामी ने सूच्छी भाव को ही परिग्रहं कहा है।
तात्पर्य यह है कि जहां ममता है, राग है, लोलुपता है वहां वाह वस्तु का संसर्ग हो चाहे न हो पर वहां परिग्रह अवश्य है। जिसके हृदय ले ममत्व नहीं गया वह ऊपर ले अकिंचन होने पर भी परिग्रही है। इसके विपरित, जिलके अन्तःकरण में लेशमात्र भी ममत्व भाव नहीं है, वह संयम की लाधना के लिए चाह्य उप-करणों को ग्रहण करने पर भी परिग्रही नहीं होता।
ममत्व के अभाव में यदि वाह्य वस्तु के संसर्ग मात्र को परिग्रह माना जाय तो कोई भी मुनि निष्परिग्रह नहीं हो सकेगा, क्योंकि अन्य बाह्य पदार्थों का त्याग कर देने पर भी.शरीर का संसर्ग होने से परिग्रह भी विद्यमान रहेगा। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के साथ भी सब का संसर्ग अनिवार्य है। फिर न तो कोई अपरिग्रह महावत हो सकेगा और न मुनि पद ही संसार में रहेगा। मुनि पद के अभाव में मुक्ति का भी अभाव हो जायगा।
इन संब दोषों का निवारण करने के लिए यही मानना युक्ति संगत है कि जहां ममत्व है वहां परिग्रह है और जहां ममत्व का अभाव है वहां परिग्रह का भी प्रभाव है। मुनि जो धर्मोपकरण रखते हैं, उनमें उन्हें ममत्व नहीं होता। उपकरणों के प्रति प्राणमात्र भी राग उनके अन्तःकरण में उदित नहीं होता, अतः वे उपकरणों का उप
करते हए भी परिग्रही नहीं है। इस कथन से पूोलिखित शंका का समाधान भलीभांति हो जाता है। मूलः-एयं च दोसं दहणं, नायपुत्तेण भासियं ।
सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयणं ॥८॥ . छायाः-एतं च दोषं दृष्ट्या, ज्ञात पुत्रेण भाषितम् ।
सर्वाहारं न भुञ्जन्ति, निन्था रात्रिभोजनम ॥ शब्दार्थः-ज्ञातापुत्र भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त दोषों को देखकर निर्ग्रन्थ रात्रि में सब प्रकार का आहार नहीं भोगते हैं।
भाष्यः-पांच महाव्रतो का स्वरूप प्रतिपादन करने के पश्चात् सूत्रकार यहां रात्रि भोजन त्याग रूपं व्रत का कथन करते हैं।
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नवा अध्याय
[ ३३५ ] पूर्वोक्त पांच व्रत जिनागम में महावत कहलाते हैं । रात्रि भोजन विरमण का शास्त्रों में महावत के नाम ले उल्लेख नहीं है किन्तु उले व्रत कहा है। इसका कारण यह है कि श्रावकों के लिए भी रात्रि भोजन का त्याग आवश्यक है। महावत के नाम से इसका उल्लेख किया जाता तो यह व्रत श्रावकों के लिए लागू न होता। अतएक श्रावकों के लिए रात्रि भोजन त्याप्य है, यह प्रकट करने के लिए इसे महाबत न कह कर सामान्य बत ही कहा है।
किली-किसी ग्रंथ में रात्रि भोजन को छा अणुव्रत कहा गया है, लो उचित है। छठा अणुव्रत होने से भी वह श्रावकों के लिए आवश्यक हो जाता है और जब श्रावकों को रात्रि भोजन त्याज्य है तो लाधुओं को तो उसकी त्याज्यता स्वतः सिद्ध हो जाती है।
__ रात्रि भोजन ले जल जीवों की हिंसा होती है, साथ ही भोजन के साथ त्रस जीवों के पेट में चले जाने से मांस-अक्षण भी हो जाता है। इन धार्मिक दोषों के अतिरिक्त शारीरिक दोष भी रात्रि भोजन से होते हैं और स्वास्थ्य में भी विकार उत्पन्न होता है।
इल प्रकार विचार करने पर रात्रि भोजन अनेक दोपों का घर प्रतीत होता है। धर्मनिष्ठ श्रावक भी इसका सेवन नहीं करते तो भला मुनि यह निन्दनीय भाचरण कैसे कर सकते हैं?
रात्रि भोजन के सम्बन्ध में पहले श्रावकाचार के निरूपण में विचार किया जा चुका है। पूर्वोक्त समस्त भयंकर दोषों का विचार करके प्रत्येक श्रावक को और साधु को सब प्रकार के रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए।
मूल में 'सब्बाहारं न भुजंति' ऐसा कहा है। इसका अर्थ है-सव प्रकार का भोजन नहीं करते हैं। इस वाक्य का दुरुपयोग करके कोई दुषित अर्थ यह न समझे के सब प्रकार का भोजन नहीं करते अर्थात् किसी प्रकार का-एक-दो तरह का भोजन कर लेते हैं।
ऐला दुरर्थ कई स्थलों पर देखा जाता है। जैसे-न हिस्यात् सर्वभूतानि' अर्थात लव जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, इस वाक्य से अनेक स्मृतिकार हिंसा का पोषण करते हुए यह निकालते हैं कि खास-खास जीवों की हिंसा करने में पाप नहीं है। इस प्रकार का अर्थ यहां नहीं समझना चाहिए । यहां मुनियों के श्राचार का प्रकरण है अतः अन्न, पान, खाद्य श्रादि चारों प्रकार के आहार का सर्वथा निषेध किया है, और यही युक्ति एवं भागम के अनुकूल अर्थ है।
साधुओं को सब प्रकार के त्याग के विधान से यह प्रतीत होता है कि श्रावक यदि लब प्रकार का रात्रि भेाजन न त्याग सके तो उसे भी एकदेश त्याग अवश्य करना चाहिए।
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[ ३३६ ]
साधु-धर्म निरूपण मूलः-पुढवि न खणे न खणावए,
सीबोदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं,
तंन जले न जलावए जेस भिक्खू ।। - छाया:-पृथिवीं न खनेन्न खानयेत , शीतोदकं न पिवेन पाययेत् ।
अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितम् , तं न ज्वलेन ज्वालयेत् यः स भिक्षुः ।। ६ ।। शब्दार्थः--जो पृथ्वी को न स्वयं खोदे, न दूसरों से खुदवावे, जो शीत अर्थात् . सचित्त जल न स्वयं पीए, न दूसरों को पिलावे, जो अत्यन्त तीक्ष्ण अग्नि रूप शस्त्र को न स्वयं जलाए, न दूसरों से जलवावे, वही सच्चा भिक्षु है।
भाष्यः-रात्रि भोजन विरमण व्रत का विधान करके यहां स्थावर जीवों की हिंसा के त्याग का विधान किया गया है।
मुनि, त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा का मन, वचन, काय से पूर्ण त्यागी होते हैं। अतएव यहां स्थावर जीवों की यतना का उपदेश दिया गया है। स्थावर जीव पांच प्रकार के हैं-(१) पृथ्वीकाय (२) जलकाय (३) तेजस्काय (8) वायुकाय और (५) वनस्पतिकाये । इन पांच स्थावरों में से प्रकृत गाथा में श्रादि के तीन कायों के स्थावरों की यतना बताई है।
पृथ्वी को खोदने से पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा होती है और दूसरों को श्राशा देकर खुदवाने से भी हिंसा के पाप का भागी होना पड़ता है। यही नहीं, पृथ्वी खोदने से पृथ्वी पर आश्रित त्रस जीवों की भी हिंसा अनिवार्य है।
जल जब तक अचित्त नहीं हो जाता तब तक वह एक प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों का शरीर है। उले स्वयं पीने से या अन्य को पिलाने से स्थावर जीवों की हिंसा का अपराधी बनना होता है । अतएव साधु सचित्त जल न स्वयं पीते हैं, न दूसरों को पिलाते हैं।
शास्त्र-परिणत होने पर जो जल अचित्त हो जाता है, और जिसे साधु के निमि अचित्त नहीं किया जाता उसी का उपयोग साधु करते हैं। श्राग्नि के संसर्ग सयां प्रत्य क्षारमय पार्थिव पदार्थों के संयोग से, पूर्ण रूपेण अचित्त हुए जल को ही मनि ग्रहण करते हैं। श्रचित्त जल भी मर्यादा के अनुरूप ही उन्हें ग्राह्य होता है । अधिक समय का होने पर वह गरम जल फिर सचित्त हो सकता है और अधिक समय के घोवन में त्रस जीवों की उत्पत्ति हो सकती है। जहां सचित्त-श्रचित्त और जीवोत्पत्ति विषयक सन्देह होता है वह जल भी मुनि ग्रहण नहीं करते। . .
अग्नि एक भयंकर शस्त्र है। जैसे लोहमय शस्त्र प्राणियों का घात करते हैं, उसी प्रकार अग्नि संयोग होने पर अन्य काय वाले जीवों का घात करती है। अतएव ।
Durama-...
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पृाया
नवां अध्याय
[ ३३७ ] इसे अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र कहा है। मुनि न स्वयं अग्नि जलाते हैं और न दूसरों से जलवाते हैं। अग्नि का श्रारम्भ अत्यन्त पाप का कारण है। अतएव उक्त प्रकार के जीवों का स्वयं प्रारम्भं न करने वाले और दूसरों से आरम्भ न कराने वाले ही वास्तव में लाधु पद को प्राप्त होते हैं ।
इस कथन से आग जला कर तपस्या करना, श्रादि पापमूलक तपों का निषेध “भी हो जाता है।
पृथिवीकाय का दूसरा नाम इन्दीथावरकाय है । काली मिट्टी, हरी मिट्टी, पीली मिट्टी, लाल मिट्टी, श्वेत मिट्टी, पाण्डु और गोपीचन्दन, यह सात प्रकार की कोमल पृथिवी है। खदान की मिट्टी, सुरड़, रेत, पत्थर, सिला, नमक, हरिताल, हिंगलू , मैनसिल, प्रवाल, अभ्रक, पास प्रादि बाईस प्रकार की कठोर पृथिवी होती है । यह लव पृथिवी जब खानि में होती है तब सचित्त और खान से पृथक् कर देने पर शस्त्र परिणत पृथिवी अचित्त हो जाती है।
अपकाय का अपर नाम वंभीथावरकाय है । वर्षा का जल, श्रोले, वर्फ, नदी, समुद्र आदि जलाशयों का जल, आदि सब इसीमें सम्मिलित है।
तेजस्काय का दूसरा नाम सप्पीथावरकाय है। सूभर, ज्वाला, अंगार, अरणिजन्य अग्नि, दियाललाई से उत्पन्न अग्नि, विद्युत्, सूर्यकान्त माण, उल्कापात आदि का इसमें समावेश होता है।
इनका यथार्थ स्वरूप लमझकर विवेकशील साधु को इनकी हिंसा से सर्वथा बचना चाहिए और श्रावक को निष्प्रयोजन प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। मूलः-अनिलेण न बीए न वीयावए,
हरियाणि न छिदे न छिंदावए । वीयाणि सया विवजयंतो,
सचित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥१०॥ छाया:-अनिलेन न बीजयेत न बीजायेत् , हरितानि न हिम्दयेन्न छेदयेत् ।
__ बीजानि सदा विवर्जयत , सचित्तं नाहरेद् यः स भिन्तु ॥ १०॥ शब्दार्थः--जो वायु की उदीरणा के निमित्त पंखा नहीं चलाता और न दूसरे से चलवाता है, जो वनस्पति को स्वयं नहीं छेदता और न दूसरे से छिदवाता है,तथा वीजों का सदैव त्याग करता हुआ जो सचित्त वस्तु का आहार नहीं करता, वही भिनु है।
भाष्यः-तीन स्थावर कायों की यतना का निरूपण करके सुत्रकार ने शेप दो स्थावरकायों की यतना का यहां कथन किया है। - चतुर्थ स्थावर काय वायुकाय है । वायुकाय की हिंसा से बचने के लिए पंखा चलाना या दूसरे से पंखा चलवाना साधु के लिए सर्वथा त्याज्य है । ऐसा करने से
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[ ३३८ ]
साधु-धर्म निरूपण वायु काय के जीवों का घात होने से हिंसा का पाप लगता है। अतएव वायुकाय की हिंसा से सर्वथा विरत मुनि वायु की उदीरणा का सर्वथा त्याग करे । ऐसा करने वाला ही सच्चा साधु है।
वायु की उदीरणा के लिए पंखा उपलक्षण मात्र है। इससे उन समस्त साधनों को ग्रहण करना चाहिए जिनले हवा की जा सकती है । जैसे-वस्त्र,पत्र,हाथ, फूंक श्रादि। -
वायु की उदीरणा से वायुकाय की हिंसा के अतिरिक्त साधु में साताशीलता का दोष भी उत्पन्न होता है। सच्चा साधु कायक्लेश को अपना भूषण समझता है । वह .. गर्मी आदि से घबराता नहीं है। इस प्रकार की दुर्बलता उसके निशर भी नहीं फटक सकती। अतएव श्रमण वायुकाय की यतना के लिए पंखा श्रादि के द्वारा कभी न स्वयं वायु की उदीरणा करता है और न दूसरे से कराता है।
वायुकाय का दूसरा नाम शास्त्रों में सुमति थावर काय बतलाया गया है। झंझा वात, मंडलवायु. गुंडल वायु, धन वायु, तनु वायु. आदि समस्त प्रकार की वायु शस्त्र-परिणत होने से पूर्व सचित्त है और इनकी यतना सदैव यत्नपूर्वक करनी चाहिए।
साधु वनस्पतिकाय का प्रारंभ भी नहीं करते और न कभी उसका भक्षण करते हैं। बीज में वनस्पतिकाय ही है अतः शास्त्रकार ने उसके त्याग का भी विधान किया है।
__ वनस्पतिकाय के मुख्य दो भेद हैं--(१) प्रत्येक वनस्पति और (२) साधारण , वनस्पति । जिस एक वनस्पति रुप शरीर में एक ही जीव स्वामी के रूप में रहता है वह प्रत्येक वनस्पति कहलाती है । जिस वनस्पति रूप एक शरीर में अनन्तानन्त जीव . स्वामी रूप में रहते हैं वह वनस्पति साधारण कहलाती है । तात्पर्य यह है कि कोई कोई वनस्पति ऐसी हैं जिसमें अनन्तानन्तं जीव रहते हैं, वे सब जीव उस वनस्पति के आश्रित नहीं है, किन्तु उसे अपना शरीर बनाकर रहते हैं अर्थात् एक शरीर में . अनन्तानन्त जीवों का वास है।
___ प्रत्येक वनस्पति के बारह भेद है- (१) वृक्ष (२ गुच्छा (३) गुल्फ (४) लता (५) वल्ली (६) तृण (७) वल्लया (८) पञ्चया (६) कुहण (१०) जलवृक्ष (११) औषधि और (१२) हरितकाय ।
. वृक्ष दो प्रकार के होते हैं-कोई एक बीज वाले और कोई बहु वीज वाले। आँवला, आम, जामुन, बेर श्रादि एक बीज वाले वृक्ष हैं और अमरूद, अनार, बिल्क, निम्बू श्रादि अनेक चीज वाले वृक्ष हैं । तुलसी, जवाला, रिंगनी श्रादि को गुच्छ कहते हैं। जूही, केतकी, केवड़ा, आदि फूलों के झाड़ गुल्म कहलाते हैं । अशोकलता, पद्म लता आदि पृथ्वी पर फैलकर ऊँचे चढ़ने वाली वनस्पति लता है । तरोई, ककड़ी, करेला, श्रादि की वेल वल्ली कहलाती है। दूर्वा तथा अन्य प्रकार का घास तृण कहलाता है । जो वृक्ष ऊँचे जाकर गोलाकार बनते हैं उन्हें वल्लया कहा गया है, जैसे सुपारी खजूर, नारियल आदि वृक्ष । पर्व, पोर या गांठ जिनके बीच में होती है ऐसे
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लवां अध्याय
[ ३३६ ] ईख, एरंड, बेंत, बांस, आदि के झाड़ पव्वया या पर्व कहलाते हैं । जमीन फोड़ कर निकलने वाले छोटे पौधे-जैले कुकरमुता आदि कुहण कहलाते हैं। कमल, सिंघोड़े श्रादि जल में ही उत्पन्न होने वाली वनस्पति को जल वृक्ष कहा गया है। गेहूँ, जौ, जवार, बाजरी, शालि, मक्की, आदि औषधि में गर्भित हैं। जिस धान्य के बराबरचराबर दो हिस्ले नहीं हो सकते उन्हें लहा धान्य और जिनके दो हिस्ले होते हैं, जैसे चना, मूंग, उड़द, श्रादि-वह कठोल धान्य कहलाते हैं । यह सब औषधि के ही अन्तर्गत हैं । मूले की भाजी, मैथी की भाजी आदि के वृक्षों को हरित काय समझना चाहिए।
प्रत्येक वनस्पति जब उत्पन्न होती है, उसकी कोषले लगती हैं, तब उसमें अनन्त जीव होते हैं। उसके सुख जाने पर उल में जितने बीज होते हैं उतने ही जीव समझना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक वीज योनिभूत जीव हैं ।
- साधारण वनस्पति में मूली, अदरख, भालू, कांदा, लहसुन, गाजर, शकरकन्द, सूरणकन्द, बजरीकंद, सूसली, अमरवेल, हल्दी आदि का समावेश है। साधारण वनस्पति के, सुई की नोंक पर शा जाय, इतने छोटे से हिस्से में अनन्तानन्त जीवों का सद्भाव होने से यह वनस्पति अत्यन्त पाप का कारण है । धर्मशील पुरुषों को इस वनस्पति का कदापि भक्षण नहीं करना चाहिए । वनस्पति काय का दूसरा नाम पयावच्च थावर काय भी है।
अहिंसा के प्रति मुनि कितने जागरूक रहते हैं, यह बात इस कथन से स्पष्ट हो जाती है । वास्तव में वही पुरुष मुनि पद का अधिकारी है जिसके हृदय से अहिंसा का अविरल और अखण्ड स्रोत प्रवाहित होता हो । एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मनुष्य आदि सभी जीवधारियों पर जिसके अन्तःकरण में करुणा की भावना हो और वह भावना गहरी बन गई हो। मूलः-महुकारसमा बुद्धा, जे भवति अपिस्सिया।
नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥११॥ छाया:-मधुकरसमा बुद्धा, ये भवन्त्यनिश्रिताः।
नाना पिण्डरता दान्ताः, तेनोच्यन्ते साधवः ॥११॥ शब्दार्थः-जैसे चमर विभिन्न फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस लेता है, उसी प्रकार, जिन्होंने इन्द्रियों का दमन किया है, जो अनिश्रित हैं, ऐसे ज्ञानीजन नाना पिंडों में, उद्वेग्य ... रहित होकर रत होते हैं, इस लिए वह साधु कहलाते हैं।
भाप्यः-साधु के प्राचार का प्ररूपरा करते हुए, स्थावर जीवों की यतना का विधान पहले किया गया है । यहां फिर जीव रक्षा के लिए आहार संबंधी नियम का निरूपण किया है।
स्याहार की निप्पत्ति करने में हिंसा अनिवार्य है। अशिकाय वायुकाय, जलकाय
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[ ३४० ]
साधु-धर्म निरूपण: आदि की हिंसा के बिना आहार तैयार नहीं होता । आहार के विना जीवन-निर्वाह असंभव है और जीवन के विना संयम का पालन संभव नहीं है । ऐसी अवस्था में साधुओं का क्या कर्त्तव्य है ? वे लेश्यामात्र भी हिला नहीं कर सकते और संयम की साधना का भी त्याग नहीं कर सकते । तब उन्हें क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का यहां समाधान किया गया है ।
गृहस्थ अपने लिए भोजन निष्पन्न करते हैं । उस भोजन में प्रायः थोड़ा-बहुत उनके यहां बच रहता है । साधु को उसी बचे-खुचे भोजन पर निर्वाह करना चाहिए। इससे साधु को आरंभ भी नहीं करना पड़ता और उसकी जीविका का निर्वाह भी हो जाता है ।
ऐसा भोजन भी एक ही जगह से पूरा नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने ले गृहस्थ को शायद फिर आरंभ-समारंभ करके भोजन तैयार करना पड़े । इसलिए साधु के वास्ते शास्त्रों में भ्रमर-वृत्ति का विधान किया गया है । जैसे भ्रमर अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस चूसता है, उसी प्रकार साधु अनेक गृहस्थों के गृहों से थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करते हैं। इससे गृहस्थ को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता और साधु का निर्वाह यथोचित रूप से हो जाता है ।
इस प्रकार नाना गृहों से भोजन ग्रहण करने में साधु को उद्वेग का अनुभव नहीं होता । वे उसे विपत्ति समझकर झुंझलाते नहीं है, किन्तु जीवन-निर्वाह का निरवद्य साधन समझकर उस वृत्ति को अपनाते हैं । यह श्राशय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने 'नानापिण्ड - रत' विशेषण दिया है । इससे यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि साधु नाना प्रकारके आहार में अनुरक्त होते हैं । इसका तात्पर्य यह है साधु नाना गृहों से भोजन की गवेष्णा करने में खेद अनुभव नहीं करते ।
अनेक गृहों से प्राप्त हुए निर्दोष भोजन में साधुओं को जरा भी लोलुपता नंदीं होती । कभी सरस और स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होने पर भी उसे समभाव से भोगते हैं और नीरस एवं निःखादु भोजन मिलने पर भी उसी प्रकार उसका उपभोग करते हैं। भोजन संबंधी राग-भाव या द्वेष-भाव उनके हृदय में कभी उदित नहीं होता है, क्यों कि वे दान्त हैं-दमन शील हैं । उन्होंने अपने मन पर तथा इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की है । इन्द्रियों की उच्छृंखलता को दवा दिया है । वे इन्द्रियों के वशवत्तीं नहीं हैं इन्द्रियाँ उनकी दासी वन चुकी हैं ।
भोजन संबंधी समस्त दोषों का परिहार करके भिक्षा लेने वाले भिक्षु ही सच्चे श्रमण हैं । भोजन के ४७ दोष हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है: - १६ उद्गमदोष, १६ उत्पादना दोप, १० एषणा दोष, और ५ मण्डल दोष ।
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उद्गम दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं । उनके नाम यह हैं - (१) श्राहाकम्म (२) उद्देलिय (३) पूइकम्मे ४) मीसजाए (५) ठवणे (६) पाहुडियाए (७) पात्रोअर (८) कीए (६) पामिच्चे (१०) परियहए (११) अभिहडे (१२) उभिने (१३) मालाइडे (१४) अच्छज्जे (१५) आणि सट्टे (१६) अज्कोपरए ।
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नवाँ अध्याय
[ ३४१ ] ( १ ) हाकम्म - सामान्य रूप से किसी साधु के उद्देश्य से तैयार किया हुआ आहार देना श्राहाकम्म दोष है ।
( २ ) उद्देसिय-किसी विशेष साधु के निमित्त बनाया हुआ आहार देना ! (३) पूइकम्मे – विशुद्ध आहार में आहाकम्मी आहार का थोड़ा सा भाग मिल जाने पर भी उसे देना ।
( ४ ) मी सजाए - अपने लिए और साधु के लिए सम्मिलित बनाया हुआ आहार देना |
( ५ ) ठवरणा - साधु के निमित्त रख छोड़ा हुआ आहार साधु के श्राने पर
देना ।
(६) पाहुडियाए - साधु को आहार देने के लिए मेहमान की जीमनवार श्रागे पीछे करके आहार देना ।
(७) पार - अंधेरे में प्रकाश करके आहार देना ।
(८) कीप - मोल से खरीदकर साधु को आहार देना 1
(६) पामिचे - साधु के निमित्त किसी से उधार लेकर आहार देना 1
(१०) परिपहए - साधु के लिए सरस - नीरस वस्तु की अदला बदली करके साधु को आहार देना ।
( ११ ) अभिडे - किसी अन्य ग्राम-नगर से साधु के सामने लाकर आहार
देना ।
(१२) उभिने - भूह रक्खे हुए या मिट्टी, चपड़ा आदि से छापे हुए पदार्थ को उधार कर आहार देना ।
- ( १३ ) मालाहडे - जहां ऊपर चढ़ने में कठिनाई हो वहां से उतार कर श्राहार देना या इसी प्रकार नीची जगह से उठाकर श्राहार देना ।
(१४) श्रच्छ - निर्बल पुरुष से छीना हुआ - अन्याय पूर्वक ग्रहण किया हुआ आहार साधु को देना ।
1
( १५ ) श्रणिसिट्टे - साझे की वस्तु साझेदार की सम्मति के बिना देना । ( १६ ) अज्झापरए - अपने लिए रांधते हुए साधु के लिए कुछ अधिक रांध
कर देना ।
साधु के द्वारा लगने वाले आहार संबंधी दोष उत्पादना दोष कहलाते हैं ! उनके नाम इस प्रकार है- (१) घाई (२) दूई (३) निमित्ते (४) श्राजीवे (५) वणीमगे (६) तिमिच्छे (७) कोह (८) माण (६) माया (१०) लोभ (११) पुर्विव पच्छासंथव (१२) चिज्जा (२३) मंत (१४) चुन्न (१५) जोग (१६) मूलकम्म |
लेना ।
( ९. घाई - गृहस्थ के बाल-बच्चों को धाय की तरह खेलाकर आहार लेना । (२) दूई - गृहस्थ का गुप्त या प्रकट संदेश उसके स्वजन से कहकर श्राहार
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[ ३४२ ] . .
साधु-धर्म निरूपण . (३) निमित्ते-गृहस्थ को निमित्त द्वारा लाभ-हानि वताकर आहार लेना। ..
(४) श्राजीव-गृहस्थ को अपने कुल का अथवा अपनी जाति का वताकर आहार लेना।
(५) वणीमग-मंगते की तरह दीनतापूर्ण बचन कहकर श्राहार लेना।
(६) तिगिच्छे-ज्वर आदि की चिकित्सा बताकर आहार ग्रहण करना। . (७) कोह-गृहस्थ को डरा-धमका कर या शाप का भय दिखाकर आहार
लेना।
(८) माण–'मैं लब्धिमान हूँ, तुम्हें सरस आहार लाकर दूंगा' साधुओं से इस प्रकार कह कर आहार लाना।
(8) माया-छल-कपट करके आहार लेना। (१०) लोभ-लोभ ले अधिक आहार लेना।
(११) पुब्धिपच्छासंथव-आहार लेने से पूर्व या पश्चात देने वाले,की प्रशंसा.. करना।
(१२) विज्जा-विद्या सिखाकर आहार लेना! (१३) मंत-मोहन आदि मंत्र लिखाकर आहार लेना।
(१४) चुन्न--अदृश्य हो जाने का या मोहित करने का अंजन देकर या वताकर आहार लेना।
(१५) जोग-राजवशीकरण आदि अथवा जल-स्थल मार्ग में समा जाने की सिद्धि वता कर आहार लेना।
(१६) मूलकम्म-गर्भपात श्रादि की औषधि बताकर या पुत्र श्रादि के जन्म का दषण निवारण करने के लिए मघा, ज्येष्ठा आदि दुष्ट नक्षत्रों की शांति के निमित्त मूल स्तान बताकर श्राहार लेना।
एषण सम्बन्धी दोष श्रावक और साधु-दोनों के निमित्त से लगते हैं। उनके दस भेद इस प्रकार हैं:-(१) संकिय (२) मक्खिय (३) निक्खित्त (४) पिहिय (५) साहरिय (६) दायंग (७) उम्मीले (८) अररिणय (६) लित्त तथा (१०) छड़िय। .
किय-गृहस्थ को और साधु को आहार देते-लेते समय, 'यह श्राहार - सदोष है या निर्दोष ?' इस प्रकार की शंका होने पर भी पाहार देना-लेना।
मक्खिय-हथेली की रेखाओं में अथवा वाल आदि में सचित्त जल लगा .. होने पर भी श्राहार देना-लेना।
१३] निक्खित्त-सचित्त वस्तु के ऊपर रक्खा हुआ आहार देना-लेना। .. ..हापिहिय-सचित्त वस्तु से ढंके हुए आहार को देना और लेना। [५] साहरिय-सचित्त में से अचित्त निकाल कर आहार देना लेना। [६] दायग-अंधे लूले लंगड़े के हाथ से आहार देना या लेना। ७ि उम्मीसे-सचित्त एवं अचित्त करके मिश्र है उस अाहार का देना-लेना।
अपरिणय-जिस वस्तु में शस्त्र परिणत न हुश्रा हो ऐसी वस्तु देना लेना।
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नवंवां अध्याय
[ ३४३ ] [६] लित्त-तुरन्त लीपी हुई भूमि का अतिक्रमण करके श्राहार लेना या देना। [१०] छड्डिय -भूमि पर छीटे बिखरते हुए या अन्न टपकाते हुए देना लेना ।
मण्डल दोष आहार करते समय सिर्फ साधु को लगते हैं। वे पांव इस.प्रकार हैं-[१] संजोयणा [२] अप्पमाणे [३] इंगाले [४] धूमे और [५) अकारणे,।।
[१] संयोजणा-जिह्वा की लोलुपता के वश होकर आहार सरस बनाने के लिए पदार्थों को मिला-मिला कर खाना, जैसे दूध के साथ शक्कर मिलाना आदि ।
तात्पर्य यह है कि विभिन्न गृहों से प्राप्त हुए नाना पदार्थों के स्वाद का विचार न करके, केवल वुभुक्षा-तृप्ति के लिए साधु को आहार करना चाहिए। अनुकूल पदार्थों का संयोग करके, उसे स्वादयुक्त बनाकर नहीं खाना चाहिए। ऐसा करने पर संयोजना दोष लगता है।
[२] अप्पमाणे-प्रमाण से अधिक भोजन करना ।
३] इंगाले-सरल आहार करते समय वस्तु की या दाता की प्रशंसा करते हुए खाना।
[४] धूमे--नीरस आहार करते समय भोज्य वस्तु या दाता की निन्दा करते हुप, नाक-भौं सिकोड़ते हुए अरुचि पूर्वक खाना ।
[५] अकारण--क्षुधावेदनीय श्रादि छह कारणों में से किसी भी कारण के विना ही आहार करना।
__छह आहार के कारणों में से किसी कारण के होने पर ही साधु को आहार करना चाहिए । छह कारण इस प्रकार हैं--[१] शुधा वेदनीय की शान्ति के लिए [२] श्रापने से बड़े प्राचार्य आदि की सेवा करने के लिए [३] मार्ग श्रादि की शुद्धि के लिए [४] प्रेक्षादि संयम की रक्षा के लिए [५] प्राणों की रक्षा के लिए तथा [६] शास्त्रस्वाध्याय एवं धर्म-साधना के लिए।
आहार संबंधी इन दोषोंपर दृष्टिपात करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि साधु-जीवन में अहिंसा एवं संयम को जिनागम में कितना उच्च स्थान दिया गया है और पद-पद पर उनका कितना अधिक ध्यान रखा गया है। मुनि अपने निमित्त कोई भी किया श्रावक से नहीं कराना चाहता और यदि श्रावक भक्ति के अतिरेक से प्रेरित होकर कोई ऐसा कार्य करता है तो साधु उस श्राहार आदि को ही अग्राह्य समझकर त्याग देता है।
साधु यद्यपि भिक्षु है, तथापि वह धर्म का प्रतिनिधि है । इस कारण वह भिक्षा प्राप्त करने के लिए दीनता प्रदर्शित करके शासन की महत्ता नष्ट नहीं करता और न भिक्षा के बदले के रूप में गृहस्थ की गृहस्थी संबंधी किसी प्रकार की सेवा ही करता है । वह प्राण रक्षा तथा संयम-पालन आदि श्रावश्यक कारणों से ही आहार ग्रहण करता है । याहार उसके लिए आकर्पण की या अनुराग की वस्तु, नहीं है, सिर्फ श्राध्यात्मिक उपयोगिता की वस्तु है, इसीलिए वह जिह्ना की परवाह नहीं करता और जिससे निर्वाह हो जाय उसी वस्तु को वह अनासक्त भाव से ग्रहण करता है।
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[ ३४४ ]
साधु-धर्म निरूपण श्राहार जीवन में एक महत्वपूर्ण वस्तु है । संयम की साधना और विराधना बहुत अंशों में श्राहार पर भी निर्भर है। लोक में कहावत है- 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवै मन' अर्थात् भोजन का मानसिक विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन सब चातों को लक्ष्य करके शास्त्रों में साधु के लिए अनेक विधि-विधान किये गये हैं। जिज्ञासु पाठकों को विस्तार जानने के लिए दशकालिक सूत्र देखना चाहिए। यहां सिर्फ दिग्दर्शन कराया गया है। इस प्रकार मुनि मधुकर-वृत्ति से निर्दोष आहार ही स्वीकार करते हैं। मूलः-जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिनो न समुक्कसे ।
एव मन्नेसमाणस्स, सामरणमणुचिट्ठई ॥१२॥ छाया:~यो न वन्देत् न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षेत् ।
एवमन्देपमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥ १२ ॥ शब्दार्थ-यदि कोई गृहस्थ साधु को वन्दन न करे तो उस पर कोप न करे। अगर केई वन्दना करे तो साधु अभिमान न करे । इस प्रकार अपमान और मान की वासना से रहित होकर गवेषणा करने वाले साधु का साधुत्व ठहरता है।
भाष्य--मुनि के प्राचार का विवेचन करते हुए शास्त्रकार ने यहां मुनि को समता भाव रखने का उपदेश दिया है।
अगर साधु को कोई गृहस्थ श्रद्धा एवं भक्ति से प्रेरित वन्दना-नमस्कार न करे तो साधु को कुपित नहीं होना चाहिए । उस समय साधु को ऐसा विचार करना चाहिए कि-'में दूसरों से वन्दना-नमस्कार कराने के उद्देश्य से संयम का पालन नहीं कर रहा हूं। कोई वन्दना करे तो मुझे क्या लाभ है ? वन्दना न करने से मेरे संयम का क्या बिगड़ता है ? प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रवृति करता है। मुझे मान-प्रतिष्ठा की भूख नहीं है। ऐहलोकिक लाभ के मूल्य पर मैं अपना अमूल्य संयम क्यों लुटने दूं? जैले चिन्तामणि, फूटी कौड़ी के बदले नहीं दिया जा सकता, उसी प्रकार संयम लौकिक गौरव के लिए नहीं बिगाड़ा जा सकता।
अगर कोई साधारण गृहस्थ या राजा श्रादि विशिष्ट पुरुप साधु को वन्दना करे तो साधु अभिमान न करे । ऐसे समय साधु यह विचार करे कि गृहस्थ मुझे - संयमी समझकर नमस्कार करते हैं, पर मेरे संयम में कहीं कोई त्रुटी तो नहीं है ?
यदि कोई त्रुटि संयम में होगी तो मुझे मायाचार का दोप लगेगा। इस प्रकार अपनी • त्रुटि का विचार करके संयम की महत्ता का विचार करे कि-धन्य है यह संयम, जि. सका पालन अनादि काल से तीर्थकर आदि महापुरुप करते आये हैं, और जो मति का एक मात्र द्वार है। मेरा बड़ा सौभाग्य है कि गुरु महाराज की दया से मुझे भी इसकी प्राप्ति हुई है । गृहस्थ लोग मेरे शरीर को नहीं किन्तु संयम को वन्दना करते हैं, संयम के प्रति अपना आदरभाव व्यक्त करते हैं, अतएव संयम ही सार है । वही आदरणीय है, वही नमस्करणीय है, वही वन्दनीय है, वही पूजनीय है।'
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नववां अध्याय
[ ३४५ ] इस प्रकार समताभाव की आराधना करता हुआ जो मुनि विचरता है एवं आहार पानी की गवेषणा करता है उसी का साधुत्व स्थिर रहता है । इसका व्यतिरेक रूप अर्थ यह है कि जो वन्दना करने पर अभिमान का अनुभव करता है और वन्दना न करने पर क्रुद्ध हो जाता है, उसकी साधुता स्थिर नहीं रहती, क्योंकि वह अपने संयम को अपने अभिमान कषाय की पुष्टि के लिए उपयोग करता है, उससे लौकिक लाभ उठाना चाहता है।
वन्दना करने या न करने की अवस्था में साम्यभाव का उपदेश उपलक्षण मात्र है। उससे अन्यान्य सभी प्रतिकूल और अनुकूल समझे जाने वाले व्यवहारों का ग्रहण करना चाहिए । यदि कोई पुरुष किसी भी कारण से आवेशयुक्त होकर साघु को दुर्वचन बाले, शारीरिक कष्ट देवे. शस्त्र का प्रहार करे या जीवन से च्युत करदे तो भी साधु को उस पर वही भाव रखना चाहिए जो भाव साधु वन्दना-नमस्कार करने वाले भक्त श्रावक पर रखता है। इस प्रकार साधुत्व की स्थिरता के लिए सास्यभाव अनिवार्य है। . . मूल:-पण्णसमत्ते सदा जए, समताधम्ममुदाहरे मुनि।
सुहमे उ सया अलूसए, णो कुज्झे गो माणि माहणे छाया:-प्रज्ञ समालः सदा जवेत्, समतया धर्ममुदाहरेन्मुग्निः ।
सूचमे तु अलूपकः, नक्रुद्धयेन्न मानी माहनः ॥ १३ ॥ . शब्दार्थः-पूर्ण विद्वान् मुनि सदा यतनापूर्वक कषाय आदि पर विजय प्राप्त करे। समभाव से धर्म का उपदेश करे और सूक्ष्म-चारित्र में भी विराधक न हो। वाड़ना की जाय तो भी क्रोधित न हो और सत्कार करने पर भी अभिमान न करे।
भाज्य-यहां पर भी शास्त्रकार ने मुनि को अपने चारित्र का पालन करने के लिए समताभाव की आवश्यकता प्रकट की है।
सच्चा साधु वह है जो ध्रुत का विशिष्ट अध्ययन करके प्रज्ञाशाली बने, और समभाव पूर्वक धर्म का उपदेश करे । इसके अतिरिक्त न केवल वाह्य और स्थूल श्राचार का निर्दीप पालन करे अपितु सूक्ष्म और आन्तरिक श्राचार में भी दोप न लगने दे।
वाह्य श्राचार श्रान्तरिक शुद्धि का निमित्त है। अंतरंग अशुद्ध हो और उसकी शुद्धता के लिए प्रयत्न न किया जाय, केवल लोक-दिखावे के लिए बाह्य श्राचार का पालन किया जाय तो साधुत्व स्थिर नहीं रहता। श्रतएव साधु को अपने सम्पूर्ण सूक्ष्म स्थूल, अंतरंग वहिरंग, प्राचार का पालन करना चाहिए । प्रति लेखना आदि बाह्य क्रियाओं का भी यथा समय अनुष्ठान करना चाहिए और उचम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचिन्य एवं ब्रह्मचर्य श्रादि धर्मों का भी सदा श्राराधन करना चाहिए।
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[ ३४४ ।
साधु-धर्म निरूपण आहार जीवन में एक महत्वपूर्ण वस्तु है । संयम की साधना और विराधना बहुत अंशों में श्राहार पर भी निर्भर है। लोक में कहावत है- 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन' अर्थात् भोजन का मानसिक विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन सब बातों को लक्ष्य करके शास्त्रों में साधु के लिए अनेक विधि-विधान किये गये हैं। जिज्ञासु पाठकों को विस्तार जानने के लिए दशकालिक सूत्र देखना चाहिए। यहां सिर्फ दिग्दर्शन कराया गया है । इस प्रकार मुनि मधुकर-वृत्ति से निर्दोष आहार ही स्वीकार करते हैं। मूलः-जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिनो न समुक्कसे ।
एव मन्नेसमाणस्स, सामण्णमणुचिट्ठई ॥१२॥ छायाः-यो न वन्देत् न तस्मै कुप्त्, वन्दितो न मुकर्षेत् ।
___एवमन्देपमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥ १२॥ शव्दार्थ-यदि कोई गृहस्थ साधु को वन्दन न करे तो उस पर कोप न करे। अगर केई वन्दना करे तो साधु अभिमान न करे । इस प्रकार अपमान और मान की वासना से रहित होकर गवेषणा करने वाले साधु का साधुत्व ठहरता है।
भाष्य--मुनि के प्राचार का विवेचन करते हुए शास्त्रकार ने यहां मुनि को समता भाव रखने का उपदेश दिया है।
अगर साधु को कोई गृहस्थ श्रद्धा एवं भक्ति से प्रेरित वन्दना-नमस्कार न करे तो साधु को कुपित नहीं होना चाहिए । उस समय साधु को ऐसा विचार करना चाहिए कि-'में दूसरों से वन्दना-नमस्कार कराने के उद्देश्य से संयम का पालन नहीं कर रहा हूं। कोई वन्दना करे तो मुझे क्या लाभ है ? वन्दना न करने से मेरे संयम का क्या बिगड़ता है ? प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रवृति करता है। मुझे मान-प्रतिष्ठा की भूख नहीं है। ऐहलोकिक लाभ के मूल्य पर मैं अपना अमूल्य संयम क्यों लुटने दूं? जैसे चिन्तामणि, फूटी कौड़ी के बदले नहीं दिया जा सकता, उसी प्रकार संयम लौकिक गौरव के लिए नहीं बिगाड़ा जा सकता।
अगर कोई साधारण गृहस्थ या राजा श्रादि विशिष्ट पुरुष साधु को वन्दना करे तो साधु अभिमान न करे । ऐसे समय साधु यह विचार करे कि गृहस्थ मुझे · · संयमी समझकर नमस्कार करते हैं, पर मेरे संयम में कहीं कोई त्रुटी तो नहीं है ?
यदि कोई त्रुटि संयम में होगी तो मुझे मायाचार का दोष लगेगा। इस प्रकार अपनी · त्रुटि का विचार करके संयम की महत्ता का विवार करे कि-धन्य है यह संयम, जिसका पालन अनादि काल से तीर्थकर आदि महापुरुष करते आये हैं, और जो मुक्ति का एक मात्र द्वार है। मेरा बड़ा सौभाग्य है कि गुरु महाराज की दया से मुझे भी इसकी प्राप्ति हुई है । गृहस्थ लोग मेरे शरीर को नहीं किन्तु संयम को वन्दना करते हैं, संयम के प्रति अपना आदरभाव व्यक्त करते हैं, अतएव संयम ही सार है। वही आदरणीय है, वही नमस्करणीय है, वही वन्दनीय है, वही पूजनीय है।'
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सवां अध्याय
: ३४५ ] इस प्रकार समताभाव की आराधना करता हुआ जो मुनि विचरता है एवं आहार पानी की गवेषणा करता है उसी का साधुत्व स्थिर रहता है । इसका व्यतिरेक रूप अर्थ यह है कि जो वन्दना करने पर अभिमान का अनुभव करता है और वन्दना न करने पर, क्रुद्ध हो जाता है, उसकी साधुता स्थिर नहीं रहती, क्योंकि वह अपने संयम को अपने अभिमान कषाय की पुष्टि के लिए उपयोग करता है, उससे लौकिक लाभ उठाना चाहता है।
चन्दना करने या न करने की अवस्था में साम्यभाव का उपदेश उपलक्षण मात्र है। उससे अन्यान्य सभी प्रतिकूल और अनुकूल समझे जाने वाले व्यवहारों का ग्रहण करना चाहिए । यदि कोई पुरुष किसी भी कारण से आवेशयुक्त होकर साधु को दुर्वचन बोले, शारीरिक कष्ट देवे. शस्त्र का प्रहार करे या जीवन से च्युत करदे तो भी साधु को उस पर वही भाव रखना चाहिए जो भाव साधु वन्दना-नमस्कार करने वाले भक्त श्रावक पर रखता है । इस प्रकार साधुत्व की स्थिरता के लिए सास्य. भाव अनिवार्य है। मूल:-पएणसमत्ते सदा जए, समताधम्ममुदाहरे मुनि ।
सुहमे उ सया अलूसए, णो कुज्झे णो माणि माहणे छायाः-प्रज्ञ समाप्तः सदा जवेत्, समतया धर्ममुदाहरेन्मुनिः।
सूचमे तु अलूषकः, नक्रुद्धयेन्न मानी माहनः ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-पूर्ण विद्वान् मुनि सदा यतनापूर्वक कषाय आदि पर विजय प्राप्त करे। समभाव से धर्म का उपदेश करे और सूक्ष्म चारित्र में भी विराधक न हो। ताड़ना की जाय तो भी क्रोधित न हो और सत्कार करने पर भी अभिमान न करे। .
भाष्य-यहां पर भी शास्त्रकार ने मुनि को अपने चारिन का पालन करने के लिए समताभाव की आवश्यकता प्रकट की है।
सच्चा साधु वह है जो ध्रुत का विशिष्ट अध्ययन करके प्रज्ञाशाली बने, और लमभाव पूर्वक धर्म का उपदेश करे । इसके अतिरिक्त न केवल वाह्य और स्थूल श्राचार का निर्दोष पालन करे अपितु सूक्ष्म और आन्तरिक प्राचार में भी दोष न लगने दे।
चाह्य श्राचार आन्तरिक शुद्धि का निमित्त है। अंतरंग अशुद्ध हो और उसकी शुद्धता के लिए प्रयत्न न किया जाय, केवल लोक-दिखावे के लिए बाह्य प्राचार का पालन किया जाय तो साधुत्व स्थिर नहीं रहता। श्रतएव साधु को अपने सम्पूर्ण सूक्ष्म स्थूल, अंतरंग वहिरंग, श्राचार का पालन करना चाहिए । प्रति लेखना श्रादि वाह्य क्रियाओं का भी यथा समय अनुष्ठान करना चाहिए और उचम क्षमा, मार्दव. आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचिन्य एवं ब्रह्मचर्य श्रादि धर्मों का भी सदा धाराधन करना चाहिए।
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साधु-धर्म निरूपण इस प्रकार साम्यभाव का अवलंबन करके संयम का प्रतिपालन करने वाला साधु कृतार्थ होता है। . मूलः-न तस्स जाई व कुलं व त्ताणं, णरणत्थ विजाचरणं सुचिरणं । निक्खम्म से सेवइ गारेकम्मं,ण से पारए होई विमोयणाए १४. छाया-न तस्य जातिर्वा कुल वा त्राणं, नान्यत्र विध्या चरणे सुचीणे। .
निलम्य सः सेवतेऽगारिकर्म न सः पारगो भवति विमोचनाय ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-सम्यक् प्रकार से प्राप्त की हुई विद्या और आचरण के अतिरिक्त साधु का जाति या कुल उसके शरण नहीं होते । यदि साधु संसार के प्रपंच से निकल कर गृहस्थ के कर्मों का सेवन करता है तो वह संसार से पार नहीं हो सकता।
भाष्यः-सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से मुक्ति की प्राप्ति होती है, यह पहले बतलाया जा चुका है। जब कोई मुनि जिन दीक्षा अंगीकार करके गुरुजन की यथोचित विनय-भक्ति-शुश्रूषा आदि करके भलीभांति ज्ञान प्राप्त करलेता है, तब संसार से मुक्त होने के योग्य होता है। अतएव ज्ञान और चारित्र ही उसके लिए शरणभूत हैं-इन्हीं के अवलम्बन से निस्तार हो सकता है।
मातृपक्ष जाति कहलाता है और पितृपक्ष कुल कहलाता है । अथवा वर्ण को जाति कहा जाता है और उसकी अन्तर्गत शाखाएँ, जो किसी महापुरुष के नाम पर प्रायः प्रचलित होती हैं, कुल कहलाती है। जैसे क्षत्रिय जाति है और इक्ष्वाकु श्रादि कुल हैं।..
यहां सूत्रकार ने यह बताया है कि जाति और कूल किसी की रक्षा नहीं कर सकते । संसार के घोरतर कर्म-जन्म दुःखों का प्रतीकार जाति से नहीं हो सकता और न कुल से ही हो सकता है। कर्म अमोघ हैं । जिस पुरुष ने जिस प्रकार के शुभ या अशुभ कर्मों का उपार्जन किया है, उसे उसी प्रकार का फल अवश्यमेव योगना · पड़ेगा। मैं ब्राह्मण हूं' ऐसा समझने अथवा कहने से कर्म करुणा करके कम-फल नहीं देते और दूसरे को अधिक-फल नहीं देते। ब्राह्मण मर कर जब नरक में जाता है तो वहां उसे अन्य जीवों के समान ही दुःख सहन करने पड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि संसार में कहीं भी जाति के खेद से कर्म फल की भिन्नता नहीं दृष्टिगोचर होती। विष . खाने वाले.शद्र की जो दशा होती है वही ब्राह्मण की होती है। जिस प्रकार के प्राकृत या पुरुषार्थजन्य सुख-दुःख दूसरे को भोगने पड़ते हैं, उसी प्रकार के ब्राह्मण जातीय को भी सहने पड़ते हैं।
इसी प्रकार कुल भी रक्षक नहीं होता। जिस श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुआ विद्या- वान् और आचरणवान् महात्मा मोक्ष प्राप्त करता है, उसी कुल में उत्पन्न होने वाला
नरक का अतिथि बनता है। कर्म-फल में अन्य कुलों की अपेक्षा उस कुल में कोई विशेषता नहीं देखी जाती । अतएव यह स्पष्ट है कि कुल भी त्राणभूत नहीं है। उपा.
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नववा अध्याय
[ ३४७ ] र्जित किये हुए अशुभ कर्मों का जब दुःखमय फलं भोगने का अवसर प्राता है तब कुल की कोई भी विशेषता काम नहीं पाती । अतएव सच्चा शरण जिसे चाहिए उसे ज्ञान एवं चारित्र का ही उपार्जन करना श्रेयस्कार है । विद्या और आचरण जीव का संसार संबंधी समस्त दुःखों से उद्धार करने में समर्थ हैं-इन्हीं से जन्म, जरा,मरण की व्याधि दूर हो सकती है।
जाति और कुल का अभिमान करने वाले इन दुःखों से बचने के बदले और अधिक दुःख के भागी होते हैं । जाति एवं कुल का अभिमान, नीच जाति एवं नीच कुल में ले जाता है। ऐसा समझकर साधु को अपनी जाति तथा कुल का मद नहीं करना चाहिए।
जो साधु गृहस्थ दशा का त्याग करने के पश्चात् भी गृहस्थ सरीखे काम करता है, वह संसार से मुक्त होने में समर्थ नहीं हो सकता। अस काय का आरंभ करना, सचित्र फल-फूल आदि का भक्षण करना, अग्नि काय का प्रारंभ करना, सचित्त जल का उपयोग करना, स्नान करना, आदि गृहस्थ के कर्तव्य हैं । जो व्यक्ति गृहस्थी को त्याग चुका और त्यागी जीवन में प्रविष्ट हो चुका है, वह भी यदि इन सावध कार्यों को करता रहे-इनसे विरत न हो, तो उसका त्यागी जीवन निरर्थक है-नाम मात्र का है । उस से कुछ भी लाभ होने की संभावना नहीं की जा सकती।
अतएव गृहस्थावस्था का त्याग करके, दीक्षा लेने के पश्चात् साधु को गृहस्थोचित समस्त कार्यों का त्याग करना चाहिए और सर्वथा निरवद्य व्यापार में लीन हो कर श्रात्मकल्याण के लिए, लम्यक् ज्ञान एवं चारित्र का उपार्जन करना चाहिए ।
मुनि-जीवन एक नवीन जीवन है, नवा जन्म है, ऐसा समझ कर अपनी जाति का, कुल का, पद का, स्वजन भादि का संस्कार त्याग कर एक अपूर्व अवस्था का अनुभव करना चाहिए । जैसे पूर्व जन्म की किसी वस्तु से इस जन्म में संबंध नहीं रहता, उसी प्रकार गृहस्थावस्था के साथ साधु अवस्था का तनिक भी संबंध नहीं रखना चाहिए । ऐसा करने वाला मुनि मुक्ति का पात्र होता है। खूल:-एवंण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवंभिक्खु विउक्कसेजा। .. अहवाविजे लाभमयावलित्ते,अन्नं जणं खिंसति बालपने॥१५॥
छाया:-एवं न सभवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञया भित्तुः व्युत्कपेत् ।
अथवाऽपि यो लाभमदावलियः, अन्य जनं खिपति वालप्रज्ञः ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-जाति तथा कुल भ्रादि का अभिमान करने वाला साधु समाधि को प्राप्त नहीं होता है। जो भिक्षु प्रज्ञावान होकर अभिमान करता अर्थात् अपनी बुद्धि का मद करता है अथवा लाभ-सद से युक्त होकर दूसरों की निन्दा करता है वह भी समाधि को प्राप्त नहीं होता। ..
भाष्यः-इससे पूर्व की गाथा में जातिमद और कुलमद् की निस्सारता यता
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[ ३४८ ]
. साधु-धर्म निरूपण कर उन्हें त्याज्य बताया था। यहाँ बुद्धि एवं लाभ संबंधी मदों को हेय कहा है।
मैंने अमुक अमुक शास्त्रों का परिपूर्ण अध्ययन कर लिया है, मेरी बुद्धि अत्यन्त प्रकृष्ट है, इस प्रकार का विचार करके जो साधु अभिमान करता है, उसके हृदय में मान कषाय का शल्य विद्यमान होने के कारण वह निश्शल्य नहीं बन पाता । जहा निश्शल्यता नहीं है वहाँ समाधि भी नहीं हो सकती, इसी कारण सूत्रकारने अभिमान को समाधि की अप्राप्ति बताई है।
इसी भाँति जो मुनि लाभ के मद में मत्त होता है और दूसरों की अवलेहना करता है,जैसे मैं इतना सरस सुन्दर और स्वादिष्ठ आहार लाकर देता हूँ ! तुम लोगों को कोई ऐसा अच्छा श्राहार क्यों नहीं देता ? इत्यादि, वह. लाभ-मद में मत्त मुनि भी समाधि के अनुपम सुख के स्वाद से वंचित रहता है।
तात्पर्य यह है कि जो जाति का मद करता है उसे संसार में पुनः पुनः जाति (जन्म) जन्म दुःखों का अनुभव करना पड़ता है। जो कुल का अभिमान करता है वह सत्तरलाख कुल-कोटियों में परिभ्रमण करता है । जो प्रज्ञा के मद में मत्त होताहै वह बालप्रन अर्थात् अशान है। वास्तव में जो अज्ञान होता है वही अपने ज्ञान का अभिमान करता है। ज्ञानवान् जन अपने अज्ञान को जानता है, इसलिए वह अभिमान नहीं करता।
__ अचान पुरुष किंतना दयनीय है जो अपने ज्ञान का अभिमान तो करता है, पर स्वयं अपने अज्ञान का भी जिसे ज्ञान नहीं है ! जिसके घर में ही अंधेरा है वह बाहर क्या उजेला करेगा ? ज्ञानी जन धन्य है जो अपनी छमस्थ अवस्था में अपने अज्ञान को भलीभांति जानते हैं और इसी कारण कमी ज्ञान का मद नहीं करते । ज्ञानी और अज्ञानी में कितना भेद है ! कहा भी है--
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहम् द्विप इव मदान्धः समजति, तथा सर्वशोऽस्मीत्यभवद्वलितं मम मनः। . यदा किञ्चित् किञ्चिद् वुधजनसकाशादरगतम्,
.. तदा सूखोऽस्मीति घर इव मदो मे व्ययगतः ।। अर्थात जब मुझे अत्यन्त अल्प जान था, जव में हाथी की तरह मद में अंधा हो रहा था तव मेरा मन घमंड के मारे ऐसा हो रहा था कि बस, सर्वज्ञ मैं ही हूं। किन्तु जब विद्वानों से थोड़ा सा जान पाया, तब मुझे प्रतीत हुआ कि मैं अज्ञान हूं। उस समय मेरा समस्त अभिमान ज्वर की तरह उतर गया!
कवि ने अज्ञान का यह सजीव चित्र खींचा है । वास्तव में जब अज्ञान की अ. धिकता होती है, अज्ञान इतना अधिक बढ़ा होता है कि मनुष्य उसमें आकंठनिमग्न होकर अपने अशान को भी जानने में असमर्थ हो जाता है, तब वह अपने ज्ञान का अभिमान करता है। इसके विरुद्ध ज्ञानी पुरुष का अपने अज्ञान का भलीभांति ज्ञान होता है इसलिए वह ज्ञान का अभिमान नहीं कर सकता। .. ...
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नववा अध्याय
[ ३४६ ] यही आशय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने प्रज्ञा आदि के अभिमानी को 'बालप्रज्ञ' अर्थात् अज्ञान बताया है ।
इसी प्रकार जो साधु श्राहार, पानी, वस्त्र, पात्र, आदि के लाभ का अभिमान `करता है वह वास्तविक लाभ से सदा वंचित रहता है। पौद्गलिक लाभ में उलझा हुआ वह साधु आत्मा के स्वाभाविक गुणों के लाभ की ओर आकृष्ट नहीं होता और इस कारण वह घोर अलाभ का पात्र बनता है । अतएव साधुको यह विचारना चाहिए कि मैं अपने सहज चिदानन्दमय स्वभाव के लाभ के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ । जब तक उस अपूर्व, अद्भुत एवं अलौकिक स्वभाव की प्राप्ति नहीं हुई तब तक मुझे किश्चित् मात्र भी लाभ नहीं हुआ है। भोजन पान का लाभ तो वास्तव में लाभ है, क्यों कि वह प्रमादजनक तथा तपस्या, ध्यान आदि में विघ्न करना है। भोजन आदि का अलाभ वास्तव में लाभ है, क्योंकि उससे अनायास ही तप एवं संयम आदि की साधना हो जाती है ।
इस प्रकार विचार करने से साधु लाभ का अभिमान नहीं करता और लाभ होने पर विषाद नहीं करता है । श्रतएव ऐसा विचार कर समाधि प्राप्त करना चाहिए।
मूल:- न पूयणं चैव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सइ नो करेजा
सव्वे पट्टे परिवज्जयंते, असा उले य अक्साइ भिक्खू १६
छाया:-न पूजनं चैव श्लोककामी, प्रियमप्रियं कस्यापि नो कुर्यात् । सर्वानर्थान् परिवर्जयन्, अनाकुलश्च कषायी भिक्षुः ॥ १६ ॥
शब्दार्थः--साधु न अपने सत्कार की आकांक्षा करे और न कीर्त्ति की कामना करे । न किसी से राग करे और न द्वेष करे। सभी अनर्थों का त्याग करता हुआ, निराकुल और निष्कषाय होकर विचरे ।
भाग्यः - साधु प्रवचन करते समय यह इच्छा न करे कि मैं उत्तम उपदेश देता हूं तो श्रोता श्रावक श्रेष्ठ आहार आदि से मेरा सत्कार करें अथवा मेरी प्रशंसा करें । जिसके अन्तःकरण में ख्याति, लाभ, पूजा आदि की चाहना होती है, उसका हृदय शुद्ध नहीं हो सकता । श्रतः शुद्धता पूर्वक संयम-निर्वाह के लिए इन सब कामनाओं का परित्याग करना आवश्यक है । जिसकी दृष्टि इस लोक संबंधी लाभ पर ही केन्द्रित करती है, वह पारलौकिक कल्याण की ओर ध्यान नहीं दे पाता । पर लोक संबंधी कल्याण की प्राप्ति के लिए इस लोक के लाभों से सर्वथा निरपेक्ष रहना चाहिए ।
इसी प्रकार साधु किसी पर राग-द्वेष न करे। यदि कोई पुरुष साधु की प्रशंसा करता हो तो उसे अपनी प्रशंसा न समझ कर भगत्प्ररूपित संयम की प्रशंसा समझे अगर कोई साधु के विद्याविभव की, वाक्कौशल की या अनासक्ति की प्रशंसा करे तो उसे प्रशंसक पर राग नहीं करना चाहिए वरन् अपने श्रज्ञान आदि का विचार
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[ ३५० ] . .
- साधु-धर्म निरूपण, करके उनकी विशेष प्राप्ति के लिए कटिबद्ध होना चाहिए । इसी प्रकार अगर कोई पुरुष निन्दा आदि करे तो साधु को द्वेष नहीं करना चाहिए। ऐसे समय में उसे निन्दा के विषयभूत दोष पर विचार करना चाहिए कि-'वास्तव में निन्दक के योग्य. दोष मुझमें है या नहीं ? यदि है तो निन्दक व्यक्ति सत्य ही कहता है। मुझे उस पर क्रोध न करके उसका ऋणी होना चाहिए कि उसने वह अवगुण त्यांगने का मुझे अवसर प्रदान किया है। अगर निन्दनीय दोष न हो तो सोचना चाहिए कि, मुझ में जब दोष नहीं है तो किसी के कहने ले मेरी श्रात्मा का क्या बिगाड़ होगा ? निन्दक ही अपना अहित करके अशुभ कर्मों का संचय कर रहा है। बेचारा मेरे निमित्त से पाप में डूब रहा है, अतएव वह क्रोध का पात्र न होकर द्या. का पात्र है। अथवा-- मैने कोई अशुभ कर्म पहले उपार्जन किया होगा जिसके उदय से मुझे निन्दा का पात्र चनना पड़ा है । वास्तव में तो मेरा कर्म ही मेरी निन्दा करता है, व्यक्ति तो साधारण निमित्त मात्र है। मैं उस पर क्यों क्रोध या द्वेष करूं? द्वेष श्रादि करने से तो आगे के लिए फिर अशुभ कर्म का बंध होगा!
इसके अतिरिक्त प्रशंसा और निन्दा की वास्तविकता पर गहरा विचार करना चाहिए । प्रशंसा एक प्रकार की अनुकूल परीषह है, निन्दा प्रतिकूल परीषह है। प्रतिकूल परीषह की अपेक्षा अनुकूल परिषह को जीतना अधिक कठिन होता है अंतएव निन्दा की अपेक्षा प्रशंसा को अधिक भयंकर समझना चाहिए और उससे बचने का सदैव प्रयास करना चाहिए । निन्दा और प्रशंसा होने पर समान भाव धारण करके साधु को अपनी.साधना की ओर ही ध्यान रखना चाहिए। . . संयम को दुषित करने वाले समस्त अनर्थों का, अनाचीर्ण आदि का, त्याग करना चाहिए । श्रनाचीर्ण क्या है ?
‘जिन बातों का तीर्थकरों ने तथा प्राचीन मुमुक्षु महर्षियों ने कभी आचरण नहीं किया है, उन्हें अनाचीर्ण कहते हैं । शास्त्रों में अनाचीर्ण ५२ ( बावन ) बताये गये हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) प्रोद्देशिक-आहार, पानी, पात्र आदि ग्रहण करना। . (२) क्रीतकृत-साधु के लिए मोल देकर खरीदी हुई वस्तु देने पर उसे लेना।
(३) नित्यपिण्ड-विशेष कारण के बिना एक ही घर से नित्य श्राहार-पानी आदि ग्रहण करना।
(४) अभ्याहत-उपाश्रय में या जहां साधु स्थित हों वहां श्राहार आदि लाकर श्रावक दे और उसे ग्रहण करना।
(५) रात्रिभक्त-अन्न; पानी, खाद्य, खाद्य आदि किसी भी प्रकार के आहार . का रात्रि में उपभोग करना।
(६) स्नान-हाथ पैर आदि धोना देश स्नान कहलाता है और समस्त शरीर का प्रक्षालन करना सर्व स्नान है ।
(७) गंध-ईत्र, चन्दन आदि सुगंधमय पदार्थ विना विशेष शारीरिक कारण __ . के लगाना।
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नववां अध्याय
[ ३५२ ] (5) माल्य-फूलों की या मोती, पन्ना आदि की माला पहनना। (६) बीजन- पंखे से, पुढे से या वस्त्र आदि से हवा करना।
(१०) सन्निधि-घृत, तेल, शक्कर आदि पदार्थ रात्रि में अपने पास, दूसरे दिन के लिए रखना।
(११) गृहीपात्र-गृहस्थ के पात्र में श्राहार करना। (१२) राज पिण्डराजा के लिए बनाया हुश्रा पौष्टिक आहार लेना।
(१३) किमिच्छक दान-दानशाला आदि में बँटने वाला सदावर्त्त आदि लेना। अर्थात् जहां क्या चाहिए तुम्हें ? ' इस प्रकार पूछकर सर्वसाधारण भिनुकों को दान दिया जाता है, उस स्थान से दान लेना।
(१४) संबाहन-शरीर को आनन्द देने वाला तैल का मर्दन कराना । रोग निवारण के लिए तैल मर्दन कराना इलमें सम्मिलित नहीं है।
(१५) दन्तधावन-दांतों को चमकदार बनाने के लिए, मंजन, मिस्सी आदि का उपयोग करना।
(१६) संप्रश्न-असंयमी एवं गृहस्थ से साता पूछना ।
(१७) देहप्रलोकन--कांच में, तेल में या पानी आदि में अपना मुंह देखना, या शरीर देखना।
(१८) अष्टापद-जुआ खेलना । (१६) नालिक--चोपड़ श्रादि खेलना। (२०) छनधारण-सिर पर छत्र-छतरी लगाना ।
(२१) चिकित्सा-विना रोग के बल-वृद्धि के लिए औषध का सेवन करना चिकित्सा कराना।
(२२) उपाहन--जूते, स्खड़ाऊँ, मोजे श्रादि पैर में पहनना ।
(२३) ज्योतिरारम्भ-दीपक जलाना, चूला जलाना या अन्य प्रकार से अनि का आरंभ करना।
(२४) शय्यातर पिण्ड-जिसकी श्राज्ञा लेकर मकान में निवास किया हो उस के घर का श्राहार-पानी आदि लेना।
(२५) आसंदी-माचा, पलंग, कुर्सी आदि पर बैठना ।
(२६) गृहान्तर निषधा-रोग, तपश्चर्याजन्य निर्बलता एवं वृद्धावस्था आदि विशेष कारण के विना गृहस्थ के घर में बैठना।
(२७) गानमर्दन-शरीर पर पीठी श्रादि लगाना।
(२८) गृहिवैयावृत्य-गृहस्थ की सेवा करना या गृहस्थ से पाय चस्पी वगैः । रह सेवा कराना।
(२६) जात्याजीविका-सजातीय बनकर या अपने को सगोत्री कहकर श्राहार प्रादि प्राप्त करना।
। (३०) तप्तानिवृत-पूर्ण रूप से चित्त हुए बिना ही जल श्रादि का ग्रहण .. कर लेना।
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[ ३५२ ]
साधु-धर्म निरूपण (३१) अातुरस्मरण-रोगजन्य कष्ट होने पर अथवा परीषह और उपसर्ग प्राप्त होने पर अपने श्रात्मीयजनों का स्मरण करना ।
(३२) मूलीका भक्षण करना । (३३) आईक अर्थात् अदरख का उपयोग करना। (३४) इश्वराड अर्थात् गन्ने के टुकड़े लेना-खाना । (३५) सुरण आदि कन्दों का आहार करना । (३६) जड़ी-बूटी आदि का उपयोग करना । (३७) सचित्त फल खाना । (३८) बीज का भक्षण करना।
(३६-४५) सेंचल नमक, सैंधा नमक, सामान्य नमक, रोम-देशीय नमक, समुद्री नमक, पांशुतार और काला नमक, इन सव का भक्षण करना । मूली से लगाकर नमक पर्यन्त सचित्त वस्तुओं का सेवन करना अनाचीर्ण है।
(४६) घूपन-शरीर को या वस्र प्रादि को धूप देना। (४७) वमन-बिना कारण मुँह में उंगली डालकर या औषधि लेकर वमन करना। (४८) वस्ती कर्म--गुदा मार्ग से कोई वस्तु पेट में डालकर दस्त करना। (४६) विरेचन--निष्कारण जुलाब लेना। . . (५०) अंजन--आँखों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए काजल लगाना,सुरमा लगाना (५१) दन्तवर्ण--दांतों का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए दांत रंगना उनपर रंगचढ़ाना . (५२) शारीरिक वल-वृद्धि के लिए व्यायाम करना।
यह बावन अनाचीर्ण संयम के सबल दूषण हैं । इनका सर्वथा त्याग करके साधु को संयम का पालन करना चाहिए।
जो मनि इन तथा इसी प्रकार के शास्त्रोक्त अनों का त्याग करता हुश्रा, निराकल एवं कषायहीन होकर संयम का पालन करता है, वह परम कल्याण का भागी होता है।
शाकलता, निर्बलता से उत्पन्न होती है । घोर से घोर परीषह और उपसर्ग उपस्थित हो जाने पर भी साधु को चट्टान की तरह दृढ़ रहना चाहिए । ऐसे प्रसंगों पर जिसका चित्त सुदृढ़ बना रहता है, उसका परीषह कुछ विगाड़ नहीं कर सकते। श्राधे परीषह और उपसर्ग को साधु अपने चित्त की स्थिरता से ही जीत लेता है। मूलः-जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं ।
तमेव अणुपालिज्जा, गुणे अायारय सम्मए ॥१७॥ छायाः था अदया निष्क्रान्तः, पर्यायस्थानमुत्तमम् ।
___तामेवानुपालयेत् , गुणेषु प्राचार्यसम्मतेषु ।। १७ ॥ . शब्दार्थ:-जिस श्रद्धाके साथ उत्तम दीक्षा का पद प्राप्त करने के लिए निकला है, उसी श्रद्धा से तर्थिकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट गुणों का पालन करना चाहिए। ...
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नवां अध्याय .
[ ३५३ ] भाष्यः-मुनियों के श्राचार का निरूपण करके अन्त में सामान्य रूप से प्राचार-पालन का उपदेश करते हुए अध्ययन का उपसंहार किया गया है।
तात्पर्य यह है कि जिस उत्कृष्ट भावना, वैराग्य और मुमुक्षुता के साथ दीक्षा ग्रहण की है, वही उत्तम भावना मुनि को सदा स्थिर रखनी चाहिए वैसा ही वैराग्य कायम रखना चाहिए । और तीर्थकर भगवान् ने मुनि के लिए जिन आवश्यक गुणों का निरूपण किया है उन गुणों का सदैव सेवन करना चाहिए ।
मन अत्यन्त चंचल है । वह सदैव एफ-सा नहीं रहता । जव कोई दुर्घटना होती है, हृदय को किसी प्रकार का आघात लगता है, इष्ट जन या धन आदि का 'वियोग होता है तब मनुष्य में एक प्रकार की विरक्ति भावना का आविर्भाव होता है। जन किसी महात्मा पुरुष के दर्शन होते हैं या उसके वैराग्य-परिपूर्ण प्रवचन को श्रवण करने का अवसर प्राप्त होता है तब संसार के भोगोपभोग नीरस से प्रतीत होने लगते हैं। मन उनले विमुख हो जाता है । किन्तु चिर-परिचित कामनाएं कुछ ही काल में पुनरुदभूत हो पाती हैं और वे उस विरक्ति को दवा देती हैं। जैसे सफेद वस्त्र पर काले रंग का दाग जल्दी लगता और दाग लगने पर सफेदी बिलकुल दब जाती है, उसी प्रकार स्वच्छ हृदय-पट पर कामनामों का धब्बा शीघ्र लग जाता है और वह स्वच्छता का समूल विनाश कर देता है।।
इस प्रकार मनुष्य एक चार जिन वासनाओं को दबा लेने में समर्थ हो सका था, वही वासनाएं फिर प्रबल होकर उसे दबा देती हैं । वैराग्य का रंग उढ़ जाता है और मन कल्पना द्वारा निर्मित भोगों में निमस हो जाता है । धीरे-धीरे अधःपतन होता जाता है और अन्त में साधुता भी समाप्त हो जाती है। मन की चंचल गति से इस प्रकार के अनेक अनर्थ होते हैं । अतएव शास्त्रकार यहाँ सावधान करते हुए कहते हैं कि, मन को अपने अधीन बनाओ । सदा मन की चौकसी करते रहो । वह एक बार ऊंचा उठकर नीचा न गिरने पावे।
मन क्रमशः ऊंचा ही उठता चला जाय तो शास्त्र में प्राचार्य अर्थात् तीर्थकर द्धारा उपदिष्ट गुणों का यथावत् पालन हो सकता है, अन्यथा नहीं।
शंका-शास्त्र में पंच परमेष्ठी का प्ररूपण किया गया है। तीर्थकर भगवान जय धर्म का उपदेश देते हैं तब वे अर्हन्त पद में स्थित होते हैं । फिर यहां तीर्थकर को. आचार्य क्यों कहा है ?
समाधान-जो मुनि स्वयं आचार का पालन करते हैं तथा दूसरों से करावे हैं, उन्हें श्राचार्य कहते हैं। कहा भी है
दसणणाएपहाणे, वीरियचारित्तवर तवायारे ।
अप्पं परं च झुंजइ, सो पायरियो मुणी झयो । अर्थात् जो मुनि दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार तथा तएआचार में अपने को लगाते हैं और अन्य मुनियों को भी लगाते हैं, उन्हें प्राचार्य
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[ ३५४ ]
'कहते हैं । वे मुनि ध्यान करने के योग्य हैं ।
आचार्य की यह परिभाषा तीर्थकर भगवान् में पूर्ण रूप से घटित होती है, अतएव सामान्य की अपेक्षा से उन्हें श्राचार्य कहा गया है । जैसे आचार्य को सामान्य रूप से सांधु कहा जा सकता है उसी प्रकार अरिहन्त तीर्थंकर भगवान् को आचार्य भी कहा जा सकता है । अथवा यहां श्री गौतम एवं सुधर्मा स्वामी से तात्पर्य है ।
साधु-धर्म निरूपण
शंका-- यहां प्राचार्य - सम्मत गुणों के पालन करने का विधान किया है, सो वे गुण कौन-कौन से समझने चाहिए ?:
समाधान——इस अध्ययन में जिन गुणों का साक्षात् निरूपण किया गया है, उन पांच महाव्रत आदि का तथा उनके अतिरिक्त साधु की द्वादश प्रतिमाओं ( पडि - . मानों ) का, करणसत्तरी, चरणसत्तरी का, आठ प्रभावनाओं का, तथा अन्य शास्त्रोक्त आचार का यहां ग्रहण करना चाहिए ।
इनमें से
साधु की बारह पडिमाएं इस प्रकार हैं-
(१) पहली पडिमा में साधु को एक मास तक एक दत्ति ( दात ) आहार लेना चाहिए । अर्थात् श्राहार देते समय दाता एक बार में जितना श्राहार देदे उतने ही आहार पर निर्वाह करे और एक बार में, बिना धार टूटे जितना पानी मिल जाय, उसी पानी का उपभोग करे । जैसे -- किसी दांता ने पहले एक बार सिर्फ एक चम्मच दाल दी तो उसके पश्चात् कुछ भी ग्रहण न करे, उतनी ही दाल का उपभोग करे । इसी प्रकार बिना धार तोड़े जो पानी एक बार में मिल जाय उसके अतिरिक्त दूसरी बार फिर न लेवे । इस प्रकार एक मास तक अनुष्ठान करना पहली पडिमा है ।
(२) दूसरी पडिमा में, दो मास तक दो दत्ति आहार की तथा दो दत्ति पानी की ग्रहण करे, अधिक नहीं ।
(३) तृतीय पडिमा में, तीन मास तक तीन दत्ति आहार और तीन दत्ति पानी ग्रहण करे ।
(४) चतुर्थ पडिमा में चार मास तक चार दत्ति आहार और चार दत्ति पानी पर निर्वाह करे ।
(५) पंचमी पड़िमा में पांच मास तक पांच दत्ति आहार और पांच दत्ति पानी की ग्रहण करे ।
* (६) षष्ट पडिमा में छह मास तक छह दत्ति आहार और छह वृत्ति पानी की ग्रहण करे ।
(७) सातवीं पडिमा में सात मास तक सात दत्ति आहार की और सात दत्ति पानी की ग्रहण करे । इससे कम आहार- पानी ग्रहण करने में हानि नहीं है, किन्तु विशेष तपस्या है, अधिक नहीं लेना चाहिए !
(८) आठवीं पडिमा में सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास करना
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नवां अध्याय
३५५. ] चाहिए । दिन में सूर्य के ताप का सेवन करना चाहिए । रात्रि में नग्न रहना चाहिए। रात्रि में लीधा या एक ही करवट से सोना चाहिए या तो चित्त ही सोवे करवट नं ले । अथवा जिस करवट सोवे उसी से सोता. रहे--बदले नहीं। सामर्थ्य विशेष हो तो कायोत्सर्ग करके बैठे। ___(8) नवमी प्रतिमा का अनुष्ठान पाठवीं के समान है । विशेषता यह है कि रात्रि में शयन न करे, दंडासन, लगुडासन या उत्कृट श्रासन लगा कर रात्रि व्यतीत करे । दंड की तरह सीधा खड़ा रहना दंडासन है। पैर की एड़ी और मस्तक का शिखा स्थान पृथ्वी पर लगा कर समस्त शरीर धनुष की भांति अधर रखना लंगुडासन है । दोनों घुटनों के मध्य में मस्तक झुका कर ठहरना उत्कृट श्रासन है।
(१०) दसवी प्रतिमा (पडिमा) झी आठवीं की तरह है। इसमें विशेषता यह है कि समस्त रात्रि गोदुहासन, वीरासन अथवा अस्वखुजासन ले स्थित होकर व्यतीत करना चाहिए । गाय दुहने के लिए जिस आसन से दुहने वाला बैठता है उसे गोबुहासन कहते हैं। पाट पर चैठकर दोनों पैर जमीन में लगा लिए जाएँ और पाट हटा लेने पर उसी प्रकार अधर वैठा रहना वीरासन है। सिर दीचे रखना और पैर ऊपर रखना अस्वखुजालन कहलाता है।
(१९) ग्यारहवीं पडिमा में बेला (षष्ठभक्त) करना चाहिए, दूसरे दिन ग्राम से बाहर आठ महर तक ( रात-दिन-चौबीस घंटे) कायोत्सर्ग करके खड़ा रहना चाहिए।
. (१२) बारहवीं पडिमा में तेला करना चाहिए । तीसरे दिन श्मशान में एक ही वस्तु पर अचल दृष्टि स्थापित कर कायोत्सर्ग करना चाहिए । विशिष्ट संयम की साधना के लिए तथा कायस्लेश के लिए साधु को इन शरह पडिमात्रों के प्राचरण का विधान किया गया है । इनके अनुष्ठान के लिए उन सामर्थ्य की भावश्यकता होती है। श्राधुनिक समय में शरीर-संहनन की निर्चलता के कारण पडिमाओं का अनुष्ठान्द नहीं हो सकता। करणसत्तरि के सत्तर भेद हैं । यथा
पिंडविसोही समिई, भावना पडिमा इंदिय निरगहो या * पडिलेहणगुत्तीसो, अभिग्गहं चेक करणं तु ॥
अर्थात् पिएडविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिग्रह, प्रतिलेखना, गुति और अभिग्रह, यह स्व करण के भेद हैं।
पिण्डषिशुद्धि के चार भेद हैं, समितियां पांच, भावनाएँ चारह है, प्रतिमाएं चारह, इन्द्रिय नियह पांच, प्रतिलेखना पच्चीस, गुप्ति तीन और अभिग्रह चार हैं। इन सबका योग सत्तर होता है।
(१) श्राहार (२) वा (३) पान और (४) स्थानक, निदाप ही काम में लानासदोए का परित्याग करना चार प्रकार की पिण्ड शृद्धि कहलाती है। पांच समितियों
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साधु-धर्म निरूपण का, द्वादश भावनाओं का और द्वादश प्रतिमाओं का निरूपण पहले किया जा चुका है। पांच इन्द्रियों का वर्णन भी पहले श्रा चुका है, उनका दमन करना इन्द्रिय निग्रह है। साधु जो वस्त्र पात्र श्रादि धर्मोपकरण रखते हैं उनकी यथाकाल प्रतिलेखना करना। प्रतिलेखना पच्चीस प्रकार की सूत्र उत्तराध्ययनजी में कही गई है।
' तीन गुप्तियों का स्वरूप पहले बताया जा चुका है । अभिग्रह चार यह हैं[१] द्रव्य अभिग्रह [२] क्षेत्र अभिग्रह [३] काल अभिग्रह और ४] भाव अभिग्रह। 'मैं आज अमुक वस्तु मिलेगी तो आहार लूंगा, अन्यथा नहीं' इस प्रकार का संकल्प करना द्रव्य अभिग्रह है। अमुक स्थान पर श्राहार प्राप्त होगा तो लंगा, अन्यथा नहीं, ऐसा संकल्प करना क्षेत्र-अभिग्रह है । अमुक समय पर मिलेगा तो आहार लूंगा, अन्यथा नहीं, इस प्रकार काल संबंधी संकल्प करना काल-अभिग्रह है। अमुक प्रकार से आहार लूंगा अन्यथा नहीं, इल.तरह का संकल्प कर लेना भाव-अभिग्रह है।
तपस्या की विशेष साधना के लिए तथा अन्तराय कर्म के उदय की परीक्षा के लिए मुनिजन अभिग्रह करते हैं। अभिग्रह पूर्ण हो तो आहार ग्रहण करते है, अन्यथा अनशन करके कर्मों की निर्जरा करते हैं। चरण सत्तरि के भी सत्तर प्रकार हैं । वे यह हैं
वय-समणधम्म-संजय-वेयावच्चं च वंभ गुत्तीयो।
नाणाइ नीयं तव, कोहोनिग्गहाइ चरणमेये ॥ अर्थात्-पांच महाव्रत, दस प्रकार का श्रमण धर्म, सत्तरह प्रकार का संयम, . दस प्रकार का वैयावृत्य, नव वाड़ युक्त ब्रह्मचर्य, सम्यग्ज्ञान श्रादि तीन रत्न, बारह प्रकार का तप, चार क्रोध आदि कषायों का निग्रह, यह सब सत्तर भेद चरणसत्तरी
इन सब का स्वरूप प्रायः पहले पा चुका है। उत्तम क्षमा, मुक्ति, आर्जव आदि दस धर्म हैं । संयम के सत्तरह भेद इस प्रकार है
(१) पृथ्वीकाय संयम-पृथ्वीकाय की हिंसा न करना, पृथ्वीकाय की यतना करना।
(२) अपुकाय संयम-जलकाय के जीवों की यतना करना-प्रारंभ न करना। (३) तेजस्काय संयम-अग्निकाय के जीवों का प्रारम्भ नहीं करना। (४) वायुकाय संयम-वायुकाय के जीवों का आरम्भ न करना।
(५) वनस्पतिकाय संयम-वनस्पतिकाय के जीवों का प्रारम्भ नहीं करना। इन पांचों का स्पर्श तक साधु को त्याज्य है।
(६) द्वीन्द्रिय संयम ।। (७) श्रीन्द्रिय संयम। (८) चतुरिन्द्रिय संयम । (8) पञ्चेन्द्रिय संयम । इनका अर्थ सुगम है।
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नववा अध्याय
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(१०) अजीव संयम -- अर्थात् वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि निर्जीव वस्तुओं को यतनापूर्वक उठाना, रखना, उसका सदुपयोग करना एवं संभाल कर काम में लाना । (११) प्रेक्षा संयम - प्रत्येक वस्तु सम्यक् प्रकार से देख-भाल कर काम में लाना । इससे स्व-पर रक्षा होती है ।
(१२) उपेक्षा संयम - सत्य धर्म का उपदेश देकर मिथ्यादृष्टि को सस्यग्दृष्टि बनाना, सम्यग्दृष्टि को श्रावक या साधु बनाना, जो किसी कारण धर्म से चलित हो रहा हो उसे सहायता देकर धर्म में स्थिर करना, आदि ।
(१३) प्रमार्जना संयम - जहां परिपूर्ण प्रकाश न हो वहां तथा रात्रि के समय रजोहरण से भूमि का प्रमार्जन करके गमनागमन करना, शरीर पर कीड़ी आदि जन्तु चढ़ जाय तो पूंजणी से प्रमार्जन करके हटाना, आदि ।
(१४) परिस्थापन संयम - मल, सूत्र, कफ़, अशुद्ध आहार को देख-भाल कर निर्जीव भूमि पर डालना, जिससे किसी जीव का घात न हो ।
(१५) मनः संयम — मन को अपने आधीन बनाना, दुर्विचार न होने देना, मन का निरोध करना ।
(१६) वचन संयम - अनुचित वचन का प्रयोग न करना अथवा सर्वथा मौन
धारण करना ।
(१७) काय संयम-शरीर की चेष्टाओं को रोकना अथवा दोष-युक्त व्यापार शरीर से न होने देना ।
वैयावृत्य का स्वरूप तप के प्रकरण में कहा जायगा । नव वाड़ युक्त ब्रह्मचर्य का कथन किया जा चुका है । रत्नात्रय का भी स्वरूप-वर्णन हो चुका है । शेष भेद प्रसिद्ध हैं ।
पूर्व कथनानुसार श्राचार्य सम्मत गुणों में आठ प्रभावनाएँ भी अन्तर्गत हैं । उनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है:
(१) प्रवचन प्रभावना - वीतराग सर्वज्ञ भगवान् का उपदेश प्रवचन है और उसकी प्रभावना करना अर्थात् उसके सम्बन्ध में विद्यमान अज्ञान की निवृत्ति करना प्रवचन प्रभावना है । कहा भी है
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमयाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्य प्रकाशः स्यात् प्रभावना ॥
अर्थात् अज्ञान रूपी अन्धकार को यथोचित उपायों से दूर करके जिनेन्द्र भगचान् के शासन की महत्ता प्रकट करना प्रभावना है ।
जिन का उपदेश ही इस लोक में हितकारी है । उस का अनुसरण किये बिना कल्याण नहीं हो सकता । किन्तु उसके वास्तविक मर्म को न समझने के कारण अनेक . कल्याण कामीजन उसका आचरण नहीं करते, उस पर उपेक्षा का भाव रखते हैं।
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साधु-धर्म निरूपण और अनेक मिथ्यादृष्टि जन मिथ्यात्व की प्रबलता के कारण उसे अकल्याणकारी मान कर उससे दूर रहते हैं। यह सब प्रवचन संबंधी अचान का परिणाम है। इस अंज्ञान को जिन शासन का वास्तविक स्वरूप प्रकट करके हटाना, जिनागम का गंभीर जान प्राप्त करना, उसकी स्याद्वाद शैली को ध्यान में रखते हुए, अपेक्षा भेद को समझते हुए स्वयं उसमें पारंगत होना, देश, काल के अनुसार उसका प्रचलित और सुगम भाषा में अनुवाद करना, उसके आधार पर तुलनात्मक ग्रंथों की रचना करना, उसकी हितकरता, व्यापकता एवं सर्वशालीनता को युक्ति पूर्वक समझाना, जिज्ञासुओं को पढ़ाना आदि प्रवचन की प्रभावना है।
(२) धर्म कथा प्रभावना-धर्मोपदेश करके, अपनी वक्तृत्वकला के द्वारा जिन शासन की प्रभावना करना धर्म कथा प्रभावना है। धर्म कथा चार प्रकार की है-९१) श्राक्षपणी [२] विक्षेपणी 1३) संवेगनी और [४] निवेदनी ।
[क] श्राक्षेपणी कथा-श्रोताओं के हृदय में से राग, द्वेष और मोह निवृत्त । करके तत्वों की ओर आकर्षित करने वाली कथा प्रक्षिपणी कथा कहलाती है । इल कथा के भी चार उपभेद हैं-१ केश-लोच आदि अाचार के द्वारा अथवा प्राचार के व्याख्यान द्वारा श्रोता को अर्हन्त प्ररूपित शासन की ओर आकृष्ट करना प्राचार. श्राक्षेपणी कथा है। २] किसी समय कोई दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त या व्यवहारसूत्र का व्याख्यान करके शासन की ओर श्रोता को प्राकृष्ट करना व्यवहार-माक्षेपणी कथा है। [३] जिसे जिन बचन में कहीं संशय हो उसे मधुर वचनों द्वारा समझाकर या प्रज्ञप्तिसूत्र का व्याख्यान करके शासन की ओर आकृष्ट करना प्रज्ञप्ति-आक्षेपणी कथा है। सात नयों के अनुसार जीवादि तत्त्वों का व्याख्यान करके अथवा दृष्टिवाद का व्याख्यान करके श्रोता को तत्त्वबोध कराना दृष्टिवादश्राक्षेपणी कथा है। आक्षेपणी धर्म कथा के यह चार भेद हैं।
शविक्षेपणी कथा-सन्मार्ग का त्याग करके कुमार्ग की ओर जाते हुए श्रोता को सन्मार्ग में स्थापित करने वाली कथा [उपदेश] विक्षेपणी कथा कलाकार। इस कथा में सन्मार्ग के लाभ और कुमार्ग के दोपों एवं हानियों का प्रधान से वर्णन किया जाता है। __ . विलेपणी कथा के चार प्रकार हैं-[१] अईत्-शासन के गुणों को प्रकाशित जाने एकान्तवाद के दोषों का निरूपण करना [२] पर-सिद्धान्त का पूर्व पक्ष के रूप
करके स्वकीय सिद्धान्त की प्रमाण और युक्ति के श्राधार से स्थापना करना।
सिद्धान्त में जो विषय जिनागम के समान निरूपित हैं उनका दिगदर्शन कराते . हर विपरीत वातों में दोषों का निरूपण करना [४] पर सिद्धान्त में कथित जिनागम से विपरीत वादों का निरूपण करके, जिनागम के समान विषयों का कथन करना।
12] संवेगनी कथा-जिस उपदेश से श्रोता के हृदय में वैराग्य की वृद्धि हो और श्रोता संसार से विरक्त हो उसे संवेगनी कथा कहते हैं। संवेगनी कथा के भी चार भेद है-[१] इहलोक संवेगनी [२] परलोक संवेगनी [३] स्वशरीर संवेगनी
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नववा अध्याय
[ ३५६ ] और [४] पर शरीर संवेगनी।
___ इहलोक संवेगनी-इस तोक की अनित्यता, विषय भोगों की निस्सारता, मानव की उत्पत्ति के समय होने वाले कष्ट, इत्यादि का कथन करना । जैसे-मानव जीवन जल के बुलबुले के समान क्षण भंगुर है, जन्म-जरा-मरण के दुःखों से व्याप्त है, आदि
पर लोक संवेगनी-स्वर्ग के देवता भी वियोग, विषाद, भय, इर्ष्या श्रादि से व्याकुल हैं। उनके सुख भी नाश शील है, इत्यादि प्रकार से परलोक ले विरक्ति उत्पन्न करने वाली कथा पर लोक-संवेगनी कथा है।
स्वशरीर संवेगनी-यह शरीर अशुचि का पिंड है। इसकी उत्पत्ति शुचि पदार्थों से हुई है और अशुचि पदार्थों पर ही यह टिका हुआ है। संसार में इससे अधिक अपवित्र वस्तु और क्या है, जिसके संयोग मान से समस्त पदार्थ अत्यन्त अशुचि बन जाते हैं ! यह शरीर भीतर से अत्यन्त घृणा जनक है। मल-मूत्र आदि का थैला है। इस प्रकार शरीर से विरक्ति उत्पन्न करने वाली कथा स्वशरीर संवगनी है।
परशरीर संवेगनी--किसी मुर्दे शरीर के स्वरूप का कथन करके विरक्ति उत्पन्न करने वाली कथा परशरीर संवेगली है।
. (४) निर्वेदनी कथा-इसलोक एवं परलोक में पाप, पुण्य के शुभाशुभ फल का निरूपण करके संसार ले उदासीनता उत्पन्न करने वाली कथा निवेदनी कहलाती है। इसके भी चार प्रकार हैं।
(६) पहली निवेदनी कथा-इस लोक में किये हुए दुष्ट कर्म, इसी भव में दुःख दायक होते हैं, चोरी, पर स्त्री गमन आदि । इसी प्रकार इस जन्म में किये हुए शुभ कार्य इसी जन्म में, सुख रूप फल प्रदान करते हैं। जैसे तीर्थकर भगवान को दान देने से सुवर्ण वृष्टि रूप फल इसी जन्म में, तत्काल मिलता है। इस प्रकार का व्याख्यान करना पहली निवेदनी कथा है।
(२) द्वितीय निर्वेदनी कथा-जीव इस जन्म में जो अशुभ कर्म करता है उसे परलोक में उनका अशुभ फल प्राप्त होता है । यथा-महारंभ, महा परिग्रह आदि नरक गमन योग्य अशुभ कर्म करने वाले जीव को परलोक में नरक का अतिथि बनकर घोर कष्ट सहने पड़ते हैं। इसी प्रकार इस लोक में किये हुए शुभ कार्यों का फल परलोक में सुखदायक होता है, जैसे साधु इस जन्म में जिस संयम, तप आदि की साधना करते हैं उसका फल उन्हें परलोक में प्राप्त होता है।
(३) तृतीय निर्धेदनी कथा-परलोक में किये हुए अशुभ कर्म इस लोक में फल प्रदान करते हैं । जैसे परलोक में किये हुए अशुभ कर्मों के फल स्वरूप जीव इस लोक में, हीन कुल में उत्पन्न होकर, बचपन से ही अंधा, कोड़ी, भादि होता है। इसी प्रकार परलोक में कृत शुभ फमों का फल सुख रूप इस लोक में प्राप्त होता है। जैसे पूर्व जन्म में आचरण किये हुए शुभ कर्मों के उद्य से वर्तमान जन्म में तीर्थकरत्व की
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प्राप्ति होती है । इस प्रकार निरूपण करना तीसरी निर्वेदनी कथा है ।
(४) चतुर्थी निर्वेदनी कथा - पूर्वभव में किये हुए अशुभ कर्म आगामी भव में दुःख रूप फल देने वाले होते हैं । जैसे पूर्वभव में किये हुए अशुभ कर्मों से जीव काक उलूक आदि के रूप में आगामी भव में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार परलोक( पूर्वभव) मैं किये हुए शुभ कर्म परलोक में ( आगामी भव में ) सुख रूप फल देते हैं । जैसे देवभववर्त्ती तीर्थकर का जीव अपने परलोक ( पूर्व भव ) में आचरण किये हुए शुभ कर्म का फल, परलोक ( अगले भव ) में भोगगा । इस प्रकार का कथन करना चौथी निवेदनी कथा है।
साधु-धर्म निरूपण
साधु को विकथाओं का सर्वथा परित्याग करके उक्त चार धर्म कथाओं द्वारा जिन शासन की प्रभावना करनी चाहिए ।
A
(३) निरापवाद प्रभावना - यदि कहीं कोई पाखण्डी, किसी धर्मात्मा पुरुष को, कुमार्ग की ओर आकृष्ट करके उसे भ्रष्ट कर रहा हो अथवा सच्चे संतो की अवहेलना करके उनकी महिमा को कलंकित करने की चेष्टा कर रहा हो, तो वहां जाकर, अपने विशुद्ध एवं तेजस्वी चरित्र - बल के प्रभाव से, वहां के प्रधान पुरुषों के साहाय्य से अथवा अपनी विद्वत्ता के बल से, वाद-विवाद करके सत्य वस्तु स्वरूप को प्रकट करना । वीतराग के शासन का प्रकाश करना निरापवाद प्रभावना है।
(४) त्रिकालज्ञ प्रभावना - शास्त्रों में वर्णित भूगोल, खगोल आदि का ज्ञान प्राप्त करे । भूकम्प, वायुप्रयोग, दिक्षाराग, पशुवाद, पक्षीवाद, और ज्योतिष संबंधी शास्त्रों का ज्ञाता बने । लाभ - श्रलाभ, सुख-दुःख जीवन-मरण के प्रसंगों पर अपने आत्मा को तथा अन्य धर्मात्माओं को सावधान रक्खे, विघ्न से रक्षा करे । संघ, धर्म आदि पर आने वाली विपदा का पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर अनुकूल उपायों की योजना करे यह प्रभावना का चौथा प्रकार है ।
(५) तपःप्रभावना - चतुर्विध आहार का परित्याग कर तेला, अठाई, मालक्षमण श्रादि तपस्या करके जिन शासन के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न करना तपः प्रभावना है ।
(६) व्रतप्रभावना -
-विषयों में आसक्त जीवों के लिए अपनी इच्छा का निरोध करना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है। ऐसी अवस्था में, भोगोपभोग की विपुल सामग्री और पर्याप्त भोग-शक्ति विद्यमान होने पर भी जो इच्छा का दमन करते हैं, उनके प्रति लोगों को साश्चर्य श्रद्धा-भक्ति का भाव उद्भूत होता है । श्रतएव तरुणावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन करना, विषयभोगों से विमुख रखना, विविध प्रकार के श्रभिग्रह धारण करना, इत्यादि व्रतों का अनुष्ठान करना और इससे धर्म की महिमा का विस्तार करना व्रत प्रभावना है
(७) विद्याप्रभावना - विविध प्रकार की विद्याओं का अध्ययन तथा साधन करके, उनके द्वारा जिन शासन का माहात्म्य प्रसारित करना विद्या प्रभावना है ।
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सवां अध्याय
[ ३६१ ] (5) कवित्व प्रभावना-काव्यकला अत्यन्त उच्चश्रेणी की कला है। मनुष्य के हृदय पर वह गहरा और स्थायी प्रभाव डालती है। वीर रस का काव्य श्रवण करके अनेक निराश और उत्साहहीन व्यक्तियों की भुजाएँ फड़कने लगती है । शृंगार मय काव्य सुनने से श्रोता की वासनाएं अंकुरित हो जाती हैं । करुणा रस की कविता का श्रवण नयनों से नीर का निर्भर प्रवाहित कर देता है । अतएव काव्य-रचना द्वारा जिन शासन का महत्व बढ़ाना कवित्व-प्रभावना है।
___यह स्मरण रखना चाहिए कि काव्य कला है और कला का सन्मान, मनुष्य को उन्नत बनाने में, उसे देवत्व की ओर आकृष्ट करने में तथा उसके सुप्त सुसंस्कारों को जागृत करने में है। जो कला धर्म का पोषण नहीं करती. प्रत्युत धर्म से विपरीत दिशा में जाती है, वह कला की वास्तविकता पाने की अधिकारिणी नहीं है । संस्कारवश पतन की ओर जाते हुए मनुष्य को जो एक धक्का और लगाती है वह कुरुप कला किसी काम की नहीं है। अतएव कवित्व के द्वारा वैराग्य रस का झरना बहाया जाय, धर्म एवं अध्यात्म की सरिता प्रवाहित की जाय, प्रातःस्मरणीय महापुरुषों के पावन चरितों का ग्रंथन किया जाय, इसीमें कला की सार्थकता है। प्रभावना के लिए मुनि को इसी प्रकार कवित्व का उपयोग करना चाहिए।
इस प्रकार प्रभावना के आठ भेद हैं । यही प्रभावना के सच्चे स्वरूप हैं। आधुनिक काल में प्रभावना की वास्तविकता बहुत अंशों में न्यून हो गई है और उसने वाह.रूप धारण कर लिया है । इस और विशेष लक्ष्य दिया जाना चाहिए।
अन्यान्य आचार्य-सम्मत गुणोंमें साधु के लिए दी गई उपमाओं के योग्य बना भी सम्मिलित है । यथा
उरगगिरिजलणसागरनहमलतरुगणसमो य जो होई।
भमरमियधरणीजलरुह-रविपवणसयो य सो समणो ॥ अर्थात् जो सर्प, पर्वत, अग्नि; समुद्र, श्राकरश, तरु, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल सूर्य और वायु के समान होता है, वह श्रमण है ? साधु की यह चारह उपमाएँ हैं और प्रत्येक को सात-सात प्रकार से घटित किया गया है । जैसे
(२) सर्प-(१) जैसे सर्प दूसरों के बनाये हुए घर में रहता है, स्वयं घर नहीं बनाता उसी प्रकार साधु अन्य के लिए बनाये हुए घर में निवास करे । (२) जैसे अगंधन कुलोत्पन्न सर्प त्यागे हुए विप का भक्षण नहीं करता इसी प्रकार साधु त्यागे हुए भोगों सो न भोगे (३) साधु की गति, सर्प की गति के सामन सरल । मोक्ष के अनुकूल होनी चाहिए । (४) जैसे सर्प सीधा बिल प्रवेश करता है इसी प्रकार साध आहार का कौर सीधा मुँह में उतारे (४) जैसे सर्प उतारी हुई केंचली-फो फिर धारण नहीं करता इसी प्रकार. साधु त्यक्त गृहस्थी को फिर ग्रहण न करे (६) सर्प के समान साधु दोष रूप कण्टकों से सदा सावधान रहे । (७) जैसे साँप से लोग भयभीत होते हैं इसी प्रकार लब्धिमान् साधु से देवता भी डरते हैं।
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[ ३६२ ]
__ साधु-धर्म निरूपण . - (२) पर्वत-(१) साधु पर्वत के समान अक्षीण मानसी लब्धि आदि रूप विविध औषधियों के धारक होते हैं (२) साधु पर्वतं के समान परीपह-उपसर्ग रूप वायु से कंपित नहीं होते (३) लाधु पर्वत के समान पशु-पक्षी, राजा-रंक श्रादि सभी के लिए श्राश्रय भूत होते हैं (४) साधु पर्वत के समान ज्ञान आदि सद्गुणों की सरिता का उद्गम स्थान होता है (५) साधु मेरू के समान उच्च गुणों के धारक होते हैं (६) साधु पर्वत के समान अनेक सद्गुण रूपी रत्नों के कर होते हैं (७) लाधु पर्वत के समान शिष्य-श्रावक आदि मेखला तथा शिखर आदि से शोभित होते है।
(३) अग्नि-१) साधु अग्नि के समान, ज्ञान श्रादि ईधन से तृप्त न हो.(२) साधु अग्नि के समान तपस्तेज ले सहित हो (३) साधु श्रग्नि के समान कर्म रूपी कचरे को जलावे ४) साधु अग्नि के समान मिथ्यात्व रूपी अंधकार का विनाश करे (५) साधु अग्नि के समान भव्यजन रूपी सुवर्ण को उज्जवल करे (६) साधु अग्नि की तरह जीव रूपी धातु को कर्म रूपी मृत्तिका से पृथक करे (७) साधु अग्नि के समान श्रावक-श्राविका रूप कच्चे पात्र को पक्का वनावे ।
(४) समुद्र--(१) साधु समुद्र के समान गंभीर हो (२) गुण रूपी रत्नों का आगर हो (३) तीर्थकरों द्वारा बांधी हुई मर्यादा का उल्लंघन न करे (४) श्रौत्पातिकी श्रादि वुद्धि रूपी नदियों को अपने में समावेश करे (५) एकान्तवादी मिथ्यात्वी रूपी मच्छ-कच्छों द्वारा किये हुए क्षोभ से क्षुब्ध न हो (६) समुद्र के समान कमी छलके नहीं (७) समुद्र के समान निर्मल अन्तरग वाला हो। ।
(५) आकाश-(१) साधु का मन आकाश के भाँति सदा निर्मल हो (२) श्राकाश की तरह साधु किसी के आश्रय की अपेक्षा न रक्खे (३) श्राकाश की भाँति ज्ञान आदि समस्त गुणों का भाजन हो (४) श्राकाश के समान अपमान-निन्दा रूपी शीत-उष्ण से विकृत न हो (५) श्राकाश के समान वन्दना-प्रशंसा से प्रफुल्लित न हो (६) श्राकाश के समान साधु चारित्र आदि गुणों द्वारा छेद को प्राप्त न हो (७) आकाश के समान शनन्त गुणों का धारक हो।
(६) तरु-(१] जैसे वृक्ष स्वयं सर्दी-गर्मी सहन करके अपने आश्रितों की रक्षा करता है उसी प्रकार साधु स्वयं कष्ट सहन करके पट्काय के जीवों की रक्षा करे । साधु वृक्ष के समान ज्ञान प्रादि रुपी फल प्रदान करे [३] वृक्ष के समान संसारी जीव रुपी पथिक को श्राश्रय दे [४] वृक्ष के लमान अपने को छेदन-भेदन करने वाले पर रुष्ट न हो।५] वृक्ष के समान पूजा करने वाले पर प्रसन्न न हो [६] वृक्ष के समान ज्ञान रुपी फलों का दान करके प्रत्युतकार की कामना न करे [७) घोर से घोर कष्ट श्रा पड़ने पर भी वृक्ष के समान अपना स्थान न बदले ।
(७) भ्रमर-(१) जैसे भ्रमर फूलों का रस लेते हुए फूल को कष्ट नहीं पहुंचाता, उसी प्रकार साधु आहार आदि लेने मे दाता को कष्ट न पहुंचाए (२) भ्रमर के समान, साधु गृहस्थ के घर रूप फूलों से श्रप्रतिवद्ध आहार आदि ग्रहण करे (३)
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नववां अध्याय
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जैसे भ्रमर बहुत फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस लेता है इसी प्रकार साधु गृहस्थों के नेक गृहों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करे (४) भ्रमर के समान श्रावश्यक्ता से - धिक आहार आदिरूपी रस का संग्रह न करे (५) साधु, भ्रमर के समान चिना आमंत्रण के ही भिक्षा के लिए गृहस्थी के घर पहुंचे (६ भ्रमर के समान निर्दोष आहार रूपी केतकीं से सन्तोषी रहे (७) भ्रमर के समान अपने लिए वना हुआ आहार न लेवे ।
(८) मृग - [१] लाघु मृग के समान पाप रूपी सिंह से भयभीत हो [२] मृग के समान दोष रूप सिंह से श्राक्रान्त आहार ग्रहण न करे [ ३ ] मृग के समान प्रति बंध रूप सिंह से डरता हुआ एक स्थान पर न रहे [४. मृग के समान रोग आदि कारणों से एक जगह रहे [५] रोग उत्पन्न होने पर मृग के समान उत्सर्ग औषधोपचार न करे [६] रोम उत्पन्न होने पर मृग के समान अन्य स्वजन आदि का आश्रय न चाहे [७] रोग मुक्त होने पर मृग के समान प्रतिबंध विचरण करे ।
(६) पृथ्वी - [ १ ) साधु, पृथ्वी के समान समभाव से शीत, उष्ण आदि सहन करे [२] पृथ्वी के समान संवेग, वैराग्य आदि रूप वसु [धन] को धारण करे [३] पृथ्वी
समान ज्ञान एवं धर्म रूपी बीजों की उत्पत्ति का कारण बने [४] पृथ्वी के समान अपनी [ अपने शरीर की ] शोभा- वृद्धि आदि न करे [५] पृथ्वी के समान, कष्ट देने वाले की किसी से फरियाद न करे [ ६ ] पृथ्वी के समान, अन्य जनों के संसर्ग से उत्पन्न हुए क्लेश रूपी कीचड़ का अन्त करे [७] पृथ्वी के समान साधु प्राण, भूत, जीव और सत्व का श्राधारभूत हो ।
. [१०] कमल - [१] साधु कमल के समान काम रूप कीचड़ से तथा भोगोपभोग रूप जल से अलिप्त रहे [२] साधु कमल के समान सदुपदेश रूपी शीतल सुरभि का संचार कर भव्यजीव रूप लोक को शान्ति एवं सुख प्रदान करे (३] पुण्डरीक कनल के लमान साधु वेष रूपी रूप तथा यश रूप सुगंध से सुशोभित हो [४] साधु उत्तम जन रूपी सूर्य के दर्शन से प्रफुल्लित हो [५] साधु कमल के समान विकसित रहे [६] साधु कमल के समान श्रईत् की श्राज्ञा रूपी सूर्य की ओर ही उन्मुख रहे [७] साधु कमल के समान धर्मध्यान, शुक्लध्यान से अपना अन्तर शुद्ध रखे ।
[११] सूर्य - [१] साधु सूर्य के समान ज्ञान रूप किरणावली के द्वारा धर्म का प्रकाश प्रसारित करे [२] सूर्य के समान भव्य जनों के हृदय-कमल का विकासक हो [३] सूर्य समान ज्ञानान्धकार का अंत करे [४] सूर्य के समान तपस्तेज से तेजस्वी हो [५] सूर्य के समान अपने प्रकृष्ट प्रताप से मिथ्यात्वी रूप तारागण की प्रभा को क्षीण करे [६] सूर्य के सदृश क्रोध रूप अनि के तेज को निरोहित करे [७] सूर्य के सदृश रत्नत्रय की सहस्त्र किरणों से सुशोभित हो ।
[१२] वायु- [१] साधु के समान सर्वत्र विहार करे [२] वायु के सहय अप्रतिबंध विहार करे [३] वायु के सदृश द्रव्य-भाव उपाधि से हलका हो [४] वायु
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साधु-धर्म निरूपण.
के सदृश धर्म रूप जीवन का दाता हो [५] वायु के समान पाप रूपी दुर्गंध और पुराय रूपी सुगंध का ज्ञापक हो [६] वायु के समान किसी के रोके रुके नहीं [७' 'वायु के समान साधुं अपनी शान्तिप्रद वैराग्य रूप लहरों से विषय - - कषाय रूपी ताप का . विनाश करे और शान्ति प्रदान करे ।
इन चारह उपमानों का सात-सात प्रकार से विवेचन होने से साधु की ८४ उपमाएँ निष्पन्न होती हैं और इन उपमाओं में साधु के विभिन्न गुणों का निरूपण किया गया है ।
दोषों का परित्याग किये बिना गुणों में पूर्णता नहीं सकती । अतः श्राचार्य सम्पन गुण प्राप्त करने के लिए दोषों का परिहार अनिवार्य है । साधु के गुणों का यहां तक जो परिचय दिया गया है, उनसे विपरीत स्वरूप वाले दोषों का परित्याग करना श्रावश्यक है । तथापि सुगमता के लिए यहां असमाधिजनक कतिपय दोषों का उल्लेख किया जाता है :
(१) अत्यन्तत्वरा से गमन करना असमाधि दोष है ।
(२) प्रकाशपूर्ण स्थान में नेत्रों से भूमि का निरीक्षण किये बिना अथवा अन्धकारमय स्थान को रजोहरण से प्रमार्जन किये बिना चलना असमाधि दोष है ।
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(३) जिस स्थान को देखा या प्रमार्जन किया हो, उसपर न गमन आदि करके अन्य स्थान पर गमन आदि करे तो असमाधि दोष है ।
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(१) बैठने या सोने के पाट आदि आवश्यकता से अधिक रक्खे तो श्रसमाधि दोष होता है ।
(५) प्राचार्य, उपाध्याय, वयोवृद्ध, गुरु श्रादि ज्येष्ठ महापुरुषों को उनकी मर्यादा की रक्षा न करते हुए वचन बोलना समाधि दोष है ।
(६) वयःस्थविर, दीक्षास्थविर, श्रुतस्थविरं इत्यादि ज्येष्ठ मुनियों की मृत्यु की कामना करना असमाधि दोष है ।
(७) प्राणी, भूत, जीव और सत्व के विनाश की वांछा करना - उनका मरण चाहना समाधि दोष है ।
(८) सदा संताप युक्त रहना, क्षण-क्षण में क्रोध करना असमाधि दोप है । (६) पीठ पीछे किसी की निन्दा करना असमाधि दोष है ।
(१०) कल यह काम करूँगा, परसों वह काम करूँगा, इत्यादि प्रकार से भविष्य सम्बन्धी निश्चयात्मक भाषा बोलना असमाधि दोष है । क्योंकि भविष्य पर भरोसा नहीं किया जा सकता । संभव है कल होने से पहले ही आयु का अन्त हो जाय अथवा विशिष्ट बाघा उपस्थित हो जाय और वह कार्य न हो सके। ऐसी अवस्था में यह भाषा असत्य हो जाती है ।
(११) नवीन क्लेश उत्पन्न करना असमाधि दोष है ।
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नवां अध्याय
[ ३६५ ] (१२) शान्त हुए क्लेश को फिर चेताना अलमाधि दोष है।
(१३) कालिक तथा उत्कालिक सूत्रों के पठन के समय का ध्यान न रखते हुए चर्जित काल में पढ़ना तथा चौंतीस प्रकार के असज्झाय में सज्झाय ( स्वाध्याय ) करना असमाधि दोष है।
(१४) सचित्त रज से भरे हुए पैरों को रजोहरण से प्रमार्जन किये बिना ही आसन पर बैठना तथा गृहस्थ के सचित्त जल आदि से युक्त हाथों से आहार लेना असमाधि दोष है।
(१५) एक प्रहर रात्रि व्यतीत होने से सूर्योदय तक तीन आवाज से बोलना असमाधि दोष है।
(१६) संघ में अनेकता फैलाना, संगठन को तोड़ना तथा मृत्युजनक क्लेश आदि उत्पन्न करना अलमाधि दोष है।
___ (१७) कटुक वचनों का प्रयोग करना, सदा झुंझला कर बोलना, किसी का तिरस्कार करना असमाधि दोष है।
__ (१८) स्वयं चिन्ता, खेद आदि करना और दूसरे को चिन्तित या खिन्न करना असमाधि दोष है।
(१६) नवकारसी श्रादि तपस्या न करता हुआ, सुबह से शाम तक अनेक बार खाना असमाधि दोष है ।
(२०) एषणा बिना ही आहार-पानी लेना असमाधि दोष है।
संयम की साधना के लिए इन दोषों का परित्याग करना आवश्यक है। इनके सेवन ले संयम दृषित होता है । यह दोष उपलक्षण मात्र हैं। इनसे शास्त्रों से प्रतिपादित सवल दोष आदि दोषों को भी समझकर त्याग करना चाहिए । आचारांग आदि में प्ररूपित अन्यान्य साधु के प्राचरण का भी प्राचार्य सम्मंत गुणों में समावेश करके साधु को अनुष्ठान करना चाहिए ।
___ साधु को नित्य अपूर्व ज्ञान-ध्यान की वृद्धि करते रहना चाहिए और वैराग्यवर्द्धन के निमित्त जगत् के एवं शरीर के स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए । इस प्रकार जिस उत्कट भावना के साथ दीक्षा ग्रहण की है वही उत्कट भावना चनाये रखना चाहिए। उसमें तनिक भी न्यूनता नहीं थाने देना चाहिए। ऐसा करने वाले मुनि शीघ्र ही सिद्ध, वुद्ध एवं मुक्त हो जाते हैं।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-नववा अध्याय समाप्तम्
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * . निपक्चन्न ।
। दसवां अध्याय ॥ .
प्रमाद-परिहार
श्री भगवान्-उवाचमूलः-दुमपत्तए पंडुरए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चइ ।
एवं मणुप्राण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए॥१॥ छायाः-दुमपत्रकं पाण्डुरकं यथा, नियतति रात्रिगणानामत्यये ।।
एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ १॥ . शब्दार्थः-गौतम ! जैसे रात्रि-दिन के समूह व्यतीत हो जाने पर पका हुआ पेड़. का पत्ता झड़ जाता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है । अतः हे गौतम ! एक समय मात्र का भी प्रमाद न कर।
भाष्यः-पिछले अध्याय में साधु के श्राचार का प्रतिपादन किया गया है। उस श्राचार का प्रति पालन सम्यक् प्रकार से तभी हो सकता है जव मुनि प्रतिपल सावधान रहे-सदा जागरूक रह कर अपनी श्रान्तरिक हलचलों का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करता रहे और उन पर अपना निरन्तर नियन्त्रण स्थापित रक्खे। ऐसा न किया जाय तो सन दुर्व्यापार में लीन हो जाता है और संयम दूषित हो जाता है। श्रतएव यहां सूत्रकार ने प्रमाद परिहार का उपदेश दिया है। . . .. जैसे कुछ दिन व्यतीत होने के पश्चात् पेड़ का पका हुआ पत्ता पृथ्वी पर पड़ जाता है-अपने स्थान से च्युत हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन परिमित हैं.और कुछ समय में, श्रायु पक जाने पर, वह समाप्त हो जाता है। . .. . यह कथन नैसर्गिक मृत्यु की अपेक्षा समझना चाहिए । यदि किसी की
मामय न हो तो भी उसका जीवन स्थायी नहीं रह सकता, आयु कर्म के समाप्त होने पर उसका विनाश अवश्यम्भावी है। श्रायु की स्वाभाविक समाप्ति के पूर्व
बीवन का विशेष कारणों से अन्त हो जाता है, जैसे वृक्ष का पत्ता पकने से पूर्व ही तोड़ा जाकर नीचे गिरता है। ..
___ इस कथन से यह घोषित किया गया है कि जीवन की स्थिति का विश्वास नहीं किया जा सकता। कोन जाने कब इस जीवन की इतिश्री हो जायगी ! श्रतएव
तक यह स्थिर है तब तक इसका श्रात्मकल्याण के लिए अधिक से अधिक उप
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दसवां अध्याय योग कर लेना चाहिए । मनुष्य-शरीर ही मुक्ति का निमित्त है। इस शरीर के विना मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। इसी कारण सम्यग्दृष्टि देव भी मानवभव पाने की लालसा करते हैं । अत्यन्त प्रबल पुण्य के उदय से इस भवन की प्राप्ति होती है । बहुत-सा पुण्य रूपी मूल्य चुका कर इल देह को खरीदा जाता है।
मनुष्यभव में ही विशिष्ट विवेक प्राप्त होता है। इसी में बुद्धि का प्रकर्ष होता है। इसी शरीर का निमित्त पाकर मुनिजन षष्ठ श्रादि उच्च गुणस्थान प्राप्त करते हैं। ऐसे अमूल्य जीवन को प्राप्त करके यदि विशेष आत्मकल्याण की साधना नहीं की तो यह भव प्राप्त ही निरर्थक हो गया। इतना ही नहीं, गांठ की वह पूंजी भी गई जिससे इसकी प्राप्ति हुई थी। साथ ही विषयभोग भोग कर आगे के लिए भारी ऋणी भी वन गया, जिसे चुकाने में ही न जाने कितने भव व्यतीत करने पड़ेगे ?
एक बार मानव-जीवन वृथा व्यतीत कर देने के बाद दूसरी बार इसकी प्राप्ति कब होगी, यह नहीं कहा जा सकता। संसार में जीव-जन्तुओं की, कीट-पतंगों की कितनी जातियां हैं ! उन सब में जाने से, तथा नरक-निगोद आदि के भयंकर जीवन से वर्च कर दुर्लभ मनुष्य जीवन पाना बड़ा ही कठिन है।
इसलिए भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! तू एक समय का भी प्रमाद न कर अर्थात् प्रमाद की अवस्था में एक भी क्षण व्यतीत न कर । सदा अप्रमत्त होकर निचर । सदैव संयम की ओर दृष्टि रख । निरन्तर अात्मा की ओर उन्मुख बना रह।
जिस क्रिया से जीव बेभान हो जाता है, हिताहित के विवेक से विकल वन जाता है, जिसके वश होकर जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष मार्ग के प्रति उद्यम करने में शिथिलता करता है, उसे प्रमाद कहते हैं।
प्रमाद के पांच प्रकार हैं-[१] मद्य २] विषय [३] कपाय [४] निद्रा और [५] विकथा । कहा भी है
मजं विषयकसाया, निदा विगहाय पंचमी भणिया। .
एए पंच पमाया, जीवं पाति संलोर ॥ अर्थात् मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा, ये पांच प्रमाद जीव को संसार में गिराते हैं।
(१) मद्यप्रमाद-मदिरा आदि नशा फरने वाले पदार्थों का सेवन करना मद्य प्रमाद कहलाता है । इससे शुभ परिणामों का नाश और अशुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है । मदिरा में असंख्य जीवों की उत्पत्ति होने से मादिरापान करने वाला घोर हिंसा का भागी होता है। मदिरा के दोष इस लोक में प्रत्यक्ष देखे जाते हैं और शास्त्रों से परलोक संबंधी अनर्थों का भी पता चलता है। इस से लज्जा, लक्ष्मी विवेक बुद्धि स्मरण शक्ति, शारीरिक बल श्रादि का विनाश होता है। चेहरे की तेजस्विता का मदिरा हरण कर लेती है और अनेक प्रकार के पापी में प्रवृत करती है। इसलिए सदिरापान विवेकी जनों द्वारा सर्वथा त्याज्य है। इसी प्रकार नशा करने वाले अन्या
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प्रमाद-परिहार न्य पदार्थों के सेवन से भी सदा बचना चाहिए, क्योंकि वे भी पूर्वोक्त दोषों का पोषण करते हैं।
(२) विषय प्रमाद-स्पर्श, रस, गेंध, रूप और शब्द रूप इन्द्रियों के विषय सेवन को विषय प्रमाद कहते हैं । शास्त्रकारों ने विषयों को विष के समान भाव प्राणों का नाशक बताया है और विषादजनक कहा है, इसी कारण इन्हें विषय कहते हैं।
एक-एक इन्द्रिय के विषय में प्रासक्त हाथी, मृग आदि पशु-पक्षियों को भी अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है तो जो पांचों इन्द्रियों के विषय में श्रासक्त होते हैं उनकी दुर्दशा का क्या पार है ? विषयों में ऐली विचित्रता है। कि ज्यों-ज्यों इनका लेवन किया जाता है त्यों-त्यों भोग की लालसा घटने के बदले बढ़ती ही जाती है । इन से कभी किसी जीव को तृप्ति नहीं मिली और न मिल ही सकती है। इसीलिए कहा है-'भोगा न भुक्ता वयमेव मुक्ताः' अर्थात् भोगी जीव भोगों को नहीं भोगता श्रापितु भोग ही उसे भोगते हैं।
विषय भोग अतृप्तिकारक हैं, यही नहीं, वे भोगाभिलाषा के बईक होने से जीव के चित्त में स्थायी व्याकुलता उत्पन्न करते हैं । उस व्याकुलता के वशीभूत होकर प्राणी अधिकाधिक भोग-सामग्री के संचय का प्रयत्न करता है । और उसके लिए उसे जो घोर विडंबनाएं उठानी पड़ती है वे प्रत्यक्ष हैं। इस प्रकार इन्द्रियों के विषय किसी भी अवस्था में ग्राह्य नहीं हैं । जो पुरुष उनसे विमुख हो, जाते हैं, उनकी लालसा की जड़ को ही अपने मन रूपी मही से उखाड़ फेंकते हैं, वही निराकुल होकर लच्चे सुन का अनुभव करते हैं, वही तृप्ति का अपूर्व प्रास्वादन करते हैं, वही इस लोक में सुखी हैं, वही परलोक में परमानन्द के पात्र बनते हैं। अतएव विषय रूप प्रमाद का परित्याग करने में ही सच्चा श्रेय है।
(३) कषाय प्रमाद-क्रोद्ध, मान, माया और लोभ रूप कषायों के वशीभत होकर विवेक को भूल जाना, कषाय प्रमाद है । कषायों का स्वरूप कषाय-अध्ययन में निरूपण किया जायगा।
निदा प्रमाद-सोने की वह क्रिया, जिसमें चेतना अव्यक्त हो जाती है. निदा कहलाती है। शरीर की रक्षा के लिए जितनी निद्रा अनिवार्य है, उसका परिहार न किया जासके तो भी अनावश्यक निद्रा का अवश्य त्याग करना चाहिए । निद्राशील पुरुष न तो ज्ञान-ध्यान का विशेष सेवन कर सकता है और न शरीर को ही स्वस्थ रख सकता है। अतएव आवश्यकता से अधिक सोना तथा असमय में सोना विवेक जनों द्वारा सर्वथा त्याज्य है।
. (५) राग-देश के वश होकर स्त्री श्रादि के संबंध में निरर्थक वात करना विकथा प्रमाद है। विकथा प्रमाद के चार भेद हैं-(१) स्त्री कथा .२) भक्त कथा (३) देश कथा (४) राज कथा।
इन चारों कथाओं के चार-चार भेद हैं । स्त्री कथा के चार भेद इस प्रकार हैं-(१) स्त्री जाति कथा (२) स्त्री कुल कथा (३) स्त्री रूप कथा ४) स्त्री वेप कथा ।.
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ভূষা স্বাস্থ
[ ३६६ ] (१) स्त्री जाति कथा-व्राह्मण श्रादि जाति की स्त्रियों की प्रशंसा करना अथवा लिन्दा करनर ।
(२) स्त्री कुल कथा-किसी विशेष कुल की स्त्रियों की प्रशंसा करना अथवा निन्दा आदि करना।
(३) स्त्री रूप कथा-भिन्न भिन्न देश की स्त्रियों के रूपों का बखान करना अथवा स्त्रियों के अंगोपांगो का वर्णन करना ।
(४) स्त्री वंश कथा-नियों की वेणी श्रादि का वर्णन करना या विभिन्न देशों के स्त्री संबंधी पहनावों का वर्णन करना।
स्त्री कथा करने से तथा सुनने से मोह की उत्पत्ति होती है । लोक में निन्दा होती है। ब्रह्मचर्य का विघात होता है। स्त्री कथा करने वाला संयम से भ्रष्ट हो जाता है, कुलिंगी हो जाता है या संयमी के वेश में रहकर घोर असंयम का सेवन करता है।
(२) भक्त कथा--भक्त कथा अर्थात् भोजन संबंधी कथा करना। इसके भी चार भेद हैं-(१) आवाय कथा (२) निर्वाय कथा (३) श्रारंभ कथा और (४) निष्ठान कथा।
(३) श्राबाय भक्त कथा-भोजन बनाने की विधि का निरूपण करना, जैसे अमुक भोजन बनाने में इतनी शस्कर, इतना वृत, आदि लगता है।
(२) निर्वाय अस्त कथा-संसार में इतने पक्वान्न हैं, इतनी तरह की मिठाई होती हैं, आदि-आदि कहना।
(३) प्रारंभ भक्त कथा-पोजन संबंधी प्रारंभ की कथा करना, जैसे इल भोजन में इतने जीवों की हिंसा होगी, शादि।
(४) मिष्ठान भक्त कथा-इस भोजन के तैयार होने में इतना धन व्यय होगा, . आदि कथन करना।
आहार संबंधी कथा करने से जिह्वा-लोलुपता की चद्धि होती है। प्रारंभ आदि दोषों का भागी होना पड़ता है । आहार-लोलुपता त्यागने के लिए भक्त कथा का त्याग करना आवश्यक है।
(३) देशकथा-देश कथा भी चार प्रकार की है। प्रथा-(१) देश निधि कथा (२) देश विकल्प कथा (३) देश छंद कथा और (४) देश ने पथ्य कथा ।
(९) देश विधि कथा-विभिन्न देशों को भोजन, भूमि आदि की रचना का वर्णन करता, वहां भोजन के शारंभ में क्या किया जाता है, क्या-क्या वस्तु खाई जाती है, आदि कथन करना।
(२) देश विकल्प कथा-किस-किस देश में कौन-कौन सा धान्य उपजता है, - इत्यादि चखान करना तथा विभिन्न देशों के मकान, कूप, तालाव श्रादि का वर्णन
करना।
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[ ३७० ]
प्रमाद-परिहार(६) देश छंद कथा--विभिन्न देशों में विवाह आदि की जो भिन्न-भिन्न प्रथाएँ प्रचलित हैं, इनका कथन करना । जैसे-दक्षिण में मामा की लड़की के साथ विवाह . संबंध किया जाता है, अरब में काका की लड़की से भी विवाह किया जा सकता है, श्रादि।
(४) देश ने पथ्य कथा--विभिन्न देशीय स्त्री-पुरुषों के वेश, विभूषा और स्वभाव आदि का वर्णन करना।
देश कथा करने से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, और राग-द्वेष से कर्म-वध होता है। ज्ञान-ध्यान आदि की साधना में विघ्न पड़ता है और अनेक अचिन्त्य. अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं । अतएव भक्त कथा सर्वथा त्याज्य है। .
(४) राज कथा-राजा संबंधी कथा करना राज कथा है। इसके भी चार भेद है। जैसे-(१) राज-अतियान कथा (२) राज-नियाण कथा (३) राज-बलबहान कथा तथा (४)राज-कोष-श्रागार कथा। .
(१) राज-अतियान कथा-किसी राजा के नगर प्रवेश का वर्णन करना तथा उस समय के उसके ऐश्वर्य का वस्नान करना।
(२) राज-निर्याण कथा-राजा के नगर से बाहर निकलने का तथा तत्कालीन ऐश्वर्य का वर्णन करना।
(३) राज-बलवाहन कथा--राजा की सेना का तथा उसके रथ, घोड़ा, हाथी आदि का वर्णन करना। ...
(४) राज-कोष आगार कथा--राजा के खजाने का वर्णन करना और उसके भोजन सामग्री वाले कोठार आदि का वर्णन करना।
राज कथा करने से अनेक अनर्थ होते हैं । राजा आदि इस कथा को सुनकर - साधु पर गुप्तचर या चोर होने का संदेह करते हैं। अगर कभी कोई वस्तु चोरी चली
गई हो तो इस कथाकार को ही चोर समझकर सताते हैं । राजकथा सुनने वाला साधु अगर पहले राजा हो तो उसे अपने भोगोपभोगों का स्मरण हो पाता है अथवा किसी साधु को उसी प्रकार के भोगोपभोग, ऐश्वर्य श्रादि प्राप्त करने की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार राज कथा अनेक अनर्थों की जननी है।।
___ यह सब विकथाएँ संयम-जीवन की साधना से प्रतिकूल हैं। निरर्थक हैं। संयम में विघ्नकर हैं । श्रतएव इनका कहना और सुनना सर्वथा हेय है। . इस प्रकार जो साधु पांचों प्रमादों का परित्याग करता है वही अपने अल्प- कालीन जीवन का सार्थक उपयोग करता है। वही अपने वर्तमान को तथा भविष्य को कल्याण-परिपूर्ण बनाकर लोकोत्तर सुख का पात्र हो जाता है।
भगवान् ने अपने प्रधान अन्तेवाली गौतम को एक समय मान भी प्रमाद न करने का उपदेश दिया है। इससे प्रतीत होता है कि जीवन के निर्माण में एक समय का भी बहुत अधिक महत्व है।
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दलवां अध्याय
[ ३७१ ] काल के सब से छोटे अंश को 'लमय' कहते हैं । यह जिनागम में प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द है । समय इतना सूक्ष्मतम कालांश है कि साधारणतया उसकी कल्पना करना भी अशक्य है। एक बार पलक मारने में अगर असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं तो एक 'समय' का ठीक-ठीक परिमाण कैसे जाना जा सकता है !
यह सूक्ष्मतर कालांश भी हमारे जीवन के वनाव-बिगाड़ में बड़ा भाग लेता है। जिसके अन्तःकरण में एक समय के लिए भी अशुचि विचार का संचार होता है, वह अपनी निर्सलता में एक धब्बा लगा लेता है। वह अशुचि विचारों के प्रवेश के लिए अपने हृदय के किवाड़ खोल देता है। अशुचि विचारों के लिए एक मार्ग वन जाता है, जिसके द्वारा वे पुन:-पुनः वहां आते और जाते हैं। धीरे-धीरे वह अन्तःकरण उन दुर्विचारों का निवास-केन्द्र बन जाता है और अन्तःकरण की शुचिका का अन्त आ जाता है।
एक 'समय' मात्र के लिए आये हुए अशुचि विचार अन्तःकरण में क्या-क्या उत्पात मचाते हैं, यह अब सहज ही समझा जा सकता है। शास्त्रकार कहते हैं कि जीव एक समय में अनन्तानन्त कर्म-परमाणुओं का बन्ध करता है। कहा भी है
सिद्धाणंतिमभागं, अभवसिद्धादणंत गुणमेव ।
समयपवद्धं बंधदि, जोगवसादो दु विसरित्थं ॥ । अर्थात्-जीव, अनन्तानन्त प्रमाण वाली सिद्ध-जीवराशि के अनन्तवें भाग और अनन्त प्रमाण वाली अभव्य-जीवराशि से अनन्त गुणा अधिक समय प्रबद्ध का एक समय में बंध करता है। योग की तीव्रता होने पर इससे भी अधिक कर्म-प्रवद्धों का बंधन हो सकता है।
एक समय में अनन्त समय प्रवद्धों का बंध होता है और एक-एक समय प्रबद्ध में असंख्य-कर्म परमाणु होते हैं। यदि किसी पुरुप के हृदय में एक समय के लिए भी अशुभ विचारों का उदय होता है तो वह इतने बहुसंख्यक अशुभ कर्म परमाणुओं का बंध करता है और यदि शुभ विचारों का उदय होता है तो इतने ही शुभ कर्मपरमाणुओं का बंध करता है।
अनन्त शुभ या अशुभ फर्म-परमाणुओं का बंध एक 'समय' पर निर्भर है, पर इतने में ही 'समय' का महत्व पूर्ण नहीं हो जाता । बंधे हुए वे कर्म जीव पर अपना चिरकाल तक प्रभाव डालने रहते हैं और उनकी संतति निरन्तर चलती रहती है।
यह सब एक 'समय' मात्र की भली-बुरी कमाई है। इससे यह समझना कठिन नहीं रहता फि एक 'समय' भी प्रमाद करने का निषेध भगवान् ने क्यों किया है ? वास्तव में एक 'समय' भर का प्रमाद अनेक भव-भवान्तर में जीव को दुःखदायक होता है। इसलिए प्रति समय अप्रमत्त भाव में विचरना चाहिए।
गाथा में रात्रि शब्द उपलक्षण है । उससे दिन-रात का ग्रहण होता है । अथवा पनि शब्द सामान्य रूप से काल-वाचक यहां विवक्षित है।
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[ ३७२ .
प्रमाद-परिहार . मनुष्यों के अतिरिक्त तिर्यञ्चों श्रादि का जीवन भी नाशशील है । संसार में किसी का जीवन स्थिर नहीं रहता। फिर भी सूत्रकार ने यहां ' मणुाण जीवियं' अर्थात् मनुष्यों के जीवन के साथ ही वृक्ष के पत्ते की तुलना की है । इसका कारण यह है कि मनुष्य जीवन में ही प्रमाद का सर्वथा परिहार किया जा सकता है। मनुष्य ही अप्रमत्त बन सकता है। इसलिए उसे ही अप्रमत्त बनने की प्रेरणा की गई है। आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए। . मूल:-कुसग्गे जह अोस बिन्दुए, थोवं चिट्टई लम्बमाणए ।
एवं मणुप्राण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२॥ छाया:-कुशाग्ने यथाऽवश्याय बिन्दुः, स्तोक तिष्ठति लम्बमानकः। ..
एवं मनुजानां जीवितं, लमयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२॥ ' शब्दार्थ:-हे गौतम ! जैसे कुश की नोंक पर लटकता हुआ ओस का बूंद थोड़ी ही देर ठहरता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है । इसलिए एक समय मान भी प्रसाद न करो।
भाष्यः-पूर्व गाथा में मानव-जीवन की अनित्यता का वर्णन करने के पश्चात् यहां दूसरी उपमा देकर फिर उसकी अनित्यता का निरूपण किया गया है। इसका अभिप्राय मानव-जीवन की अत्यन्त अनित्यता का प्रदर्शन करना है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य का जीवन अत्यन्त अस्थिर है । पूर्वी के अग्रभाग पर श्रोस का जो बिन्दु लटक रहा है वह दीर्घ काल तक नहीं ठहरता, कतिपय क्षणों के पश्चात् ही वह मिट्टी में मिल जाता है, उसी प्रकार मानव-जीवन भी कतिपय क्षणों में ही-समाप्त हो जाता है।
शरीर एक पीजरे के समान है। इसमें जीव रूपी हंस बंद है। पीजरे के अनेक द्वार खुले हुए हैं। एसी दशा में हंस कभी भी उड़ सकता है। उसके उड़ने में कोई
आश्चर्य नहीं होना चाहिए । आश्चर्य तो यह हो सकता है कि वह अब तक उड़ क्यों नहीं गया।
. मनुष्य संसार में सदा ही देखता रहता है कि दूसरों का जीवन अानन-फानन समाप्त हो जाता है। एक व्यक्ति चैठा वाते कर रहा है, हास्यविनोद में पूर्णतया निमग्न है, उसी समय हृदय की गति अवरुद्ध हो जाती है और जीवन का अन्त श्रा जाता है। कोई बैठा-बैठा अचानक जमीन पर लुढ़क पड़ता है, कोई ठोकर लगते ही चल बसता है। जीवन की इस प्रकार क्षण भंगुरता को प्रत्यक्ष करता हुश्रा भी मनुष्य अपने को अजर-अमर-सा मानता है। वह नाना प्रकार की व्यवस्थाएं सोचता रहता है, अन-गिनते मनोरथों का सेवन करता है। कल यह करेंगे, परसों वह करेंगे। एकवर्ष बाद ऐसा करेंगे, दस वर्ष बाद वैसा करेंगे । पर पल की प्रतीति नहीं। काल सहसा सामने आजाता है और संकल्पों का सत्यानाश करके जीवन का ध्वंस कर डालता है।
मृत्यु एक क्षण भर की भी भिक्षा नहीं देती । तीर्थकर भी अपनी आयु बढ़ा नहीं
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दसवां अध्याय
[ ३७३ ] सकते तो औरों की कौन-सी बात है ! सामान्य जन किस गिनती में हैं ? संसार की समस्त सम्पत्ति, विशाल लाम्राज्य, वृहत् परिवार, सभी कुछ यहां का यहां रह जाता है और जीव अकेला-एकदम अकेला, पर अपने किये हुए कर्मों की पोटली लाद कर, महाप्रयाण के लिए चल पड़ता है । कौन उस समय उसकी सहायता करता है ?
ऐसे श्रनित्य, अध्रुव, अस्थायी, क्षणभंगुर जीवन को पा करके जो प्रमाद का सेवन करते हैं, अपने अनमोल जीवन-काल को विषय-भोग आदि कुत्सित कार्यों में व्यतीत करते हैं, जीवन की सफलता के लिए जो कभी प्रयत्न नहीं करते, वे नेत्रों के सद्भाव में भी अंधे हैं । वे संज्ञी होते हुए असंज्ञी के समान हैं । चेतनावाले होने पर
भी जड़ है । वे अपने जुद्र वर्तमान के लिए अनन्त भविष्य को दुःखपूर्ण बनाते हैं। चिन्तामणी को खोकर बदले में पत्थर का टुकड़ा लेना चाहते है। वे कल्पवृक्ष को उखाड़ कर एरंडकी स्थापना करते हैं। वे अविवेकी है, अकुशल है, अज्ञान हैं।
जो महापुरुष जीवन की अल्पकालीनता का विचार कर के उसके सहारे , शाश्वत सुख प्राप्त करने के प्रशस्त प्रयास में रत रहते हैं, उनका जीवन सफल है। वे धन्य हैं, मान्य हैं। उन्होंने जगत् के समक्ष उज्ज्वल उदाहरण उपस्थित किया है।
अतएव भगवान् कहते हैं--हे गौतम ! तुम एक लमय का भी प्रमाद मत करो । अपने जीवन का प्रत्येक समय लोकोत्तर धर्म की साधना में व्यतीत करो। अप्रमत्त भाव में विचरो । श्रात्मा के साथ मन का सान्निध्य साधों । आत्मा रूपी निर्मल सरोवर में मन को डुबोए रहो । उसे बाहर निकालकर काम के कीचड़ में सत फंसाओ। मूल:-इइ इत्तरअम्मि पाउए, जीवियए बहुपचवायए।
विहुणाहि रयं पुरे कडं, समयंगोयम ! मा पमायए।३। छायाः-इतीत्वर श्रायुधि, जीवितके बहुप्रत्यवायके ।
विधुनीहि रजः पुराकृतम, समयं गीतम ! मा प्रमादीः ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:-निरपक्रम-आयु अत्यन्त अल्पकालीन है, और सोपक्रम आयु अनेक . प्रकार की विघ्न-बाधाओं से परिपूर्ण है । अतएव पूर्वोपार्जित कर्म रूपी रज को धो डालो, हे गौतम ! समय मात्र का प्रमाद मत करो।
__ भाष्यः-शास्त्रकार फिर जीवन की अल्पकालीनता का वर्णन करते हुए प्रमादपरिहार की प्रेरणा करते हैं।
प्रकृत गाथा में श्रायु को इत्वर अर्थात् स्वल्प समय स्थायी और जीवन को अनेक विघ्न-बाधाओं से व्याप्त बतलाया गया है। वस्तुतः श्रायु का सद्भाव हो जीवन कहलाता दें, अतएव दोनों में के ई मौलिक अन्तर नहीं है, फिर भी यहां दोनों का जो पृथक् उल्लेख किया है वह सोपक्रम और निरूपक्रम थायु काभेदप्रदार्शत करने के लिए। आयु का तात्पर्य या निरूपक्रम आयु है और जीवन का अर्थ सोपक्रम प्रायु है।
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[ ३७४ ]
प्रमाद-परिवार
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सार यह है कि जो प्रायु श्रध्यवसान, निमित्त आदि कारणों से नियत समय से पूर्व ही भोग ली जाती है वह सोपक्रम श्रायु कहलाती है । जो आयु नियत समय तक-पहले बांधी हुई काल - मर्यादा के अनुसार ही भोगी जाती है, वह निरूपक्रम कहलाती है ।
उपक्रम विष, शस्त्र, भय आदि है, जिनसे आयु निश्चित समय के पूर्व ही मुक्त होकर टूट जाती है । उनका उल्लेख पहले किया जा चुका है । यहां शास्त्रकार यह प्रकट करते हैं कि यदि श्रायु निरूपक्रम हो, उसे अकाल में नष्ट करने के साधन विद्य. मान न हों तो भी वह सदा विद्यमान नहीं रह सकती वह भी अल्पकालीन ही है । और जो आयु सोपक्रम होती है वह भी अस्थिर ही है । उपक्रमों का संयोग मिलते ही उसका अन्त हो जाता है । उपक्रमों का वर्णन इस प्रकार किया गया है:
दंड - कस - सत्थ - रज्जू, उद्गपडणं विसं वाला । सीरहं अरइभयं, खुहा पिवाला य वादी य ॥ मुत्त पुरीसनिरोदे, जिन्नाजिने य भोयां बहुसो । घंसणघोलन पीलण - आउस्ल उवक्कमा एए ॥
अर्थात्-दंड, चावुक, तलवार बंदूक आदि शस्त्र, रस्ती, श्रग्नि पानी में डूबना, विष, सर्प, शीत, उष्ण, अरति, भय, भूख, प्यास, रोग, मूत्रनिरोध, मलनिरोध, कच्चा पक्का भोजन, अधिक भोजन, घिला जाना, मसला जाना, कोलू आदि में पेरा जाना, यह सब श्रायु के उपक्रम हैं । इनसे अकाल में ही श्रायु का अन्तु आजाता है । यह उपक्रम उपलक्षण मात्र हैं । इनके अतिरिक्त भूकंप, मकान का गिरना आदि अन्यान्य कारणों से भी आयु का अकाल में विनाश हो सकता है ।
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इन निमित्तों से अनगिनते प्राणियों के प्राणों का अन्त होते देखा जाता है । इससे सहज ही यह कल्पना हो सकती है कि जीवन को नष्ट करने वाली कितनी अधिक सामग्री संसार में भरी हुई है । इतने विरोधियों और विघ्नों के विद्यमान होते हुए भला कौन महासाहसी व्यक्ति भी कल तक का भरोसा कर सकता है ? श्रतः भव्य जीवों ! जीवन का विश्वास न करके, आत्महित के साधक कार्यों में ही अहर्निस रत रहो । शीघ्र से शीघ्र महान उद्देश्य की प्राप्ति हो, ऐसा प्रयत्न करो । तनिक भी प्रमाद न
करो भगवान् ने इसीलिए कहा है - गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो ।
मूल:- दुल्ल खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥
छाया:- दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः, चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । गाढाच विपाकाः कर्मणां समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ४ ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम् ! सब प्राणियों को, मनुष्य भव चिरकाल तक भी दुर्लभ हैदीर्घकाल व्यतीत होने पर भी उसकी प्राप्ति होना कठिन है, क्योंकि कर्मों के फल प्रगाढ़ हूँ । इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद न करो ।
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दसवां अध्याय
[ ३७५ भाष्यः-कोई-कोई मनुष्य यह विचारते हैं कि यदि इस जीवन का अन्त अचानक ही हो गया तो भी हानि है ? आत्मा नित्य है, उसका कभी विनाश नहीं होता एक जन्म के पश्चात् पुनर्जन्म धारण करना ही पड़ेगा, तब उसी आगामी जन्म में शेर कार्य सिद्ध कर लेगे । इस जन्म में विषयभोगों का सेवन करके भावी भव में प्रात्मकल्याण कर लेंगे। अभी क्या जल्दी है ? - इस भ्रान्ति युक्त विचारणा का निरसन प्रकृत गाथा में किया गया है । अगवान् कहते हैं-आगामी भव मनुष्य भव ही होगा, ऐसा कौन छद्मस्थ जानता है ? विशेष तया जो लोग यह जीवन विषय-वासनाओं के सेवन से, अर्थ संचय करने में, हिंसा श्रादि घोर पाप कर्म करने में, व्यतीत करेंगे, महारंभ और महापरिग्रह करके भोग लामग्री को एकत्र करने में दत्तचित्त रहेंगे उन्हें आगामी भव में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? अागासी भव की बात रहने दीजिए, उन्हें तो चिरकाल में भी मनुष्य भव प्राप्त होना कठिन है।
इस प्रकार के भोगी प्रमादी जीव आमामी भव में मनुष्यत्व से ही वंचित नहीं रहते किन्तु उन्हें अपने किए हुए कर्मों के भयंकर फल भी भुगतने पड़ते हैं। नरक गति तथा तिर्यच गति की घोर यातनाएँ उन्हें सहनी पड़ती हैं । इन भवों में मुक्ति की साधना भी नहीं हो सकती । सिवाय मनुष्यभव के, अन्य किसी भी भव में जीव अप्रमत्त अवस्था नहीं प्राप्त कर सकता । देवगति और नरकगति में अधिक से अधिक चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त होता है और तिर्यञ्च गति में, क्वचित् पंचम गुणस्थान की उपलब्धि हो सकती है। मुक्ति की साधना के लिए एक मात्र मनुष्यभव ही साधन है। अतएव इस विचार का त्याग करके, कि आगामी भव में आत्मकल्याण करलेंगे, इस जन्म को प्रमत्त होकर नहीं गवाना चाहिए । चिरकाल तक चौरासी लाख जीव योनियों में भ्रमण करने के पश्चात, भव-भव में अनेक पुण्य करने से इसकी प्राप्ति हुई है। प्रात्मदित का यह सर्वश्रेष्ट अवसर है । विवेक-बुद्धि, अविकल इन्द्रियां, सत्कुल में जन्म, सद्धर्म का श्रवण, सुगुरुओं की संगति, आदि अनुकूल निमित्त पाकर अवसर नहीं चूकना चाहिए । इसलिए एक समय मात्र का भी प्रमाद न करो। मूलः-पुढविकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा एमायए ॥५॥ छायाः-पृश्चिकायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत् ।
काल संख्यातीतं, समय गौतम!मा प्रमादीः॥५॥ शब्दार्थः-हे गौतम ! पृथ्वीकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट असंख्य काल तक वहां रहता है, इस लिए समय मात्र का भी प्रमाद न करो।
भाष्यः- मनुष्यभव दुर्लभ है, यह सामान्य रूप से अनन्तर गाथा में कहा गया था । उसीको विस्तार से समझाने के लिए अब यह बतलाया जाता है कि जीव किस-किस काय में जाकर कितना-कितना समय यहां व्यतीत करता है ? इस
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[ ३७४ ]
प्रमाद - परिहार
सार यह है कि जो प्रायु श्रध्यवसान, निमित्त आदि कारणों से नियत समय से पूर्व ही भोग ली जाती है वह सोपक्रम श्रायु कहलाती है । जो आयु नियत समय तक - पहले बांधी हुई काल मर्यादा के अनुसार ही भोगी जाती है, वह निरूपकम कहलाती है ।
उपक्रम विष, शस्त्र, भय आदि है, जिनसे आयु निश्चित समय के पूर्व ही मुक्त होकर टूट जाती है । उनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। यहां शास्त्रकार यह प्रकट करते हैं कि यदि श्रायु निरूपक्रम हो, उसे अकाल में नए करने के साधन विद्य. मान न हों तो भी वह सदा विद्यमान नहीं रह सकती वह भी अल्पकालीन ही है । और जो आयु सोपक्रम होती है वह भी अस्थिर ही है । उपक्रमों का संयोग मिलते ही उसका अन्त हो जाता है । उपक्रमों का वर्णन इस प्रकार किया गया है:दंड-कस-सत्थ-रज्जू, उद्गपडणं विसं वाला | सीरहं अभयं, खुहा पिवासा य वादी य ॥ मुत्त पुरीसनिरोदें, जिन्नाजिन्ने य भोयां बहुसो | घंसणघोलन पील- आाउस्त उवक्कमा एए ॥
अर्थात्-दंड, चावुक, तलवार बंदूक आदि शस्त्र, रस्ती, अग्नि पानी में डूबना, विष, सर्प, शीत, उष्ण, रति, भय, भूख, प्यास, रोग, मूत्रनिरोध, मलनिरोध, कच्चा पक्का भोजन, अधिक भोजन, घिला जाना, मसला जाना, कोलू, आदि में पेरा जाना, यह सब आयु के उपक्रम हैं । इनसे अकाल में ही आयु का अन्त श्राजाता है । यह उपक्रम उपलक्षण मात्र हैं । इनके अतिरिक्त भूकंप, मकान का गिरना श्रादि श्रन्यान्य कारणों से भी आयु का अकाल में विनाश हो सकता है ।.
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इन निमित्तों से अनगिनते प्राणियों के प्राणों का अन्त होते देखा जाता है । इससे सहज ही यह कल्पना हो सकती है कि जीवन को नष्ट करने वाली कितनी अधिक सामग्री संसार में भरी हुई है । इतने विरोधियों और विघ्नों के विद्यमान होते हुए भला कौन महासाहसी व्यक्ति भी कल तक का भरोसा कर सकता है ? श्रतः भव्य जीवों ! जीवन का विश्वास न करके, आत्महित के साधक कार्यों में ही अहर्निस रत रहो । शीघ्र से शीघ्र महान उद्देश्य की प्राप्ति हो, ऐसा प्रयत्न करो । तनिक भी प्रमाद न
करो भगवान् ने इसीलिए कहा है-गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो ।
भवे, चिरकाले वि सव्वपाणिणं । गाढा विवाग कम्मुणों, समयं गोयम ! मा पमायए ।
मूल :- दुल्ल खलु माणुसे भवे, चिरकालेण
छाया:-- दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः, चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । गाढव विपाकः कर्मणां समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ४ ॥
शब्दार्थः-हे गौतम् ! सब प्राणियों को, मनुष्य भव चिरकाल तक भी दुर्लभ हैदीर्घकाल व्यतीत होने पर भी उसकी प्राप्ति होना कठिन है, क्योंकि कर्मों के फल प्रगाढ़ हूँ | इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद न करो ।
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दसवां अध्याय
[ ३७५ भाष्यः-कोई-कोई मनुष्य यह विचारते हैं कि यदि इस जीवन का अन्त अचानक ही हो गया तो भी हानि है ? अात्मा नित्य है, उसका कभी विनाश नहीं होता एक जन्म के पश्चात् पुनर्जन्म धारण करना ही पड़ेगा, तब उसी अागामी जन्म में शेष कार्य सिद्ध कर लेंगे। इस जन्म में विषयभोगों का सेवन करके भावी भव में आत्मकल्याण कर लेंगे। अभी क्या जल्दी है ? • इस भ्रान्ति युक्त विचारणा का निरसन प्रकृत गाथा में किया गया है। भगवान् कहते हैं-आगामी भव मनुष्य भव ही होगा, ऐसा कौन छद्मस्थ जानता है ? विशेष तया जो लोग यह जीवन विषय-वासनाओं के सेवन में, अर्थ संचय करने में, हिंसा श्रादि घोर पाप कर्म करने में, व्यतीत करेंगे, महारंभ और महापरिग्रह करके भोग लामग्री को एकत्र करने में दत्तचित्त रहेंगे उन्हें आगामी भव में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? आगामी भव की बात रहने दीजिए, उन्हें तो चिरकाल में भी मनुष्य भव प्राप्त होना कठिन है।
इस प्रकार के भोगी प्रमादी जीव आगामीभव में मनुष्यत्व से ही वंचित नहीं रहते किन्तु उन्हें अपने किए हुए कर्मों के भयंकर फल भी भुगतने पड़ते हैं । नरक गति तथा तिर्यंच गति की घोर यातनाएँ उन्हें सहनी पड़ती है । इन भवों में मुक्ति की साधना भी नहीं हो सकती । सिवाय मनुष्यभव के, अन्य किसी भी भव में जीव अप्रमत्त अवस्था नहीं प्राप्त कर सकता। देवगति और नरकगति में अधिक से अधिक चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त होता है और तिर्यञ्च गति में, क्वचित् पंचम गुणस्थान की उपलब्धि हो सकती है। मुक्ति की साधना के लिए एक मात्र मनुष्यभव ही साधन है। अतएव इस विचार का त्याग करके, कि आगामी भव में आत्मकल्याण करलेंगे, इस जन्म को प्रमत्त होकर नहीं गवाना चाहिए । चिरकाल तक चौरासी लाख जीव योनियों में भ्रमण करने के पश्चात, भव-भव में अनेक पुण्य करने से इसकी प्राप्ति हुई है। प्रात्महित का यह सर्वश्रेष्ठ अवसर है। विवेक-बुद्धि, अविकल इन्द्रियां, सत्कुल में जन्म, सद्धर्म का श्रवण, सुगुरुओं की संगति, आदि अनुकूल निमित्त पाकर अवसर नहीं चूकना चाहिए । इसलिए एक समय मात्र का भी प्रमाद न करो। मुल:-पुढविकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे।
कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा एमायए ॥५॥ छाया:-पृथ्विकायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संबसेत।
कालं संख्यातीतं, समयं गौतम ! मा प्रसादीः ॥५॥ शब्दार्थः हे गौतम ! पृथ्वीकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट असंख्य काल तक वहाँ रहता है, इस लिए समय मात्र का भी प्रमाद न करो।।
भाप्यः-मनुप्यभव दुर्लभ है, यह सामान्य रूप से अनन्तर गाथा में कहा गया था । उसीको विस्तार से समझाने के लिए अब यह बतलाया जाता है कि जीव किस-किस काय में जाकर कितना-कितना समय यहां व्यतीत करता है ? इस
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[ ३७६ -
प्रमाद-परिहार से स्पष्ट रूप से ज्ञात होगा कि कितने लम्बे समय के अनन्तर, कितनी घोरतम यातनाएँ सहन करने के पश्चात इस पर्याय की प्राप्ति होती है।
. यहां पृथ्वीशाय की स्थिति क्तलाई गई है । स्थिति दो प्रकार की होती है(१) भवस्थिति और (२) कायस्थिति । सिर्फ एक भव की स्थिति को भवस्थिति कहते हैं और उस काय में अनेक भव करते हुए भी निरन्तर उसी ज्ञाय में रहने की समयमर्यादा काय-स्थिति कहलाती है । शास्त्रकार ने यहां कायस्थिति का वर्णन दिया है अर्थात् जीव एक बार जब पृथ्वीकाय में जाता है तो कर्म-शेग से असंख्यात काल तक उसी अवस्था में रहता है-पुन:पुनः जन्म मरण करता रहता है पर उसी पर्याय में उत्पन्न होता है । यह पृथ्वीकाय की कायस्थिति है । इसकी जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट शुद्ध पृथ्वीकाय की १२ हजार वर्ष की तथा खरपृथ्वीकाय की २२ हजार वर्ष की है।
पृथ्वीकाय स्वभावतः कठोर है, वर्णतः पीत है और संस्थान की अपेक्षा मसूर . की दाल के समान है। पृथ्वीकाय की १२ लाख कुलकोटि हैं। मूलः-प्राउक्कायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे।
कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥६॥ तेउक्कायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाइयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥७॥ वाउक्कायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥८॥ छाया:-अपकायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत ।
. कालं संख्यातीतं, समयं गौतम !मा प्रमादीः ॥६॥ : तेजस्कायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत्। -
कालं संज्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रसादीः ॥७॥ .. वायुकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत ।
काल संख्यातीतं, समयं गोतम ! मा प्रमादीः॥८॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! जलकाय में गया. हुआ जीव उत्कृष्ट असंख्यात काल तक वहां निवास करता है, इसलिए एक समय मात्र का भी प्रमाद न करो।
हे गौतम ! तेजकाय में गया हुआ जीव वहां उत्कृष्ट असंख्यात काल तक निवास करता है, इस लिए एक समय मान का भी प्रमाद न करो।
हे गौतम ! वायुकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट रूप से वहां असंख्यात काल तक निवास करता है, अतः एक समय का भी प्रमाद न करो।
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दसवां अध्याय
॥ ३७७ । भाष्यः-पृथ्वीकाय की कायस्थिति का निरूपण करके यहां जलकाय अग्निकाय और वायुकाय की कायस्थिति का वर्णन किया गया है ।।
इल गाथाओं का अर्थ पूर्वोक्त अनुसार ही है। सभी की उत्कृष्ट काय स्थिति नसंख्यात काल तक है। अर्थात् जीव इन कायों में से किसी भी काय में जावे तो असंख्य काल पर्यन्त वहां व्यतीत करता है। इसलिए मानव भव पाकर प्रमाद का परित्याग करके ऐसा प्रयत्न करो, जिससे इन कायों में यमन करके दुःख न उठाने पड़ें।
अपकाय की जघन्य भव स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है। अपकाय का वर्ण लाल, स्वभाव ढीला और संस्थान जल के वुवुद के समान है। इसकी कुल कोटियां सात लास्म है अर्थात् जलकाय के सात लाख करोड़ कुल हैं।।
वाजुकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष है । वर्ण हरित है। कुल कोटियां सात लाख हैं । संस्थान ध्वजा के समान है। मूल:-वणस्सइकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संबसे ।
कालमणंतं दुरंतयं, समयं गोयम ! मा पमायए । छायाः-वनस्पतिकायमतियतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत् ।
कालमनन्तं दुरन्तं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! वनस्पतिकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट अनन्त काल तक यहां निरन्तर निवास करता है, अतएव एक समय मान भी प्रमाद न करो।
भाग्य:-यहां वनस्पतिकाय की काय-स्थिति अनन्तकाल चतलाई गई है। शेष नाथा का व्याल्यान पूर्ववत् ही समझना चाहिए।
वनस्पतिकाच की भवस्थिति जवल्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है। इसका स्वभाविक वर्ण नील है। संस्थान और स्वभाव विविध प्रकार है। इसके २८ लाख करोड़ कुल हैं।
शंका-सूत्रकार ने पृथ्वीकाय, अप्काय आदि को जीव रूप में वर्णित किया है, किन्तु इनमें जीव के कोई असाधारण गुण प्रतीत नहीं होते, ऐसी अवस्था में इन्हें जीव मानने से क्या प्रमाण है ?
समाधान-सर्व प्रथम तो हमें अपने ज्ञान की जुद्रता समझ लेनी चाहिए। जगत् में इतनी अधिक वस्तुर है कि उन सन्द में से स्थूल वस्तुओं के भी विविध गुणों को, उनकी वास्तविकता को समझना बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी असंभव है। सूक्ष्म पदरयों की बात ही दूर है संसार के छद्मस्थ मनुष्यों ने जगत् का जितना स्वरूप जान पाया है, वह यज्ञात रूप के सामने नगण्य है। ऐसी स्थिति में सिर्फ अपनी चुद्धि को शाधार बनाकर कोई भी निर्णय करना अभ्रान्त नहीं हो सकता। हमें अतीतकाल के महर्पियों के अनुभव की प्रमाणता स्वीकार करनी होगी, क्योंकि उन्होंने
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[ ३७८ 1
. .प्रमाद-परिहार अपना सम्पूर्ण जीवन घोर साधना के लिए समर्पण करके दिव्य दृष्टि प्राप्त की थी। हमारे जीवन में न वह समर्थ साधना है, न तजन्य दिव्य दृष्टि के अद्भुत प्रकाश की एक भी किरण है। अपने इस असामर्थ का अनुभव न करके जो लोग एक मात्र अपनी अनुभूति को ही चरम मानते हैं, वे अंधकार में विचरते हैं और प्रकाश में प्राना नहीं चाहते।
___ क्या धर्म शास्त्र, क्या नीति शास्त्र, और क्या दूसरा कोई शास्त्र, सभी प्राप्त पुरुष के वचन-प्रामाण्य पर निर्भर होकर चलते हैं। अध्यात्म शास्त्र इन सब में गहन, अतिगहन शास्त्र है। उसमें कल्पना और तर्क से प्रायः काम नहीं चलता । उसमें अनुभूति की प्रधानता है। अनुभूति न तो अध्ययन से प्राप्त होती है. न वाद-विवाद से । उसका एक मात्र मार्ग साधना है। अतएव जब तक हम साधना से अनुभूतिलाभ न कर लें तब तक हमें प्राप्तजनों के वचनों के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए।
पृथ्वी आदि में चेतना है, यह बात आप्त पुरुषों ने हमें बताई है । सर्वज्ञ ने अपने ज्ञान में उस चेतना का प्रत्यक्ष किया है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उसे उसी प्रकार स्वीकार कर व्यवहार करते रहे हैं। इसलिए हमें भी उली पर श्रद्धा रखकर तदनुसार व्यवहार करना चाहिए।
शंका-यह ठीक है कि हमारा ज्ञान अत्यन्त सीमित है, हम किसी भी वस्तु को पूर्ण रूप ले नहीं जान पाते, फिर भी अगर कोई युक्ति इस सम्बन्ध में हो तो उस से श्रद्धा में स्थिरता आ जाती है। अन्य लोगों को भी प्रतीति कराई जा सकती है। क्या इस विषय में कोई युक्ति है ? ।
समाधान-पृथ्वी श्रादि में चेतना सिद्ध करने वाली युक्तियां हैं । वनस्पति में जीव है. यह बात तो आज निर्विवाद हो चुकी है। वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित यंत्रों से वनस्पति के अनेक चेतनामय भाव और कार्य सभी प्रत्यक्ष देख सकते हैं । अतएव वनस्पतिकाय की चेतनता को समझने के लिए उस वैज्ञानिक-सामग्री का अध्ययन करना चाहिए । पृथ्वीकाय में चेतना सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित युक्तियां दी जाती हैं
(१) जैसे मनुष्यों और तिर्यंचों के शरीर के घाव भर जाते हैं, उसी प्रकार खोदी हुई स्त्राने स्वयं भर जाती हैं।
(२, जैसे मनुष्य का शरीर बढ़ता है वैसे ही पृथ्वीकाय-पत्थर आदि बढ़ते हैं। स्वान से अलग हुए पत्थर नहीं बढ़ते हैं, जैसे मृत शरीर नहीं बढ़ता है। .. (३) जैसे बालक बढ़ता है उसी प्रकार पर्वत भी बढ़ते हैं।
(४) मूत्राशय में कंकर बढ़ने से पथरी रोग होता है। . : (१) मछली के पेट में रहने वाले मोती एक प्रकार के पत्थर हैं और उनमें वृद्धि,
. देखी जाती है।
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दसवां अध्याय
[ ३७६ ] (६ जैसे मनुष्य के शरीर की अस्थियां कठोर होने पर भी सजीव हैं, उसी प्रकार पत्थर आदि कठोर होने पर भी सजीव हैं।
तात्पर्य यह है कि बिना चेतना के कोई भी शरीर बढ़ नहीं सकता, और पर्वत नादि बढ़ते देखे जाते हैं, इसलिए उनमें जीव का अस्तित्व अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है।
जल में चेतना की सिद्धि के लिए इस प्रकार युक्तियां समझना चाहिए
(१) जैसे अंडे में रहा हुआ प्रवाही रस पंचेन्द्रिय जीव है, उसी प्रकार प्रवाही पानी भी जीवों का पिण्ड है।
(२) मनुष्य और तिर्यच भी गर्भ अवस्था के प्रारम्भ में तरल होते हैं, इसी भकार जल तरल होने पर भी सजीव है।
(३) जैसे शीतकाल में मनुष्य के मुख से भाफ निकलती है, उसी प्रकार प श्रादि के जल में से भी वाष्प निकलती देखी जाती है।
(४) जैसे शीतकाल में मनुष्य का सजीव शरीर गर्म रहता है, उसी प्रकार जल् . ली गर्म रहता है।
(५) ग्रीष्मकाल में जैसे मनुष्य-शरीर ठंडा रहता है, उसी प्रकार जल भी ठंडा रहता है।
(६) जैसे मनुष्य की प्रकृति में सर्दी और गर्मी दोनों हैं, उसी प्रकार जल की प्रकृति में भी सर्दी-गर्मी दोनों गुण हैं।
(७) जैसे मनुष्य का शरीर तीव शीत के कारण अकड़ जाता है, उसी प्रकार जलकाय के जीवों का शरीर-पानी-भी अकड़ कर बर्फ बन जाता है।
(८) जैसे मनुष्य का शरीर नौ महीने तक गर्भ में परिपक्व होता है, अपरिपक्व अवस्था में गर्भपात हो जाता है, उसी प्रकार पानी छह मास तक बादलों में रहकर परिपक्व होता है तो वर्षा के रूप में पढ़ता है, अन्यथा अपरिपक्व अवस्था में भोले के रूप में गिर जाता है।
__ मनुष्य के साथ इतना सादृश्य जल में जीव की सत्ता सिद्ध करता है। इसी शकार अग्निकाय में भी जीव का अस्तित्व सिद्ध होता है। वह इस तरह
(१) जैसे ज्वर से जलते हुए शरीर में जीव रहसकता है, उसी भांति उप्रण अग्नि में मी जीव रह सकते हैं।
(२) जैसे मृत्यु होने पर मनुष्य का शरीर ठंडा पड़ जाता है, उसी प्रकार अग्नि बुझ जाने पर ठंडी पड़ जाती हैं।
(३) जैसे जुगनू के शरीर में प्रकाश है,उसी प्रकार अग्नि के जीचों में प्रकाश है। ___ (४) जैसे मनुष्य गति शील है, उसी प्रकार अग्नि भी ऊपर की भोर गति करती है।
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. ३८० ]
प्रमाद-परिहार (५) जैसे: मनुष्य, पशु पक्षी आदि जीव-जन्तु वायु से जीवित रहते हैं उसी प्रकार अग्नि भी वायु से जीवित रहती है। थोड़ी देर हवा न मिलने से जैसे मनुष्य श्रादि प्राणी मर जाते हैं, उसी प्रकार अग्नि भी नष्ट हो जाती है।
— (६) जैसे मनुष्य प्राणवायु ( ऑक्सीजन ) ग्रहण करता है और विष वायु (कार्बन ) बाहर निकालता है, उसी प्रकार अग्नि भी प्राणवायु ग्रहण कर विषवायु का परित्याग करती है।
(७) जैले कोलो तक फैले हुए मारवाड़ के रेगिस्तान में, विना पानी के, तीत्र उष्णता में भी चूहे जीवित रह सकते हैं, और जैसे फिनिक्ल पक्षी अग्नि में गिर-कर नव-जीवन प्राप्त करता है, उसी प्रकार अग्नि के जीव, उष्ण अग्नि में जीवित रह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जो जीव जहां उत्पन्न होकर निरंतर निवास करता है, उसके लिए वहां की प्राकृतिक शीत-उष्णता या वातावरण बाधक नहीं होता। हिमालय की भयंकर हिम में हम लोग कुछ क्षणों से अधिक जीवित नहीं रह सकते, परन्तु वहां उत्पन्न होने वाले पशु-पक्षी आदि जीवधारी वहीं अपना सम्पूर्ण जीवन सकुशल व्यतीत करते हैं। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। इससे यह समझा जा सकता है कि अग्नि यद्यपि अत्यन्त उष्ण वस्तु है, फिर भी उसमें अग्निकाय के जीव रह सकते हैं। जैसे नीम हमें कटुक प्रतीत होता है पर ऊँट गन्ने से भी अधिक मधुर अनुभव करता है, जो वस्तु हमारे लिए कटक रस से व्याप्त है वही उसके लिए माधुर्य का भंडार है, इसी प्रकार जो स्पर्श हमें उष्ण प्रतीत होता है वहीं दूसरी जाति के जीवों को उपए प्रतीत न हो, यह बहुत संभव है जो बात रस में देखी जाती है वह स्पर्श में भी हो सकती है। इन युक्तियों से अग्निकाय के जीवों की सत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।
वायुकाय के जीवों का अस्तित्व इस प्रकार लमझना चाहिए:--- (१) जैसे मनुष्य आदि प्राणी चलते हैं, उसी प्रकार हवा भी चलती रहती है। (२) हवा अपने में संकोच और विस्तार कर सकती है।
(३) वायु गाय के समान, बिना किसी से प्रेरित हुए ही अनियमित रूप से इधर उधर घूमती है।
इन.प्रमाणों से वायु में भी चेतना का सदुभाव जाना जा सकता है । यह पांचों प्रकार के जीव स्थावर काय कहलाते हैं। इनके पांच इन्द्रियों में से केवल मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है। यही कारण है कि इनकी चेतना स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं होती
और इसी कारण साधारण जनता इनकी सजीवता को स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाती। तथापि ज्ञानी जनों ने अपनी उन अनुभूति और तीक्ष्ण दृष्टि से उनमें चेतना के दर्शन
: जैसे वनस्पतिकाय में जीव को सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक साधन श्राविष्कृत हो सके हैं, उसी प्रकार पृथ्वी आदि के जीवों का भी अस्तित्व प्रत्यक्ष हो सकने की संभावना की जा सकती है।
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दसवां अध्याय
[ ३८१ ) वनस्पतिकाय में अनंत काल तक जीव निवास करता है। निगोद वनस्पति के जीवों के विषय में पहले कहा जा चुका है। मूल:-बेइंदियकायमइगो, उकोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिजसगिणनं, समयं गोयम ! मा पमायए॥१०॥ छाया:-द्वीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवलेतः ।
कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। १० ।। शब्दार्थ:-हे गौतम ! दो-इन्द्रिय काय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट संख्यात काल तक वहाँ वना रहता है, इसलिए समय मात्र भी प्रमाद मत करो।
भाष्यः-स्थावर जीवों में जाकर यह आत्मा कितना समय वहां व्यतीत करता है, यह बताने के पश्चात् शव नस पर्याय की कायस्थिति बतलाते हुए सर्व प्रथम द्वीन्द्रिय की कायस्थिति का यहां उल्लेख किया गया है।
जीव जब दो इन्द्रिय वाले शरीर में जाता है तब वहां एक भव में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चारह वर्ष तक रहता है। तत्पश्चात् मृत्यु को प्राप्त होकर फिर द्वीन्द्रिय हो सकता है, और इस प्रकार संख्यात काल उसी अवस्था में व्यतीत कर सकता है।
यह अवस्था एकेन्द्रिय की अपेक्षा कुछ अधिक विकसित अवस्था है इसमें स्पर्शनेन्द्रिय के साथ रसनेन्द्रिय भी प्राप्त होती है, फिर भी वहां धर्म साधन या प्रात्महितकारिणी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव है। श्रतएव वह सर्वथा अवांछनीय है। इस अवस्था से बचने का मार्ग यही है कि मनुष्यभव पाकर प्रमाद न करते हुए धर्म की आराधना की जाय। भूल:-तेइंदिकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संबसे । कालं संखिजसगिण,समयं गोयम ! मा पमायए ॥१२॥
छाया:-श्रीन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत् ।
___कालं संख्येयसंज्ञितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। ११ ॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! तीन इन्द्रिय वाली योनि में जाकर जीव वहाँ उत्कृष्ट संख्यात काल तक रहता है, अतएव एक समय का भी प्रमाद न करो।
भाष्यः-वीन्द्रिय जीवों को स्पर्शन और रसना इन्द्रिय के साथ प्राण इन्द्रिय भी होती है। वे सुगन्ध और दुर्गन्ध को ग्रहण कर सकते हैं। श्रीन्द्रिय जीवों की जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहर्त ही उत्कृष्ट उन्नवास (४६) दिन की है और कायस्थिति संन्यात काल की ई । शेष अंश की व्याख्या पूर्ववत् समझना चाहिए।
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[ ३८२ }
प्रमाद- परिहार
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मूलः - चउरिदियकायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखिज्ज सरिणचं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१२॥
छाया:- चतुरिन्द्रियकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्यात संज्ञितं, समयं गौतम ! मा प्रसादीः ॥ १२ ॥
शब्दार्थ:-- चार इन्द्रिय वाली योनि में गया हुआ जीव उत्कृष्ट संख्यात काल तक वहीं रहता है, इसलिए हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
भाष्यः - चतुरिन्द्रिय जीवों के चक्षु इन्द्रिय भी होती है, किन्तु उन्हें भी धर्म श्रवण और धर्माचरण की योग्यता प्राप्त नहीं है । इसलिए उस अवस्था से बचने का उपाय, प्राप्त मनुष्यभव को सुधारना है 1
चतुरिन्द्रिय जीव की जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की, उत्कृष्ट छह महीने की और कार्यस्थिति संख्यात काल की है। शेष पूर्ववत् ।
मूल:.. पंचिंदिय कायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । सत्तट्टभवग्गहणे, समयं गोयम ! मा पमाय ॥ १३ ॥
छाया:- पञ्चन्द्रियकाय सतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । सप्ताष्टभवग्रहणादि समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ १३ ॥
शब्दार्थ:--पांच इन्द्रिय वाली योनि में गया हुआ जीव उत्कृष्ट सात या आठ भव तक उसी योनि में रहता है, इसलिए हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो ।
भाष्यः - पंचेन्द्रिय पर्याय में जाकर जीव सात-आठ भव तक उसी पर्याय में जन्म-मरण करता है | यह पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट कार्यस्थिति है ।
पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के होते हैं - (१) मनुष्य (२) तिर्यञ्च, (३ देव और (४) नारकी पर्याय में नहीं रहते, मनुष्य और तिर्यञ्च की अपेक्षा काय स्थिति का वर्णन किया है । देव और नारकी जीव एक भवं से अधिक देवपर्याय और नारकी पर्याय में नहीं रहते, मनुष्य और तीर्यञ्च ही सात-आठ भव निरन्तर करते हैं । देव नारकी की जघन्य भवस्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागर की है । मनुष्य और तिर्वञ्च की जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। एक जीव एक मुहूर्त्त में, अधिक से अधिक इतने भव करता है - पृथ्वीकाय, अपकाय ते काय और वायुकाय १२८२४ भव, बादर वनस्पति काय ३२००० भत्र सूक्ष्म वनस्पति काय ६५५३६ भव, द्वीन्द्रिय जीव ८० भव, त्रीन्द्रिय जीव ६० भव, चतुरिन्द्रिय जीव ३० भव श्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय २४ भव, और संशी पंचेन्द्रिय एक भव करता है ।
एक मुहूर्त्त में होने वाले इन भवों से समझा जा सकता है कि जन्म मृत्यु की कितनी अधिक वेदनाएँ जीव को विभिन्न योनियों में सहन करनी पड़ती हैं | इसलिए इस प्रचुरतर वेदना से बचने का एक मात्र उपाय मानव-भव पाकर प्रमाद का परि
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misia
दसवां अध्याय हार करना और श्रात्मरत होकर श्राध्यात्मिक आनन्द-लाम करना है। इसीलिए भगवान् कहते हैं-गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो। जो मौका मिल गया है उसे हाथ से न जाने दो। भूला-देवे नेरइए अइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
इकिकमवग्गहणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१४॥ छाया:-देवे नैरयिक प्रतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् ।
___ एकैकमवग्रहणं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। १४ ॥ शब्दार्थ:--हे गौतम ! देवभव और नरकमव में गया हुआ जीव उत्कृष्ट एक-एक भव तक वहीं रहता है--तेंतीस सागरोपम जितना दीर्घकाल वहां व्यतीत करता है, इस लिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।
भाष्यः- इस गाथा की व्याख्या सुगम है। पहले के समान ही समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि देव मृत्यु के पश्चात् निरन्तर भव में पुनः देव नहीं होता और नारकी पुनः नारकी नहीं होता। अतएव दोनों गतियों की कायस्थिति एक-एक भव ही है, किन्तु यह काल बहुत लम्बा है । नरक गति की वेदनाएँ असह्य होती हैं और देव भव में श्रात्मकल्याण की विशेष अनुकूलता नहीं होती। इसलिए ऐसा प्रयत्न करना उचित है जिससे इन भवों से बच सके। मूलः-एवं भवसंसोर, संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं ।
जीवो पमायवहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१५॥ छायाः-एवं भवसंसारे, संसरति शुभाशुभैः कर्मभिः।
जीवः प्रमादबहुलः, समयं गीतम! मा प्रमादीः ।। १५ ॥ शब्दार्थ:--हे गौतम ! अति प्रमाद वाला जीव, इस जन्म-मरण रूप संसार में,शुभ'अशुभ कर्मों के अनुसार भ्रमण करता रहता है। इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद न करो।
___ भाप्यः-पूर्वोक्त भव-भ्रमण का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि इस प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति रूप एकेन्द्रिय कायों में तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय नरक तिर्यच एवं देव गतिमें पुनः पुनः जन्म और पुन:-पुनः मरण के घोर कष्ट लहन करता हुथा जीव संसार में भटकता फिरता है। भव-भ्रमण का कारण प्रमाद सी बहुलता है। प्रमाद का स्वरूप पहले कहा जा चुका है। उसी के प्रभाव से जीव अनादिकाल से चौरासी के चमर में फंसा हुना है और जब तक वह प्रमाद का परित्याग नहीं करेगा तब तक फँसा रहेगा।
नाना श्रवस्थानों में रहा हुना जीव कभी शुभ कर्मों का उपार्जन करता है और काली अशुभ कमों का। अशुभ कमों के फल-स्वरूप नरक-निगोद, तिर्यच प्रादि
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३८६ ]
प्रमाद-परिहार पुलिन्दः शबरो दस्युः, निषादो व्याधलुब्धको ।
घानुष्कोऽथ किरातश्च, सोऽरण्यानीचर स्युतः॥ ' अर्थात् जंगलों में रहने वाले मनुष्य पुलिन्द, शबर, दस्य, निषाद, व्याध, लुब्धक, धानुष्क और किरात कहलाते हैं । यह लोक जीव-हिंसा, लूट-खसोट श्रादि पापमय प्रवृत्तियों में ही लदा लीन रहते हैं । इन वेचारों को धर्म की भावना का स्पर्श भी नहीं हो पाता।
अगर पुण्य का अतिशय अत्यन्त प्रबल हुआ तो सभ्य शिष्ट धर्म भावनावान् मनुष्यों के बीच रहने का सुअवसर प्राप्त होता है। फिर भी वहाँ अनेक मनुष्यों में से कोई अनार्य कर्म करते हैं जैसे कसाई प्रभृति । इस प्रकार अनार्यत्व से बचकर श्रार्यत्व को प्राप्तकर लेना इसी प्रकार महान् दुर्लभ है, जैले अतल जलधि में गिरी हुई सूई दुर्लभ है।
जिन्हें मनुष्यत्व और आर्यत्व दोनों की प्राप्ति हुई है, वे अत्यंत पुण्यशाली है, वे धन्य हैं। उन्हें अमूल्य अवसर मिला है। इस अवसर को पाकर उन्हें एक समय ___ का भी प्रमाद न करना चाहिए।
मूलः-लघृण वि आरियत्तणं अहीणपंचिंदियया हु दुल्लहा । विगलिदिया हु दीसइ, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१७॥ छायाः- लब्ध्वाऽपि प्रार्यत्वम्, अहीनपञ्चेन्द्रियता हि दुर्लभा।
विकलन्द्रिया हि दृश्यन्ते, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। १७ ॥ . . शब्दार्थ:--हे गौतम ! आर्यत्व प्राप्त हो जाने पर भी परिपूर्ण पंचेन्द्रियों का प्राप्त __ होना निश्चय ही कठिन है, क्योंकि बहुत से जीव विकल इन्द्रियों वाले भी देखे जाते हैं । । भाष्यः-धर्म-साधना के अवसर की उत्तरोतर दुर्लभता का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार ने यहां यह बतलाया है कि यदि कोई जीव मनुष्यत्व प्राप्त करले और आर्य जाति में जन्म भी ग्रहण करले, तव भी यदि पांच इन्द्रियों में से कोई एक भी इन्द्रिय काम की न हुई तो भी धर्म की उपासना सम्यक् प्रकार से नहीं हो पाती। कोई जीव जन्म से अंधे होते हैं, कोई वहरे होते हैं, कोई मूक होते हैं और कोई लूले लंगड़े होते हैं। ऐसे लोग संयम की साधना और धर्म-लाभ करने में प्रायः समर्थ नहीं होते।
ऐसी अवस्था में जिन्हें परिपूर्ण पांचों इन्द्रियां प्राप्त हो गई हैं उन्हें अपने श्राप को अतीव भाग्यशाली समझकर इस अवसर का परिपूर्ण लाभ उठाना चाहिए और एक समय मात्र का भी प्रमाद न करते हुए धर्म की आराधना करनी चाहिए । मूलः-अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा।
. कुतित्थिनिसेवए जणे,समयं गोयम ! मा पमायए १८
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दलवा अध्याय
. [ ३८७. छाया:-अहीनपञ्जेन्द्रियत्वमपि स लभते, उत्तमधर्म प्रतिहि दुर्लभा।
कुतिर्थिनिपत्रको नमः, समय गौतम ! मा प्रसादीः ।। १ ।। शब्दार्थः हे गौतम ! वह जीव यदि परिपूर्ण पांचों इन्द्रियां प्राप्त कर ले तो उत्तम धर्म का श्रवण दुर्लभ है-श्रेष्ठ धर्म के तत्व का उपदेश पाना कठिन है, क्योंकि मनुष्य कुतीर्थियों की उपासना करने वाले देखे जाते हैं । इसलिए समय मात्र भी प्रमाद न करो।
__ भाष्यः-पुण्य अधिक प्रबलतर हुश्रा और किसी जीव को, मनुष्यत्व, आर्यत्व और परिपूर्ण कार्यकारी इन्द्रियां भी प्राप्त हो गई तो भी धर्म-साधना के अन्तरायों का श्रन्त नहीं होता। क्योंकि जगत् में बहुतेरे मनुष्य कुतीर्थियों का सेवन करते हैं। - जिसके द्वारा तरा जाय या जो तारनेवाला हो उसे तीर्थ कहते हैं। कहा भी है
तिजइ ज तेण तहिं, तो व नित्थं तयं च दवम्मि ।
सरियाईणं भागो निरवायो तम्मिय पसिद्ध ॥ गाथा का भाव ऊपर आ चुका है। जिसके सहारे तिरने योग्य वस्तु तिरती है-पार पहुँचती है, वह तीर्थ कहलाता है। सुविधा जनक नदी आदि का एक विशिष्ट भाग (घाट ) द्रव्यतीर्थ है।
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चार निक्षेपों के भेद से तीर्थ चार प्रकार का है। किसी वस्तु का, जिसमें तीर्थ का गुण न हो, 'तीर्थ' ऐसा नाम रख लेना नामतीर्थ है। किसी तदाफार अथवा अतदाकार वस्तु में 'तीर्थ' की स्थापना कर लेना स्थापना तीर्थ कहलाता है। नदी सरोवर आदि द्रव्य तीर्थ कहे जाते हैं, क्योंकि उनसे शरीर ही तिरता है अर्थात् शरीर ही इस पार से उस पार पहुँचता है । इसके अतिरिक नदी आदि शरीर के द्रव्यमल-वाा मैल को ही हटाता है। तथा नदी प्रक्रति कभी नहीं तिराती है, कभी नहीं तिराती-तैरने वाले को डुबा भी देती है। इन सब कारणों से नदी श्रादि द्रव्य-तीर्थ कहलाते हैं। भावतीर्थ का स्वरूप इस प्रकार है
भावे तित्थं संघो, सुयविहियं तारश्नो तहिं साहू।
ताणाइतियं तरणं तरिपव्वं भवसमुदीऽयं ॥ अर्थात्-संघ भावतीर्थ है। साधु तारने वाले हैं। सम्यग्दर्शन, शान और बारित्र रूप रतनय तिरने के साधन हैं और संसार रूपी समुद्र तिरने योग्य हैं।
एकान्त रूप मिथ्या प्ररूपणा करने वाले सिद्धान्त के अनुयायियों का समूह कुतीर्य समझना चाहिए और उसकी स्थापना करने वाले फुतीर्थी हैं। जगत् के अनेक मनुष्य, मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, इन्द्रिय परिपूर्णता रूप कल्याण की सामग्री प्राप्त करके भी फुतीर्थीयों का सेवन करते हैं। उनका सेवन करने से कल्याण के बदले अकल्याण होता है। नास्तिक लोग श्रात्मा का अस्तित्व अस्वीकार करके खाने पीने और आन्दोपभोग करने की वृत्ति जागृत करते हैं और आत्मा को धर्म-मार्ग से हटा देते हैं। कोई लोग समस्त पदार्थों को क्षणिक मानते हैं । अतः किये हुए पुण्य पाप का फल
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३६ .
... अमाद-परिहार भोगने में यात्मा असमर्थ नहीं ठहरता। कुछ लोग आत्मा को ब्रह्मखरूप प्रतिपादन .. करते हैं उनके मत से आत्मा को संयम आदि की साधना करले की ज्या श्रावश्यकता है ? इत्यादि अनेक मिथ्या सिद्धान्तों से जीच के अपने स्वरूप में ही भ्रम उत्पन्न हो जाता है, जिससे वह अपने परल कल्याण का सच्चा मार्ग नहीं खोज पाता।
ऐसी अवस्था में विविध प्रकार के एकान्तवादों ले बचकर, वास्तविक वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक, वीतराग सर्वक्ष अगवान् द्वारा उपदिष्ट अनेकान्त रूप उत्तम धर्म के श्रवण करने का अवसर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। पुण्य की अत्यधिक प्रवलता होने पर ही उत्तम कुल में जन्म, निर्धन्य शुरुश्नों का समागम आदि उत्तम धर्मश्रवण की सामग्री मिलती है। जिन्हें यह सामग्री मिली है उन्हें इस अवसर को गँवाना नहीं चाहिए और एक सलय मान भी प्रसाद न करके धर्म की आराधना करनी. चाहिए। मूल लधण वि उत्तम सुई, सहहणा पुणरवि दुल्लहा ।
मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए १६ छाया:-लब्धवाऽपि उत्तमां श्रुति, श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम् ।
मिथ्यात्वनिषेवको जनः, समयं गौतम ! सा प्रमादीः ॥ १४ ॥ - शब्दार्थः- हे गौतम ! उत्तम धर्म-श्रवण की प्राप्ति होने पर भी उसका अहान दुर्लभ .
है, क्योंकि लोग मिथ्यात्व का सेवन करते देखे जाते हैं। इसलिए श्रद्धान-लाभ होने पर समय मात्र का भी प्रमाद न करो।
भाष्यः- पूर्वोक्त स्यावादमय तशा अहिंसा प्रधान धर्म के श्रवण का अवसर प्राप्त होने पर भी उस पर श्रद्धान होना अत्यन्त कठिन है। अनेक लोग सत्य धर्म का । श्रवण करते हुए भी उस पर श्रद्धान नहीं करते और मिथ्यात्व का सेवन करते हैं। - यहां श्रद्धान की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है । धर्म-श्रवण कर लेने पर श्री जब तक उस पर सुदृढ़ प्रतीति न हो तब तक सस्यत्व का उदय नहीं होता . और वह श्रोता मिथ्याडष्टि बना रहता है। श्रद्धा का स्वरूप इस प्रकार कहा है
इदमेवेशसेव, तत्वं नान्यन्न चान्यधा।
इत्यकस्याय सासभोवत् सन्मार्गेऽसंशया रुचिः॥ , अर्थात् वास्तविक तत्व यही है और इसी प्रकार का है, अन्य नहीं है और . अन्य प्रकार का भी नहीं है, ऐसी तलवार की धार के पानी के समान, संशय रहित निश्चल श्रद्धा लन्मार्ग में अर्थात् वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट तत्व में होना चाहिए।
. मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का विवेचन पहले किया जा चुका है। वस्तुतः मिथ्यात्व ही संसार का सर्वप्रधान कारण है । वही कर्म बंध का हेतु है । उसके होते हुए मनुश्यत्व, आर्यत्व, धर्मश्रुति आदि सामन्त्री व्यर्थ ही होती है, अपितु अधिक अकल्याण का कारण बन जाती है । इसलिए सजे धर्म का श्रवण करके इस पर पूर्ण
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दसवां अध्याय
[ ३८६ ]
श्रद्धा का भाव रखना चाहिए। कुगुरु, कुदेव और कुधर्म का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए | जिन पुण्यात्माओं को दुर्लभ श्रद्धा भी प्राप्त हो गई है उन्हें एक समय का भी प्रमाद न करके संयम यादि का अनुष्ठान करना चाहिए ।
मूल :-- धम्मं पि हु सहहंतया, दुल्लहा कारण फासया ।
इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए २०
छाया:-धर्ममपि हि श्रद्द्धतः, दुर्लभका कायेन स्पर्शकाः ।
इह कामगुणैर्दिताः समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २० ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम ! धर्म पर श्रद्धान करते हुए भी उसे शरीर से स्पर्श करना अर्थात् श्रद्धा के अनुसार धर्माचरण होना दुर्लभ है, क्योंकि संसार में बहुत-से लोग काम-भोगों में मूर्छित हो रहे हैं इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
भाष्यः-- श्रन्नतानुबंधी कषाय तथा दर्शमोहनीय कर्म का क्षय या उपशय आदि अन्तरंग कारण तथा निर्मन्थ गुरु का समागम श्रादि वहिरंग कारणों का योग होने पर धर्म - श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है । इस श्रद्धा के जागृत होने से पुरुष सार असार का विवेक करने लगता है । वह कामभोगो को हेय समझने लगता है और संयम के अनुष्ठान की आकांक्षा भी रखता है, किन्तु प्रत्यानयानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय होने से न तो देश संयम की आराधना कर पाता है और न सर्वविरती संयम की ही। इसीलिए सूत्रकार ने यहां कहा है कि श्रद्धान होने पर भी धर्म का स्पर्श होना अर्थात् प्राचरण करना कठिन है ।
जिन्होंने इन कपायों का क्षय आदि करके संयम के अनुष्ठान की योग्यता को अभिव्यक्त कर लिया है, वे धन्य और मान्य हैं । उन्हें संसार-सागर से पार उतरने की बहुत सी अनुकूलता प्राप्त हुई है । अतएव उन्हें एक समय मात्र भी प्रमाद नहींकरना चाहिए । प्रमाद के प्रभाव से सुनि तत्काल सप्तम गुणस्थान से पतित होकर गुणस्थान में जाता है और प्रमाद हीन होते ही सप्तम गुणस्थान में पुन: श्रारूढ़ हो जाता है । इसीसे प्रमाद का श्रात्मा पर पड़ने वाला प्रभाव स्पष्ट जाना जा सकता है । तव जिन्हें धर्म की स्पर्शना प्राप्त हो गई है उन्हें एक समय मात्र का भी प्रमाद न करके आत्मकल्याण की उत्कृष्ट साधना करना चाहिए ।
मूल:- परिजूरई ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते ।
से सोयबले य हायह, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २१ ॥
छाया-परिजीर्यति ते शरीर, केशा पाएदुरका भवन्ति ते ।'
तव श्रोत्रमलंच होते, समयं गौतम ! मा प्रमादी ॥ २१ ॥
शब्दार्थ:-- हे गौतम! तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश तेरे सफेद होते जाते हैं,
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प्रमाद-परिहार तेरी श्रवण -शक्ति अर्थात् इन्द्रियों की शक्ति दिनों दिन कम होती जा रही है, इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद न कर ।
__ भाष्यः-शरीर की अनित्यता का सुन्दर और स्वाभाविक चित्र यहाँ खींचा गया है। सीधा अन्तस्तल को स्पर्श करने वाला, चित्त को प्रभावित करने वाला और सोने वालों की निद्रा भंग कर देने वाला यह सुन्दर चित्र है।
शरीर की अनित्यता स्वयं अनुभव की जा सकती है। शिशु का जन्म होता है तब से लगाकर वाल-अवस्था, कुमार-अवस्था, नवयुवक-अवस्था, युवावस्था, प्रौढ़अवस्था, वृद्धावस्था प्रादि अनेक अवस्थाएँ यह शरीर अनुभव करता है। ये सब अवस्थाएँ स्थूल अवस्थाएँ हैं, जो सहज ही सब की दृष्टि में आ सकती हैं । मगर इन अवस्थाओं के बीच में भी अनेकानेक सूक्ष्म अवस्थाएँ श्राती और जाती रहती हैं। बालक के शरीर की वृद्धि और पुष्टता के लिए कोई समय नियत नहीं है। प्रतिक्षण वालक बढ़ता रहता है और पुष्ट होता रहताहै । इसी प्रकार यौवन अवस्था के पश्चात् शारीरिक शक्ति का ह्रास आरंभ होता है और प्रतिक्षण होता रहता है । जैसे प्रातःकालीन सूर्य का तेज मध्याह्न तक क्रमशः बढ़ता और मध्याह्न के पश्चात् क्रमशः क्षीण होता जाता है और अन्त में सूर्य ही श्रस्त हो जाता है, इसी प्रकार कम से क्षीण होता हुश्रा यह शरीर भी अन्त में नष्ट हो जाता है । सूर्य सदा काल उदित नहीं रह सकता, इसी प्रकार शरीर भी सदा टिका नहीं रह सकता। सूर्य अस्त होने पर घोर अंधकार व्याप्त हो जाता है, इसी प्रकार स्थूल शरीर का नाश होने पर मृत्यु रूपीअंधकार छा जाता है। - यह उदय और अस्त निसर्ग का निश्चल नियम है । अनादि काल से यह चला श्राता है और अनन्त काल तक चलता रहेगा । इसका कभी भंग नहीं हुआ। इसमें कभी परिवर्तन नहीं हुआ। जगत् में बड़े-बड़े शक्तिशाली पुरुष हो गये हैं, पर इस नियम को कोई भंग नहीं कर सका । अनन्त तीर्थकर हुए, अनन्त चक्रवर्ती राजा पट् खंड के अधिपति हुए कितने ही बड़े-बड़े सम्राट और बलशाली सेनापति हुए, पर अंत में किसी का शरीर टिका न रहा । जिनकी एक उंगली के एक इशारे मात्र से वड़े-बड़े वीरों के दिल दहल उठते थे, जो अपने को अपराजित समझे बैठेथे, जिनकी • धाक से सारा संसार काँपता था, वे आज कहाँ है ? अपने अपरिमित वल के अभिमान में चर रावण का अन्त वही हुश्रा जो एक जुद्र कीड़े का होता है। तात्पर्य यह है कि संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो अजर-अमर बना रह सकता हो ।
पल-पल में होने वाले परिवर्तन को देखते हुए भी मनुष्य अंधा बना हुआ है। वह अजर-अमर की तरह, भोगोपभोगों में मस्त होकर जीवन को व्यतीत कर रहा है। संसार के दूसरे सब मनुष्यों का अन्त आ जायगा, केवल मैं अनन्त काल तक ऐसा ही बना रहुँगा, ऐसा मानकर मानो सभी मनुष्य व्यवहार कर रहे हैं । यही मोह का प्रावल्य है। मोह के प्रवल उद्य से मनुष्य नेत्र होते हुए भी अंधा है, कान होते
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दसवां अध्याय
। ३६१ ] हुए भी वहिरा है और चेतन होते हुए भी जड़ बना हुआ है । मोह के उदय ले अपने स्वरूप को ही भूल गया है।
जीवन ज्यों-ज्यों अस्त की ओर गमन करता जाता है त्यों-त्यों गृद्धि बढ़ती जाति है । इन्द्रियां क्षीण होती जाती है और विषय-वासना के नवीन अंकूर फूटते जाते हैं । शरीर शिथिल होता जाता है पर लालला की लता लह-लही होती जाती है । गर्दन कांपने लगती है, मानों वह मृत्यु के आने का निषेध कर रही है, फिर भी मृत्यु समीप से समीपतर होती ही जाती है। केश सफेद होते जाते हैं, मानों वे मृत्यु का संदेश सुना रहे हैं, फिर भी वह अनसुना कर रहा है। ऐसे अज्ञान पुरुषों को सावधान करते हुए एक कवि ने कहा हैजो लो देह तेरी काहू रोग सो न घेरी, जौलों
जरा नाहिं तेरी जासौ पराधीन परि है। जौ लौ जम नामा वैरी देय ना दमामा, जो लो
मानै कान रामा वुद्धि जाई ना विगरी है ॥ तो लो मित्र मेरे निज कारज सवारले रे,
पौरुष थकेंगे फेर पीछे कहा करि है ? अहो आग आये जव झौंपरी जरन लागी,
कुआ के खुदाएँ तब कौन काज सरि है ? जब तक शरीर को किली व्याधि ने नहीं घेरा है, जब तक बुढ़ापा निकट नहीं श्रआया है, जब तक मौत नामक शत्रु अपने नगाड़े नहीं बजाता जब तक वुद्धि नहीं सठिया गई है, तब तक अपना काम बनालो-श्रात्मा का कल्याण साधकर जीवन का महान् उद्देश्य पूर्ण करलो । उसके बाद वृद्धावस्था आजाने पर पुरुषार्थ थक जायगा तब क्या कर सकेगा? अरे भोले ! आग नजदीक आने पर जब झोपड़ी जलने लगी, तर कुंश्रा खुदवाने से क्या काम चलेगा? मृत्यु सन्निकट आजाने पर कुछ भी हो सकेगा।
तात्पर्य यह है कि जब तक शरीर सशक्त है, इन्द्रियां काम दे रही हैं तब तक धर्म की साधना कर लेना चाहिए । वृद्धावस्था में धर्म साधना का विचार करना अज्ञान है प्रथम तो यहभी कोई नहीं जानता कि वृद्धावस्था श्रा पाएगी भी या नहीं? फ्योंकि युवावस्था में ही अनेक मनुष्य मरण-शरण चले जाते हैं। कदाचित् वह आई भी तो वह अमृतक-सी अवस्था होती है। उसमें नाना प्रकार के रोग, नाना प्रकार के कष्ट और भा घेरते हैं, जिनके कारण अशान्ति और असाता का अनुभव करना पड़ता है । उस अवस्था में धर्म की विशिष्ट प्रति पालना संभव नहीं है । इसलिए सब प्रकार का सुयोग पाकर प्रमाद नहीं करना चाहिए। अप्रमत्त अवस्था में रह कर संयम आदि का अनुष्ठान करके जरा-मरण कोही जीत लेने का प्रयत्न करना चाहिए। मूल:-अरई गंडविसूइया, पायंका विविहा फुसति ते ।
विहडइ विद्धंसइते सरीरयं, समय गोयम !मा पमायए २२
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। ३६२ ।
प्रमाद-परिहार छायाः-अरतिगण्डं विसूचिका, अातङ्का विविधास्पृशन्ति ते ।
विहियते विध्वस्यति ते शरीरकं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २२॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! चित्त का उद्वेग, फोड़ा-फूंसी, हैजा तथा विविध प्रकार के अचानक उत्पन्न होने वाले अन्य रोग, तेरे शरीर का स्पर्श करते हैं। शरीर क्षीण होता जाता है और अन्त में नष्ट हो जाता है । इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।
भाष्यः-अनतर गाथा में, यह बतलाया गया था कि शरीर प्रकृति से ही अनित्य है-प्राकृति स्वयं उसे क्षीण बनाती है। इस गाथा में यह बतलाया गया है कि प्राकृतिक क्षीणता प्राने से पहले ही आगन्तुक विनों से शरीर किसी भी समय क्षीण हो सकता और नष्ट भी हो सकता है।
अरति का अर्थ है सानसिक उद्धग । इसने समस्त मानसिक रोगों का ग्रहण करना चाहिए । फोड़ा-फुली, गांठ आदि गंड कहलाते हैं और वमन दस्त श्रादि होने को विसूचिका कहते है । उदर शूल आदि एकाएक उत्पन्न होने वाले रोग आतंक कहलाते है। इनसे अन्य समस्त शारीरिक रोगों का ग्रहण होता है इन विविध प्रकार के रोगों से शरीर वृद्धावस्था तक न पहुंचने पर भी अशक्त बन जाता है और धर्म की श्राराधना कठिन हो जाती है।
अनेक पुरुष यह सोचते हैं कि अभी यौवन है, इस समय काम भोगों का सेवन कर लेवें । वुड़ापे में पर लोक की कमाई कर लेगे । जब शरीर सांसारिक व्यवहारके अयोग्य बन जाएगा तब धर्म की साधना हो जायगी । ऐसा विचार कर मनुष्य दिन-रात भोगोपभोग में निमग्न रहता है। भोगोपभोग के साधन जुटाने में न्यायअन्याय, उचित-अनुचित, कर्त्तव्य-श्रकर्तव्य का विवेक नहीं रखता। दूसरों से अन्याय-पूर्वक व्यवहार करके धनोपार्जन करता है । दीन-हीन जनों को सताकर उनसे अनुचित लाभ उठाता है। धन के लिए हिंसा करता है, असत्य भाषण करता है, चोरी करता है। नीच जनों की सेवा करता है। अपनी स्वाधीनता चेचकर धनिकों के इशारे पर नाचता है । धनवानों की चापलूसी करता है। उनके अवगुणों को गुण बताकर उन्हें प्रसन्न करता है । धनवान यदि कंजूस हुश्रा तो उसे मितव्ययि कहता है। उड़ाऊ हुआ तो उदार बनाकर उसे खुश करता है। कायर होतो उसे क्षमाशील कहता है। इस प्रकार तरह-तरह से अपने स्वामी को प्रसन्न करके अर्थ लाभ करना चाहता है।
कोई-कोई पुरुष खेती करते हैं। कोई व्यापार करते हैं । कोई जुश्रा सरीखा निन्दनीय कर्म करते हैं। कोई किसी साधन का अवलम्बन करता है. कोई किसी उपाय को ग्रहण करता है । इस प्रकार मनुष्य अपनी निरोग अवस्था में धनोपार्जन तथा विषयभोग में इतना अधिक लीन रहता है कि उसे श्रात्मा के कल्याण की कल्पना ही नहीं पाती। किन्तु जव उपार्जित धन किसी कारण से नष्ट हो जाता है, इष्टजन का वियोग हो जाता है अथवा अन्य कोई अनिष्ट घटना घट जाती है तव चित्त एकदम क्षुब्ध हो उठता है । चित्त में नाना प्रकार की चिन्ताएँ उद्भूत हो जाती हैं।
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दसवां अध्याय
[ ३३३ ]
घोर मानसिक अशांति मनुष्य को बेचैन बना डालती है । -
इसी भांति असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर तथा अपथ्य सेवन, श्राहारविहार की अनुचितता आदि कारण मिलने पर अनेक प्रकार के रोग शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। किसी का शरीर फोड़ा-फुंसी होने से सड़ने लगता है, किसी के गले में गंडमाला हो जाती है, किसी के उदर में गांठें उत्पन्न हो जाती है । किसी को वमन और दस्त की बीमारी हो जाती है । कोई अचानक ही उत्पन्न होने वाले शूल से पीड़ित होता है । इस प्रकार अनेक रोग शरीर को निर्बल बना डालते हैं । ' शरीरं व्याधि मन्दिरम्' अर्थात् शरीर रोगों का घर है, इस कहावत के अनुसार प्रदेक रोग शरीर मैं व्याप्त हैं और किसी भी समय, कोई भी रोग भड़क कर शरीर का विनाश कर डालता है । ऐसी अवस्था में, शरीर का भरोसा न करते हुए शीघ्र से शीघ्र श्रात्मकल्याण का साधन कर लेना ही चतुरता है । इसलिए भगवान् कहते हैं - गौतम ! एक समय का भी प्रमाद न करो ।
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मूल:- वोच्छिंदं सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए | २३ |
छाया:-- व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः कुमुदं शारदाभिव पानीयम् । तत् सर्व स्नेहवर्जितः समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २३ ॥
शब्दार्थः--हे गौतम ! जैसे शरद काल का कुमुद पानी का त्याग कर देता है उसी प्रकार तू अपने स्नेह को त्याग दे । सब प्रकार के स्नेह से रहित होकर समय मात्र का भी प्रसाद न कर ।
भाग्यः—जब तक अन्तःकरण में शरीर के प्रति ममत्व भाव विद्यमान रहता है तब तक विषयों का पूर्ण रूपेण त्याग नहीं किया जा सकता। इसलिए भगवान् ने यहां मुख्य रूप से शरीर के प्रति निर्मोह होने की प्रेरणा की है ।
आत्मा का शरीर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि अनेक अज्ञान पुरुष शरीर को ही आत्मा समझ बैठते हैं । जो विवेकी पुरुष श्रात्मा और शरीर को भिन्न समझते हैं, वे भी मोह के कारण उसके प्रति ममत्व की भाव रखते हैं । समत्य की भावना होने के कारण ही आत्मा को दुःख का अनुभव होता है । जिस वस्तु पर ममत्व होता है उसके बिगड़ने एवं विनष्ट होने से आत्मा श्रत्यन्त वेदना का अनुभव करता है ।
संसार में सहस्रों वस्तुएँ प्रतिक्षण विनाश को प्राप्त हो रही हैं, फिर भी उन पर ममत्व न होने से मनुष्य दुःख नहीं अनुभव करता । और जिस पर ममत्व है ऐसी क्षुद्र वस्तु के विनाश से भी वह दुःख मानता है । यह ममता का ही प्रभाव है। शरीर पर घोर ममता का भाव होने से मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है, जिससे शरीर का पोषण होता हो, शरीर को जो अप्रिय न हो। इसीसे वह साताशील हो जाता है ।
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प्रमाद-परिहार व्रत-उपवास श्रादि से विमुख बन जाता है और भोगोपभोग भोगने में मस्त हो जाता है। अतः श्रात्म हितैषी पुरुष को सर्व प्रथम अपने शरीर से ममत्वं हटाने का प्रयत्न करना चाहिए । शरीर संम्बन्धी ममता हटाने का सहज उपाय है, उसके वास्तविक स्वरूप का चितन्न करना । शरीर स्वभावतः इतना वीभत्स है, इतना मलीन है और इतना अशुचि रूप है कि उसका विचार करने से विरक्ति अवश्य होती है। योगीजन ' अशुचित्व भावना के चिन्तन द्वारा शारीरिक ममत्व का नाश करते हैं। वे शरीर की . उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के कारणों का विचार करते हैं। .
शरीर की उत्पत्ति रज और वीर्य रूप अशुचि पदार्थों के संसर्ग से होती है । उसकी स्थिति सप्त धातुओं पर है और अन्त में वह भी विनष्ट हुए विना नहीं रहता। शरीर को विविध प्रकार के अत्यन्त दूषित और घृणाजनक मल का थैला कहा जा सकता है। ऊपर से मढ़े हुए चमड़े के चहर को अगर दूर कर दिया जाय तो शरीर । का रूप दिखाई देने लगेगा। वह रूप कैसा वीभत्स और घृणाजनक है ! वही इसका असली रूप है। रक्त, मांस, हड़ी, मल, मूत्र आदि का यह पिंड है और इसके अति. रिक्त इसमें कोई सारभूत पदार्थ नहीं है। अनेक खिड़कियों में से भीतर का मल बाहर निकल कर मनुष्यों को भीतरी शरीर का स्वरूप दिखाता रहता है, फिर भी मोहांध मनुष्य उसे नहीं देखता।
शरीर स्वयं अपावन है और संयोग से अन्य पदार्थों को भी अपावन वना डालता है। षट् रस व्यंजन शरीर में जाकर क्या बन जाते हैं ? सुगंधित आहार की शरीर में पहुँचते ही क्या दशा होती है ? इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु इस अपवित्रता के पिंड का संसर्ग होते ही स्वयं अपवित्र बन जाती है। इस अछूत, घृणाजनक शरीर के प्रति मोही जीव ममता का भाव रखता है ! उसे कष्ट न होने पाए, इस विचार ले बत, उपवास आदि मार्मिक क्रिया भी नहीं करता ! इसी शरीर पर वह धर्म को एवं आत्म. हित को न्यौछावर कर देता है ! यह मानवीय ज्ञान का दिवाला है। अज्ञान का अतिरेक है। मोह की विडम्बना है । घोर प्रमाद है !
योगीजन शरीर की उपासना करने के लिए अात्महित का परित्याग नहीं करते। वै धर्म और अध्यात्म की साधना वना कर शरीर का पालन-पोपण करते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति में शरीर की सार्थकता है। अतएव शरीर सम्बन्धी ममता का त्याग करो। जैसे कमल जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शरीर में रहते हुए भी शरीर में लिप्त न होओ।
शरीर सम्बन्धी ममता का परित्याग कर देने पर अन्य पदार्थों की ममता स्वतः नष्ट हो जाती है। क्योंकि संसार की समस्त नातेदारी शरीर के साथ ही है, आत्मा के साथ नहीं। जब कोई योगी शरीर के प्रति ही निस्पृह वन जाता है, शरीर को ही श्रात्मा से परे मान लेता है, तब अन्य पदार्थों में ममता का भाव रह ही नहीं सकता। इसी अभिप्राय से सरकार कहते हैं कि अन्त में सब प्रकार के स्नेह से रहित हो जानो और हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । शरीर की ममता ही
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दसवाँ अध्याय
[ ३९५ अन्य पदार्थों की ममता का मूल है और मूल के उखड़ जाने पर वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता। इसलिए सर्व प्रथम शारीरिक मोह का परित्याग करना चाहिए। शरीर जड़ है में चेतन हूँ, शरीर विनश्वर है मैं अविनाशी हूँ, शरीर रूपी है मैं अरूपी हूँ, शरीर अलीन है और मैं निर्मल हूँ, इत्यादि विचार करके श्रात्माःको शरीर से पृथक् चिन्तन करना चाहिए । शारीरिक ममता के परित्याग का यह उपाय है। मूलः-चिच्चाण धणं च भारियं,
पव्वइयो हि सि अणगारियं । मा वंतं पुणो वि प्राविए,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥२४॥ छायाः-त्यक्त्वा धनञ्च भायां, प्रबजितो ह्यसि अनगारतम् ।
___ मा वान्तं पुनरप्यापिवेः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २४ ॥ शब्दार्थः हे गौतम ! तू ने धन और पत्नी का परित्याग करके साधुता स्वीकार करली है, इसलिए वमन किये हुए को फिरमत पी। अपनी त्याग-भावना को निश्चल रखने में समय मात्र का प्रमाद न कर।
भाष्यः-भगवान अपने शिष्य श्री इन्द्रभूति गौतम को संबोधन करके, प्रकारान्तर से समस्त त्यागियों को अपने किये हुए त्याग पर स्थिर रहने का उपदेश देते हैं।
मनुष्य का मन अत्यन्त चंचल है। वायु का देग भी उसके तीन वेग के सामने मन्थर हो जाता है। सिनेमा के दृश्यों की तरह मन में एक विचार आता है और पाने के साथ ही विलीन हो जाता है । जब धर्मश्रवण, स्वाध्याय श्रादि का योग होता है तव मन में प्रशस्त विचार उदित हो पाते हैं और कुछ ही क्षणों के पश्चात् नवीन तृष्णा और मोह से परिपूर्ण विचार उन प्रशस्त विचारों का स्थान ग्रहण कर लेते हैं।
___ मन की इस चंचलता के कारण अनेक अनर्थ उपस्थित हो जाते हैं। अनेक त्यागी अपने त्याग से च्युत हो जाते हैं, अनेक योगी अपने योग से भ्रष्ट हो जाते हैं
और अनेक संयमी अपने संयम से पतित हो जाते हैं । इस अभिप्राय को समक्ष रखकर भगवान् कहते हैं-गौतम ! सावधान रहो । कभी यह विस्मरण न करो कि तुमने पती का परित्याग कर दिया है अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है और धन फा भी त्याग करके अकिंचन बने हो अर्थात् परिग्रह त्याग महावत धारण किया है इन त्यागे हुए विषय भोगों को फिर कभी मत ग्रहण करना । इन्हें ग्रहण करने का विचार पल भर के लिए भी हृदय-प्रदेश में उदित न होने देना।
लोक में चमन (के) घृणित वस्तु समझी जाती है। वमन करके उसे कोई मनुष्य फिर भोगने का विचार भी नहीं करता। कुत्ता या कौवा श्रादि नीच प्राणी
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प्रमाद - परिहार
भले ही उसका भोग करे पर कोई मनुष्य उसकी और आंख उठा कर भी नहीं देखना चाहता । इस्त्री प्रकार संसार संबंधी जिन भोगोपभोगों का त्याग कर दिया है, वे वमन के समान हैं । कोई भी विवेक शील त्यागी पुरुष उन्हें पुनः ग्रहण करने की आकांक्षा नहीं कर सकता । अगर कोई ऐसी इच्छा करता है तो उसे काक - कूकर शादि निकृष्ट प्राणियों के समान समझना चाहिए। वह उत्तम पुरुष नहीं है ।
संसार में दो ही प्रधान आकर्षण है - स्त्री और धन । शेष आकर्षण इन्हीं के पीछे हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए ही जगत् में प्रारंभ - परिग्रह श्रादि करने पड़ते हैं । इसलिए सूत्रकार ने यहां इन दोनों का ही ग्रहण किया है ।
अथवा भार्या सजीव है और धन निर्जीव है । दोनों उपलक्षण हैं । भार्या शब्द से माता, पिता, बन्धु, वहिन, पुत्र, पौत्र, मित्र यादि समस्त संजीवों का उपलक्षण करना चाहिए और धन शब्द से मणि, रत्न, सुवर्ण श्रादि सब निर्जीव पदार्थों का ग्रहण कर लेना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि संसार के सारे वैभव को विभाव परिणाति का मूल कारण समझकर एकबार तुमने त्याग दिया है । उसका त्याग करके अनगार अर्थात् गृहहीन अवस्था धारण की है। इसे सदा स्मरण रखो। अपनी इस प्रशस्त त्याग भावना को निरन्तर वृद्धिंगत करते रहो । त्याग वृत्ति को उच्चता की और ले जाओ। उसे नीचे की और मत खिसकने दो। इस प्रकार निरन्तर यत्न शील रहो । इसमें एक समय मात्र का भी प्रमाद न करो ।
मूल:- न हु जिसे अज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए ।
संपई नेयाउए पहे, समयं गोयम ! मा पमाय ॥२५॥
छाया: न खलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदर्शक । सम्प्रति नैयायिके पथि, समर्थ गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २४ ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम! आज जिन नहीं दृष्टिगोचर होते किन्तु रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग का दर्शक और बहुतों का माननीय उनका शासन दृष्टिगोचर होता है, ऐसा कहकर पंचम काल के लोग धर्म ध्यान करेंगे । ऐसी दशा में इस समय मेरी विद्यमानता में, न्याय -मार्ग अर्थात् संयमपथ में एक समय मात्र के लिए भी प्रमाद न करों ।
भाग्यः - काल-चक्र के मुख्य दो विभाग हैं- (१) उत्सर्पिणी और (२) श्रवसर्पिणीं यह काल-चक्र अनादि काल ले घूम रहा है और अनन्त काल तक घूमता रहेगा । उत्सर्पिणी के समाप्त होने पर अवसर्पिणी काल प्रारंभ होता है और श्रवसर्पिणी काल का अन्त होने पर उत्सर्पिणी का प्रारंभ हो जाता है । दोनों काल दसदस कोटा - कोटि सागरोपम के होते हैं ।
जिस काल में शुभ पुद्गलों की वृद्धि और प्रशुभ पुद्गलों की हानि होती है यह उत्सर्पिणी अथवा विकासकाल कहलाता है। इस काल में मनुष्यों का सुख, आयु,
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दसवां अध्याय
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चल, आदि बढ़ते हैं । इसके छह श्रारे इस प्रकार हैं - (१) दुःखमदुःखमा (२) दुःखमा (३) दुःखमसुखमा (४) सुखमदुःखमा (५) सुखमा (2) सुखमसुखमा ।
जिस काल में अशुभ पुद्गलों की वृद्धि और शुभ की हानि होती है वह अवसर्पिणी काल कहलाता है। तात्पर्य यह है कि श्रवसर्पिणी काल में मनुष्यों की श्रायु क्रमशः कम होती है, शरीर की श्रवगाहना न्यून होती जाती है, वल क्षीण होता जाता है और धर्म भावना न्यून से न्यूनतर होती चली जाती है । यह हास का समय है । इसके भी छह आरे हैं । उन चारों के नाम वही है, पर उन्हें विपरीत क्रम से गिनना चाहिए । अर्थात पहले सुखमसुखमा, फिर सुखमा, आदि ।
इन छह आरों में से तृतीय शारे के अन्त में और चौथे आरे में ही चौ तीर्थकरों का जन्म होता है और वे जगत के जीवों को श्राध्यात्मिक उपदेश देकर सन्मार्ग प्रदर्शित करते हैं। पंचम आरा आरंभ होते ही निसर्गतः मुक्ति का द्वार चंद हो जाता है ।
भगवान् महावीर चतुर्थ श्रारे के अंतिम भाग में हुए हैं । उस समय पांचवां आरा आरंभ होने को ही था । अतः उसे सन्निकट जान कर भगवान् ने उसी पंचम धारे की उपेक्षा यहां बतलाया है कि, आज अर्थात् पांचवें आरे में, जिन अर्थात् तीर्थकर नहीं हैं, फिर भी सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी मोक्ष - मार्ग का प्रकाश करने वाला, तथा बहुतों द्वारा माननीय उनका शासन है, ऐसा समझ कर पंचम काल में उत्पन्न होने वाले भव्य जीव धर्म का आचरण करेंगे ।
कर
तात्पर्य यह है कि पंचम श्रारे में तीर्थंकर का अभाव होने पर भी, केवल तीर्थके शासन की विद्यमानता होने से ही मुमुक्षु जीव धर्म की श्राराधना करेंगे । ऐसी अवस्था में, इस समय तो मैं तीर्थकर स्वयं विद्यमान हूँ । तव नैयायिक पथ में अर्थात् श्रात्मा को सिद्धि प्रदान करने वाले मार्ग पर चलने में, समय मात्र का भी प्रमाद करना उचित नहीं है ।
मूल :- अवसोहिय कंटगायह, प्रोइण्णो सि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम ! मा पमायए ।।
छाया:- अवशोध्य कण्टकपर्थ, श्रवतर्णोऽसि पन्थानं महालयम् । गच्छसि मार्ग विशोध्य, समयं गौतम् ! मा प्रमादीः ॥ २६ ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम् ! तुम कंटकाकीर्ण पथ का परित्याग कर के विशाल मार्ग ( राज(मार्ग) को प्राप्त हुए हो । उस मार्ग का विशोधन करके गमन करने में समय मात्र भी प्रमाद न करो 1
भाग्यः - सुक्ति-लाभ के लिए सर्व प्रथम कण्टकपथ का परिहार करना श्रनिचार्य हैं। कटक दो प्रकार के होते हैं- द्रव्य कण्टक और भाव कण्टक। यहां संयम का प्रकरण है अतः भाव फेंटकों का ही ग्रहण करना चाहिए । मिथ्यात्व श्रविरति
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... प्रमाद-परिहार श्रादि संयम-मार्ग में अग्रसर होने में जो वाधक होते हैं, वे भाव कंटक कहलाते हैं। द्रव्य कंटक पैर में चुभते हैं और भाव कंटक अन्तरात्मा में चुभते हैं । द्रव्य कंटक क्षणिक कष्ट पहुंचाते हैं, भाव.कंटक एक बार घुमकर जन्म-जन्मान्तर में घोर वेदना पहुंचाते रहते हैं । द्रव्य कंटक बंवूल आदि वृक्षों में लगते हैं, भाव कंटक हृदय-प्रदेश में ही उगते हैं । द्रव्य कंटक स्थूल हैं और उनसे बचना कठिन नहीं है, भाव कंटक सूक्ष्म हैं और उनसे बचना अत्यन्त कठिन होता है । द्रव्य कंटक लुभावने नहीं होते . भाव कंटक लुभावने होते हैं । द्रव्य कंटक शरीर का छेदन करते हैं, भाव कंटक अात्मा को-छात्मा के पुनीत संयम को छेद डालते हैं।
द्रव्यकंटक चुभने पर उस से जो शारीरिक वेदना होती है, उसे यदि बिना व्याकुल हुए सहन किया जाय तो पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा होने से कर्मों का भार हलका हो जाता है । चढ़ा हुआ ऋण उतर जाता है। भाव कंटक नवीन कर्म-बंध के कारण होते हैं । उनले श्रात्मा का बोझ बढ़ता है। वे नवीन ऋण चढ़ाते
द्रव्य कंटकों का उद्धार करना सरल है, पर भाव-कंटकों का उद्धार करना उन्हें निकाल फेंकना, दुष्कर कार्य है। द्रव्य कंटक स्वभावतः असाताकारी प्रतीत होते हैं इसलिए उनसे सभी सावधान रहते हैं, पर भाव कंटक मोही जीवों को साताकारी प्रतीत होते हैं, इसलिए वे उनसे बचने का प्रयास नहीं करते।
इस प्रकार द्रव्यकंटकों की अपेक्षा भाव कंटक अनन्त गुणा अधिक भयंकर है। . जो महापुरुष उन कंटकों को हृदय प्रदेश से हटा देते हैं, वही संयम के कण्टकहीन पथ पर अग्रसर होकर अपने लक्ष्य पर पहुंच पाते हैं।
भगवान् , इन्द्रभूति से कहते हैं-तू ने कंटक सहित पथ का त्याग कर दिया श्रर्थात मिथ्यात्व तथा अविरति आदि का तू परित्याग कर चुका है और महालय अर्थात मोक्ष के मार्ग पर अवतीर्ण हुआ है। इस मार्ग पर अवतीर्ण होकर के तू उसे भी शोध-शोध कर तय कर रहा है, अर्थात् संयम-मार्ग में, शुद्धि का ध्यान रखकर चल रहा है, सो ऐसा करते हुए प्रमाद न करो।
श्री इन्द्रभूति की कथा प्रसिद्ध है। इन्द्रभूति भगवान महावीर के सन्निकट दीक्षित होने से पूर्व यज्ञ-याग श्रादि क्रिया काण्ड के समर्थक थे और स्वयं यज्ञ करते भी थे। हिंसात्मक यज्ञ मिथ्यात्व रूप है, अधर्म रूप है इसलिए श्रात्मा के लिए कंटक रूप है। इन कंटक रूप यज्ञ याग श्रादि क्रियाओं का त्याग करके उन्होंने श्री वईमान स्वामी का चरण-शरण स्वीकार किया था, इस अभिप्राय को लक्ष्य करके भगवान कहते हैं कि तू ने कण्टकाकीण पथ का अर्थात् हिंसा रूप मार्ग का त्याग करके अहिंसा रूप निष्कंटक पथ अंगीकार किया है। . इसके अतिरिक्त अन्य प्रत्येक दीक्षित होने वाला मुनि मिथ्यात्व और अविरति रूप कंटकों का त्याग करके ही संयम का पथ स्वीकार करता है, श्रतएव अन्य मनियों के लिए भी इस कथन की संगति होती है।
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दसवां अध्याय
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तात्पर्य यह है कि प्रत्येक साधु को अपने स्वरूप का विचार करना चाहिए कि मैंने विषय-काम-भोग का सर्वथा त्याग किया है और मैं संयम रूप सन्मार्ग पर - जिससे मुक्ति का लाभ होता है- श्रारूढ़ हुआ हूं और उस मार्ग पर विशुद्धत्ता के साथ अग्रसर हो रहा हूं, ऐसी अवस्था में मुझे प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
मूल :- प्रबले जह मार बाहरा, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छातावए, समयं गोयम ! मा पमायए २७
छाया:- प्रचलो यथा भारवाहकः, मा मार्ग विषमभच गाह्य । पश्चात् पश्चादनुताप्यते, समयं गोतस् ! मा प्रमादीः ॥ २७ ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम ! जैसे निर्बल भार वाहक ( बोझ ढोने वाला ) विपम मार्ग में प्रवेश करके फिर पश्चाताप करता है, वैसा तू मत कर । सन्मार्ग में प्रगति करने में एक समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
भाष्य:- दुर्बल पुरुष, जिसकी शारीरिक शक्ति वृद्धावस्था अथवा रोग आदि के कारण क्षीण हो गई है, वह अपने मस्तक पर बोझ लाद कर अगर दुर्गम मार्ग का अवलकन करे तो, कंटक या रेत की अधिकता आदि के कारण उसे चलना अत्यन्त कठिन हो जाता है । उस समय वह उस मार्ग पर अग्रसर होने के लिए पश्चात्ताप करता है कि ' हाय ! न जाने क्या कुबुद्धि मुझे सूभी थी कि मैं इधर चल पड़ा, मैंने वृथा ही सुमार्ग का त्याग किया, मैं बड़ा अज्ञान हूँ, आदि ।
पश्चात्ताप करने पर भी वह अपने आप उत्पन्न की हुई व्यथा से बच नहीं सकता । उसे अपनी असावधानी का भोग भोगना ही पड़ता है । इतना ही नहीं, किन्तु पश्चात्ताप के द्वारा उस व्यथा में वह वृद्धि कर लेता है ।
इसी प्रकार जो साधु सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट मार्ग का त्याग करके अज्ञान या मोह के वश होकर अन्य विषय मार्ग ग्रहण करता है, उसे भी अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता है। किन्तु वाद का पश्चात्ताप कुछ काम नहीं आता । विषय मार्ग अर्थात् विषय - कपाय आदि का मार्ग स्वीकार करने से नरक तिर्यञ्च गति की विषय वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं. तब जीव अपने कृत कर्मों पर पछताता है, पर उस पछतावे से वह उनके फल-भोग से मुक्त नहीं हो सकता ।
विवेक की उपयोगिता यही है कि पहले से हिताहित का विचार करके किसी मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए। भगवान् कहते हैं कि - हे गौतम ! इस प्रकार विचार न करके जो विषय मार्ग की और चल पड़ते हैं उन्हें पश्चात्ताप करना पड़ता है । इसलिए ऐसा प्रयत्न करो जिससे पश्चात्ताप करने का अवसर ही न श्राने पावे । ऐसा करने में एक भी समय का प्रमाद न करो ।
विषय मार्ग में कथा की अधिकता सूचित करने के लिए सुत्रकार ने भारवाहक का 'निर्बल' विशेषण दिया है। दो बार 'पश्चात् ' पद का प्रयोग यह सूचित करता है
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प्रमाद - परिहार
कि एकवार भी विषय मार्ग में गमन करने से पुनः पुनः संताप करना पड़ता है, अनेक भवों में भी संताप करना पड़ता है ।
मूलः - तिरो हु सि अण्णवं महं, किं पुए चिट्ठासे तीरमागयो । भितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए । २८
छाया:-तीर्णो ह्यसि श्रीवं महान्तं किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः । भित्र पारं गन्तु, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २८ ॥
शब्दार्थ:--- हे गौतम! तुमने विशाल सागर को पार कर लिया है, फिर किनारे पर आकर क्यों रुक रहे हो ? पहले पार पहुंचने के लिए शीघ्रता करो, एक भी समय का प्रमाद मत करो ।
भाष्यः - चतुर्गति रूप संसार विस्तीर्ण लागर के समान है । जैसे कोई वलवान पुरुष भी अपनी भुजाओं से सागर को पार नहीं कर सकता, उसी प्रकार अपने वल से संसार को पार करना संभव नहीं है। समुद्र पार करने के लिए जहाज की जरूरत पड़ती है और संसार को पार करने के लिए धर्म की आवश्यक्ता होती है ।
संसार-सागर का सांगोपाङ्ग रूपक पहले वतलाया जा चुका है । मनुष्य भव, श्रार्यक्षेत्र, धर्म श्रवण का सुअवसर और धर्मश्रद्धा की प्राप्ति होजाना मानों संसार-सागर के तट के निकट पहुंच जाना है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तथा नरक निर्यच, देव आदि पंवेन्द्रिय संबंधी नाना पर्यायों में भ्रमण करतेकरते अत्यन्त कठिनाई से पूर्वोक्त साधनों की प्राप्ति होती है । इस विषय का विवेचन यथावसर किया जा चुका है । यहां उसे दोहराना अनावश्यक है । धर्म श्रद्धा और धर्मस्पर्शता जिसे प्राप्त होगई है, वह विशाल सागर को पार कर चुका है। उसे अव थोड़े से ही पुरुषार्थ की आवश्यकता है । यदि थोड़ा सा पुरुषार्थ किया गया तो किनारा प्राप्त हो जायगा और फिर कभी इस अथाह संसार- सागर में नहीं आना पड़ेगा | अगर किनारे आकर जरा सी असावधानी की गई, एक कदम आगे न चढ़ाया तो, बस पिछला समस्त पुरुषार्थ व्यर्थ बन जायगा । फिर उसी अपार सागर में पढ़ना पड़ेगा और फिर न जाने कब, किस प्रकार उद्धार होगा। कब उसे पार करने का सुयोग मिलेगा |
अनादि काल से जीव सुख की खोज में, दुःखों से वचने के लिए प्रयत्न कर रहा है । उसके प्रयत्न में विघ्न वाधाओं का बाहुल्य है । न जाने कितने पूर्व भव में संचित किये हुए पुण्य के परम प्रकर्ष से यह अवसर मिला है। इसे हाथ से न जाने दो । इसका उपयोग करलो । थोड़ा-सा चल और लगायो । किनारा पाने के लिए शीघ्रता करो - ढील मत करो | एक समय का भी प्रमाद न करो । एक ही समय में चाजी हाथ से चली जा सकती है । अतएव श्रम भाव में विचर कर वह साध लो, जिसे साधने के लिए संयम को ग्रहण किया है और जो योगियों का परम श्रमि मत है ।
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दलवां अध्याय
[ ४०१ । मूल:-अकलेवरसेणिमासिया, सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि । " खेमं च सिवं अणुत्तरं, समयं गोयम ! मा पमायए २६ छाया:-अकलेचरश्रेणिमुत्सृत्य, सिद्धिं गौतम ! लोकं गच्छसि ।
क्षेमं च शिवसनुत्तरं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २६ ॥ शब्दार्थ--हे गौतम् ! यह आत्मा अशरीर अवस्था प्राप्त करके, कल्याण रूप अनुतर और निरूपद्रव सिद्धि क्षेत्र को प्राप्त करता है, अतएव समय मात्र भी प्रमाद न करो।
भाष्यः-संसार-सागर के किनारे श्राकर जीव यदि कुछ और आगे बढ़ता है तो उसे सिद्धि लोक की प्राप्ति होती है।
ऊर्ध्वलोक में सार्थसिद्ध नामक स्वर्ग से १२ योजन ऊपर, पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली, गोलाकार, एक करोड़ व्यालीस लाख तीस हजार दो सो उनंचाल । १४२३०२४६ ) योजन की परिधिवाली, शिद्ध-शिला है । यह लोकाकाश का अन्तिम भाग है। इसी भाग को सिद्धी-लोक, ३ सुक्ति सिद्धालय, मुक्तालय, लोकान अथवा ईषत् प्रागभार पृथ्वी कहते हैं । इस शिद्ध शिला के, एक योजन ऊपर, अनन्तानन्त सिद्ध शात्मा विराजमान हैं।
यह सिद्धि लोक क्षेमरूप है, शिव रूप है और अनुत्तर है। अर्थात् यहां विराजमान समस्त आत्माओं को अनन्त अात्मिक सुख प्राप्त है, उन्हें किसी प्रकार की वाधा नहीं है, किसी प्रकार की व्याकुलता नहीं है, सभी प्राप्तव्य प्राप्त हो चुका है। यह सिद्धि क्षेत्र सर्वोपरि है इससे ऊपर लोकाकाश का अन्त हो जाने स किसी जीव का गमन नहीं होता है भाव की अपेक्षा भी यह अनुत्तर है, अर्थात् सर्व श्रेष्ठ हैं। इस लोक में पूर्ण रूपेण विशुद्ध, निर्मल, निरंजन, निराकार अात्माओं का ही निवास
मोक्ष का विस्तृत स्वरूप प्रागे मोक्ष के अध्ययन में निरूपण किया जायगा। यह श्रात्मा की स्वासाविक, स्वरूपमय, शुद्ध अवस्था है। अप्रमत्त जीवों को ही इस लोक की प्राप्ति होती है।
चौदहवे गुणस्थानं तक शरीर विद्यमान रहता है। उसके पश्चात् आत्मा शरीर से पृथक होकर-शरीर अवस्था प्राप्त करके इसलोक की प्राप्ति करता है । इस परमानन्दमय लोक को प्राप्त करना ही प्रत्येक मुमुनु का ध्येय है यही योगियों का परम लक्ष्य है। संयम की साधना का यही अंतिम परिणाम है । यही आत्मा का सर्वोत्कृष्ट घासस्थान है। इसकी प्राप्ति हो जाने के पश्चात् श्रात्मा कृतकृत्य हो जाता है। फिर उसे कुछ भी करना शेप नहीं रहता। श्रतएर हे गौतम् ! इसलोक को प्राप्त करने में एक भी समय का प्रमाद न करो।
प्रस्तुत अध्ययन में यद्यपि भगवान् वर्द्धमान स्वामी ने गौतम को संबोधन फरके प्रमाद के परिहार की ओजस्वी और प्रभावपूर्ण प्रेरणा की है, तथापि यह प्रत्येक
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प्रमाद - परिहार
प्रमादी प्राणी के लिए समझनी चाहिए । जव चार ज्ञान के धनी गौतम जैसे महात्मा को भी प्रमाद - परिहार की प्रेरणा की गई है तो अन्य विषयासक्त जीवों को, जो निरन्तर प्रमत्त दशा में ही विचरते हैं, प्रमाद परित्याग की कितनी श्रावश्यकता है, यह वात प्रत्येक विवेकशील समझ सकता है ।
भव्यजनों ! प्रमाद अत्यन्त प्रबल रिपु है । वह श्रात्मा को मूर्छित करके उसकी नाना प्रकार की दुर्दशा कर रहा है । प्रमाद के पाश में पड़ा हुआ प्राणी चेतन होते हुए भी अचेतन-सा ज्ञान शून्य बन गया है । मनुष्य भव में ही ऐसा अवसर है कि उसे दूर कर अपना श्रभिमत्त सिद्ध किया जा सकता है । अतएव हे श्रात्मन् ! जागृत हो । भाव-निद्रा का त्याग कर । अपने स्वरूप की ओर निहार । एक भी क्षण के लिए प्रमाद को समीप न आने दो। इसी में परम कल्याण है, इसी में परम सुख है और इसी में अनमोल मनुष्यजीवन की सार्थकता है ।
निर्ग्रन्थ- प्रवचन- दसवां अध्याय समाप्तम्
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ॐ नमः सिद्धेभ्य
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
॥ ग्यारहवां अध्याय ॥
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भाषा-स्वरूप वर्णन
श्री भगवान् उवाच
मूलः - जा य सच्चा प्रवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा । जाय बुद्धेहिंडाइण्णा, न तं भासिज्ज पन्नवं ॥ १ ॥
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छाया:या व सत्याऽवक्तव्या, सत्यामृषा च या सृपा ।
या च बुद्धेरनाचीर्णा, न तां भाषेत् प्रज्ञावान् ॥ १ ॥
शब्दार्थ:- जो भाषा सत्य होने पर भी बोलने के अयोग्य हो, जो सत्यासत्य - मिश्र रूप- हो, जो मृषा अर्थात् असत्य हो और जो भाषा तीर्थंकरों द्वारा न बोली गई हो, उस भाषा को बुद्धिमान् पुरुष न बोले ।
भाज्य:- पिछले अध्याय में प्रमाद के परित्याग का उपदेश देने पश्चात् प्रकृत अध्याय में भाषा सम्बन्धी निरूपण किया जाता है, क्योंकि जिस प्रकार संयम की शुद्धि के लिए प्रमाद - परिहार की श्रावश्यकता है उसी प्रकार विशुद्ध भाषण की भी श्रावश्यकता है | जिसे भाषण सम्बन्धी विवेक नहीं होता वह असत्य भाषण करके सत्य महाव्रत का और श्रहिंसा महाव्रत का भंग कर डालता है । वह भाषा समिति का भी उल्लंघन करता है और वचन गुप्ति का भी खंडन करता है । तात्पर्य यह है कि भाषा-शुद्धि के बिना निर्दोष संयम की साधना संभव नहीं है । इसी कारण यहां भाषा सम्वन्धी विवेचन किया जाता है ।
भाषा, शब्द वर्गणा के पुगलों का परिणाम है, श्रतएव वह पौगलिक है । मीमांसक मतवाले शब्द को पुद्गल रूप न मान कर उसे श्राकाश का गुण मानते हैं । वे अपनी मान्यता का इस प्रकार समर्थन करते हैं
(१) शब्द पौगलिक नहीं है, क्योंकि उसके आधार में स्पर्श नहीं है । शब्द श्राकाश का गुण हैं, अतएव शब्द का श्राधार भी आकाश ही माना जा सकता है । श्राकाश स्पर्श से रहित हैं । जब आकाश ही स्पर्श से रहित है तब उसका गुण शब्द भी स्पर्श से रहित होना चाहिए और जिसमें स्पर्श नहीं है वह पुद्गल भी नहीं है ।
(२) पुद्गल रूपी होता है। रूपी होने से वह स्थूल भी है। स्थूल वस्तु, किसी अन्य सघन वस्तु में न प्रवेश कर सकती है और न उसमें से निकल सकती है। जैसे घट्टा रूपी पदार्थ है अतएव वह सघन दीवाल में न घुस सकता है, न निकल ही
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भाषा-स्वरूप वर्णन
ही सकता है । शब्द अगर पुल होता तो वह स्थूल भी होता । स्थूल होने से वह दीवाल आदि के पार नहीं निकल सकता था । पर शब्द दीवाल में घुस कर चाहर निकलता है इसलिए वह रूपी नहीं हो सकता और रूपी न होने के कारण पुदल भी नहीं माना जा सकता ।
(३) पौगलिक पदार्थों के उत्पन्न से पहले उनका उपादान कारण --अर्थात् पूर्व रूप दिखाई देता है और जब उनका ध्वंस होता है तब उत्तरकालीन रूप दिखाई देता है । जैसे घड़ा बनने से पहले उसका पूर्व रूप मृत्तिका उपलब्ध होती है और घड़ा नष्ट होने के पश्चात् उसका उत्तर रूप टुकड़े (ठीकरे ) उपलब्ध होते हैं । इसी प्रकार प्रत्येक पौलिक पदार्थ का पूर्ववत्त और उत्तरवर्त्ती रूप पाया जाता है, किन्तु शब्द का न तो कोई पूर्वकालीन रूप (पर्याय ) ही पाया जाता है, न उत्तरकालीन रूप ही । ऐसी अवस्था में शब्द को पुद्रले मानना उचित नहीं है ।
(४) पौद्गलिक पदार्थ, दूसरे पौगलिक पदार्थ में एक प्रकार की प्रेरणा उत्पन्न करता है, यदि शब्द पुद्गल रूप होता तो वह भी अन्य पौगलिक पदार्थों में प्रेरणा उत्पन्न करता । पर वह अन्य पदार्थों को प्रेरित नहीं करता अतएव वह पुद्गल रूप नहीं माना जा सकता ।
(५) शब्द प्रकाश का गुण है, इसलिए वह पौगलिक नहीं है । श्राकाश स्वयं पुद्गल नहीं है, इसलिए उसका गुण भी पुद्गल रूप नहीं हो सकता । योग मतावलम्बी इन युक्तियों से शब्द की इन युक्तियों पर संक्षेप में विचार किया जाता है ।
युद्गल रूपता का निषेध करते हैं ।
(१) सर्व प्रथम पहली युक्ति पर विचार करना चाहिए । इस युक्ति में शब्द के आधार को स्पर्श रहित माना गया है, किन्तु यह मान्यता ही निराधार है। वास्तव में शब्द का आधार स्पर्श-रहित नहीं है, किन्तु स्पर्शवान है । शब्द का आधार भाषावर्गणा है और भाषावर्गणा में स्पर्श अवश्य होता है । अतएव शब्द का श्राधार स्पर्शवाला होने से शब्द भी स्पर्श वाला है शब्द स्पर्श वाला है इस कारण वह पुद्गल रूप भी है । शंका- यदि शब्द में स्पर्श होता तो हमें स्पर्श की प्रतीति श्रवश्य होती किन्तु जब हम शब्द सुनते हैं जो स्पर्श का अनुभव नहीं होता । ऐसी अवस्था में शब्द को स्पर्शवान कैसे माना जाय ?
समाधान -- जिस वस्तु का श्रापको अनुभव न हो उसका प्रभाव ही हो, ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता । बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी हैं जिनका श्रापको अनुभव नहीं होता, फिर भी अनुमान यादि प्रमाणों से उनका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है । परमाणु का कभी प्रत्यक्ष नहीं होता, फिर भी उसका अस्तित्व आप स्वीकार करते हैं । फिर यह नियम कैसे माना जा सकता है ?
शंका-शब्द में स्पर्श हैं तो उसकी प्रतीति क्यों नहीं होती ?
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ग्यारहवां अध्याय -
[ ४०५ ] समाधान-शब्द में स्पर्श है तो, वह अव्या है-प्रकट नहीं है । जैसे सुगंध के आधार भूत पदार्थ में, गंध होने से स्पर्श का होना तो निश्चित है, फिर भी उसमें स्पर्श का श्रानुभव नहीं होता, क्योंकि वह अव्यक्त है, इसी प्रकार शब्द का स्पर्श प्रकट न होने के कारण हमें प्रतीत नहीं होता।
__शंका-सुगंध के आधार भूत द्रव्य में तो गंध के होने से स्पर्श का होना अनुमान किया जाता है, क्योंकि जहां गंध होता है वहां स्पर्श भी अवश्य होता है। किन्तु शब्द में स्पर्श होने का निश्चय किस प्रकार किया जा सकता है।
समाधान-जब वायु अनुकूल होती है तो शब्द बोलने वाला यदि दूरी पर खड़ा हो तो भी स्पष्ट रूप से शब्द सुनाई देता है। प्रतिकूल वायु होने पर पास में बोलने पर भी स्पष्ट सुनना कठिन हो जाता है । इलका क्या कारण है ? इस भेद का एक मात्र कारण यही है कि प्रतिकूल वायु शब्द का प्रतिरोध करती है और अनुकूल वायु उसके संचार में सहायक होती है। वायु का शब्द पर इस प्रकार प्रभाव पड़ना स्पष्ट है । शब्द यदि स्पर्शवान् न होता-श्ररूपी होता तो उस पर वायु का प्रभाव नहीं पड़ सकता था। इस प्रमाण ले यह स्पष्ट हो जाता है कि शब्द स्पर्शवाला है और स्प. शिवाला होने के कारण पौद्गलिक है।
(२) दूसरी युल्लि गंध द्रव्य से बाधित हो जाती है। गंधद्रव्य रूपी है, पौदगलिक है, फिर भी मकान के भीतर का गंध, किवाड़ बंद होने पर भी बाहर आ जाता है और बाहर का गंध मकान के भीतर चला जाता है । इसी प्रकार शब्द पौद्गलिक होने पर भी पा जा सकता है।
शका-किवाड़ो में छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। उन छिद्रो में होकर गंध भाता है। यही कारण है कि किवाड़ खुले होने पर अधिक गंध आता है और चन्द होने पर थोड़ा सा ही । इसलिए गंध न तो सघन प्रदेश में घुसता है, न निकलता है।
समाधान-जो बात आप गंध के लिए कहते हैं वही चात शब्द के लिए भी कही जा सकती है । शब्द भी, गंध की तरह सदम छिद्रों में होकर ही अाता-जाता है। यही कारण है कि खुले में जैसे स्पष्ट शब्द सुनाई देता है उस प्रकार बन्द किवाड़ों में होकर नहीं सुन परता। अतएव यह कहना अनुचित है कि शब्द सघन प्रदेश में भी आता-जाता है।
(३) तिसरी युति विद्युत् और इन्द्र धनुप श्रादि से पित है । विजली और इन्द्र धनुष पोद्गलिक हैं, यह बात आपको भी मान्य है, परन्तु न तो उनकी उत्पत्ति होने से पहले, उनका पूर्ववर्ती रूप देखा जाता है और न उनके नष्ट हो जाने के पश्चात् उत्तर कालीन रूप ही दिखाई देता है। फिर भी जैसे बिजली सादि को आपने पौदगलिक माना है उसी प्रकार शब्द को पोद्गलिफ मानने में या हानि है ?
(४) चौथी युक्ति भी निस्सार है। सूक्ष्म रज, धूप, गंध यादि अनेक पौद्गलिक पदार्थ दूसरे पदार्थ में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करते, फिर भी ये पौद्गलिक है, इसी प्रकार
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भाषा-स्वरूप वन
शब्द भी पौद्गतिक मानना चाहिए । धूप, गंध और रज कण आदि की भांति शब्द सूक्ष्म पुल रूप होने के कारण वह अन्य पदार्थों के प्रेरित नहीं करता | व उसकी पुद्गल रूपता में कोई बाधा नहीं है ।
(५) शब्द श्राकाश का गुण है, यह कथन सर्वथा निर्मूल है। शब्द आकाश का गुण नहीं है, किन्तु पुल द्रव्य की पर्याय है श्रतएव उसकी पौगलिकता में कोई भी बाधा उपस्थित नहीं होती । शब्द यदि श्राकाश का गुण होता तो उसका हमें प्रत्यक्ष नहीं हो सकता था । क्योंकि हमें श्राकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिए उसके गुण शब्द का भी प्रत्यक्ष होना संभव नहीं था । शब्द श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होता है, इसलिए वह आकाश का गुण नहीं हो सकता ।
शब्द की पौगलिकता इस अनुमान से सिद्ध होती है-शब्द पौलिक है, क्यों कि वह इन्द्रिय का विषय है, जो जो पदार्थ इन्द्रिय का विषय होता है, वह वह पौनलिक होता है, जैसे घट, पट आदि अन्य अनेक पदार्थ । शब्द श्रोत्र- इन्द्रिय का विषय है, अतएव वद पौद्गलिक है ।
उल्लिखित कथन से भली भांति प्रकट है कि शब्द पुद्गल रूप ही है । इस पुद्गल रूप शब्द में स्वाभाविक शक्ति ऐसी है, जिससे वह पदार्थों का बौद्ध कराता हूँ । जसे सूर्य अपनी स्वाभाविक सामर्थ्य से पदार्थों को आलोकित करता है, उसी प्रकार शब्द अपनी स्वाभाविक शक्ति से पदार्थों का बोध कराता है । प्रत्येक शब्द में, प्रत्येक पदार्थ का बोध कराने की शक्ति विद्यमान है । 'घट' शब्द | जैसे स्वभावतः घड़े का वोधक है उसी प्रकार वह वस्त्र, श्रादि अन्य पदार्थों का भी वोधक है । किन्तु मनुष्य समाज ने भिन्न-भिन्न संकेतों की कल्पना करके उसकी वाचक-शक्ति केन्द्रित करदी
। श्रतएव जिस देश में, जिस काल में, जिस पदार्थ के लिए, जो शब्द नियत कर दिया गया है, वह उसी नियत पदार्थ का वाचक वन जाता है ।
संकेतों की नियतता के बिना मनुष्य-समाज का लोक-व्यवहार ही नहीं चल सकता । यदि कोई भी एक शब्द समस्त पदार्थों का वाचक मान लिया जाता तो, किसी एक विशेष पदार्थ को शब्द द्वारा बतलाना असंभव हो जाता । उदाहरण के लिए 'गो' शब्द लीजिए । गो का अर्थ यदि संसार के सभी पदार्थ मान लिए जाएँ तो, जब कोई किसी को 'गो' लाने का आदेश देगा तो सुनने वाला पुस्तक, कागज़, घोड़ा, कपड़ा आदि कोई भी पदार्थ ले प्रायगा, क्योंकि 'गो' का अर्थ सभी पदार्थ हैं । इस गड़बड़ से बचने के लिए शब्द की व्यापक वाचक-शक्ति को किसी एक पदार्थ तक ही सीमित करना श्रावश्यक है ।
शंका- जब कि शब्द संकेत के अनुसार एक नियत पदार्थ का ही वाचक होता है तब उसमें समस्त पदार्थों के वाचक होने की शक्ति कैसे मानी जा सकती है ?
समाधान - संकेत पुरुषों की इच्छा के अधीन हैं। आज एक शब्द का जिस पदार्थ के लिए संकेत किया जाता है, कल उसी शब्द का दूसरे पदार्थ के लिए भी संकेत किया जा सकता है । इस प्रकार एक ही शब्द, विभिन्न कालों में, विभिन्न
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ग्यारहवां अध्याय
P४०७ ] अर्थों का वाचक होता है । एक शब्द देश-भेद से भी भिन्न-भिन्न पदार्थों का बोधक देखा जाता है। अगर चार मनुष्य मिल कर यह निश्चय करलें कि हम लोग आपस में 'हाथी' को 'गाय' कहेंगे, तो उनके लिए 'गाय' शब्द हाथी का अर्थ ही प्रकट करेगा। इससे यह प्रमाणित होता है कि एक शब्द स्वभावतः एक ही पदार्थ का बोधक नहीं है, अपितु संकेत के अनुसार ससी पदार्थों का बोधक हो सकता है।
इल प्रकार स्वाभाविक शक्ति और संकेत के अनुसार शब्द से श्रर्थ का बोध होता है। श्रोत्र-इन्द्रिय शब्द को ग्रहण करती है, और उसके द्वारा आत्मा को उसके वाच्य अर्थ की प्रतीति होती है।
___ वक्ता के द्वारा बोला हुआ शब्द थोता किस प्रकार सुनता है, शब्द कितनी दूर तक जा सकता है ? श्रादि अनेक प्रश्नों का विवेचन शास्त्रों में विद्यमान है । यहां संक्षेप में इस सम्बन्ध में कथन किया जायगा।
यह बतलाया जा चुका है कि भाषा एक प्रकार के (शब्द वर्गणा के ) पुद्गल परमाणुओं से बनती है। यह पुद्गल-परमाणु समस्त लोकालाश में व्याप्त हैं । जय वक्ता बोलता है तो वे पुद्गल शब्द रूप में परिणत हो जाते हैं और एक ही समय में लोक के अन्त भाग तक पहुंच जाते हैं । उनकी गति का वेग इतना तीवतर है कि उसकी कल्पना करना भी कठिन है।
आकाश द्रव्य के प्रदेशों की श्रेणियां-पंक्तियां-बनी हुई हैं। यह पंक्तियां पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर तथा नीचे, इस प्रकार छहों दिशाओं में विद्यमान हैं। जव वक्ता भाषा का प्रयोग करता है तब इन श्रेणी रूप मार्गों से शब्द फैलता है। चार समय जितने सूक्ष्म काल में शब्द लमस्त लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है । श्रोता यदि भाषा की समश्रेणी में स्थित होता है तो वह वक्ता द्वारा बोली हुई भाषा को या भेरी आदि के शब्द को मिश्र रूप में सुनता है और यदि श्रोता विश्रेणी में स्थित होता हैं तो वह वासित शब्द सुनता है।
वता द्वारा बोले हुए शब्द ही श्रोता नहीं सुनता, लिन्तु बोले हुए शब्द द्रव्य तथा उन शब्द द्रव्यों से, वासित हुए बीच के शब्द द्रव्य मिल कर मिश्र शब्द कहलाते हैं और उन्हीं मिश्र शब्द द्रव्यों को समश्रेणी स्थित श्रोता सुनता है । विश्रेणी स्थित श्रोता मिश्र शब्द भी नहीं सुन सकता । वह सिर्फ उच्चारित मूल शब्दों द्वारा वासित शब्दों को ही श्रवण करता है । वक्ता द्वारा शब्द रूप ले त्यागे हुए द्रव्यों से अथवा भेरी श्रादि के शब्द द्रव्यों से, बीच में स्थित शब्द रूप परिणति के योग्य (शब्द वर्गणा के) पुद्गल, शब्द रूप में परिणत हो जाते हैं, उन शब्द द्रव्यों को वासित शब्द कहते है । विश्रेणी में स्थित श्रोता ऐसे वासित शब्द ही सुन पाता है, वक्ता द्वारा प्रयुक्त मूल शब्द नहीं।
विश्रेणी-स्थित श्रोता मूल शब्द नहीं सुन सकता, इसका कारण यह है कि शब्द श्रेणी के अनुसार ही फैलता है, यह विश्रेणी में नहीं जाता। शब्द द्रव्य इतना सूचम दे कि दीवाल आदि का प्रतिवात भी उसे विश्रेणी में ले जाने में समर्थ नहीं है।
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[ ४०८ 1
भाषा-स्वरूप वर्णन शंका-आपने बतलाया है कि शब्द एक समय में श्रेणी के अनुसार लोक के अन्तिम भाग तक पहुंच जाता है। वह दूसरे समय में विदिशा में भी जाता है और चार समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में, विदिशा में स्थित श्रोता भी मिश्र शब्द क्यों नहीं सुनता ?
समाधान-भाषा को लोकान्त तक पहुंचने में एक समय लग जाता है और दूसरे समय में वह भाषा, भाषा नहीं रहती। क्योंकि "भाष्यमाणैव भाषा, भाषासमयानन्तरं भाषाऽभाषा" ऐसा कहा गया है। अर्थात् भाषा जिस समय में बोली जा रही हो, उसी समय में वह भाषा कहलाती है। उस एक समय के पश्चात् भापा प्रभाषा हो जाती है। बोला हुश्रा शब्द दूसरे समय में श्रवण करने के योग्य नहीं रहता है।
श्रतएव विदिशा में जो शब्द सुन पढ़ता है वह द्वितीय प्रादि समयवती होने के कारण सूल शब्द नहीं है, क्योंकि द्वितीय समय में वह श्राव्य शक्ति से शून्य हो जाता है, उस मूल शब्द ने अन्य शब्द वर्गणा के पुद्गलों को भाषा रूप परिणत कर दिया है इसलिए वह वासित शब्द है और वही विदिशा में सुनाई देते हैं।
जल में पत्थर डालने से, जहां पत्थर गिरता है उसके चारों ओर एक लहर उत्पन्न होती है। वह लहर अन्य लहरों को उत्पन्न करती हुई जलाशय के अन्त तक बढ़ती चली जाती है। इसी तरह वक्ता द्वारा प्रयुक्त भाषा द्रव्य आगे बढ़ता हुना, आकाश में स्थित अन्यान्य भाषा योग्य द्रव्यों को भाषा रूप में परिणत करता हुश्रा लोक के अन्त तक जाता है। लोक के अन्त में पहुंच कर उसकी सुनाई देने की शक्ति समात हो जाती है, पर उससे अन्यान्य भाषा वर्गणा के मुद्दों में शब्द रूप परिणति उत्पन्न होती है और वे शब्द, मूल तथा बीच के शब्दों द्वारा अर्थात् मिश्र शब्दों द्वारा प्रेरित होकर गतिमान हो जाते हैं और विश्रेणियों की शोर अग्रसर होते हैं । इस प्रकार चार समय में समस्त लोकाकाश उन शब्दों द्वारा पूर्ण रूप से व्याप्त हो जाता
जीव काय योग के द्वारा भाषा द्रव्य को ग्रहण करता है और वचन योग के द्वारा उसका त्याग करता है । ग्रहण और त्याग करने की यह क्रिया चाल रहती है। जीव कभी निरन्तर भाषा द्रव्य को ग्रहण करता है और निरन्तर भापा द्रव्य को त्याग करता रहता है । इससे यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिए कि जिन द्रव्यों को, जिस समय में ग्रहण किया जाता है, वह द्रव्य उली लमय त्याग दिये जाते हैं। किन्तु प्रथम समय में ग्रहण किये हुए भाषा द्रव्यों को द्वितीय समय में जीव त्याग करता है और द्वितीय समय में ग्रहण किये हुए द्रव्यों को तृतीय समय में त्यागता है।
औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर वाला जीव ही भाषा द्रव्य को ग्रहण करता और त्यागता है।
कोई-कोई. लोग ब्रह्म को शब्दात्मक स्वीकार करके, समस्त विश्व को शब्दामक स्वीकार करते हैं। उनके मत ले, संसार में, शब्द के अतिरिक्त घट पट आदि
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ग्यारहर्वा अध्याय
[ ४०६ बाहा पदार्थ और ज्ञान आदि रूप श्रान्तरिक पदार्थों की सत्ता ही नहीं है। शन्द ही विभिन्न वस्तुओं के रूप में प्रतिभालित होता है। किन्तु यह मत प्रमाण से विरुद्ध है। शब्द की पौगालिकता का समर्थन पहले किया जा चुका है और प्रथम अध्याय में स्वतंत्र आत्मा की भी सिद्धी की जा चुकी है । अतएव यहां इस विषय का विस्तार करना अनावश्यक है।
विज्ञान द्वारा श्राविष्कृत यन्त्रों से शब्द का ग्रहण होता है, यह आधुनिक काल में प्रत्यक्ष हो चुका है। यंत्र पुद्गल रूप है और उनके द्वारा पुद्गल ही पकड़ में श्रा सकता है, अन्य कोई भी वस्तु यंत्रों द्वारा ग्रहण नहीं की जा सकती। इससे भी शब्द की पौद्गलिकता असंदिग्ध हो जाती है। ऐसी अवस्था में शब्द को ही मान आदि रूप मानना सर्वथा श्रयुक्त है।
निक्षेपों के आधार से भाषा के चार भेद हैं--(१) नाम भाषा (२) स्थापनाभापा (३) द्रव्य भाषा और भाव मापा । किसी वस्तु का 'भाषा' ऐसा नाम रख देना नाम भाषा है । पुस्तक श्रादि में लिखी हुई भापा स्थापना भापा है। द्रव्य भापा दो प्रकार की है-(१) श्रागम द्रव्य भापा और (२) नो-पागम द्रव्य भाषा । जो भाषा का ज्ञाता दो किन्तु उससे अनुपयुक्त (. उपयोग रहित ) हो उसे श्रागम द्रव्यभाषा कहते हैं। नो
आगम द्रव्य भाषा के तीन भेद हैं (१) शरीर (२) भव्य शरीर और (३) तव्यतिरिक्त । भाषा के अर्थ को जानने वाले पुरुष का निर्जीव शरीर तो आगम शरीर द्रव्य भाषा है। जो भविष्य में भापा का अर्थ जानेगा ऐसे पुरुष का शरीर नो भागम भव्य शरीर द्रव्यमापा है।
तद्व्यतिरिक्त नो भागा द्रव्य भाषा के भी तीन भेद हैं-(१) ग्रहण (२) नि:सरण और (३) पराधान । वचन योग के परिणमन वाले आत्मा द्वारा ग्रहण किये हुए भाषा द्रव्य को ग्रहण कहते हैं। कंठ आदि स्थानों के प्रयत्न से त्यागे हुए भाषा द्रव्य को निस्सरण कहते हैं । त्यागे हुए भाषा द्रव्यों से वासित हुए, भापा द्रव्य रूप से परिणत द्रव्य एराधान कहलाते हैं।
उपयोगवान पुरुप की भाषा भाव-भाश कहलाती है क्योंकि उपयोग एक प्रकार का भाव है। भावमापा तीन प्रकार की है-(१) द्रव्याधित (२) धुताश्रित मौर (३) चारित्राश्रित ।
(१) द्रव्याश्रित भाव भाषा-द्रव्याश्रित भाव भापा के चार भेद -(१). सत्य भाषा (२) असत्य मापा (३) सत्यासत्य (मिश्र) भापा और (8) असत्यामृपा (व्यावहार) मापा।
(क) सत्यभापा-यथार्थ वस्तु तत्व को स्थापित करने के अभिप्राय से, सिद्धान्त के अनुसार जो भाषा बोली जाती है वह सत्य भारा कहलाती है। जैसे-आत्मा स्वरूप से सत् है और पर रूप से असत् है।
(च) असत्य भापा-सत्य से विपरीत अर्थात् सिद्धान्त विरुद्ध भापा असत्य भाषा दलाती है।
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[ ४१२ ]
भाषा-स्वरूप वर्णन (४) चतुर्थ भंग शून्य रूप है।
प्रकारान्तर से असत्य के दल भेद हैं। इनका उक्त चार भेदों में से भाव-अलत्य में समावेश होता है। दल भेद यों हैं
• कोहे माणे माया, लोहे पिज्जे तहेव दोले य ।
हाल भए अखाइय, उवघाइयर्णिस्सिया दसमा ॥ अर्थात् [१] क्रोधनिश्रित [२] माननिश्रित [२] मायानिश्रित [४] लोभनिश्रित [५] प्रेमनिश्रित [६] द्वेष निश्रित [७] हास्यनिश्रित [८] भयनिश्रित [६] श्राख्यापिकानिश्रित और [१०] उपधाननिश्रित, यह इस असत्य भाषा के भेद हैं। .
[१] शोधनिश्रित-क्रोध के वश में हुश्रा जीव, विपरीत बुद्धि ले, जो असत्य या सत्य बोलता है वह क्रोध निश्रित सत्य है। ऐसा व्यक्ति तथ्य पदार्थ का कथन भले ही करे किन्तु उसका आशय दूषित होने के कारण उसकी भाषा असत्य ही है।
[२] माननिश्रित-पाभिमान से प्रेरित होकर भाषण करना माननिश्रित अस. त्य है। जैसे-'पदले हमने एसे विपुल ऐश्वर्य का अनुभव किया है कि- संसार में राजाओं को भी दुर्लभ है।' इस प्रकार कहना।
[३] मायानिश्रित-दूसरों को ठगने के अभिप्राय से सत्य या असत्य भाषण करना मायानिश्रित असत्य भाषा है। यहां पर भी अभिप्राय की दुष्टता के कारण भाषा दुष्ट हो जाती है।
[लोभनिश्रित लोभ के वश होकर असत्य भाषण करना । जैसे-तराजू में पासंग रख कर के भी कहना कि यह तराजू बिलकुल ठीक है।
[५] प्रेसनिधित-प्रेम अर्थात राग के आधीन होकर 'मैं तुह्मारा दास हूं इत्यादि चापलूसी के वचन बोलना।
६] द्वेषनिश्रित-द्वेष से प्रेरित होकर भाषण करना द्वेषनिश्रित असत्य है। [७' हास्यनिश्रित-हंसी-दिल्लगी, क्रीडा प्रादि में असत्य भाषण करना ।
८] भयनिश्रित-चोर श्रादि के भय ले असत्य बोलना । जैसे-'मैं दरिद्र हूं, . मेरे पास क्या रक्खा है ? श्रादि ।' अथवा किये हुए अपराध के दंड के भय से न्या. याधीश के समक्ष असत्य बोलना, प्रायाश्चित्त शथवा लोकनिन्दा के भय से असत्य का प्रयोग करना, यह सब भयनिश्रित असत्य है।
18] प्राण्यापिकानिथित-कथा-कहानी श्रादि में असंभव वातो का वर्णन करना । यद्यपि कथाओं, कहानियों, उपन्यालों एवं नाटकों में प्रायः कल्पित पात्र होते हैं और उनका वार्तालाप तथा चरित्र चित्रण भी कारपत होता है, तथापि जहां कथा का श्राशय किसी सत्य का निरूपण करना होता है, वास्तविकता का दिगदर्शन कराने के लिए जो उपन्यास भादि लिखे जाते हैं, वे असत्य की परिभाषा में अन्तर्गत नहीं होते। जहां प्राशय दुर्पित होता है और असंभव एवं अस्वाभाविक चातों का कथन किया जाता है वही आध्यापिका निश्रित अलत्य समझना चाहिए।
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ग्यारहवां अध्याय
[ ४१३ । [१०] किसी व्यक्ति पर मिथ्या श्रारोप लगाना उपघात निश्रित असत्य है। जैसे-'तू चोर है, पर स्त्री लम्पट है, आदि । इस प्रकार का कथन यदि मिथ्या है अर्थात् जिसे चोर कहा गया है वह वास्तव में चोर नहीं है, तब तो इस भाषण की असत्यता स्पष्ट ही है । यदि वह व्यक्ति वास्तव में चोर है और उसकी निन्दा करने के अभिप्राय ले कोई इस प्रकार बोलता है तो भी. इसे श्राशय दोष से मिथ्या ही समझना चाहिए। यदि एकान्त में, उसके दोषों का निवारण करने के लिए, विशुद्ध उद्देश्य से इस प्रकार कहा जाय तो यह असत्य में सम्मिलित नहीं है।
सत्यासत्य भाषा के भी दल प्रकार हैं:-[१: उत्पन्नमिश्रिता [२] विगतमिश्रिता [३] उत्पन्नविगत मिश्रिता [४] जीवमिश्रिता [५] अजीयमिश्रिता [६] जीवाजीवमिश्रिता [७] अनन्तमिश्रिता [८) प्रत्येकमिश्रिता [६] अहामिश्रिता [१०] श्रद्दाहामिश्रिता । इनका स्वरूप इस प्रकार है:
[१] उत्पन्नमिश्रिता-संख्या पूरी करने के लिए, जिसमें न उत्पन्न हुओं के साथ उत्पन्न हुए पदार्थ सम्मिलित हों वह उत्पन्न-मिश्रिता सत्यासत्य भाषा है। जैसे किली नगर में कम या अधिक बालक जन्में हो तथापि 'आज दस बालकों का जन्म हुआ है' इत्यादि कथन करना।
- [२] विगतमिश्रिता-उत्पत्ति के समान मरण के संबंध में पूर्वोक्त प्रकार का कथन करना।
[३] उत्पन्नविगतमिश्रिता-जन्म और मरण-दोनों के विषय में निश्चित परिमाण को उलंघन करके कथन करना-आंशिक मिथ्या परुपण करना।
[४] जीवमिश्रिता-जीवों के किली समूह में बहुत से मृत हों और बहुत से जीवित हों, तथापि यह कहना कि-देखो, कितना बड़ा जीयों का समूह है।' यहां मृत शरीरों में जीवत्व का अभाव है, फिर भी उन्हें जीव शब्द से कहा गया है, यह मिथ्या अंश है और जीवितों को जीव कथन करना सत्य है, अतः यह वाक्य मिश्र भाषा में परिगणित है।
[५] अजीवमिश्रिता-पूनि प्रकार से, जहां जीव और अजीव दोनों सम्मिलित हों वहां उन्हें श्रजीव के रूप में कथन करना अजीवमिश्रिता भाषा है।
[६] जीवाजीवमिथिता-उसी पूर्वोक्त समूह में, 'इतने मरे हैं, इतने जीवित हैं' इस प्रकार वास्तविक परिमाण का उलंघन करके कथन करना जीवाजीवमिश्रिता भापा है।
[७] अनन्तमिश्रिता-मूला आदि अनन्त कायिकों से मिभ प्रत्येक वनस्पति को देख कर कहना-यह सब अनन्त कायिक है।'
[८] प्रत्येकमिश्रिता-प्रत्येक वनस्पतिकाय अनन्त चनस्पतिकाय के साथ रमी हो, उसे देख कर कहना-'यह सब प्रत्येक वनस्पति काय हैं।'
16 श्रदामिश्रिता-श्रदा का तात्पर्य यहां रात्रि, दिवस आदि व्यवहार काल
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[ ४१४ ]
भाषा-स्वरूप वर्णन . समझना चाहिए । उस काल के द्वारा मिश्रित भाषा श्रद्दामिश्रिता कहलाती है। जैसे कोई पुरुष जल्दी करने के लिए दिन शेष होने पर भी यह कहे-'जल्दी करो, रात्रि हो गई।' अथवा रात्रि शेष होने पर भी कहना-'उठो, दिन हो गया है। इत्यादि प्रकार से अन्य उदाहरण समझ लेने चाहिए ।
। [१०] अहाद्दामिश्रिता-रात्रि या दिवस का अंश अदाधा कहलाता है। उसके संबंध में मिश्र भाषा का प्रयोग करना श्रदादा कहलाता है। जैले दिन का प्रथम ग्रहर व्यतीत न हुआ हो तथापि कहना कि-'चलो, मध्याह्न हो गया है।' इत्यादि। .
स्थूल अपेक्षा से मिश्र भाषा के उक्त भेद बताये गये हैं। वक्ता और उनके द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले वाक्य अपरिमित हैं और सत्य एवं असत्य का सस्मिश्रण अनेक प्रकार से किया जा सकता है-किया जाता है। अतएव परिपूर्ण स्वरूप का उल्लेख नहीं हो सकता। विवेकीजनों को विचार क के यथायोग्य समन्वय और निर्धारण कर लेना चाहिए।
चौथी व्यवहार भाषा है । जिसमें सत्य, असत्य अथवा मिथ भाषा का लक्षा घटित नहीं होता और जो श्राराधना अथवा विराधना के उपयोग से रहित है वह अलत्यामृषा या व्यवहार भाषा कहलाती है ।
असत्यांमृषा भाषा के बारह प्रकार हैं-[१] श्रामन्त्रणी [२] श्राज्ञापनी [३] याचनी [४] पृच्छनी [५] प्रज्ञापिनी [६] प्रत्याख्यानी [७] इच्छानुलोमा [ अनभिगृहिता [६] अभिगृहिता १० संशय करणी [२१] व्याकृता और [१२] अन्याकृता।
[१] आमन्त्रणी-जो भाषा सम्बोधन-पदों से युक्त होती है, और जिसे सुनकर श्रोता श्रवण करने के अभिमुख होता है वह आमन्त्रणी भाषा कहलाती है। यह सत्य श्रादि भाषाओं से भिन्न प्रकार की है और पाराधक-विराधक भाव से रहितत है, इसलिए यह असत्यामृषा है।
[२] श्राज्ञापनी-आज्ञावचन से युक्त भाषा आज्ञापनी कहलाती है।
३] याचनी-जिल भाषा द्वारा अभिष्ट पदार्थ की याचना की जाय यह याचनी भाषा है । जैसे-'मुझे भिक्षा दो' ऐसा कहना।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि वीतराग होने के कारण किसी को कुछ भी न देने वाले तीर्थकर भगवान से 'भारुगोहिलामं समाहिवरमुतम दित अर्थात मझे आरोग्य एवं बोधिलाभ तथा श्रेष्ठ समाधि अरिहन्त भगवान प्रदान करें, इस प्रकार की याचना करना याचनी भाषा कैसी हो सकती है, जवकि याचना के विषय का अभाव है?
इसका समाधान यह है कि वास्तव में यह भक्ति प्रयुक्त याचनी भापा है। यहां याचना का विषय न होने पर भी असत्यामृपा होने के कारण और निश्चय से सत्य की कोटि में प्रवेश करने रूप गुण से युक्त होने के कारण वह निर्दोष है।
[४] पृच्छनी-जिस विषय में जिशाला का प्रादुर्भाव हुआ हो उस विषय में
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उसके ज्ञाता से पूछना पृच्छनी भाषा है । किसी को निरुत्तर करने के अभिप्राय से अथवा अपना गौरव प्रदर्शित करने के विचार से प्रश्न करना पृच्छनी भाषा नहीं है, जैसे कि सोमिल ने पूछा था कि- 'श्राप एक हैं या दो हैं' जिज्ञासा की तृप्ति के लिए पूछना ही पृच्छनी भाषा है, जैसे- गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किये थे ।
[V] प्रज्ञापनी - विनीत शिष्य या मित्र आदि को कर्त्तव्य का उपदेश करना प्रज्ञापनी भाषा है । 'हिंसा गर्हित है. दुःख का कारण है, उसका श्राचरण नहीं करना चाहिए' इस प्रकार का निषेधप्रधान उपदेश भी प्रचापनी भाषा ही है ।
[६] प्रत्याख्यानी - मांगी हुई वस्तु का निषेध करना प्रत्याख्यानी भाषा है । | जैसे 'मैं यह वस्तु नहीं दूंगा।' इसके अतिरिक्त पाप के निषेध का वचन भी प्रत्याख्यानी भाषा है । जैसे- 'मैं' न स्वयं पाप करूंगा, न कराउंगा।' इत्यादि ।
[७] इच्छानुलोभा- अपने इष्ट पदार्थ का कथन करना इच्छानुलोभा भाषा है । जैसे कोई पुरुष किसी कार्य को आरंभ करता हुआ पूछे कि मैं यह काय करूं ?" उत्तर में दूसरा कहे - करो, मुझे भी यह स्पष्ट है । इस प्रकार दूसरे की इच्छा का अनुसरण करना भी इच्छानुलोभा भाषा 1
(८) अनभिग्रहांता - अनेक कार्यों का प्रश्न करने पर उसमें से एक का भी निश्चय न हो वह अनभिगृहीत भाषा है । जैसे- किसी ने, किसी से अनेक कार्य गिनाकर पूछा- कौन सा कार्य करूँ ? दूसरे ने उत्तर दिया- 'तुम्हारी जो इच्छा हो वही करो' । इस वाक्य से एक भी कार्य का निश्चय नहीं होता। ऐसी भाषा अनभिग्रहीता कहलाती है ।
(६) अभिगृहीता - उक्त अनभिगृहीता से विपरीत भाषा को अभिगृहीत भाषा कहते हैं । अर्थात् अनेक कार्यों संबंधी प्रश्न करने पर किसी एक का निश्चय करने वाली भाषा । जैसे- अभी इन सब कार्यों में से अमुक कार्य करो, इत्यादि ।
(१०) संशय करणी अनेक अर्थ वाला कोई शब्द सुनकर श्रोता जिसमें संशय में पढ़ जाय वह संशय करणी भाषा है । जैसे- 'किसी ने कहा- सैंधव ले आओ।' सैंधव शब्द के दो अर्थ हैं- -नमक और घोड़ा । भोजन का प्रसंग हो तो नमक अर्थ समझा जा सकता है और यात्रा का प्रसंग हो तो घोड़ा अर्थ समझा जा सकता है । ऐसी दशा मै यह भाषा संशय करणी नहीं है । किन्तु जहाँ प्रकरण या अन्य अर्थ बोध सहायक सामग्री न हो, वहाँ श्रोता को संदेह उत्पन्न होता है । इस अवस्था में यह भाषा संशय करती है । इसी प्रकार संशय की करणी कहलाती हैं, चाहे वह अनेकार्थक शब्द के जैसे- 'कौन जानता है, परलोक है या नहीं ?'
कारण भूत कोई भी भाषा संशय प्रयोग से हो या अन्य प्रकार से ।
(११) व्याकृता--जो भाषा प्रकट अर्थ वाली हो यह व्याकृता कहलाती है । जैसे-- 'यह देवदत्त का भाई हूँ ।'
(१२) अव्याकृता - अत्यन्त गूढ़ अर्थ चाली अथवा अस्पष्ट उच्चारण वाली
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भाषा-स्वरूप वर्णन भाषा अव्याकृता कहलाती है, क्योंकि उसका प्रकट अर्थ समझ में नहीं आता। बालकों की अस्पष्ट भाषा भी अव्याकृता में सम्मिलित है।
... इस प्रकार द्रव्याश्रित भाषा के चार प्रकारों का तथा उनके भेद-प्रभेदों का कथन संक्षेप में यहाँ किया गया है।
समस्त देव, नारकी और मनुष्य चारों प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की भाषा असंत्यामृपा होती है, क्योंकि वे सम्यग्ज्ञानी न होने के कारण सत्य भाषा का प्रयोग नहीं कर सकते और दूसरों को ठगने का अभिप्राय न होने के कारण असत्य भाषा भी नहीं दोल सकते।
शिक्षा और लब्धि (जातिस्मरण आदि ) से रहित पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की भी भाषा असत्यामृपा होती है शिक्षा और लब्धि वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च यथासंभव चारों भाषाओं का प्रयोग करते हैं।
(२) अताश्रित आव भाषा-श्रुत विषयक भाव भाषा तीन प्रकार की है-सत्य असत्य और शासत्यामृपा । सम्यग्दृष्टि तथा सम्यक् उपयोग वाले पुरुष की भाषा सत्य भाव भाषा कहलाती है। जब सम्यग्दृष्टि विना उपयोग बोलता है तय . उसकी असत्य भाव भापा होती है । अथवा सत्य परिणाम रहित मिथ्यादृष्टि की उपयोग सहित या उपयोग रहित समस्त भाषा श्रुतविषयक असत्य भाव-भाषा है। अवधि, मनःपर्याय और केवल शान में उपयोग वाला श्रुत के विषय में जो भ.पा का प्रयोग करता है वह असत्यामृपा भापा कहलाती है, क्योकि शुतमें प्रायः असत्यामृषा भाषा होती है।
(३) चारित्राश्रित भाव-भाषा-चारित्र की विशुद्धि करने वाली अर्थात् जिस भाषा का प्रयोग करने से चारित्र की शुद्धि हो वह चारित्राश्रित भाव सत्य भाषा है। इससे विपरीत, चारित्र की अविशुद्धि करने वाली भाषा चारित्राश्रित असत्य भाषा समझनी चाहिए । इसी प्रकार चारित्र रुप परिणाम को स्थिर बनाने वाली असंक्लेश जनक भाषा भी सत्य भाव भापा है और चारित्र का प्रभाव करने वाली भाव असत्य भाषा है। कहाभी है:
भासा कुश्रो व पभवति, सतिहि व समयेहि भासती भासं। भासा कतिप्पगारा, कति वा भासा अणुमया उ ? ॥ सरीरप्प भवा भासा, दोहि व समयेहि भासती भासं। ,
भासा चउप्पगारा, दारिण य भासा अणुमया उ॥ . .. अर्थात-भापा कहां से उत्पन्न होती है ? कितने समयों में भाषा बोली जाती है ? भाषा के कितने प्रकार हैं ? और कितने प्रकार की भाषा बोलने योग्य है ?
इन प्रश्नों का समाधान करते हुए कहा गया है--भापा शरीर से उत्पन्न होती है अर्थात् काय योग से भाषा के योग्य पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है और वचन
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[ ४१७ ] योग से बाहर निकाली जाती है । दो समयों में भापा बोली जाती है अर्थात् प्रथम समय में भापा के पुद्गलों का ग्रहण होता है और दूसरे समय में उनका त्याग किया जाता है। भापा सत्य आदि के भेद से चार प्रकार की है और उन चार भेदों में से सिर्फ दो प्रकार की भाषा बोलने के योग्य है, लत्य और असत्यामृषा भाषा बोलने योग्य है और असत्य तथा सत्यासत्य भापा त्याज्य है।
श्रीगौतम स्वामी ने भाषा के संबंध में विशिष्ट जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा है- भासा गं भंते ! किमादिया, किंपबहा, किंसठिया, किंपज वसिया?'
अर्थात् भगवन ! भापा का आदि कारण क्या है ? भाषा किससे उत्पन्न होती है ? उसका श्राकार क्या है ? उसका अन्त कहां है ?
समाधान करते हुए भगवान् कहते हैं-'गोयमा! भासा णं जीवादीया, सरीरप्पभवा, रजसंठिया, लोगंतपजवलिया परणत्ता।'
अर्थात् भाषा का मूल कारण जीव है, क्योंकि जीव के प्रयत्न के विना बोध कराने वाली भाषा की उत्पत्ति संभव नहीं है। भाषा का मूल कारण यद्यपि जीव है तथापि वह शरीर से उत्पन्न होती है। भाषा का श्राकार वज्र के समान है, क्योंकि बाहर निकले हुए भाषा द्रव्य समस्त लोक को व्याप्त करते हैं और लोक की श्राकृति वज्र के समान है इसलिए भाषा का भी आकार वज्र के समान है। भाषा का अन्त. वहां होता है जहां लोक का अन्त होता है। लोकान्त तक ही धर्मास्तिकाय का सद्भाव है। भागे उसका अभाव होने से मापा द्रव्यों का गमन नहीं होता।
इस प्रकार भाषा का स्वरूप समझ कर विवेकी जनों को भापा के प्रयोग में कुशलता प्राप्त करनी चाहिए । भाषा संबंधी कौशल से चारित्र की आराधना होती है
और अकौशल से विराधना होती है। इसीलिए सूत्रकार यहां यह निरुपण करते हैं कि किस-किस प्रकार की भाषा बोलने योग्य है और किस-किस प्रकार की बोलने के योग्य नहीं है।
जो भापा सत्य होने पर भी सावध होने के कारण बोलने के योग्य नहीं है वह नहीं बोलनी चाहिए । तथा जो भापा सत्यासत्य रूप अर्थात् मिश्र है तथा जो असत्य है, वह बोलने के योग्य नहीं है। तीर्थकर भगवान ने जिस भाषा का स्वयं प्रयोग नहीं किया, वह भाषा भी प्रयोग करने के योग्य नहीं है । इस प्रकार की भापा चारित्रनिष्ठ विवेकी जनों को नहीं बोलनी चाहिए।
इन भाषाओं का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। मूल:-असच्चमोसं सच्चं च, प्रणवजमककसं।
समुप्पेहम संदिद्धं. गिरं भासिज्ज पनवं ॥२॥ छायाः-श्यसत्यामपां सत्यांच, अनवद्यामवर्कशाम ।
समुपया संदिग्धां, गिरं भापत प्रज्ञावान् ॥ २॥
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- भाषा-स्वरूप वर्णन शब्दार्थ:-असत्यामृषा भाषा तथा निर्दोष, कर्कशता रहित, संदेह न उत्पन्न करने . वाली सत्य भाषा बुद्धिमान् पुरुष को बोलनी चाहिए।
भाष्यः-पूर्व गाथा में यह बतलाया गया था कि किस प्रकार की भाषा संयमी जनों को नहीं बोलनी चाहिए। उससे यह जिज्ञासा होती है कि यदि ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए तो कैसी बोलनी चाहिए? इसी प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि 'गांव आ रहा है' इत्यादि पूर्वोक्त स्वरूप वाली व्यवहार भाषा का संयमी जन प्रयोग करें। इसके अतिरिक्त जो सत्य भाषा पापजनक न हो, कठोर न हो और सुनने वालों के अन्तःकरण में संशय उत्पन्न न करे, ऐसी सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
आगे स्वयं सूत्रकार ही इन भाषाओं के संबंध में विशेष कथन करने वाले हैं, अतएव यहां उसका प्रतिपादन करना आवश्यक नहीं है। मूलः-तहेव फरसा भासा, गुरुभूअोवघाइणी । .
सच्चा विसा न वत्तव्वा,जो पावस्स भागमो ॥३॥ छाया:-तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतप घातिनी।
सत्याऽपि सान वक्तव्या, यतः पापस्य अागमः ॥३॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! इसी प्रकार कठोर, अनेक प्राणियों का घात करने वाली सत्य भाषा भी बोलने योग्य नहीं है, जिससे पाप का आगमन होता है ।
भाष्यः-जिस भापा.के श्रवण से, श्रोता के अन्तःकरण को श्राघात लगता है वह परुष अर्थात् कठोर भ पा है। उसका स्वरूप सूत्रकार अगली गाथा में निरूपण करेंगे। इसके अतिरिक्त जिस भाषा से अनेक जीवों के घात होने की संभावना हो ऐसी सावध भाषा नहीं चोलना चाहिए । इस प्रकार कोई भापा सत्य भले ही हो अर्थात् तथ्य पदार्थ का निरूपण करती हो फिर भी यदि वह पापजनक है, उससे पाप की उत्पत्ति होती है, तो वह बोलने के योग्य नहीं है। मूलः-तहेव काणं काणेत्ति, पंडगं पंडगेति वा ।
वाहियं वा वि रोगित्ति, जेणं चोरोत्ति नो वए ॥४॥ छायाः-तथैव काणं काण इति, पराडकं पण्डक इति वा।
व्याधितं वाऽपि रोगीति, स्तेनं चोर इति नो वदेत् ॥ ४॥ शब्दार्थः-इसी प्रकार काने को काना न कहे, नपुंसक को नपुंसक न कहे, व्याधि वाले को रोगी न कहे और चोर को चोर न कहे।
भाष्यः-इस गाथा में सय यथार्थ भापा भी वोलने योग्य नहीं है, यह बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि काने को काना नहीं कहना चाहिए, नपुंसक को नपुंसक नहीं कहना चाहिए और रोगी को रोगी नहीं कहना चाहिए तथा चोर को चोर नहीं
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ग्यारहवां अध्याच कहना चाहिए।
इस प्रकार कथन करने से श्रोता दुःख का अनुभव करता है। दूसरे को दुःख देना हिंसा है, अतएव इस प्रकार के वचन हिंसाजनक हैं। हिंसा घोर पाप है। इस पाप से बचने के लिए ऐसी भाषा का परित्याग करना चाहिए । इससे अनेक अनर्थ हो सकते हैं । संयमी जनों को ऐसे. सत्य और मधुर वचनों का प्रयोग करना चाहिए जिनसे श्रोता को कष्ट नहीं पहुंचे और जो सत्य से विपरीत भी न हो। मूलः-देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च बुग्गहे।
प्रमुगाणं जत्रो होउ, मा वा होउ ति नो वए ॥५॥ छाया:-देवानां मनुजानां च, तिरश्चां च विद्महे ।
अमुकानां जयो भवतु. मा चा भवस्विति नो वदेत् ॥ ५॥ शब्दार्थः-देवों के, मनुष्यों के अथवा तिर्यञ्चों के युद्ध में अमुक की विजय हो, अथवा अमुक की विजय न हो, इस प्रकार नहीं कहना चाहिए।
भाष्यः-जब देवताओं में परस्पर युद्ध हो रहा हो, अथवा मनुष्यों में आपसी संग्राम होता हो या पशु अन्योन्य लड़-भिड़ रहे हो तो, साधु को किसी एक पक्ष के जय और दूसरे पक्ष के पराजय का कथन नहीं करना चाहिए।
जय-पराजय का निर्देश करने से राग-द्वेष की वृद्धि होती है । जिस पक्ष की विजय का कथन किया जाता है उस पर राग का भाव और जिसके पराजय का कथन किया जाता है, उस पर द्वेष भाव होना अनिवार्य है। मुनि राग-द्वेष से अतीत मध्यस्थ भावना से सस्पन्न होता है।
___राग-द्वेष के अतिरिक्त युद्ध में पराजय या जय का कथन करने से युद्ध की अनुमोदना का भी दोष लगता है और जिसके पराजय का कथन किया जाता है उसे घोर दुःख होता है । कदाचित् जिसका पराजय चाहा था उसकी विजय हो जाय.तो साधु से वह प्रतिशोध लेता है । उस अवस्था में साधु पर, तथा उसके संयम पर और धर्म पर भी संकट या जाता है । जिसकी विजय की कामना की जाती है वह यदि पराजित हो जाय तो मुनि को खद और संताप होता है।
इत्यादि कारणों से मुनि को युद्ध के विषय में उदासीन रहना चाहिए। मध्यस्थ भाव धारण करके अपने संयम की साधना में ही दत्तचित्त होना चाहिए । वह जिन प्रपंचों से मुक्त हो चुका है, उनके विषय में पुनः रस लेना उचित नहीं है।
'मनुज' शब्द से राष्ट्र या राष्ट्र समूह का भी ग्रहण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साधु किसी भी प्रकार के युद्ध में किसी के जय-पराजय का कथन न करे। मूल:-तहेव सावजणुमोयणी गिरा,अोहारिणी जा य परोवघडणी
से कोहलोह भयसा व माणवो,न हासमाणो वि गिरं वएना
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भाषा-स्वरूप वर्णन
छाया:- तथैव सावद्यानुमोदिनी गिरा, अवधारिणी या च परोपघातिनी । तां क्रोध लोभ भय हास्येभ्यो मानवः, न हसन्नपि गिरं वदेत् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:- इसी प्रकार सावद्य कार्य का अनुमोदन करने वाली, निश्चयकारी तथा पर का उपधान करने वाली भाषा को विवेकवान् मनुष्य क्रोध से, लोभ से अथवा भय से, या हंसी में न बोले, तथा हंसता हुआ भी भाषण न करे ।
भाष्यः - जिस वचन से सावद्य कार्य की अनुमोदना होती हो, ( सावद्य अर्थात् पाप और पाप सहित को सावद्य कहते हैं) ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यथा-यह जीव दुःखी है, इसका दुःख दूर करने के लिए इसे मार डालो, अथवा आज अमुक प्रकार का भोजन बनाओ, धान्य की रक्षा के लिए हिरन आदि पशुओं को मार डालना ही उचित है, तुमने उन्हें मारा लो अच्छा किया।' इत्यादि प्रकार से हिंसा आदि पापों का समर्थन - अनुमोदन करने वाली वाणी सावद्य भाषा कहलाती है | सावद्य भाषा के प्रयोग से सावद्य कार्य को प्रोत्साहन मिलता है, विवेकी जनों के मुख से ऐसी भाषा सुनकर साधारण जन सावद्य कार्य को सावद्य न समझ कर करने में अधिकाधिक प्रवृत होते हैं और बोलने वाले को भी तदनुकूल मानसिक व्यापार होने से पाप का भागी होना पड़ता है इसलिए सावद्य कार्यों का अनुमोदन करने वाली भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
शंका- सावद्य का अनुमोदन करने वाली भाषा का प्रयोग न करना तो उचित कहा जा सकता है, पर निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग करना क्यों वर्जित है ? पहले संशय जनक भाषा को त्याज्य बताया है और यहां निश्चय करनेवाली भाषा को हेय कहा है। न तो संशयजनक भाषा बोलना चाहिए न निश्चय जनक भाषा बोलना चाहिए, तो क्या समस्त वाणी व्यवहार को ही परित्याग करना शास्त्रकार को श्रभिष्ट है ? यदि नहीं, तो दोनों प्रकार की भाषाओं का परित्याग किस प्रकार हो सकता
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समाधान - समस्त वाणी व्यवहार को त्याज्य नहीं बताया है । द्वितीय गाथा में सत्य और व्यवहार-भाषा के प्रयोग का कथन किया जा चुका है । इसके अतिरिक्त तीर्थकर भगवान्, गणधर तथा अन्य मुनि भाषा का व्यवहार करते ही हैं । निस्संदेह सन्देह जनक भाषा के त्याग का उपदेश 'असंदिद्धां' पद से पहले किया गया है, पर यहां निश्चयकारी भाषा का अभिप्राय भिन्न हैं, इसलिए दोष नहीं आता । 'मैं कल तुह्मारे यहां श्राऊंगा,' 'एक वर्ष के पश्चात् अमुक कार्य करूंगा,' 'आगामी चातुर्मास के समय अमुक शास्त्र का स्वाध्याय करूंगा' इत्यादि प्रकार से भविष्य काल संबंधी किसी कार्य के लिए निश्चित रूप वचनों का प्रयोग करना यहां अवधारिणी भाषा समझना चाहिए |
'अवधारिणी भाषा त्याज्य है, क्योंकि जीवन श्रनित्य है । वह किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। कौन जाने कल तक शरीर टिकेगा या नहीं ? एक वर्ष तक जीवन स्थिर रहेगा या बीच में ही समाप्त हो जायगा यदि बीच ही में शरीर छूट जाय तो उक्त निश्चयात्मक कथन पूर्ण न होगा और उस अवस्था में मिथ्या भाषण
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. [ ४२१ ) का दोप लगेगा। इस दोष से बचने के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अगर कभी इस प्रकार का अभिप्राय प्रकट करना पड़े तो 'तुमारे यहां कल आने का विचार है', 'एक वर्ष पश्चात् अमूक कार्य करने का भाव है, इत्यादि रूप से प्रकट करना चाहिए। अवधारिणी भाषा का यही अभिप्राय है और इसका त्याग करने पर भी वाणी व्यवहार का उच्छेद नहीं हो सकता।
जिस मापा के प्रयोग से अन्य प्राणियों का उपघात होता है, उन्हें कष्ट पहुँचता है, ऐसी भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए।
जिन-जिन कारणों से ऐसी भाषा बोली जाती है उनका उल्लेख करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि-क्रोध से लोभ से, भय से, तथा हंसी से ऐसी भाषा नहीं बोलना चाहिए । क्रोध के श्रावेश में मनुष्य उचित-अनुचित का विचार भूल जाता है। उस समय मनुष्य के मस्तिष्क में एक प्रकार की उन्मतत्ता व्याप्त हो जाती है, अतएव क्रोध का परित्याग करना चाहिए और जव क्रोध का श्रावेश हो तब मौन ही साध लेना चाहिए । इसी प्रकार लोभ भी असत्य भाषण का कारण है । लोभ के वशीभूत हुश्रा प्राणी पापमय भाषा का प्रयोग करता है। हँसी भी असत्य भाषण का कारण है। कभी-कभी हँसी-दिल्लगी में अत्यन्त अनर्थकारी वचन निकल जाते हैं। इसलिए इन सब कारणों का परित्याग करें और इनमें से किसी से भी प्रेरित होकर भाषण न करें।
कोई-कोई लोग हँसी में किये हुए अनुचित या असत्य भापण को दोषपूर्ण नहीं मानते । कहा भी है-'न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति' अर्थात् हास्ययुक्त वचन दूपित नहीं है। इस कथन का निराकरण करने के लिए यहां हास्य करते हुए भाषण करने का निषेध किया गया है। इसी में अनेक प्रकार से अनुचित शब्द निकल जाते हैं और कभी-कभी उनका परिणाम घोर अनर्थकारी सिद्ध होता है। अतएव हास्य करते हुए भी पसे वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे किसी को किसी प्रकार की बाधा पहुँचती हो। मूलः-अपुच्छितो न भासेज्जा, भासभाणस्स अंतए ।
पिट्टिमंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए.॥७॥ छाया-यपृष्टो न भाषेत, भापमाणस्यान्तरा।
पृष्टमांस न खादव,मायामपां विवर्जयेत॥७॥ शब्दार्थः-वार्तालाप करते हुए मनुष्यों के बीच में,बिना पूछे नहीं बोलना चाहिए, चुगली नहीं खानी चाहिए और माया-मृपा का त्याग करना चाहिए।
भाष्यः-भले मनुप्य को भाषण संबंधी विवेक प्राप्त करके मौन-साधन करना सर्वोत्तम है, किन्तु स्व-पर के उपकार आदि व्यवहारों की सिद्धि के लिए जय चोलना आवश्यक हो तो कम से कम बोलना चाहिए । उस कम भाषण में भी निम्न लिखित तीन बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए ।
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[ ४२२ ] .
भाषा-स्वरूप वर्सन (१) दो या अधिक व्यक्ति जव बोल रहे हों तो उनके बीच में, जब तक वे कोई वात पूछे नहीं तब तक नहीं बोलना चाहिए। इस प्रकार बीच में बोल उठने से उनके वातालाप में विघ्न पड़ता है। उन्हें वह भाषण अरुचिकर हो सकता है और साधु की लघुता होती है और शासन के गौरव में न्यूनता पाती है। . . (२) किसी व्यक्ति ने, किसी दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध कोई बात कही हो. फिर . भले ही वह सत्य हो या मिथ्या, उसके परोक्ष में, दुष्ट वुद्धि से प्रेरित होकर दूसरे से कह देना चुगली कहलाता है । उसे प्राकृत भाषा में ' पिट्टिभंस ' कहते हैं। तात्पर्य यह है कि चुगली खाना पीठ का मांस खाने के समान गर्हित कृत्य है। इससे अनेक अनर्थ होते हैं, अतएव भले मनुष्यों को चुगली खाने का सर्वथा ही परित्याग करता चाहिए।
(३) तीसरी बात है मायामृषा का त्याग । कपट से युक्त मिथ्या भापण करना मायामृषा कहलाता है । जो साधु उत्कृष्ट प्राचारसम्पन्न नहीं है, वह दूसरों को अपनी उत्कृष्टता का भान कराने के लिए यदि कपट और मिथ्यावाद का श्राश्रय लेता है और अपने मान-सम्मान की कामना करता है तो वह उत्कृष्टाचारी होने के बदले हीनाचारी ही होता है । अतएव साधु पुरुष को माया-मृषा (कूड़-कपट) से रहित होकर निश्छल व्यवहार ही करना चाहिए। मूलः-सक्का सहेउं प्रासाइ कंटया,अशोमया उच्छहया नरेणं।
अणासए जोउ सहेज कंटए,वईभए करणसरेस पुजोक छायाः-शक्या सोढुमाशया कण्टकाः, प्रयोमया उत्सहभानेन नरेण । .
अनाशया यस्तु सहेत कण्टकात् , बाड्मयान् कर्णशरान् सःपूज्यः ॥ ८॥ . शब्दार्थः-आशा से मनुष्य लोहमय कंटक या तोर उत्साह पूर्वक सहन करसकता है, किन्तु विना किसी प्रकार की आशा के, कानों के लिए तीर की तरह, वाचनिक कंटकों को जो सहन कर लेता है, वह पूजनीय है। . . भाष्यः-शास्त्रकार ने यहां दो बातों पर सुन्दर शैली से प्रकाश डाला है। प्रथम यह कि दुर्वचनों की कठोरता कितनी अधिक होती है, और दूसरी यह कि जो महापुरूप कठोर वचन लहन कर लेते हैं, वे अत्यन्त श्रादरणीय होते हैं।
यहां यह अाशंका की जा सकती है कि जो लोग, दूसरों के दास हैं या सेवक हैं, वे अपने स्वामी के दुर्वचन सदैव सहन करते हैं । अगर कोई स्वामी क्रोध शील होता है तो वह पल-पल पर अपने स्वामी के क्रोध का पात्र बन कर असंख्य गालियाँ सुनता है । ऐसी अवस्था में उसे पूजनीय क्यों न माना जाय ?
इस आशंका का समाधान करते हुए सुत्रकार कहते हैं कि श्राशा से अर्थात् लोभ के वशीभूत होकर मनुष्य लोहे के तीर या कांटे सहन कर लेता है। अथवा तीर और कांटे के समान वाग्वाण भी सहन कर सकता है और उत्साह के साथ
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ग्यारहवां अध्याय
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सहन करता भी है, परन्तु इससे उसकी सहन शक्ति की वृद्धि नहीं मानी जा सकती वह श्राशावान् है - लोभ से अभिभूत है, और लोभ ने उसके अन्तःकरण को इतना निम्न श्रेणी का चना दिया है कि वह दुर्वचनों को, भीतर ही भीतर तिलमिलाते हुए भी, सहन करता है । ऐसी अवस्था में उसका सहना उसके कषाय संबंधी उपशम का द्योतक नहीं है प्रत्युत लोभकषाय की अधिकता का ही सूचक है । अतएव लोभ से लोहे के तीर, कांटे या इनके सदृश वचन सहन कर लेने वाला व्यक्ति पूजनीय नहीं है, वरन् दयनीय है - करुणा का पात्र है ।
जो महापुरुष कानों में कांटों के समान चुभने वाले, अथवा तीर के समान आघात करने वाले अत्यन्त कर्कश वचनों को, विना किंचित् लोभ के, निःस्वार्थ भाव से, सहन कर लेता है वह पूज्य है । निस्वार्थ होकर कठोर दुर्वचनों को वही सहन कर सकता है, जिसके क्रोध आदि कपायों का उपशम हो गया है, जिसने समता भाव प्राप्त कर लिया हैं और जो निन्दा तथा स्तुति में विषाद एवं हर्ष का अनुभव नहीं करता । ऐसा महापुरुष निन्दक के प्रति किंचित् मात्र भी रोष और प्रशंसक के प्रति किंचित् भी तोप धारण नहीं करता है । निन्दक के प्रति वह विचार करता है -
मन्निन्दया यदि जनः परितोष मेति, नन्वप्रयत्न सुलभोऽयमनुग्रहो मे । श्रेयोऽर्थिनोऽपि पुरुषाः पर तुष्टिहेतोः,
दुःखार्जितान्यपि धनानि परित्यजन्ति ॥
अर्थात् मेरी निन्दा करने से यदि किसी मनुष्य को संतोष मिलता है, तो चिना हो किसी प्रयत्न के यह मेग बढ़ा अनुग्रह है। अपने श्रेय-साधन करने के अभिलापी पुरुष, दूसरों के संतोष के लिए अत्यन्त कष्ट उठाकर उपार्जित किया हुआ धन भी त्याग देते हैं ! तात्पर्य यह है कि दूसरे लोग, पर के संतोष के लिए धन का त्याग करते हैं, और मैं बिना कुछ त्याग किये ही अपने निन्दक को सन्तोष पहुंचा देता हूँ । यह मेरे लिए दुःख की बात नहीं वरन् श्रानन्द की बात है !
इस प्रकार अपना मन समझा कर महापुरुप निन्दक के प्रति क्रोध का भाव उत्पन्न नहीं होने देते । इसी प्रकार गाली देने वालों के प्रति भी समभाव धारण करते हैं। किसी ने उचित ही कहा है
ददतु ददतु गालीं गालिमन्तो भवन्तः, वयमपि तदभावाद् गालिदानेऽसमर्थाः : । जगति विदितमेतद् दीयते विद्यमानम्,
न हि शशक विषाणं कोऽपि कस्मै ददाति ॥
अर्थात् - श्राप गाली वाले हैं, तो गाली ही दीजिए। हमारे पास गालियों का 1.अभाव है, अतएव उनका दान करने में असमर्थता है । यह तो सारा संसार जानता
कि जिसके पास जो है, वह वही दे सकता है। क्या कोई किसी को खरगोश का सोग दे सकता है ? नहीं, क्योंकि वह विद्यमान ही नहीं है ।
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[ ४२४ ]
भाषा-स्वरूप वर्णन
इस प्रकार के विचारों से निन्दा और गालियों को सहन करके महापुरुष शान्त रहते हैं । उनके हृदय - लागर में अल्प मात्र भी क्षोभ नहीं होता ।
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सूत्रकार ने ' कर्ण-शर ' पद का प्रयोग करके वचनों की कठोरता एवं दुःखप्रदता पर भी प्रकाश डाला है । प्रकारान्तर से यह सूचित कर दिया है कि दुर्वचनों के प्रयोग से मनुष्यों को अत्यन्त आघात पहुंचता है । उनका प्रयोग करने से सत्यव्रत का ही नहीं वरन् अहिंसाव्रत का भी भंग होता है । अतएव ऐसे वचनों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए । फिर भी बिना किसी क्षोभ के, ऐसे वचनों को जो सहन कर लेते हैं वे महापुरुष असाधारण हैं अतएव पूज्य हैं - श्रेष्ठ हैं ।
मूलः - मुहुत्तदुक्खा उ हवंति कंटया, मया ते वि तो सुउद्धरा वाया दुरुत्तापि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधाणे महन्भयाणि ।।
छायाः- मुहूर्त्तदुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः, प्रयोमयास्तेऽपि ततः सूद्दएः । वाचा दुरुक्तानि दुरुद्धराणि, वैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥ ६ ॥
शब्दार्थः-लोहे के कंटक तो केवल मुहूर्त्त मात्र ही दुःख देते हैं और उसके पश्चात् सरलता से बाहर निकाले जा सकते हैं, किन्तु दुर्वचन रूपी कंटक बैर बढाने वाले हैं, महा-भयंकर हैं और उनका निकलना बड़ा कठिन हैं ।
भाष्य - पहली गाथा में वचनों का कंटक रूप में कथन किया है, यहां दोनों की तुलना करते हुए वचनों की अधिक दुःख -दायकता का उल्लेख किया गया है । . 'मुहूर्त्त' शब्द यहां अल्प काल का वाचक है । तात्पर्य यह है कि लोहे के कांटे शरीर में चुभ जाएं तो थोड़े समय तक ही कष्ट देते हैं और फिर सरलता से बाहर निकाले जा सकते हैं । मगर मुख से निकले हुए दुर्वचन अत्यन्त भीषण हैं । एक चार चुभने पर उनका निकलना बहुत ही कठिन है, क्योंकि वे शरीर में नहीं अपितु श्रन्तःकरण में चुभते हैं।
लोहमय कांटों का प्रभाव वर्त्तमान जीवन में ही हो सकती है आगामी जन्म मैं नहीं, किन्तु वाणी के कंटक इस जन्म में भी वैर बढ़ाते हैं और श्रागामी जन्मों में भी । वचन जन्य वैर की परम्परा शरीर की समाप्ति हो जाने पर भी समाप्त नहीं होती । लोहमय कंटक स्थूल होने के कारण स्थूल शरीर के लिए ही भयकारी हैं, पर न्तु वाचनिक कंटक सूक्ष्म होने से सूक्ष्म श्रात्मा के लिए भी भीषण होते हैं । वचनों के दुष्प्रयोग से आत्मा के साथ जिन अशुभ कर्मों का बंध होता है, उनके फलस्वरूप श्रात्मा को नरक आदि दुःख रूप योनियों में जाना पड़ता है और वहां घोर व्यथाएँ सहनी पड़ती है ।
इस प्रकार लोहमय कंटकों की अपेक्षा वचनमय कंटकों को अधिक भयंकर, अधिक वैरवर्धक और अधिक काल तक स्थायी समझ कर, कभी उनका प्रहार नहीं करना चाहिए | किसी के प्रति कष्टकर वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए । निरवद्य
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श्यारहवां अध्याय
{ ४२५ ]
कोमल, मधुर एवं हितकर वचनों का प्रयोग करने वाला पुरुष ही वाणी का स्वामी बनता है, विवेक कहलाता है और चारित्र का शाराधक होकर ग्राम कल्याण करता है ।
मूल:- श्रवण्णवायं च परंमुहस्त, पच्चrai पडिणीयं च भासं । प्रहारिणं पियकारिणं च,
आसं न भासेज सया स पुजो ॥ १० ॥
छाया:- श्रवर्णवादं च पराङ्मुखस्य प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम् । धारिणमप्रियकारिणीं च, भाषां न भाषेत् सदा स पूज्यः ॥ १० ॥
शब्दार्थ:-- किसी मनुष्य के परोक्ष में या प्रत्यक्ष में अर्थात् उपस्थिति में या अनुपस्थिति में, उसकी निन्दा रूप भाषा कदापि नहीं बोलना चाहिए । इसी प्रकार किसी का अपकार करने वाली, भविष्यकाल संबंधी निश्चयं करने वाली और अप्रिय प्रतीत होने वाली भाषा भी नहीं बोलना चाहिए। जो ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करता वह पूजनीय है ।
भाग्य-भाषा-प्रयोग संबंधी अन्य आवश्यक विषयों का उल्लेख करने के लिए खूत्रकार ने यह गाथा कही है । भाषा का प्रयोग करते समय निम्नलिखित नियमों का भी ध्यान रखना चाहिए ।
(९) किसी पुरुष की मौजूदगी में या गैर मौजूदगी में किसी भी अवस्था में, निन्दा न की जाए ।
(२) सुख से ऐसा एक भी शब्द न निकाला जाय जिससे कि किसी पुरुष का कोई अपकार होता हो या हो सकता हो ।
(३) भविष्यकाल में होने योग्य किसी कार्य के संबंध निश्चयात्मक वाणी का प्रयोग न किया जाय । क्योंकि जीवन का विश्वास नहीं किया जा सकता । श्रदारिक शरीर क्षण चिनश्वर है । वह कब साथ छोड़ देगा, सो नहीं जाना जा सकता । ऐसी दशा में भविष्य विषयक निश्चय प्रकट करना उचित नहीं है, इससे असत्य भाषण का दोष लगता है और अप्रतीति भी हो सकती है ।
(४) ऐसी भाषा का व्यवहार न किया जाय जो श्रोता को अप्रिय प्रतीत हो । प्रिय भाषा से श्रोतों का परिपूर्ण श्राकर्षण वक्ला की और नहीं होता । श्रतएव श्रप्रिय वचन प्रायः समास हो जाते हैं और श्रोता को मानसिक कष्ट भी पहुंचाते हैं ।
इन श्रावश्यक नियमों तथा पूर्वोक्त नियमों का सदा पालन करने वाला महापुरुष आदरणीय होता है ।
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[ ४२६
भाषा-स्वरूप वर्णन मूल:-जहा सुणी पूइकरणी, निक्कसिजई सव्वसो ।
एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरि निकसिज्जइ ॥ ११ ॥ __छाया:-यथा शुनी पूर्तिकर्णी, निःकास्यते सर्वतः। ..
. एवं दुश्शीलः प्रत्यनीका मुखरिन् निःकास्यते ॥ १॥ शब्दार्थः-जैसे सड़े-गले कान वाली कुतिया सब जगहों से निकाली जाती है, इसी प्रकार दुष्ट शील वाला, गुरु एवं धर्म के विरुद्ध व्यवहार करने वाला और वृथा बड़बड़ाने वाला व्यक्ति भी अपने गच्छ से बाहर निकाल दिया जाता है।
- भाष्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है। जिस कुतिया के कान सड़ जाते हैं, जिसके कानों में कृमि-कुल उत्पन्न हो जाता है और रुधिर आदि प्रवाहित होता है, वह जिसके गृहमें प्रवेश करती है वही उसे तत्काल, घृणापूर्वक, बाहर भगा देता है । क्षण भर भी कोई अपने घरमें उसे स्थान नहीं देता। इसी प्रकार जो साधु दुःशील होता है, अपने गुरु और धर्म के विरुद्ध आचरण करता है तथा विवेक से शून्य होकर अंटसंट बोलता रहता है, वह जिस किसी गच्छ या कुल में जाता है, वहीं से बाहर कर दिया जाता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी प्राचार्य अपने कुल में स्थान नहीं देता।
___ इसी प्रकार अन्य पुरुष भी इन दुर्गुणों के कारण सर्वत्र तिरस्कार का पान बनता है और उसे कोई अपने समूह में स्थान नहीं देना चाहता । अतएव इन दोषों का त्याग करना परमावश्यक है। मूलः-कणकुंडगं चइत्ताणं, विटुं भुंजइ सूयरे । . एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमइ मिए ॥ १२ ॥ छाया:-कणकुण्डकं त्यक्त्वा, विष्टां भूनते शूकरः ।
एवं शीलं त्यक्त्वां, दुस्सीलं रमते मृगः ॥ १२ ॥ शब्दार्थः-जैसे शूकर धान्य से भरे हुए कूडे (पान) को छोड़ेकर विष्टा भक्षण करता है, इसी प्रकार मृग के समान मूर्ख मनुष्य शील का परित्याग करके दुःशील होकर आनन्द का अनुभव करता है । __ . भाष्य-सूत्रकार ने यहां शील का महत्त्व प्रकट करते हुए कुशील की निन्दा
जैसे शूकर के सामने धान्य से परिपूर्ण पात्र राना जाय तो भी वह उसे रुचिकर नहीं होता। शूकर उसे त्याग कर विष्टा को ही भक्षण करता है। इसी प्रकार शीलको त्याग कर मूर्स पुरुप कुशील का ही सेवन करता है और उसी में आनन्द मानता है। सूत्रकार ने यहां कशील को विष्टा की उपमा दी है अतएव कुशलिसेवी शुकर के समान सिद्ध हो जाता है।
विष्टा और कुशील में निम्न लिखित सादृश्य हैं
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स्यारहवां अध्याय
[४२७ } (१) विष्टा धान्य का विकार है अर्थात् घान्य की विकृति रूप पर्याय है, इसी मकार सुशील शील का विकार है।
(२) सत्पुरुप विष्ट से घृणा करते हैं, इसी प्रकार सत्पुरुप कुशील से घृणा
(३) विष्टा का सेवन करने वाला शूकर पशुओं में नीच गिना जाता है, इसी प्रकार कुशील का सेवन करने वाला पुरुष, मानव-समाज में निम्न कोटि का गिना जाता है।
(४) विष्णा के संसर्ग से शारीरिक अपवित्रता होती है और कुशील के संसर्ग से शान्तरिक अपवित्रता उत्पन्न होती है ।
(५) विवेकी पुरुप जीवन का उत्सर्ग कर सकता है पर जीवन की रक्षा के लिए विष्टा का सेवन नहीं करता, इसी प्रकार सत्पुरुष जीवन का त्याग करके भी कुशील का सेवन नहीं करते।
(६) विष्टा का भक्षण अनेक प्रकार के शारीरिक अनी का मूल है, इसी प्रकार कुर्शाल-सेवन विविध प्रकार के अात्मिक अनर्थों का कारण है।
इस प्रकार कुशील को विष्टा के समान घृणाजनक, हेय और अनर्थकर समझकर विवेकवान व्यक्तियों को उसका सर्वथा परित्याग करना चाहिए।
शील जीवन रूपी पुष्प का सौरभ है। सौरभ-विहीन सुमन जिस प्रकार प्रादरणीय नहीं होता, उसी प्रकार शील-शूल्य जीवन भी सन्मान का भाजन नहीं होता। कहा भी है
सील उत्तमवित्तं, सीलं जीवाण मंगलं परमं ।
लील दुग्गाहरणं लीलं सुक्खाण कुलभवणं ॥ अर्थात् शील उत्तम धन है, शील जीरों के लिए परम मंगल रूप है, शील दुर्गति का विनाश करने वाला है और शील ही सुखों का सदन है। तथा
सील धम्मनिहाणं सील पावाण खंडग भणियं ।
लील जंतूण जए, अकित्तिमं मंडणं पवरं ॥ नर्थात्-शील धर्म का खजाना है, शील से पापों का खंडन होता है, शील इस संसार में जीवों का स्वाभाविक श्राभूपण है।
इस प्रकार शील सत्पुरुपों द्वारा प्रशंसित है। शील सलोक में और परलोक में परम फल्याण का कारण है। अतएव शील की शीतल-छाया का थाधय लेकर समस्त संतापों का अन्त करना चाहिए । सदाचार रूप शील ही सय दुत्रों का उन्मूलन करने वाला है । कुप्रवृत्तियों को प्रर्थात् कुशील को दुःखों और अनों का प्रधान कारण समझकर उनसे दूर रहना चाहिए। . सूत्रकार ने कुशील का सेवन करने वाले पुरुप को 'मृग' शब्द से उल्लिखित
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भाषा-स्वरूप वर्णन किया है। उसका तात्पर्य यही है कि कुशीलसेवी पुरुष पशु के समान हेयोपादेय से विकल है। मूल:-श्राहच्च चंडालियं कटु, ननिरहविज कयाइ वि।
कडं कडत्ति भासेज्जा,अकडं णो कडेत्ति य ॥१३॥ छाया:- कदाचित् चाण्ढालिकं कृत्वा, न निनुवीत कदापि च ।
कृतं कृतमिति भापत, अकृतं नो कृतमिति च ॥ १३ ॥ शब्दार्थः--कदाचित् क्रोध से असत्य भाषण हो गया हो तो उससे कभी मुकरना नहीं चाहिए। किये हुए को किया हुआ कहना चाहिए और न किये को नहीं किया' कहना चाहिए।
' भाष्यः-क्रोध के श्रावेश में मनुष्य उन्मत्त हो जाता है । उस समय उसे उचित अनुचित का विचार नहीं रह जाता । उस अवस्था में यदि असत्य वचन निकल जाएँ तो प्राचार्य के सामने या गुरु के समक्ष अपना दोष छिपाना उचित नहीं है।
अगर छिपाना उचित नहीं है, तो क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि, असत्य भाषण या अन्य किसी दोप का सेवन किया हो तो 'मैंने यह दोष किया है। इस प्रकार स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए। अगर कोई दोष न किया हो तो उसके विषय में नहीं किया है ' ऐसा कह देना चाहिए।
असत्यभाषण और क्रोध आदि पाप विष के समान है । विष को ग्रहण न करना ही सर्वश्रेष्ठ है, अगर क्रोध आदि के आवेश में अथवा असावधानी में विप का लेवन हो जाय तो चिकित्सक के समक्ष स्पष्ट रूप से उसका लेसरकर लेना चाहिए। अगर ऐसा न किया गया तो जीवन की रक्षा नहीं हो सकती । इसी प्रकार पाप का सेवन न करना ही सर्वोत्तम है। यदि असावधानी श्रादि किसी कारण से सेवन हो गया हो तो चिकित्सक के समान प्राचार्य महाराज या गुरुदेव के समक्ष उसे स्पष्ट रूप से स्वीकार करलेना चाहिए । ऐसा करने से ही संयम रूप जीवन की रक्षा हो सकती है।
. जिसके हृदय में शल्य विद्यमान रहता है वह कभी निराकुल नहीं रह सकता। यह कथन केवल द्रव्य शल्य के लिए ही सत्य नहीं है किन्तु भाव-शल्य के लिए भी उत्तना ही सत्य है।
अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जो भूल तो करते हैं, परन्तु श्रात्मबल का अभाव होने से उसे स्वीकार नहीं करते । वे जनता के सामने अपने श्राप को अभ्रान्त लिद्ध करना चाहते हैं, पर वास्तव में देखा जाय तो वे अपनी भूल न स्वीकार करने के कारण अत्यन्त भुलकड़ है और उनकी भूलों की परम्परा का शीघ्र ही अन्त नहीं श्रा सकता। उन्हें कभी-कभी एक भूल या अपराध छिपाने के लिए अनेक भूलें या अनेक
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ध्यारहवां अध्याय
[ ४२१ अपराध करने पड़ते हैं और अधिकाधिक लशल्य होते जाने के कारण उनकी च्या. कुलता में वृद्धि होती रहती है।
___ इल प्रकार विचार करके किये हुए अपराध को किया हुश्रा ही कहना चाहिए। उसे छिपाने का किंचित् भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए और न उसे न्यून रूप में कहना चाहिए।
. यहां यह प्रश्न किया जा लकता है कि खूनकारने किये हुए को किया हुश्रा कहने का उपदेश दिया सो तो ठीक है, क्योंकि अनेक जन किये दोष को नहीं किया कह देते हैं, पर नहीं किये को नहीं किया कहने के उपदेश की क्या आवश्यकता है ? कोई भी व्यक्ति नहीं किये हुए दोष को किया हुश्रा नहीं कहता है।
इस प्रश्न का समाधान यह है कि कभी- कोई व्यक्ति अपने दोष-स्वीकार रूप गुण का अतिशय प्रकट करने के लिए न किये हुए सामान्य अपराध को भी किया हुश्रा कह सकता है, अथवा कोई पुरुष अपनी अप्रामाणिकता के प्रकट होने के भय से नहीं किये को किया कह देता है । अथवा तथाविध अवसर पाने पर चित्त शुद्धि आदि रूप संयम की आराधना न की हो तो भी उसका करना कहसकता है । इन सब बातों का निषेध करने के लिए सूत्रकार ने नहीं किये को नहीं किया कहने का विधान किया है।
गाथा में 'आ६च्च' शब्द साभिप्राय है। उसके प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि यदि कोई पुरुष वारम्बार असत्यभाषण करता जाता है और बारम्बार अपने गुरु के समक्ष उसे प्रकट करता है तो भी उसके प्रकट करने का कोई मूल्य नहीं है । असत्य भापण न करने की पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए । फिर भी किसी प्रकार की निर्वलता श्रादि विशेष कारण से अगर असत्य भापण हो जाय तो उसकी शुद्धि के लिए गुरु से निवेदन करना चाहिए । गुरु महाराज उसकी शुद्धि के अर्थ जिस प्राय-. श्चित का विधान करें उसे सहर्ष स्वीकार कर पाप के उस संस्कार का समूल उन्मूलन कर देना चाहिए और भविष्य में ऐसा न होने देने के लिए सावधान रहना चाहिए । मूल:-पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। भावी वा जइ वा रहस्से, ऐव कुजा कयाइ वि ॥१४॥ सायाः-प्रत्यनीकं च बुदाना, याचाऽधवा कर्मणा।
नाविधी यदिवारहसि, नैव कुर्यात् कदापि च ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-वचन से अथवा कर्म से, प्रकट रूप से अथवा गुप्त रूप से, कभी भी ज्ञानीजनों से विरुद्ध व्यवहार नहीं करना चाहिए।
भाष्य-विशिष्ट श्रुत एवं संयम से विभूषित, यात्मज्ञानी महापुरुप बुद्ध अथवा शानी कहलाते हैं। उनके विरुद्ध व्यवहार करने का यहाँ निषेध किया गया है।
पानी की वचन के द्वारा निन्दा करना, अर्थात् ज्ञानी को अशानी कहना,
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४३० ।
भापा स्वरूप वर्णन मिथ्यादृष्टि कहना, श्राचारहीन कहना अथवा अन्य प्रकार से उसकी प्रतिष्ठा को कलंकित करना वाचनिक विरुद्ध व्यवहार करना कहलाता है । इसी प्रकार काय से कोई विरुद्ध चेष्टा करना कर्म से प्रत्यनीक व्यवहार करना कहलाता है। ऐसा व्यवहार न तो प्रकट में करना चाहिए और न गुप्त रूप में ही।
ज्ञानी पुरुष एक प्रकार से ज्ञान गुण का प्रतिनिधि है। उसका सन्मान करने से ज्ञान का सन्मान होता है और उसका तिरस्कार करने से ज्ञान का तिरस्कार होता है। ज्ञान एवं ज्ञानी की श्रासातना से ज्ञानावरण कर्म का वंध होना शास्त्र में प्रतिपादन किया गया है।
___ यहाँ ज्ञानियों से शत्रुता न करने का निषेध किया गया है । इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य सामान्य पुरुषों के प्रति शत्रुता का भाव रखना निपिद्ध नहीं है। अज्ञानी, अनाचारी, आदि किसी भी प्राणी के प्रति शत्रुता का भाव धारण करना उचित नहीं है । शत्रुता का भाव एक प्रकार का द्वेष है और द्वेष की हेयता का सर्वत्र विधान किया गया है । फिर भी यहां ज्ञानी पुरुष की महत्ता और विशिष्टता प्रतिपादन करने के लिए ही झानी के प्रति शत्रुता न करने का कथन किया है।
ज्ञान ही संसार में सर्वश्रेष्ठ प्रकाश है। उसके बिना जगत् अन्धा है। सुवर्ण, रजत, मणि, श्रादि के अभाव में संसार की तनिक भी हानि नहीं है । इनका अभाव
हो जाय तो संसार के अनेक संघर्षों की समाप्ति हो सकती है । अनेक पुरुष निरा• कुलता का श्रानन्द प्राप्त कर सकते हैं। निर्धन लूटमार एवं चोरी श्रादि से बहुत अंशों में बच सकते हैं और धनवान् लोग धन के मद से बच सकते हैं। इस प्रकार अनर्थ के मूल अर्थ के प्रभाव से किसी का कुछ नहीं बिगड़ने का, प्रत्युत सभी को लाभ है। हां, ज्ञान ऐसी वस्तु नहीं है । वह आत्मा का गुण है, स्वरूप है। उसके विना संसार में अंधकार ही अंधकार है। ज्ञान ही कल्याण का एक मात्र कारण है । ज्ञान केविना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। अतएव शानी पुरुष पूजनीय है, श्रादरणीय है। वह संसार का आभूषण है । अंधों की आंख है । उसके प्रति दुष्ट भाव रखना, उसे । शत्रु समझना, उसके विरुद्ध व्यवहार करना, ज्ञान को शत्रु समझने के समान है। श्रतएव ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए। मूलः जणवयसम्मयठवणा, नामे रुवे पडुच्च सच्चे य ।
ववहारभाव जोगे, दसमे अोवम्मसच्चे य॥ १५ ॥ छाया:-जनपदसम्मतस्थापना नाम रूपं प्रतीत्य सत्यं च ।
व्यवहारभावयोगानि दशमीपम्य सत्यं च ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:-सत्य भापा दस प्रकार की है-(१) जनपदसत्य (२) सम्मतसत्य (३) स्था• पतासत्य (४) नामसत्य (५) रूपसत्य (६) प्रतीत्यसत्य (७) व्यवहारसत्य (5) भावसत्य (E) योगसत्य और (१०) औपम्यसत्य ।
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ग्यारहवां अध्याय
भाष्य-सत्य भापा का स्वरूप और उसके उल्लिखित भेदों का निरूपण, प्रकरण वश पहली गाथा में लिखा जा चुका है। जिज्ञासु वहां देखें । यहां उनकी पुनरूक्ति नहीं की जाती। मूलः-कोहे माणे माया, लोभे पेज तहेव दोसे य ।
हासे भये अक्खाइय, उवधाए निस्सिया दसमा १६१ छाया:-क्रोधं मानं मायां, लोभं राग तथैव द्वेपं च ।
हास्यं भय माझ्यातिकं उपघातं निश्रितो दशमा ॥ १६ ॥ शब्दार्थः-असत्य भापा के भी दस भेद हैं-(१) क्रोधनिश्रित (२) माननिश्रित (३) मायानिश्रित (४) लोभनिश्रित (५) प्रेमनिश्रित (६) द्वेषनिश्रित (७) हाष्यनिशित (5) भयनिश्रित (8) आख्यातनिश्रित और (१०) उपघातनिश्रित ।
भाष्यः-इन भेदों का निरूपण भी पहले हो चुका है। अतः पुनरुक्ति नहीं की जाती। मूल:- इणमन्नं तु अन्नाणं इहमेगेसिमाहियं ।
देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्ते चि आवरे ॥ १७ ॥ ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीवसमाउत्ते, सुहदुक्ख समानिए ॥ १८ ॥ सयंभुणा कडे लोए, इत्ति वुत्तं महोसणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए अप्सासए । १६ ।। माहणा समणा एगे, प्राह अंड कडे जगे। असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वदे ॥ २० ॥ छायाः-इदमन्यत्त प्रज्ञानं, इहैकेपामाण्यातम् ।
देयोप्तोऽयं लोका, ब्रह्मोप्त इत्यपरे ॥ ३७॥ .. ईवरेण कृतो लोका, प्रधानादिना तथाऽपरे । जीवाजीच समायुरः, सुख दुःख समन्वितः1 15॥ स्वयम्भुवा कृतो लोकः इत्युक्तं महर्षिणा। मारेण संस्तुता माया, तेम लोकोऽशतः ॥१६॥ माहना भ्रमणा एके, प्राहुररकृतं जगत् ।
शसी तत्वमकादि , अजानन्तः मृपां वदन्ति ॥२०॥ शब्दार्थः-तृष्टिके संबंध में अन्य लोगों का कहा हुश्रा अज्ञान इस प्रकार है।
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[ ४३२ ]
भाषा-स्वरूप वर्णन. कोई कहते हैं ' यह लोक देव द्वारा उत्पन्न हुआ है, और कोई कहते हैं यह ब्रह्म के द्वारा उत्पन्न हुआ है।
कोई यह मानते हैं कि जीव और अजीव से व्याप्त एवं सुख-दुःख से युक्त यह लोक ईश्वर के द्वारा किया हुआ है और दूसरे कहते हैं कि प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा उत्पन्न हुआ है। __ स्वयंभू ने लोक का निर्माण किया है, ऐसा महर्षि (मनु) ने कहा है। मार ने माया का विस्तार किया, अतएव लोक अशाश्वत है, अनित्य है। __ कोई-कोई ब्राह्मण और श्रमण कहते हैं कि जगत् अंडे से उत्पन्न हुआ है । ब्रह्मा ने तत्त्वों की रचना की है। इस प्रकार यथार्थ वस्तु-स्वरूप को न जानने वाले मिथ्या भाषण करते हैं।
भाध्या-सूत्रकार ले मिथ्या भाषा का स्वरूप बतलाते हुए उदाहरण के रूप में सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में की गई अनेक मिथ्या कल्पनाओं का निर्देश किया है।
मूल में जो 'देवउत्त' शब्द है, उसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। यथा-देवेन उतः देवोतः, देवैर्वा गुप्तो रक्षितः देवगुप्तः, देवपुत्रो वा । अर्थात् यह लोक एक देव के द्वारा रचा गया है, अथवा अनेक देवों द्वारा रचा गया है, अथवा देवों द्वारा रक्षित है अथवा देव का पुत्र है। . .
इसी प्रकार 'ब्रह्मोप्त' शब्द की व्याख्या समझनी चाहिए । ब्रह्मा को जगत् का कर्ता मानने वाले लोगों के मत के अनुसार, जगत् की प्रादि में अकेला ब्रह्मा ही था, उसने प्रजापतियों का निर्माण किया और प्रजापतियों ने क्रम से समस्त संसार की रचना की।
कई लोग ईश्वर को और कोई प्रधान (प्रकृति ) को जगत् का कारण चतलाते हैं। महर्षि (मनु) कहते हैं कि जगत् की आदि में अकेला स्वयंभू था । वह अकेला ही रमण करता था । उसे किसी दूसरे की अभिलापा हुई। उसने ज्यों ही ऐसा विचार किया कि दूसरी वस्तु-शक्ति उत्पन्न हो गई । उसके पश्चात् जगत् बन गया।
इस प्रकार जगत् बन गया, पर स्वयंभू ने सोचा कि इस तरह तो पृथ्वी पर वहत भार हो जायगा, इसका कुछ उपाय करना चाहिए। ऐसा लोचकर उसने मार अर्थात् यमराज बना दिया । उस यमराज ने माया का निर्माण कर दिया और माया से प्रजा मरने लगी। जीव का वास्तव में विनाश नहीं होता, किन्तु मरने का व्यवहार माया से होता है । इस प्रकार मायामय मृत्यु के कारण यह लोक अनित्य प्रतीत होता है।
पुराणों को प्रमाण मानने वाले ब्राह्मण और संन्यासी कहते हैं कि यह चराचर उप समस्त विश्व अंडे से उत्पन्न हुत्रा हैं । उनकी मान्यता यह है कि संसार में जब
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ग्यारहवां अध्याय
[ ४३३ । कोई भी वस्तु नहीं थी-संसार सब पदार्थों से शून्य था. तब ब्रह्मा ने पानी में एक अंडा उत्पन्न किया। अंडा धीरे-धीरे बढ़ता हुआ बीच में से फट गया । उसके दो माग हो गये । एक भारा से ऊर्ध्वलोक बन गया और दूसरे भाग से अधोलोक की उत्पत्ति हो गई । इसके पश्चात् दोनों भागों में प्रजा की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, समुद्र, नदी और पर्वत आदि उत्पन्न हुए। कहा भी है
नासीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतय॑मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ।। अर्थात्-सृष्टि से पहले यह जगत अन्धकार रूप, अशात, और लक्षणहीन था। वह विचार से बाहर और अज्ञेय था, चारों और से सोया हुआ-सा-शान्त था। इस प्रकार के जगत् में ब्रह्मा ने अंडे आदि के क्रम से सृष्टि की रचना की।
इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में नाना लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं और वे वास्तविकता से शून्य होने के कारण मिथ्या रूप हैं। उनकी मिथ्यारूपता पर यहां संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है।
जो लोग देव या देवों द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति होना बतलाते हैं उनसे पूछना चाहिए कि देव पहले स्वयं उत्पन्न होकर जगत् का निर्माण करता है या विना उत्पन्न हुए ही जगत् को उत्पन्न करता है ? स्वयं उत्पन्न होने से पहले तो वह जगत् उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि उस समय वह स्वयं असत् है-अविद्यमान रूप है। • यदि यह कहा जाय कि पहले देव उत्पन्न हो चुका, तब उसने सृष्टि रची, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि देव किसी प्रकार उत्पन्न हुश्रा-वह अपने आपसे उत्पन्न हो गया या किस अन्य कारण से उत्पन्न हुआ ? देव यदि विना किसी कारण के स्वयं उत्पन्न हो सकता है तो लोक भी अपने आप क्यों नहीं उत्पन्न हो सकता ? देव को उत्पन्न करने वाले किली कर्ता की आवश्यकता नहीं है तो लोक को उत्पत्र करने वाले कर्ता की भी क्या आवश्यकता है ? देव यदि किसी अन्य कारण से उत्पन्न होता है तो वह देव को उत्पन्न करने वाला कारण कहां से आया ? जगत् तो था नहीं, फिर वह कारण क्या था ? इसके अतिरिक्त वह कारण भी अपने आपसे उत्पन्न हुश्रा या किसी अन्य कारण से ? अपने श्राप उत्पन्न होने की बात तो निर्मल है, यह चताया जा चुका है। अतएव उसे भी किसी अन्य कारण से उत्पन्न होने वाला मानना पड़ेगा। तो देव को उत्पन्न करने वाला कारण, दूसरे कारण से उत्पन्न हुश्रा है, यह निर्णय हुआ।
लेकिन बात यही समाप्त नहीं होती । उस कारण के कारण के विषय में भी बद्दी प्रश्न उपस्थित होता है। अर्थात् वह दूसरा कारण भी स्वयं उत्पन्न हश्रा या किसी अन्य कारण से उत्पन्न हुशा ? इस प्रकार कारणों की कल्पना करते-करते कहीं अन्त ही नहीं आएगा और देव की उत्पत्ति का ही समय नहीं पा सकेगा।
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[ ४३४ ]
ऐसी दशा में जगत् का निर्माण होना ही असंभव ठहरता है
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भाषा-स्वरूप वन
शंका- देव कभी उत्पन्न ही नहीं होता। वह अनादि काल से है । अतएव उसकी उत्पत्ति संबंधी चर्चा करना ही निरर्थक है ।
समाधान - यदि देव अनादि है तो लोक को भी श्रनादि क्यों न मान लिया जाय ? देव को अनादि कालीन मानने में कोई बाधा नहीं आती तो लोक को अनादि मानने में क्या बाधा आ सकती है ।
देव अगर अनादि है तो यह बताइए कि वह नित्य है या अनित्य है ? अगर देव नित्य है तो वह जो कार्य करता है सी एक के पश्चात् दूसरा, दूसरे के पश्चात् तीसरा, इस प्रकार क्रम से करता है, या समस्त कार्यों को एक ही साथ कर डालता है ।
यदि यह माना जाय कि देव क्रम से एक-एक क्रिया करता है तो यह श्राशंका होती है कि वह एक क्रिया करते समय, दूसरी क्रिया करने में समर्थ है या समर्थ है ? अगर समर्थ है तो फिर धीरे-धीरे एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी क्रिया क्यों करता है ? सब क्रियाएँ एक ही साथ क्यों नहीं कर डालता ? अगर एक क्रिया के समय दूसरी क्रिया करने में देव को असमर्थ माना जाय और एक क्रिया पूरी हो जाने पर दूसरी क्रिया करने में समर्थ मान लिया जाय तो उसकी नित्यता समाप्त हो जाती है । एक समय वह असमर्थ होता है और दूसरे समय समर्थ हो जाता है तो वह नित्य कैसे रहा ? नित्य तो आपके मत से वही कहलाता है जो सदा काल एकान्त एक रूप बना रहे । आपका यह देव सदा एक सा नहीं रहता- कभी समर्थ और कभी असमर्थ हो जाता है, ऐसी स्थिति में उसे नित्य किस प्रकार माना जा सकता है ?
देव समस्त क्रियाएँ एक साथ कर डालता है, ऐसा माना जाय तो जितनी भी क्रियाएँ उसे करनी हैं, वे सब एक ही क्षण में समाप्त हो जाएंगी, फिर दूसरे क्षण में वह क्या करेगा ? अर्थ-क्रिया करना ही वस्तु का स्वभाव है । अगर दूसरे क्षण मैं वह कुछ भी नहीं करता तो उसे श्रवस्तु-वन्ध्या-पुत्र की भांति कुछ भी नहीं - श्रस्तित्वहीन, स्वीकार करना होगा ।
यदि यह माना जाय कि देव तो एक साथ समस्त क्रियाएँ करने में समर्थ है, किन्तु विभिन्न कार्यों के सहकारी कारण जब विद्यमान होते हैं तब वह कार्य करता है और जब सहकारी कारण नहीं होते तो कार्य नहीं करता। जैसे बीज में अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति तो सदा रहती है, परन्तु पृथ्वी, पानी, आदि सहायक कारण मिलने पर वह अंकुर को उत्पन्न करता है, उनके बिना नहीं कर सकता |
यहां यह जानना जरूरी है कि सहायक कारण वीज में कोई विशेषता उत्पन्न करते हैं या नहीं करते ? अगर कोई विशेषता उत्पन्न नहीं करते तब तो उनका होना वृथा 'है - निरर्थक हैं । ऐसे निरर्थक सहायकों की प्रतीक्षा करने से बीज कभी अंकुर को उत्पन्न ही नहीं कर सकेगा। अगर सहायक कारण चीज में कोई विशेषता उत्पन्न
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व्यारहवां अध्याय
[ ४३५ 1 करते हैं तो बीज की एकान्त नित्यता खंडित हो जाती है । इसी प्रकार सहायक कारण देव में किसी प्रकार की विशेषता उत्पन्न करते हैं तो देव नित्य नहीं रह सकता, क्योंकि किसी प्रकार की विशेषता उत्पन्न होना ही पदार्थ की अनित्यता कहलाती है। ऐसी दशा में या तो देव को नित्य नहीं मानना चाहिए या सहकारी कारणों द्वारा उसमें विशेपता उत्पन्न होना नहीं स्वीकार करना चाहिए।
शंका-देव को नित्य मानने से यदि इतने दोप पाते हैं तो उसे अनित्य मान लेते हैं । अनित्य मानने में क्या हानि है ?
समाधान-तुह्मारा देव अगर अनित्य है तो वह स्वयं ही उत्पत्ति के अनन्तर नष्ट हो जायगा । जब वह अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता तो संसार के समस्त कार्यों की चिन्ता किस प्रकार कर सकेगा? .
इसके अतिरिक्त, अनित्य होने से उसका भी कोई का मानना पड़ेगा जो उस का कर्त्ता होगा वह असली देव कहलायमा, आपके देव का देवत्व ही छिन जायगा। इस प्रकार न तो देव को नित्य माना जा सकता है, न अनित्य माना जा सकता है।
अच्छा यह बताइए कि आपका देव मूर्त है या अमूर्त है ? अगर वह अमूर्त अर्थात् अशरीर है तो श्राकाश की तरह वह लोक का कर्त्ता नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि देव, लोक का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह अशरीर है, जो शरीर होता है वह कर्ता नहीं होता, जैसे आकाश अथवा मुक्तात्मा । आपका माना हुआ देव भी अशरीर है अतएव वह लोक का कर्त्ता नहीं हो सकता।
देव को अगर मूर्त अर्थात् सशरीर माना जाय तो यह बताना पड़ेगा कि उस का शरीर दृश्य है या अदृश्य ? अर्थात् जैसे हम लोगों का शरीर दिखता है वैसे ही उसका शरीर दिखता है या पिशाच आदि के शरीर की भांति उसका शरीर अदृश्य है ? यदि दृश्य शरीर वाला है तो प्रत्यक्ष से बाधा आती है, क्योंकि हम लोगों को उसका शरीर कभी दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके अतिरिक्त हमारे शरीर की भांति ही उसका शरीर है तो वह हमारी ही तरह कार्य भी करेगा । ऐसी अवस्था में इस विशाल विश्व का निर्माण किस प्रकार कर सकेगा ? एक पर्वत या समुद्र आदि चनाने में ही उसे पर्याप्त समय लग जायगा । तो सृष्टि में होने वाले अनन्त कार्यों को वह कब और किस प्रकार करेगा ?
यदि पिशाच के शरीर के समान अदृश्य अशरीर वाला है तो यह बताइए कि उसका शरीर अदृश्य क्यों है ? क्या हम लोगों में उसे देखने की शक्ति नहीं है या उसके शरीर का माहात्म्य ही ऐसा है कि वह दृष्टिगोचर नहीं होता ? अगर यह कहा जाय कि उसका माहात्म्य ही उसके शरीर की अदृश्यता का कारण है तो उसके लिए • कोई प्रमाण उपस्थित करना चाहिए । जय तक आप उसका माहात्म्य सिद्धन करदें तय तक उसका शरीर अश्य नहीं माना जा सकता और जब तक उसका शरीर अश्य सिद्ध न हो जाय तय तक माहात्स्य सिद्ध नहीं हो सकता । दोनों बातों की सिद्धि एक-दूसरे पर निर्भर है, अतः दोनों में से एक भी सिद्ध नहीं होती।
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भाषा-स्वरूप वर्णन ऐसी दशा में जगत् का निर्माण होना ही असंभव ठहरता है।
शंका-देव कभी उत्पन्न ही नहीं होता। वह अनादि काल से है। अतएव उसकी उत्पत्ति संबंधी चर्चा करना ही निरर्थक है।
समाधान-यदि देव अनादि है तो लोक को भी अनादि क्यों न मान लिया जाय ? देव को अनादि कालीन मानने में कोई बाधा नहीं आती तो लोक को अनादि मानने में क्या वाधा पा सकती है। .
देव अगर अनादि है तो यह बताइए कि वह नित्य है या अनित्य है ? अगर देव नित्य है तो वह जो कार्य करता है सो एक के पश्चात् दुसरा, दूसरे के पश्चात् तीसरा, इस प्रकार कम से करता है, या समस्त कार्यों को एक ही साथ कर डालता
__ यदि यह माना जाय कि देव क्रम से एक-एक क्रिया करता है तो यह आशंका होती है कि वह एक क्रिया करते समय, दूसरी क्रिया करने में समर्थ है या असमर्थ है ? अगर समर्थ है तो फिर धीरे-धीरे एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी · क्रिया क्यों करता है ? सब क्रियाएँ एक ही साथ क्यों नहीं कर डालता? अगर एक क्रिया के समय दूसरी क्रिया करने में देव को असमर्थ माना जाय और एक क्रिया पूरी हो जाने पर दूसरी क्रिया करने में समर्थ मान लिया जाय तो उसकी नित्यता समाप्त हो जाती है। एक समय वह असमर्थ होता है और दूसरे समय समर्थ हो जाता है तो वह नित्य कैसे रहा ? नित्य तो आपके मत से वही कहलाता है जो सदा काल एकान्त एक रूप बना रहे। आपका यह देव सदा एक सा नहीं रहता-कभी समर्थ और कभी असमर्थ हो जाता है, ऐसी स्थिति में उसे नित्य किस प्रकार माना जा सकता है ?
देव समस्त क्रियाएँ एक साथ कर डालता है, ऐसा माना जाय तो जितनी भी क्रियाएँ उसे करनी हैं, वे सब एक ही क्षण में समाप्त हो जाएंगी, फिर दूसरे क्षण में वह क्या करेगा ? अर्थ-क्रिया करना ही वस्तु का स्वभाव है। अगर दूसरे क्षण में वह कुछ भी नहीं करता तो उसे अवस्तु-बन्ध्या-पुत्र की भांति कुछ भी नहीं-अस्तित्वहीन, स्वांकार करना होगा।
यदि यह माना जाय कि देव तो एक साथ समस्त क्रियाएँ करने में समर्थ है, किन्त विभिन्न कार्यों के सहकारी कारण जब विद्यमान होते हैं तब वह कार्य करता है
और जव सहकारी कारण नहीं होते तो कार्य नहीं करता। जैसे वीज में अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति तो सदा रहती हैं, परन्तु पृथ्वी, पानी, आदि सहायक कारण मिलने पर वह अंकूर को उत्पन्न करता है, उनके बिना नहीं कर सकता। .
यहां यह जानना जरूरी है कि सहायक कारण वीज में कोई विशेषता उत्पन्न करते हैं या नहीं करते? अगर कोई विशेषता उत्पन्न नहीं करते तब तो उनका होना वथा है-निरर्थक है। ऐसे निरर्थक सहायकों की प्रतीक्षा करने से चीज कभी अंकुर को उत्पन्न ही नहीं कर सकेगा। अगर सहायक कारण वीज में कोई विशेषता उत्पन्न
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व्यारहवां अध्याय करते हैं तो बीज की एकान्त नित्यता खंडित हो जाती है। इसी प्रकार सहायक कारण देव में किसी प्रकार की विशेषता उत्पन्न करते हैं तो देव नित्य नहीं रह सकता, क्यों कि किसी प्रकार की विशेषता उत्पन्न होना ही पदार्थ की अनित्यता कहलाती है। ऐसी दशा में या तो देव को नित्य नहीं मानना चाहिए या सहकारी कारणों द्वारा उसमें विशेषता उत्पन्न होना नहीं स्वीकार करना चाहिए।
शंका-देव को नित्य मानने से यदि इतने दोष पाते हैं तो उसे अनित्य मान लेते हैं । अनित्य मानने में क्या हानि है ?
__ समाधान-तुह्मारा देव अगर अनित्य है तो वह स्वयं ही उत्पत्ति के अनन्तर नष्ट हो जायगा । जब वह अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता तो संसार के समस्त कार्यों की चिन्ता किस प्रकार कर सकेगा?
इसके अतिरिक्त, अनित्य होने से उसका भी कोई का मानना पड़ेगा जो उस का कर्ता होगा वह असली देव कहलायमा, आपके देव का देवत्व ही छिन जायगा। इस प्रकार न तो देव को नित्य माना जा सकता है, न अनित्य माना जा सकता है।
अच्छा यह चताइए कि आपका देव मूर्त है या अमूर्त है ? अगर वह अमूर्त अर्थात् अशरीर है तो प्राकाश की तरह वह लोक का कर्त्ता नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि देव, लोक का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह अशरीर है, जो शरीर होता है वह कर्ता नहीं होता, जैसे आकाश अथवा मुक्तात्मा । आएका माना हुआ देव भी शरीर है अतएव वह लोक का कर्ता नहीं हो सकता।
देव को अगर मूर्त अर्थात् सशरीर माना जाय तो यह बताना पड़ेगा कि उस का शरीर दृश्य है या अदृश्य ? अर्थात् जैसे हम लोगों का शरीर दिखता है वैसे ही उसका शरीर दिखता है या पिशाच आदि के शरीर की भांति उसका शरीर अदृश्य है ? यदि दृश्य शरीर वाला है तो प्रत्यक्ष से वाधा आती है, क्योंकि हम लोगों को उसका शरीर कभी दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके अतिरिक्त हमारे शरीर की भांति ही उसका शरीर है तो वह हमारी ही तरह कार्य भी करेगा । ऐसी अवस्था में इस विशाल विश्व का निर्माण किस प्रकार कर सकेगा ? एक पर्वत या समुद्र आदि बनाने में ही उसे पर्याप्त समय लग जायगा । तो सृष्टि में होने वाले अनन्त कार्यों को वह कर और फिस प्रकार करेगा ?
यदि पिशाच के शरीर के समान अदृश्य अशरीर वाला है तो यह बताइए कि उसका शरीर अदृश्य क्यों है ? क्या हम लोगों में उसे देखने की शक्ति नहीं है या उसके शरीर का माहात्म्य ही ऐसा है कि वह दृष्टिगोचर नहीं होता? अगर यह कहा जाय कि उसका माहात्म्य ही उसके शरीर की अदृश्यता का कारण है तो उसके लिए • कोई प्रमाण उपस्थित करना चाहिए । जब तक आप उसका माहात्म्य सिद्ध न करदें तब तक उसका शरीर अहय नहीं माना जा सकता और जब तक उसका शरीर अदृश्य सिद्ध न हो जाय तब तक माहात्म्य सिद्ध नहीं हो सकता । दोनों शतों की सिद्धि एफ-दूसरे पर निर्भर है, अतः दोनों में से एक भी सिद्ध नहीं होती।
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भाषा-स्वरूप वर्णन
अगर यह कहा जाय कि हम लोगों में उसका शरीर देखने की शक्ति नहीं है, तो भी सन्देह बना ही रहता है कि क्या हम अपनी शक्ति के कारण देव का शरीर नहीं देख पाते या शरीर का अभाव होने के कारण नहीं देख पाते ? इस सन्देह का निवारण करने के लिए आपके पास कोई प्रमाण नहीं है, तो देव का शरीर श्रदृश्य किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है ?
इस प्रकार कोई भी देव, लोक का निर्माता सिद्ध नहीं होता । देव के कर्तृत्व का जिस प्रकार विचार किया गया है उसी प्रकार ब्रह्म के जगत्-कर्तृत्व पर विचार करना चाहिए ।
वैशेषिक दर्शन के अनुयायी ईश्वर को जगत् का कर्त्ता स्वीकार करते हैं । उनका कथन इस प्रकार है
एक, व्यापक, स्वतंत्र, सर्वज्ञ और नित्य ईश्वर ने इस जगत् का निर्माण किया है । चिना किसी के बनाये जगत् वन नहीं सकता, श्रतएव कोई पुरुष इसका निर्माता होना चाहिए । जो इसका निर्माता है. उसीको ईश्वर कहते हैं ।
पृथ्वी, पर्वत, पेड़ आदि किसी बुद्धिमान् कर्त्ता ने बनाये हैं, क्योंकि यह कार्य हैं, जो कार्य होता है वह बुद्धिमान् कर्त्ता का बनाया हुआ होता है, जैसे घट | पृथ्वी, पर्वत आदि कार्य हैं इसलिए वे भी किसी कर्त्ता के बनाये हुए हैं । इनका बनाने वाला जो कोई बुद्धिमान् कर्त्ता है वही ईश्वर है ।
वह कर्त्ता ईश्वर एक है । यदि जगत् का बनाने वाला एक नहीं माना जायगा और बहुत से कर्त्ता माने जाएँगे तो उनमें कभी मतभेद खड़ा हो जायगा । एक कर्त्ता मनुष्य के दो हाथ, दो पैर और दो नेत्र बनायेगा और दूसरा कर्त्ता चार हाथ, तीन पैर और चार-छह नेत्र बना देगा | इस प्रकार एक-एक वस्तु भिन्न-भिन्न रूप से चनने लगेगी, तो अंधेर मच जायगा । श्रतएव जगत् का एक ही कर्त्ता मानना चाहिए ।
ईश्वर सर्वव्यापी भी है। अगर उसे सर्वव्यापी अर्थात् सम्पूर्ण लोक में ठसाठस भरा हुआ न माना जाय तो सब जगह के सब कार्य वह यथोचित रीति से सम्पन्न नहीं कर सकेगा । किन्तु लब कार्य व्यवस्थित रूप से होते हैं अतएव वह व्यापक हैं ।
ईश्वर स्वाधीन है, क्योंकि वह अपनी इच्छा से संसार के सब प्राणियों को सुख दुःख रूप फल देता है । अगर उसे स्वतंत्र न माना जाय, पराधीन माना जाय तो वह जिसके अधीन होगा वही सच्चा ईश्वर कहलायेगा - ईश्वर ईश्वर नहीं रह जायगा ।
ईश्वर नित्य है । वह अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेगा । वह सदा एक रूप रहता है । वह सब का उत्पादक है, पर किसी से उत्पन्न नहीं होता । अगर ईश्वर का उत्पादक कोई हो भी तो उसे नित्य माना जायगा या श्रनित्य माना जायगा ? यदि वह नित्य है तो ईश्वर को ही नित्य मानने में क्या हानि है ? अगर ईश्वर का उत्पादक भी अनित्य माना जाय तो फिर उसका भी कोई उत्पादक मानना पड़ेगा । इस प्रकार ईश्वर के उत्पादकों का कहीं अन्त नहीं श्रायगा और परिणाम
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ध्यारहवा अध्याय __ यह होगा कि जगत् के निर्माण का अवसर ही नहीं पा सकेगा। श्रतएव ईश्वर को ही नित्य मान लेना युक्ति संगत है। .
ईश्वर सर्वज्ञ भी है । वह तीन काल और तीन लोक की समस्त वस्तुओं को, समस्त भावों को, पूर्ण रूप से जानता है।
वैशेषिक के इस कथन पर विचार करने से यह सारा कवन निराधार सिद्ध होता है। उन्होंने 'कार्यत्व' हेतु से ईश्वर को कर्त्ता सिद्ध करने का प्रयास किया है, किन्तु हेतु से साध्य की सिद्धि तभी होती है जव व्याप्ति निश्चित हो चुकी हो । व्याप्ति का निश्चय हुए बिना कोई भी हेतु अपना साध्य सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता।
वैशेषिकों से यह पूछा जा सकता है कि कार्यत्व हेतु की व्याप्ति सशरीर का के साथ है या अशरीर कर्ता के लाथ ? अगर सशरीर कर्त्ता के साथ व्याप्ति है तो यह प्राशय निकला कि 'जो जो कार्य होते हैं वे सब सशरीर कर्ता के बनाये हुए होते हैं।' पर यह व्याप्ति प्रत्यक्ष से ही खंडित हो जाती है, क्यों कि बिजली, इन्द्रधनुष और मेघ आदि कार्य तो हैं पर उनका कर्त्ता सशरीर नहीं देखा जाता।
अगर यह कहा जायक 'कार्यत्व' हेतु की व्याप्ति अशरीर कर्ता के साथ है, तो यह तात्पर्य निकला कि-जो-जो कार्य होते हैं वे-वे अशरीर कर्ता के बनाये
हुए होते हैं। पर ऐसी व्याप्ति बनाने से घट दृष्टान्त की क्या दशा होगी? घट कार्य __ है पर उसका कर्ता अशरीर नहीं है । शरीरधारी कुंभार घट बनाता है, यह लोकप्रसिद्ध है।
पृथ्वी, पर्वत आदि को श्राप कार्य कहते हैं तो उनमें सर्वथा कार्यत्व है या कथञ्चित् कार्यत्व है ? अगर सर्वथा कार्यस्व का श्राप विधान करते हैं तो हेतु प्रसिद्ध है, क्यों कि द्रव्य की अपेक्षा पृथ्वी आदि में कार्यत्व नहीं हैं । द्रव्य नित्य होता है अतएव पृथ्वी श्रादि भी द्रव्य दृष्टि से नित्य हैं। अगर आप कथञ्चित् कार्यत्व सिद्ध करना चाहते हैं तो श्रापका हेतु विरुद्ध है अर्थात् श्राप एकान्त रूप से की सिद्ध करना चाहते हैं, पर कथंचित् कार्यत्व हेतु के द्वारा एकान्त से विमद्ध कथंचित् कतई ही सिद्ध हो सकता है । इस प्रकार कार्यत्व हेतु दूषित होने के कारण वह ईश्वर को कर्ता सिद्ध करने में समर्थ नहीं है।
अब ईश्वर के विशेषणों पर विचार करना चाहिए । मतभेद के भय से ईश्वर को एक मानना उचित नहीं है। यह श्रावश्क नहीं कि जहां अनेक कर्ता हो वहां मतभेद अवश्य हो । सैकड़ों, हजारों मधु-मानयां मिलकर एक छत्ते का निर्माण फरती , फिर भी सब छत्तों में सर्वत्र समानता पाई जाती है। कहीं भी विशरशता नहीं देखी जाती । फ्या ईश्वर मधु-मक्खियों से भी गये-बीते हैं कि वे भनेक मिलकर पारस्परिक सहमति से सदृश कार्य नहीं कर सकते?
भागर यह कहा जाय कि इत्ता का कर्त्ता एक श्वर ही है, अनेक मधु
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भाषा-स्वरूप वर्णन मक्खियां नहीं हैं । इसी कारण सब जगह एक सरीखे छत्ते देखे जाते हैं। तो घड़े को बनाने वाला भी कुंभार न मानकर ईश्वर ही मान लीजिए | कपड़ा बनाने वाला भी ईश्वर ही है, जुलाहा नहीं । इस प्रकार भले-बुरे सभी कार्यों का कर्ता एक मात्र ईश्वर ही ठहरेगा। फिर समस्त लोक-व्यवहार ही असंगत सिद्ध होंगे। किसी भी कार्य के लिए किसी भी व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकेगा । इस प्रकार उसकी एकता सिद्ध नहीं होती।
ईश्वर को व्यापक मानना भी युक्तिसंगत नहीं है । यदि ईश्वर शरीर से व्यापक है अर्थात् उसका शरीर समस्त लोक में व्याप्त है तब तो अन्य पदार्थों को स्थान ही नहीं मिलना चाहिए । सारा संसार ईश्वर के शरीर से ही खचाखच भर जायगा।
ईश्वर को व्यापक न माना जाय तो वह विभिन्न स्थानों और सभिन्न दिशाओं संबंधी कार्य एक साथ नहीं कर सकेगा, यह तर्क भी ठीक नहीं है कि ईश्वर अपने शरीर से कार्य करता है या संकल्प मात्र से ? अगर शरीर से संसार की रचना करता है तव तो संसार को कभी पूर्ण रूपसे बना नहीं पाएगा । और यदि संकला से ही रचना करता है तो व्यापक मानने की अावश्यकता नहीं रहती। एक जगह स्थित होकर के भी संकल्प के द्वारा समस्त विश्व की रचना कर सकता है।
शरीर से व्यापक मानने से और भी अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं । यथाव्यापक होने से उसका शरीर नरक श्रादि दुःखपूर्ण स्थानों में तथा अशुचिमय पदार्थों में भी रहेगा और इससे. ईश्वर की विशुद्धता एवं आनन्दरूपता में व्याघात पड़ेगा।
ईश्वर को शरीर से नहीं किन्तु शान से व्यापक माना जाय तो ठीक है, पर आपके आगम से विरोध अवश्य. श्रावेगा। श्रापके पागम में उसे शरीर से व्यापक माना गया है। अतएव न तो श्राप शरीर की अपेक्षा व्यापक मान सकते हैं और न ज्ञान की अपेक्षा ही।
श्रापका माना हुश्रा ईश्वर यदि स्वतंत्र है, अपनी इच्छा के अनुसार जगत् का निर्माण करता है, तो उसने संसार में दुःख का निर्माण क्यों किया है ? एकान्त सुख. मय संसार की रचना क्यों नहीं की ? श्राप उसे दयालु स्वीकार करते हैं,फिर संसार में दुःखों का अस्तित्व क्यों होना चाहिए? अगर यह कहा जाय कि ईश्वर, प्राणियों द्वारा उपार्जित शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुन दुःख का भोग कराता है। जिन्होंने पूर्व जन्म में पापं किये हैं उन्हें दुःख रूप फल देना आवश्यक है । तो ईश्वर स्वतंत्र नहीं ठहरता। वह जीव के कर्मों के अधीन है । जैसे कर्म होंगे, वैसा ही फल देने के लिए उसे वाध्य होना पड़ेगा। वह अपनी इच्छा के अनुसार फल नहीं दे सकता। .
. इसके अतिरिक्त ईश्वर करुणाशील है और सर्वशक्तिसम्पन्न भी है, ऐसा प्राय स्वीकार करते हैं। तब वह जीवों को पाप में प्रवृत्त क्यों होने देता है ? पार करने की वृद्धि को ही वह क्यों नहीं नष्ट कर देता? सर्वश होने के कारण वह सब कुछ
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यारहवां अध्याय
TET जानता है, सर्वशक्तिमान् होने के कारण वह सभी कुछ कर सकता है, फिर पाप करने से जीवों को रोकता क्यों नहीं है ? क्या कोई भी पिता, अपने पुत्र को जान बूझ कर और रोकने का सामर्थ्य होने पर भी कुए में पढ़ने देता है ? वह परम पिता ईश्वर कैंसा करुणाशील है जो पहले तो जान-बूझ कर पाप के साधन प्रस्तुत करता है, पाप - बुद्धि उत्पन्न करता है, फिर पाप में प्रवृत्त होने देता है— रोकने की शक्ति होने पर भी सेकता नहीं औौर टुकुर-टुकुर देखा करता है, अन्त में पाप का दंड देने के लिए तैयार हो जाता है ! इस प्रकार का निर्दयतापूर्ण व्यवहार करने वाला पुरुष परम पिता और दयाशील कहा जाय तो क्रूर र शत्रु किसे कहेगें ! इस कथन से यह स्पष्ट है कि या तो ईश्वर को स्वतंत्र नहीं स्वीकार करना चाहिए, या फिर उसकी दयालुता, सर्वशक्तिमत्ता घ्यादि गुणों को तिलांजलि देनी चाहिए ।
ईश्वर को सर्वज्ञ मानना भी उचित नहीं प्रतीत होता । ईश्वर अगर सर्वज्ञ होता और भूतकाल तथा भविष्यकाल की समस्त घटनाओं को तालता तो वह ऐसे प्राणियों की रचना कदापि न करता, जिनका उसे बाद में संहार करना पड़ता है, या जिनका निग्रह करने के लिए शूकर आदि के रूप में अवतरित होना पड़ता है । इसके अतिरिक्त ईश्वर-विरोधी मनुष्यों की भी वह सृष्टि न करता । ऐसे प्राणियों की उत्पत्ति यह सूचित करती है कि ईश्वर सर्वक्ष नहीं है अथवा उसे यह अभीष्ट है कि जगत् में अरे कर्तृत्व का विरोध किया जाय ! इस प्रकार ईश्वर की सर्वेक्षता सिद्ध नहीं होती ।
सर्वज्ञता इतनी सूक्ष्म वस्तु है कि हम दूसरे की सर्वक्षता अपने प्रत्यक्ष से जानने में सर्वथा असमर्थ हैं। कोई भी मनुष्य, दूसरे के ज्ञान का परिमाण प्रत्यक्ष से नहीं जान सकता । अतएव ईश्वर की सर्वज्ञता भी प्रत्यक्ष से नहीं जानी जा सकती ।
अगर अनुमान प्रमाण से ईश्वर की सर्वशता को जानना चाहें तो वह भी श्र. भव है । अनुमान से वही वस्तु जानी जाती है, जिसका श्रविनाभावी साधन निश्चित किया जा चुका है। अशि के अविनाभावी ( श्राग के बिना कदापि न होने वाले ) साधन धूम से अग्नि का निश्चय हो सकता है । परन्तु ईश्वर की सर्वक्षता के विना न होने वाली कोई भी वस्तु हमारे सामने नहीं है, जिससे ( अग्नि की भांति ) उस की सर्वक्षता का अनुमान किया जाय ।
अब एक आगम प्रमाण रद्द जाता है । श्रागम से श्रागम के वक्ता पुरुष के ज्ञान का पता चल जाता हैं, इसलिए कर्त्ता वादियों के आगम से उनका ईश्वर सर्व सिद्ध होता है या नहीं. इसकी परीक्षा करना श्रावश्यक है। अगर आगम ईश्वर की सर्वशता सिद्ध करता है तो वह किस का रचा हुआ है-ईश्वर का ही रखा हुआ है या अन्य किसी पुरुष का ? अगर ईश्वर कृत यागम ही ईश्वर की सर्वव्रता का साधक है, तब तो ईश्वर की महत्ता समाप्त हो जाती है। कोई भी महापुरुष अपने मुँह मिया मिठ्ठु नहीं बनता। इसके अतिरिक्त, ईश्वर आगम का प्रणेता नहीं हो सकता। आगन शब्द-स्वरूप है शब्द तालु, कंठ, ओट, यादि स्थानों से उत्पन्न होते हैं और तालु
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[ ४४०.
भाषा-स्वरूप वर्णन कंठ आदि शरीर में ही हो सकते हैं। श्राप ईश्वर को स-शरीर मानेगे तो पहले कहे हुए अनेक दोष आ जाएँगे। अगर अशरीर मानते हैं तो वह शास्त्र प्रणेता नहीं हो सकता । इस प्रकार ईश्वर कृत शास्त्र ईश्वर की सर्वज्ञता का साधक नहीं हो सकता।
अगर 'अन्य पुरुष का रचा हुआ आगम ईश्वर की सर्वशता का समर्थक माना जाय, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह पुरुष सर्वज्ञ है या असर्वश ? अगर सर्वज्ञ है तो वह भी ईश्वर हो जायगा, फिर ईश्वर अनेक हो जायेंगे । यदि उसे अ. सर्वज्ञ माना जाए तो वचनों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जो स्वयं प्रसवंत है, वह हम लोगों के ही सदृश है । उसके वचनों पर श्रद्धा करने का कोई कारण नहीं है।
इसके अतिरिक्त श्रापका आगम ईश्वर की सर्वज्ञता से विपरीत असर्वक्षता .. ही सिद्ध करता है, क्योंकि उसमें पूर्वापर विरोध की प्रचुरता । एक जगह लिखा है
नहिंस्यात सर्व भूतानि । अथात 'किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' दूसरी जगह अहिंसा के इस विधान के विरुद्ध घोर हिंसापरक यज्ञों का विधान किया गया है। .
एज जगह 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' अर्थात् निपूते को उत्तम गति की प्राप्ति नहीं होती, यह कहकर सन्तानोत्पादन की अनिवार्यता वतलाई है, दूसरी जगह कुमार ब्रह्मचारियों का सद्गति का प्राप्त होना कहा गया है । यथा
अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् । _ दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥
अर्थात् कई हजार कुमार ( कुंवारे ) ब्रह्मचारी, अपने कुल की संतान उत्पन्न . किये बिना ही स्वर्ग:पहुंचे हैं।
यानि अनेक परस्पर विरोधि विधान श्रापके आगम में विद्यमान है। इन आगमों का प्रणेता यदि सर्वन होता तो इस प्रकार की विरोधी बातें उनमें उपलब्ध सोही। इससे स्पष्ट है कि श्रापका भी आगम उसके कर्ता की सर्वज्ञता. प्रमाणिता नहीं करता। श्रतएव ईश्वर की सर्वक्षता सिद्ध नहीं होती।
इसी प्रकार ईश्वर की नित्यता भी युक्ति संगत नहीं ठहरती। देव वाद के प्रक. रण में देव की नित्यता पर जिस प्रकार विचार किया है, उसी प्रकार यहां भी करना चाहिए।
बरको एकान्त नित्य मानने वालों से यह भी पूछा जा सकता है कि जगत का निर्माण करना ईश्वर का स्वभाव है या नहीं? अगर निर्माण करना उसका स्वभाव है, तो ईश्वर की तरह उसका स्वभाव भी नित्य ही होगा और इस कारण वह सदैव जगत् की उत्पत्ति करता रहेगा-कभी समाप्ति नहीं करेगा। अगर कभी निमार्ण की क्रिया समाप्त करेगा तो उसका स्वभाव नष्ट हो जायगा और उस अवस्था में ईश्वर भी अनित्य ठहरेगा। ईश्वर को अनित्य मानने में क्या बाधाएं हैं, यह देव के
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ग्यारहवां अध्याय.
[ ४४१. ) प्रकरण में बतलाया जा चुका है ।
सृष्टि की रचना करना ईश्वर का स्वभाव न माना जाय तो ईश्वर कभी रचना ही न करेगा। ईश्वर से अधिक शक्तिशाली अन्य कोई वस्तु नहीं है, जो वलात्कार करके ईश्वर ले जगत् का निर्माण करावें । अगर ऐसी कोई वस्तु मानी जाय तो वही वास्तव में ईश्वर कह लाएगी। बेचारा ईश्वर तो उसकी कठपुतली है, जिसे वह मनमाना नाच नचाती है।
इसके अतिरिक्त ईश्वर को एकान्त नित्य माना जाय तो वह सृष्टि की तरह संहार नहीं कर सकेगा । अन्यथा, कभी सृष्टि करने और कभी संहार करने के कारण बह अनित्य हो जायगा।
नित्य होते हुए भी ईश्वर अगर सृष्टि और संहार दोनों कार्य करता है तो यह श्राशंका होती है कि दोनो कार्य एक स्वभाव से करता है या भिन्न-भिन्न स्वभावों से ? दोनों कार्य यदि एक ही स्वभाव से करता है तो सृष्टि और संहार एक ही साथ होने चाहिए । एक स्वभाव से होने वाले दो कार्य भिन्न-भिन्न समयों में नहीं हो सकते। इसके विपरीत जो कार्य भिन्न लमयों में होते हैं उन्हें एक स्वभाव जन्य नहीं माना जा सकता।
सृष्टि करते समय ईश्वर का स्वभाव अन्य होता है और संहार करते समय अन्य होता है ऐसा मानने से ईश्वर में अनित्यता आ जायगी। ईश्वर कभी रजोगुण से युक्त होकर सृष्टि करता है और कभी तमोगुण से युक्त होकर संहार करता है, तो वह नित्य किस प्रकार कहला सकता है ? .
अगर यह कहा जाय कि रजोगुण एवं तमोगुण ईश्वर की दो अवस्थाएं हैं। अवस्थाएँ अनित्य हैं-उत्पन्न होती रहती हैं और नष्ट भी होती रहती है। फिर भी अवस्थावान् ईश्वर सदा सर्वदा एक-सा बना रहता है। उसमें रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता।
___ यह समाधान ठीक नहीं कहा जा सकता। अवस्थाओं के भेद से अवस्थावान् में भी भेद होना अनिवार्य हैं । जब कोई वस्तु एक अवस्था को छोड़ कर दूसरी अवस्था प्राप्त करती है अर्थात् रूपान्तरित होती है, तब वह उस वस्तु का भी रूपान्तर कहलाता है। अगर ऐसा न माना जाय तो कोई भी वस्तु अनित्य नहीं होगी। क्योंकि . कोई भी मूल वस्तु कभी बदलती नहीं है। प्रत्येक वस्तु की अवस्थाएँ ही बदलती रहती है । वास्तव में अवस्थाएँ और अवस्थावान् पदार्थ कचित् अभिन्न है, अतएव एक को परिवर्तन दूसरे का भी परिवर्तन माना जाता है।
तर्क के खातिर ईश्वर को नित्य मान लिया जाय तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह सदैव सृष्टि निर्माण में क्यों नहीं लगा रहता ? जब ईश्वर नित्य है तो उस का सृष्टि कार्य भी नित्य ही होना चाहिए।
इस प्रश्न का उत्तर यदि यह दिया जाय कि ईश्वर अपनी इच्छा के अनुसार
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भाषा-स्वरूप वर्णन
सृष्टि रचना है । जब उसकी इच्छा होती है तब रचता है, जब इच्छा नहीं होती तब नहीं रचता । तो यह पूछा जा सकता है कि ईश्वर की इच्छा यदि स्वयमेव चिना किसी चाह्य कारण के उत्पन्न होती है तो वह सदैव क्यों नहीं उत्पन्न होती ? उसके कभी-कभी उत्पन्न होने का क्या कारण हैं ? जिसकी उत्पत्ति किसी अन्य कारण पर निर्भर नहीं है, वह सदा उत्पन्न होनी चाहिए |
उल्लिखित प्रकार से विचार करने पर ईश्वर की नित्यता भी खंडित हो जाती है | अतएव अनेक विशेषणों से विशिष्ट ईश्वर को जगत् का कर्त्ता मानना तर्क-संगत नहीं है ।
संसार के समस्त प्राणी स्वार्थसिद्धि के लिए किसी कार्य में प्रवृत्त होते हैं या करुणा बुद्धि से प्रवृत्ति करते हैं। यहां यह विचारणीय है कि ईश्वर किस उद्देश्य से जगत् का निर्माण करता है ? ईश्वर कृतकृत्य है, उसे कुछ प्राप्त नहीं करना है, उसके लिए कुछ भी साध्य शेष नहीं रहा है। ऐसी स्थिति में वह स्वार्थ से प्रेरित होकर जगत् का निर्माण नहीं कर सकता ।
रही करुणा- बुद्धि सो | दूसरे के दुःख को दूर करना करुणा है । जगत् का निर्माण करने से पहले, जीवों को किसी प्रकार का दुःख नहीं था, तब उसने क्यों सृष्टि उत्पन्न की ?
शंका- सृष्टि से पहले जीव दुखी क्यों नहीं थे ?
समाधान- जब शरीर होता है, इन्द्रियां होती हैं और इन्द्रियों के विषय होते हैं, तभी दुःख की उत्पत्ति होती है । इन सब के अभाव में कोई जीव दुःखी नहीं हो सकता | सृष्टि रचने से पूर्व इन सब को अभाव था, अतएव दुःख का भी प्रभाव था । इस प्रकार जब दुख ही विद्यमान न था तब किसका नाश करने के लिए ईश्वर में करुणा की भावना उत्पन्न हुई होगी ? इस प्रकार सृष्टि रचना का उद्देश्य ही स्थिर नहीं हो पाता ।
तात्पर्य यह है कि ईश्वर को जगत् का कर्त्ता मानने में अनेक आपत्तियां हैं, जिनका निराकरण नहीं हो सकता । यही नहीं इससे ईश्वर का स्वरूप विकृत हो जाता है और उसे अनेक दोषों का पात्र बनना पड़ता है । श्रनएव ईश्वर को जगत् का कर्त्ता कहना श्रज्ञानमूलक मृषावाद है ।
सांख्यदर्शन के अनुयायी कहते हैं कि यह लोक प्रधान श्रादि के द्वारा रचा. गया है। यहां 'आदि' शब्द से काल, स्वभाव, यहच्छा और नियति का ग्रहण गिया गया है ।
सांय दर्शन में प्रकृति एक मूल तत्व है, जिससे यह विशाल जगत् उत्पन्न हुना बतलाया जाता हैं । सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्य अवस्था प्रकृति कहलाती है । इन गुणों का जब वैषम्य होता है तो सृष्टि का आरंभ होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है।
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यारहवां अध्याय
प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारस्तस्माद् गणञ्च षोडशकः । तस्मादपि पोडशकात्, पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥
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अर्थात् - मूल प्रकृति से सर्वप्रथम बुद्धि तत्त्व उत्पन्न होता है ( प्रकृति जड़ है श्रतएव उससे उत्पन्न होने वाली बुद्धि को भी सांख्य दर्शन में जड़ माना गया है ) बुद्धि तत्व में से अहंकार की उत्पत्ति होती है । अहंकार में से पांच कर्मेन्द्रियां अर्थात् वाक्, पाणि पाद, वायु तथा उपस्थ, पांच स्पर्शन आदि ज्ञानेन्द्रियां, पांच तन्मात्राएँ ( रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ) श्रौर मन यह सोलह पदार्थ उत्पन्न होते हैं। पांच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पांच भूत उत्पन्न होते हैं । अर्थात शब्द तन्मात्रा से श्राकाश, शब्द और स्पर्श तन्मात्रा से वायु, शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्रा से अग्नि, पूर्वोक तीनों के साथ रस तन्मात्रा से जल और पांचो तन्मात्राओं से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है ।
प्रकृति के जगत्- कर्त्तत्व पर अलग विचार करने की आवश्यकता ही नहीं है, क्यों कि ईश्वर के जगत्-कर्तृत्व में जो दोष आते हैं, उसी प्रकार के दोष यहां भी उपस्थित होते हैं। फिर भी संक्षेप में इस सिद्धान्त पर भी विचार कर लेना उचित होगा ।
सांख्य प्रकृति को एकान्त नित्य स्वीकार करते हैं । प्रकृति की नित्यता स्वी
कार करते हुए उसे जगत् का कर्त्ता मानने में वही दोष हैं जो ईश्वर को सर्वथा नित्य मानने में आते हैं। इसके अतिरिक्त प्रकृति यदि एकान्त नित्य है, तो वह बुद्धि आदि अनित्य पदार्थों का उपादान कारण नहीं हो सकती । एकान्त नित्य होने के कारण प्रकृति सदैव एक रूप रहेगी। वह अपने पूर्व स्वभाव का परित्याग नहीं करेगी और उत्तर स्वभाव को ग्रहण नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में या तो वह सदैव बुद्धि श्रादि को उत्पन्न करती रहेगी या कभी उत्पन्न नहीं करेगी ।
इसके अतिरिक्त प्रकृति मूर्त्त है या श्रमूर्च है ? अगर अमूर्त है तो उससे अमूर्त पदार्थ ही उत्पन्न हो सकते हैं, समुद्र आदि मूर्त्त पदार्थ नहीं हो सकते । श्रमूर्त्त उपादान से मूर्त्त उपादेय का उत्पन्न होना असंभव है । प्रकृति को यदि मूर्त्त माना जाय तो यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि प्रकृति आई कहां से ? उसका उत्पा दक कौन है ? अगर प्रकृति स्वयमेव उत्पन्न हो जाती है, तो लोक भी स्वयमेव क्योंन उत्पन्न हुआ मान लिया जाय ? प्रकृति की उत्पत्ति किसी अन्य पदार्थ से मानना भी उचित नहीं है । ऐसा मानना सांख्य-सिद्धान्त के विरुद्ध है और इससे प्रकृति की नित्यता नष्ट हो जायगी ।
शंका - प्रकृति न स्वयं उत्पन्न होती हैं, न परपदार्थ से उत्पन्न होती है। वह सदा से है और सदा रहेगी। ऐसा मानने में क्या आपत्ति है ।
समाधान - प्रकृति की नित्यता सिद्ध नहीं होती, यह पहले कहा जा चुका है । दूसरे, जैसे प्रकृति स्वतः सिद्ध अनादि निधन है, उसी प्रकार लोक को अनादि निधन मान लेने में क्या बाधा है ?
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भाषा-स्वरूप वर्णन प्रकृति के विषय में यह भी विचारणीय है कि, वह जब अचेतन है तो पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए किस प्रकार प्रवृत्ति कर सकती है ? अचेतन होने के कारण उसे यह कैसे ज्ञान होगा कि ' पुरुष ' का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए ? प्रवृत्ति करने के पश्चात् ; जब पुरुष का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, तब प्रकृति अपनी प्रवृत्ति रोक देती है। अचेतन प्रकृति में इस प्रकार चेतनमय की क्रियाएँ मान लेना सर्वथा असंगत है। प्रकृति अगर प्रवृत्ति करती है तो वह नित्य होने के कारण प्रवृत्ति से कदापि उपरत न होगी और पुरुष का प्रयोजन सिद्ध होने पर भी प्रवृत्ति करती रहेगी। इस प्रकार विचार करने से प्रधान के द्वारा जगत् का निर्माण होना सिद्ध नहीं होता। . .
. . श्रादि शब्द से सूत्रकार ने स्वभाववाद, कालवाद, नियतिवाद श्रादि पर प्रकाश डाला है। तात्पर्य यह है कि कोई स्वभाव से सृष्टि की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं, कोई काल से, और कोई नियति आदि से स्वभाववादी कहता है- :
इन्तीति मन्यते कश्चित् , न हन्तीत्यपि चापरः। . स्वभावतस्तु नियती, भूतानां प्रभवात्ययौ ॥
अर्थात् कोई यह समझता है कि यह इसका वध करता है, दूसरा समझता है कि इसने इसका क्ध नहीं किया है, पर यह मान्यताएँ मिथ्या हैं। वास्तव में जीव . का जन्म और मरण स्वभाव से ही नियत हैं। कालवादी का कथन है
कालो हि भूमिमसूजन, काले तपति सूर्यः । ...... काले हि विश्वाभूतानि, काले चक्षुर्विपश्यति ॥ " अर्थात् काल ने पृथ्वी की सृष्टि की है । काल के आधार पर सूर्य तपता है। . काल के आधार पर ही समस्त भूत टिके हुए हैं और काल के कारण ही बनु देखती है। अर्थात् जगत् के सभी व्यवहारों का कारण काल ही है। इसी प्रकार
जन्यानां जनका. कालो जगलामाश्रयो मतः। ... अर्थात् समस्त उत्पन्न होने वाले पदार्थों का उत्पादक काल ही है और वही तीनों लोकों का आधार है।
आजीवक मत नियतिवाद का समर्थन करता है। वह अपना समर्थन इस स्कार करता है:
प्राप्तव्यो नियतिवलाश्रयेण ..
योऽर्थः सोऽवश्यंभवति हण शुभोऽशुभो का .., भूतानां महतिकृतेऽपिहि प्रयत्ले,
नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥ . . . . . . अर्थात्-नियति के वल से, जीवों को जो शुभ या अशुभ प्राप्त होता है। यह
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मामला कला है। पुरुष किया गया था क्यों न करे, चिन्ता
ग्यारहवां अध्याय
[ ४४५ } अवश्य ही प्राप्त होता है। कोई पुरुप कितना ही महान् प्रयत्न क्यों न करे, किन्तु जो होनहार है वह मिट नहीं सकता-होकर ही रहता है।
, नियतिवाद का अर्थ है होनहार का सिद्धान्त स्वीकार करना। नियतिवादी कहते हैं
न तं सयं कडं दुक्खं, को अनकडं च णं ? । सुह वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ।। सयं कडं न अन्नहि, वेदयंति पुढो जिया।
संगहयं तहा तेसिं, इहमेगलिमाहियं ॥ अर्थात्-सुख और दुःख अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न नहीं होते हैं, तो दूसरे के धुरुषार्थ से तो हो ही कैसे सकते हैं ? अतएव मुक्ति-संबंधी और संसार संबंधी सुख तथा दुःख न अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न करके जीव भोगते हैं, न दूसरे के पुरुषार्थ से उत्पन्न करके भोगते हैं । सुख और दुःख ..सांगतिक हैं-नियति से प्राप्त है। ऐसा किन्हीं (नियतिवादियों) का कथन है ।
___ यदृच्छावादी, चिना किसी कारण के ही कार्य की उत्पत्ति होना मानते हैं। कांटे का तीखापन जैसे बिना किसी कारण के उत्पन्न होता है, उसी प्रकार संसार के सभी कार्य बिना कारण ही उत्पन्न होते हैं। कहा भी है
पुरुपस्य हि दृष्ट्वेमामुत्पत्तिमनिमित्ततः
यहच्छया विनाशं च, शोकहीवनको ॥ अर्धात्-मनुष्य की बिना किसी कारण के उत्पत्ति और बिना कारण मृत्यु देख कर शोक एवं हर्ष का अनुभव करना वृथा है। , .
वास्तव में कार्य की उत्पत्ति में स्वभाव, काल श्रादि सभी कथंचित् कारण होते हैं। उनमें से अन्य कारणों को अस्वीकार करके किसी एक कारण को स्वीकार कर लेना सत्य नहीं है। इसी कारण इन सब वादों को मिथ्यावाद कहा गया है। इन का विचार पहले किया जा चुका है, अतएव यहां पिष्टपेपण नहीं किया जाता। किसी-किसी ने जगत् की उत्पत्ति स्वयंभू से बतलाई है । कहा भी है
ततः स्वयंभूभगवान व्यतो व्यसपन्निदम् । महाभूतादि वृत्तीजाः, प्रादुरासीत्तमो नुदः ।। सोऽभिध्याय शरीरात स्वात सिसुनुर्विविधाः मजाः।
अप एव ससर्जादो, तासु वीजमवासृजत् ॥ अर्थात् स्वयंभू पहले अव्यक्त अवस्था में था। वह याह इन्द्रियों के अगोचर था। वह पांच महाभूतों को सूचम से स्थूल अवस्था में लाने वाला तथा तम भात मलय का अन्त करने वाला प्रकट हुश्रा । अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आया। उसके पश्चात् उसे प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा हुई। उसके संकल्प करते ही उसके शरीर से सर्व प्रथम जल की उत्पत्ति हुई । जल उत्पन्न होने के पश्चात् स्वयंभू ने उसमें
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[ ४४६ )
भाषा-स्वरूप वर्णन शक्ति रुप बीज का श्रारोपण कर दिया।
___ यह मान्यता भी सत्य से विपरीत है। सर्व प्रथम देखना चाहिए कि स्वयंभू का अभिप्राय क्या है ? स्वयंभू शब्द का अर्थ है 'स्वयं' होने वाला-स्वयंभू जब उत्पन्न होता है तब स्ययं अर्थात दूसरे कारण के बिना ही उत्पन्न होता है या अनादिकाल से उसका अस्तित्व है।
स्वयंभू अगर बिना किसी कारण के अपने आप उत्पन्न हो सकता है तो लोक भी स्वयं क्यों नहीं उत्पन्न हो सकता? स्वयंभू की उत्पत्ति के लिए अगर किसी कर्ता की श्रावश्यकता नहीं है तो लोक की उत्पत्ति के लिए कर्ता की आवश्यकता क्यों समझी जाती है।
इसके अतिरिक्त पृथिवी श्रादि भूतो की उत्पत्ति बाद में हुई है तो स्वयंभू का शरीर किन उपादानों से बना होगा ? बिना उपादान कारण के किसी कार्य की उत्पत्ति होना संभव नहीं है । शून्य से कोई सत् पदार्थ उत्पन्न नहीं होता ।
स्वयंभू का शरीर रहित मानना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि बिना शरीर के वह स्थूल रूप धारण नहीं कर सकता और आप स्वयं सूक्ष्म रूप त्याग कर स्थूल ( व्यक्त ) रूप धारण करना मानते हैं। ऐसी अवस्था में स्वयंभू की उत्पत्ति ही नहीं सिद्ध होती, तो उससे जगत् की उत्पत्ति किस प्रकार सिद्ध हो सकती है?
स्वयंभू को अनादि कालीन मानने पर उसे नित्य स्वीकार करना होगा और एकान्त नित्य स्वयंभू अव्यक्त से व्यक्त अवस्था को कैसे प्राप्त हो सकेगा। इसक अति. रिक्त नित्य मानने से ईश्वर और देव के प्रकरण में जो बाधाएँ उपस्थित की गई है वही सब यहां भी उपस्थित होती हैं। ईश्वर प्रकरण में जिस प्रकार ईश्वर के कर्तृत्व पर विचार किया गया है, उसी प्रकार स्वयंभू के कर्तृत्व पर भी विचार करना चाहिए।
स्वयंभू ने मृत्यु की उत्पत्ति की और मृत्यु प्रजा का संहार करने लगी, यह कथन भी निराधार है। किसी चीज को बना कर फिर विगाड़ना बुद्धिमान् पुरुष के योग्य नहीं है। या तो अज्ञात के कारण अन्यथा रूप वस्तु वन-जाय तो उसे चिगाड़ा जाता है या बच्चों की तरह कौतूहल से बनाने-बिगाड़ने की क्रिया होती है। स्वयंभू को न तो अज्ञात माना है और न बच्चों की तरह कौतूहल-प्रिय ही। फिर उसने सृष्टि करके उसका संहार करने के लिए काल की उत्पत्ति क्यों की ? अगर उसकी बनावट चुरी नहीं थी तो उसे बिगाड़ने की क्या आवश्यकता थी?
यह कहना व्यर्थ है कि पृथ्वी का भार उतारने के लिए उसने काल का निर्माण किया है। स्वयंभू अगर समझदार है तो उसे इतने ही पदार्थों का निर्माण करना चाहिए, जितने पदार्थों का भार भूमि संभार सके । अधिक बनाने की आवश्यकता ही क्या है ? अगर किसी कारण अधिक पदार्थ बन गये तो भूमि को अधिक भार सहने में समर्थ बना सकता था। तात्पर्य यह है कि स्वयं को जगत् का सृष्टा और संहारक मानने से उसमें अज्ञानता, बालसुलभ चपलता मादि अनेक दोषों का प्रसंग
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ग्यारहवां अध्याय
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श्रता है । श्रतएव उसके द्वारा काल आदि सृष्टि करना सर्वथा निराधार है । संहार कर्त्ता मानने से वह निर्दय, हिंसक भी सिद्ध होता है, अतएव स्वयंभूवाद भी मृषावाद है ।.
इसी प्रकार अंडे से जगत् की सृष्टि मानना भी मिथ्या है। जब लोक सभी पदार्थों से शून्य था, तब ब्रह्मा ने जल में अंडा उत्पन्न किया, ऐसा कहा जाता है, परन्तु सृष्टि से पहले जल कहां से आ गया ? जल- अगर सृष्टि से पहले ही विद्यमान था. उसे ब्रह्मा ने नहीं बनाया तो उसी प्रकार अन्य पदार्थों का भी अस्तित्व क्यों न माना जाय इसके अतिरिक्त जल उस समय कहां था- किस आधार पर ठहरा था ? जल का अस्तित्व मानने पर उसका आधार भी कुछ मानना ही पड़ेगा। वह आधार पृथ्वी आदि कोई पदार्थ ही हो सकता है और उसे भी सृष्टि से पहले स्वीकार करना चाहिए।
यह पहले कहा जा चुका है कि बिना उपादान कारण के किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती । इस नियम के अनुसार अंडा बनाने के लिए अपेक्षित उपादान कारण भी पहले ही विद्यमान होने चाहिए। और यह सब पदार्थ, बिना आकाश के ठहर नहीं सकते, श्रतएव इन्हें अवकाश देने वाला आकाश भी अंडे से पहले ही स्वीकार करना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त ब्रह्मा पहले अंडा बनाता है, फिर उससे अन्य पदार्थों का निर्माण करता है, सो इस क्रम की आवश्यकता क्यों है ? जब तक वह अंडा बनाता है तब तक लोक की ही सृष्टि क्यों नहीं कर देता ?
ब्रह्मा सशरीर है या अशरीर है ? नित्य है या श्रनित्य है ? इत्यादि प्रश्नों पर जिस प्रकार पहले ईश्वर के विषय में विचार किया गया है, उसी प्रकार यहां भी विचार करना चाहिए ।
इसी प्रकार ब्रह्मा ने तत्त्वों की सृष्टि की, यह कथन भी मिथ्या है, इस पर अब विचार करना अनावश्यक है ।
उल्लिखित विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि सृष्टि रचना के संबंध में अनेक वादियों ने जो कल्पनाएं की हैं, वे युक्ति से सर्वथा विपरीत है और उनमें सत्य का लेश मात्र भी नहीं है । यह सय कथन अज्ञान मूलक हैं. मृषा है । इस विषय में सत्य क्या है । लोक की रचना हुई हैं या नहीं ? अगर हुई तो किस प्रकार ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान सूत्रकार ने अगली गाथा में किया है।
मूल:-सएहिं परियायेहिं, लोयं वूया कडेत्ति य ।
तत्तं ते विजापति, ण विणासी कयाई वि ॥२१॥
छायाः स्वकैः पर्यायेर्लोकयुवत् कृषमिति ।
तर से न विजानन्ति न विनाशी कदापि ॥ २१ ॥ शब्दार्थ:--- पूर्वो वादी अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार लोक को रचा हुवा
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. . भाषा-स्वरूप वर्णन वतलाते हैं, किन्तु वे तत्त्व के ज्ञाता नहीं है-वास्तविकता को नहीं जानते । वास्तविकता यह है कि लोक कभी विनाशी नहीं है।
भाष्य-अनन्तर गाथाओं में देववादी, ब्रह्मवादी, ईश्वरवादी, प्रधानवादी, स्व. भाववादी, कालवादी, नियतिवादी, यहच्छावादी. स्वयंभूवादी, और अण्डवादी, लोगों की कल्पनाओं का दिद्गदर्शन कराया जा चुका है और उन कल्पनाओं की संक्षिप्त समा. लोचना भी की जा चुकी है। उसले यह स्पष्ट हो चुका है। कि इन वादियों को सृष्टि संबंधि. वास्तविकता का शान नहीं है।
पूर्वोक्त सभी वादी वेद के अनुयायी हैं, वेद को प्रमाण मानते हुए अपने सिद्धान्तो का कथन करते हैं। फिर भी उनमें इतना अधिक मतभेद है। यह मतभेद हों इस बात को प्रमाणित करता है कि उनमें से किसी को सवाई का पता नहीं चला है और जिसके जी में जो वात जंच गई, उसने वही बात मान ली है। अन्यथा इतने अधिक मतभेद न होते और आपस में ये लोग एक दूसरे के मत पर आक्रमण न करते । सृष्टि से पूर्व कौन-सा तत्व.था, इस संबंध में भी इनमें एक मत नहीं है और सष्टि रचना के संबंध में भी यह सब विभिन्न मत प्रदार्शत करते हैं। कोई कहता है
.. . 'सद्धा इदमन भालित् ।। ..... अर्थात् सृष्टि से पहले यह जगत् असत् रूप था। . . . इसके विरुद्ध दूसरा कहता है- ... ....... :
सदेव सौम्येदमन श्रासीत् ।' . . अर्थात्-हे सौम्य ! यह जगत् पहले सत रूप था । किसी का कहना है कि सृष्टि से पहले आकाश तत्व था-'अाकाश-परायणम् ।' तो कोई कहता है
_ 'नैवेद किञ्चनाय श्रासीत् , मृत्युनैवेदमावृतमासीत् ।' . . अर्थात् सृष्टि से पहले कुछभी नहीं था, मृत्यु से व्याप्त था-सब कुछ प्रलय के समय नष्ट हो चुका था। ...:. इस प्रकार सृष्टि से पहले क्या था, इस संबंध में जैसे अनेक कल्पनाएँ की गई हैं, उसी प्रकार सृष्टि के प्रारंभ के विषय में भी अनेक कल्पना की गई हैं। पर यहां उनका वर्णन करने से अधिक ग्रंथ-विस्तार होगा । कहने का तात्पर्य यह है कि यह सब मतभेद सूचित करते हैं कि सचाई किसी ने भी नहीं पाई। सभी ने श्रपनी कल्पना की दौड़ लगाई है और जिसे जला जान पड़ा, उसने वैसा ही बखान कर दिया है। इसी लिए सूत्रकार कहते हैं कि-'तत्तं ते ण विजाणंति।' अर्थात वे सब लोग तत्व की बात नहीं जानते।
तत्व की बात क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि तत्व यह है कि लोक कभी नष्ट नहीं होता।
जद और चेतन का समूह लोक कहलाता है । संसार में जो अपरिमित- ...
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ग्यारहवां अध्याय -
४४४ असंख्य पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं, उनका वर्गीकरण किया जाय तो उन समस्त पदार्थों के दो ही वर्ग बन सकते हैं- एक जड़ और दूसरा चेतन । कीट, पतंग, पशु, पक्षी, देव, नारकी मनुष्य आदि जीव चेतन वर्ग में समाविष्ट होते हैं और उनसे पृथक् रहने वाले अन्य समस्त पदार्थ अचेतन-जड़-में सम्मिलित हो जाते हैं। इन दो मूल वस्तुओं के अतिरिक्त तीसरी वस्तु कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। .
उक्त दोनों जड़ और चेतन वस्तुओं में विविध प्रकार के रूपान्तर अनेक कारणों से होते रहते हैं। एक जड़ पदार्थ, जब दूसरे जड़ पदार्थ के साथ मिलता है, तब दोनों में या दोनों में से किसी एक में रूपान्नर हो जाता है । इसी प्रकार जड़ पदार्थों के संयोग से चेतन में रूपान्तर हो जाता है । कपास के. वीज से कपास का पौधा उत्पन्न होता है । वह प्राकृतिक गर्मी, सर्दी, तथा पानी और मिट्टी आदि के संयोग स अनेक अवस्थाएँ धारण करता हुआ फलों से सुशोभित हो जाता है। मनुष्य उसे फलों में से कपास चुगता है । कपास को ऑटकर रुई वनाता है। रुई कातकर उससे सुत बनाता है और फिर उससे वस्त्र तैयार कर लेता है । इस प्रकार अनेक रूपान्तर होने के पश्चात् बना हुआ वस्त्र कुछ समय में चीथड़ा हो जाता है और फिर उससे कागज आदि अनेक वस्तुएँ निर्मित हो जाती हैं। कागज यदि अग्नि के अर्पण कर दिया जाय तो उससे रास्त्र बन जाएगी और वह राख मिट्टी के बर्तन
आदि अनेक रूपों में परिणत हो सकती है । इस प्रकार कपास के वीज की पर्याय परम्परा चलती रहेगी। अनन्त काल तक चलती जायगी।
यह एक उदाहरण है। इसी प्रकार अन्य समस्त वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं और उनकी पर्यायों की परम्परा भी अनन्त काल तक चालू रहती है । पर्याय-परम्परा जैसे अनन्त लमय तक जारी रहने वाली है उसी प्रकार वह आज या कल से जारी नहीं है, बल्कि अनादिकाल से चली आ रही है । उसका कभी आरंभ नहीं होता, फभी अंत नहीं होता।
ऊपर जिन पर्यायों के परिवर्तन का उल्लेख किया गया है वे सब स्थूल पर्याय है-ऐसी स्थूल जो हमारी दृष्टि में आ सकती है। एक स्थूल पर्याय से दूसरी स्थूल पर्याय तक के समय में अनेकानेक सूक्ष्म पर्यायों भी होती है, जो वस्तु की श्राकृति बदलने में समर्थ नहीं होती और केवल एक क्षण भर स्थिर रहती है। उन्हें हम देख नहीं पात, परन्तु उनकी कल्पना अवश्य कर सकते हैं। .
इन सब पर्यायों के परिवर्तन होते रहने पर भी हम स्पष्ट रूप से उनमें रहने चाली अनुगत सत्ता देखते हैं। अर्थात् भाति में विशति हो जाने पर भी मूल वस्तु विद्यमान रहती है, उसका विनाश कदापि नहीं होता। जैन परिभाषा में इस अनुगत सत्ता को द्रव्य कहते हैं।
अपर विश्व की समस्त वस्तुओं को दो वर्गों में बांटा गया था, उन्हीं को फिचित् विस्तार से छह भेदों में विभक्त किया जाता है और घदी पट् दव्य कहलाती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पद् द्रव्य ही लोक हैं। जीव, पुदगल,
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[ ४५० ]
भाषा-स्वरूप वर्णन
धर्म, अधर्म, श्राकाश और काल यह छह द्रव्य हैं । यह द्रव्य अनादिकालीन हैं और अनन्तकाल तक स्थिर रहेगें । श्रतएव लोक भी अनादि श्रनन्त 1
पर्यायों की दृष्टि से श्रवश्य उसकी उत्पत्ति भी होती है और नाश भी होता है, परन्तु उस उत्पत्ति और विनाश के लिए न तो ब्रह्मा की आवश्यकता है, न स्वयंभू की । उसके लिए ईश्वर की भी अपेक्षा नहीं है और न देव की ही । यह जड़ और चेतन पदार्थ स्वयं किया करते हैं और अधिकांश में हम स्वयं ऐसा अनुभव कर सकते हैं ।
इस तथ्य को न समझकर ही लोग अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाते हैं और नाना प्रकार के मिथ्या सिद्धान्तों का प्रणयन करते हैं । वस्तुतः लोक द्रव्य दृष्टि से विनाशी नहीं है - श्रविनश्वर है और जब उसका कभी विनाश नहीं होता तो उत्पाद की कथा ही क्या है ?
सूत्रकार ने लोक को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अविनाशी कहा है, यद्यपि पर्यायार्थिक नय से उसका प्रतिक्षण उत्पाद और विनाश होता रहता है | किन्तु यह उत्पाद और विनाश, जैसा कि पहले कहा गया है, मूलं वस्तुओं का - द्रव्यों कानहीं समझना चाहिए। कोई भी सत् पदार्थ कभी असत् नहीं हो सकता और असत् कभी सत् नहीं बन सकता । श्रतएव अन्य लोगों की सृष्टि और प्रलय की कल्पना न है और उत्पाद एवं विनाश का सिद्धान्त भिन्न है ।
विणासी कयाइ वि ' यहां 'विणासी ' में 'वि' ( विशेष रूप से ) उपसर्ग है । विशेष रूप से अर्थात् निरन्वय रूप से - समूल नाश होने को यहां विनाश कहा गया है । तात्पर्य यह है कि लोक कभी समूल नष्ट नहीं होता, सत् से श्रसत् नहीं वन जाता । पर्यायदृष्टि से, पूर्व पर्याय का नाश होने पर भी विनाश अर्थात् सर्वथा नाश कदापि नहीं हो सकता है ।
"
• उल्लिखित विवेचन से लोक की ईश्वर श्रादि के द्वारा सृष्टि मानना और प्रलय की कल्पना करना मृषावाद है, यह सिद्ध है ।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन- ग्यारहवां अध्याय समाप्तम्
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य: निल्या प्रवचन
॥ बारहवां अध्याय ॥
लेश्या-स्वरूप निरूपण
श्री भगवान्-उवाचसूल:-किरहा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य ।
सुक्कलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहक्कम ॥१॥ छाया:-कृष्णा नीला च कापोति च, तेजः पमा तथैव च ।
शुक्रलेश्या च पष्ठीच, नामानि तु यथा क्रमम् ॥१॥ शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! लेश्याओं के यथाक्रम नाम इस प्रकार है-(१) कृष्णा लेश्या (२) नील लेश्या (३) कापोती लेश्या (४) तेजो लेश्या (५) पा लेश्या और. छठी (६) शुक्ल लेश्या।
भाष्य:-ग्यारहवें भधयन में भाषा का स्वरूप निरूपण किया गया है। भाषा शुद्धि संयम के लिए आवश्यक है उसी प्रकार लेश्या की शुद्धि भी सद्गति लाभ के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अतः प्रस्तुत अद्ययन में लेश्या का निरूपण किया जाता
'लेश्या' शब्द 'लिश्' धातु से बना है। 'लिश' का अर्थ है। चिपकना, संबंद्ध होना । अर्थात् जिसके द्वारा कर्म श्रात्मा के साथ चिपकते हैं-यंधते हैं-उसे लेश्या कहते हैं। लेश्या प्रात्मा का शुभ या अशुभ परिणाम है।
लेश्या मूलतः दो प्रकार की होती है-(९) द्रव्य लेश्या और (२) भाव लेश्या।
द्रव्य लेश्या क्या वस्तु है, इस विषय में प्राचार्यों के अभिप्रायों में कुछ मिलता है। फिली-फिसी आचार्य के मत से द्रव्य लेश्या कर्म-वर्गपा से निष्पन्न द्रव्य है। द्रव्य लेश्या यधपि कर्म वर्गणा से बनी है, फिर भी वह वर्गया माठ कर्म से अलग है, जैसे कार्माण शरीर की वर्गणा । दूसरे भाचार्य द्रव्य लेश्या को कर्म-निष्पन्द रूप मानते हैं। किन्हीं-किन्हीं श्राचार्यों ने द्रव्य लेश्या को योग वर्मणा के अन्तर्गत स्वतंत्र द्रव्य रूप स्वीकार किया है। किन्तु द्रव्य लेश्या पौगालिक है, यह विषय निर्विवाद है। ' लेश्या के द्रव्य, कपाय को भटकाते हैं-उत्तेजित करते हैं। जैसे पित्त के प्रकोप से क्रोध की वृद्धि होती है उसी प्रकार लेश्या द्रव्यों से कपाय में उत्तेजना पाची है। लेश्या मनुभाग बंध का कारण
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लेश्या-स्वरूप निरूपण मन, वचन और काय की शुभ या अशुभ परिणति, जो कषायोदय से अनुरंजित होती है, उसे भाव लेश्या कहते हैं। यह श्रात्मा का ही परिणाम-विशेष है। परिणाम- . भेद से भाव लेश्या के असंख्य भेद हैं, तथापि सरलता से समझने के लिए शास्त्रों में उसके छह स्थूल भेदों का वर्णन किया गया है । इन भेदों को समझने के लिए निम्न लिखित उदाहरण उपयुक्त है।
छह पुरुष जामुन स्नाने के लिए चले । चलते-चलते उन्हें जामुन का वृक्ष दिखाई दिया। वृक्ष को देख कर उनमें से एक ने कहा-'लो यह रहा जामुन का वृक्ष । इसके फल खाने के लिए ऊपर चढ़ने के झगड़े में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। फलों से लदी हुई बड़ी-बड़ी शास्त्राओं वाले इस जामुन वृक्ष को ही काट डालना चाहिए, फिर श्राराम से जामुन साए जाएँगे।'
दुसरे पुरुष ने कहा-'वृक्ष काटना तो ठीक नहीं है, इसकी मोटी-मोटी शाखाएँ ही काट लेना चाहिए। ... :: ..
तीसरा कहने लगा- मोटी-मोटी शास्त्राएँ काटने से भी क्या लाभ है ? उस की छोटी-छोटी शास्त्राएँ (प्रशाखाएँ ) काट लेने से ही काम चल सकता है।'
चौथा पुरुष चोला-'छोटी-छोटी शाखाएँ काटने से भी क्या लाभ होगा, फलों के गुच्छे ही तोड़ना काफी है।'
पांचवें ने कहा-'गुच्छे तोड़ना भी व्यर्थ है । सिर्फ पके-पके फल तोड़ । लीजिए।'
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... छठे ने कहा-'श्राप सय का कहना मुझे नहीं ऊँचता । हमें पके हुए फलों से प्रयोजन है और पके फल नीचे टपके हुए पड़े हैं। उन्हीं को उठा लेने से हमारा प्रयोजन सिद्ध हो जाता है तो व्यर्थ वृक्ष आदि को तोड़ने से क्या लाभ है !' - इसी प्रकार लेश्याओं के स्वरूप को सरलता से समझाने के लिए छह डाकुओं का दृष्टान्त भी उपयोगी है। वह इस प्रकार है:__.. छह पुरुष किसी गांव को लूटने के लिए चले । जब वह गांव आ गया तो उनमें से पहला आदमी बोला-'इस गांव को तहस नहस कर डालो-पशु-पक्षी, पुरुष स्त्री आदि जो कोई सामने आवे उनसव को मार डालो और गांव लूट लो।'
. दुसरे ने कहा-'पशु-पक्षी आदि को क्यों मारा जाय ? सिर्फ मनुष्यों को मारना चाहिए।'. . .
तीसरा बोला-'उनमें भी स्त्रियों को नहीं, सिर्फ पुरुषों को ही मारना चाहिए।
चौथा कहने लगा-'सव पुरुषों को मारना ठीक नहीं, जो सशस्त्र दो उन्हीं को मारना चाहिए।
पांचवें ने कहा-'सशस्त्र होने पर भी जो विरोध न कर उन्हें नहीं मारना वाहिए।
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चारहवां अध्याय
[ ४५३ ] छठे ने कहा-'भाई ! किसी को मारने से क्या प्रयोजन है ? हमें धन से प्रयोजन है सो जिस प्रकार धन प्राप्त किया जा सके, करलो। किसी को भी मत मारो धन लेने के लिए धनी को मार डालना उचित नहीं है।'
___ इन दो उदाहरणों से लेश्याओं का स्वरूप स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है । इन उदाहरणों में पहले-पहले पुरुषों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के पुरुषों के परिणाम क्रमशः शुभ, शुभतर और शुभतम है और अगले-वागले पुरुषों के परिणामों की अपेक्षा पहले वालों के परिणाम अशुभ, श्राशुभतर और अशुभतम है। इस प्रकार प्रथम पुरुप के अशुभतम परिणामों को कृष्ण लेश्या, दूसरे के अशुभतर परिणामों को नील लेश्या, तीसरे के अशुभ परिणामों को कापोत लेश्या, चौधे के शुभ परिणामों को तेजा लेश्या, पांचव के शुभतर परिणामों को पझलेश्या एवं छठे पुरुष के शुभत न परिणामों को शुक्ल लेश्या समझना चाहिए ।
सूत्रकार ने 'जहकम' पद से यही श्राशय प्रकट किया है कि यह लेश्याएं कृष्ण, नील भादि जिस क्रम से यहां गिनाई गई हैं उसी क्रम से उनकी शुद्धता वढती
मूलः-पंचासवप्पवत्तो, तीहिं प्रगुत्तो छसुं अविरो य । .
तिवारंभ परिणत्रो, खुद्दो साहासो नरो ॥२॥ निद्धंधसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदियो । एअजोगसमाउत्तो, किराहलेसं तु परिणमे ॥३॥ छाया:-पञ्चानवप्रवृत्तलिभिरगुप्त पट्सु अविरतश्च ।
तीवारम्भपरिणतः चन्दः साहसिको नरः ।।२।। निध्वंसपरिणामः, नृशंसोऽजितेन्द्रियः।
एतयोग समायुकः, कृष्णे लश्यां तु परिण मेत् ॥ ३ ॥ शब्दार्थः-इन्द्रभूति ! हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, एवं परिग्रह रूप पांच आस्रवों में प्रवृत्ति करने वाला, मन, वचन और काय की गुप्ति से रहित, पटकाय के . जीवों की रक्षा से निवृत्त न होने वाला, तीन आरंभ में प्रवृत्त, तुद्र प्रकृति वाला, बिना सोचे-समझे काम करनेवाला, ऐहिक पारलौकिक ? दुःख कीशका रहित परिणाम वाला, मूर, इन्द्रियों का दास, इन सब दुर्गुणों से युक्त मनुष्य कृष्णलेश्या के परिणाम वाला समझना चाहिए।
___ भाष्यः-पहली गाथा में लेश्या के भेद बतलाने के पश्चात् सूत्रकार क्रम से लश्याओं का स्वरूप चतला रहे है । यहां पहली कृष्ण लेश्या का स्वरूप बतलाया गया है।
जो जीव अहिंसा आदि पांचों पापों में लगा रहता है, मन वचन काय के
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. लेश्या-स्वरूप निरूपण अशुभ व्यापार को नहीं रोकता है, पांच स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा से विरत नहीं होता है, तीव्र तथा महान् श्रारंभ का सेवन करता है, जो प्रकृति से चुद्र है, जो साहसी है अर्थात् उचित-अनुचित की परवाह न करके बिना समझे वुझे किसी भी भयंकर कार्य को कर डालता है जो दोनों लोक के दुखों की शंका रहित परिणाम वाला होता है, जिसके दिल में दया नहीं है, और जो इन्द्रियों का क्रीत दास है, ऐसे पुरुष को कृष्ण लेश्या समझना चाहिए। .
कृष्ण लेश्या नारकी, तिर्यच, मनुष्य, भवनवासी देवता तथा वाण व्यंतर देवों को होती है । इसका वर्ण, गंध, रस और स्पर्श तथा फल आगे बताया जायगा। मूल:-इस्सा अमरिस अतवो, अविज्ज माया अहीरया ।
गेही परोसे य सढे, पमत्ते रसलोलुए ॥४॥ सायगवेसए य प्रारंभा, अविरत्रो खुद्दो साहसियो नरो एअजोग-समाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे ॥५॥ छाया: ईर्ष्याऽमतपः अविद्या मायाऽहीकता.. .
गृद्धिः प्रद्वेपश्च शठः, प्रमत्तो रसलोलुपः॥ ४॥
सातागदेषकश्वारम्भादविरतः, शुद्रः साहसिको नरः। -
एतद्योगसमायुक्रा, नीललश्यां तु परिणमेत् ॥ ५ ॥ शब्दार्थः-ईर्ष्या करना, क्रोध करना, तप न करना, कुशास्त्र पढ़ना, मायाचार करना, पापाचार करने में निर्लज्ज होना, लोलुपता होना, द्वेष होना, शठता होना, मदोन्मत्त रहना, रसलोलुप्ता होना, विषयजन्य सुखों की खोज में रहना, हिंसा आदि पाप कम से विरत न होना, क्षुद्रता होना, साहस करना, इन सब लक्षणों वाला पुरुप नील लेश्या के परिणाम वाला होता है।
भाष्या-कृष्ण लेश्या के परिणामों की प्ररूपणा करने के पश्चात् क्रम-प्राप्त नील लेश्या के परिणामों का निरूपण यहां किया गया है।
जो पुरुष गुणी जनों के गुणों को और तज्जन्य प्रशंसा को सहन न कर सकने के कारण उनके प्रति ईर्ष्या का भाव धारण करता हैं, क्षण-क्षण में क्रोध करने वाला हो, जो शरीर और इन्द्रियों के पोषण में लीन रहता हुश्रा कभी तपस्या न करता हो, मिथ्यात्व वर्द्धक कुशास्त्रों का पठन-पाठन करता हो, छल-कपट करता हो, निन्दनीय कर्म करते हुए भी लज्जित न होता हो, हिंसा श्रादि कार्यों में तथा भोगोभोग के साधनों में आसक्त रहता हो, दूसरे के गुणों पर ध्यान न देकर उसके विद्यमान या अविद्यमान दोष को ही देखता हो और उसका प्रचार करता हो, जिसमें शठता भरी हो, जो प्रमाद से परिपूर्ण हो, रस-लोलुप हो, जिस किसी प्रकार संसार संबंधी सुखों की तलाश में रहता हो, प्रारंभ करने वाला हो, पाप से विरत न हो, जिसमें
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चारहवां अध्याय
[ ४५५ 1 क्षुद्रता भरी हो, जो हिताहित का विचार किये बिना ही कार्य में प्रवृत्ति करने वाला हो, इस प्रकार इन दोषों से युक्त प्राणी को नील लेश्या चाला समझना चाहिए।
नील लेश्या नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य, भवनवासी, और वान-व्यन्तर देवों को होती है। मूलः-वके वंकसमायरे, नियडिल्ले अणुज्जुए।
पलिउचंग प्रोवहिए, मिच्छदिट्ठी प्रणारिए ॥ ६॥ उप्फालग दुट्टवाई य, तेणे प्रावि य मच्छरी। एष जोग समाउत्तो, काऊलेसं तु परिणमे ॥७॥ छाया:-वक्रः वक्रसमाचारः, निकृतिमाननृजुकः।
पत्कुिञ्चक औपधिकः, मिथ्याप्टरनार्यः ॥ ६ ॥ उत्फालक-दुष्टवादी च, स्तेननापि च मस्प्तरी।
एतयोग समायुक्तः, कापोतलेश्यां तु परिणमेत् ॥ ७॥ शब्दार्थः-वक, वक्राचारी, मायावी, सरलता से रहित, अपने दोपों को छिपाने चाला, कपटी, मिथ्याष्टि, दुःखों का उत्पादक ऐसा दुष्ट वचन को बोलने वाला अनार्य, चोर, मात्सर्य रखनेवाला, इस प्रकार के दोषों से युक्त पुरुप कापोत लेश्या वाला होता है।
भाष्यः-नील लेश्या का निरूपण करने के अनन्तर क्रमप्राप्त कापोत लेश्या का स्वरूप यहां बतलाया गया है।
जिसकी वाणी में वक्रता होती है, जिसके आचरण में वक्रता होती है, जिसका व्यापार इतना गूढ़ हो कि दूसरे को उसका पता न चल सके, जिसके हृदय में सरलता न हो, अपने दोपों को दूर करने के बदले जो उन्हें छिपाने की चिन्ता करता रहता हो, चात-बात में जो कपट का सेवन करता हो, मिथ्या दृष्टि वाला हो, अनार्य हो अर्थात् अनार्य पुरुषों के योग्य जिसका प्राचार-विचार हो, जो दूसरे के मर्म को छेदने वाले वचनों का प्रयोग करता हो, अर्थात् जो अपने बचनों से दूसरों को गहरी और भीतरी चोट पहुंचाता हो, जो चोर हो, मत्सर भाव का धारक हो, इस प्रकार इन भावों को धारण करने वाला पुरुप कापीत लेश्या से युक्त समझना चाहिए।
___कापोत लेश्या उन पूर्वोक्त सभी नारकी, तियेच श्रादि जीवों को होती है, जिन्हें नील लेश्या होती है। मूलः-नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ।
विणीय विणए दंते, जोगवं उवहाणवं ॥ ८॥
पियधम्मे दढधम्मे, अवजभीरू हिएसए। . एयजोग. समाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ॥ ॥ .
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लेश्या-स्वरूप निरूपण छाया:-नीचवृत्तिरचपलः श्रमाय्यकुतूहलः।।
. विनीतविनयो दान्तः, योगवानुपधानवान् ॥ ८॥
नियधर्मा दृढधर्मा, अवद्यभारहितैपिकः।
- एतद्योगसमायुक्नः तेजोलेश्यां तु परिणमेत् ॥ ६ ॥ शब्दा-नम्रता युक्त वृत्ति वाला, चपलता रहित, मायाचार से रहित, कौतुहल की वृत्ति से शून्य, गुरुजनों का विनय करने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला, शुभ । योग वाला, तपस्या करने वाला, धर्म प्रेमी, दृढ़धर्मी, पाप से डरने वाला; आत्म-कल्याण . की इच्छा वाला पुरुष तेजो लेश्या से युक्त होता है।
भाष्यः-कापोत लेश्या के परिणामों का उल्लेख करने के पश्चात् यहां तेजोलेश्या के परिणाम बताये गये हैं।
जिस पुरुष की प्रकृति में नम्रता हो, चंचलता न हो, छल-कपट की वृत्ति न पाई जाती हो, अति कौतूहल वृत्ति न हो, जो अपने गुरुजनों का अर्थात् गृहस्थावस्था में माता, पिता, शिक्षक, धर्मगुरु आदि का तथा संयत अवस्था में रत्नाधिक एव श्राचार्य श्रादि का विनय करता हो,-जिलके स्वभाव में ही विनीतता विद्यमान हो, जो अपनी इन्द्रियों की बागडोर अपने काबू में रखता हो यार्थात् इन्द्रियों का स्वामी हो ( दाल नहीं), जो प्रशस्त व्यापार में निरत रहता हो अर्थात मन वचन और काय को अशुभ क्रियाओं में न लगाता हो, जो शक्ति के अनुसार तपस्या करता हो, जिसे धर्म के प्रति प्रेम भाव हो, धर्म में जिसका. दृढ़ श्रद्धा हो, पाप कार्यों से भयभीत रहता हो अर्थात् पापों से होने वाले इस लोक और परलोक संबंधी भयों का विचार करके जो पापाचरण न करता हो, तथा जो आत्मा के सच्चे एवं शाश्वत हित के अन्वेषण में उद्योगशील हो, उसे तेजोलेश्या समझनी चाहिए।
तेजोलेश्या शुभलेश्या है और यह तिर्यञ्चों, मनुष्यों एवं देवों के होती है, नारकी जीवों को नहीं होती। मूल:-पयणुकोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए।
पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ १० ॥ तहा पयणुवाईय, उवसंते जिइंदिए । एयजोग समाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे ॥ ११ ॥ छायाः-प्रतनुक्रोधमानश्च, मायालोभौ च प्रतनुको। ' प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, योगवानुपधानवान् ॥ १० ॥ तथा प्रतनुवादी च, उपशान्तो जितेन्द्रियः। ..
एतयोग समायुक्रः, पद्मलेश्यां तु परिणभेत् ॥ ११॥ शब्दार्थ:-जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ पतले पड़ गये हो, जिसका चित्त प्रशान्त हो, जो इन्द्रियों को तथा मन को दमन करने वाला हो, जिसका योग-व्यापार
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बारहवां अध्याय: शुभ हो, जो तपत्त्वी हो अल्पभाषी हो और शान्त स्वभाव वाला हो तथा जितेन्द्रि हो, वह पद्मलेश्या वाला पुरुप है।
भाष्यः-तेजोलेश्या के स्वरूप-निरूपण के अनन्तर पद्मलेश्या का स्वरूप यहां बतलाया गया है।
पालेश्या के लक्षण इस प्रकार है:-जिसका क्रोध, मान, माया और लोभ पतला पड़ गया हो अर्थात् जिसके कपाय की तीव्रता नष्ट होगई हो, जिसका चित्त शान्त हो अर्थात् विषय भोग जन्य व्याकुलता जिसके चित्त से दूर हो गई हो, जिसने अपने मन का दमन कर लिया हो, अर्थात् वशवर्ती बना लिया हो, जिसका मन वचन और फाय शुभ अनुष्ठानों में प्रवृत्त होता हो, अशुभ प्रवृत्ति से हटा रहता हो, जो अपनी शक्ति के अनुसार शास्त्र विहित तपस्या करता हो, जो अल्प भाषण करता हो अर्थात् निरर्थक वकवाद न करता हो, और सोच विचार कर मृदु भापण करता हो. जिसके स्वभाव में उग्रता न हो, जो जितेन्द्रिय हो, वह पद्मलेश्या वाला पुरुष समझना चाहिए । यह लेश्या तिर्यंच, मनुष्य और वैमानिक देवों को ही होती है। नारको को तथा अन्य देवों को भी नील लेश्या के योग्य परिणाम-विशुद्धि नहीं हो सकती। मूलः-अहरुदाणि वजित्ता, धम्मसुक्कााण झायए।
पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ १२ ॥ सरागो वीयरागो वा, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमें ॥१३॥ छायाः प्रागदे वर्जयित्वा, धर्मशुक्ने ध्यायति ।
प्रशान्तचित्तो दान्तारमा योगवानपधानवान || 11. सरागो वीतरागो वा, उपशान्तो जितेन्द्रियः।
एल्योगसमायुकः, शुक्रलेश्यां तु परिण मेत् ॥ १४ ॥ शब्दार्थ:-श्रार्तध्यान और रौद्रध्यान को त्याग कर, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करने वाला, प्रशान्त चित्त वाला, अन्तरात्मा का दमन करने वाला, समितियों से युक्त, तीन गुप्तियों से गुप्त, सराग संयम या वीतराग संयम का अनुष्ठान करने वाला. कपार्यों का उपशम करने वाला और जितेन्द्रिय पुरुप शुक्ल लेश्या के परिणाम वाला होता है।
भाष्यः-अन्त में शुक्ल लेश्या के परिणामों का निरूपण करने के लिए यह गाधाएँ कही गई है।
शुक्ल लेश्या स्वरूप इस प्रकार है-जो पुरुप आर्तध्यान और ध्यान का त्याग फार देता है चोर धमेध्यान या शुक्लच्यान का अचलंयन करता है, शोध मान. माया और लोभ के क्षय या उपशम होने से जिसका चित्त शान्त हो गया है. जिसने
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[ ४५८ ]
लेश्या स्वरूप निरूपण अपने अन्तःकरण पर विजय प्राप्त करली है, जो पांच प्रकारकी समितियों से तथा तीन प्रकार की गुप्तियों से युक्त है जो सरांग संयम या वीतराग संयम से युक्त है श्रथवा जिसमें सूक्ष्म राग विद्यमान है या जिसका रागभाव सर्वथा क्षीण हो चुका है, जिसने मोह का उपशम कर दिया है, जो जितेन्द्रिय है, उसके शुक्ल लेश्या के परिणाम होते हैं । लेश्याओं के नाम अमुक रंग के नाम पर व्यवस्थित हैं । इसका आशय यह है कि लेश्या द्रव्य, जो अत्यन्त मलीन होते हैं, उन्हें कृष्ण लेश्या कहा गया है। जो लेश्या द्रव्य अत्यन्त स्वच्छ होते हैं उन्हें शुक्ल लेश्या कहते हैं । इसी प्रकार अन्य लेश्याओं के विषय में समझना चाहिए। इन कृष्ण आदि द्रव्यों की सहायता से आत्मा में इन्हीं के अनुरूप मलिन यादि परिणाम उत्पन्न होते हैं । कहा भी हैकृष्णादि द्रव्य साचिव्यात्, परिणामो य श्रात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्त्तते ॥
श्रर्थात् कृष्ण यदि द्रव्यों की प्रधानता से श्रात्मा में जो परिणाम उत्पन्न होता है, उसमें लेश्या शब्द प्रवृत्त होता है । जैसे स्फटिक मणि स्वभावतः निर्मल होती है, किन्तु उसके सामने जिस रंग की वस्तु रख दी जाय वह उसी रंग की प्रतीत होने लगती है, उसी प्रकार श्रात्मा में कृष्ण नील आदि द्रव्यों के संसर्ग से उसी प्रकार का परिणाम उत्पन्न होता है ।
शंका- कौन - सी लेश्या किस वर्ण वाली है ?
समाधान – कृष्ण लेश्या मेघ, अंजन, काजल, जामुन, अरीठे के फूल, कोपल भ्रमर की पंक्ति, हाथी के बच्चे, काले बंबुल के भाड़, मेघांच्छिन्न श्राकाश, और कृष्ण शोक, आदि से भी अधिक, अनिष्ट, अकान्त अप्रिय और श्रमनोज्ञ वर्ण वाली है।
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नील लेश्या भृंग, चास, प्रियंगु, कबूतर की गर्दन, मोर की ग्रीवा, चलदेव के वस्त्र, अलसी के फूल, नील कमल, नीलाशोक, और नीले कनेर से भी अत्यन्त अधिक श्रनिष्ट, अकान्त, अप्रिय वर्ण वाली है ।
कापोत लेश्या खेरसार, करीरसार, तांबा, बैंगन के फूल, और जपाकुसुम आदि से भी अधिक श्रनिष्टता वर्ण वाली होती है ।
तेजोलेश्या खरगोश के रक्त, बकरे के रक्त, मनुष्य के रक्त, इन्द्र गोप कीड़े, उदीयमान चाल सूर्य, संध्याराग, मूंगा. लाख, हाथी की तालु, जपाकुसुम, सूड़ा के फूलों की राशी, रक्तोत्पल आदि से भी अधिक लाल वर्ण वाली होती है।
पद्म लेश्या चंपा, हलदी के खंड, हड़ताल, वासुदेव के वस्त्र, स्वर्ण जुद्दी, आदि की अपेक्षा भी अधिक उज्जवल वर्ण की है ।
शुक्ल लेश्या शंकरन, शंख, चन्द्रमा, मोगरा, पानी, दही, दूध, तप्त चांदी श्रादि से भी अत्यन्त अधिक शुक्ल वर्ण वाली एवं अधिक इष्ट और मनोक्ष है ।
इस प्रकार कृष्ण लेश्या काले वर्ण की, नील लेश्या नीले वर्ष की, कापोत लेश्या
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यारहवां अध्याय
। ४५६ ] कुछ-कुछ काले और कुछ-कुछ लाल वर्ण की, तेजो लेश्या लाल वर्ण की, पद्म लेश्या पीले वर्ण की और शुक्ल लेश्या शुक्ल वर्ण की होती है। - इसी प्रकार कृष्ण लेश्या नीम, नीम का काथ, कड़वी तूंची श्रादि की अपेक्षा अत्यन्त अधिक अनिष्ट कडुवे रस वाली है। नील लेश्या चित्रमूल पीपर, पीपरीमूल मिर्च, साँठ, आदि से, कापोत लेश्या विजौरा, कैथ (कविट्ठ), दाइम, चोर, तेंद. श्रादि से, पीत लेश्या पके हुए आम श्रादि की अपेक्षा, पद्म लेश्या मधु, इक्षुरस आदि की अपेक्षा, और शुक्ल लेश्या गुड़, शकर, आदि से भी अत्यन्त प्रशस्त और उग्र रल वाली होती है।
कृष्ण, नील और कापोत लेश्या दुरभिगंध वाली और पीत, पद्म तथा शुक्ल लेश्या सुरभि गंध वाली है। कहा भी है
जह गोमडस्ल गंधो, णागमडस्स व जहा अदि मडस्ल । एत्तो उ अगतगुणो, लेस्लाणं श्रप्पसत्थाणं ॥ जद सुरभि कुसुम गंधो, गंधवासाण पिस्लमाणाणं ।
एत्तो उ अणंतगुणो, पसत्थलेस्लाण तिराहपि ॥ अर्थात् मरी हुई गाय, मरे हुए हाथी और मरे हुए सांप की जैसी गंध होती है उससे अनन्तगुनी अधिक दुर्गध प्रशस्त लेश्याओं की होती है। इससे विपरीत प्रशस्त लेश्याओं की गंध, सुगंधित पुष्पो अथवा पीसे जाते हुए अन्य सुवासित द्रव्यों की सुगंध से अनन्त गुणी अधिक सुगंध होती है।
कृष्ण नील और कापोत लेश्या अप्रशस्त स्पर्श वाली तथा तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या प्रशस्त स्पर्श वाली है। कहा भी है--
जह करवयस्स फासो, गोज़िमाए व सागपत्ताणं । पत्तो वि अणंतगुणो, लेस्साणं अप्पसत्थाणं ॥ जह दूरस्त व फासो, नवणीयस्त व सिरीस कुसुमाणं।
एत्तो वि भयंतगुणो, पसत्य लेस्साण तिरह पि ॥ अर्थात् जैसे करीत का, गाय की जिह्वा का और शाक के पचों का स्पर्श होता है, इससे अनन्त गुणा अधिक कर्कश स्पर्श अप्रशस्त लेश्याओं का होता है। जैसे बरु, मक्खन और शिरीप के फूल का स्पर्श होता है, उससे अनन्त गुणा अधिक मृदु स्पर्श प्रशस्त लेश्याओं का होता है।
प्रादि की तीन लेश्याओं का शीत और रूक्ष स्पर्श चित्त को अस्वस्थ बनाता है और अन्त की तीन प्रशस्त लेश्याओं का स्निग्ध और उष्ण स्पर्य चित्र में संतोष और स्वस्थता उत्पन्न करता है। मूलः-किण्हा नीला काउ, तिगिण वि एयानो यहम्मलेसायो
एयाहिं तिहिं वि जीवो, दुग्गई उववजई ॥ १४ ॥
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[ ४६० ]
लेश्या स्वरूप निरूपण
छाया:- कृष्णा नीला कापोता, तिस्रोऽप्येता श्रधर्मलेश्या: । एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, दुर्गतिमुपपद्यते ॥ १४ ॥
शब्दार्थ:-कृष्ण, नील और कापोत, यह तीन अधर्मं लेश्याएं हैं। इन तीनों लेश्याओं से जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है ।
भाष्यः- - पूर्वोक्त छह लेश्याओं में प्रशस्त और अप्रशस्त लेश्याओं का विभाग यहां किया गया है। प्राथमिक तीन- कृष्ण नील और कापोत लेश्याएं अधर्म लेश्याएं · अथवा अप्रशस्तं लेश्याएं हैं, क्योंकि इन लेश्यात्रों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, लेश्याओं के छह विभाग स्थूल विभाग हैं। वस्तुतः इनमें से प्रत्येक लेश्या के परिणाम ( तीव्रता, मन्दता आदि रूप ) बहुत • और बहुत प्रकार के हैं । श्री प्रज्ञापना सूत्र में कहा है
" कराह लेस्सा णं भंते ! कतिविदं परिणामं परिणमति ? गोयमा ! तिविहं वा, नवविहं वा, सत्तावीसविहं वा, एक्कासीतिविहं वा, वेतेयालीसतचिह्नं वा, बहुयं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमइ, एवं जाव सुक्कलेस्ला ।"
- अर्थात् हे भगवन् ! कृष्ण लेश्या कितने प्रकार के परिणामों में परिणत हैं ? दे गौतम ! तीन प्रकार के, नौ प्रकार के, सत्ताईस प्रकार के, इक्यासी प्रकार के, दो सौ तेतालीस प्रकार के बहुत और बहुत प्रकार के परिणामों में परिणत है । जैसे कृष्ण लेश्या के परिणाम बहुत हैं उसी प्रकार नील आदि शुक्ल लेश्या पर्यन्त सभी लेश्याओं के परिणाम समझना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि कृष्ण लेश्या जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार के परिणाम वाली है । किन्तु जघन्य परिणाम के भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम हैं, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम के भी जघन्य आदि तीन परिणाम हैं । इस प्रकार एक-एक परिणाम के तीन-तीन भेद होने से कृष्ण लेश्या के नौ परिगाम होते हैं । यह नौ परिणाम भी अंतिम नहीं हैं और उनमें भी जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट भेद होते हैं । अतएव नौ परिणामों का जघन्य श्रादि तीन भेदों से गुणाकार करने पर कृष्ण लेश्या के सत्ताईस परिणाम हो जाते हैं । इसी प्रकार आगे भी गुणाकार करते चलने से इक्यासी, दो सौ तेतालीस तथा बहुत और बहुत प्रकार के. परिणाम सिद्ध हो जाते हैं ।
नील, कापोत श्रादि अन्य समस्त लेश्याओं के परिणामों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। लेश्याओं के जितने परिणाम-भेद हैं, उतने ही भेद उनकी प्रशस्तता एवं प्रशस्तता अथवा धर्म्यता एवं अधर्म्यता के भी समझने चाहिए । श्याओं की इस मशस्तता - प्रशस्तता के तारतम्य के ही अनुसार दुर्गति-प्राप्ति, सुगति प्राप्ति रूप फल में भी तारतम्य हो जाता है ।
कहीं-कहीं 'अम्मले सानो' के स्थान पर 'हमलेसाओ' पाठ भी देखा जाता है । उसका अर्थ 'अधम लेश्याएँ' ऐसा होता है, श्रतएव वह पाठ भी निर्वाध है ।
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वारहवां अध्याय
[ ४६१ । मूलः-तेऊ पम्हा सुक्का, तिरिण वि एयानो धम्मलेसानो।
एयाहिं तिहिं वि जीवो, सुग्गइं उववजइ ॥ १५ ॥ छाया:-तेजः पद्मा शुक्ला, तिस्सोऽप्येता धर्मलेश्याः ।
__एताभिस्तस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:-तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, और शुक्ल लेश्या, यह तीनों धर्म लेश्याएँ हैं। इन तीनों लेश्याओं से जीव सुगति में उत्पन्न होता है।
भाष्यः-पूर्व गाथा में अधर्म लेश्याओं का निरूपण किया गया था । यहाँ अन्त की तीन लेश्याओं को धर्म लेश्या बतलाया गया है । तेजी लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लश्या, शुभ, शुभतर और शुभतम परिणामों से युक्त होने के कारण धर्म लेश्याएँ हैं और इनसे सद्गति का लाभ होता है।
आत्महितैषी पुरुषों को श्रादि की तीन अधर्म लेश्याओं से दूर रह कर धर्मलेश्याओं में ही विचारना चाहिए और ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए, जिससे सब प्रकार को लेश्याओं से मुक्ति प्राप्त हो और अलेश्य अवस्था प्राप्त हो जाय ।
धर्म लेश्याओं के भी बहु और बहुविध अवान्तर परिणाम हैं, जैसा कि पूर्व गाथा में कहा जा चुका है। मूल:-अन्तमुहूत्तम्मि गए, अन्तमुहूत्तम्मि सेसए चेव ।
लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छति परलोयं ॥१६॥ छाया:--अन्तर्मुहूत्तै गते, अन्तमुहूर्ते शेपे चर्व ।
लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छंति परलोकम् ॥ १६ ॥ शब्दार्थः-परिणत हुई लेश्याओं का अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाने पर अथवा अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर ही जीव परलोक में जाते हैं।
भाप्यः-किसी भी लेश्या को उत्पन्न हुए जव अन्तर्मुहर्त व्यतीत हो जाता है अथवा लेश्या का अन्त होने में जव अन्तर्मुहर्त शेष रहता है, तभी जीव परलोक के लिए गमन करता है। मनुप्यों और तिर्यञ्चों की लेश्या जीवन पर्यन्त एक ही नहीं रहती। वह कारण पाकर बदलती रहती है । जो मनुष्य या तिर्यञ्च मरणोन्मुग्न होता है, उसकी मृत्यु अन्तकालीन ऐसी लेश्या में ही हो सकती है, जिस लेश्या के साथ उसका संबंध कम से कम अन्तर्मुहर्त पर्यन्त रह चुका हो । कोई भी जीव नवीन लेश्या की उत्पत्ति के प्रथम समय में ही नहीं मरता किन्तु अब उसकी लेश्या परिणत हो जाती है। स्थिर हो जाती है, तभी वह पुरातन शरीर का परित्याग करफे नृतन शरीर ग्रहण करने के लिए गमन करता है । लेश्या के परिणत होने में कम से कम अन्तर्मुहर्त लग जाता है, इसी कारण यहाँ यह बतलाया गया है कि लेश्या का यन्त. मुहर्त व्यतीत हो जाने पर ही जीव परलोक जा सकता है।
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लेश्या-स्वरूप निरूपणं - किसी लेश्या की उत्पत्ति को अन्तर्मुहूर्त हो जाने पर भी यदि उस लेश्या के नष्ट होने में अन्तर्मुहूर्त शेष न हो तो भी जीव परलोक-गमन नहीं करता । अर्थात लेश्या के नष्ट होने के अन्तिम समय में भी परलोक गमन संभव नहीं है, क्योंकि उत्पत्ति काल के प्रथम समय की भाँति नष्ट होने के अंतिम समय में भी लेश्या अस्थिर-सी रहती है, परिणत नहीं होती।
इस प्रकार लेश्या की उत्पत्ति हुए अन्तर्मुहर्त जब व्यतीत हो जाता है अथवा लेश्या के नष्ट होने में जव अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तभी जीव परलोक जाता है।
तात्पर्य यह है कि मनुष्यों और तिर्यञ्चों को, अन्त समय में, जिस किसी भी शुभ या अशुभ गति में जाना होता है, उसी गति के अनुसार उसकी भावना मरने के अन्तर्मुहूर्त्त पहले अवश्य हो जाती है। वह भावना अकस्मात् नहीं होती, किन्तु जीव ने अपने जीवन में जैसे शुभ या अशुभ कर्म किये होंगे, और उनके अनुसार जिस आयु का बंध कर लिया होगा, उसी श्रायु के अनुसार उस जीव की अंतिम लेश्या हो जायगी।
अनेक लोग इस भ्रम में रहते हैं कि जीवन भर चाहे जैसे कर्म किये जाएँ, जीवन भले ही हिंसा श्रादि पापों से परिपूर्ण व्यतीत किया जाय, घोर प्रारंभ और छोर परिग्रह में श्रासक्त रहकर समस्त समय यापन किया जाय, और धर्म सेवन की और क्षण भर के लिए भी ध्यान न दिया जाय, परन्तु अंतिम समय सुधार लेने से सारा जीवन काल सुघर जाता है । यही नहीं. अंत सुधारने से आगामी भव भी सुधर जाता है। ऐसे भ्रम में पड़े हुए व्यक्तियों का भ्रम इस विवेचना से दूर हो जाना चाहिए । जीवन के अंत में, वैसी ही भावना उत्पन्न होती है, जैसी गति में उसे जाना होता है। आयु कर्म अमिट है। उसका एक बार बंध हो जाने पर उसमें फिर परिवर्तन होने का अवकाश नहीं है। जिस जीव ने नरकायु का बंध किया है, उसके परिणाम मृत्यु के समय नरकगति के ही अनुकूल होंगे, देवगति के योग्य नहीं
हो सकते ! और वे परिणाम भी मृत्यु होने से अन्तर्मुहूर्त पहले ही उत्पन्न हो जाते हैं। • लोक में कहावत हैं-'अन्त मता सो गता' अर्थात् अंत समय जैसी मती होती है,
चैसी ही गति होती है यह लोकोक्ति सत्य है, पर यह समझ रखना चाहिए कि अंत में मति भी वैसी ही होती है, जैसे आयु कर्म बंध चुका हो । अतएव परलोक सुधारने के लिए सतत सावधान रहना चाहिए अंत समय के ही भरोसे न रहना चाहिए ।
ऊपर लेश्या के संबंध में जो कहा गया है वह मनुष्यों और तिर्यञ्चों के लिए ही संगत हो सकता है, क्योंकि मनुष्यों और तिर्यञ्चों की लेश्या ही परिवर्तन शील होती है। देवों और नारकों की कोई भी लेश्या जीवन पर्यन्त एक ही बनी रहती है-वह परिवर्तित नहीं होती। ऐसी स्थिती में जब उनका मरण काल पाता है तब उनकी लेश्या का अन्तर्मुहर्त शेष रहता ही है । अतएव चे जिस लश्या में होते हैं उसी लेश्या में परलोक गमन करते हैं और उसी लेश्या में पुनर्जन्म धारण करते हैं। उनके लिए केवल यह कहा जा सकता है कि वर्तमान भव संबंधी लेश्या का अन्तमुहर्त शेष
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দ্বাৰা স্পষ্ট
[ ४६३ । रहने पर देव-नारकी परलोकगमन करते हैं।
किस-किस पति में, कौनसी लश्या कितने समय तक रहती है अर्थात् लेश्याओं की स्थिति कितनी है, यह जान लेना श्रावश्यक है।
नारकी जीवों की कृष्ण लेश्या की जधन्य स्थिति पत्योपम का अपरण्यातवाँ भाग अधिकं दस सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त अधिक तेतील लागरोपम की है।
नील लेश्या की जघन्य स्थिति पत्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन लागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का अलख्यातवां भाग अधिक तीन लागरोपम की है। कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ण स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक तीन सागरोपम की है। तीन प्रशस्त लेश्याएँ नारफी जीवों में होती ही नहीं है।
___ मनुष्यों तथा तिर्यंचों में, जिसे जो लेश्या होती हैं उसकी स्थिति अन्तर्मुहर्त की है, किंतु शुक्ल लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट नौ वर्ष कम पूर्व कोटि की है।
देवताओं की लेश्या की स्थिति इस प्रकार है-कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। कृष्रद लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक नील लेश्या की जघन्य स्थिति और पल्योपम के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट स्थिति है।
भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिपी और वैमानिक देवों की तेजो लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोएम तथा एल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं। तेजो लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति है और अन्तर्मुहर्त शधिक दस सागरोपम.की उत्कृष्ट स्थिति है। पद्म लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से पक समय अधिक शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति होती है। शुक्ल लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागरोपम की है। - शुक्ल लेश्या की तथा अन्य लश्याओं की स्थिति में जो अन्तर्मुखत अधिक बतलाया गया है, वह पूर्वभव का अन्तर्मुहर्त तथा श्रागामी भव का अन्तर्मुहर्त-इस प्रकार दो अन्तर्मुहत्तों की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि देवों की और नारको की लेश्या पूर्वभव और उत्तरभव के दो अन्तर-मुहतों से सहित अपने-अपने प्रायु व्य काल तक रहती हैं।
नारकी जीवों को रण. नील और कापोत, यह तीन ही लेश्याएं होती है। तियों में छहों लेश्याएँ होती है किन्तु एकेन्द्रियजीवों को कम्ण, नील, कापोत, और तेज-इस प्रफार चार लेश्याएँ, तेजस्काय, वायुकाय, हीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तियचों को नारकों के समान तीन लेश्याएं ही होती है।
संमद्धिम पंचेन्द्रिय तियों को नारकी जीवों की तरद तीन लेश्याएं होती है। गर्भज पंचन्द्रिय तियचों को छहों लेश्याएं हो सकती है । तियन यानि वाले मादा
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। ४६४ ]
लेश्या-स्वरूप निरूपण (तीरश्ची ) को छह, मनुष्यों को छह, संमूर्छिम मनुष्यों को नारकियों की भांति तीन, गर्भज मनुष्यों को छह, मनुष्य स्त्री को छह, देवों को छह, देवियों को कृष्ण, नील. कापोत और तेज यह चार, भवनवासी देवो. भवनवासिनी देवियों, वाणव्यन्तर देवा और वाणवयन्तरी देवियों को भी चारज्योतिषी देव और देवियों को एक तेजोलेश्या, वैमानिक देवोंको तेज,पद्म और शुक्ल तथा वैमानिक देवियों को केवल तेज लेश्या होती है।
लेश्या वाले जीवों का अल्प बहुत्व इस प्रकार है-सब से कम जीव शुक्ल लेश्या वाले हैं, उनसे संख्यात गुने पद्मलेश्या वाले हैं और उनसे भी संख्यात गुने तेजो लेश्या वाले हैं। इनसे अनन्तगुने अधिक लेश्या रहित (सिद्ध ) जीव हैं । इनसे अनन्तगुने कापोत लेश्या वाले हैं। इनसे विशेषाधिक नील लेश्या वाले हैं और इनसे भी विशेपाधिक कृष्ण लेश्या वाले जीव हैं।
__ नारकी जीवों में लेश्या की अपेक्षा अल्प बहुत्व इस प्रकार हैं-कृष्ण लेश्या वाले नारकी सब से थोड़े हैं। नील लेश्या वाले उनसे असंख्यात गुने हैं और कापोत लेश्या वाले उनसे भी असंख्यात गुने अधिक हैं। . .
लेश्या की अपेक्षा देवों का अल्प बहुत्व इस प्रकार है-देवों में शुक्ल लेश्या वाले सव से कम है, इनसे पद्म लेश्या वाले असंख्यातगुना अधिक हैं, इनसे कापोत लेश्या वाले असंख्यात गुना अधिक हैं, इनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक है और इनसे कृष्ण लेश्या वाले विशेषाधिक हैं।
देवियों में कापोत लेश्या वाली सब से थोड़ी हैं, इनसे नील लेश्या वाली विशे. पाधिक हैं इनसे कृष्ण लेश्या वाला विशेषाधिक हैं और इनसे तेजो लेश्या वाली संख्या. तगुनी हैं।
पंचेन्द्रिय तियचों का अल्पबहुत्व, सामान्य जीवों के ही अल्पवहुत्व के समान है। उसमें से लेश्या रहित जावा का पद निकाल देना चाहिए, क्योंकि तिर्यचों में लेश्या रहित कोई जीव नहीं हो सकता।
एकेन्द्रियों में तेजो लेश्या वाले सब से कम हैं, उनसे कापोत लेश्या वाले अनंत गुने हैं (क्योंकि सूक्ष्म श्रार बादर निगोद में कापोत लेश्या होती है) उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक है और उनस भा कृष्ण लेश्या वाले विरोपाधिक है।
मनुष्यों का अल्पबहुत्व तिर्यंचा क समान हो समझना चाहिए, परन्तु उसमें कापोत लेश्या वाले अनन्तगुने नहीं कहना चाहिए, क्योंकि मनुष्य अनन्त नहीं है, जब कि तिर्यच अनन्त हैं क्योंकि निगोद के अनन्तानन्त जीव तिर्यंच ही हैं।
लेश्याएं एक दूसरी के रूप में परिणत हो जाती हैं। कृष्ण लेश्या के परिणाम वाला जीव नील लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मृत्यु को प्राप्त होता है, उस समय वह नील लेश्या के परिणाम वाला होकर उत्पन्न हाता है, क्योंकि जीव जिस लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मरण को प्राप्त होता है उसी लेश्या से युक्त होकर अन्यत्र उत्पन्न होता है। जैसे दूध, छाछ के संयोग से छाछ स्वभाव में अर्थात्
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चारहवाँ अध्याय
[ ४६५ । छाछ के वर्ण, रस गंध और स्पर्श रूप में परिणत हो जाता है, अथवा जैसे स्वच्छ वस्त्र अमुक रंग के संयोग से उसी रंग श्रादि रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार कृष्ण लेश्या, नील लेश्या के योग्य द्रव्यों के संसर्ग से नील लेश्या के स्वरूप में, नील लेश्या के वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में परिणत हो जाती है।
इस प्रकार का परिणाम न केवल कृष्ण लेश्या का अपितु प्रत्येक लेश्या का हो सकता है।
इस प्रसंग में यह जान लेना आवश्यक है कि किस-किस लेश्या में कितने गुण स्थान होना संभव है ? इससे यह ज्ञात हो सकेगा कि लेश्याएं आध्यात्मिक विकास में कितना प्रभाव डाल सकती हैं।
कृष्ण, नील और कापोत, लेश्याओं में आदि के छह गुणस्थान माने जाते है। इन छह गुणस्थानों में से चार गुणस्थानों की प्राप्ति के समय और प्राप्ति के पश्चात् भी यह तीन लेश्याएं हो सकती हैं, परन्तु पांचवां और छठा गुणस्थान इन प्रशस्त लेश्याओं के समय प्राप्त नहीं हो सकते। इन गुणस्थानों को प्राप्ति तेज, पन और शुक्ल लेश्या के समय ही हो सकती है। किन्तु इन गुणस्थानों की प्राप्ति होने के पश्चात्, जीवके परिणामों की शुद्धता कभी कम हो जाने पर उक्त शुभ लेश्याएं आ जाती है। यही कारण है कि किसी-किसी जगह गुणस्थान-प्राप्ति के समय की अपेक्षा, तीन अशुभ लेश्याओं में सिर्फ चार ही गुणस्थानों का प्रतिपादन किया गया है।
तेजो लेश्या और पद्म लेश्या में अप्रमत्त संयत पर्यन्त सात गुणस्थान होते हैं। शुक्ल लेश्या तेरहवें गुणस्थाने तक रहती है। यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में कपाय का सर्वथा श्रभाव हैं, तथापि योग की सत्ता होने के कारण वहां उपचार से शुक्ल लेश्या स्वीकार की जाती है।
इस कथन से स्पष्ट है कि कृष्ण श्रादि तीन अशुभ लेश्याओं का उदय होने पर सवंदेश या एकदेश चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती । अतएव चारित्र की कामना करने वाले पुरुषों को अशुभ लेश्याओं से दूर रह कर शुभ लेश्याओं की आराधना करनी चाहिए। मूल:-तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावं वियाणिया ।
अप्पसत्याग्रो वजिता, पसत्थाप्रोहिदिए मुणी॥१७॥ पाया:-तस्मादेशासां लेश्यानाम् अनुभावं विडाय
अमरावास्नु पर्जयित्वा, परास्ना धिसिटेन मुनिः । १m शब्दार्थ:-इसलिए लेश्याओं के प्रभाव को जान करके मप्रसस्त लेश्याओं को त्याग कर मुनि प्रशस्त लेश्याओं को अंगीकार करें।
भाष्यः-प्रशस्त और सप्रशस्त लेश्याओं का स्वरूप पहले त लाया जा चुका देमौर यह भी बतलाया जा चुका है कि समशस्त या धर्म मेश्याएं दुर्गति का
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लेश्या-स्वरूप निरूपण (तीरश्ची ) को छह, मनुष्यों को छह, संमूर्छिम मनुष्यों को नारकियों की भांति तीन, गर्भज मनुष्यों को छह, मनुष्य स्त्री को छह, देवों को छह, देवियों को कृष्ण, नील. कापोत और तेज यह चार, भवनवासी देवों, भवनवासिनी देवियों, वाणव्यन्तर देवा
और वाणवयन्तरी देवियों को भी चार।ज्योतिषी देव और देवियों को एक तेजोलेश्या, वैमानिक देवोंको तेज,पद्म और शुक्ल तथा वैमानिक देवियों को केवल तेज लेश्या होती है।
लेश्या वाले जीवों का अल्प वहुत्व इस प्रकार है-सब से कम जीव शुक्ल लेश्या वाले हैं, उनसे संख्यात गुने पद्मलेश्या वाले हैं और उनसे भी संख्यात गुने तेजो लेश्या वाले हैं । इनले अनन्तगुने अधिक लेश्या रहित (सिद्ध ) जीव हैं। इनसे अनन्तगुने कापोत लेश्या वाले हैं । इनसे विशेषाधिक नील लेश्या वाले हैं और इनसे भी विशेषाधिक कृष्ण लेश्या वाले जीव हैं।
___ नारकी जीवों में लेश्या की अपेक्षा अल्प बहुत्व इस प्रकार हैं-कृष्ण लेश्या वाले नारकी सब से थोड़े हैं। नील लेश्या वाले उनसे असंख्यात गुने हैं और कापोत लेश्या वाले उनसे भी असंख्यात गुने अधिक हैं।
लेश्या की अपेक्षा देवों का अल्प बहुत्व इस प्रकार है-देवों में शुक्ल लेश्या वाले सव से कम है, इनसे पद्म लेश्या वाले असंख्यातगुना अधिक हैं, इनसे कापोत लेश्या वाले असंख्यात गुना अधिक हैं, इनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक है और इनसे कृष्ण लेश्या वाले विशेषाधिक है।
देवियों में कापोत लेश्या वाली सब से थोड़ी हैं, इनसे नील लेश्या वाली विशे. पाधिक हैं इनसे कृष्ण लेश्या वाला विशेषाधिक हैं और इनसे तेजो लेश्या वाली संख्या
तगुनी हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यचों का अल्पवहुत्व, सामान्य जीवों के ही अल्परहुत्व के समान है। उसमें से लेश्या रहित जावा का पद निकाल देना चाहिए, क्योंकि तिर्यचों में लेश्या रहित कोई जीव नहीं हो सकता।
'एकेन्द्रियों में तेजी लेश्या वाले सब स कम हैं, उनसे कापोत लेश्या वाले अनंत गुने हैं ( क्योंकि सूक्ष्म पोर चादर निगोद में कापोत लेश्या होती है) उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनस मा कृष्ण लेश्या वाले विरोषाधिक है।
मनुष्यों का अल्पबहुत्व तिर्यंचा क समान ही समझना चाहिए, परन्तु उसमें कापोत लेश्या वाले अनन्तगुने नहीं कहना चाहिए, क्योंकि मनुष्य अनन्त नहीं है, जब कि तिर्यंच अनन्त हैं क्योंकि निगोद के अनन्तानन्त जीव तिर्यच ही हैं।
लेश्याएं एक दूसरी के रूप में परिणत हो जाती हैं। कृष्ण लेश्या के परिणाम वाला जीव नील लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मृत्यु को प्राप्त होता है, उस समय घह नील लेश्या के परिणाम वाला होकर उत्पन्न हाता है, क्योंकि जीव जिस लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मरण को प्राप्त होता है उसी लेश्या से युक्त होकर अन्यत्र उत्पन्न होता है। जैसे दूध, छाछ के संयोग से छाछ स्वभाव में अर्थात्
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बारहवां अध्याय
। ४६५ ] छाछ के वर्ण, रस गंध और स्पर्श रूप में परिणत हो जाता है, अथवा जैसे स्वच्छ वस्त्र अमुक रंग के संयोग से उसी रंग श्रादि रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार कृष्ण लेश्या, नील लेश्या के योग्य द्रव्यों के संसर्ग से नील लेश्या के स्वरूप में, नील लेश्या के वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में परिणत हो जाती है।
इस प्रकार का परिणाम न केवल कृष्ण लेश्या का अपितु प्रत्येक लेश्या का हो सकता है। - इस प्रसंग में यह जान लेना आवश्यक है कि किस-किस लेश्या में कितने गुण • स्थान होना संभव है ? इससे यह ज्ञात हो सकेगा कि लेश्याएं आध्यात्मिक विकास में कितना प्रभाव डाल सकती हैं।
कृष्ण, नील और कापोत, लेश्याओं में आदि के छह गुणस्थान माने जाते है। इन छह गुणस्थानों में से चार गुणस्थानों की प्राप्ति के समय और प्राप्ति के पश्चात् भी यह तीन लेश्याएं हो सकती हैं, परन्तु पांचवां और छठा गुणस्थान इन अप्रशस्त लेश्यानों के समय प्राप्त नहीं हो सकते। इन गुणस्थानों की प्राप्ति तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या के समय ही हो सकती है। किन्तु इन गुणस्थानों की प्राप्ति होने के पश्चात्, जीवके परिणामों की शुद्धता कभी कम हो जाने पर उक्त अशुम लेश्याएं आ जाती है। यही कारण है कि किसी-किसी जगह गुणस्थान-प्राप्ति के समय की अपेक्षा, तीन अशुभ लेश्याओं में सिर्फ चार ही गुणस्थानों का प्रतिपादन किया गया है।
तेजो लेश्या और पद्म लेश्या में अप्रमत्त संयत पर्यन्त सात गुणस्थान होते हैं। शुक्ल लेश्या तेरहवे गुणस्थाने तक रहती है। यद्यपि तेरहा गुणस्थान में कपाय का सर्वथा अभाव हैं, तथापि योग की सत्ता होने के कारण वहां उपचार से शुक्ल लेश्या स्वीकार की जाती है।
इस कथन से स्पष्ट है कि कृष्ण श्रादि तीन अशुभ लेश्याओं का उदय होने पर सर्वदेश या एकदेश चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती । अतएव चारित्र की कामना करने वाले पुरुषों को अशुभ लेश्याओं से दूर रह कर शुभ लेश्यामों की आराधना करनी चाहिए। मूलः-तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावं वियाणिया ।
अप्पसत्थानो वजिचा, पसस्थानोऽहिटिए मुणी॥१७॥ फ्राया:-तस्मादेतासां लेश्यानाम्, अनुभावं विज्ञाय।
भप्रशस्तास्तु वर्जयित्वा, प्रशस्ता अधितिरोन् मुनिः ॥१७॥ शब्दार्थः-इसलिए लेश्याओं के प्रभाव को जान करके अप्रशस्त लेश्याओं को त्याग कर मुनि प्रशस्त लेश्याओं को अंगीकार करें।
भाप्यः-प्रशस्त और अप्रशस्त लेश्याओं का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका और यह भी बतलाया जा चुका है कि सप्रशस्त या सधर्म लेश्याएं दुर्गति का
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * नियन्य-प्रवचन
॥ तेरहवां अध्याय ॥
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माना
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कषाय वर्णन
श्री भगवान्-उवाचमूलः-कोही प्रमाणो अ अणिग्गहीया, ....
माया य लोभी अपवड्ढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, ...
- सिंचति मलाई पुणब्भवस्स ॥१॥ छाया:-क्रोधश्च मानश्चाभिगृहीती, माया च लोभन प्रवर्धमानौ ।
__चत्वार एते कृत्स्नाः कषायाः सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥॥ शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! निग्रह न किया हुआ क्रोध और मान तथा बड़ती हुई माया और बढ़ता हुआ लोभ ये सब चार कषाय पुनर्जन्म के मूलों को सींचते हैं-हरा-भरा करते हैं।
भाष्यः-बारहवें अध्ययन में लेश्या का निरूपण किया गया है। लेश्य का स्वरूप बताते समय यह कहा गया था कि कषाय से अनुरंजित योग कि प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। इस स्वरूप को हृदयंगम करने के लिए कषाय के स्वरूप का प्रतिपादन करना आवश्यक है । अतः लेश्या-निरूपण के पश्चात् कषाय का निरूपण किया जाता है। कपाय शब्द की व्युत्पति इस प्रकार बताई गई है:
कर्म कसं भवो वा, कसमायोसिं जो कसाया ते - कसमाययंति व जो, गमयंति कसं कसायात आओ व उवादाणं, तेण कसाया जो कसरताया।
चत्तारि बहुवयणो, एवं विइयादोऽवि गया । भावार्थ-कप अर्थात् कर्म अथवा भव की जिससे श्राय प्राप्ति हो यह कवाय है। अथवा कर्म या संसार का जिससे श्रादान अर्थात् ग्रहण हो उसे कपाय कहते हैं। अथवा जिसके होने पर जीव कर्म या संसार को प्राप्त करे वह कपाय है। अथवा प्राय मर्यात उपादान कारण, संसार या कर्म का उपादान कारण होने से वह कषाया
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तेरहवां अध्याय
[ ४६e f
है । बहुत्व की अपेक्षा से कपाय के चार भेद हैं । इसी प्रकार अन्य भेद भी समझना चाहिए ।
कषाय शब्द की एक और व्युत्पत्ति भी प्रचलित है । वह यह है
सुह दुक्ख बहुसं, कम्मक्लेतं कसेदि जीवस्स । संसार दूरमेरं तेण कलाश्रोत्ति णं वैति ॥ अर्थात् जीव के सुख दुःख रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसार रूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्म रूपी खेत का कर्पण करता है, इसलिए इसे कषाय कहते हैं ।
कषाय शब्द की उल्लिखित व्युत्पत्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि काय कर्म का कारण है और वह संसार भ्रमण भी कराता है । कषायों के बिना संसारभ्रमण नहीं हो सकता और न बंध ही हो सकता है। कहा भी है---
"सकपायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यात् पुद्गलानादत्ते स बन्धः "
अर्थात् जीव कपाय से युक्त होकर कार्माण वर्मणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बंध है । इससे भी स्पष्ट है कि बंध में कपाय प्रधान कारण है ।
यही नहीं, काय जीव के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का भी घातक हैं # 'अतएव उसका स्वरूप समझकर त्याग करना आत्म-श्रेय के लिए अत्यावश्यक है । कषाय के मुख्य रूप से चार भेद हैं:- (१) क्रोध ( २ ) मस्त ( ३ ) माया और ( ४ ) लोभ ।
( १ ) क्रोध - क्रोध चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, उचित अनुचित का विवेक नष्ट कर देने वाला प्रज्वलत रूप आत्मा का परिणाम फोट कहलाता है ।
क्रोध की अवस्था में जीव उचित-अनुचित का भान भूल जाता है । वह यहा ता चाहे जो बोलता है और नाना प्रकार के घृणास्पद, अशोभनीय और हानिकारक काम कर बैठता है । क्रोध में एक प्रकार का पागल पन उत्पन्न कर देने का स्वभाव हैं । जैसे पागल मनुष्य यद्वा तद्वा बकने लगता है, वह अपनी वास्तविकता खो बैठता हैं, उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य भी विना विचार किये बोलता हैं और अपनी स्थिति को भूल जाता है । क्रोध में एक प्रकार का विष है और इसी कारण भोजन श्रादि करते समय विशेष की श्रावश्यकता प्रदर्शित की गई है । Fording
पहले तो कोध के आवेश में मनुष्य अंट-सेट बोलता है और अकृत्य की भी कर बैठता है, पर जब क्रोध का उपशम होता है, चित्त में शान्ति का वि होता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है, तब अपने अनर्गल भाषण तथा अनुचित कार्य के लिए लज्जित होता है । किन्तु बहुत बार क्रोध के प्रवेश में ऐसे कार्य हो जाते हैं, जिन्हें शान्ति प्राप्त होने पर बदला नहीं जा सकता । क्रोधी मनुष्य, क्रोध से अत्यन्त साविष्ट होकर दूसरे मनुष्य पर प्रहार कर देता है, अथवा उसके प्राणों का
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कषाय वर्णन अन्त कर देता है, तो बाद में लजित होने एवं पश्चात्ताप करने पर भी कुछ फल नहीं होता।
क्रोधी मनुष्य दुसरों का ही नहीं, स्वयं अपना मी घोर अनिष्ट कर बैठता है। अनेक सूद क्रोधी अपने जीवन का अन्त कर डालते हैं । कोई नदी में डूब मरता है, कोई कृप में गिर पड़ता है और कोई घासलेट श्रादि छिड़क कर आग लगा लेता है। इस प्रकार शोध के अत्यन्त अनिष्ट और अवांछनीय परिणाम आँखों देखे जाते हैं। क्रोध के विषय में ठीक कहा है
उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम्।
क्रोधः कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥ . . अर्थात् क्रोध जब उत्पन्न होता है तब अग्नि की तरह सर्व प्रथम अपने श्राश्रय को ही जलाता है-जिस अन्तःकरण में क्रोध की उत्पत्ति होती है वही अन्तःकरण सर्वप्रथम क्रोध से जलने लगता है। उसके अनन्तर अन्य को कदाचित् जलाता है, कदाचित् नहीं भी जलता । तात्पर्य यह है कि क्रोध से क्रोधी को तो निश्चित रूप से हानि उठानी ही पड़ती है, फिर दूसरे की हानि हो या न हो।
इस प्रकार ऋोध ख-पर सन्तापप्रद है। साम्यभाव का नाशक है। मुक्ति-सुस का बाधक है। अतएव इसका निग्रह करना परम कर्तव्य है क्रोध का निग्रह न करने ले जन्म-भरणं की वृद्धि होती है।
(२) मान-मान मोहनीय कर्म के उदय से जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, श्रादि गुणों का अहंकार करना रूप श्रात्मा का विभाव परिणाम मान कहलाता है। क्रोध की भाँति मान कषाय भी जन्म-मरण रूप संसार की वृद्धि करने वाला है। मान . कषाय के वशीभूत होकर जीव आदरणीय पुरुपों का श्रादर नहीं करता, सन्माननीय जनों का सम्मान नहीं करता। अभिमानी पुरुष के अन्तःकरण में नम्रता का अभाव हो जाता है।
अभिमानी पुरुष अपने रत्ती भर गुण को सुमेर के बराबर और अन्य के महान् गुणों को न कुछ के बराबर समझता है । वह गुणी जनों को भी तुच्छ दृष्टि से देखता है, इसलिए उनके गुणों से तनिक भी लाभ नहीं उठा सकता। ऐसा करने से गुणी जनों की तो कुछ हानि नहीं होती, उलटे उस अभिमानी को ही भीषण हानि सहनी पड़ती है।
अभिमानी के अनेक स्थान हैं। कोई गुणहीन होने पर भी अपनी जाति का अभिमान करता है। कोई अपने कुल के बड़प्पन की गाथा गाता है । कोई भपने ऐश्वर्य का बखान करते नहीं अघाता। कोई अपनी बुद्धि का वर्णन करते-करते नहीं थकता । इस प्रकार विविध प्रकार के अभिमान के नशे में वेभान होकर मनुष्य अपने सत्य स्वरूप को भूल जाता है।
जगत् में एक से बढ़ कर एक बलवान, बुद्धिमान और ऐश्वर्यशाली पुरुष
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विद्यमान हैं। अगर उनकी ओर दृष्टिपात किया जाय तो अभिमान का नशा नहीं ठहर सकता। जाति और कुल से किसी में बड़प्पन नहीं आता । शास्त्रों में कहा भी है कि
सक्त्रं खु दोसह तदे।वैसेसो, न दीसह जाइविसेस कोइ ॥
अर्थात् तप आदि गुणों की विशेषता तो साक्षात् देखी जाती है परन्तु जाति की विशेषता तो कुछ भी दृष्टि गोचर नहीं होती । ऐसी स्थिति में जाति का या कुल का मद करना निरर्थक है ।
अभिमानी पुरुष दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखता है, पर उसे यह नहीं आलूम कि समस्त संसार उसे कितनी हीन और उपेक्षा की नजर से देखते हैं ! वास्तव में अभिमान एक ऐसा आचरण है जिसमें विद्यमान गुण भी छिप जाते हैं अभिमान के संसर्ग से अन्यान्य गुण-यदि विद्यमान हों तो वे भी कलंकित हो जाते हैं । अभिमानी पुरुष की कोई भी विवेकशील पुरुष प्रतिष्ठा नहीं करता । श्रतएव अभिमान शिष्ट पुरुषो द्वारा सर्वथा त्याज्य है । प्रत्येक मुमुक्षु को मान कय का निग्रह करना चाहिए ।
(३) माया - माया मोहनीय कर्म के उदय से मन, वचन और काय की कुटि लता रूप श्रात्मा के परिणाम को माया कषाय कहा गया है । माया संसार को बढ़ाने चाली और इस लोक में अप्रतीति उत्पन्न करने वाली है । मायाचारी पुरुष सदा सब के अविश्वास का भाजन होता है । माया अनेक पापों का प्रसव करने वाली और शान्ति का सर्वनाश करने घाली है । अतएव सूत्रकार कहते हैं कि बढ़ती हुई माया पुनर्भव के मूल का सिचन करती है ।
(४) लोभ-- लोभ मोहनीय कर्म के उदय से द्रव्य आदि संबंधी इच्छा, ममता एवं तृष्णा रूप श्रात्मा के परिणाम को लोभ कहते हैं । लोभ समस्त पापों का पिता है । वह ममत्व का विस्तार करने वाला और शुद्ध आत्मरमण में तो बाधा उत्पन्न करता है । वह जगत् के पर पदार्थों से जीव को विलग नहीं होने देता और विलम न होने के कारण जीव को नाम प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं ।
इस प्रकार यह क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कपाय जन्म-मरण रूप संसार के मूल को हराभरा बनाती है ।
शंका-सूत्रकार ने 'वत्तारि एए कलिया कपाया' अर्थात् 'यह सब चार फपाय,' यहां चत्तारि शब्य का प्रयोग करके फिर 'कसिणा' (रुत्स्ना-सय ) शब्द का भी प्रयोग किया है। नियत संख्या 'चत्तारि' पद के प्रयोग का क्या प्रयोजन हैं ? समाधान-प्रोध, आदि चारों फपायों में से प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं उन भेदों का सूचन करने के लिए सूत्रकार ने 'कलिखा' पत्र का प्रयोग किया है।
प्रत्येक के चार-चार भेद इस प्रकार हैं- (१) श्रनन्तानुबंधी (२) श्रप्रत्याख्यानाचरण (३) प्रत्यास्थानावरण और (४) संपवलन |
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कपाय वर्सन (१) अनन्तानुबंधी-जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता है उसे अनन्तानुबंधी कार्य कहते हैं। इस कषाय से जीव के सम्यक्व गुण का घात होता है। जब तक इसका उदय बना रहता है तब तक जीव सभ्यप्रत्व का लाभ नहीं कर सकता । यह कषाय जीवन पर्यन्त विद्यमान रहता है। इस कषाय के उदय से जीव नरक गति में जाता है।
(२) अप्रत्याख्यानावरण-जिस कषाय के उदय से जीव एक देशविरती रूप प्रत्याख्यान भी करने में समर्थ नहीं होता, वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। इस कषाय के उदय से जीव को श्रावक धर्म की भी प्राप्ति नहीं होती है । अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से तियंच गति की प्राप्ति होती है । यह कपाय एक वर्ष पर्यन्त . बना रहता है।
(३) प्रत्याख्यानावरण--जिस कषाय के उदय से सर्वविरति रूप प्रत्याख्यान नहीं होने पाता उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। यह कषाय साधु धर्म की प्राप्ति नहीं होने देता। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से मनुष्य गति के योग्य कर्मा का वंध होता है । इस कषाय की स्थिति चार मास की है।
(४) संज्वलन-जिस कषाय के उदय से, परिषद अथवा उपसर्ग आ जाने पर मुनियों को भी किंचित् संताप होता है अर्थात मुनियों पर भी जिसका प्रभाव बना रहता है वह संज्वलन कषाय कहलाता है। यह कषाय इतना हल्का है कि इससे साधु के धर्म में भी बाधा नहीं पहुंचती है। यह स्वात्म-रमण रूप यथाज्यात चारित्र में वाधक होता है। यह कषाय एक पक्ष तक विद्यमान रहता है। इससे देवगति के योग्य कर्मों का बंध होता है।
- कषायों की स्थिति और गति का जो वर्णन दिया गया है वह बहुलता से समझना चाहिए। कभी-कभी संज्वलन कषाय भी अधिक काल तक बना रहता है, जैसे राहुबली महाराज को रहा था। इसी प्रकार अनन्तानुबंधी कषाय के सद्भाव में भी कोई-कोई मिथ्यादृष्टि ग्रैवेयक में उत्पन्न हो जाते हैं। कहा भी है
पढमिल्लु श्राण उदए, नियमा संजोयणा कसायाणं। सम्मइंसणभं भवसिद्धिया वि ण लहंति ।। वितिय कसायाणुदए, अप्पच्चक्खाण नामधेयाणं । सम्मइंसणभं विरयाविरई न. उ लहंति ।। तइयकसायागुदय पच्चमखाणावरण नामधेज्जाएं। देसेषकदेसविरई चरित्तलभं न उ लहति ॥ मूलगुणाणं लभं न लहइ मूलगुराधाइपो उदए ।
संजलणाणं उदए न लहर चरणं जहक्वायं ॥ अर्थात् संयोजना नामक प्रथम श्रनन्तानुबंधी कपाय के उदय से भवसिद्धिका (तदभवमोक्षगामी) जीव भी सम्यदर्शन को नियम से प्राप्त नहीं कर सकता।
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४७३. ] अप्रत्याख्यानावरण नामक.द्वितीय कषाय के उदय से जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, किन्तु देशविरति की नहीं। . प्रत्याख्यानावरण नामक तृतीय कषाय के उदय से एक देश-विरती का लाभ होता है परन्तु सर्वविरति रूप चारित्र की प्राप्ति नहीं होती।
मूल गुणों का घात करने वाले कषायों के उदय से मूल गुण अर्थात् सम्यक्त्व, अणुव्रत तथा महाव्रत-की प्राप्ति नहीं होती और संज्वलन कषाय के उदय से यथा- ख्यातचारित्र का लाभ नहीं होता।
- अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व को उत्पन्न नहीं होने देती, यह बतलाया जा चुका है, पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाय तो सम्यक्त्व का नाश हो जाता है। इसी प्रकार अन्य कषायों के विषय में समझना चाहिए।
संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का बात करने के साथ अन्य चारित्रों में दोष ( अतिचार ) उत्पन्न करता है। कहा है
सव्वे वि य श्रइयारा, संजलणाणं तु उदयनो होति। . अर्थात् समस्त अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं-अन्य कषाय तो मूल गुणों का समूल नाश करते हैं। मूलः-जे कोहणे होइ जगट्ठभासी,
विशोसियं जे उ उदीरएजा। अंधे व से दंडपहं गहाय,
अविनोसिए घासति पावकम्मी ॥२॥ . छाया:-यः क्रोधनो भवति जगदर्थभाषी, न्यपशमितं यस्तु उदीरयेत् ।
अन्ध इव स दण्डपथं गृहीत्वा, श्रव्यपशमितं घृष्यति पापका ॥२॥ शब्दार्थः-जो पुरुष क्रोधी होता है वह जगत् के अर्थ को कहने वाला अर्थात् कठोर एवं कष्टकर भाषण करने वाला होता है । और जो शान्त हुए क्रोध को फिर जागृत करता है वह अनुपशान्त पाप करने वाला पुरुष दंड लेकर-डंडे के सहारे मार्ग में चलने वाले अंधे पुरुष की भांति कष्ट पाता है।
भाष्यः-प्रथम गाथा में सामान्य रूप से चारों कषायों को संसार-भ्रमण का कारण उल्लेख करके यहां सूत्रकार ने क्रोध के दोषों का दिगदर्शन कराया है।
क्रोधंशील को अर्थात् जिसका स्वभाव क्रोध करने का है जो बात-बात में कुपित हो जाता है, वह ऐसी भाषा का प्रयोग करता है, जिससे दूसरों को महान् कष्ट होता है। अशुभ कर्मोदय से जीवों को जो बधिरता, अन्धता, लूलापन आदि
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कषाय वर्णन प्राप्त होता है, उसके कारण क्रोधी पुरुष उन्हें बहिरा, अंधा, लूला आदि कहकर कष्ट पहुंचाता है।
इसके अतिरिक्त क्रोधी पुरुष उपशान्त हुए क्रोध को पुनः जागृत करता है। . वह ऐसी चेष्टा करता है जिससे शान्त हुश्रा ऋोध पुनः भड़क उठता है। . .
इस प्रकार के क्रोधी पुरुष की क्या दशा होती है ? इस का उल्लेख करते हुए सूत्रकार बतलाते हैं कि जैसे कोई अंधा पुरुष हाथ में डंडा लेकर चल पड़ता है, तो मार्ग में अनेक पशु प्रभृति के द्वारा उसे कष्ट उठाना पड़ता है। इसी प्रकार यह क्रोध करने वाला पापी जीव चतुर्गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार के जन्म-मरण जन्य दुःख भोगता है। मुलः-जे प्रावि अप्पं वसुमंति मत्ता,
- संखाय वायं अपरिक्ख कुजा । तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता,
. . अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं ॥३॥ छाया:-याऽपि धारमानं वसुमानिति मत्वा, संख्याय वादमपरीचय कुर्यात् ।
तपसा वाऽहं सहित इति मत्वा, अन्यं जनं पश्यति विम्बभूतम् ॥३॥ शब्दार्थः-अपने आपको संयमकान मान करके, और ज्ञानी समझ करके, वस्तुतः परमार्थ को न जानता हुआ भी जो वादविवाद करता है, अथवा 'मैं तप से युक्त हूँतपस्वी हूँ' ऐसा मानता है वह अन्य जन को केवल परछाई मात्र-अपदार्थ समझता है ।
भाष्यः-क्रोध से होने वाली हानि का निरूपण करके यहां सूत्रकार मान कषाय का वर्सन करते हैं।
जो पुरुष अपने आपको चमान् अर्थात् संयम काला समझता है और अपने को ज्ञानी मान कर-वास्तक में परमार्थ का ज्ञान न होने पर भी वादविवाद करने के लिए तैयार हो जाता है, अथवा जो अपने को तपस्वी मान कर अन्य पुरुषों को विम्ब के समान-परछाई मात्र मानता है। ऐसा मानी पुरुष दुःख उठाता है। ..
प्रस्तुत गाथा में संयम, तप और ज्ञान के अभिमान का वर्णन किया गया है। संयम, तप आदि आत्मा के गुण हैं। अगर इनकी उत्कृष्ट मात्रा किसी को प्राप्त हो जाय तो भी उसे उनका अभिमान नहीं करना चाहिए । अभिमान करने से संयम और तप श्रादि गुणों की पवित्रता नष्ट हो जाती है और उन गुणों में कलुपता उत्पन्न हो जाती है। अभिमानी पुरुष का संयम और तप आत्म-शुद्धि का नहीं वरन् उसके रूपाय पोषण का कारण बन जाता है। अतएव उप्लसे आत्मा अधिक मलीन होती है। इसके अतिरिक्त अभिमानी पुरुय में अपने संयम, तप और ज्ञान के विषय में मद . उत्पन्न हो जाता है तब उसकी दृष्टि इतनी विकृत हो जाती है कि वह अल्प संयम
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-तेरहवां अध्याव
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आदि को ही बहुत अधिक मान बैठता है और उनकी अधिकाधिक वृद्धि की ओर ध्यान नहीं देता ।.
संयम आदि के मद का परित्याग करने का कथन करके सूत्रकार ने यह भी प्रदर्शित कर दिया है कि जब श्रात्मा के गुणों का अभिमान भी त्याज्य है तो धनदौलत आदि जड़, सर्वथा भिन्न एवं पर वस्तु के अभिमान का तो कहना ही क्या है ? वह तो पूर्ण रूप से त्याज्य है ही ।
अभिमानी पुरुष अपने को सब कुछ समझता है और अपने आगे दूसरे को कुछ भी नहीं समझता । वह अन्य पुरुषों को बिम्बभूत मानता है- परछाई की भाँति अकिंचित्कर समझता है - मानो उनकी वास्तविक सत्तां ही कुछ नहीं है ।
यह अभिमान कषाय अनेक प्रकार के कृत्यों में प्रवृत्त कराता है । भाषण न करने योग्य भाषा का प्रयोग कराता है । उचित एवं हितकारक कार्यों में प्रवृत्त नहीं होने देता । श्रात्म-विकास में घोर प्रति बंध रूप है । अतएव सर्वथा त्याज्य है ।
मूल:- पूयट्टा जसोकामी, माण सम्माण कामए ।
बहुं पसवइ पावं, मायासल्लं च कुव्वई ॥ ४ ॥
छाया:- पूजनार्थी यशस्कामी मानसन्मान कामुकः ।
बहु प्रसूते पापं मायाशल्यं च कुरुते ॥ ४ ॥
शब्दर्थाः - अपनी पूजा-प्रतिष्ठा का अर्थी, यश की कामना करने वाला तथा मानसन्मान की अभिलाषा रखने वाला बहुत पाप उपार्जन करता है और माया शल्य का
चरण करता है।
भाष्यः - प्रस्तुत गाथा में सूत्रकार ने मान के अभिलाषी पुरुष को होने वाली हानियों का तथा माया कषाय के कारण का एक साथ प्रतिपादन किया है ।
जो व्यक्ति यह चाहता है कि लोग हमारी पूजा करें - स्तुति - भक्ति करें--जगत मैं मेरे यश का विस्तार हो श्रीर सर्वत्र मेरा श्रादर-सत्कार हो, उसे अनेक पापों का श्राचरण करना पड़ता है और मायाचार का सेवन करना पड़ता है ।
पूजा, यश, मान-सम्मान की आकांक्षा से माया का जन्म होता है । अतएव सायाचार से बचने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि मनुष्य पूजा की स्पृहा न करें, यश का अर्थी न बने और मान-सम्मान की आकांक्षा से दूर रहे ।
किसी कवि ने कहा है-
यदि सन्ति गुणाः पुंसां, विकसन्त्येव ते स्वयम् ।
न हि कस्तूरिकामोदः, शपथेन प्रतीयते ॥
अर्थात् अगर किसी पुरुष में गुण हैं तो वे स्वयमेव विकसित हो जाते हैं । वाणी से गुणों के प्रकाशन की आवश्यकता नहीं होती । कस्तूरी में गंध है, इस बात
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कषाय वर्णन का विश्वास दिलाने के लिए शपथ खाने की क्या आवश्यकता है ? . ..
तात्पर्य यह है कि कस्तूरी की गंध स्वयं चारों दिशाओं में फैल जाती है और स्वयं ही लोग उसकी सुगंध से परिचित हो जाते हैं । इसी प्रकार गुण भी छिपे नहीं रहते। गुणों में भी एक प्रकार का सौरभ है जो अनायास ही दिगदिगंत में प्रसरित हो जाता है । गुणों को प्रकाशित करने के लिए विज्ञापन की अपेक्षा नहीं रहती।
यही कारण है कि सद्गुणों से विभूषित उत्तम पुरुष कदापि अपने गुणों का वर्णन नहीं करते तथापि गुणश पुरुष उनके चरणों में लोटते हैं। सद्गुण पाकर मनुष्य में एक प्रकार की विनम्रता का भाव प्रवल हो जाता है। वह अपनी लघुता को भलीभॉति जानने लगता है। श्रतएव वह दूसरी के समक्ष भी अपनी लघुता या हीनता को ही प्रकट करता है। उसका यह लघुस्ता प्रदर्शन ही वास्तव में उसकी महत्ता का प्रदर्शक है। ऐसे व्यक्तियों के सामने दूसरों का मस्तक स्वतः नम्र हो जाता है।
सत्कार-सन्मान की कामना करने वाले मनुष्य इन महात्माओं से ठीक विपरीत वृत्ति वाले होते हैं। उनमें सद्गुणों का सद्भाव नहीं होता। वह अपने विशुद्ध अन्तः करण का दूसरों पर प्रभाव नहीं डाल सकते । ऐसी अवस्था में उनके प्रति किसी को पूज्य भाव उत्पन्न नहीं होता और न कोई उनका सन्मान करता हैं । किन्तु इस परिस्थिति में उन्हें संतोष नहीं होता है । उन्हें पश चाहिए । उन्हें मान सन्मान चाहिए। वे पूजनीय बनना चाहते हैं। इन सब बातों की हवस जब उनके हृदय में अत्यधिक बढ़ जाती है, तब वे निर्गुण होने पर भी अपने श्रापको गुणी प्रकट करने के लिए अनेक प्रकार के मिथ्याडम्बर रचते हैं। भाँति-भाँति के माया जाल का सृजन करते हैं। अनृत भाषण करते हैं। इस प्रकार पापाचार एवं छलकपट के द्वारा वे अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण करना चाहते हैं। '
इन लव दुष्कृत्यों का मूल यश:कामना और सम्मान की भूत्र है । अतएव इनका त्याग करना ही परम कर्त्तव्य है। मूलः-कसिणे पि जो इमं लोगं, पडिपुण्णं दलेज इक्कस्स ।
तेणावि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥५॥ छाया:-कृत्स्नमपि य इमं लोर्क, प्रतिपूर्ण दधादेकस्मै ।
तेनाऽपि स न संतुष्येत्, इति दुःपूर कोऽयमात्मा ॥५॥ शब्दार्थ:-यदि एक मनुष्य को धन-धान्य से परिपूर्ण यह समस्त लोक दे दिया जाय तो उससे भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता। इस प्रकार आत्मा इतना असंतोपशील
भाष्यः-लोभ कशायं का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने यहां यह बतलाया है कि यह संसारी आत्मा इतना असंतोपी है कि किसी भी अवस्था में उसकी इच्छाएं पूर्ण
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সংর্ধনা ঘখণ্ড
४७७ नहीं हो सकती । विराट जगत् में जितना धन-धान्य है, हीरा, मोती, मालक, पन्ना, सोना, चांदी श्रादि जितने बहुमूल्य पदार्थ हैं, वे स्व सिर्फ एक मनुष्य को दे दिये जाएँ, तीनों लोको का एकच्छन साम्राज्य भी दे दिया जाय तो भी उसकी इच्छा की पूर्ति न होगी।
लोभ अग्नि के समान है। अग्नि में ज्यों-ज्यों इधन डालो त्यो त्यो उसकी वृद्धि होती है। इसी प्रकार लोन को शान्त करने के लिए जैसे-जैसे परिग्रह का संचय किया जाता है तैसे-तैले लोभ बढ़ता ही चला जाता है। अतएव जैसे ईधन देने से अग्नि कदापि नहीं बुझ सकती, उसी प्रकार परिग्रह जुटाने से लोभ कभी शान्त नहीं हो सकता । श्रतएव हृदय में रहने वाली लोभवृत्ति को धन आदि से सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करना निरर्थक ही नहीं विपरीत प्रयत्न है । विवेकीजन इस प्रकार के मूढ़त्तापूर्ण प्रयत्न नहीं करते । चे अकिंचनभाव धारण करके लोभ का विनाश करते हैं। मूलः-सुवण्णरुप्पस्स उ पब्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि,इच्छाहु अामाससमाअणंतित्रा छाया:-सुवर्णरूप्पयोः पर्वता भवेयुः, स्यात् हि कैलाशसमा असंख्यकाः।
- नरस्य लुव्यस्य न तैः किञ्चित्, इच्छा हि अाकाशसमा अनन्तिका ॥६॥ शब्दार्थ:-कैलाश पर्वत के समान सोने-चांदि के असंख्य पर्वत हों और वे मिल जाएँ तो भी लोभी मनुष्य की किंचित् मात्र तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकास के समान अनन्त है-असीम है।
भाज्य- यहां पर भी लोभ का वास्तविक स्वरूप अत्यन्त सुन्दर शैली से निरू'पण कियागया है। यदि लोने और चांदी के अन-मिनते पर्वत खड़े कर दिये जायें
और वे सब किसी एक लोभी व्यक्ति को सौंप दिये जावे, तब भी लोभी को उनसे तनिक भी संतोष नहीं होगा। यह पर्वत पाकर उसके अन्तःकरण में अधिकतर लोभ का उदय होगा और वह सोचने लगेगा कि क्या ही अच्छा होता, अगर हनस्से भी कई गुने पर्वत और मुझे मिल जावे।
मनुष्य क्यों सन्तुष्ट नहीं होता ? इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि इच्छा आकाश के समान अनन्त है । जैसे आकाश का कहीं और कभी अन्त नहीं . आता, उसी प्रकार इच्छा का भी कभी अन्त नहीं पाता।
आज जो सर्वथा दरिद्र है, जिसके पास स्त्रानेको असनहीं है और पहनने को वस्त्र नहीं है,उसे खाने-पहननेकी व्यवस्था करदी जाय तोवह अन्न-वस्त्र के संचय की अभिलाषा करने लगेगा। संचय करने के लिए अगर अन्न और वस्त्र दे दिया जाय तो क्या उस की अभिलाषा समाप्त हो जायगी ? कदापि नहीं। एक और वह संचय अधिक करने की इच्छा करेगा और दूसरी ओर उसे अन्यान्य भोगोपभोग सामग्री की इच्छा उत्पन्न होगी। इस प्रकार एक इच्छा की पूर्ति होने के साथ ही अनेक नवीन इच्छाओं का उदय होता
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कषार्य वर्णन है। हजारपति लखपति बनने के लिए चोटी से एड़ी तक पसीना बहाता है, लखपति करोड़पति बनने के लिए मरा जाता है। करोड़पति अरबपति होने के लिए वेचैन है। किली को अपने यशोविस्तार की लालसा सता रही है। कोई संतान की प्रांशा लगाये बैठा है । किसी को कुछ चाहिए, किसी को कुछ और इस प्रकार संसार लोभ के तीन दावानल में जल रहा है कहीं शान्ति दृष्टि गोचर नहीं होती। दुनियाँ के किसी कोने में साता का लेश भी प्रतीत नहीं होता। सर्वत्र तृष्णा व्यापक असन्तोष ! लोभ की परम पीड़ा ! अनन्त श्राशाएँ प्राणी मात्र को ऐसे भयंकर और दुर्गम मार्ग की ओर घसीटे लिये जा रही है, जिस मार्ग का कहीं अन्त नहीं है, कहीं ओर छोर नहीं है, जिसमें कहीं विश्राम नहीं है। विवेक रूपी नेत्रों पर पट्टी बांधकर प्राणी चला जा रहा है,-विना सोचे-विचारे, बिना लक्ष्य का निश्चय किये।
जिनके विवेक नेत्र खुले हैं उन्हें लोभ का यह भीषण स्वरूप देख कर, उससे विमुख होकर श्रात्म शान्ति के सुखद पथ पर प्रयाण करना चाहिए। मूल:-पुढवी साली जवा चेव, हिरगणं पसुभिस्सह ।
पदिपुरणं नालमेगस्स, इइ विजा तवं चरे ॥७॥ छायाः-पृथिवी शालिवाश्चैव, हिरण्यं पशुभिः सह।
प्रतिपूर्ण नालमेकस्मै, इति विदित्वा तपश्चरेत् ॥ ७॥ शब्दार्थ-शालि, यव और पशुओं के साथ सोने से पूरी भरी हुई पृथ्वी एक मनुष्य की भी तृष्णा शान्त करने में समर्थ नहीं है । ऐसा जानकर तप का आचरण करना चाहिए।
भाग्य:-शालि और यव श्रादि विविध प्रकार के धान्यों से तथा सोने-चांदी श्रादि बहुमूल्य समझी जाने वाली धातुओं से और हाथी, घोड़ा, भैस, गाय आदि पशुओं से, पूर्ण रूप से भरी हुई पृथिवी, एक ही व्यक्ति को पूरी दे दी जाय तो वह भी उले पर्याप्त न होगी । सम्पूर्ण भरी-पूरी पृथ्वी पाकर भी एक व्यक्ति को संतोप नहीं हो सकता।
इच्छा की अनन्तता का दिद्गदर्शन कराते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट किया है कि मनुष्य किसी भी अवस्था में सन्तुष्ट नहीं हो सकता । यदि एक पृथ्वी उसे पूरी मिल जाय तो वह सोचने लगेगा-'क्या ही अच्छा होता यदि ऐसी-ऐसी दस-पांच पृधि. चियां मुझे मिल जाती ! इस प्रकार उसकी इच्छा अधिक विस्तृत हो जायगी और तृष्णा जन्य दुःस्त्र उसे पूर्ववत् सताता रहेगा।
यहां यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि जब लोभ कभी शान्त नहीं होता, इच्छा का कहीं अन्त नहीं पाता, तृष्णा सदा बढ़ती रहती है, अभिलापाएं असीम हैं और इनकी पूर्ति होना कदापि संभव नहीं है, तय क्या करना चाहिए, ? इन सब
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तेरहवाँ अध्याय
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से छुटकारा पाने का कोई उपाय है या नहीं ? अगर उपाय है तो क्या अकार प्राणी इनके चंगुल से बच सकता है ?
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दल जिज्ञासा का निवारण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं- 'इइ विज्जा त चरे ।' अर्थात् इच्छा की असीमता, श्रनन्तता जान करके तप को खाचरण करना चाहिए ।
तप का स्वरूप बताते हुए श्राचार्यों ने कहा है-' इच्छा निरोधस्तपः ।' अर्थात् इच्छाओं का दमन करना तप कहलाता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इच्छाओं को नष्ट करने का एकमात्र उपाय यही है कि छान्तःकरण में इच्छा का उद्भव ही होने दिया जाय । जैसे अग्नि में ईंधन डालते जाने से असि का उपशम नहीं होता उसी प्रकार इच्छाओं की तृप्ति के लिए लामंत्री जुटाते जाने से इच्छाओं की पूर्तिउपशान्ति नहीं हो सकती । श्रतएव सर्वोत्तम यह है कि इच्छा की उत्पत्ति न होने दी जाय और अगर कभी कोई इच्छा उत्पन्न हो जाय तो उसका दमन कर दिया जाय। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य को इच्छा का दास नहीं, स्वामी बनना चाहिए । जब मनुष्य में बुद्धि वैभव है, उसमें उज्जवल शक्ति के उत्कृष्ट अंश विद्यमान हैं तो वह इच्छा के इशारे पर क्यों नाचे ? उसे इच्छा को हो अपने . इशारे पर नचाना चाहिए । मनुष्य अपने अन्तःकरण का स्वामी है और इच्छा अन्तःकरण की दाली है । क्या मनुष्य को यह शोभा देता है कि वह जिसका स्वामी है, उसकी दासी की अधिनता अंगीकार करे ?
मानव-जीवन अत्यन्त प्रशस्त है, पर इच्छाओं ने उसे अत्यन्त श्रप्रशस्त बना दिया है। इच्छाओं के भार से लदा हुआ मनुष्य कभी उन्नति-ऊंची प्रगति नहीं कर सकता । इच्छा की भूल भूलैया में पड़कर मानव-जीवन पथभ्रष्ट हो गया है । इच्छा ने जीवन को अत्यन्त जटिल और व्यस्त बना दिया है ।
इच्छाओं की दासता स्वीकार करके मनुष्य प्रत्येक पाप में प्रवृत्त हो जाता है । स्वार्थपरता, हृदयहीनता और निष्ठुरता मनुष्य में कहां से आई है ? इच्छाओं क असीम प्रसार से | मनुष्य पर्याप्त जीवन सामग्री पा करके भी, इच्छा का गुलाम हाकर उस प्राप्त सामग्री से संतुष्ट नहीं होता । वह अधिकाधिक निरर्थक प्रायःसामग्री के संचय में इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने भाई-बन्धुनों के जीवन की अनिवार्य आवश्यक्ताओं का विचार नहीं श्राता । वह उनके साथ श्रमानुषिक अत्याचार करताहै, अत्यन्त निष्ठुर व्यवहार करता है । इस प्रकार इच्छाओं के स्वच्छंद प्रसार के कारण ही यह मानवीय जगत् नारकीय भूमि घनसया है। प्राणी सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ विधान मानव-राक्षस के रूप में परिणत हो गया है ।
इच्छाओं के प्रसार का यह ऐहलौकिक दिवर्शन है । आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होगा कि इच्छा मात्र आध्यात्मिक विकास में प्रवल वाघां है 1 जब तक इच्छाओं की निवृत्ति नहीं हो जाती तब तक तपस्या का श्रारंभ ही भनी-भांति नहीं होता, क्योंकि पहले बताया जा चुका है कि इच्छा का निरोध करना ही तर है ।
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कषाय वर्णन यहां यह आशंका की जा सकती है कि यदि मनुष्य अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं का समूल विनाश कर डालें तो सब बेकार, निरुद्योग, प्रवृत्तिहीन या निर्जीव से बन जाएंगे। इच्छाएं ही मनुष्य को प्रवृत्त करती है, वही प्रेरणा प्रदान करती है, उनके सहारे जगत् कार्य-व्यापृत होता है।
इस संबंध में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि इच्छाएं प्राणी को प्रेरणा प्रदान अवश्य करती हैं, पर वह प्रेरणा पाप की प्रेरणा होती है। जो इच्छाएं मनुष्य को दिव्य पथ की ओर प्रेरित करती हैं, वे निस्सन्देह शुभ इच्छाएँ है, परन्तु उनका महन्त्र उतना ही है जितना विष का नाश करने के लिए विष का महत्व है और कांटा. निकालने के लिए झांटे का है। .
इच्छाओं की यह वास्तविकता जान कर विवेकशील पुरुपों को तपस्या का नाचरण करना चाहिए। इसके बिना इह-पर लोक में सुख का अन्य साधन नहीं है। मूल:-अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई ।
माया गइपडिग्घाश्रो. लोहारो दुहरो भयं ॥८॥ 'छाया:-अधो व्रजति क्रोधन, मानेनाऽधमा गति ।
मायया गतिप्रतिघातः, लोमाद् द्विधा भयम् ॥ ८॥ शब्दार्थः-आत्मा क्रोध से अधोगति में जाता है, मान से अधम गति की प्राप्ति होती है, माया सुगति में बाधा पहुँचाती है और लोभ से दोनों भवों में भय रहता है।
भाष्यः-चारों कषायों का स्वरूप प्रदर्शित करने के पश्चात् यहाँ कषायों का फाल बतलाया जारहा है।
· क्रोध से यह जीव नरक आदि अधोगतियों का पात्र बनता है। मान कपाय मे अधम गति की प्राप्ति होती है। माया सद्गति रूपी द्वार में प्रवेश करने से रोकने बाली है और लोभ से वर्तमान जीवन तथा आगामी भव भयपूर्ण हो जाते हैं।
क्रोध आदि कषायों का दुर्गति की प्राप्ति रूप फल यहां समान बताया गया है। इन कपायों की उत्पत्ति के स्थान भी समान ही हैं। श्री प्रज्ञापना सूत्र में कहा है
'कतिहि भंते ! ठाणेहिं कोहुप्पत्ति भवति ? गोयमा ! चउहि ठाणेहि कोहुप्पत्ती भवति, तंजहा-खेत्तं पडच, वत्थु पडञ्च, सरीरं पडुच्च, उवहिं पडुच्च ।।
अर्थात-भवगन् ! क्रोध की उत्पत्ति कितते स्थानों से होती है ? (उत्तर) हे गौतम ! चार स्थानों से क्रोध उत्पन्न होता है- १) क्षेत्र से (२) वस्तु से (३). शरीर स और (४) उपधि से, इस प्रकार चार स्थानों से क्रोध उत्पन्न होता है।
नारकी जीवों को नरक क्षेत्र से, तिर्यञ्चों के तिर्यञ्च क्षेत्र से क्रोध उत्पन्न होता है। किसी-किसी को सचेतन या अचेतन वस्तु के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति होती है। किसी को शरीर की कुत्सित प्राकृति देख कर क्रोध उत्पन्न होता है और किसी को उपधि-उपकरण के निमित्त से फ्रोध उत्पन होता है। इसी प्रकार मान, माया
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तेरहवां अध्याय
[ ४८१ और लोभ के संबंध जानना चाहिए।
वास्तव में कषाय कर्म बंध का प्रबल कारण है । जव जीव कषाय युक्त होता है तब वह कार्माण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें . कर्म रूप परिणत करता है। कषाय से ही श्रात्मा में कर्मों की स्थिति होती है और कषाय ही कमरों में फल देने की शक्ति उत्पन्न करता है । जिस जीव के कषाय का प्रभाव हो जाता है उसके
आत्मा में न तो कर्मों की स्थिति हो सकती है, न उसे कर्म फल ही प्रदान कर सकते हैं। प्रागम में कहा है
'जीवा रणे भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्म पगडीओ चिणिसु ? गोयमा ? चउहि ठाणेहिं श्रट्ट कम्मपगडीयो चिणिंसु-तंजहा-कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। जीचा णं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अटु कम्म पगडीओ चिणंति गोयमा ! चर्हि ठाणेहिं, तं जहा-कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं । “जीवा णं भंते ! कतिहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिस्संति ! गायमा ! चरहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिस्लति । तंजहा-कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेरणं ।
भंते ! जीवों ने कितने कारणों से पाठ कर्म प्रकृतियों का चय किया है ? हे गौतम ! चार कारणों से अर्थात् क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से। भगवन् कितने कारणों से जीव अाठ कर्म प्रकृतियों का संचय करते हैं? गौतम ! चार कारण से, क्रोध, मान माया और लोभ ले । भगवन् ! कितने कारणों से जीव आठ कर्म प्रकृतियों का संचय करेंगे ? गौतम ! चार कारणों से-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से।
इसी आगम में, इससे आगे पाठ कर्म प्रकृतियों के चन्ध के विषय में श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न किये हैं और भ्रमण भगवान् ने उनका उत्तर प्रदान किया है कि, जीव क्रोध आदि चार कषायों के द्वारा पाठ कर्मों का बंध करता है, इन्हीं चार कषायों से भूतकाल में सब जीवों ने कर्म बंध किया है और इन्हीं से भविष्यकाल में कर्म बंध करेंगे।
श्रात्मा का अहित कषायों द्वारा जितना होता है, उतना किसी अन्य शह द्वारा नहीं हो सकता। कपाय भात्मा का सब से प्रवल और भयंकर शत्रु है। __ कहा भी है
श्रयमात्मैव संसारः कषायेन्द्रियनिर्जितः।
तमेव तद्विजेतारं, मोक्षमाहुर्मनीषिणः ।। अर्थात् कषाय और इन्द्रियां जिस आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेती है जो प्रात्मा इनसे पराजित हो जाता है वही संसार रूप है । इससे विपरीत जो आत्मा कषाय और इन्द्रिय को जीत लेता है वह स्वयं मोक्ष स्वरूप है। तात्पर्य यह है कि संसार और मोक्ष रूप अवस्थाएँ कषायों के न जीतने और जीतने पर निर्भर है।।
ऐसी अवस्था में मुमुनु पुरुष का कर्तव्य स्पष्ट है। अगर वह कर्मों पर विजय
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[ ४८२ ]
कषाय, वन पाना चाहता है तो उसे अपने कषायों पर विजय पानी चाहिए। जिसने अपने अन्तः करण में कषायों का विष नहीं फैलने दिया, वह मुक्ति के समीप पहुंच गया ।
मूल :- कोहो पीई पणासेइ, माणो विषयनासो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणी ॥॥
छाया:- क्रोधः प्रांति प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः । माया मित्राणि नाशयति, लोभः सर्वविनाशनः ॥ ६ ॥
शब्दार्थ:- क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय का नाश करता हैं, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी कुछ नष्ट कर देता है ।
भाष्यः-गाथा का भाव सुगम और स्पष्ट है । क्रोध ऐसी अनि है जिसकी लफ्टों में प्रीति का लहराता हुआ पौधा जीवित नहीं रह सकता है । क्रोध की लपटें लगते ही वह मुरझाकर फिर भस्म हो जाता है । इसी प्रकार मान कषाय के कारण प्राणी में ऐसी कठोरता एवं उद्दंडता का उद्भव होता है जिससे उसकी विनम्रता तत्काल नष्ट हो जाती हूँ ।
जहां निष्कपटता नहीं है वहां मैत्री नहीं रह सकती । स्वार्थ या कपट की घोर दुर्गंध में मैत्री की पावन सुरभि तत्काल प्रभावहीन हो जाती है । मायाचार मैत्री का कलंक है और वह जहां होगा वहां मैत्री घार शत्रुता के रूप में परिणत हुए बिना नहीं रह सकेगी। मायावी मनुष्य अपने कष्टाचार की कैंची से अपने समस्त सद्गुणों को काट फेंकता है । उसके अन्तःकरण की कालिमा में उसके अन्यान्य उज्ज्वल गुण डूब जाते हैं ।
इसी प्रकार लोभ मानय जीवन को निरर्थक बना डालता है। लोभी पुरुष, लोभ के वश होकर अपने समस्त सांसारिक सुखों को तिलांजलि दे देता है और सिर्फ अर्थ-चिन्ता में ही निमग्न रहता है। लोभी जीव अर्थ का स्वामी नहीं है, बल्कि अर्थ ही उसका स्वामी है | वह अर्थ का उपभोग नहीं कर सकता किन्तु अर्थ ही उसका उपभोग करता है । वह जितना उपार्जन करता है उससे कई गुना उपार्जन करने की लालसा रखता है, इसलिए उपार्जित धन के द्वारा होने वाली प्रसन्नता, उपार्जन की तीव्र लालसा से श्राच्छादित हो जाती है और उपार्जित धन उसे श्रानन्ददायक नहीं होता । वास्तव में लोभी मनुष्य अत्यन्त करुणा का पात्र है । वह दुःखी मानव इस लोक में जैसे सुख के स्पर्श से भी शून्य होता है उसी प्रकार आगामी भवमें भी । वह न यहां का रहता है, न वहां का रहता है । मृत्यु - काल में, जब समस्त उपार्जित धन . के सम्पूर्ण त्याग का अवसर अनिवार्य रूप से श्रा जाता है तब उसकी कैसी दयनीय दशा होती है ! वह घोर ममता के साथ मर कर नरक का अतिथि बनता हैं ! इसी लिए सूत्रकार कहते हैं-' लोहो सव्वावणासो' अर्थात् लोभ सर्वनाश करने वाला हैं । इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ने वाला है । लोभ मनुष्य को किंचित भी सुख नहीं देता ।
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तेरहवां अध्याय
४८३ अतएव सुख की कामना करने वालों का यह परम कर्तव्य है कि वे को मान, माया और लोभ रूप कषायों पर विजय पाने का उत्तरोत्तर प्रयास करते जा अन्तःकरण की वृत्तियों में उज्ज्वलता उत्पन्न करें । क्षमा, नम्रता, सरलता अ उदारता का अभ्यास करें। इन सात्विक वृत्तियों से जीवन आनन्दमय, प्रमोदम संतोषमय और शान्तिमय बनता है । जीवन का वास्तविक लाभ लेने के लिए वृत्तियों की वृद्धि होना अत्यावश्यक है। मूलः-उवसमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे ।
मायमजवभावेण, लोभं संतोसत्रो जिणे ॥१०॥ . छायाः-उपशमेन हन्यात क्रोध, मानं मार्दवेन जयेत्।
मायामार्जव भावेन, लोभं सन्तोपतो जयेत् ॥ १०॥ शब्दार्थः--उपशम से क्रोध का नाश करना चाहिए । नम्रता से मान को जी चाहिए। आजैव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए।
भाष्यः-शास्त्रकार ने पूर्व गाथा में कषायों से होने वाली हानियों का दिदर्श करा कर प्रस्तुत गाथा में कषाय-विजय के उपायों का निर्देश किया है।
क्रोध को उपशम से अर्थात् शान्ति से जीतना चाहिए । जब क्रोध के आवे से संताप की उत्पत्ति हो जाती है तब शांति के सिवाय उस संताप को निवा - करने का अन्य उपाय नहीं हो सकता। क्रोध को जीतने के लिए क्रोध के कारणों बचना चाहिए, क्रोध के दुष्परिणामों पर विचार करना चाहिए, क्षमा के लाभों विचारना चाहिए और इन सब के द्वारा हृदय में उपशमवृत्ति ऐसी दृढ़ बना लेन चाहिए कि क्रोध की उत्पत्ति के लिए अवकाश ही न रहे।
उपशम के समीप क्रोध का संताप ठहर नहीं सकता। जल से परिपूर्ण सरोव में जैसे सूर्य का संताप कष्टकारक नहीं हो सकता, अथवा जल में जिस प्रकार . उत्पन्न नहीं हो सकती, उसी प्रकार उपशम रूप सलिल जिस हृदय-सरोवर में भर होगा उसमें क्रोध की अग्नि कदापि उत्पन्न न हो सकेगी।
मार्दव गुण के द्वारा मान का मद-भंजन करना चाहिए। मृदुता, या कोमलत को मार्दव कहते हैं। अभिमान की कठोरता को नष्ट करने के लिए मार्दव ही एकम सफल शस्त्र है । पहले बतलाया जा चुका है कि अभिमान के प्रवल उदय से मनु अन्धा बन जाता है। वह अपनी वास्तविक स्थिति को नहीं सोचता और न दूसरे की सची स्थिति का ही विचार करता है। अभिमानी पुरुष अपने में असत् या ना मात्र को सत् कतिपय गुणों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर सोचता है और दूसरों. विशाल गुणों को अत्यन्त अल्प मात्रा में समझता है, या उनका अपलाप दीक डालता है। अत्यन्त परिमित और क्षुद्र वृद्धि होने पर भी अभिमानी अपने आपके सर्वक्ष की कोटि में रख देगा और अत्यन्त विशाल वुद्धिशाली होने पर भी दूसरों को जड़ या मूढ़ समझेगा ! अभिमानी अपनी बुद्धि के मद में चूर होकर अपने साम
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[४६ष्ट 1
থার্থ নন। अंन्य को अपदार्थ समझता है पर उस बेचारे को अपनी बुद्धि की क्षुद्रता को जान लेने की भी बुद्धि नहीं है।
इसी प्रकार अन्यान्य विषयों में भी वह अपनी सच्ची स्थिति से अनभिज्ञ रहता है और दूसरों की उच्च स्थिति की मर्यादा भी नहीं समझ पाता।
अभिमान रूपी इस मानसिक अंधता के रोग का निवारण करने के लिए शास्त्रकार ने उपचार बताया है मादक । मृदुता, कोमल वृत्ति अथवा नम्रता का भाव ही इस रोग को दूर कर सकता है। जहां मार्दव है, अपने गुरंगों की मात्रा कों घटाकर देखने और प्रकाशित करने की हात्ति विद्यमान है, वहीं उन्नति के लिए पूरा अवकाश रहता है। ऐसा नम्र व्यक्ति यथेष्ट प्रगति कर सकता है । अतएक मान को जीतने के लिए मार्दव का विकास करना चाहिए।
माया को आर्जव से जीतना चाहिए । मन, वचन और काय की सरलता प्रार्जव कहलाती है। मन में जैसी बात.हो, वही वचन से प्रकाशित करना और जो बात बचन द्वारा प्रकाशित की है वही काय के द्वारा करना, यह भाव है और इससे माया कषाय पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
आत्मा की विशुद्धि के लिए माया के परित्याग की अत्यन्त मावश्यकता है। माया को शास्त्रकारों ने शल्यों में परिगणित किया है और शस्यों का न होना व्रत पालन के लिए आवश्यक कहा है । इसका अर्थ यह निकलता है कि जिसके अन्तः करण में मायाचार विद्यमान है वह व्रती अवस्था में नहीं पा सकता । अतएव व्रतपालन के लिए निष्कपटता अनिवार्यरूपेण आवश्यक है।
लोभ को संतोष से जीतना चाहिए । इस विषय का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है, अतएव यहां पुनरावृत्ति नहीं की जाती। हां, इतना समझ रखना चाहिए, कि संतोष का भाव उत्पन्न हो जाने पर मनुष्य हीन से हीन अवस्था में, कठिन से कठिन विपदा में भी सुस्त्री रहता है । संतोषी पुरुष के चारों ओर आनन्द का ही वातावरण होता है। इससे विपरीत, असंतोषी व्यक्ति उच्च से उच्च कोटि पर पहुंच कर भी. विशाल साम्राज्य का अधिपति वन जाने पर भी, कभी सुखी नहीं वन सकता। असंतोष की लपटें उसे जलाती रहती है और वह लदेव. दुःखमय बना रहता है।
लोभ काय वाले जीव संसार में सबसे अधिक है। कपायों का अल्प बहुत्व बताते हुए कहा गया है कि-मान कप्पायी जीव कोध श्रादि कपाय वालों से कम है। क्रोधी जीव मान कषाय वालों से अधिक है । मायावी क्रोधियों से अधिक है और लोभी मायावियों से भी विशेषाधिक हैं । लोभ कपाय, अन्य कपायों के अभाव हो जाने पर भी बना रहता है और दसवें गुणस्थान के अंत में नष्ट होता है। ऐसा होने पर भी स्थूल लोभ तथा अन्य क्रोध श्रादि का विनाश करने के लिए प्रत्येक को प्रया सील होना चाहिए।
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तेरहवां अध्याय मूल:-असंखयं जीविय मा पमापए,
जरोवणीयस्स हु णाथि ताणं । . एनं वियाणाहिजणे पमत्ते,
किं नु विहिंसा अजया गहिति ? ॥११॥ छाया:-प्रसंस्कृतं जीवितं मा प्रमादी, जरोपनीतस्य हि.नास्ति त्राणम् ।
___ एवं विजानीहि जनाः प्रमत्ताः, किं नु विहिना यता गृहीष्यन्ति ? ॥१३॥ शब्दार्थ:--यह जीवन असंस्कृत है-आयु टुट जाने पर फिर जुड़ नहीं सकती। इसलिए प्रमाद न करो। वृद्धावस्था में प्राप्त हुए पुरुषों को कोई भी शरणदाता नहीं हैउन्हें मृत्यु से बचाने में कोई भी पुरुष सामर्थयवान नहीं है । इसे भलीभाँति समझलो कि प्रमादी, हिंसक और अयतना स प्रवृत्ति करने वाले-अजितेन्द्रिय पुरुष किस की शरए लेंगे ? अर्थात् अन्त में उन्हें कोई शरण न दे सकेगा। .
• भाष्यः-कवायों का स्वरूप, उमसे होने वाले दुष्परिणाम तथा उनके उपशमन के उपायों का निरूपण करने के पश्चात् सूत्रकार यहां कषायों की उपशान्ति की प्राद• श्यकता प्रदर्शित करते हैं।
क्रोध कषाय की उपशान्ति रूप क्षमा है, मान कषाय की उपशान्ति होना मार्दव है, माया कक्षाय का अभाव होना प्रार्जव है, और लोभ कपाय का नष्ट होने से तय, त्याग, भाकिचिन्य, ब्रह्मचर्य आदि की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार विचार करने से प्रतीत होता है कि दस धर्मों का प्राविर्भाव कषाय के उपशम पर निर्भर है। अतएव कपायों का उपशम धर्म है और धर्म ही संसारी जीवों के लिए शरण-दाता है। . कहा सी है
धम्मो चवस्थ सत्ताणं, लरणं भवसायरे।
देवं धरुमं गुरुं चेव,धम्मत्थी य परिएखए । अर्थात् संसार रूपी ससुद्ध में, जीमों के लिए धर्म ही सरल है । धर्माधी पुरुष को देव, धर्म और गुरु की परीक्षा करना चाहिए। . ___ -जीवों को धर्म ही शरण है अर्थात् कषायों का उपशम ही उनकी रक्षा कर सकता है-अन्य कोई नहीं। इसी लिए कषायों के उपशल की अत्यन्त आवश्यकता है। यह आवश्यकता प्रदार्शित करते हुए सूनकार कहते हैं
· जीवन संस्कार-हीन है । जैसे फटा हुशा कागज गोंद से चिपक जाता है अथवा टूटा हुना घड़ा राल अरदि द्रव्यों से जुड़ जाता है, इस प्रकार जीवन टूट जाने 'पर अर्थात् श्रायु समाप्त हो जाने पर उसे जोड़ने वाली वस्तु संसार में नहीं है । मृत .
को जीवित करने की भी कोई औषधि संभव नहीं है । अतएव आयु की समाप्ति पर - मृत्यु के अतिरिक्त दूसरा विकल्प नहीं है । जव मृत्यु धूव है, निश्चित है तो, जीवन के.
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कषाय वर्णन इल अल्प काल में प्रमाद का परित्याग करके धर्म की आराधना करनी चाहिए।
बुढ़ापा आने पर-जब इन्द्रियां शिथिल पड़ जाएँगी, शरीर कार्यक्षम नहीं रहेना, श्राय का अन्त निकट श्राजायगा तब संसार का कोई भी प्राणी शरण नहीं दे सकेगा । इस तथ्य को समझो, इस पर शान्ति के साथ विचार करो।
जिन्होंने अपना लस्पूर्ण जीवन प्रमाद ही प्रमाद में यापन कर दिया है, जिनके दिल में दया का कभी उद्धक नहीं हुश्रा-जो हिंसा में परायण रहे हैं, जिन्होंन इन्द्रिय विजय नहीं किया है, जो लावधान होकर क्रिया नहीं करते, वे अन्त में किसका शरण लेंग? जैसा कि अभी कहा है-धर्म ही एक मात्र शरण है और वह कषायों की उपशान्ति रूप है। जिन्होंने कघावों का दमन करके धर्म को ग्रहण नहीं किया, वे अन्त में किसी का शरण ब्रहण नहीं कर सकते । उन्हें बचाने वाला कोई नहीं है। सधन बन में जैले मृग की सिंह से रक्षा कोई नहीं कर सकता, उसी प्रकार जीवन झी अंतिम वेला में धर्म के सिवाय और कोई जीव की रक्षा नहीं कर सकता।
धर्म परलोक में सुख का साधन है। संसार का समस्त ऐश्वर्य. विपुल द्रव्य, विशाल परिवार और स्नेहीजन, सच यहां के यहीं रह जाते हैं । आगामी भव में उनमें से कोई सहायक नहीं होता। अतएव परलोक का सच्चा सखा, सुख प्रदान करने वाला एक मात्र सहारा धर्म है। धर्म का संग्रह करो । धर्म को अन्तरात्मा में जागृत करो। धर्म के लिए जीवन अर्पण कर दो। धर्म की रक्षा करो। अन्तरात्मा को निर्मल बनायो। प्रमाद को हटाकर, भूतदया करो-विवेक के साथ धर्म की अंतरंगता को समझकर उसकी नाराधना करो। मूलः-वित्तण ताणं न लभे धमत्ते,इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।
दीवप्पणद्वैव अणंतमोहे,नेयाउनं दट्ठमदट्ठमेव ॥१२॥ लाया:-वित्तन नाणं न लभेत प्रमत्तः, यस्मिलोकेऽथवा परत्र ।
दीपरणट इव अनन्त मोहः, नैयायिक दृष्ट्वाऽप्यदृष्ट्वैव ॥ १२ ॥ शब्दार्थ:--प्रमादी पुरुष इस लोक में अथदा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता। जैसे दीपक के बुझ जानेपर न्याययुक्त मार्ग देखा हुआ भी न देखे के समान हो जाता है ।
भाष्यः-संसार में अनेक मनुष्य ऐसे हैं जो धन को सर्वशक्तिमान माने चैटे वे सोचते हैं-धन से क्या नहीं हो सकता! अगर हमारे पास पर्याप्त सम्पत्ति है तो रोग उत्पन्न होने पर हजारों वैद्य बुलाये जा सकते हैं। लास्त्रों की श्रीपधि स्नरीदी जा सकती हैं । फिर भय किस बात का है ? 'ऐसे लोगों की विचारधारा को भी प्रदर्शित करते हुए शासकार कहते है-' वित्तए ताएं न लभे एमत्ते।। अर्थात कवाय यादि प्रमादों का सेवन करने वाला प्रमादी पुरुप धन से वारण नहीं पा सकता। धन से न तो रोगों के उपशमन का नियम है, न नाय की वृद्धि हो सकती है । नष्टवायु जय महाप्रयाण के लिए प्राणी को प्रेरित करती है, तब हमल्य
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तेरहवा अध्याय मोतियों की माला भी फाँसी का फंदा बन जाती है। अपरिमित धन से परिपूर्ण कोक मिट्टी के ढेर की भाँति वृथा हो जाता है । कहा भी है--
अक्षय धन-परिपूर्ण खजाने, शरण जीव को होते, तो अनादि के धनी सभी, इस पृथ्वी पर ही होते । पर न कारगर धन होता है, बंधु ! मृत्यु की वेला,
राजपाट सब छोड़ चला जाता है जीव श्री केला ॥ धन मृत्यु से रक्षा करने में समर्थ होता तो धनी मनुष्य कभी न सरते। अपने धन से या लो नुतन जीवन खरीद लेते या मृत्यु को टाल देते । पर संसार में ऐसा देखा नहीं जाता। अनादिकाल से लेकर अब तक असंख्य षट् खंड के अधिपति
और चौदह दिव्य रत्नों एवं नब निधियों के स्वामी चक्रवर्ती तथा अन्यान्य अपरिमित धन ले सम्पन्न पुरुष इस भूतल पर अवतर्णि हुए हैं, पर उनमें से श्राज एक , श्री कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। वे सब आज कहां हैं ? धन ने उनका त्राण नहीं किया। उनकी असीम सस्पत्ति उन्हें मौत स बचाने में समर्थ नहीं हो सकी वह त्यो
की त्यों पड़ी रही और उसका स्वामी चुपचाप चलता बना । संसारी जीव की विवशता प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है, फिर भी अज्ञान मनुष्य धन का श्राश्रय लेना चाहता है ! मोत को घूस देकर मौत से बचने का मूर्खतापूर्ण विचार करता है। - कदाचित् इस लोक का धन. परलोक में हमारी रक्षा न कर सकेगा तो इस लोक में तो करेगा, ऐसा-विचारने वालों का भ्रम निवारण करते हुए कहा गया है-- * इमस्मि लोए अदुवा परस्था । ' अर्थात् धन न इस लोक में शरण है, न परलोक में शरण है।
इस लोक का धन परलोक में साथ नहीं जाता है, अतएव यह स्पष्ट है कि धन परलोक में शरणदाता नहीं है । परन्तु यह भी प्रत्यक्ष सिद्ध है कि इस लोक का धन इस लोक में भी शरणदाता नहीं है। जब पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगना 'पड़ता है और फल स्वरूप नाना प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक कष्ट पाकर मनुष्य को घेर लेते हैं, तब धन उन कष्टों का प्रतीकार करने में सर्वथा असमर्थ बन जाता है। कभी-कभी ऐली विकट वेदना का शरीर में प्रादुर्भाव होता है कि लास्रो उपाय करने पर भी और करोड़ों रुपये लुटा देने पर भी उसका उपशमन नहीं होता! इसी प्रकार विरुद्ध वर्ताव करने वाले स्वजनों के निमित्त से जो मानसिक पीड़ा होती है उसका प्रतीकार धन ले होना असंभव बन जाता है । अतएव यह सत्य है कि वित्त के द्वारा मनुष्य न इस लोक में शरण पा सकता है, न परलोक से ही।
वस्तुतः धन शरणभूत नहीं है, फिरभी जो लोग अज्ञान से प्रावृत होने के कारण उसे आश्रयदाता मानते हैं, उनकी क्या दशा होती है ? इस प्रश्न का समाधान 'करते हुए सूत्रकार कहते हैं--- .
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कषाय वर्णन इल अल्प काल में प्रमाद का परित्याग करके धर्म की आराधना करनी चाहिए।
बुढ़ापा आने पर-जब इन्द्रियां शिथिल पड़ जाएँगी, शरीर कार्यक्षम नहीं रहेना, श्राय का अन्त निकट श्राजायगा तब संसार का कोई भी प्राणी शरण नहीं दे सकेगा। इस तथ्य को समझो, इस पर शान्ति के साथ विचार करो।
जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रमाद ही प्रमाद में यापन कर दिया है, जिनके दिल में दया का कभी उद्वक नहीं हुश्रा-जो हिंसा में परायण रहे हैं, जिन्होंने इन्द्रिय विजय नहीं किया है, जो सावधान होकर क्रिया नहीं करते, व अन्त में किसका शरण लेंग? जैला कि अभी कहा है-धर्म ही एक मात्र शरण है और वह कषायों की उपशान्ति रूप है। जिन्होंने कषायों का दमन करके धर्म को ग्रहण नहीं किया, वे अन्त में किसी का शरण ब्रहण नहीं कर सकते । उन्हें बचाने वाला कोई नहीं है। सघन वन में जैले मृग की सिंह से रक्षा कोई नहीं कर सकता, उसी प्रकार जीवन की अंतिम वेला में धर्म के सिवाय और कोई जीव की रक्षा नहीं कर सकता।
धर्म परलोक में सुख का साधन है। संसार का समस्त ऐश्वर्य, विपुल द्रव्य, विशाल परिवार और स्नेहीजन, सच यहां के यहीं रह जाते हैं । आगामी भव में उनमें से कोई सहायक नहीं होता। अतएव परलोक का सच्चा सखा, सुन प्रदान करने वाला एक मात्र सहारा धर्म है। धर्म का संग्रह करो । धर्म को अन्तरात्मा में जागृत करो। धर्म के लिए जीवन अर्पण कर दो। धर्म की रक्षा करो। अन्तरात्मा को निर्मल बनाओ। प्रमाद को हटाकर, भूतदया करो-विवेक के साथ धर्म की अंतरंगता को समझकर उसकी श्राराधना करो। मूलः-वित्तण ताणं न लभे पमत्ते,इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।
दीवप्पणद्वैव अणंतमोहे,नेयाउनं दट्टमदट्टमेव ॥१२॥ बाया:-वित्तेन नाणं न लभेत प्रमत्तः, अस्मिल्लोकेऽथवा परत्र ।
दीपरणप्ट इव अनन्त महिः, नैयायिकं दृष्ट्वाऽप्यदृष्ट्वेव ॥ १२ ॥ शब्दार्थ:--प्रमादी पुरुष इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता। जैसे दीपक के वुझ जानेपर न्याययुक्त मार्ग देखा हुआ भी न देखे के समान हो जाता है।
भाप्यः-संसार में अनेक मनुष्य ऐसे हैं जो धन को सर्वशक्तिमान माने बैठे । सोचते -'धन से कन्या नहीं हो सकता ! अगर हमारे पास पर्याप्त सम्पत्ति है तो रोग उत्पन्न होने पर हजारों वैद्य बुलाये जा सकते हैं। लास्त्रों की श्रीपधि खरीदी जा सकती है। फिर भय किस बात का है ? ' ऐसे लोगों की विचारधारा को भ्रमपूर्ण प्रदर्शित करते हुए शासकार कहते हैं-' वित्तण ताणं न लभे पमत्ते।' अर्थात कवाय श्रादि प्रमादों का सेवन करने वाला प्रमादी पुरुष धन से प्राण नहीं पा सकता। धन से न तो रोगों के उपशमन का नियम हैं, न घायु की वृद्धि हो सकती है । नष्ट श्रायु जय महाप्रयाण के लिए प्राणी को प्रेरित करती है, तब बहुमूल्य
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तेरहवां अध्याय
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पोतियों की माला भी फाँसी का फंदा बन जाती है । अपरिमित धन से परिपूर्ण कोट मिट्टी के ढेर की भाँति वृथा हो जाता है ।
कहा भी है-
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अक्षय धन-परिपूर्ण खजाने, शरण जीव को होते, तो अनादि के धनी सभी, इस पृथ्वी पर ही होते । पर न कारगर धन होता है, बंधु ! मृत्यु की वेला, राजपाट सब छोड़ चला जाता है जीव अकेली ॥
मृत्यु से रक्षा करने में समर्थ होता तो धनी मनुष्य कभी न मरते । दे 'अपने धन से या तो नुतन जीवन खरीद लेते या मृत्यु को टाल देते । पर संसार में ऐसा देखा नहीं जाता । छानादिकाल से लेकर अब तक असंख्य षट् खंड के अधिपति और चौदह दिव्य रत्नों एवं नव निधियों के स्वामी चक्रवर्त्ती तथा अन्यान्य अपरिमित धन से सम्पन्न पुरुष इस भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं, पर उनमें से द्याज एक ' भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता ! वे सब आज कहां हैं ? धन ने उनका त्राण नहीं किया । उनकी असीम सम्पत्ति उन्हें मौत स बचाने में समर्थ नहीं हो सकी वह त्यों की त्यों पड़ी रही और उसका स्वामी चुपचाप चलता बना । संसारी जीव की विवशता प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है, फिर भी अज्ञान मनुष्य धन का श्राश्रय लेना चाहता है ! मोत को घूस देकर मौत से बचने का सूर्खतापूर्ण विचार करता है !
कदाचित् इस लोक का धन परलोक में हमारी रक्षा न कर सकेगा तो इस लोक में तो करेगा, ऐसा विचारने वालों का भ्रम निवारण करते हुए कहा गया है-" इसस्मि लोप अदुवा परत्था । ' अर्थात् धन न इस लोक में शरण है, न परलोक शरण हैं ।
इस लोक का धन परलोक में साथ नहीं जाता है, अतएव यह स्पष्ट है कि `धन परलोक में शरणदाता नहीं है । परन्तु यह भी प्रत्यक्ष सिद्ध है कि इस लोक का इस लोक में भी शरणदाता नहीं है । जब पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है और फल स्वरूप नाना प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक कष्ट झाकर मनुष्य को घेर लेते हैं, तब धन उन कष्टों का प्रतीकार करने में सर्वथा असमर्थ बन जाता है । कभी-कभी ऐसी विकट वेदना का शरीर में प्रादुर्भाव होता है कि लाखों उपाय करने पर भी और करोड़ों रुपये लुटा देने पर भी उसका उपशमन नहीं होता ! इसी प्रकार विरुद्ध वर्त्ताव करने वाले स्वजनों के निमित्त ले जो मानसिक पीड़ा होती है उसका प्रतीकार धन ले होना असंभव वन जाता है । अतएव यह सत्य है कि वित्त के द्वारा सनुष्य न इस लोक में शरण पा सकता है, न परलोक में ही ।
वस्तुत: धन शरणभूत नहीं है, फिरभी जो लोग अज्ञान से आवृत होने के 'कारण उसे श्राश्रयदाता मानते हैं, उनकी क्या दशा होती है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं-
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__ काय वर्णन के महान् ध्येय की पूर्ति करने का प्रयत्न करना चाहिए।
कदाचित शरीर इतना सबल होता कि वह काल के प्रहार को सहन करलेता तो चिन्ता नहीं थी। फिर काल से डरने की कोई श्रावश्यकता न थी। पर ऐसा नहीं है। हाड़-मांस का यह पुतला अत्यन्त निर्वल है । काल का प्रहार इससे सहन न होगा । काल के एक ही झपट्टे में यह निकम्मा वन जायगा । श्रतएव देले निर्वल शरीर का भरोसा करके निश्चिन्त कैसे रहा जा सकता है ? जिस नौका में अनेक छिद्र हो गये हो, वह कबतक पानी पर तैरती रहेगी? वह किसी भी क्षण जल के तल पर पहुँच सकती है । इसी प्रकार यह शरीर किसी भी क्षण नष्ट विनष्ट हो सकता है ।।
अन्त में शास्त्रकार कहते हैं-'सारंडपक्खी व चरऽपमत्तो।' अर्थात्-इसलिए भारंड पक्षी की तरह प्रमाद रहित होकर विचरो । जैसे भारंड नामक पक्षी प्रतिक्षण सावधान रहता है, वह प्रमाद का सेवन नहीं करता, इसी प्रकार तुम भी. प्रमाद से सर्वथा रहित बनों । एक क्षण का प्रमाद् भी घोर अनर्थ उत्पन्न कर सकता है। मूल:-जे गिद्धे कामभोएसु, एगे कूडाय गच्छइ ।
'न मे दिटे परे लोए, चक्षुदिट्ठा इमा रई ॥१४॥ छायाः-यो गृद्धः कामभोगेपु, एकः कूटाय गच्छति।
न मया दृष्टः परलोकः चक्षुईष्टेयं रतिः ॥ ४॥ शब्दार्थः-जो कोई पुरुप काम-भोगों में आसक्त है, वह हिंसा तथा मृपावाद को प्राप्त होता है । वह कहने लगता है--परलोक मैंने देखा नहीं है, परन्तु सांसारिक सुख तो प्रत्यक्ष नजर आ रहे हैं।
भर्थात् परलोक संबंधी सुखों के लिए इस लोक के प्राप्त सुखों का त्याग क्यों किया जाय ?
भाष्य:-प्रथम अध्ययन में श्रात्मा का सनातनत्व सिद्ध किया जा चका है। जब प्रात्मा सनातन-नित्य है तो उसका कभी विनाश नहीं हो सकता । जय श्रात्म, का विनाश नहीं हो सकता और वर्तमान जीवन अल्पकाल पर्यन्त ही रहता है तो परलोक माने बिना काम नहीं चल सकता। श्रात्मा की एक अवस्था त्यागकर दूसरी अवस्था में जाना ही परलोक गमन कहलाता है । श्रात्मा की एक अवस्था स्थायी नहीं रहती, फिर भी आत्मा स्थायी रहता है शर्थात् वह दूसरी अवस्था को अवश्य ही अंगीकार करता है।
इस प्रकार परलोक तर्कसंगत होने पर भी कामी और भोगी जीव परलोक के विषय में उपेक्षा का भाव व्यक्त करते हैं । शास्त्रकार कहते हैं कि जो काम-भोग में गृडालक्त है, जो काम-भोग का परित्याग करने में अशक्त, जिनकी इन्द्रियां इतनी उच्चबत हो रही है कि वे यम-नियम के नियंत्रए में नही पा सकी. .
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तेरहवां अध्याय वे लोग इन्द्रियों के अनुगामी होकर पग्लोक संबंधी सुखों की परोक्षता का बहाना बनात हैं। वे लोग अपनी काम-भोग संबंधी आसक्ति का औचित्य सिद्ध करने के लिए कहने लगत हैं कि-इम जीवन के सुख तो प्रत्यक्ष-से दृष्टिगोचर हो रहे हैं
और परलोक का पता नहीं है। ऐसी स्थिति में परलोक के भरोसे रहकर इस लोक के सुखों ले क्या वंचित रहे ?
. वस्तुतः यह विचारधारा भ्रान्तियुक्त है । जब परलोक का अस्तित्व युक्तिसिद्ध है तब उसे न देखने मात्र से उस पर संदेह नहीं किया जा सकता । संसार में प्रतिदिन महस्त्रों व्यापार भविष्य काल की भाशा पर होते हैं। किसान पहले घरमें रक्खे हुए धान्य को खत की मिट्टी में मिला देता है, सो केवल भविष्य की आंशा पर निर्भर रहकर ही । आगामी विशेषतर लाभ के लिए प्राप्त धान्य का परित्याग किया जाता है। यदि किसान नास्तिकों का अनुकरण करके, भविष्य की उपेक्षा करता हुआ धान्य को खेतमें न फेंके और सोचने लगे कि भविष्य की फसल किसने देखी है ? कौन जाने फसल आएगी या नहीं ? क्या पता है कि मैं तबतक जीवित रह सकूँगा या नहीं ? ऐसी स्थिति में घर में मौजूद धान्य को क्यों खेत में डालूं? जो प्राप्त है उसी का उपभोग क्यों न करूं ? तो आगे चल कर उस किसान की क्या दशा होगी? प्राप्त-धान्य की समाप्ति हो जाने के पश्चात् उसका जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? इतना ही नहीं, 'अन्नं वै प्राणाः' अर्थात् अन्न ही प्राण है-इस कथन के अनुसार किसान द्वारा तैयार होने वाले अन्न पर निर्भर रहने वाले शेष मनुष्यों का जीवन भी समाप्त हो जायगा।
वणिक पहले घर की पूंजी लगाकर भविष्य के लाभ के लिए व्यापार करता है। नास्तिक की विचाधारा को मान्य किया जाय तो अनिश्चित भविष्य में होने वाले लाभ की आशा से वर्तमान में प्राप्त धन का व्यय क्यों किया जाय ? इसी प्रकार अन्यान्य लौकिक कार्य यदि स्थगित हो जाएँ तो संसार का क्या स्वरूप होगा, यह विचाररणीय है।
सत्य यह है कि त्यागकेविना लाभ होना असंभव है। जो जितनी मात्रा में त्याग करेगा उसे उतनी ही मात्रामें लाभ हो सकता है। मगर जिनमें दीर्घदर्शिता नहीं है, सुनहरीभविष्य की कल्पना करने में जिनकी मेघा-शक्ति कुंठित होजाती है, जो संकुचित एवं क्षुद्र दृष्टि वाले हैं वे लोग भविष्य की उपेक्षा करते हैं। उनमें अनपढ़ किसानों के बरावर भी श्रास्तिकता नहीं है। वे व्यापारी के बराबर भी आस्थाशील नहीं हैं । ऐसे लोगों की क्या दशा होगी? उनकी भविष्य में वही दशा होगी जो सम्पूर्ण मूल पूंजी खा जाने वाले वणिक की होती है और बीज न वोकर घर के सव धान्य को उदरस्थ कर लेने वाले किसान की होती है। यही नहीं, बल्कि कामी-भोगी जीव की गति किसान और वणिक की अपेक्षा अधिक निकृष्ट हो जाती है। किसान धान्य उधार लेकर फिर वो सकता है और वणिक ऋण लेकर व्यापार कर सकता है । परन्तु जो लोग पूर्वोपार्जित पुण्य के उद्य से प्राप्त विषयभोग भोगकर पुण्य को क्षीण कर चुकते हैं और आगे के लिए
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. कयाय वर्णन करना ही न पड़ेगा-सभी को करना होगा। सभी मरेंगे और सभी परलोक जाएंगे। ऐसी स्थिति में जो अवस्था अन्य लोगों की होगी वह मेरी भी हो जाएगी। मैं अकेला क्यों चिन्ता करूं?
इस प्रकार का विचार करके नास्तिक काम में और भोग में अनुरक्त हो जाता है। काम-भोगों के भागने में वह स्वच्छन्द बन जाता है और अन्त में क्लेश प्राप्त करता है।
यहां यह ध्यान रखने की बात है कि प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता है और प्रत्येक जीव अपने-अपने किये हुए. पुण्य या पाप का फल स्वतंत्र भोगता है। दूसरा अगर पाप कर्म करता है तो उसका फल कोई दूसरा नहीं भोगेगा। इसी प्रकार पुण्य सा फल, उस पुण्य का कर्ता हा भोगेगा । एक के द्वारा उपार्जित अदृष्ट अनेक लोग थोड़ा-थोड़ा बंटवारा करके नहीं भोगते हैं । ऐसी अवस्था में यह विचार सर्वथा अज्ञानपूर्ण ही है कि जो औरोंका होगा, वह हमारा भी हो जायगा।
इसके अतिरिक्त इस प्रकार की विचारणा करने वाले लोग जगत् में विद्यमान त्यांगियों और तपस्वियों की और दृष्टिपात नहीं करते। वे कामी और भोगी जनों की और ही नज़र करते हैं और उन्हीं से एक प्रकार का मिथ्या आश्वासन पात हैं। उनमें यह सोचने का सामर्थ्य नहीं होती कि अगर दूसरे लोग भी दुःख एवं क्लेश के भागी होंगे तो हमारा दुःस्त्र और क्लेश कम नहीं हो जायगा। ..
संसार विचित्रताओं का घर है। यहां घोर से घोर पापी भी हैं और उच्च से उच्च श्रेणी के धर्मनिष्ट पुण्यात्मा पुरुप भी हैं। कहीं दुराचार की तेज बदबू मौजूद है तो कहीं सदाचार का सौरभ महक रहा है । कहीं अज्ञान का घना अन्धकार छाया असा है तो कहीं ज्ञान का उज्ज्वलतर प्रकाश चमक रहा है । कहीं वासनाओं की ‘ालिमा व्याप्त है. कहीं तप और त्याग की शुभ्रता दीप्त हो रही है । इन परस्पर विरोधी दो तत्त्वों में से जिले जो चुनना है, वह उसे चुन ले । नास्तिक पाप,दुराचार,
सान, वासना और कालिमा अपने लिए चुनता हैं और प्रास्थाशील आस्तिक इनसे विपरीत चुनाव करता है। नास्तिक की दृष्टि प्रयोगामिनी होती है, आस्तिक
गामिनी होती है। नास्तिक कृष्णपक्षी है, आस्तिक शुक्लपक्षी है । नास्तिक ही जिद और संकुचित होती है, सास्तिक विशाल और विस्तीर्ण दृष्टिवाला होता है। नास्तिक निम्न कोटि के पशु की नाई सिर्फ वत्तमान तक सोचता है,
स्तिक विप्य को भी सन्मुग्न रखकर अपने कर्तव्य का निर्णय करता है। नास्तिक अपने सापको बाद शरीर पिण्ड मात्र ही अनुभव करता है, यास्तिक अपनीछानमूर्ति
नना की अनुभूति का रसास्वादन करता है। नास्तिक के अन्तःकरण में भोग की उत्ताल तरंग उठती रहती है अतएव यह सदा सुब्ध रहता है, नास्तिक का अन्त:बार प्रशान्त और गंभीर सागर के समान क्षोमहीन होता है । नास्तिक जगत् का प सास्तिरसारका भूपरा है । दोनों में प्राकाश-पाताल का अंतर है।
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तेरहवां अध्याय नास्तिकता से प्रेरित होकर मनुष्य क्या करता है, इसका वर्णन आगे किया जाता है । मूलः-तत्रो से दंडं समारभइ, तसेसु थावरेसु य ।
अट्ठाए व अणट्ठाए, भूयग्गामं विहिसइ ॥ १७ ॥ छाया:-ततः स दण्डं समारभते, त्रसेषु स्थावपु च ।
- अर्थाय अनोय, भूतग्राम विहिनस्ति ॥ १७ ॥ शब्दार्थ:--परलोक संबंधी असंभावना का विचार करके वह नास्तिक त्रस और । स्थावर जीवों के विषय में, प्रयोजन से अथवा बिना प्रयोजन के ही, दंड का समार करता है, और प्राणियों के समूह का वध करता है।
भाष्यः--परलोक के विषय में अविश्वास करने का तात्कालिक फल क्या होता है; यह बात शास्त्रकार यहां प्रतिपादन करते हैं।
परलोक संबंधी अश्रद्धा करने के पश्चात् नास्तिक पाप-पुण्य के विचार से जब निरपेक्ष हो जाता है तब वह त्रस जीवों की और स्थावर जीवों की हिंसा करने लगता है। सार्थक तथा निरर्थक दोनों प्रकार की हिंसा द्वारा वह अनेक प्राणियों का संहार करता है। यह परलोक संबधी अश्रद्धा का पहला फल है। जो लोग परलोक में विश्वास नहीं करते, उनका मन निरंकुश हो जाता है और वे निर्भय निस्संकोच होकर पाप में प्रवृत्त हो जाते हैं ।
यहां यह अाशंका की जा सकती है कि प्रत्येक गृहस्थ हिंसा करता है। हिंसा किये बिना संसार-व्यवहार का निर्वाह होना असंभव है । परलोक में श्रद्धा रखने . वाला, धर्मप्रिय श्रावक भी हिंसा से पूर्णरूपेण नहीं बच पाता। फिर हिंसा को नास्ति-. कता का परिणाम क्यों कहा गया है ? इस संबंध में अनेक बातें कही जा सकती हैं। . . वे इस प्रकार हैं:
(१) धर्मप्रेमी श्रास्तिक गृहस्थ यदि श्रावक के व्रतों का ग्रहण नहीं करता--- सिर्फ सम्यग्दृष्टि होता है तो.भी वह हिंसा को पाप ही समझता है। सम्यग्दृष्टि जीव हिंसा रूप पाप को नास्तिक की तरह अ-पाप नहीं समझता और इस कारण अगर वह पाप में प्रवृत्ति करता है तो भी पाप से भयभीत रहता है, अपने कृत्य को निन्दनीय समझता है । इस प्रकार उसकी श्रद्धा में अहिंसा विद्यमान रहती है। , नास्तिक के श्रद्धान और आचरण दोनों की हिंसा होती है।
(२) देशवती श्रावक त्रस जीवों की संकल्प पूर्वक हिंसा नहीं करता और स्था- .. चर जीवों की निरर्थक हिंसा से भी वचता है । नास्तिक त्रस और स्थावर की सार्थक तथा निरर्थक दोनों प्रकार की हिंसा करता है । इसी कारण सूत्रकार ने 'तसेल थाव-. रेसुय' तथा 'अट्टाए व भणडाए' पदों का प्रयोग किया है। . : १३.) तीसरी बात यह है कि सम्यग्दृष्टि की हिंसा लाचारी से प्रेरित होती है और वह उन परिणाम द्वारा नहीं की जाती । नास्तिक-मिथ्यादृष्टि की हिंसा व्यसन
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कषाय वर्णन . या शानन्द से प्रेरित होती है और वह उग्न कषाय युक्त परिणामों से की जाती है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि एक ही कृत्य तीवभाव, मन्दभाव आदि से किया जाने पर विभिन्न-फल देने वाला होता है। तत्त्वार्थ-सूत्र में कहा है:-'तीव्रमन्द झाता जातभाशधिकरण वीर्य विशपेभ्यस्तद्विशेषः।' अर्थात् तीनभाव, मन्दभाव, झातभाव, अशातभाव अधिकार तथा शक्ति के भेद ले कर्म के प्रास्रव में भेद हो जाता है। नात्पर्य यह है कि तीव्र भाव स किया जाने वाला पाप अधिक अशुभ कर्म-बंध का कारण है और मन्दभाव से किया जाने वाला कम अशुभ कर्म के बंध का कारण है। इसी प्रकार 'मैं इस प्राणी को मारूं' ऐला जान बूझ कर हिंसा-पाप करने वाला अधिक पाप का भागी है और अनजान में जिससे पाप हो जाय वह कम पाप का भागी होता है । द्रव्य को अधिकरण कहते हैं और उसकी शक्ति-विशेष को वीर्य कहते हैं। इनके भेद से भी प्रास्त्रव में भेद होता है। शास्त्रव भेद से फल में भी भेद हो जाता है।
अस एवं स्थावर जीवों की हिंसा करने वाले नास्तिक को किस फल की प्राप्ति . होती है ? इसका स्पष्टीकरण शास्त्र में इस भांति किया गया है:
जाईयहं अणुपरिवट्टमाणे, तसथावरेहिं विपिघायमेति ।
से जाति जाति बहुकूरकम्मे, जं कुव्वती मिजति तेण बाले ॥ अर्थात् एकेन्द्रिय अादि प्राणियों को दण्ड देने वाला जीव बार-बार उन्हीं-एके न्द्रिय श्रादि-योनियों में उत्पन्न होता है। और मरता है। वह जल एवं स्थावरों में उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त होता है । वह बारम्बार जन्म लेकर क्रूर कर्म करता हुश्रा, अपने कर्मों की बदौलत मृत्यु को प्राप्त होता है।
इस प्रकार परलोक संबंधी अश्रद्धा के परिणाम जानकर विवेकीजनों को श्रद्धा या होना चाहिए और इस लोक के साथ ही साथ परलोक के सुधार का प्रयत्न करना चाहिए। . मूलः-हिंसे वाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे ।
मुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेनं ति मन्नइ ॥ १८ ॥ वाया:-हिको पालो नृपावादी, साथी पिशुनः ठः ।
भुजाना सुगं मांग, श्रेयों में इदमिनि मन्यते । 15॥ शब्दार्थ:--परलोक को न मानने वाला वह हिंसक, अज्ञान, मृपा भाषण करता है, नायाचार करता है, निन्दा गरता है, पर वदना करता है और मदिरा तथा मांस का वन करता ! वह मानता है कि मेरे लिए यही श्रेयस्कर है !
भाग्यः-पर नोक को न मानने वाला गुरुप हिंसक बन जाता है यह पदले यतनाया जा चुका है। परन्तु उसका पतन चही समाप्त नहीं हो जाता।'विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपानः शतमु यात विवेक से भ्रष्ट लोगों का शत-मुख पसन होता
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तेरहवां अध्याय है, इस कथन के अनुसार हिंसा-प्रवृत्त नास्तिक भी नीचे गिरता चला जाता है और असत्य भीपण, मायाचार, पिशुनता, शठता श्रादि अनेक दुर्गुणों का पात्र बन कर मदिरा-मांस का सेवन करने लगता है।
इन दुर्गुणों एवं मदिरा-माल के सेवन में वह इतना अधिक मृद्ध हो जाता है कि अपनी बुराई को बुराई नहीं समझता और उसे ही अपने लिए कल्याणकारी समझता है । रोगी शापने आपको रोगी समझता हो तो वह चिकित्सा का पात्र है। अगर वह अपने को नीरोग समझे या रोग को ही स्वस्थता समझ बैठे तो उसकी चिकित्सा नहीं हो लकली । नास्तिक अपनी करतूतों को कल्याणकारी समझने लगता है, इस कारण वह उनले विमुख होना नहीं चाहता और न विमुख होने का प्रयत्न करता है।
पतने की यह पराकाष्टा है । इस अवस्था में उत्थान के लिए अवकाश नहीं रहता । इसी कारण शास्त्र कारने उसे बाल अर्थात् अंज्ञान कहा है। वह अचिकित्स्य
भूल:-कायसा वयसा मत्तो, वित्ते गिद्धे य इस्थिसु ।
दुहंगो मलं संचिणइ, सिसुणागुव्व मट्टियं ॥ १६ ॥ छाया:-कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु।।
द्विधा मलं सचिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ॥ १६ ॥ शब्दार्थः-वह नास्तिक काय से और वचन से गर्व युक्त हो कर, धन में और त्रियों में आसक्त होकर, राग द्वेष के द्वारा कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग कड़िा मिट्टी से लिपटा रहता है।
भाष्यः-परलोक को स्वीकार न करने वाला नास्तिक, सर्व प्रथम हिंसा में प्रवृत्त होता है, हिंसा के पश्चात् असत्य भाषण आदि पाप उसके लिए बायें हाथ के खेल बन जाते हैं और वह मांस-मदिरा का सेवन करने में प्रवृत्त हो जाता है। यह निरूपण करने के पश्चात् उस्लके अधःपतन का आगे का क्रम यहां बतलाया गया है।
. वह मन, वचन और काय से 'मत्त-उन्मत्त बन जाता है । मदिरा आदि के सेवन से उसकी तामस वृत्ति अत्यन्त उग्र हो जाती है और उसका फल यह होता है कि वह स्त्री संबंधी भोगों से तथा धन में अतीव पासक हो जाता हैं।
जहां श्रासक्ति है-लोलुपता है-राम-है वहां द्वेष अवश्य पाया जाता है। राग और द्वेष की व्याप्ति निश्चित है। एक वस्तु के प्रति राग होगा तो उससे विरोधी. वस्तुओं के प्रति द्वेष का भाव अवश्यंभावी है। अतएव वह नास्तिक राग भार द्वेषदोनों के द्वारा सल अर्थात् कर्म रूप सैल का संचय करता है। जैसे शिशुनाग (अलसिया) मिट्टी से उत्पन होकर मिट्टी से ही लिपटा रहता है और सूर्य की गर्मी से मिट्टी खूख जाने पर घोर कष्ट पाता है, उसी प्रकार वह नास्तिक जन्म-जन्म में भयं
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कषाय वर्णन कर कष्ट भोगता है। नास्तिक के पतन की यह परम्परा यही समाप्त नहीं हो.जाती। उसे क्रमशः अन्यान्य अनेक दुःस्त्रों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उसका पतन होता ही चला जाता है। उसका दिद्गदर्शन शास्त्रकार स्वयं आगे कराते हैं। मूल:-तो पुट्ठी प्रायंकण, गिलाणो परितप्पड़ ।
पभीश्रो परलोगस्स, कम्माणुप्पेहि अप्पणो ॥२०॥ छोया:-ततः स्पष्ट पातकन, ग्लानः परितप्यते ।
प्रमीतः पर लोकात, कर्मानुप्रचारमनः॥२०॥ शब्दार्थः-तत्पश्चात् असाध्य रोगों से घिरा हुआ वह नास्तिक रोगी बन कर अत्यन्त संताप पाता है-पश्चाताप करता है और अपने कमों को देखकर-अपनी करतूतों का विचार करके परलोक से डरता है।
भाष्यः-पहले नास्तिक की अवस्था का वर्णन करते हुए यह बताया गया है कि वह मध-मांस और महिला में अतीव श्रासक्त बन जाता है। इस प्रकार की श्रासक्ति के मुख्य रूप से दो फल होते है-एक इहलौकिक फल कहलाता है और मृत्यु के पश्चात् होने वाला फल पारलौकिक कहलाता है।
नास्तिक मद्य, मांस एवं स्त्री आदि विषयक घोर आसक्ति से अपने शरीर का सत्यानाश करलेता है, अतएव वह विविध प्रकार की शारीरिक व्याधियों का शिकार बन जाता है। जब वह रुग्म हो जाता है और शरीर को क्षीण एवं दुर्यल बना डालता है, उससे असह्य दुःख भोगता है तब उसका नशा दूर होता है। उस समय उसकी मस्ती उतर जाता है। उसकी बुद्धि ठिकाने पाती है। और तभी उसकी अांखें खुलती हैं ? किन्तु 'फिर पछताये होत का, चिड़ियां चुग गई खेत ।' जय चिड़ियां खेत चुग चुकी तय पछताने से-सिर पटकने से क्या लाभ है उस समय का नास्तिक का पश्चाताप या संताप कुछ भी काम नहीं श्राता। पहले उसने अपनी करतृतों से जो स्थिति खड़ी करली है वह पश्चाताप से नहीं मिट सकती। उसे अनेक शारीरिक पीड़ाएँ सहन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
नास्तिक इधर शारीरिक कष्ट भुगतता है, उधर उसे परलोक का भय बेचैन बना डालता है। वह अपन किये हुए कर्मा का विचार कर करके जब यह सोचता है कि आगे इन फर्मो का फल मुझे भुगतना होगा, तो उसे शारीरिक वेदना के साथ घोर मानसिक वेदना भी सहनी पड़ती है। इस प्रकार दुहरी वेदना से वह छटपटाता है-विकल होता है, पर उसका कोई प्रतीकार रस समय नहीं हो सकता। उन भयाभक दुःस्त्रों को भोगे बिना वह छुटकारा नहीं पा सकता।
मूल:--सुत्रा मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई। ... वालाणं कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥२१॥
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तेरहवां अध्याय
[ ४६४] छाया:-श्रुतानि मया नरकस्थानानि, अशीलानां च या गतिः। ।
बालानां ऋरकर्माणाम् , प्रगाढा यत्र वेदना ॥२१॥ ' शब्दार्थः-अन्त में नास्तिक सोचता है---जहां क्रूर कम करने वाले अज्ञानी जीवों को प्रगाढ़ वेदना होती है, ऐसे कुंभी, वैतरणी आदि नरक के स्थान मैंने सुने हैं और दुराचारियों की जो गति होती है वह भी मैंने सुनी -अर्थात् मैंने सुना है कि दुराचारियों को नरक में जाना पड़ता है और नरक में प्रगाद वेदना होती है।
भाष्यः-जब विविध प्रकार की बीमारियों के कारण नास्तिक का बुद्धि-मद और काय-मद हट जाता है और इन मदों के हट जाने से उसकी इन्द्रियां और मन ठिकाने पाते हैं तब उसे श्रास्तिक गुरुनों द्वारा उपदिष्ट वा स्मरण श्राती हैं । वह सोचने लगता है कि निर्दय होकर नृशंस हिंसा आदि पाप का आचरण करने वाले, शील रहित अज्ञान जीवों की जो दुर्दशा होती है वह मैंने सुनी है । उन्हें नरक में जाना पड़ता है और नरक में अत्यन्त गाढ़ वेदना भोगनी पड़ती है। तात्पर्य यह है कि मैंने शील रहित होकर अनेक क्रूर कर्म किये हैं सो मुझे भी भीषण यातना वाले नरकों में जाना होगा। .. इस प्रकार का विषाद एवं पश्चात्ताप करने वाला वह नास्तिक अत्यन्त दया का पात्र बन जाता है । पर उस समय का पश्चाताप क्या काम आ सकता है ? जैसे छोड़ा हुश्रा तीर अधवीच से लौट कर हाथमें नहीं आ सकता, उसी प्रकार किये हुए 'कर्म विना फल भोगे, सिर्फ पश्चात्ताप करने से दूर नहीं हो सकते। ___ कहा भी है:
मा होहि रे विसनो, जीव ! तुमं विमण दुम्मणो दीणो। ण हु चिंतिएण फिट्टइ, तं दुक्खं जं पुरा रयं । जह पचिसलि पायालं, अडविं व दरिंगुहं समुदं वा ।
पुवकयाउ न चुक्कास, अप्पाणं धायसे जइवि ॥ अर्थात्-हे जीव ! तू उदास, अनमना, दीन और दुःखी मत हो। जो दुःख तूंने पहले उत्पन्न किया द्वै वह चिन्ता करने से मिट नहीं सकता। चाहे तू पाताल में घुस जा, जंगल में छिपजा या किली गुफा में प्रवेश करजा या समुद्र में चलाजा, अथवा भले ही तू आत्मघात करले, पर पूर्वजन्म में उपार्जित किये हुए कर्म के फल से तू बच नहीं सकता। '
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि नास्तिक जीवों का घोर अधःपतन होता है और उन्हें भीषण दुःखों को सहन करना पड़ता है । यहां जिन लोगों का मिथ्याष्टि-- नास्तिक शब्द से उल्लेख किया गया है उन्हें गीता में आसुरी प्रकृति वाले बतलाया है। उनका लक्षण इस प्रकार कहा है:--
अर्थात-" छल-कपट करके दूसरों को धोखा देना, मनमें कुछ हो और ऊपर से कुछ और ही बताकर किसी को उगना, जो गुण अपने में विद्यमान नहीं हैं
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काग वर्णन उनकी विद्यमानता यताना, भीतर से मलिन, पापाचारी होते हुए भी ऊपर से पवित्र और धर्मात्मा होने का ढोंग करना, अपना कलुषित स्वार्थ साधना, यह दंभ है।
अपनी जाति, कुल, मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा, धन, परिवार, सत्ता, ऐश्वर्य, वल, विद्या, बुद्धि, धर्म, रूप श्रादि शरीर की उपाधियों का अभिमान करना और दूसरों का अपमान करना, दूसरों को तुच्छ तथा नीच एवं अस्पृश्य मानना यह दर्प कहलाता है। इसी प्रकार अभिमान करना, क्रोध करना एवं परुपता करना अर्थात् दूसरों के साथ कठोर व्यवहार करना, रुखाई दिखाना, दयापूर्ण व्यवहार न करना, इत्यादि. तथा अज्ञान होना यह सब त्रासुरी प्रकृति के लक्षण हैं। दैवी प्रकृति मोक्ष का कारगड है और श्रासुरी प्रकृति बंध का कारण है।"
श्रासुरी प्रकृति के संबंध में और भी कहा है । " श्रासुरी प्रति के मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते । न उनमें पवित्रता होती है, न प्राचार और सत्य ही रहता है। तात्पर्य यह कि आसुरी प्रकृति के नास्तिक लोग इस बात का कुछ मी विचार नहीं करते कि कौन सी क्रियाएँ प्रवृत्तिरूप हैं और कौन सी निवृत्तिरूप हैं। किस तरह के प्राचरणों से वंधन होता है और किस तरह के प्राचरणों से मोक्ष? कौन से कर्म ( कार्य ) दुरे हैं और कौन से अच्छे ? उनका अन्तःकरण दभ, दर्प. काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्षा, द्वेष, श्रादि विकारों से सदा ग्रसित रहने के कारण मलिन रहता है। वे जगत् को पसंत्य बतलाते हैं, ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । श्रासुरी प्रकृति के नास्तिक लोग केवल प्रत्यक्षवादी होते हैं। अदृष्ट आत्मा अथवा परमात्मा को वे नहीं मानते। उनका मत है कि न कोई भात्मा है, न कोई ईश्वर है, न पुरय है, न पाप है । यह सब झूठी कल्पनाएं हैं । जो कुछ है, स्थूल जगत् ही है। शरीर की उत्पत्ति से पहले कुछ भी नहीं होता और मरने के बाद कुछ शेष नहीं रहता।"
इस प्रकार नास्तिक मिथ्याष्टियों अथवा पारसुरी प्रकृति के लोगों का सर्वत्र वर्णन किया गया है और यह बताया गया है कि उनकी यह दृष्टि या प्रकृति चोर बंध का ही कारण है। इसे भलीभांति समझ कर इसका परित्याग करना, इसे ग्रहणन करना, यही बुद्धिमान पुरुष का परम कर्तव्य है।
नरक-स्थाना का तथा उनमें होने वाली वेदना का विस्तृत वर्णन भागे नरक प्रकरण में किया जायगा। यहां उसका सामान्य उल्लेख ही किया गया है। .. मूल:--सव्वं विलवित्रं गीग्रं, सव्वं नटुं विडंविध!
सब्बे प्राभरणा भारा, सब्वे कामा दुहावहा ॥२२॥ छाया:- पिलपित गीत. सर्व नाध्यं विम्बितम् ।।
सारयामरणानि भासः, सर्व कामा न्वाहाः ॥ २२ ॥ शब्दार्थ:-सारे गीत विलाप के समान, समस्त नाटक-नृप विडम्बना रूप, और अब पाभरण भार रूप प्रतीत होत है। सब प्रकार के कामभोग दुःखदायी जान पड़ते हैं।
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বনী গ্রাথ
भाष्यः-मिथ्यादृष्टि नास्तिक के जीवन का जव सन्ध्याकाल आ पहुंचता है, . जीवन-सूर्य जब अस्तोन्मुख हो जाता है, परलोक प्रयाण की तैयारी हो चुकती है, तब वह अपने कर्मों का विचार करता है और गुरुओं से सुने हुए आगम-प्ररूपित नरक स्थानों का स्मरण करता है तथा परलोक से भयभीत हो जाता है, उसके अन्तः करण की क्या स्थिति होती है ? यह यहां बतलाया गया है।
मिथ्यादृष्टि नास्तिक पहले परलोक से पराङ्मुख होकर नाच-गान में डूबा रहता है, पर अन्त में वही गान उसे विलाप के समान कष्ट कारक प्रतीत होने लगता है। नाटक, तमाशे और खेल-जिनमें पहले वह अत्यन्त श्रानन्द का अनुभव करता था, उसे विडम्बना दिखाई देने लगते हैं। पहले वह आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता था-केवल शरीर की सत्ता ही उसके लिए सब कुछ थी । अतएव वह सद्गुणों द्वारा आत्मा के लौन्दर्य की वृद्धि करने का विचार भी नहीं करता था। माणिजटित सुवर्ण के अलंकारों से शरीर की शोभा बढ़ाना ही उसका एक मात्र लक्ष्य बन गया था। किन्तु जब परलोक जाने का समय आता है तव समस्त आभूषण उसे भार रूप प्रतीत होते हैं।
काम-भोग आदि में सुख रूप जान पड़ते हैं, पर वास्तव में वे दुःख के कारण होने से दुःखमय हैं । नास्तिक पहले उनमें इतना अधिक प्रासक्त रहता है कि उसे अपने हिताहित का यथार्थ आन ही नहीं होता । वह दिन-रात कामभोग के उद्देश्य से ही चेष्टा करता है। उन्हीं में डूबा रहता है । अन्त में आंखें खुलने पर उसे प्रतीत होने लगता है कि सब प्रकार के कामभोग दुःखदायी हैं । इनका परिणाम एक ही जन्म में नहीं, अनेक जन्मों में दुःख रूप ही होता है।
नास्तिक की ऐसी स्थिति का वर्णन यहां इल उद्देश्य से किया गया है कि लोग इसका श्रवण, पठन एवं मनन करके पहले से ही सावधान हो जाएँ । जीवन भर नास्तिकता का सेवन करके, भोगोपभोगों में मस्त रहकर, धर्म-कर्म को बिसार कर पापाचार में लगे रहने से अन्त में चेत आने पर भी कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकता, अतएव परिमत जीवन का प्रति क्षण सत्य, अहिंसा आदि शुभ अनुष्टानों में, धर्म की आराधना में व्यतीत करना चाहिए । यही मानव-जीवन की सार्थकता है धर्माराधन के कारण ही मानव जीवन श्रेष्ठ और प्रशस्त बनता है।
धर्महीन मानव-जीवन, पशु-पक्षियों के जीवन से किंचित् भी श्रेष्ट नहीं है। प्रत्युत उससे भी अधिक अप्रशस्त है । पशु-पक्षियों में योग्यता की न्यूनता होने से चे अधिक पाप का आचरण नहीं कर सकते, किन्तु मनुष्य अधिक शक्तिमान होने से अधिक पाप का संचय करता है । इस प्रकार अधार्मिक जीवन, पशुओं के जीवन से भी निकृष्ट बन जाता है।। . मूलः "जहेह साहो व मियं गहाय,
मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले ।
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[ ५०२ ]
कषाय वर्णन न तस्स माया वपित्रा व भाया,
कालम्मि तम्ममहरा भवंति ॥ २३ ॥ छाया:-यथेद्र सिंह इव मृगं गृहीत्वा, मृत्युनरं नयति हि अन्तकाले । ... न तस्य माता वा पिता चा भ्राता, काले तस्यांशधरा भवन्ति ॥ २३॥ . शब्दार्थ:--जैसे सिंह हिरन को पकड़कर उसका अन्त कर डालता है, उसी प्रकार निश्चित रूप से मृत्यु आयु पूर्ण होने पर मनुष्य को परलोक में ले जाती है । उस समय उस मनुष्य की माता, उसका पिता अथवा भ्राता उसके दुःख में भागीदार नहीं होते।
. भाप्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है । इस जीवन का अन्त अवश्य होता है, यह चात युक्ति या प्रमाण से सिद्ध करना आवश्यक नहीं है । लभी जीवधारी इसका अनुभव करते हैं। कौन नहीं जानता कि जैसे सिंह, हिरन को पकड़ कर तत्काल ही उसे जीवन हीन बना डालता है, उसी प्रकार मृत्यु मनुष्य को परलोक का अतिथि यना डालती है।
मनुष्य अपनी जीवित अवस्था में जो द्रव्य आदि उपार्जन करता है, उसमें माता-पिता का भी भाग रहता है और भाई भी उसके हिस्सेदार रहते हैं । सभी कुटम्बी अपने योग्य हिस्सा लेते हैं । अगर कोई पुरुप अपने कठिन परिश्रम द्वारा उपार्जित, धन-दौलत का हिस्सा भाई आदि को नहीं देता तो भाई न्यायालय के दरवाजे खटम्नटाता है और न्यायालय के द्वारा अपना हिस्सा लेकर संतुष्ट होता है। अगर किली में इतना सामर्थ्य होता है तो वह न्यायालय तक जाने का भी कष्ट नहीं उठाता और स्वयं लड़ाई-झगड़ा करके, मारपीट कर अपना हिस्सा वसूल कर लेता है। ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों उदाहरण अनायास ही देखे जा सकते हैं । इस प्रकार धन-दौलत में भाग बॅटाने के लिए तो वे तैयार रहते हैं, पर जिन पापों का श्रावरण करके धनोपार्जन किया जाता है उन पापों में कोई हिस्सा नहीं लेता। पापों का वह फल अकेले उसी को भोगना पड़ता है। .
अनेक लोग चोरी करके, डाका डाल कर, गांठ काट कर या धन के स्वामी का खून करके, और नाना प्रकार की धोखेबाजी करके धन कमाते हैं । इन कर्मों का फल कमी-कभी इसी लोक में मिल जाता है, क्योंकि कोई-कोई कर्म इस लोक में, कोई परलोक में और कोई भनेक जन्मों के पश्चात् अपना फल देता है। यगडांग में कहा है
अस्ति च लोए अदुवा परस्था, समानो या नह अन्नदा चा। संसारमायल परं परं त, चंति य दुनियाणि ॥
अर्थात-कोई कर्म इसी जन्म में फल देते हैं, कोई दूसरे जन्म में देते हैं । कोई एक जन्म में फल देते हैं, कोई नेकदा जन्मों में देते हैं। कोई कर्म जिस तरह किया जाता है उसी तरह फल देता है, कोई दूसरी तरह से फल देता है। दुराचारी घुगर संसार में भ्रमण करते रहते देशीर ये एक कर्म का फल-दुःख भोगते समय
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तेरहवां अध्याय
[५०३ : फिर आत्तध्यान करके दूसरा कर्म बांधते हैं।
: इस कथन के अनुसार जब चोरी आदि कर्मों का फल कोई इसी जन्म में भोगता है तब भी उसके भाई-बन्धु उसमें भाग नहीं लेते। चोरी या खून करने वाला अकेला ही घोर ताड़ना संदता है, अकेला ही कारावास के कष्ट भोगता है और अकेला ही अपमानित एवं तिरस्कृत होता है । जब इसी लोक में भाई-बन्धु साथ नहीं देते तो वे परलोक में क्या साथ देंगे ? परलोक में साथ देने की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
आयु जब पूर्ण हो जाती है तब जीव को कोई बचा नहीं सकता अगर दूसरे लोग अपनी.श्रायु का कुछ, भाग मरने वाले को प्रदान करदें तो उसे बचाया जा सकता है, पर ऐसा होना असंभव है। श्रायु में आदान-प्रदान नहीं हो सकता। वह भी कर्म का एक फल है और कर्म का फल कर्ता को ही भोगना पड़ता है। ' कत्तारमेव अणुथाइ कम्मे ।' कर्म, कर्ता का ही अंनुगमन करता है। इसी लिए शास्त्रकार कहते हैं--माता-पिता, भ्राता आदि उस समय हिस्सा बंटाने में समर्थ नहीं हो सकते । श्रतएव कुशल पुरुप को कर्म करते समय उसके फल का अवश्य विचार करलेना चाहिए।
एक अवस्था को त्याग कर दूसरी अवस्था धारण करना भरना कहलाता है। अवस्थान्तर को मृत्यु कहते हैं । एक. शरीर को छोड़ना और दूसरे शरीर को प्राप्त , करना जैसे अवस्थान्तर है, उसी प्रकार एक शरीर की विद्यमानता में भी प्रतिक्षणं नूतन अवस्था होती रहती है। इसके अतिरिक्त पूर्ववद्ध प्रायु कर्म के थोड़े-थोड़े अंश प्रति समय जीव भोगता है और भोगे हुए अंशों का क्षय प्रतिक्षण होता रहता है। आयु कर्म का क्षय होने से प्रतिक्षण जीव की मृत्यु होती रहती है। शास्त्रकारों ने मृत्यु के सत्तरहं प्रकार बताये हैं। जैसे- .
(६) श्रावीचिमरण-जन्म लेने के पश्चात् क्षण-क्षण श्रायु की कमी होना-मुक्त . आयु कर्म के दलिकों का क्षय होना । ।
(२) तद्भवमरण-वर्तमान जीवन में प्राप्त शरीर के संयोग का अभाव हो जाना तद्भव मरण है।. ..
(३) अघधिमरण-गत जीवन में जितनी श्रायु बँधी थी, उसके पूर्ण होने पर . मृत्य होना।
(४) अधिन्त मरण-सर्वदेश और एक देश से आयु का क्षीण होना तथा दोनों भवों में एक ही प्रकार की मृत्यु होना।
(५) वाल मरण-सम्यद्गर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना से रहित होकर मरना, अज्ञान-पूर्वक मरना, विष-भक्षण करके, जल में डूब करके, पर्वत से कूद करके या अन्य प्रकार से आत्मघात करके मरना। .
(६) पण्डित मरण-समाधिभावं के साथ, रत्नत्रय की आराधना पूर्वक, सास्य -
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[ ५०४ ]
कषाय वर्णन भाव सहित मृत्यु होना।
(७) श्रासन मरण-संयम से व्युत होकर अथवा व्रत से भ्रष्ट होकर मरना ।
(८' वाल पण्डित मरण-सम्यक्त्व एवं. श्रावक के व्रतों से युक्त होकर किन्तु महाव्रतों से रहित होकर, समाधि के साथ मृत्यु होना।
(E) सशल्य मरण-पर लोक में सुखों की प्राशा रखकर मरना, मिथ्यात्व और मायाचार सहित मरना अर्थात् तीन शल्यों में किसी शल्य के साथ मृत्यु होना ।
(१०) प्रसाद मरण-प्रमाद के अधीन होकर अत्यन्त संकल्प-विकल्प युक्त पाव से जविन का त्याग करना।
(११) वशातमृत्यु-इन्द्रियों के वश होकर, कपाय के वश होकर अथवा वेदना के वश होकर मृत्यु होना।
(१२) विप्रण मरण-संयम, शील, व्रत श्रादि का यथावत् पालन न कर सकने के कारण अपघात करना।
(१३) गृद्धपृष्टमरण-युद्ध में शूरवीरता दिखा कर मरना ।
(१४) भक्तपान मरण प्रत्याख्यान मरण-विधि पूर्वक तीनों प्रकार के आहार का जीवनपर्यन्त परित्याग करके मृत्यु होना।
(१५) इंगित मरण -समाधि मरण धारण करके-संथारा लेकर फिर किसी से सेवा-चाकरी न कराते हुए देह त्याग करना।
(१६) पादोप गमन मरण-आहार का तथा शरीर का यावज्जीवन त्याग करके वृक्ष की भांति स्थिर रह कर-गमनागमन श्रादि क्रियाओं का त्याग करके-प्राण त्याग करना।
(१७) केवलि मरण-केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् देहका पृथक होना।
इन सत्तरह प्रकार की मृत्यु में से कोई भी मृत्यु ऐसी नहीं है, जिसमे कुटुन्यी जन भागीदार बन सकते हो। मूलः-इमं च में अस्थि इमं च नत्थि,
इमं च मे किचमियं अकिचं । तं एवमेवं लालप्यमाणं,
हरा हरति त्ति कहं पमाए ॥२४॥ दाया:-दच मेऽम्ति एवम् च नासित, वंच में कृस्यमिदम हत्यम् ।
नमेवमेवं लालप्यमानं.हरा हरन्तीति कथं समादः ॥ २४ ॥ शब्दार्थ:-यह मेरा है, यह मेरा नहीं है, यह कार्य करने योग्य है और यह करने योग्य नहीं है, इस प्रकार बोलने वाले जीव को रात दिन रूपी चोर हरण कर लेते हैं। ऐसी अवस्था में प्रमाद से किया जा सकता है ? अर्थात प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
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तेरहवां अध्याय
५०५ भाष्यः-जीवन अनित्य है। उसके स्थिर रहने की सामयिक मर्यादा नहीं है। जल का वुवुद किसी भी समय, वायु निकलते ही नष्ट हो जाता है। जीवन भी श्वासोच्छ्वास रूप वायु के भागमन एवं निर्गमन पर निर्भर है । वह भी किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। अनेक प्राणी इसी प्रकार जीवन त्याग कर अचानक चल देते हैं। मनुष्य जीवनकी इस क्षणभंगुरता को भलीभांति जानता है, देख भी रहा है। फिर भी वह अपने जीवन पर विचार नहीं करता । मानों वह अनित्य एवं क्षणविनश्वरता का अपवाद है और उसने जीवित रहने का ठेका ले लिया है।
मनुष्य अपने वर्तमान को देखता है और भविष्य के प्रति एकदम उपेक्षा की वृत्ति से काम लेता है । अगर कभी भविष्य की ओर देखता भी है तो इस दृष्टि से जैसे उसे सदा जीवित ही रहना है-मरने का अवसर उसके सामने उपस्थित ही ज होगा । अतएव वह सोचता है--यह मेस है, यह मेरा नहीं है । अर्थात अमुक वस्तु मेरी है और अमुक मेरी नहीं है। इस प्रकार बाह्य पदार्थों में प्रात्मीयता का आव स्थापित करता है । यह श्रात्मीयता की कल्पना दुःख का मूल कारण है। इसी से अनेक दुःखों की उत्पत्ति होती है।
आत्मा का जीवन पर्यन्त साथ देने वाला शरीर भी जब आत्मा का अपना नहीं है-पराया है तो अन्य वस्तुएँ प्रात्मा की कैसे हो सकती हैं ?
कहा भी है-एकः सदा शाश्वति को ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः ।
बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः॥ .. अर्थात्-सेरा आत्मा अकेला है, अजर-अमर अविनाशी है, स्वभावतः निर्मल है, चेतनामय है । दूसरे समस्त पदार्थ प्रात्मा से भिन्न-बाहर हैं । वे नाशशील हैं और कर्मोदय से प्राप्त हुए हैं, इस कारण आत्मा के अपने नहीं हो सकते । तथायस्यास्ति नैक्य वपुषाऽपि सार्द्ध,
___ तस्यास्ति किं पुत्र कलत्र मिः ११ पुथक्कृते चमणि रोम कूपाः, .
कुलो हि.तिष्ठन्ति शरीर मध्येः ।। अर्थात-जिस आत्मा की शरीर के साथ भी एकता नहीं है यानी जो आत्मा जीवन पर्यन्त शरीर के साथ रहने पर भी शरीर से सर्वथा निराला है, उसकी पुत्र, मिन और पत्नी आदि प्रत्यक्ष से भिन्न दिखाई देने वाले पदार्थों के साथ एकता कैसे हो सकती है ? चमड़ी अगर हटा दी जाय तो शरीर में रोम कैसे रह सकते हैं १ . अर्थात् शरीर के साथ रोमों का संबंध चमड़ी के द्वारा होता है, अतएव चमड़ी शरीर हट जाने पर रोम स्वतः हट जाते हैं । इसी प्रकार पुत्र, कलत्र आदि के साथ . जो संबंध है वह शरीर के निमित्त से है। जव शरीर ही श्रात्मा से भिन्न है तो पुत्र मादि अभिन्न कैसे हो सकते हैं ?
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। २०६ ।
कषाय वर्णन - इस प्रकार संसार के समस्त पदार्थ श्रात्मा से भिन्न हैं, फिर भी मनुष्य उन्हें अपना समझता है। इसी प्रकार दूसरे पदार्थो को परकीय समझता है-अर्थात् वह कुछ पदार्थों पर राग भाव करता है और कुछ एर द्वेष का भाव धारण करता है। अथवा वस्तुतः वे पदार्थ दूसरी श्रात्मा के नहीं हैं फिर भी उन्हें उनके समझता है । इस मिथ्या समझ के कारण जव कर्म-जन्य पदार्थों का संयोग होता है तो इष्ट संयोग होने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है और अनिष्ट संयोग होने पर दुःख का अनु. भव करता है। इसी प्रकार उनके वियोग में दुःख-सुख की कल्पना करता है।
इन कल्पनाओं के जाल में फंसकर जीव अपनी वास्तविकता को तो भूल जाता है। यह कार्य मुझे कल करना है' 'अमुक काम अमुक समय करना हैं' 'यह मुझे नहीं करना है' इत्यादि संकल्प विकल्पों में ही पड़ा रहता है।
इन संकल्प-विकल्पों का कहीं अन्त होता तबतो गनीमत थी, पर उनका कहीं और कभी अन्त नहीं प्राता। एक संकल्प पुण्योदय से शागर पूर्ण हो जाता है तो अन्य अनेक संकल्प नवीन उत्पन्न हो जाते हैं। फिर वे सब पूर्ण भी नहीं हो पाते कि नवीन-नवीन फिर उत्पन्न होते रहते हैं। इस प्रकार संकल्पों की अनवस्था जीवन को कभी निश्चिन्त नहीं होने देती।
घर तो मनुष्य संकल्पों को पूर्ण करने की चेष्टा में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है, उधर रात और दिन रूपी चोर बहु मूल्य जीवन के भाग सदैव हरण करते रहते हैं। वे प्रतिपल श्रायु का कुछ भाग हरलेते हैं। एक और संकल्प-विकल्पों की पूर्ति का प्रयत्न चाल रहता है और दूसरी ओर काल की क्रिया निरन्तर जारी रहती है। परिमित आयु का अन्त श्रा जाता है, पर अपरिमित संकल्पों की समाप्ति नहीं होने पाती। अन्त में प्राणी इन संल्प-विकल्पों के साथ ही परलोक की ओर प्रयाण कर देता है।
मृत्यु यह नहीं सोचती कि इसके संकल्प पूर्ण हो गये हैं या नहीं? वह तो पाती है और जीवन-धन का हरण करके तत्काल नाम शेष कर जाती है। ऐसी अव. स्था में कोई भी ज्ञानवान पुरुष प्रमाद में जीवन कसे यापन कर सकता है ? जानी पुरुप अपने जीवन का काल यात्मा के श्रेयस् के लिए अर्पण करता है। वह चाहा उपाधियों से अलग होकर-परकीय पदार्थों को अपना न मानता हुशा, सिर्फ अपने को (शात्मा को ही अपना समझता है और उसीके शाश्वत्त कल्याण में निरन्तर निरत रहता है। ऐसे पुरुष अप्रमत्त होकर, निष्कपाय होकर, देह से सदा के लिए मस्त होते हैं, सिर होते हैं । वही महापुरुष अनुकरणीय हैं।
निर्गन्ध-प्रवचन-तेरहवां अध्याय समाप्त
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * निन्ध- प्रवचन
॥ चौदहवां अध्याय ।।
वैराग्य सम्बोधन
भगवान् श्री ऋषभ-उवाचमूलः-संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा ।
यो एवणमति राइनो, नो सुलभं पुणरावि जीवियं १ छाया:-सबुध्यध्वं किं न वुध्यध्वं, सम्बोधिः खलु प्रेत्य दुलभा ।
नो खलूपनमन्ति रात्रयः, नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥ ३॥ शब्दार्थः-भव्यों ! सधर्म का स्वरूप समझो। तुम समझते क्यों नहीं हो ? मृत्यु के पश्चात बोध प्राप्त होना दुर्लभ है। बीती हुई रात्रि फिर लौट कर नहीं आती और पुनः मानव जीवन की प्राप्ति सुलभ नहीं है।
भाष्य:-पिछले अध्ययन में कषाय का वर्णन किया गया है और उससे मुक्त होने की प्रेरणा की गई है। किन्तु जब तक हृदय में सांसारिक पदार्थों के प्रति तीव्र अनुगंग विद्यमान रहता है तव तक कषाय से मुक्ति होना संभव नहीं है । अन्तस्करण में विराग-भावना का जन्म होने पर कषाय क्षीण होने लगता हैं । अतएव कषायअध्ययन के अनन्तर वैराग्य-सम्बोधन नामक अध्ययन कहा है।
इस अध्ययन में, अन्य अध्ययनों की अपेक्षा एक विशेष बात यह है कि अन्य श्रध्ययन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उपदेश रूप में है और प्रकृत अध्ययन श्रादि तीर्थकर भगवान श्री ऋषभदेव के सदुपदेश से प्रारम्भ हुश्रा है।
भगवान् ऋषभदेव जव निर्ग्रन्थ दीक्षा से दीक्षित हो गये, तब उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत ने सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करना प्रारम्भ किया । भगवान् ऋषभदेव ने अपने सब पुत्रों को राज्य बांट दिया था, पर भरत उन सब को अपने अधीन बनाना चाहते थे । इस प्रकार महाराज भरत द्वारा सताये जाने पर उन्होंने भगवान श्री ऋषभदेव के समीप जाकर कहा-'प्रभो । भरत हमें अपने अधीन करना चाहते हैं। वह यह चाहते हैं कि इस सब उनकी श्राजा का पालन करें। इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए ? भगचान ने उन्हें जो उपदेश उस समय दिया था, उसी का यहां उल्लेख किया गया है।
· भगवान ऋषभदेव कहने लगे-हे भव्यों ! तुम लोग बोध प्राप्त करो अर्थात्
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। ५०८
वैराग्य सम्बोधन सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप धर्म का यथार्थ स्वरूप समझो, क्योंकि इस प्रकार का उत्तम अवसर फिर मिलना कठिन है। पहले बतलाया जा चुका है कि मनुष्या जन्म कितना दुर्लभ है। मनुष्य जन्म का लाभ हो जाने पर भी कर्मभूमि, आर्य देश सुकुल में उत्पति, इन्द्रियों की परिपूर्णता और धर्म श्रवण, श्रद्धा का होना आदि उत्त रोत्तर दुर्लभ हैं। अतिशय पुण्य के प्रताप से जब यह सब सामग्री प्राप्त हो गई है तो बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? इस श्रपूर्व अवसर को पाकर बोध-लाभ करना ही चाहिए। कहा भी हैनिर्वाणादिसुखप्रद नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते,
लव्धे स्वल्पमचारु कामजसुत्रं नो सेवितुं युज्यते। वैर्यादिमहोपलोधनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे,
त्मातु स्वल्पमदीप्ति काचशकलं किं साम्प्रतं साम्प्रतम् ?" ' अर्थात्-जिनेन्द्र भगवान् के धर्म से युक्त इस मानव भव को पा करके तुच्छ तथा नीरस कामभोगों का सेवन करना उचित नहीं है। वैडूर्य आदि मणियों से युक्तः समुद्र मिल जाने पर भी पिना चमक का-तुच्छ कांच का टुकड़ा लाना क्या उचित कहा जा सकता है ? यानी जिस प्रकार वैडूर्य आदि मणियों को छोड़कर कांच का टुकड़ा ग्रहण करना उचित नहीं है उसी प्रकार जिनधर्म का सेवन न करके विषयभोगों का सेवन करना भी उचित नहीं है।
इस स्वर्ण--अवसर को जो यों ही बिता देते हैं अथवा जो जीव यह सोचते हैं कि-चलो अभी तो संसार के सुख भोग ले, फिर वृद्ध अवस्था आने पर धर्म की साधना कर लेंगे, उनका प्रमाद दूर करने के लिए कहा गया है-जो समय व्यतीत हो जाता है वह लौटकर नहीं श्राता । श्रायु प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है। यदि यह आयु समाप्त हो गई और धर्म का आचरण न किया तो रखनय की प्राप्ति होना अविष्य में अत्यन्त कठिन है। जो लोग धर्माचरण से भ्रष्ट होते हैं वे अनन्त काल: तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।
तात्पर्य यह है कि अनन्त श्रात्मिक सुख की प्राप्ति करने के लिए मनुष्य भव ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। पुण्य के योग से यह साधन मिलगया है। ऐसी स्थिति में इस सुयोग का सदुपयोग करो । एक बार अगर यह अवसर हाथ से चला गया तो अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करना पड़ेगा और जन्म-मरण आदि की प्रबल वेदनाएँ सहन करनी पड़ेगी । एक बार मनुष्य पर्याय का क्षय हो जाने के पश्चात दूसरी बार उसकी प्राप्ति होना कितना कठिन है, यह बात समझाने के लिए शास्त्र कारोंने दस प्रान्तो की योजना की है। इन दृष्टान्तों से स्थूल बुद्धि वाले भी मानवजीवन की दुर्लभता की कल्पना कर सकते हैं। यह स्टान्त इस प्रकार है--
विप्रः माधितवान् प्रसन्नमनसः श्रीब्रह्मदत्तात पुरा। जेऽस्मिन् भरते ऽनिले प्रतिगृहं में भोजनं दापय ।।
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चौदहवा अध्याय
इत्थं लब्धवरोऽथ तेष्वपि कदाप्यश्नात्यही द्विः सचेदू,
श्रष्टो मयंभवात्तथाप्यसुझती सूत्तमाप्नोति ना ॥१॥ अर्थात् किली दरिद्र ब्राह्मण पर चक्रवर्ती राजा ब्रह्मदत्त प्रसन्न होगए। उन्होंने उससे मन चाहा वर मांगने की स्वीकृति दे दी । ब्राह्मण ने कहा- मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके राज्य में सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में प्रतिदिन एक घरमें मुझे भोजन करादिया जाय जव लच घरों में भोजन करलुंगा तो दूसरी बार भोजन करना प्रारंभ करूंगा' इस प्रकार जीमते-जीसते लस्पूर्ण भरतक्षेत्र के घरों में जीम चुकने पर दूसरी चार वारी पाना बहुत ही कठिन है। वह सारे जीवन में एक-एक बार भी सब घर में नहीं जीम पाएगा। किन्तु संभव है, दैवयोग से कदाचित दूसरी बार बारी श्राजाय, पर प्राप्त हुए मनुष्य भव को जो व्यक्ति वृथा व्यतीत कर देता है उसे फिर मनुष्य भव प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। . स्तम्मान हि सदनमष्ट सहित प्रत्येक मष्टोत्तरं,
कोणानां शतमेषु तानपि जयत् तेऽथ तत्संख्यया: साम्राज्यं जनकात्लुतः स लभते ख्यालेदिदं दुर्घटम् ,
- अष्टो मर्यभवात्तथाप्यसुकृती भूपस्तमाप्नोलि २n अर्थात्-एक लौ पाठ कोने वाले एक हजार पाउ स्तम्भों को, जुए में एक भी बार बिना हारे भले ही एकसौ आठ बार जीत ले-और इस प्रकार पुत्र अपने पिता से साम्राज्य प्राप्त कर ले-अर्थात् यह अघट घटना भले ही घट जास, पर मनुष्य भव को एक बार वृथा व्यतीत कर देने वाले पुरुष को फिर मनुष्य भर की प्राप्ति होना कठिन है। वृद्धा काउपि पुरा समस्तभरतक्षेत्रस्थ धान्यावलि। .
पिण्डीकृत्य च तत्र सर्षपकरणात् क्षिप्वाद केनोन्मितान! . . . प्रत्येक हि पृथक्करोति किल ला सर्वाणि चालानि चेद। . .
भ्रष्टो मर्त्यभवात्त थान्यसुकृति भूयस्तमाप्नोति न ॥ ३ ॥ अर्थात् सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के गेहूँ, जौ, मक्की, चना नादि सब धान्यों को एक जगह इकट्ठा किया जाय और उस एकनित ढेर में थोड़े से सरसों के दाने डाल दिये जाएं और अच्छी तरह उन्हें हिला दिया जाय । फिर एक क्षीण नेन-ज्योति वाली वृद्धा से कहा जाय कि इस ढेर में से सरलों बीच-बीन कर अलग करदे । वह वृद्धा ऐसे करने में समर्थ नहीं हो सकती। किन्तु किसी प्रकार अदृष्ट दिव्य शक्निक . द्धारा वह ऐसा करने में समर्थ हो भी जाय, तब भी मनुष्य भव पाकर पुण्योपार्जन न्ह करने वाले को पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति होना इससे भी अधिक कठिन है।।
(४) एक धनी सेठ के पास बहुत से रत्न थे । एक बार वह परदेश चला गया और पीछे से उसके पुत्रों ने उसके बहुमूल्य रत्न, बहुत थोड़े मूल्य में बेच डाले। रत्न खरीदने वाले वणिक विभिन्न दिशाओं में, अपने-अपने देश चले गये। सेठ पर'देश से लौटा अपने पुत्रों की करतूत जानकर क्रुध हुआ। उसने अपने पुत्रों को आशा
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. .वैराग्य सम्बोधन दी-जानो, और वे सव रत्न वापिस ले श्राश्रो। सब पुत्र घर से निकले और इधरउधर घूमने लगे। क्या चे लमस्त रत्ल वापिस ला सकते हैं ? नहीं। तथापि देवयोग से कदाचित् वे इस कठिन कार्य में सफलता प्राप्त कर सकें किन्तु मनुष्य भर पाकर पुण्यापार्जन न करने वाले को पुनः मनुष्य भक्-प्राप्त होना इससे भी अधिक कठिन है।
५) एक भिखारी को राशि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न पाया कि उसने पूर्णः भासी का चन्द्रमा निगल लिया है। उसने अपने स्वप्न का हाल अन्य भिखारियों से कहा। भिखारियों ने स्वप्न का फल प्रकट करते हुए कहा-तुमने पूर्ण चन्द्रमा स्वपन में देखा है, इस लिए आज तुम्हें उसी प्रकार का पूरा रोट भिक्षा में मिलेगा। भिखारी को उस दिन सचमुच एक रोट मिल गया । उसी रात्रि में, उसी ग्राम में एक क्षत्रिय ने भी ऐसा ही स्वप्न देस्त्रा ! उसने स्वप्न शास्त्रियों के पास जाकर स्वप्न का फल पूछा । स्वप्न शानियों ने फल बताया-तुम्हें सम्पूर्ण राज्य की प्राप्ति होगी । संयोगवश उसी दिन उस ग्राम के राजा का देहान्त हो गया। वह निस्संतान था। प्राचीन काल की प्रथा के अनुसार, खूड में फूलमाला दे कर हथिनी छोड़ीगई । वह जिसके गले में माला डाल दे, वही राज्य का स्वामी बनाया जाय। इथिनी फूलमाला लिये घूमती हुई उसी राजपूत के पास आई और उसके गले में माला डाल दी। परपरा के अनुसार वह राजा सनाया गया।
जव स्वप्न में पूर्ण चन्द्र देखने वाले भिखारी को वह हाल मालूम हुआ तो वद्द, सोचने लगा-जो स्वप्न राजपूत ने देखा था । वही मैंने भी देखा था । उसे राज्य मिला और मुझे सिर्फ एक रोट । मैं अब फिर सोता है. और फिर पूर्ण चन्द्रमा का स्वप्न देख कर राज्य प्राप्त करूंगा । ' क्या मिलुक फिर वह स्वप्न देखकर राज्य प्राप्त कर सकता है ? बहुत ही कठिन है, पर एक बार मनुष्य जीवन व्यर्थ विता देने पर नर भव का लाभ पुनः होना उससे भी कठिन है।
मथरा के राजा जितशत्रु की एक पुत्री धी । राजा ने उसका स्वयंवर दिया। उसमें काठ की एक पुतली बनाई। पुतली के नीचे शाह चक्र लगाय । चक्र मिर घमते रहते थे । पुतली के नीचे तेल से भरी हुई एक कड़ाही रफ्ती गई। राजा ने यह घोषणा की कि तेल में पटने वाली पुतली की परछाई को देखकर बाट चमो के बीच फिरती हुई पुतली की याद आंख यही टीकी को बाण द्वारा वेधने वाले राजकुमार को मेरी कन्या व्याही जाएगी। स्वयंवर में सम्मिलित हुए समस्त राजा और राजकुमार पन्जा करने में असमर्थ रहे। अतएव दिस प्रकार उस पुतली सवाम नेत्रहीटीकी को धना कटिन है, उसी प्रकार वृथा व्यतीत किये एप मानक भय को पुनः माह करना दुर्लभ है।
{) एक पहा सरोवर था। उस पर काई छाई हुई थी। पर बीच में छोटा साट्रिया-हकार नहीं थी। सौ वर्ष बीत जाने पर क द इतना घाँदा
मानाशाह उसमें पाप की गर्दन समा मकती थी । एक. या खेद जय चौहा सातो एक काधा ने उसमें अपनी गर्दन ढाली मीर उ.पर की पोर जोष्टि की
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चौदहवां अध्याय तो उसे शरद-पूर्णिमा के चन्द्र का दर्शन हुआ । उसके लिए वह दृश्य अपूर्व था। अतः अपने कुटुम्ब के व्यक्कियों को चन्द्र दिखलाने की इच्छा से उसने पानी में डुबकी लगाई । जब वह उन्हें साथ लेकर आया तब तक छेद बंद हो गया था । अब दूसरी बार चन्द्र-दर्शन होना बहुत कठिन है । कदाचित् दैवीशति की सहायता से कछुए को ऐसा अवसर फिर मिल जाय, किन्तु मनुष्य भव पाकर पुण्योपार्जन न करने वाले को पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है।
(८) स्वयंभूरमण समुद्र के एक किनारे गाड़ी का युग (जूबा) डाल दिया जाय और किनारे पर समिला (कील ! डाल दी जाय, दोनों समुद्र की तरंगों में इधरउधर भटकते-सटकते मिल जाएँ और वह कील जूए, के छेद में घुस जाय । यह 'घटना अत्यन्त कठिन है । इसी प्रकार मानव भव की पुनः प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। .
(8) जिस प्रकार देवाधिष्ठित पाशों से खेलने वाले पुरुष को सामान्य पाशी से खेल कर दुगना अत्यन्त कठिन है, उली प्रकार मनुष्य भव पाकर विशिष्ट पुण्य उपार्जन न करने वाले को पुनः मानव पर्याय की प्राप्ति होना कठिन है ।
(१०) एक विशाल स्तम्भ के टुकड़े-टुकड़े इतने सूक्ष्म हुकसे जिनके फिर टुकड़े न हो सके-करके कोई देव एक नली में भर ले और सुमेरु पर्वत की चोटी पर जाकर, जोर से फूंक मार कर उन तमाम टुकड़े (अणुओं) को हवा में उड़ा देवे। क्या कोई पुरुष उन समस्त अणुओं को इकट्ठा करके, फिर उस स्तम्भ की रचना कर सकता है ? अत्यन्त कठिन है। पर कदाचित् दैवी शक्ति से ऐला हो सकता है, किन्तु मनुष्य भव पाकर उसे वृथा गँवा देने वाले को मनुष्य भव की प्राप्ति होना उससे भी अधिक कठिन है।
' इन दस दृष्टान्तों से मनुष्य भव की दुर्लभता की कल्पना की जा सकती है । वास्तव में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति होना अतिशय पुण्य का फल है। जिसे इस पुण्य के संयोग से यह भव प्राप्त हो गया है, उन्हे इसका वास्तविक मूल्य और महत्त्व अंकित करना चाहिए एवं उससे अधिक से अधिक लाभ उठाने की चेष्टा करनी चाहिए । तुच्छ कामभोगों में उसे व्यतीत कर देना घोर अविवेक है। एक बार जर
बह व्यतीत हो जाता है तो दूसरी बार मिलना सरल नहीं है । अतएव मनुष्य भव .. पाकर धर्म के आचरण द्वारा आत्मकल्याण करना विवेकी पुरुषों का परम कर्तव्य है। . मूलः-डहरा बुड्ढा य पासह, गम्भत्था वि चयति मागवा ।
सेणे जह वट्टयं हरे, एवमाउखयम्मि तुट्टई ॥२॥ छायाः-दहरा बृद्दाश्च पश्यत, गर्भस्था अपि चयन्ति मानवाः ।
श्येनो यथा वर्तिका, हरदेवमायुः क्षये त्रुट्यति ॥ २॥ शब्दार्थः-श्री ऋषभदेव अपने पुत्रों से कहते हैं-बालक, वृद्ध और यहां तक कि
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वैराग्य सम्बोधन गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को त्याग देते हैं, इस सत्य को देखो । जैसे बाज पक्षी तीतर को मार डालता है, उसी प्रकार श्रायु का क्षय होने पर मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है।
भाध्या-अनन्तर गाथा में मनुष्य भव की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया था। यहां प्राप्त हुशा मनुष्य जीवन भी चिरस्थायी एवं नियत समय तक स्थिर रहने बाला नहीं है, यह बतलाया जा रहा है।
शानेक मनुष्य विषयभागों में आसक्त होकर यह विचार करते हैं कि अभी यौवन अवस्था में संसार सम्बन्धी सुखों का शास्वादन करलें, फिर इच्छाएँ जर. शान्त हो लेंगी तब धर्म का श्राचरण करेंगे। ऐले मनुष्यों को समझाने के लिए भगवान् कहते हैं-मनुष्यों की उत्कृष्ट अायु यद्यपि तीन पल्य की है, फिर भी तीन पल्य तक जीवन टिकना निश्चित नहीं है। अनेक मनुष्य बाल्यकाल में ही प्राण त्याग देते हैं। अनेक वृद्धावस्था तक पहुंचते हैं तो अनेक ऐसे भी हैं जो गर्भ में आकर एक मुहर्त पूर्ण होने से पहले ही चल बसते हैं। वह शव प्रत्यक्ष से देखो-लोक में सदैव इस प्रकार की मृत्यु-घटनाएँ घटती रहती हैं।
जब यह निश्चित है कि जीवन का कुछ भी ठिकाना नहीं है, कल तक जीवित रहने का भी भरोसा नहीं किया जा सकता तो वृद्धावस्था की राह देख कर बैठ रहना बुद्धिमत्ता नहीं है। जैसे वाज पक्षी तितर पर अचानक सपट कर उसके प्राणों का तत्काल अन्त कर देता है, उसी प्रकार मृत्यु भी क्षण मनुष्य के जीवन पर आझमण करके प्राणों का अन्त कर देती है । अतः बुद्धिमान् पुरुष को अमूल्य मानव भर माकर, एक भी क्षण का प्रमाद न करते हुए शीत ही श्रात्महित में संलग्न होना चाहिए। मूलः-मायाहिं पियाहिं लुप्पड़, नो सुलहा सुगई य पेच्चो ।
एयाई भयाई पेहिया, प्रारंभा विर मेज सुव्वए ॥३॥ हाय!:-मामि पितृभिलप्यते, गो सुनमा सुगनिधीत्व ।।
प्रतानि भयानि मेघय, यारन्माद विरमेन् मुमतः ।।३।। शब्दार्थ:--कोई-कोई माता पिता आदि स्वजनों के स्नेह में पड़कर संसार में भ्रमराह जापरलोक में मुगति की प्राप्ति होना सरल नहीं है। नुव्रत पुरुप इन भयों का विचार कर के प्रारम्भ से निवृत्त हो जाय।
सारासायी अनित्यता का निरूपण कर यहां यह बताया गया है कि पसिमित मायु वि.स प्रकार व्यर्थ चली जाती है और वियेकी पुरुषों का कर्तव्य क्या है?
सामाविद यहां उपलक्षम हैं। इन शब्दों से यहां भ्राता, पुल, पनी शादि-आदिमानों तथा अन्य स्नेहीजनों का प्रहार करना चाहिर । तात्पर्य यह है कि मनुष्य स्वजनीक कद-जाल में ऐसे फल रहते हैं कि उन्हें चपन उदार
नकलव्य की पूनं करने का अवसर ही नहीं मिल पाता। स्नेट, मोर या
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चौदहवां अध्याय
[ ५१३ ममता के बंधन में जकड़े हुए लोग कर्तव्य पूर्ति के लिए तनिक भी चेष्टां नहीं कर पाते । अन्ततः वही स्नेह आगामी भव में भी उनकी दुर्गति का कारण होता है।
' इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी दुर्गति-गमन आदि भय के कारणों पर विचार करके विवेक-विभूषित व्यक्ति को सावद्य अनुष्ठान रूप आरंभ से निवृत्त होना चाहिए और वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट अहिंसा श्रादि सुव्रतों का आचरण करना चाहिए।
___ कुछ श्रज्ञान पुरुष इस प्रकार के उपदेश से यह तात्पर्य निकाल लेते हैं कि पुत्र को माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा नहीं करनी चाहिए। अगर कोई पुरुष उनकी सेवा करता है तो वह एकान्त पाप है । संसार से सब प्रकार का नाता तोड़ लेने वाले, अध्यात्म की साधना में लगे हुए और जगत् के प्राणी मात्र पर समान भाव स्थापित कर चुकने वाले महात्माओं के लिए यह कह जाय तो संगत हो सकता है, पर यह बात जब गृहस्थ के लिए भी कही जाती है तो विचारणीय बन जाती है। पुत्र पर माता-पिता का अलीम उपकार है । परमोत्तम मानव-जीवन की प्राप्ति में वे निमित्त हैं। अनेक कष्ट उठाकर वे पुत्रका परिपालन करते हैं। कुसंगति से बचाकर सत्संगति का अवसर प्रदान करते हैं। पुत्र में जो बुद्धिबल हैं, प्रतिमा का वैभव है, भलाई-बुराई को समझने के विवेक की क्षमता है वह प्रायः माता-पिता की ही कृपा का फल है। इसी कारण शास्त्रकारों ने माता-पिता के उपकार की गुरुता का वर्णन करते हुए कहा है'कोई 'कुलीन पुरुष प्रतिदिन प्रातःकाल होते ही शतपाक, सहस्रपाक जैसे तैलों से माता-पिता के शरीर की मालिश करे । मालिश करके सुगंधित द्रव्यों से उबटन करे। उचटन करके उन्हें सुगंधित एवं शीतोष्ण जल से स्नान करावे । तत्पश्चात् सभी अलं. कारों से उनके शरीर को अलंकृत करे । वस्त्रों एवं आभूषणों से अलंकृत करके मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यंजनों सहित भोजन करावे और इसके पश्चात् उन्हें अपने कंधों पर बैठा कर फिरे जीवन पर्यन्त ऐसा करने पर भी पुत्र माता-पिता के महान् उपकार से . उऋण नहीं हो सकता।
इतनी प्रवल चेष्टाएँ करते रहने पर भी जिन माता-पिता के उपकार से उऋण नहीं हो सकते, उनकी सेवा करने वाले पुत्र को एकान्त पापी बतलाना घोर अज्ञान का परिणाम है।
श्रागम के अनुसार पुत्र यदि केवली भगवान् द्वारा निरूपित धर्म का कथन करके, उसका बोध देकर माता-पिता को धर्म में दीक्षित करदे तो वह माता-पिता के परम उपकार का बदला चुका सकता है।
वास्तव में अवस्था-भेद से मनुष्य के कर्त्तव्य में भी भिन्नता आ जाती है। गृहस्थ के लिए जो परम कर्तव्य है, वह साधु के लिए अकर्तव्य हो सकता है और साधु का प्रत्येक कर्तव्य गृहस्थ के लिए अनिवार्य नहीं है । गृहस्थावस्था और मुनिअवस्था भिन्न-भिन्न हैं और दोनों के कर्तव्य कार्यों का केवली भगवान ने पृथक-पृथक निरूपण किया है। जो भाग्यशाली महापुरुष संसार को त्याग देते हैं, महाव्रतों को
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[ ५१४ ।
वैराग्य सम्वोधन अंगीकार करके विचरते हैं और जिन्होंने शरीर में रहते हुए भी शरीर संबंधी ममत्व का त्याग कर दिया है, वे अन्य कुटुम्बियों में ममता कैसे धारण कर सकते हैं ? के संसार से परे पहुंच चुके हैं। उनके लिए शत्रु, मित्र, पिता, पुत्र, माता और पत्नीसब समान हैं। उनकी किसी भी प्राणी के साथ कोई भी विशेष नातेदारी नहीं है । उन पर कुटुम्ब परिवार का कुछ भी उत्तरदायित्व नहीं है ।
क्या यही सब विधि-विधान गृहस्थ को लागू किये जा सकते हैं ? जो गृहस्थ सांसारिक व्यवहारों में प्रवृत्ति कर रहा हैं, अनेक प्रकार के प्रारंभ-समारंभ करके धनोपार्जन करता है, अपने लिए भवनों का निर्माण करता है, सन्तानोत्पत्ति करता है, क्या वह भी कुटुम्ब के उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकता है ? उसके लिए माता पिता की सेवा करना एकान्त पाप कहा जा सकता है ? कदापि नहीं । इस प्रकार का विधान करना अज्ञान की चरम सीमा है ।
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यह श्राशंका की जा सकती हैं कि यदि गृहस्थ के लिए माता-पिता की सेवा करना एकान्तं पाप नहीं है तो 'मायाहिं पियाहि लुप्पद्द' यह वाक्य भगवान् ने क्यों कहा है ? इसका समाधान स्पष्ट है । भगवान् ऋषभदेव अपने पुत्रों को मुनित्रत धारण करने का उपदेश दे रहे हैं और इसी कारण श्रारंभा विरमेज सुब्धए ' इन शब्दों का भी प्रयोग किया है अर्थात् ' सुवती पुरुष प्रारंभ से निवृत्त हो जाय ।' इस प्रकार मुनि वृत्ति के उपदेश में, इस प्रकार का कथन वाधक नहीं है । इस उपदेश से यह नहीं सिद्ध होता कि गृहस्थ माता-पिता की सेवा न करे । जो सब प्रकार के आरंभ से निवृत्त होगा-मुनि होगा - उसके लिए उनकी सेवा करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है।
अतएव स्नेह रूप बंधन को जन्म-जन्मान्तरों में अनेकानेक कष्टों का कारण. समझ कर - संसार भ्रमण रूप भय का विचार करके प्रारम्भ अर्थात् सावध क्रिया से निवृत्त हो जाना चाहिए। जो आरम्भ से निवृत्त होता है वही सुनती हो सकता है । गृहस्थी छोड़ देने पर भी जो अनेक प्रकार के प्रारम्भ में अनुरक्त रहते हैं, व सुमती नहीं कहलाते ।
मूल:- जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइ, यो तस्स मुचेजsपुयं ॥४॥
दायाः- यदिदं जगति पृथगू जगत्, कर्मभिः लुप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृतगीते, न तस्य मुच्येत् अस्पृष्टः ॥ २ ॥
शब्दार्थ:--संसार में अलग-अलग निवास करने वाले प्राणी अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिए नरक आदि यातना के स्थानों में जाते हैं। वे अपने कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं पाते ।
माया- जो माथी हिंसा आदि पाप कर्मों से विरत नहीं होते, उनकी का
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चौदहवां अध्याय यहां निरूपण किया गया है। सावध कर्मों में रत रहने वाले वे जीव अपने-अपने अनुष्ठानों के अनुरुप नरक आदि अशुभ गतियों में भ्रमण करते हैं । उनके किये हुए कर्म ही उन्हें ऐसे स्थानों में ले जाते हैं, ईश्वर श्रादि कोइ भिन्न व्यक्ति उन्हें कष्टकर स्थानों में नहीं पहुंचाता । इसके अतिरिक्त, कर्मोपार्जन करने वाला व्यक्ति, उन कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकता।
मनुष्य प्राणी अपनी अनादि-अनन्त सत्ता को जानता हुश्रा भी व्यवहार म उस्ले शाखीकार-ला करता है। अस्वीकार का तात्पर्य यह है कि व्यवहार में उस स्वीकृति के अनुसार नहीं चलता। उसकी दृष्टि भूत और भविष्य से हटकर केवल क्षुद्र वर्तमान तक सीमित रहती है। वह वर्तमान के लाभालाभ की तराजू पर ही अपन कत्र्तव्य-श्रकर्तव्य को तोलता है । भविष्य में चाहे जो हो, जिस कार्य से वर्तमान में लाभ दिखाई देता है, वहीं कार्य उसे प्रिय लगता है । उसे भविष्य की कुछ भी चिंता नहीं रहती, मानो भविष्य के साथ उसे कोई सरोकार नहीं है। इस संकीर्ण भावना से प्रेरित होकर मनुष्य भविष्य की ओर से निरपेक्ष बन जाता है । अपने भविष्य को सुधारने की ओर लक्ष्य नहीं देता।
.. ऐसे जीवों को यहां सावधान किया गया है। उन्हें समझाया गया है कि वर्तमान तक ही दृष्टि न दौड़ाओ। वर्तमान तो शीघ्र ही 'भूत' बन जायगा । श्राज का जो भविष्य है, वही कल वर्तमान बनेगा और उसी के साथ तुम्हें निबटना पड़ेगा। अतएव उस आगामी वर्तमान को विस्मरण न करो। जो लोग उसे विस्मरण करते हैं उन्हें विभिन्न प्रकार के नरक आदि यातनाओं से परिपूर्ण स्थानों का अतिथि बनना पड़ता है।
जगत् में नाना प्रकार के जो दुःख दिखाई देते हैं, उनका मूल कारण दुःख भोगने वाला स्वयमेव है। जहां बीज पड़ता है वहीं अंकुर उगता है, इसी प्रकार जहां जिस श्रात्मा में अशुभ कर्मों का संचय होगा वहीं दुःखों की उत्पत्ति होगी। अतएक अपने किसी दुःख के लिए दूसरे को उत्तरदायी ठहराना घोर भ्रम है। न कोई किसी को दुःखी बना सकता है, न कोई किसी को सुखी बना सकता है। समस्त सुख-दुःख श्रात्मा के अपने ही व्यापारों के फल हैं । कहा भी है:
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निर्थकं तदा ॥ ' अर्थात् आत्मा ने जैसे कर्म किये हैं, उन्हीं का शुभ या अशुभ फल वह आप पाता है । यदि दूसरों का दिया हुश्रा फल दूसरा पावे तो उसके उपार्जन किए हुए कर्म निष्फल हो जाएँगे। . सदा इस सत्य का स्मरण रखते हुए अपने दुःख-सुख के लिए दूसरों को उत्तरदायी न ठहराओ । अरने दुःख के लिए किसी पर द्वेष न करो और सुख के लिए राग भाव धारण न करो । अन्यथा राग-द्वेष के वश होकर और अधिक पाप
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वैराग्य सम्बोधन कर्म उपार्जन करोगे। जब पूर्वार्जित पाप या पुण्य का दुःख रूप या सुख रूप फल प्राप्त हो तो उसे अपने ही कर्म का फल समझ कर साम्य भाव एवं धैर्य के साथ सहन करो। पहले जो ऋण अपने मस्तक पर चढ़ाया है, उसे उतारते समय विषाद. युक्त एवं अधीर बनने से क्या काम चलेगा ? उसे तो किसी भी अवस्था में चुकाना पड़ेगा। हां, भविष्य का विचार करो और निश्चय करलो कि अब जो कर्म करोगे उतका फल भी इसी प्रकार भोगना पड़ेगा। . इस प्रकार विवेक और धैर्य का सहारा लेने से भविष्य कालीन दुःख से अपनी रक्षा कर सकोगे । साथ ही उपस्थित दुःख की माना भी न्यून हो जायगी। यह स्मरण रखना चाहिए कि सुख-दुःन जहां वाह्य निमित्तों पर श्रवलंबित हैं, वहां अपनी मनोवृत्ति पर भी उनका बहुत कुछ श्राधार है । दृढ़ मनोवृत्ति पर्वत के समान भारी दुःख को भी राई के वरावर वना देती है और कातर भाव से राई के बराबर दुःख भी पर्वत के समान बन जाता है।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य को निम्न लिखित वातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए:
(१) जो कर्म अाज किया जाता है, उसका फल भविष्य में अवश्यंभावी है।
(२) कृत कर्मों का फल भोगने के लिए जीव को ना-ना योनियों में भ्रमण करना पड़ता है।
(३) अपने किये हुए कमों का फल प्राणी आप ही पाता है। फल भोगने के लिए न ईश्वर की अपेक्षा होती है और न किसी अन्य की।
इन बातों का ध्यान रखकर विवेकियों को प्रवृत्ति करनी चाहिए । मूलः-विरया वीरा समुट्ठिया, कोहकायरियाइमीसणा।
पाणे ण हणति सबसो, पावायो विरयाभिनिव्वुडा ५ साया:-वित्ता वीराः समुस्धिताः, क्रोध कातारकादिपीपणाः ।
मागिनो न प्रन्ति सर्वशः, पायाद विरता अभिनिताः ॥५॥ थब्दार्थ:-जो पौद्गलिक सुख से तथा हिंसा आदि पापों से विरक्त हैं,जो सम्यक चारित्र की उपासना में सावधान है, जो क्रोध, मान, माया और लोभ को नाश करने वाले हैं, वे मन, यचन एवं काय से प्राणियों की हिंसा नहीं करते। ऐसे वीर पुरुष मुक्तनमानों के समान शान्त हैं।
भाष्यः-प्रकृत गाया में सोध के ग्रहण से मानका भी ग्रहण किया गया । कातरिका का अर्थ माया । 'कातरिका' के ग्रहण से लोम का भी ग्रहण हो जाता है।
यहां यह स्पष्ट किया गया है कि विषयजन्य सुस्त्रों की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के पारंभ-समारंभ करने पड़ते हैं । विषयजन्य सांसारिक सुग्न या पदार्थों
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चौदहवां अध्याय पर अवलंबित है। जितने. परिमाण में अनुकूल योग्य लामग्री प्रस्तुत होगी, उतने ही परिमाण में सांसारिक सुख प्राप्त होगा। इस प्रकार की बद्धमूल धारणा के कारण सुख का अभिलाषी प्राणी अधिक से अधिक सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से अधिक स्टे अधिक सुख-सामग्री जुटाना चाहता है। उस सामग्री को जुटाने के लिए वह अधिक से अधिक आरंभ अर्थात् सावध क्रियाएँ करता है। . जैसा कि पहले बतलाया गया है, सावद्य क्रियाओं का दुष्फल उसे भोगना पड़ता है। वर्तमान काल में भी वह उस सामग्री के कारण अनेक दुःख उठाता है। सुख-सामग्री के उपार्जन में नाना प्रकार के कष्ट उपार्जित लामग्री के संरक्षण की विविध प्रकार की सदा प्रवृत्त होने वाली चिन्ताएँ और अन्त में उसके वियोग से होने वाला घोर विषाद, यह सब उस सुन-सामग्री के दान है। सुख सामग्री की बदौलत इन सब की जीव को प्राप्ति होती है। ऐसे जीव को कदापि शान्तिलाम नहीं हो सकता । अनुपम और स्थिर शान्ति की प्राप्ति उन्हीं को होती है जो सब प्रकार के प्रारंभ से विमुख हो जाते हैं तथा क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग कर देते हैं । ऐसे जीव संसार में रहते हुए भी संसार में अतीत है। मूलः-जे परिभवइ परं जणं, संसारे परियत्तइ महं। .. .. अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणी न मजा छाया:-यः परिभवति परं जनं. संसारे परिवर्त्तते महत् ।
अथ ईक्षणीका तु पापिका, इति संख्या मुनिन माघत्ति ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-जो दूसरे का पराभव-तिरस्कार करता है वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है । पराई निन्दा करना, पाप का कारण है, ऐसा जानकर मुनि अभिमान नहीं करते। '
भाष्य:-गांधा का भाव स्पष्ट है । जो मुनि विशिष्ट ज्ञानी, ध्यानी, त्यागी और तपस्वी है, उसे अपने ज्ञान, ध्यान, तप आदि का अभिमान नहीं करना चाहिए । 'में अमुक उच्च जाति में उत्पन्न हुआ हूं, मेरा गोत्र संसार भर में विख्यात एवं प्रशस्त है, मैं इतना अधिक विद्वान् हूं, शास्त्रों के मर्म का वेत्ता हूं, मैं ऐसा घोर तप. करता हूं, तुमसे कुछ भी नहीं बन पड़ता। तुम मुझ से हीन जाति के हों, तुम मेरे आगे अज्ञ हो, इत्यादि प्रकार से अभिमान करने वाला संसार मे चिर भ्रमण करता है। स्योंकि पर-निन्दा पाप का कारण है।
दूध में खटाई का थोड़ा-सा अंश लम्मिलित हो जाय तो सारा दुघ फट जाता है-विकृत हो जाता है और अन्त में वह स्वयं दधि के रूप में खटाई बन जाता है। इसी प्रकार तपस्या, त्याग आदि में अभिमान कपाय का अंश सम्मिलित होने से वह तपस्या, आदि कषाय रूप परिणत हो जाती है। कारण यह है कि उस समय तप. त्याग आदि क्रियाएं आध्यात्मिक विशुद्धि के उद्देश्य से नहीं होती, किन्तु मान कपाय
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वैराग्य सम्बोधन की पुष्टि के लिए प्रायः की जाती हैं। हम दूसरों से किस प्रकार ऊँचे कहलावे और हम अपने सामने दूसरों को किस प्रकार नीचा दिखाएँ, यह भावना तप-त्याग के मूल में होती है तो कपाय पोषण-ही उसका मूल्य रह जाता है। यही कारण है कि उस तप-त्याग के विद्यमान होने पर भी संसार-भ्रमण का अन्त नहीं होता वरन् वह और अधिक बढ़ता है।
अतश्व यहां सूत्रकार कहते हैं कि जो अविवेकी जन दूसरे का तिरस्कार करता है, वह चार गति रूप संसार में रहंट की घड़ियों की भांति भ्रमण करता है और उसका भ्रमण चिरकाल तक चालू रहता है। क्योंकि ईक्षणिका अर्थात् परनिन्दा पाप का कारण है। ऐसा समझ कर मुनि अपने तप.त्याग-ज्ञान ध्यान का अभिमान करके दूसरों को नीचा दिखाने का कदापि प्रयत्न नहीं करते हैं।
तात्पर्य यह है कि तपस्या आदि वाहा क्रियाओं के आचरण का एक मात्र उद्दे. श्य आत्मशुद्धि होना चाहिए। अपना महत्व सिद्ध करने के लिए चाहा क्रियाओं का आचरण नहीं करना चाहिए ! वाह क्रियाएं इतनी पवित्र हैं कि उन्हें कीर्ति का वाहन बनाने वाला पुरुप घोर अविवेकी है और उनकी प्रकारान्तर से पालातना करता है। वह उन महान् क्रियाओं को अपनी क्षुद्र कीर्ति का कारण बनाकर उनके चास्तविक फल से वंचित हो जाता है। लेकिन जब वह उन क्रियाओं को परनिन्दा का साधन बनाता है, तब तो उसके पाप की गुरुता और भी अधिक बढ़ जाती है
और परिणाम यह होता है कि उसे दीर्घकाल तक संसार में भटकना पड़ता है। इस केचली प्ररूपित तत्त्व को विदित करके पर-निन्दा से सदैव बचना चाहिए और अपने
वो ऊँचा सिद्ध करने के लिए दूसरों को नीचे गिराने का वाचनिक प्रयास नहीं करना ব্যায়। मूलः-जे इह सायाणुगा नरा, अज्झविवन्ना काहिं मुच्छिया
किवणेण समं पगव्यिा, न वि जाणंति समाहियाहितं ।। हायाः-य इछ सालानुना नराः, प्रत्युपपन्नाः काममूहिताः।
हपणेन समं प्रगस्मिताः, न धिजाननित समाधिमारपातम् ॥ ७ ॥ शब्दार्थ:-जो पुरुष इस लोक में सुख का अनुसरण करते हैं, तथा ऋद्धि, रस और माता के गौरव में भासक हैं और काम भोग में मूर्थित हैं, वे इन्द्रियों के दासों के समान काम भोगों में भ्रष्ट बन जाते हैं और कहने पर भी धर्म ध्यान को नहीं समाते है।
:-सप्रकार ने यहां यद प्रदर्शित किया है कि किस प्रकार के परुप समाधि सर्धात् धर्म ध्यान की धाराधना करने में असमर्थ होते हैं।
जो पुरय मातानुगामी होत अर्थात् लुम्न के पीछे-पीछे चलते हैं और दुःसा सेनयमान कर प्रात मुरण का किंचित् अंश भी त्याग नहीं करते, ये समाधि की
mना नहीं कर सकते । जिन वस्तुओं के सेवन स इन्द्रियों को मुख की अनुभूति
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चौदहवां अध्याय होती है और चित्त में प्राह्लाद होता है, उन वस्तुओं का त्याग करने में असमर्थ पुरुष उनका सेवन करता है। धर्म की उपासना के लिए यदि उनका त्याग करना आवश्यक होता है तो वे धर्म का ही त्याग कर देते हैं। अतएव धर्माराधना की अभिलाषा रखने चाले पुरुषों को सर्वप्रथम साता-शीलता का त्याग कर देना चाहिए।
भगवान् ने इसीलिए कहा है-'पायावयाहि चय लोगमलं' अर्थात् कष्ट सहन करो-सुकुमारता त्यागो । जो सुकुमार हैं, अपने शरीर को कष्टों से बचाने के लिए निरन्तर व्यन रहते हैं, षे अवसर आने पर धर्म में दृढ़ नहीं रह सकते।
'अध्युपपन्ना' का अर्थ है-ऋद्धि, रस, और साता में श्रासक्त । ऋद्धि नादि में श्रासक्त तथा कामभोगों में मूञ्छित मनुष्य अन्त में धृष्ट बन कर अपना अहित करते हैं । वे वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट समाधि को नहीं प्राप्त कर सकते।
मूलः-अदक्खुव्व दक्खुवाहिय, सद्दहसु अदक्खुदंसणा।
हंदि हु सुनिरुद्धदसणे, मोहणिजेण कडेण कम्मुणा ८
छायाः-अपश्यवत् पश्यन्याहतं श्रद्धत्स्व अपश्यदर्शन !
___ गृहाण हि सुनिरुद्धदर्शनाः, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ॥८॥ शब्दार्थः-हे अन्धे के समान पुरुषों ! तुम सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे हुए सिद्धान्ल में श्रद्धा करो। असर्वज्ञ पुरुषों के आगम में श्रद्धा रखने वाले पुरुषों ! उपार्जित किये हुए मोहनीय कर्म के उदय से जिसकी दृष्टि रुक गई है वह सर्वज्ञ प्ररूपित आगम पर श्रद्धा नहीं करता।
भाष्य:-जिसे नेत्रों से दिखाई नहीं देता वह लोक मैं अन्धा कहलाता है । शास्त्रकार ने यहां अपश्य अर्थात् अन्धा न कहकर अपश्यवत् अर्थात् अन्धे के समान कहा है। जो पुरुष अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के विचार से शून्य है-जिसकी विवेक दृष्टि जागृत नहीं हुई वह अपश्यवत् अर्थात् अम्धे के समान कहलाता है। . उसी को सम्बोधन करके यहां श्रद्धान करने का विधान किया गया है।
__ कर्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से शुन्य होने के कारण हे अन्धवत् ! सर्वज्ञ भगवान् के कहे हुए पागम पर श्रद्धा ला1 तथा हे असर्वज्ञ पुरुष के दर्शन पर श्रद्धा करने वाले ! अपने कदाग्रह को त्याग और सर्वश के उपदेश पर विश्वास कर । जीव मोहनीय कर्म के प्रवल उदय से सर्वच वीतराग भगवान द्वारा भव्य प्राणियों पर करुणा करके उपदिष्ट आगम पर, श्रद्धा नहीं करते।
___ यहां एक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को स्वीकार करने वाले नास्तिक मत के अनुयायियों को तथा छमस्थ पुरुषों द्वारा प्रणीत मत का अनुसरण करने वालों को उपदेश दिया गया है।
प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाले नास्तिकों के मत पर पहले विचार किया जा चुका है। अनुमान और पागम को प्रमाण न मानना अनान है। अन्य यातों को
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वैराग्य सम्बोधन यदि छोड़ दिया जाय और लोक व्यवहार पर ही सूक्ष्म रूप से विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि अकेले प्रत्यक्ष से संसार का निर्वाह नहीं हो लकता है और न हो रहा है। यहां पद-पद पर अनुमान और पागम प्रमाण का आश्रय लेना पड़ता है। माता पिता नादि गुरुजनों के वाक्यों को कौन सुपुत्र स्वीकार नहीं करता? माता-पिता श्रादि के वास्त्र लौकिक आगम प्रामण में अन्तर्गत हैं और उन्हें प्रमाण माने विना लेन-देन श्रादि का व्यवहार नहीं चलता । इसी प्रकार अनुमान प्रमाण का भी पद-पद पर प्रयोग करना पड़ता हैं । धूम्र को देख कर सभी चतुर पुरुष अग्नि का अनुमान करते हैं। व्यस्त वाणी सुन कर मनुष्य के अस्तित्व का बोध होता है। दोनों किनारों को स्पर्श करती हुई, मैले कुचले पानी वाली एवं तीव्रतर वेग वाली नदी के एक विशेष प्रकार के प्रवाह को देखते ही वर्षा का ज्ञान हुश्रा करता है । यह सब ज्ञान अनुमान रूप है । इसे अप्रमाण कहना अति साहस है, श्रात्मवंचना है और लोक के साथ छल करना है।
इस प्रकार श्रागम और अनुमान प्रमाण की आवश्यकता स्थूल लौकिक विषयों में भी प्रतीत होती है, तो अत्यन्त सूक्ष्म, वुद्धि के अगोचर, मन से अगम्य, इन्द्रियों . के सामर्थ्य से अतीत गूढ़ तत्वों को समझाने के लिए यदि आगम और अनुमान श्रादि प्रमाणों की श्रावश्यकता प्रतीत हो तो इसमें श्राश्चर्य की क्या बात ? प्रत्युत पेसे विषयों के बोध के लिए भी शागम शादि प्रमाणों को स्वीकार न करना ही श्राश्चर्य की बात हो सकती है।
मनुष्य अपने बुद्धि वैभव का कितना ही अभिमान क्यों न करे, पर वास्तव में उसकी बुद्धि की परिधि अत्यन्त संकीर्ण है। उसकी इन्द्रियां, जिन पर वह इतराता हैन मल के बगवर जान पाती है। इन्द्रियां जितना जानती है, उससे बहुत अधिक भाग ऐसा है जिसे वे नहीं जान पाती । और बेचारा मन, इन्द्रियों का अनुचर है । वह इन्द्रियों के पीछे-पीछे दी चलता है। जहां इन्द्रियों की पहुंच नहीं है वहां मन की भी गति नहीं है। ऐसी अवस्थामें मनुप्य समन वस्तु-तत्व को जानने का दम क्यों भरता है ? विशाल सागर एक जल-विन्दु जितने भाग को भी यह नहीं जान पाता। फिर भी वह मनुष्य इतना गर्वीला बन जाता है कि वह अपनी क्षमता को स्पस्वीकार करने के बदले पक जुद जल-फर को ही सागर कहने लगता है और उस फरिणका के अतिरिका नसीम जल-राशि के अस्तित्व से इन्कार कर देता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान से परे है।
जोम जाते हैं, यस बटीस छ । जिदम नहीं जान रहे. वह
भी नहीं है, यह तो जोमान की चरम सीमा पर पहुंचा हुत्रा, पर अपने श्राप को सदभुनानी मानने वाला मनुष्य उपस्थित करता है। इस श्रेणी के मनुष्यों पोप-हक याहा गया।
मनप्यायपूर्व मानव-समाजकी प्रगति का प्रवरोध करता है । नत्रता पूर्वक अपने मान की स्वीकृति से मनुष्य आगे बढ़ता है और अपने मान को
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चौदहवाँ अध्याय
[ ५२१ ॥ क्षीण करता चलता है और अन्त में अज्ञान से सर्वथा मुक्त हो जाता है । इसके विपरीत्य प्रज्ञान की अस्वीकृति से मनुष्य अज्ञान के गहन से गहनत्र अंधकार में ड्रयता जाता है।
। अतएव यह सर्वथा उचित और वांछनीय है कि मनुष्य अपने अभिमान का भार अपने सिर से उतार फेंके और स्वस्थ होकर अपनी वास्तविक स्थिति का विचार करे । वह अपनी मर्यादाओं का आकलन करे और अपने प्रत्यक्ष पर ही अवलंवित न रहकर आगम एवं अनुमान का अरश्रय लेते हुए अपनी बौद्धिक परिधि में विस्तीर्णता लाने की चेष्टा करे।
श्रापम को प्रमाण मानने में एक अड़चन उपस्थित की जाती है । संसार में एक दूसरे के विरुद्ध वस्तु-तत्वों का निरूपण करने वाले इतने अधिक श्रागम हैं कि किस पर श्रद्धान किया जाय और किल पर श्रद्धान न किया जाय ? सभी भागम सत्य का निरूपण करने का दावा करते हैं और अपनी प्रामाणिकता की मुक्त कंठ.से उद्घोषणा करते हैं। फिर भी एक पूर्व को जाता है तो दूसरा. पच्छिम को । ऐसी अवस्था में किस प्रायम का अनुसरण करना चाहिए ? इसी उलझन में पड़कर किली ने कहा भी है
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् ,महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥
अर्थात्-तर्क स्थिर है, शास्त्र भिन्न-भिन्न हैं और एक ऐसा कोई मुनि नहीं है जिसके बचन प्रमाण माने जाएँ। धर्म का तत्व अंधकार से आच्छादित है । ऐसी दशा में, बही मार्ग है जिस पर बहुत लोग चलते हैं या बड़े लोग चलते हैं।
खेच पूछो तो यह कथन, कथन करने वाले की बुद्धि संबंधी दरिद्रता को चूचित करता है । जो मनुष्य विवेकशील है वह अनेकों की परीक्षा करके उसमें से एक को छांट सकता है । वह सत्य और असत्य का भेद कर सकता है। जब मनुष्य व्यावहारिक बुराई-भलाई का निर्णय अपने अनुभव से कर सकता है तो धार्मिक बुराई-भलाई की पहचान क्यों नहीं कर सकता? ..
तर्क जब निराधार होता है, उसका एक निश्चित लक्ष्य नहीं होता तभी वह शस्थिर होता है । लक्ष्य के अभाव में वह इधर-उधर भटकता फिरता है। किन्तु जक लक्ष्य स्थिर हो जाता है तब तर्क अप्रतिष्ठ नहीं रहता। . . .
तर्क का लक्ष्य क्या है ? उसे कहां पहुंच कर स्थिर हो जाना चाहिए ? निस्तल्देह वीतराग और सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित तत्व ही तर्क का लक्ष्य होना चाहिए । उन तत्वों को वुद्धिगम्य बनाने में ही तर्क की सार्थकता है। ...
वीतराग और सर्वश पुरुष द्वारा-प्ररूपित तत्वों का निश्चय किस प्रकार किया जा सकता है ? इस प्रश्न का समाधान है-साधना से तथा अनुभव से । विशिष्ट और तटस्थ अनुभव के द्वारा, जो कि साधना से ही उपलब्ध होता है, सर्वशक्ति
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আঁখি লাখ सत्य का निश्चय किया जा सकता है। श्रनुभव जिसका समर्थन करता है, ऐसे सत्य का निरूपण-जिस आगम में विद्यमान है वह सच्चा श्रागम है। .
प्रागम की यथार्थता की एक कलौटी है-अनेकान्त दृष्टि । जिस दृष्टि में एकान्त का प्राग्रह नहीं है, जहां विभिन्न दाजुओं से वस्तु का उदारतापूर्वक निरिक्षण किया जाता है, वही दृष्टि निर्दोष होती है। जिस प्रागम में इसी दृष्टि से तत्वों का अवलोकन किया गया हो और उस अवलोकन के द्वारा विशाल एवं सम्पूर्ण सत्य की प्रतिष्ठा की गई हो वही पागम मनुष्य-समाज के लिए पथप्रदर्शक होता है ।
इस कसौटी पर कसने से श्रागम की सत्यता-असत्यता की परीक्षा हो जातर है और पूर्वोक्त उलझन भी दूर हो जाती है।
इसीलिए प्रकृत गाथा में शास्त्रकार नागम पर श्रद्धान रखने का. उपदेश देते हैं और अन्त में मिथ्या श्रागम को त्याग कर सर्वज्ञ भगवान् द्वारा उयदि अागम के अनुसरण का उपदेश देते हैं।
जो लोग अपनी क्षुद्र दृष्टि से परलोक श्रादि न देख सकने के कारण, अपनी क्षुद्र शक्ति स्वीकार करने के यदले परलोक आदि का ही निपेध करने लगते हैं, वे दया के पात्र हैं। नेत्र बंद कर लेने से जगत का प्रभाव नहीं हो सकता, इसी प्रकार किसी को सूक्ष्म, दरवत्ती या गद तत्व यदि दिखाई न दे तो इसी कारण उसका प्रभाव नहीं हो जाता।
पूर्वोपार्जित मोदनीय और ज्ञानावर नानक कर्मों के उदय से ऐसे लोगों को दृष्टि विपरीत एवं अज्ञानमय है । उनका अनुसरण करने से एकान्त अहित होता है। जिन आत्मा का कल्याण करना है उन्हें सर्वोक्त नागम पर निश्चल श्रद्धा रसना चाहिए। उन्हें न तो पागम मात्र पर श्रद्धा करनी चाहिए और न सर्वत्र पुरुषों के द्वारा उपदिष्ट आगम पर श्रद्धा करनी चाहिए। मुलः-गारं पि अभावसे नरे, अणुपुव्वं गणेहिं संजए।
समता सव्वत्थ सुव्ववे, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥६॥ दाया:-प्रगारमपि वावमशारः, भानुपूर्ध्या प्रारण पु. संगतः।।
__ समता सर्वत्र सुमाः, देवानां मच्छरपासताम् । शब्दार्थ:--घरमें रहता हुआ मनुष्य यदि अनुक्रम से प्राणियों की यतना करता है, सब जगह समभाव वाला है, तो ऐसा सुनत (गृहस्थ भी) देवताओं के लोक में जाता है मर्थात् देवलोक प्राप्त करता है।
प्रायः-पूर्व गाथा में सर्व-रूपित मागम पर श्रद्धा करने का उपदेश दिया गया था। किन्तु मागम पर श्रद्धा करने से क्या लाभ होता है ? राइ बात यहां यतलाते हुए गृहस्थ धर्म का मात्य पतलाते हैं।
जो सम्यष्टि पुरुष भागम पर श्रद्धा करता है, वह आगमोल धर्म का प्रदनः
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चौदहवां अध्याय फरता है और धर्म को स्वीकार करता है। इस प्रकार आनुपूर्वी से अर्थात् क्रमपूर्वक " वह त्रस एवं स्थावर जीवों की यतना करने लगता है। वह कोई भी क्रिया करते समय प्राणि, हिंसा के प्रति सावधानी रखता है। उसके अन्तःकरण में सर्वत्र समताभाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार पांच अणुव्रत आदि रूप गृहस्थ के चतों से मुक्त होकर बह देव लोक की प्राप्ति करता है।
तात्पर्य यह है कि गृहस्थी का त्याग करके महावत रूप सकल संयम का पालन करने की तो बात ही क्या है ? उससे तो मुक्ति तक की प्राप्ति होती है। परन्तु यदि कोई पुरुष इतना अधिक त्याग करने में समर्थ न हो तो भी उसे निराश नहीं होना चाहिए। गृहस्थी में रहते हुए भी गृहस्थ धर्म का विधिवत् पालन करना चाहिए । विधिवत् गृहस्थ धर्म का पालन करने से त्याग की वृत्ति बढ़ती है और शनैः-शनैः मुक्ति समीप श्राती जाती है। भूलः-अभविंसु पुरा वि भिक्खुवो, पाएसा वि भवंति सुब्बता
एयाइं गुणाइं आहु ते, कासवस्स अणुधम्म चारिणो १० छाया:-अभवत् पुराऽपि भिक्षवः, प्रागमिप्या अपि सुव्रताः ।
एतात् गुणानाहुस्ते, काश्ययस्मानु धर्मचारिणः ॥१०॥ - थब्दार्थ:-हे भिक्षुओं ! पहले जो जिन हुए हैं और भविष्य में जो जिन होगें के सब सुनती थे अर्थात् सुबती होने से ही जिन हुए और होंगे। वे सभी इन गुणों का उपदेश देते हैं, क्योंकि वे काश्यप भगवान् के धर्म का आचरण करने वाले थे।
.भाष्यः- प्रकृत गाथा में दो बातों पर प्रकाश डाला गया है
प्रथम यह कि जिन अवस्था सुबतों का पालन करने पर प्राप्त होती है और दूसरी यह कि जिनके उपदेश में कभी भिजता नहीं होती।
.. राग और द्वेष रूप कषाय को जीतने वाले जिन कहलाते हैं। जिन अवस्था आत्मा की ही एक विशिष्ट पर्याय है। सामान्य संसारी जीव सर्वक्षोक्त विधि-विधान का भाचरण करके, अपनी कषाय रूप विभाच परिणति से मुक्त हो कर स्वाभाविक परिणति को प्राप्त कर लेला है । प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप में अवस्थान होना ही जिना अवस्था की प्राप्ति है। यह जिन अवस्था अहिंसा, सत्य, आदि व्रतों का सम्यक् प्रकार से आचरण करने पर प्राप्त होती है।
मूल गाथा में 'व्रत की विशेषता बताने के लिए 'सु' विशेषण लगाया गया है। उसका प्राशय यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्नान पूर्वक आचरस किये जाने वाले व्रत ही सुव्रत कहलाते हैं और उन्हीं से जिन अवस्था की प्राप्ति होती है। मिया दर्शन के साथ आचरण किये जाने वाले विविध प्रकार के व्रत संसार-भ्रमण के कारण होते हैं। उनसे सांसारिक वैभव भले ही मिल जाय परन्तु माध्यात्मिक विभूति नहीं मिलती। .
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वैराग्य सम्बोधन सुव्रतों का आचरण एक प्रकार की प्राध्यात्मिक औपधि है । जैसे भौतिक औषधि, भौतिक शरीर की व्याधियों का विनाश करती है उसी प्रकार सुव्रत आत्मिक विकार राग-द्व आदि का संहार करते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में श्राचरण की माहिमा मुक्त कंठ से गाई गई है। वस्तु स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए शान की अनिवार्य आवश्यकता है किन्तु उस ज्ञान का फल चारित्र है । जिस ज्ञान से चारित्र की प्राप्ति न हो वह शान वन्ध्य है-निष्फल है । ज्ञान की सार्थकता चारित्र .. लाभ में ही निहित है। इसी कारण यहां शास्त्रकार ने कहा है कि भूतकाल में जितन जिन हुए हैं और भविष्यकाल में जितने जिन होंगे, वे सब सुव्रत अर्थात् सम्यक चारित्र की बदौलत ही जानने चाहिए । इस प्रकार सुव्रतों का सहाल्य समझकर यथाशक्ति व्रती का पालन करना चाहिए।
मोक्ष मार्ग की प्रवृत्ति सामान्यतया अनादि काल से है. और अनन्त काल तक * रहेगी। किसी काल विशेप में, किंचित समय के लिए वह रुक जाती है, पर सदा के लिए नहीं। श्रतएव अनादिकाल से लेकर अबतक अात्मायो ने जिन पर्याय प्राप्त की है। वे सभी जिन सर्वश थे। सर्वज्ञों के मत में कभी भिन्नता नहीं था सकती। सर्व का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है । जिसमें अज्ञान का अल्पमात्र भी अंश शेप नहीं रहता, वही सर्वक्ष पद प्राप्त करता है। ऐसे पुरुषों के मत में भेद की संभावना भी नहीं की जा सकती। मतभेद का कारण अज्ञान है, या कपाय है । वह जिन में विद्यमान नहीं है ऐसे दो व्यक्तियों में मतभेद का कोई कारण ही नहीं रहता । श्रपत्र सर्वशा ने भूतकाल में जो उपदेश दिया था, वही वर्तमान अवसर्पिणी कालीन सर्वज्ञा ने दिया है और वही उपदेश श्रागामी काल में होने वाले तीर्थकर (सर्व दंगे।
सर्वज्ञों के उपदेश की कालिक एक रुपता का कारण स्पष्ट है। सत्य सनातन है। वह देश और काल की परिधि से घिरा हुश्रा नहीं है। सत्य श्राकाश की भांति व्यापक और नित्य है। यह कभी उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उसका विनाश नहीं होता। सत्य जय शाश्वत द, ध्रुव है. अचल हैं, और सत्य ही धर्म की प्रात्मा है.तो धर्म भी शाश्वत, ध्रुव और अचल है । इस प्रकार धर्म काल भेद या देश भेद से भिन्न नहीं हो सकता। उसका स्वरूप सदा अपरिवर्तित रहता है।
धर्म जय सनातन है तो उसके उपदेश में भी भेद नहीं हो सकता । इसी बाल यह कहा गया है कि भूतकाल और भविष्यकाल के जिन एक ही से धर्मतत्व का कथन करते हैं।
धर्मतत्व की एकरूपता का प्रतिपादन करने के लिए मूल में 'कासवस्स अरणमचारियो' कह कर एक 'काश्यप' शब्द से ही प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव तपा अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर का ग्रहण किया है । तात्पर्य यह कि भगबान प्रापमदेव ने जिस धर्म का उपदेश दिया था, उसो धर्म का भगवान् महावीर न निरूपण किया है।
गदा यह आशंका की जा सकती है कि बीच के वाईस तीर्थकों ने चातुर्मास
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चौदवा अध्याय धर्म का उपदेश दिया था और श्राद्य एवं अन्तिम तीर्थंकरों ने पंच महावत रूप धर्म का कथन किया था। ऐसी अवस्था में समस्त जिलों के धर्म की एकरूपता किस प्रकार सिद्ध हो सकती है ?
समाधान-धर्म तत्व की एकरूपता के विषय में ऊपर जो कहा गया है, उससे .. यह नहीं समझना चाहिए कि समस्त तीर्थंकरों के उपदेश के शब्द भी एक-से ही होते हैं । श्रोताओं की परिस्थिति के अनुसार धर्मोपदेश की शैली में और उसके बाहर रूप में भेद हो सकता है किन्तु मौलिक रूप में भेद कदापि नहीं हो सकता।
व्रतों को चार भागों में विभक्त करना या पांच भागों में विभक्त करना विवक्षा पर आश्रित है। यह मौलिक सिद्धान्त नहीं है । मौलिक विषय तो यह है कि अहिंसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह को सभी तीर्थकरों ने धर्म कहा है । किस्लीभी काल में और किसी भी देश में कोई भी तीर्थकर ब्रह्मचर्य को धर्म या अब्रह्म को धर्म नहीं कह सकते। .
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...... इस प्रकार धर्म के वाह्य रूपों में भले ही भिन्नता दृष्टिगोचर हो फिन्तु उनका अन्तस्तत्व सदा सर्वत्र समान ही होगा । इसी कारण नन्दीसूत्र में अर्थागम की अपेक्षा से द्वादशांगी को नित्य, शाश्वतं एवं ध्रुव कहा गया है । शब्द रूप भागम का विच्छेद हो जाता है किन्तु उस आगम म प्ररूपित अर्थ का कदापि विच्छेद नहीं होता।
इस प्रकार धर्म अपने मौलिक रूप में सनातन है-परिवर्तन से रहित है और समस्त तीर्थकर उसी के स्वरूप का प्ररूपण करते हैं । 'मूलः-तिविहेण विपाण मा हणे, प्रायहिते अणियाण सवुडे ।
एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अणागयावरे ॥११॥ . .. छाया:-त्रिविधेनापि प्राणान्मा हंन्यात्, श्रात्यहितोऽनिदानः संवृतः। . ..
... एवं सिद्धा अनन्तशः, सम्प्रति ये अनागत अपरे ॥ ११॥ '.. शब्दार्थः-तीन प्रकार से प्राणियों का हनन नहीं करना चाहिए। अपने हित में प्रवृत्त होकर तथा निदान रहित होकर संवरयुक्त बनना चाहिए । इस प्रकार अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में होते हैं और भविष्य में होंगे।
भाष्यः-समस्त तीर्थकरों ने जिन गुणों का एक समान उपदेश दिया है, वे गुण कौन से हैं ? अथवा समस्त जिनों द्वारा उपदिष्ट सनातन धर्म का रूप क्या है ? इस प्रश्न का यहां समाधान किया गया है। . . . . . ... ... तीन प्रकार से प्राणियों की हिंसा-न करना, यह धर्म का प्रथम रूप है। तीन प्रकार से अर्थात् मन, बचन और काय से । तात्पर्य यह है कि किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाने का मन में विचार न आना, कष्टप्रद पवनों का प्रयोग न करना और शरीर से किसी को कष्ट न होने देना, यह अहिंसा महाप्रत धर्म का प्रथम रूप है।
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वैराग्य सम्बोधन
साद कर कोलों तक ले जाता है । उसे पशु की प्यास का पता नहीं और भूख का आन नहीं रहता । सदा गले में बंधन पड़ा रहता है और नाक छेद कर उसमें नकेल पहना दी जाती है | इस तरह की वेदनाएँ सहते-सहते जब वह वृद्ध हो जाता है तब उसकी समस्त शक्ति विलीन हो जाती है । उस समय भी लोभी स्वामी उसे गाड़ी,
यदि मैं जोत कर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है । जब उससे चलते नहीं बनता तो ऊपर से निर्दयतापूर्वक ताड़न किया जाता है । अनेक प्रकार के अत्याचार उसके साथ किये जाते हैं । फिर भी वह मौन-निःशब्द रद्द कर सब कुछ सहन करता है ।
अनक पशु ऐसे हैं जिन्हें मार कर अनार्य मनुष्य भक्षण कर जाते हैं । किसी को देखते ही दुष्ट पुरुष मार डालते हैं, अतएव उन्हें बिलों में या झाड़ी आदि में लुकछिप कर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है । बहुत से जानवरों को जानवर देखते ही खा जाते हैं । इस प्रकार पशुओं के प्राण निरन्तर खतरे में रहते हैं ।
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मनुष्यों की भांति पशुओं को भी अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं, पर मनुष्यों की भांति उनकी चिकित्सा नहीं होती । बेचारे दीन पशु अपनी व्याधि का वन नहीं कर सकते, अतएव वे उससे तड़फते रहते हैं - बेचैन रहते हैं, पर उन्हें कौन पूछता है ! पालतू पशुओं की भी चिकित्सा नहीं होती तो जंगल में रहने वाले उन प्रनाथ तिर्यञ्चों की बात ही क्या है ?
. इस प्रकार तिर्यञ्च जीवों की वेदनाएँ अनगिनती है । उनकी वेदनाएँ नहीं जानते हैं जो उन्हें भोगते हैं । इन वेदनाओं का खयाल करके मनुष्य को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे उसे तिर्यञ्च योनि में तथा उससे भी श्रनन्त गुणी वेदना वाली नरक योनिमें निवास न करना पड़े।
ऐसा प्रयत्न तभी संभव है जब मनुष्य अपनी वालिशता अर्थात अता को त्याग कर दे । क्यों कि तब तक सम्यग्ज्ञान का लाभ नहीं होता तब तक सत् श्रसत् का विवेक नहीं हो सकता !
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समस्त संसार, वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो, ज्वर से पीड़ित पुरुष कीभांति एकान्त दुःख से घिरा हुआ है। यहां किसी को किसी प्रकार का सुख नहीं है । जो अपने आप को सुखी समझते हैं, वे अज्ञान हैं । स्वप्न देखने वाला पुरुष जैसे स्वप्न काल में राजा बन जाता है और अपनी उस स्थिति पर प्रसन्नता से फूला नहीं समाता: है उसी प्रकार संसारी जीव लक्ष्मी पाकर अपने को सुखी मानता है । किन्तु स्वप्न का राजा जैसे कुछ ही क्षणों के पश्चात् अपना भ्रम समझने लगता है उसी प्रकार संसारी प्राणी को जब किसी प्रकार की चोट लगती है और जय लक्ष्मी कुछ भी काम नहीं शाती, या लक्ष्मी उसे लात मार कर किसी अन्य पुरुष की बन जाती है तब उसे अपना भ्रम मालुम होता है ।
इसी प्रकार शरीर की सुन्दरता एवं स्वस्थता के श्रभिमान से फूला हुआ मनुष्य, अचानक किसी रोग की उत्पत्ति होते ही भयंकर वेदना भोगने लगता है और उसका भ्रम निवारण हो जाता है । सांसारिक सुख के अन्यान्य साधनों का
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चौदहवां अध्याय
[ ५२६ } यही हाल है। ज्यों-ज्यों उन साधनों का संचय किया जाता है त्यों-त्यों सुख के बदले दुःख का संचय होता जाता है।
अकेला अादमी असंतुष्ट होकर परिवार में सुख का अनुभव करता है और बहुत परिवार बाला व्यक्ति परिवार की झंझटों के कारण अशान्ति का अनुभव करता है। निर्धन, धनवानों की स्थिति में सुख समझता है और धनवान् अपने धन के नष्ट न हो जाने की चिन्ता में रात-दिन व्याकुल रह कर निर्धनों की निश्चिन्तता की कामना करता है। राजा अपने पीछे लगी रहने वाली सैकड़ों उपाधियों से चिन्तित बना रहता है और रंक राजा का बैभव देखकर उसे पाने को लालायित रहता है। इस प्रकार बारीक दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि कोई भी मनुष्य अपनी प्राप्त . अवस्था में लखी नहीं है। अपने से भिन्न अन्य अवस्था को सब सुखमय मानते हैं। जब नवीन अभिलषित अवस्था प्राप्त हो जाती है तब उसमें भी असन्तुष्ट होकर फिर नवीन अवस्था पाने का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार जन्म-मरण, अनिष्ट संयोग इष्ट वियोग, आदि की प्रचुर वेदनाओं ले यह जगत् परिपूर्ण है। .
सामान्यतया स्वर्ग में रहने वाले देवों को सुखी समझा जाता है। किन्तु उनके स्वरूप का विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि उनका सुख भी दुःख रूप है। पारस्परिक ईर्षा, उच्च-नीच भाव की विद्यमानता, स्वामी-सेवक संबंध, देवपर्याय के पश्चात् होने वाला तिर्यञ्च, नरक श्रादि योनियों का भ्रमण, इत्यादि.भनेक कष्ट स्वर्ग में विद्यमान रहते हैं । इन कष्टों के कारण देव भी सुस्त्री नहीं है। .. . जब देवता भी दुःख से अभिभूत हैं-वे भी अपनी इच्छा के अनुसार सदा काल अपरिमित सुखों का भोग नहीं कर पाते, तो औरों की बात ही क्या है ? . जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित पुरुष संताप का अनुभव करता है उसी प्रकार संसारी जीव घोर शारीरिक एवं मानसिक संताप भोगता है। ज्वर की.दशा में मनुष्य को एक क्षण भर भी शान्ति नहीं मिलती उसी प्रकार संसार में संसारी जीव क्षणभर भी शान्ति नहीं पाता । स्वर में जैसे मधुर पदार्थ कटुक प्रतीत होते हैं उसी प्रकार संसारी.जीव को सुख के सच्चे साधन और मधुर रस देने वाले तप आदि कर्म कटुक प्रतीत होते हैं।
.. इस प्रकार विपरीत रुचि होने के कारण संसारी जीव सुख के लिए पापाचार सेवन करता है। कोई चोरी करता है, कोई डाका डालता है, कोई व्यापार में बेईमानी करता है-अच्छी वस्तु दिखा कर तुरी दे देता है या मिलावट कर देता है। कोई घृत जैसे जीवनोपयोगी पदार्थ में तेल मिला देता है या वनस्पति घृत सरीने कृत्रिम घी को घी के भाव बेचता है। दूध में पानी का मिश्रण कर देता है। इस प्रकार से जनसमाज की स्वस्थता को विपद् में डालता है और मानव-समूह का घोर अहित करता है।
. कोई-कोई राक्षसी प्रकृति के लोग सुख की प्राप्ति के लिए कर्मादानों का सेवन
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arra संम्बोधन
करते हैं, कोई-कोई तो कत्लखाने तक चला कर घोरतर पशु हिंसा करते हैं । कोई चाकरी करते हैं, काई - फौज में भर्ती होकर पेट के लिए - युद्ध में लड़ने जाते हैं, कोई कुछ और कोई कुछ करते हैं । इस प्रकार सुख की प्राप्ति के लिए प्रज्ञान प्राणी नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते देखे जाते हैं । इन पूर्वोक्क पाप रूप चेष्टाओं के कारण उसे पाप कर्म करने का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप दुःख उठाना पड़ता है । इस प्रकार सुख के लिए किये जाने वाले प्रयत्न दुःख के हेतु बन जाते हैं । और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि श्राम खाने के लिए यदि कोई नीम का वृक्ष लगाएगा तो उसे ग्राम के चन्दले नीम का ही फल प्राप्त होगा ।
अनुकूल कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । दुःख के देतुनों से सुखकदापि नहीं मिल सकता । चालू से तैल नहीं निकल सकना और आरम्भ, परिग्रह एवं सावद्य व्यापार से सुख नहीं मिल सकता । श्रतएव सुख के सच्चे साधन धर्म को अहण करो तो सुख की प्राप्ति होगी। सावध क्रियाओं से उपरत होना, निरवद्य क्रियाओं में संलग्न रहना, त्याग शील बनना, श्रादि धर्म रूप व्यापार हैं, जिनसे सच्चे सत्र की प्राप्ति होती है । श्रतएव सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी बन कर सम्यक्चारित्र का सेवन करना चाहिए। संसार को दुःखमय समझकर उसमें अनुरक्त नहीं होना चाहिए । यही सुख की प्राप्ति का साधन है।
मूलः - जहा कुम्मे सगाई, संए देहे समाहरे |
एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ १३ ॥
कायाः - यथा कूर्मः स्वाङ्गानि स्वदेढे समाहरेत् ।
एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत् ॥ १३ ॥
शब्दार्थ : - जैसे कछुवा अपने अंगों को अपने शरीर में संकुचित कर लेता है, इसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष अध्यात्म भावना से अपने पापों को संकुचित कर लें ।
भाभ्यः-- पहली गाथा में पाप रूप व्यापार से उपरत होने का विधान किया गया है । किस प्रकार पाप से उपरत होना चाहिए, यह बात यहां उदाहरण के साथ बताई गई है।
जैसे कछुवा अपनी ग्रीवा आदि गों को, विपद् की संभावना होते हो, अपने शरीर में छिपा लेता हैंई-उन अंगों को व्यापार रहित बना लेता है, इसी प्रकार, सत्अस का विवेक रखने वाले बुद्धिमान पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह पाप रूप असत, व्यापारों को अध्यात्म भावना का सेवन करके अर्थात् सम्यक् धर्मध्यान आदि की प्रासेवना से विलीन करदे । मन सदा व्याप्त रहता है। वह निष्क्रिय एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता । श्रतएव अशुभ भावनाओं से बचाने के लिए, यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि मन में धर्म भावनाएँ उदित की जाएँ । धर्म भावनाएँ उदित होने से पाप भावनाएँ स्वतः विलीन हो जाती हैं। जब मन शुभ भावनाओं से व्याप्त
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aadi अध्याय
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रहता है तो अशुभ भावनाओं को उसमें श्रवकाश ही नहीं रहता । इसी कारण यहाँ अध्यात्म भावना से पापों के संहार का विधान किया गया है ।
मूल:- साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंदियाणि य ।
पावकं च परीणामं, भासादोसं च तारिसं ॥ १४॥
छाया:-- संहरेत् हस्तपादौ वा, मनः पञ्चेन्द्रियाणि च । पावकं च परिणामं, भाषादोषं च तादृशं ॥ १४ ॥
" शब्दार्थ:-- ज्ञानीजन, कळंबे की भांति हाथों और पैरों की वृथा चलन क्रिया को, सन की चपलता को ओर विषयों की ओर जाती हुई पांचों इन्द्रियों को तथा पापोत्पादक विचार को तथा भाषा सम्बन्धी दोषों को रोक लेते हैं ।
भाष्यः—गाथा का अर्थ स्पष्ट है । श्राशय यह है कि ज्ञानी पुरुष अपने मन और इन्द्रियों को तथा वाणी को पूर्ण रूप से अपने नियंत्रण में ले लेते हैं । वे सामान्य रुषों की भांति इन्द्रियों के दास नहीं रहते किन्तु इन्द्रियों को अपनी दासी बना लेते हैं । वे मन की मौज पर नहीं चलते वरन् मन रूपी घोड़े की लगाम को अपने हाथों. में थाम कर उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाते हैं । मन उनपर सवार नहीं हो पाता, वे स्वयं उस पर सवार रहते हैं ।
इसी प्रकार वाणी का प्रयोग भी वे विवेक पूर्वक ही करते हैं। आवेश के प्रबल कारण उपस्थित होने पर भी वे श्रावेश के वश हो कर यद्वा तद्वा नहीं बोलते । हित, मत और निरवद्य वाणी का ही प्रयोग करते हैं । वे भाषा संबंधी समस्त दोषों से बचते हैं । प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशांची, शौरसेनी और अपभ्रंश, यह छह प्रकार की गद्य रूप और छह प्रकार की पद्य रूप- इस प्रकार भाषा के बारह भेद किये गये हैं और विश्व की समस्त भाषाओं का इन्हीं छह में समावेश हो जाता है । यहाँ भाषा का तात्पर्य वचन से है, अर्थात् साधु को पापजनक वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, किन्तु साथ ही भाषा शास्त्र के नियमों के अनुसार वचन प्रयोग करना भी आवश्यक है । अतएव साधु को भाषा संबंधी नियमों का ज्ञाता होना चाहिए, अन्यथा विद्वत्समूह में गौरव की रक्षा नहीं हो सकती ।
मूल:- एयं खु पाणिणो सारं, जं न हिंसति किंचणं ।
हिंसा समयं चैव, एतावतं वियाणिया ॥ १५ ॥
छाया:- एतत्खलु ज्ञानिनः सारं यच हिंस्यति किञ्चनम् । : श्राहसा समयं चैन, एतावती विज्ञानिता ॥ १५ ॥
शब्दार्थ : - ज्ञानी जनों का सार है - किसी जीव की हिंसा न करना । अहिंसा ही संग्रम है - आगम का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है और अहिंसा ही विज्ञान है ।
भाग्यः - हित-अहित का विवेचन करने में कुशल पुरुषों ने ज्ञान का सार
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धैराग्य सम्बोधन अहिंसा कहा है। जिस झान की प्राप्ति के फल-स्वरूप अहिंसा की उपलब्धि नहीं होती वह ज्ञान निस्सार है ज्ञान की सार्थकता अहिंसा में है। :: ......
अहिंसा शब्द यहां व्यापक भावना के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। वास्तव में अहिंसा तत्त्व इतना व्यापक है कि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सम्पूर्ण सदाचार का उसमें समावेश हो जाता है। अतएव ज्ञान का सार सदाचार है, यह भी कहने में आपत्ति नहीं है। 'ज्ञानं भारः क्रियां विना' अर्थात् सम्यक चारित्र के.. विना हान भार रूप है। उस वृक्ष से क्या लाभ है जो फल नहीं देता ? इसी प्रकार वह छान किस काम का है जिल से सदाचार का पोषण नहीं होता १ लान का प्रयोजन, शान का सार, सदाचार में ही निहित है। जैसे सूर्योदय होने पर कमल विक-- सित हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होने पर अहिंसा रूप सदाचार का उदय होना चाहिए।
अहिंसा को इतनी अधिक माहिमा है, अतएव वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट आगम का प्रधान प्रतिपाद्य विषय अहिंसा है। अहिंसा का ही भागों में विस्तार किया गया है। सत्य, श्रचौर्य आदि वत, अहिंसा रूपी वृक्ष की शास्त्राएं हैं और
अहिंसा ही मूल भूत तत्त्व है। आगम में प्ररूपित सम्यक् चारित्र को ध्यान पूर्वक निरीक्षण करने से विदित होता है कि सर्वत्र अहिंसा की दृष्टि ही ओत-प्रोत है और उसी की पुष्टि के लिए चारित्र का विस्तार किया गया है। वस्तुतः जिसके जीवन में अहिंसा-तत्त्व की प्रतिष्ठा हो चुकी है उसका कोई भी व्यवहार सदाचार से विसंगत नहीं हो सकता।
- अहिंसा विज्ञान है। जो लोग भ्रमवश यह मान बैठे हैं कि प्राचीन काल में विज्ञान के स्वरूप से परिचय नहीं था। और विज्ञान अाधुनिक काल का घरदान है, उन्हें इस वाक्यांश पर ध्यान देना चाहिए। हां, यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि आधुनिक विज्ञान हिंसा की नींव पर स्थित है और प्राचीन कालीन विज्ञान, जैसा कि यहां यतलाया गया है, अहिंसा रूप था।
वर्तमान में विज्ञान को अहिंसा की भूमिका से हटा कर हिंसा की मूमिका पर आरोपित किया गया है। इस कारण वह प्राज मानव समाज के लिए दिव्य वरदान . के पदले घोर अभिशाप सिद्ध हो रहा है। विश्व में जो आमूलचूल अशान्ति, असाता और अव्यवस्था दिसलाई पड़ती है उसका एक मात्र प्रधान कारण यही है कि विज्ञान अहिंसा के क्षेत्र को छोड़ गया हैं। और जब तक वह पुनः अहिंसा की शीतल छाया तले नहीं आ जायगा तयतक मानव-समाज उससे सुखी न हो सकेगा। वह भीषण संहार कारक साधनों के द्वारा, राष्ट्रीयता, धर्म, सम्प्रदाय, श्रादि के बहाने मनुष्यसमाज पर भीषण वज्रपात करता ही रहेगा । अहिंसा निरपेक्ष विज्ञान इससे अधिक अन्य कुछ भी नहीं कर सकता । इसके विपरित जो विज्ञान अहिंसा-सापेक्ष है, यह मानवसमाज की स्मृद्धि, शान्ति और साता को उत्पन्न करता एवं वदाता है।
यहां यह कहा जा सकता है कि विज्ञान का कार्य साधनों का प्राविकार करना
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Ramanand
चौदहवा अध्याय है। उन साधनों का सदुपयोग करना या दुरुपयोग करना मनुष्य की सात वा अलत् भावना पर निर्भर है। यदि विज्ञान के साधनो का दुरुपयोग कोई करता है तो इसमें विज्ञान का क्या दोष है।
. इसका समाधान यही है कि प्रथम तो संहार के साधनों का आविष्कार करना ही विज्ञान की भयंकर भूल है। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्रायः अधिक से अधिक भीषण संहार के साधनों की तलाश करने में ही व्यन है । दूसरे, बालक के हाथ में विष की गोली देने वाले ज्ञानवान् पुरुष को जो दोष दिया जा सकता है, वही दोष सर्वसाधारण जनता को संहार के साधन देने वाले वैज्ञानिकों को दिया जाना चाहिए। वे जगत् को जो दान दे रहे हैं, उससे उन्हें कृतान्त का काका कहा जा सकता है।
सारांश यह है कि वास्तव में विज्ञान वह है जो मनुष्य को उसकी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठाता है, जगत् के मंगल की वृद्धि में सहायक होता है और मनुष्य की आत्मीयता की भावना को विस्तृत बनाता है । जो विज्ञान इससे विपरीत कार्य करता है वह विकृत ज्ञान है-कुज्ञान है। उससे जंगत् का अमंगल होना निश्चित है । ऐसे कुशान से अज्ञान श्रेष्ठ है।
जिन्हें सौभाग्यवश ज्ञान की प्राप्ति हुई है, उन्हें मैत्री भावना के विस्तार कर प्रयत्न करना चाहिए । मैंनी भावना का प्रसार ही अहिला का महत्व है। इसीलिए शास्त्रों का प्रतिपाद्य मुख्य विषय अहिंसा है। अहिंसा से ही जगत् का विस्तार है। मूलः-संबुज्झमाणे उ णरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवहएजा
हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महन्भयाणि२६ छाया:सचुध्यमानस्तु नरो मतिमान, पापादात्मानं निवर्तयेत् ।
• हिलाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, वैरानुसन्धीनि महाभयानि ॥ १६ ॥ __ शब्दार्थः-तत्त्व को जानने वाला बुद्धिमान पुरुष, हिंसा से उत्पन्न होने वाले दुःखों को कर्म-वन्ध का कारण तथा अत्यन्त भयंकर मानकर पाप से अपनी आत्मा को हटाते है।
भाष्यः--माथा का भाव स्पष्ट है जिसे सभ्य बोधि की प्राप्ति हुई है उसे आत्मा को पापों से निवृत्त करना चाहिए । जो अपनी आत्मा को पाप से निवृत्त नहीं फरता उसका बोध-शान-निरर्थक है। जो हित की प्राप्ति और भहित के परिहार में पुरुष को समर्थ नहीं बनाता उस शान से क्या लाभ है।
हिंसा के फल अत्यन्त दुःख रूप होते हैं। हिंसा से वैर का अनुबंध होता हैं। एक जन्म में जिसकी हिंसा की जाती है वह अनेक जन्मों में उसका बदला लेता है। धर्मकथानुयोग के शास्त्रों में इसके लिए अनेक कथानक विख्यात हैं।
हिंसाजन्य पाप महान भयकारी होते हैं । हिंसा से नरक, तिर्यञ्च आदि अशुभ
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वैराग्य सम्बोधन
गलियों की प्राप्ति होती है और वे गतियां श्रत्यन्त भयंकर हैं । पहले इसका विवेचन आचुका है।
मूलः - श्रापगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए णासवे | जे धम्मं शुद्धमाक्खाति, पडिपुराणमणेलिसं ॥ १७ ॥
छाया: - श्राप्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोताऽनासवः ।
यो धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्ण मनीदृशम् ॥ १७ ॥
शब्दार्थ:--मन, वचन और काय से आत्मा को पाप से बचाने वाला, जितेन्द्रिय, संसार के स्रोत को बंद कर देने वाला, आस्रव से रहित महा पुरुष पूर्ण शुद्ध आर अनुयम धर्म का उपदेश देता हैं ।
भाष्यः - श्रनादि काल से अब तक असंख्य धर्म और धर्मप्रवर्त्तक भूमंडल में श्रवतीर्ण हुए हूँ । सबने अपने-अपने विचार के अनुसार धर्म का कथन किया और जनता को उसी धर्म के अनुसरण का उपदेश दिया । पर उनमें से श्राज अधिकांश धर्मो और धर्मोपदेशकों का नाम भी कोई नहीं जानता । कितनेक ऐसे हैं जिनका नाम ही शेष रह गया है और इतिहास के विद्यार्थी ही उन्हें जानते हैं । इसका कारण है ?
क्या
इसका कारण यह है कि वे धर्मप्रवर्त्तक पूर्णशानी नहीं थे । अपूर्ण ज्ञानवान्नू होने के कारण उनके द्वारा प्ररूपित धर्म भी अपूर्ण रहा । जो धर्म तीन लोक में श्रीर प्राणी मात्र के लिए समान रूप से उपयोगी होता है वही पूर्ण कहलाता है ।
जिस धर्म में अधर्म का लेशमात्र भी मिश्रण नहीं होता और जो सवस्त दोष संरक्षित होता है वह धर्मशुद्ध कहलाता 출 1
इस प्रकार जो धर्म पूर्ण है अर्थात सब जीवों का हितकारी और आत्मा को पूर्ण रूप से पवित्र बनाने वाला है, तथा सर्वथा निर्दोष है, और दोनों विशेषणों से मुक्त होने के कारण जो अनुपम हैं, वही सत्य धर्म है । वही प्राणियों को जन्म- जरा, मरण आदि के दुःखों से मुक्त कर सकता है ।
ऐसे धर्म की प्ररूपणा करने का अधिकारी कौन है, यह सूत्रकार ने यहां बतलाया है । जो श्रात्मगुप्त, सदा, दान्त, छिन्न स्रोत और नास्रव होता है वही महात्मा शुद्ध और पूर्ण धर्म की प्ररूपणा कर सकता है । मन, वचन और काय से आत्मा को गोपने वाला अर्थात् इनसे होने वाले सावध व्यापार को रोक देने वाला, इन्द्रि यो को और मन को दमन करने वाला, कर्मों के श्रागमन के द्वारा भूत श्रास्रव को बंद कर देने वाला, अथवा कर्मास्रय के कारण भूत परिणाम रूपी स्रोत से रहित महापुरुष ही धर्मदेशना का अधिकारी हैं।
1
उपर्युक्त गुण जिनमें विद्यमान नहीं है, अर्थात् जो पाप से स्वयं उपरत नहीं हुए हैं, जिनकी इन्द्रियां और जिनका मन वश में नहीं हुआ है और जिन्होंने श्राव रूपी
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चौदावा अध्याय कर्मस्रोत बन्द नहीं कर पाया है, इस प्रकार जो स्वयं विषय-कषाय के पाश में फंसे हुए हैं, वे धर्मदेशना के अधिकारी नहीं हैं ।
ऐसे पुरुषों द्वारा उपदिष्ट धर्म श्रात्मकल्याण का साधन नहीं बन सकता । जो स्वयं अन्धा है वह दूसरों का पथप्रदर्शन कैसे कर सकता है १ अतएव धर्मप्रिय सजनों को धर्मप्रणेता के जीवन पर दृष्टिपात करके उसकी धर्मप्ररूपणा की योग्यता जांच लेनी चाहिए। भूलः-न कम्मुणा कम्म खवेति बाला,
अकम्मुणा कम्म खती धीरा । मेधाविणो लोभमयावतीता,
. संतोसिणो नो पकरोति पावं ॥ १८ ॥ भाया:-न कर्मणा कर्म क्षययन्ति बालाः, अकर्मणा कर्म क्षययन्ति धीराः ।
मेधावितो लोभमदवातीताः, सन्तोपिणो नों प्रकुर्वन्ति पापम् ॥ १८ ॥ शब्दार्थ:--बाल जीव सावध कर्मों से कर्म का क्षय नहीं करते हैं। धीर पुरुष अकर्म से अर्थात् संवर आदि शुद्ध अनुष्ठानों से कर्म का क्षय करते हैं। लोभ और अभिमान से रहित, संतोषी बुद्धिमान पुरुष पाप का उपार्जन नहीं करते हैं।
भाध्या-बालक के समान-हित और श्रहित के विवेक से शून्य पुरुष भी बाल कहलाते हैं। यह बाल जीव कर्मों का. क्षय करने के लिए अनेक प्रकार के सावध अनुष्ठानों का सहारा लेते हैं।
जैसे रक्त से रक्त नहीं धुल सकता उसी प्रकार पाप कर्मों से पाप कर्मों की निवृत्ति नहीं हो सकती । श्रतएव ऐसे विपरीत प्रयास करने वालों को शास्त्रकार 'वाल' जीव कहते हैं। ..
किस प्रकार कमों का क्षय नहीं हो सकता, यह स्पष्ट करने के पश्चात् द्वितीय चरण में शास्त्रकार यह बताते हैं कि पाप कर्मों का नाश किस प्रकार हो सकता है।
परीषह और उपसर्ग आने पर भी जो अपने पथ से और अपने पद से च्युत नहीं होते और दृढतापूर्वक समस्त विरोधी शक्तियों के साथ जूझते हैं, उन्हें धीर कहते हैं। धीर पुरुष अकर्म से अर्थात् निरवद्य अनुष्ठानो से-समिति, गुप्ति, तपस्या, संवर श्रादि के व्यवहार से कर्मों को क्षय करते हैं। कमों के क्षय का यही एकमात्र उपाय है। पाप कर्मों का विनाश निष्पाप क्रियाओं से ही हो सकता है।।
कमों का क्षय होते रहने पर भी यदि नवीन कर्मों का मानव होता रहे तो मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती । पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय और नवीन कर्मों के श्रानव का अभाव होने पर ही मुनि-लाभ होता है। मतएव शास्त्रकार उत्तरार्द्ध में नवीन कर्मों के उपार्जन के अभाव के उपाय पतलाते हुए कहते हैं-मेधावी अर्थात्
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___वैराग्य सम्बोधन बुद्धिमान पुरुष जब-लोभ और मद से अतीत हो जाते हैं अर्थात् चारों प्रकार के . ' कपार से मुक्त हो जाते हैं और संतोष उन्हें प्राप्त हो जाता है तब वे पापों का उपाजैन नहीं करते।
तात्पर्य यह है कि जब तक कषायों की विद्यमानता है और संतोष वृत्ति अन्तः करण ले उत्पन्न नहीं होती, तब तक पाप का निरोध नहीं होता। ' लोभ पाप का. चाप वखाना' अर्थात् लोन पापों का जनक है। जब तक लोभ का प्रावल्य है तबतक मनुष्य भांति-भांति के प्रारंभ-समारंभ में निरत रहता है और पाप से बच नहीं सकता । इसी प्रकार अभिमान की विद्यमानता में भी पाप कर्म की उत्पत्ति होती रहती है।
__लोभ ता अभाव एकान्त तुच्छाभाव रूप नहीं है, यह सूचित करने के लिए 'सन्तोषी' कहा है। सन्तोषी नर सदा सुखी रहता है । उसे निरंभ वृत्ति से जो कुछ भी प्राप्त हो जाता है उसी में वह सन्तुष्ट रहता है । उससे अधिक की प्राप्ति के. लिए वह हाय-हाय नहीं करता। सच्चा सुस्त्र ऐसे ही पुरुषों को प्राप्त होता है। संतोष के अभाव में तीन लोक की समस्त सम्पत्ति भी तुच्छ है । असंतोषी उससे भी अधिक की भाशा रखता है, अतएव वह संपत्ति भी उसे सुखी नहीं बना सकती। इसके विपरीत संतोषी नर लखे-सूखे चने चयेने को भी पर्याप्त समझकर उसे ग्रहण करता है और उसी में सुरू मान लेता है।
___ बारीकी से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि संसार का अधिकांश दुःस्त्र असंतोप से उत्पन्न होता है । असंतोष को जितने अंशों में घटाते चले जाओ, उतने ही अंशों में दुःख घटता चला जायचा । श्रतएव हे भव्य प्राणी तू संसार का वैभव प्राप्त करने का वृथा प्रयास मत कर । यह तो प्रकाश को लांघने के समान वालचेष्टा है। अगर तुझे सुखी होना है तो संतोप वृद्धि धारण कर।
. संतोष वृत्ति का अन्तःकरण में उदय होते ही तेरा दुःख न जाने कहां विलीन्ट हो जायगा और तब तेरे कमाँ के श्रानव का भी निरोध हो जायगा। मूलः-डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे,
ते प्रात्तो पस्सइ सव्व लोए। उव्वेहती लोगमिणं महंतं,
बुद्धेऽप्यमत्तेसु परिव्वएजा ॥ १६ ॥ झाया:-दिम्भ प्राजो वृद्धश्र प्राणः, स प्रारमवत् पश्यति सबलोकात् ।
टोपते बोदमिमं महान्तम् युद्धोऽप्रमत्तेपु परिप्रजेन् शब्दार्थ:-छोटे और पड़े सभी प्राणियों को-समस्त लोकों को जो अपने समान देखता ई और इस महान लोक को अशाश्वत देखता है वह मानी संयम में रत रहता है ।।
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चौदहवां अध्याय
[.५३७ ]. __ भाष्यः-चिउँटी, जूं. मच्छर आदि छोटे-छोटे प्राणियों को अपने ससान समझने वाला और जगत की अनित्यता एवं दुःख मयता समझने वाला विवेकशील पुरुष ही प्रमाद रहित होकर संयम का श्राचरण करता है।
जैसा कि पहले अध्ययन में निरूपण किया जा चुका है, समस्त प्राणियों में समान अात्मा विद्यमान है । श्रात्म द्रव्य सर्वत्र एक जातीय होने पर भी जीवों में बौद्धिक, शारीरिक या. श्राध्यात्मिक अन्तर जो दृष्टि गोचर होता है, उसका कारण. कर्म है। कर्म अर्थात् श्राचरण की न्यूनाधिकता के कारण किसी को छोटे शरीर की प्राप्ति होती है और किसी को बड़ा शरीर मिलता है। इसी प्रकार बौद्धिक भेद भी ज्ञानावरण श्रादि कर्मों के कारण होता है । अतएव शारीरिक एवं बौद्धिक भिन्नता होने पर भी आत्माओं के मूल स्वरूप में किञ्चित् भी भेद नहीं है। समस्त प्राणी उपयोगमय स्वरूप वाले हैं-अनंतज्ञान, दर्शन, शक्ति श्रादि के भंडार हैं। जब आत्मा के गुणों का पूर्णरूपेण प्राकट्य होता है तब मूलगत सदृशता स्पष्ट प्रकट हो जाती है।
सभी जीव समान स्वभाव वाले हैं। जैसे एक जीव सुख की आकांक्षा करता है और दुःख से भयभीत होता है, उसी प्रकार अन्य जीव भी सुख की इच्छा रखते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं । विवेकीजन वही है जो इस प्रकार विचार करता है कि-'जैसे मृत्यु मुझे अनिष्ट है और जीवन इष्ट है, इसी प्रकार समस्त प्राणियों को. अपनी मृत्यु अनिष्ट है और जीवन इष्ट है। मेरे साथ छल-कपट करके मुझे ठगने वाला निन्दनीय कार्य करता है, उसी प्रकार यदि मैं किसी को धोखा देता हूं तो निन्दनीय कार्य करता हूं। इस प्रकार समता भाव की आराधना करने से संयम की पाराधना होती है। जिसके अन्तःकरण में सास्यभाव का उद्रेक हो उठता है वह अन्य प्राणी को कष्ट देना अपने आपको कष्ट देने के समान अप्रिय अनुभव करता है। वह दूसरे प्राणियों के सुख के लिए इतना अधिक प्रयत्नशील रहता है, जितना अपने सुस्खा के लिए। जैसे कोई पुरुष अपने को दुःख देने की बात मन में भी नहीं आने देता, उसी प्रकार वह साम्यभाव का आराधक दूसरों का अहित करने का संकल्प तक नहीं करता। जैसे प्राप दुःख का अनुभव करके विकल हो जाता है उसी प्रकार. शान्य प्राणियों की वेदना भी उसे विकल बना देती है.। अपना दुःख उत्पन्न होने पर उसके प्रतीकार के लिए जैसे वह उद्यत होता है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को दुःस्त्री देख कर समताभावी पुरुष अकर्मण्य होकर नहीं बैठा रहता, वरन् उस दुःख को निवारण करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करता है।
___महापुरुषों के चरित का सावधानी के साथ अध्ययन किया जाय तो प्रतीत . होगा कि वे जगत् के दुःख को अपना ही दुःख मान कर उसके निवारण के लिए उद्योगशील बने रहते थे। यह साम्यभाव उनमें जीवित रूप से विद्यमान था। उनके अद्भुत उत्कर्ष का प्रधान कारण भी यही साम्यंभाव था।
साम्यभाव की आराधना के लिए पर पदार्थों के प्रति आसक्ति का प्रभाव आवश्यक है। जिसके अन्तःकरण में इन्द्रियों के विषयों सम्बन्धी तथा भोगोपभोग
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वैराग्य सम्बोधन के अन्य साधनों संबंधी ममता की अधिकता होती है वह सदा नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों में उलझा रहता है। उसे निराकुलता का अपूर्व आनन्द प्राप्त नहीं होता अतएव साम्यभाव की आराधना के लिए संसार को प्रशाश्वत समझकर उससे उदासीनता धारण करनी चाहिए । विचारना चाहिए कि समस्त संसार के पदार्थ नाशवान हैं। इनके साथ आत्मा का कुछ भी वास्तविक संबंध नहीं है । जीव जय जन्म लेता है तो पूर्वजन्म के किसी भी पदार्थ को साथ नहीं लाता और जव श्रायु पूर्ण करके परलोक की और प्रयाण करता है तब भी साथ में कुछ नहीं लेजाता। संसार के पदार्थ श्रात्मा का साथ नहीं देते । जीव मरकर जब नरक गति की भूख
और प्यास भोगता है, तिर्यञ्च गति की नानाप्रकार की व्यथाएँ सहन करता है, तब कोई भी वस्तु या पूर्वजन्म का कुटुम्बी सहायक नहीं बनता।
इतना ही नहीं, संसार में श्राज जिन्हें जीव अपना मानता है, जिनके स्नेह में । पड़कर धर्म को भी भूल जाता है, जिन्हें प्रसन्न करने के लिए कर्तव्य-अकर्तव्य के भान को एक किनारे रखकर सभी कार्य करता है, जिनके पालन-पोषण के हेतु नाना सावध क्रियाएँ करता है, जिनके अनुराग में रत रहकर शेष संसार को कुछ भी नहीं समझता, वे आत्मीय जन क्या वास्तव में आत्मीय हैं ? जो सचमुच मात्मीय होता है, वह त्रिकाल में भी आत्मा से अलग नहीं हो सकता । सम्यग्दशेन, सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र, आदि गुण आत्मा के लिए श्रात्मीय है, अतएव वे किसी भी काल में श्रात्मा से न्यारे नहीं होते। इसी प्रकार क्या कुटुम्बीजन सदा साथ देते हैं ? नहीं। .
संसार में ऐसा कोई जीव नहीं है जिसके साथ कोई संबंध न हो चुका हो. सभी जीवों के साथ सब का संबंध हो चुका है । अगर चे वास्तव में आत्मीय होते तो मया श्राज पराये बन सकते थे ? फिर भी रागान्ध मनुष्य की आने नहीं खुलतीं। वह अपनी आत्मीयता की भावना को एक छोटी-सी सीमा में चंद कर रखता है। जानी जन इस प्रकार विचार करते हैं कि-'संसार के समस्त संबंध नश्वर हैं। प्रात्मा सय पदार्थों से विलग है, उसके साथ किसी का संबंध नहीं हो सकता। शरीर में प्रात्मा रहता है, फिरभी दोनों के संयोग विनाश शील है। शरीर जड़ है
और मात्मा चिदानन्दमय है । दोनों का ऐक्य कैसे हो सकता है ? शरीर ही विनश्वर है तो संसार के अन्य संबंध, माता, पिता, पुत्र और भाई आदि के रिश्ते, कैसे नित्य हो सकते हैं? इन सब का संबंध तो शरीर के साथ है, जब शरीर दी स्थायी नहीं यह रिश्ते स्थायी कैसे हो सकते हैं ? ' मूलं नास्ति कुतः शाहा' अर्थात मूल के अभाव में शास्त्राएँ किस प्रकार ठहर सकती हैं ? ज्ञानी जन ठीक ही कहते
यस्यास्ति नैक्यं वपुपाऽपि सार्धम् ;
___ तस्यास्ति किं पुत्र कलत्र मित्रैः ? पृथक कृते चर्मणि ऐमकूपाः,
कुतो दि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥
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चौदहवां अध्याय
[ ५३६ अर्थात् आत्मा की शरीर के साथ ही एकता नहीं है तो फिर पुत्र, स्त्री और मित्रों के साथ क्या एक रूपता हो सकती है ? यदि शरीर के ऊपर से चमड़ी उखाड़ ली जाय तो रोमकूप कैसे रह सकते हैं ? कदापि नहीं रह सकते।।
तात्पर्य यह है श्रात्मा समस्त पदार्थों से भिन्न, अपने ही गुणों में रमा हुश्रा है। संसार के अनित्य पदार्थों के साथ उसका संबंध नहीं है। इस प्रकार विचार कर संसार में राग-भाव का त्याग करना चाहिए और आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
निर्गन्ध-प्रवचन-चौदहवां अध्याय समाप्त
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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * नियन्ध प्रवचन ॥ पन्द्रहवां अध्याय ॥
मनोनिग्रह
श्री भगवान्-उवाच-. मूलः-एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस ।
दसहा उ जिणित्ता णं, सव्वसत्त जिणामहं ॥१॥ छाया-एकस्मिन जिते जिता पञ्ज, पजस जितेपु जिता दश ।
दशधा तु जिस्या, सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ॥१॥ शब्दार्थः-एक को जीत लेने पर पांच जीत लिए जाते हैं, पांच को जीतने पर दस के ऊपर विजय प्राप्त होती है और इस पर विजय प्राप्त करने वाला समस्त शत्रुओं पर जय पा लेता है।
भाष्यः-चौदहवें अध्ययन में वैराग्य का विवेचन किया गया है। प्रात्मकल्याण की भावना जिसके हदय में उद्भूत हुई है उसे संसार से विरक्त हो जाना चाहिए-सांसारिक वस्तुओं में राग-द्वप का त्याग कर समभाव धारण करना चाहिए । इस अध्ययन में समभान के प्रधान कारण मनोनिग्रह का विवेचन किया जाता है। मनोनिग्रह के बिना समभाव नहीं हो सकता। इसी कारण वैराग्य सम्बोधन के पश्चात् मनोनिग्रह की प्रेरणा की गई है।
आत्मविजय में सर्वप्रथम मन की विजय का स्थान है। जो सरवशाली पुरुष श्क मन को जीत लेता है वह पांच को अर्थात् पांच इन्द्रियों को जीत लेता है। अर्थात जिसने अपने मन को वश में कर लिया वह पांचो इन्द्रियों को वश में कर सकता है। मन को जीते बिना इन्द्रियां वश में नहीं होती। अतएव श्रात्मविजय की साधना करने वाला सर्व प्रथम अपने मन पर अधिकार करे । मन पर किल प्रकार अधिकार हो. सकता है, यह आगे निरूपण किया जायगा। मन पर विजय प्राप्त करने पर इन्द्रियां स्वयमेव विजित हो जाती हैं।
मानसिक शुद्धि होने पर ही इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती मानसिक शुद्धि के अभाव में यम, नियम आदि द्वारा किया जाने वाला काय-क्लेश व्यर्थ है । प्रवृत्ति न करने योग्य विषयों में प्रवृत्ति करने वाला और निरंकुश होकर घर-उधर भटकने
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पन्द्रहवां अध्याय
[ २४१ ] घाला-मन संसार को जन्म-मरण की घानी में पोल रहा है। संसार से विमुख हो कर एकान्त, शान्त और निरुपद्व स्थान में जाकर मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा ले तीन तपस्या का आचरण करने वाले मुनियों को भी सन कभी-कभी चंचल बना देता है। मन बंदर से भी अधिक चंचल है । पल-पल में बह नया-नया रंग दिखलाता रहता है। मुक्ति की साधना में मन की यह चंचलता लब ले प्रबल बाधा है। अतएव मुसुक्कु जनों को अपनी साधना सार्थक करने के लिए सज पर पूरा नियंत्रण करना चाहिए।
महापुरुषों का कथन है कि मन की शुद्धता होनेपर अविद्यमान गुण है श्राविर्भूत हो जाते हैं और मन शुद्ध न हो तो मौजूदा गुण भी नष्ट हो जाते हैं । अतएव प्रत्येक संभव उपाय से विवेकवान् पुरुष को मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए जैसे अंधे के आगे रफ्खा हुआ दर्पण वृधा है, उसी प्रकार सनोनिग्रह के अभाव में तपस्या भी निरर्थक है।
मन का निग्रह हो जाने पर इन्द्रियों का जीत लेना कठिन नहीं रहता। इन्द्रियों को उन्मार्गगामी और घपल अश्व की उपमा दी जाती है। जिनके इन्द्रिय रूपी अब नियंत्रण में नहीं होते अर्थात् जो पुरुष इन्द्रियों को विना लगाम के स्वतंत्र गति करने देता है और स्वयं इन्द्रियों का शानुचर बन जाता है, उसे इन्द्रिय रूप अश्व शीघ्र ही नरक रूपी अरण्य की ओर ले जाते हैं । जो इन्द्रियों का निग्रह नहीं करते उनका निश्चित रूप से अधःपतन.होता है। इन्द्रिय निग्रह न करने से परलोक में कितने कर भुगतने पड़ते हैं, इल बात को थोड़ी देर के लिए रहने भी दिया जाय और सिर्फ इसी भव के कष्टों का विचार किया जाय तो इन्द्रियों की अनर्थता स्पष्ट हो जाती है। जो लोग पांचों इन्द्रियों के अधीन हो रहे हैं, उनकी क्या गति होगी। जबकि केवल एक-एक इन्द्रिय के गुलाम बनने वालों की भयंकर दुर्दशा प्रत्यक्ष देखी जाती है। केवल मात्र स्पर्शन-इन्द्रिय के अधीन होने वाले हाथी की दुर्दशा का विचार कीजिए। 'वह हथिनी के स्पर्श के अनुराग में अंधा होकर गड्ढे में गिरता है और वध बंधन की वेदनाएँ सहन करता है। इसी प्रकार अगाध जल में विचरने वाला मत्स्य जिह्वा के अधीन होकर जाल में फंसकर मृत्यु का शिकार हो जाता है । म्राण-इन्दिर का वशषत बनकर हाथी के मद के गंध से लुब्ध होकर हाथी के गण्डस्थल पर पैठने वाला श्रमर अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है । चक्षु इन्द्रिय का दास. बनकर पतंग, अग्नि की ज्वाला का अतिथि बनता है और अपनी जान गँवा धैठता है। मधुर गान सुनने का श्रभिलाषी हिरन, श्नोत्र-इन्द्रिय के अधीन होकर व्याध के तौखे चार का लक्ष्य बनता है।
इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के अधीन होने वाले प्राणियों की अब यह दशा होती है तव जो पांचों इन्द्रियों के अधीन हो रहे हैं उनकी क्या दशा होगी? __ शंका-जव तक शरीर है तब तक इन्द्रियां भी अवश्य रहती हैं और जातक इन्द्रियों हैं तब तक वे अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति भी करेंगी ही ! ऐसी अवस्था में इन्द्रियनिग्रह कैसे हो सकता है ? ..
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[ ५५२ ..
मनोनिग्रह समाधान-इन्द्रियनिग्रह का श्राशय यह नहीं है कि विषयों में उनकी प्रवृत्ति न होने दी जाय । जो विषय योग्य देश में विद्यमान होगा वह इन्द्रियों का विषय हो ही जायगा। कोई भी योगी अपनी श्रांखें सदा चन्द नहीं रखता और न कानों में ढक्कन लगाता है । इन्द्रिय-निग्रह का ऐसा अर्थ समझ लेने पर तो इन्द्रिय-निग्रह संभव ही नहीं रहेगा । इन्द्रियों को जीतने का अर्थ यह है कि इन्द्रियों. के विपयों में राग और द्वेष का परित्याग कर दिया जाय और साम्य भाव का अवलम्बन किया जाय । इन्द्रियों की समताभाव से युक्त प्रवृत्ति इन्द्रियजय में ही अन्तर्गत है । उदा. हरण के लिए भोजन को लीजिए । इन्द्रियविजयी मुनि भी थाहार करता है और इन्द्रियों का वशवती साधारण व्यक्ति भी आहार करता है । आहार के स्वाद रूप विषय में दोनों की रसना-इन्द्रिय प्रवृत्त होती है। मगर मुनि स्वादिष्ट भोजन पाकर प्रसन्न नहीं होता और निःस्वाद भोजन मिलने पर चित्त में स्वेद नहीं लाता । वह मधर पकवान और दाल के छिलके को समभाव से प्रहण करता है। इससे विपरीत इन्द्रियार्धान व्यक्ति मनोज्ञ भोजन अत्यन्त रागभाव से और असनो भोजन तीव द्वेष के लाथ, नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ ग्रहण करता है। आहार की समानता होने पर भी चित्तवृत्ति की विभिन्नता के कारण मुनि इन्द्रियविजयी और दूसरा व्यक्ति इन्द्रियों का दास कहा जाता है।
यही वात अन्य इन्द्रियों के संबंध में समझलेनी चाहिए । मुनि भी अपने कानों से शब्द सुनते हैं और अन्य व्यक्ति भी । किन्तु गाली शादि के प्रतिशत सुनकर मुनि को खेद नहीं होता और स्तुति श्रादि के इष्ट लमझेजाने वाले शब्द सनने से उन्हें हर्ष नहीं होता। दूसरा व्यक्ति ऐसे प्रसंगों पर राग और रेप से व्याकुल हो जाता है।
इस प्रकार इन्द्रियों के विपयों में चित्त की रागात्मक और द्वेषात्मक परिणति नहोला इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना कहलाता है। मुनिराज इसी प्रकार इन्द्रियविजय करते हैं।
मनिराज विचार करते हैं कि वास्तव में न कोई वियय प्रिय है, न अप्रिय है। प्रियता और अप्रियता तो चित्त की तरंग है। यही कारण है कि जो विषय एक समय प्रिय लगता है वहीं दूसरे समय में अप्रिय लगने लगता है । सूर्य के श्रातप से तपा इशा मनुष्य सरोवर के शीतल जल का स्पर्श करने में श्रानन्द का अनुभव करता है, किन्तु कुछ समय पश्चात्-जल में सवगाहन करने के वाद-शीत स्पर्श से व्याकल छोकर उष्ण स्पर्श जी श्रमिलापा करने लगता हैं । गालियां सुनकर मनुप्य भाग बबूला हो उठता है, पर ससुराल में दी जाने वाली गालियों से प्रसन्न होता है। इसका एक मात्र कारण यही है कि वास्तव में कोई भी विषय स्वभावतः प्रिय अथवा आमिद्ध नहीं है। प्रिय और अनिय विषय का भेद करना मन की कल्पना मात्र है। मनुष्य पहले इस कल्पना की सृष्टि करता है और फिर उसी पल्पना के जाल मे स्वयमेव फैस जाता है। योगी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझते हैं अतएव में इन्द्रिय के किसी भी
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पन्द्रहवां अध्याय विषय में राग द्वेष धारण नहीं करते।
' इस प्रकार जो महापुरुष मन को जीत लेता है, मन को इष्ट-प्रनिष्ट विषय की कल्पना करने से रोक देता है, वह इन्द्रियों को भी जीत लेता है। हली अभिप्राय से शास्त्रकार ने कहा है-एगे जिए जिया पंच।' अर्थात् एक मन पर नियंत्रण कर लेने पर पांच अर्थात पांच इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है।
पांच इन्द्रियों को जीत लेने पर दल पर अर्थात् मन, पांच इन्द्रियों और क्रोध . मान, माया एवं लोभ रूप चार कषायों पर विजय प्राप्त होती है।
कषायों का मूल भी मन है। जब मन काबू में आ जाता है तो राग और द्वेष रूप चार कषायें भी काबू में आजाती हैं। ऊपर के विवेचन से यह विषय स्पष्ट है। .
जो महात्मा कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है उसके चित्त की चिर-कालीन असमाधि सहसा विलीन हो जाती है। वह समताभाव के परम रम्य सरोवर में अवगाहन करके लोकोत्तर शान्ति का प्रास्वादन करता है । इस सरोवर में अवगाहन करते ही चिर संचित मलीनता धुल जाती है। कहते हैं,आधे क्षण भी जो पूर्ण समता- .
आंव का अवलम्बन करता है, उसके इतने कर्मों की निर्जरा हो जाती है जितने कर्म . करोडो वर्षों तक तपस्या करने वालों के भी निर्जीर्ण नहीं होते। समताभव का. परम : प्रकाश जहां प्रकाशमान होता है वहां राग द्वेष का प्रवेश नहीं होने पाता । अतएव समताभाव प्राप्त करने के लिए चार कषायों को जीतना परमावश्यक है । कषाय-जय के लिए शास्त्रकार ने कहा है
उवलमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे ।
मायमजवभावेणं, लोहं संतोष श्री जिणे ॥ अर्थात् क्षमा भाव का आश्रय लेकर क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, मृदुता (विनय ) का अवलम्वन करके सान को जीतना चाहिए श्राव (सरलता) 'धारण करके माया को हटाना चाहिए और सन्तोष धारण करके लोभ का नाश करना चाहिए।
इस प्रकार विरोधी गुणों की प्रबलता होने पर कयायों सन्त आसा है। कषाय आत्मा का भयंकर शत्रु है । वह संसार को बढ़ाने वाला, दुर्गति में ले जाने वाला और श्रात्मा को अपने स्वरूप से च्युत करने वाला है । च्यारहवें गुणस्थान तक पहुंचे हुए मुनि की आत्मा में उत्पन्न होकर कषाय ही उनके अधःपतन का कारण होता है । कषाय के सद्भाव में सम्यक्-चारिज की पूर्णता नहीं हो पाती। अनन्तानुबंधी कषाय तो सम्यक्त्व को भी उत्पन्न नहीं होने देता। इस प्रकार कपाय के कारण प्रात्मा को अत्यन्त कष्ट उठाना पड़ता है । अतएव मन और इन्द्रियों को जीत कर 'कषायों को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए। .
. . . मन को, पांच इन्द्रियों को और चार कपायों को जीतने का माहात्म्य बतलाते झुए शास्त्रकार अन्त में कहते हैं-'दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तु जिणाम। अर्थात् मन श्रादि दस को जीत लिया जाय तो समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो
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जाती है।
आत्मा का श्रनिष्ट करने वाला शत्रु कहलाता है । शत्रु कौन है, इस विषय का विवेचन प्रथम अध्ययन में किया जा चुका है । साधारण मनुष्य जिसे शत्रु समझता है वह वास्तव में शत्रु नहीं है । आत्मा के असली शत्रु राग, द्वेष, अज्ञान आदि दोष | कषायों का जब सर्वथा नाश हो जाता है तब राग श्रादि विकार पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं । उस समय कोई भी शत्रु अवशिष्ट नहीं रहता । मगर कषाय रूप शत्रु के कौशल को तो देखिए कि उसने जो शत्रु नहीं हैं उन्हें शत्रु बना रक्खा है और स्वय शत्रु है, फिर भी वह मित्र बना रहता है। उसने श्रात्मा को ऐसे भ्रम में डाल रक्खा है कि श्रात्मा अपने शत्रु-मित्र को भी पहचानने में असमर्थ बन गया है । यही कारण है कि वह दूसरे मनुष्यों को, जो श्रसाता के निमित्त मात्र वन जाते हैं, अपना शत्रु मानता है और रूपाय को-जो कर्मबंध का प्रधान कारण हैं, शत्रु नहीं मानता ।
मनोनिग्रह
गंभीर दृष्टि से देखा जाय तो विदित होगा कि क्रोध, मान, माया और लोभ का जब तक सद्भाव है तबतक मित्र शत्रु की कल्पना होती है । इनके विनाश हो जाने पर संसार में शत्रु कोई हो ही नहीं सकता । अतएव जिसने कपायों को जीत लिया उस ने समस्त शत्रुओं का जीत लिया।
जन दो प्रकार का है - (१) द्रव्यमन और (२) भावमन । मनोवर्गणा के पुद्गल. से निष्पन्न द्रव्यमन और मनन, चिन्तन आदि का साधन भाव मन कहलाता है । द्रव्य मन पौगलिक है और भाव मन चेतना रूप है ।
योग शास्त्र में मन चार प्रकार का माना गया है- (१) विक्षिप्त ( २ ) यातायात. (३) लिष्ट और (४) सुलीन ।
(१) विक्षिप्त - इधर से उधर भटकने वाला विक्षिप्त चित्त ।
(२) यातायात - कभी अन्दर की तरफ स्थिर हो जाने वाला और कभी बाहर निकल कर दौड़ने वाला ।
(३) लिए दूसरे चित्त की अपेक्षा अधिक स्थिर ।
(४) सुलीन अत्यन्त निश्चल ।
चिच जितने अंश में श्रात्मा में स्थिर रहता है उतने ही शो में श्रात्मिक आनन्द का अनुभव होता है । यातायात चित्त जय आत्मलीन होता है तब आनन्द की उपलब्धि होती है। लिए चित्त उसकी अपेक्षा अधिक श्रानन्ददाता हैं और सुन चित्त परमानन्द का कारण है। अतएव मन को आत्मा में स्थिर करने का प्रयक्ष करना चाहिए।
इन्द्रियों का और कषायों का निरूपण पहले हो चुका है।
मूल:- मणो साहसियो भीगो दुट्टस्सो परिधावई ।
तं सम्मं तु निगिरहामि, धम्म सिक्खाहि कंथगं |२|
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पन्द्रहवां अध्याय
छाया:- मनः साहसिकं भीमं दुष्टाश्वः परिधावति ।
तत् सम्यक तु निगृहणामि, धर्म शिक्षाभिः कन्थकम् ॥ २ ॥
[ ५४५ ]
शब्दार्थ::- मन बड़ा साहसी और भयंकर है । वह दुष्ट घोड़े की तरह इधर-उधर दौड़ता रहता है । धर्म शिक्षा से, उत्तम जाति के अश्व के समान उसका मैं निग्रह करता हूं ।
भाष्यः- - पूर्व गाथा में मनो- निग्रह का महत्व बतलाने के बाद यहां उसके निग्रह की कठिनाई का प्रतिपादन किया गया है । मनोनिग्रह में कठिनता यह है कि मन अत्यन्त साहसी और भयंकर है, साथ ही वह दुष्ट घोड़े की तरह लगाम की परवाह न करके इधर से उधर भटकता फिरता है ।
हित-अहित की अपेक्षा न करके प्रवृत्ति करने वाला साहसी कहलाता है । मन उचित और अनुचित का विवेक किये विना ही प्रवृत्ति करता है । जो लोग सदा अपने मन की गति - विधि का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने में सावधान होते हैं और कुमार्ग की और जाते ही उसे रोक लेते हैं, उन्हें भी कभी-कभी मन धोखा दे देता है। जो योगी उसे श्रात्मा में लीन रखने के लिए ध्यान आदि का अनुष्ठान करते हैं, उनका मन भी कभी उच्छृंखल बन जाता है और अनिष्ट विषयों की और चला जाता है । अनेक पुरुष मन की स्थिरता के लिए अरण्यवास अंगीकार करते हैं, मगर मन उन्हें राज प्रासादमें लेजाता है अनेक त्यागी संसारसे विरक्त होकर कायक्लेश करते हैं, पर मन भोगों में डूब कर उनके कायक्लेश को व्यर्थ बना देता है । न जाने कितने कटक शय्या पर सोने वालों का मन दौड़कर सुखमयी सेज पर पौढ़ जाता है। साधक पुरुष मन को अपनी ओर खींचता है और मन उसे अपनी और खींचता है। साधक पुरुष साम्यभाव के सुधा-सलिल से आत्मा को स्वच्छ बनाने में निरत होता है, तब मन उसके काबू से बाहर होकर राग-द्वेष के मैल द्वारा आत्मा को मलिन बना डालता है । मनुष्य कितनी ही बार अनाचार से ऊब कर उसे त्याग देने, का संकल्प करता है मगर मन नहीं मानता और उसे फिर अनाचार के कीचड़ में फंसा देता है । अपने कर्मों के क्षय के लिए प्रयत्न करने वाले और भोगों का सर्वथा त्याग कर देने वाले त्यागी पुरुष को मन कभी अतीतकाल में मुक्त भोगोंका स्मरण कराता है और कभी स्वर्ग के भोगोपभोगों की कामना उत्पन्न करके उसके तप-त्यांग को मिट्टी में मिला देता है
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मन अत्यन्त धृष्ट है । एक बार उसका निग्रह कर लेने पर भी वह थकता नहीं । आत्मा से बाहर निकलने के उसने अनेक मार्ग बना रखे हैं । जब कोई पुरुष एक मार्ग बंद कर देता है तो वह दूसरे मार्ग से बाहर निकल भागता है ।
मन में विचित्र मोहनी शक्ति है । जो मनुष्य उसे नियंत्रण में रखना चाहते हैं, उन्हें भी वह मोहित कर लेता है । ऐसी स्थिति में जो लोग मन की ओर से सर्वथा लापरवाह है, मन को अपने अधीन न रखकर स्वयं मन के अधीन होकर रहना
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. मनानिग्रह । चाहते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ! ऐसे लोग मन के क्रीत दास बनकर उसके संकेत के अनुसार चलकर अपना घोर अनिष्ट करते हैं व लोग घोर राग-द्वेप आदि में लिप्त होकर अत्यन्त अशुभ और कटक फल देने वाले कर्मों का संचय करके। श्रात्मा को भारी बनाते हैं।
मन पारे की तरह चपल है। जैसे पारा एक जगह स्थिर नहीं रहता, इसी प्रकार विशिष्ट योगियों को छोड़ कर, साधारण जन का सन भी स्थिर नहीं रहता। उसकी गति का वेग वायु से भी अत्यन्त तव होता है। एक क्षण में यहां है तो दूसरे क्षण में वह किसी दूसरे ही लोक में जा पहुंचता है। जैसे ज्वार और भाटे के कारण समुद्र शान्त नहीं रहने पाता उसी प्रकार मन की चंचलता के कारण आत्मा शान्ति का अनुभव नहीं कर पाती।
शास्त्रकार ने मन को दुष्ट श्रश्व की उपमा दी है। दुष्ट अश्व अपने भारोही के नियन्त्रण से बाहर हो जाता है। ज्यों-ज्यों उसकी लगाम खेची जाती हैं त्या-त्यों बद्द कुपथ की ओर अधिकाधिक अग्रसर होता है। मन की भी यही स्थिति है। जैसे-जैलें उसे नियन्त्रण में लेने का प्रयत्न किया जाता हैं, तैसे-तैसे वह अधिक अनियंत्रित . वनता जाता है। भगर जैसे अत्यन्त कुशल अश्वारोही दुष्ट अश्व को अन्त में वश में कर लेता है उसी प्रकार प्रबल पुरुपार्थ करने वाला योगी भी मन पर विजय प्राप्त कर लेता है। अन्त में दुष्ट अश्व भी अनुकुल बन जाता है, इसी प्रकार अनियंत्रित मन भी अभ्यास से नियंत्रित हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक साधना करने वालों को सतत् अभ्यास से, मानसिक गति-विधि का सूक्ष्म और सावधान अवलोकन करते हुए मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । मन को जीते विना किया जाने वाला क्रियाकाण्ड करीब-करीक वैसा है जैसे अंक के विनां शून्य राशि । इसी कारण कहा है
___ " मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः "। अर्थात् मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का प्रधान कारण है ।
मन के बिना तन द्वारा की जाने वाली क्रिया निजीच होती है । सामायिक जैसी प्रशस्त किया करते समय भी मन यदि राग-द्वेष में फंसा हो तो वह भी वृथा हो जाती है। इससे विपरीत वाहा रूप से भोग भोगने वाला भी अगर मन से भोगों में अलिप्त हो वह योगी की कोटि का हो जाता है । अतएव मन का निग्रह करना अत्यन्त आवश्यक है।
मन का निग्रह किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है-'तं सम्मं तु निगिरदामि धम्मतिपत्राहि ।' अर्थात में धर्मशिक्षा के द्वारा मन सम्या प्रकार से निग्रह करता है।
... 'निगिरदागि' इस उत्ता पुरुप की क्रिया का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि मनोनिग्रह का यह उपदेश केवल वाचनिक उपदेश ही नहीं है, परन् जिस .
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पन्द्रहवां अध्याय
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उपाय का यहां कथन किया गया है वह व्यवहार में लाया हुआ है, अभ्यस्त है । अभ्यस्त उपाय में शंका के लिए श्रवकाश ही नहीं रहता । ऐसे उपाय में श्रद्धा के साथ-साथ प्रतीति भी हो जाती है ।
जिस पथ पर पहले किसीने प्रयाण न किया हो, वह पथ भले ही सुगम हो, फिर भी दुर्गम ही जान पड़ता है । जिस पथ पर दूसरे पुरुष चले हों अथवा चलते हों वह दुर्गम होने पर भी सुगम-सा प्रतीत होता है । मनुष्य की इस प्रकृति के ज्ञाता शास्त्रकार ने मनोजय के मार्ग को प्राचार्य बताने के लिए 'निगिरहामि' क्रियापद का प्रयोग किया है | तात्पर्य यह है कि धर्मशिक्षा के द्वारा ही मैंने मन का निग्रह किया है और धर्मशिक्षा के द्वारा ही तुम अपने मन का निग्रह कर सकते हो ।
मनोनिग्रह को शास्त्रीय भाषा में मनोगुप्ति भी कहा गया है। मनोगुप्ति से क्या लाभ होता है, यह शास्त्र में इस प्रकार बतलाया है—
प्रश्न - मणगुक्त्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणेह ?
उत्तर—मणगुत्तयाए जीवे एगरगं जणयह, एगग्गचित्ते से जीवे मणगुत्ते
संजमाराहए भवइ ।
प्रश्न--- भगवन् ! मनोगुप्ति से जीव को क्या लाभ होता है. ?.
उत्तर- हे गौतम ! मनोगुप्ति से जीव को एकाग्रता की प्राप्ति होती है । एकाथ चित्त वाला जीव संयम का आराधक होता है ।
इसी प्रकार मानसिक समाधि के विषय में शास्त्र में लिखा हैप्रश्न-सणलमाहारण्याप णं भंते ! जीवे किं जणय ?
उत्तर--मणसमाहारण्याए एगग्गं जणयइ, एगग्गं जगइत्ता नागपज्ज्ञवे जणयइ, नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोद्देद्द, मिच्छत्तं य निज्जरे ।
प्रश्न- भगवन् ! मन को समाधिमें स्थिर करने से जीव को क्या लाभ होता है ? : उत्तर-सन को समाधि में स्थिर करने से एकाग्रता आती है । एकाता ' उत्पन्न करके जीव ज्ञान पर्याय अर्थात् ज्ञान की अपूर्व शक्ति प्राप्त करता है और आत्मज्ञान की शक्ति प्राप्त करके सम्यक्त्व की विशुद्धि और मिथ्यात्व की निर्जरा करता है ।
शास्त्रकार ने मन की एकाग्रता का जो फल बताया है उससे यह स्पष्ट है कि संयम की आराधना, श्रात्मज्ञान की प्राप्ति, सम्यक्त्व की विशुद्धि और मिथ्यात्व की निर्जरा के लिए मनोगुप्ति, मनः समाधि अथवा मनोनिग्रह कितना आवश्यक है ।
इस प्रकार मन को वश में करना कठिन भले ही हो, पर असंभव नहीं है । मनोनिग्रह असंभव होता तो शास्त्रकार ऐसा करने का उपदेश ही न देते । उपदेश संभव का दिया जाता है, असंभव का नहीं ।
मन की एकाग्रता के विना सच्ची शान्ति नहीं मिल सकती । मनुष्य मात्र. निद्रा लेता है । एक रात भी अगर जागते-जागते व्यतीत की जाय तो स्वास्थ्य
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भनानि खराव हो जाता है। निद्रा लेना एक प्रकार की मनकी एकाग्रता है, यद्यपि वह विकृत है । जो व्यक्ति चंचलता त्यागकर, थोड़ी देर के लिए भी निद्रा लेकर विकृत मानसिक एकाग्रता प्राप्त करता है वह शरीर को स्वस्थ रखता है। इस प्रकार, मन की विकार मयी एकाग्रता से भी जद शान्ति और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है, तब सय्यक प्रकार से मन को एकान बनाने से कितना लाल होगा यह सहज ही समझा जा सकता है।
वस्तुतः मानसिक एकाग्रता अपूर्व आत्मानन्द की जननी है । मन की एकाग्रता आत्मा रूपी निर्भर से आनंद का स्रोत प्रवाहित होने लगता है । जिसे इस प्रानन्द की अनुभूति करनी है उन्हें मानसिक एकाग्रता साधनी चाहिए ।
मन की एकाग्रता का उपाय शास्त्रकार ने 'धर्मशिक्षा', बताया है । धर्मशिक्षा का अर्थ है-धर्माचार या संयम का अभ्यास ।
संयम के अभ्यास में ध्यान का महत्वपूर्ण स्थान है और मन की एकाग्रता के लिए ध्यान अत्यन्त उपयोगी है। सामान्य रूप से ध्यान चार प्रकार का है-(१) आर्तध्यान (२) रौद्रध्यान (३) धर्मध्यान और (५) शुक्लध्यान । इन चार भेदों में पहले के दो ध्यान अशुभ हैं और अन्त के दो शुभ है। चारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।
(१) वार्तध्यान-अनिष्ट संयोग और इष्ट वियोग श्रादि से उत्पन्न होने वाली चिन्ता आर्तध्यान है । इसके भी चार भेद हैं_ (क) अनिष्ट शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श की प्राप्ति होने पर उनके वियोग की चिन्ता करना।
(a) इष्ट शब्द, रूप आदि तथा स्नेही स्वजन आदि का वियोग होने पर उनके संयोग की चिन्ता करना ।
(ग) ज्वर, शिरोवेदना श्रादि से उत्पन्न हुई आति-वेदना से विकल होकर उससे छुटकारा पाने की चिन्ता करना।
(घ) भोगोफ्भोग की प्राप्त सामग्री का वियोग न हो जाय, वह किस प्रकार मेरे अधीन बनी रहे, इत्यादि विचार करना।
आगामी विषयभोगो की प्राप्ति के लिए चिन्ता करना भी इसी भेद में अन्तर्गतः
आर्तध्यान प्रारंभ के छह गुण स्थानों तक हो सकता है। पांच गुणस्थान तक भार्तध्यान के चारों भेद पाये जाते हैं और छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चौथे खेद को छोड़कर शेष तीन भेद ही हो सकते हैं।
मार्चध्यान वाला पुरुष प्रादन करता है, नदन करता है, शोक करता है चिन्ता करता है, नांद रहाता है और विलाप करता है।
(२) रौद्रध्यान-'रुद्रः गश्यः, तस्य कर्म तब भवं वारीद्रम्' अर्थात् -- बद्र का अर्थ है रथाशय, फराशय के कर्म को अधया र भाशय से उत्पन
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पन्द्रहवां अध्याय होने वाले को रौद्र कहते हैं। . .
• हिंसा, असत्य, चोरी और धन की रक्षा में मन लगाना रौद्ध्यान है। अथवा हिंसा आदि संबंधी अत्यन्त र परिणाम रौद्ध ध्यान कहलाता है । अथवा हिंसा के प्रति उन्मुख हुए श्रात्मा द्वारा प्राणियों को रुलाने वाले व्यापार का चिन्तन करना रौद्ध्यान है । तात्पर्य यह है कि छेदना, भेदना, काटना, मारना, वध करना, प्रहार करना, आदि के रुद्र भाव को रौद्ध्यान कहते हैं। . रौद्भध्यान के चार भेद हैं:--(१) हिंसानुबन्धी (१) वृषानुवन्धी (३ चौर्यानुवन्धी और (४) लरदाणानुबन्धी।
(क) हिसानुबन्धी रौद्ध्यान-प्राणियों को लकड़ी, कोड़ा प्रादि से मारना, उनकी नाक छेदना, अग्नि में जलाना, डाम लगाना, तलवार आदि से प्राणवध करना, अथवा इन कामों को ले करते हुए भी क्रूर परिणामों से प्रेरित होकर इन्हें करने कर सिर्फ विचार करना हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है।
(ब) मृषानुवन्धी रौद्रध्यान-दूसरों को कष्ट पहुंचाने वाले, दूसरों को ठगने घाले, अनिष्ट वचन बोलना, असभूत अर्थ को प्रकाशित करने वाले और लद्भुत अर्थ का अपलाप करने वाले बचनों का प्रयोग करना, तथा प्राणिघात करने वाले वचन बोलना एवं बोलने का विचार करना दूसरा मृषानुवन्धी रौद्ध्यान है। ... (ग) चौर्यानुवन्धी अध्यान-दूसरे के धन का अपहरण करने में चित्तावृत्ति होना चौर्यानुबन्धी रौद्ध्यान कहलाता है।
घ) संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान-धन आदि परिग्रह की रक्षा में चित्रावृत्ति लगाना, परिग्रह-संरक्षण में विघ्न रूप प्रतीत होने वाले मनुष्य मादि के उपक्षात का रविचार होना संरक्षणानुबन्धी रौद्गध्यान कहलाता है। .
रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं-(१) ओसन्न दोष (२) बहुल झोष (३) अज्ञान दोष और (४) आमरणान्त दोष।
(क) श्रोसत्र दोष-रौद्रध्यानी जीव हिंसा शादि पापों से निवृत्त न होने के कारण प्रायः हिंसा आदि में से किसी एक पाय से प्रवृत्ति करता है. सह सोसय दोष है।
(ब) बहुल दोष-रौद्रध्यानी जीव हिंसा आदि सभी पापों में प्रवृत्ति करता है, यह बहुल दोष है।
__() अज्ञान दोष-कुत्सित शास्त्रों के संस्कारों के कारण नरक श्रादि दुर्गतियों में ले जाने वाले हिंसा आदि अधर्म कृत्यों को धर्म समझ कर करना अशान दोष है। अथवा हिंसा शादि के उपायों में बार-बार प्रवृत्ति करना अमान दोष है । इसे जाना दोष भी कहते हैं।
(घ) आमरणात दोष-यह दोष उन्हें होता है जो अपने अतिशय र परिणाम के कारण जीवन के अन्त तक पाप करते रहते हैं और मृत्यु-काल में भी
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। मनोनिग्रह अपने घोर पापों के लिए पश्चात्ताप नहीं करते।
रौद्रध्यानी जीव अत्यन्त कठोर अन्तःकरण वाला होता है। वह दूसरे को दुःरू पहुंचाकर सुख का अनुभव करता है। दूसर पर विपत्ति श्रा पड़ती है तो उसे प्रसनता होती है। हिला श्रादि पापों का सेवन करने में उसे श्रानन्दानुभव होता है। वह न इस लोक से डरता है, न परलोक की परवाह करता है। उसके चित्त में दया. पर. दुःखकातरता आदि सवृत्तियां नाम मात्र को भी नहीं होती । वह पाप करन में धृष्ट होता है।
रौद्रध्यान अविरत जीवों को होता हैं। देशविरति को धनादि के संरक्षण अादि के निमित्त ले कभी-कभी चौद्र ध्यान हो सकता हो पर वह इतना तीन नहीं होता जो नरक आदि दुर्गति का कारण हो सके।
(३) धर्मध्यान-सुत्रार्थ की साधना करना, पंच महावत धारण करना, बन्ध और मोक्ष एवं संसारी जीवों की गति-श्रागति का विचार करना, इन्द्रिय-विषयों से निवृत्त होने की भावना होना, हृदय में दयालुता दोना, तथा इन सब प्रशस्त कार्यों में मन की एकाग्रता होना, धर्मध्यान है।
धर्मध्यान भी चार प्रकार का है-(१) आकाविचय (२) अपाकविचय (३) विपाकविचय और ( ४ ) संस्थानविचय ।
(फ साझाविचय-संसारी जीवों को संसार के महान भयंकर जन्म-जरामाण आदि की यातनाओं से छुड़ाने वाली, परम मंगलमयी, सद्भूत अर्थों को प्रकाशित करने वाली, निर्दोष, नय और प्रमाण के द्वारा समग्र वस्तुस्वरूप का बोध देने घाली. एकान्तवादियों द्वारा कदापि पराभूत न होने वाली, विवेकी पुरुपों द्वारा श्रद्धा करने योग्य, मिथ्या दृष्टियों द्वारा दुईय, वीतराग और सर्व पदवी को प्राप्त श्रीजिनेन्द्र देव की प्राशा (कथन ) अगर योग्य प्राचार्य, विद्वान के प्रभाव से समझ में न श्राव, बुद्धि की मंदता या क्षयोपशम की न्यूनता के कारण समझ में न श्रावे, अथवा अत्यन्त गहन होने के कारण, अनुभव-गस्य होने कारण या हेतु एवं उदाहरण पी वहां तक पहुंच न होने के कारण समझ में न श्रा, तय भी उस पर श्रद्धा करना चाहिए। ऐसे प्रसंग पर चित्त को डोलायमान न करके विचार करना चाहिए कि यह पचन सर्वज, वीतराग और हितोपदेशक जिनेन्द्र भगवान के हैं, अतएव सर्वाश में सत्य ही है। क्योकि 'नान्वथा वादिनो जिनाः' अर्थात् जिन भगवान् अन्यथावादी
ही नहीं सकते । निष्कारण उपकार करने वाले, जगत् में प्रधान, तीन काल और तीन लोक को हस्तामलंकवत् जानने वाले, राग और ऐप के सम्पूर्ण विजेता, कृतकृत्य धीजिनेश्वर देव के पचन सत्य ही होते हैं। उनके वचनों में असत्य का कुछ भी कारण नदी है।
इस प्रकार जिन पचन में सुदृढ़ श्रद्धा रम्बना, प्रद्धापूर्वक उनका चिन्तन-मनन स.रना, गूड तस्य में भी सन्देह न पारना और उनकी वचनों में मन को एकाग्र करना
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चन्द्रहवां अध्याय
[ ५५१ ) श्राज्ञाविचय नामक धर्म ध्यान कहलाता है।
अथवा हे जीव ! जगद्वन्धु, जगस्पिता, परम करुणाकर जिन भगवान् ने श्रारंभ. परिग्रह श्रादि को त्याज्य बतलाया है भगवान् ने हिंसा, सत्य आदि पापों को त्यागने की भाज्ञा दी है। फिर भी तू आरंभ-परिग्रह में पड़ा है और पापों से निवृत्त नहीं होता! तुझे अपने परम कल्याण के लिए भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलना चाहिए । इस प्रकार विचार करना प्राशावित्रय धर्मध्यान है।
(ख ) अपायविचय धर्मध्यान-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग्ठ से होने वाले श्रास्त्रव से इस लोक और परलोक में होने वाले कुफल का विचार करना । जैसे 'भयंकर बीमारी में श्रन्न की इच्छा करना हानिकारक है। उसी प्रकार राग-द्वेष आदि जाव को भव-भव में हानिकारक हैं। जैसे अग्नि से ईधन भस्म हो जाता है उसी प्रकार द्वेष के कारण श्रात्मा के समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं और उसे घोर संताप होता है। राग-द्वेष के जाल में फंसा हुआ जीव न इस लोक में चैन . पाता है और न परलोक में सुगति का पात्र होता है।
संग और द्वेष पर विजय प्राप्त न की जाय और उन्हें बढ्ने दिया जाय तो संसार की परम्परा बढ़ती है।
मिथ्यात्व से जिस की मति मूढ़ हो रही है ऐसा पापी जीव इस लोक में भी अयंकर दुःख का पात्र होता है और परलोक में नरक श्रादि के कष्ट पाता है।
हिंसा. असत्य, चोरी आदि पापों में प्रवृती करने वाला पातकी पुरुष इसी लोक में शिष्ट पुरुषों द्वारा निन्दनीय होता है, अविश्वास का भाजन होता है, व्याकुले रहता है, शंकितचित्त रहने के कारण अशान्त-चित्त रहता है, राजा के द्वारा दंड का पात्र होता है । परलोक में भी उसकी घोर दुर्गति होती है।
___ प्रमाद के कारण जाव कर्तव्य कर्म में प्रवृत्ति नहीं करता, अकर्त्तव्य कर्मों में प्रवृत्त होता है, अतएव प्रमाद मनुष्य का भयानक शत्रु है । वह भनेक प्रकार के कष्टों का जनक है । महापुरुषों ने उसे त्याप्य बतलाया है।
अनन्त शक्ति से सरूपन्न श्रात्मा, अनन्त सुख का अनुपम धाम होने पर भी श्रास्रव के ही कारण घोर दुःख सहन करता है । मानव ही भव भ्रमण का कारण है। श्रास्रव से उपार्जित कर्मों का फल भोगने के लिए प्रात्मा को नाना गतियों के दुःख सहन करने पड़ते हैं। पासव की सरिता में चेतना के स्वाभाविक गुण वह जाते हैं।
___ कायिकी श्रादि क्रियाओं में वर्तमान जीव भी इस लोक एवं परलोक में अनेक प्रकार की वेदनाएँ भोगते हैं। जिन मगवान् द्वारा निरुपित पच्चीस क्रियाएं संसार को बढ़ाने वाली, और दुःख को बढ़ाने वाली हैं।
इस प्रकार चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान कहलाता है। अथवा करु. यापरायण अन्तःकरण से जगत् के जीवों के अपाय का चिन्तन करना अपायविचय
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२॥ करत।
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। मनोनिग्रह अपने घोर पापों के लिए पश्चात्ताप नहीं करते।
गैद्रध्यानी जीव अत्यन्त कठोर अन्तःकरण वाला होता है। वह दूसरे को दुःख पहुंचाकर सुख का अनुभव करता है । दूसर पर विपत्ति आ पड़ती है तो उसे प्रसमता होती है । हिंसा आदि पापों का सेवन करने में उस श्रानन्दानुभव होता है। वह न इस लोक से डरता है, न परलोक की परवाह करता है। उसके चित्त में दया. परदुःखकातरता प्रादि सदवृत्तियां नाम मात्र को भी नहीं होती। वह पाप करन में धृष्ट होता है।
रौद्रभ्यान अविरत जीवों को होता है। देशविरति को धनादि के संरक्षण श्रादि फे निमित्त से कभी-कभी गेंद्रध्यान हो सकता हो पर वह इतना तीन नहीं होता जो नरक आदि दुर्गति का कारण हो सके।
(३) धर्मध्यान-सुत्रार्थ की साधना करना, पंच महाव्रत धारण करना, बन्ध और मोक्ष एवं संसारी जीवों की गति-श्रागति का विचार करना, इन्द्रिय-विषयों से निवृत्त होने की भावना होना, हृदय में दयालुता दोना, तथा इन लव प्रशस्त कार्यों में अन की एकाग्रता होना, धर्मध्यान है।
धर्मध्यान भी चार प्रकार का है-(१) आहाविचय (२) अपाकविचय (३) विपाकविचय और ( ४ ) संस्थानविचय ।
क आशविचय-संसारी जीवों को संसार के महान, भयंकर जन्म-जरामरणश्रादि की यातनाओं से छुड़ाने वाली, परम मंगलमयी, सद्भूत अर्थों को प्रकाशित करने वाली, निदोप, नय और प्रमाग के द्वारा समग्र वस्तुस्वरूप का बोध देने घाली, एकान्तवादियों द्वारा कदापि पराभूत न होने वाली, विवेकी पुरुषों द्वारा श्रद्धा करने योग्य, मिथ्या दृपियों द्वारा दुईय, वीतराग और सर्वश पदवी को प्राप्त श्रीजिनेन्द्र देव की आज्ञा (कथन ) अगर योग्य प्राचार्य, विद्वान के प्रभाव से समझ में न आंध, बुद्धि की मंदता या क्षयोपशम की न्यूनता के कारण समझ में न श्रावे, अथवा अत्यन्त गहन होने के कारण, अनुभव-गम्य होने कारण या हेतु एवं उदाहरण की वहां तक पहुंच न होने के कारण समझ में न यावे, तब भी उस पर श्रद्धा करना चाहिए। ऐसे प्रसंग पर चित्त को दोलायमान न करके विचार करना चाहिए कि यह मचन सर्वत, वीतराग और हितोपदेशक जिनेन्द्र भगवान के है, अतएव सर्वोश में सत्य ही है । क्योकि 'नान्यथा वादिनो जिनाः' अर्थात् जिन भगवान् अन्यथावादी
ही नहीं सकते। निष्कारण उपकार करने वाले, जगत् में प्रधान, तीन काल और तीन लोक को दस्तामलकवत् जानने वाले, राग और द्वेष के सम्पूर्ण विजेता, कृतकृत्य घोजिनम्बर देव के पचन सत्य ही होते हैं। उनके वचनों में असत्य का कुछ भी कारण नहीं है।
इस प्रकार जिन-वचन में खुद प्रद्धा रम्नना, श्रद्धापूर्वक उनका चिन्तन-मनन्त व.रना, गूह तस्य में भी सन्देद न करना और उन्हीं वचनों में मन को एकान करना
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पन्द्रहवां अध्याय
प्रज्ञाविचय नामक धर्म ध्यान कहलाता है |
श्रथवा - हे जीव ! जगद्बन्धु, जगत्पिता, परम करुणाकर जिन भगवान् ने आरंभ, परिग्रह आदि को त्याज्य बतलाया है भगवान् ने हिंसा, असत्य आदि पाप को त्यागने की आज्ञा दी है। फिर भी तू आरंभ - परिग्रह में पड़ा है और पापों ले निवृत्त नहीं होता ! तुझे अपने परम कल्याण के लिए भगवान् की आशा के अनुसार चलना चाहिए । इस प्रकार विचार करना श्राशावित्रय धर्मध्यान है ।
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( ख ) अपायविचय धर्मध्यान -- मिध्याल, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से होने वाले श्रास्त्रव से इस लोक और परलोक में होने वाले कुफल का विचार करना । जैसे 'भयंकर बीमारी में अन्न की इच्छा करना हानिकारक है । उसी प्रकार राग-द्वेष आदि जीव को भव भव में हानिकारक हैं । जैसे अग्नि से ईंधन भस्म हो जाता है उसी प्रकार द्वेष के कारण श्रात्मा के समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं और उसे घे'र संताप होता है । राग-द्वेष के जाल में फंसा हुआ जीव न इस लोक में चैन पाता है और न परलोक में सुगति का पात्र होता है ।
राग और द्वेष पर विजय प्राप्त न की जाय और उन्हें बढ़ने दिया जाय तो संसार की परम्परा बढ़ती है ।
मिथ्यात्व से जिस की मति मूढ़ हो रही है ऐसा पापी जीव इस लोक में भी अयंकर दुःख का पात्र होता है और परलोक में नरक आदि के कष्ट पाता 1
हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापों में प्रवृती करने वाला पातकी पुरुष इसी लोक में शिष्ट पुरुषों द्वारा निन्दनीय होता है, अविश्वास का भाजन होता है, व्याकुलं रहता है, शंकितचित्त रहने के कारण श्रशान्त-चित्त रहता है, राजा के द्वारा दंड का पात्र होता है । परलोक में भी उसकी घोर दुर्गति होती है ।
प्रमाद के कारण जाव कर्त्तव्य कर्म में प्रवृत्ति नहीं करता, अकर्त्तव्य कर्मों में प्रवृत्त होता है, अतएव प्रमाद मनुष्य का भयानक शत्रु है । वह अनेक प्रकार के कष्टों का जनक है । महापुरुषों ने उसे त्याज्य बतलाया है ।
अनन्त शक्ति से सम्पन्न श्रात्मा, अनन्त सुख का अनुपम धाम होने पर भी आस्रव के ही कारण घोर दुःख सहन करता है । श्रास्रव ही भव भ्रमण का कारण है । श्रस्रव से उपार्जित कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को नाना गतियों के दुःख सहन करने पड़ते हैं । श्रस्रव की सरिता में चेतना के स्वाभाविक गुण बह जाते हैं ।
कायिकी श्रादि क्रियाश्रों में वर्त्तमान जीव भी इस लोक एवं परलोक में अनेक प्रकार की वेदनाएँ भोगते हैं । जिन भगवान् द्वारा निरुपित पचीस क्रियाएं संसार को बढ़ाने वाली, और दुःख को बढ़ाने वाली हैं ।
इस प्रकार चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान कहलाता है । अथवा करुयापरायण अन्तःकरण से जगत् के जीवों के अपाय का चिन्तन करना अपायविar
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- मनोनिग्रह है जैसे-'संसारी जीवों के हित, सुख, मंगल, कल्याण और श्रेय के लिए सर्वक अगवान् ने धर्म देशना देकर सम्मार्ग प्रकट किया है, परन्तु अज्ञान जीव उस मार्ग: पर प्रारुद न होकर किस प्रकार कुमार्गगामी हो रहे हैं और उन्हें कितने कष्टों का सामना करना पड़ेगा ! उनकी कैसी दुर्गति होगी और वर्तमान में हो रहा है, इस प्रकार जीवों के हित का बिन्तन करन्म।
इल प्रकार का ध्यान करने से जीव को पापों के प्रति विरक्ति की भावना उत्पन्न होली है । वह पापों से बचकर श्रात्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होता है।
(ग) अपाय विचय धर्मध्यान-ज्ञानाचरण आदि कर्मों के फल के विचार रूप प्रणित को नपायविचय कहते हैं । जैसे-आत्मा स्वभावतः अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन आदि गुणों से मुक्त है । किन्तु ज्ञानावरण कर्म के उदय से उसका शान्ह गुण विकृत हो रहा है और दर्शनावरण कर्म ने उसकी अनन्त दर्शन शक्ति को खंडित फर रक्खा है। यद्यपि श्रात्मा अनन्त सुख का भंडार है मगर वेदनीय कर्म के उदय से सुख विकृत अवस्था में परिणत हो गया है और दुःख रूप बन गया है। वेदनीय कर्म के उदय से ही जीव रट विषयों की प्राहि होने पर साता का और अनिष्ट विषयों की प्राप्ति होने पर असाता का अनुभव करता है।
मोहनीय कर्य सब से बड़ा शत्रु है । वह इष्ट-घनिष्ट का, हित-अदित का, कर्तव्य-अकर्तव्य का सत्य-असत्य का और धर्म-अधर्म का विवेक नहीं होने देता। यही नहीं, चेतना गुण में वह ऐसा विकार पैदा कर देता है जिस से जीव विपरीत समझने लगता है। हित को अहित, धर्म को अधर्म, इसी प्रकार अहित को हित और धर्म को धर्म समझाने वाला मोहनीय कर्म ही है । यह कर्म आत्मा के सम्यक्त गुण का तशा चारित्र गुण का घात करता है और यात्मा की शक्तियों को मूर्छित वना डालता है। . शायु कर्म ने यात्मा को शरीर रूप कारागार में कैद कर रखता है। इस कई के उदय से आत्मा शरीर में बंधा रहता है। .
नाम कर्म को फल भी बहुत व्यापक होता है । वह अमूर्च श्रात्मा को मूर्त रूप प्रदान करता है। शरीर की, शरीर के आकार की तथा अन्य अनेक शारीरिक . पर्यायों की रचना करके श्रात्मामें विकृति उत्पन्न करता है।
गोत्र कर्म विशुद्ध निर्विकल्प वात्मा में ऊँच, नीच गोत्र की दृष्टि से आत्मा में विकल्प उत्पन्न करता है।
शामा मन्त शष्टियों का पुंज परन्तु अन्तराय कर्म उन शक्षियों के प्रकाश एवं विकास में विघ्न उपस्थित करता है। जैसे अक्षय भण्डार का अधिपति राजा किसी कारण पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो उसी प्रकार की दशा अन्तराय फर्म ने आत्मा की पना आली है।
इस प्रकार यह पाठों कर्म भात्मा को विकारमय एवं दुःच का माजन यनाये
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पन्द्रहवाँ अध्याय
[ ५३ ]
हुए हैं। इस तरह कर्मों के फल का, आसव एवं बन्ध आदि के फलों का चिन्तन करने में चित्तवृत्ति रोकना अपायविचय धर्मध्यान है ।
अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह आदि पापों के इस लोक में और परलोक में होने वाले दुर्विपाक का विचार करने में मन लगाना, आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान आदि से उत्पन्न होने वाले कुफल का चिन्तन करना अपायविचय है ।
(घ) संस्थानविचयं धर्मध्यान-संस्थान शब्द का अर्थ है श्राकृति | विचय का अर्थ है - विवेक या विचार करना । तात्पर्य यह है कि धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का, उनकी पर्यायों का, जीव के आकार का, लोक के स्वरूप का, पृथ्वी, द्वीप, सागर, देवलोक, नरकलोक के आकार का, त्रस नाड़ी के आकार का चिन्तन करने में चित्त लगाना संस्थानविचय धर्मध्यान है ।.
जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न होने वाले जन्म, जरा, मरण रूपी जल से परिपूर्ण, क्रोध आदि कषाय रूप तल वाले, भांति-भांति के दुःख रूप मगरमच्छों से. व्याप्त, अज्ञान रूपी वायु से उठने वाली संयोग-वियोग रूप लहरों से युक्त इस अनादिअनन्त संसार - समुद्र का विचार करना । तथा संसार-समुद्र से पार उतारने वाली, सम्यक्दर्शन रूपी सुदृढ़ बंधनों वाली, ज्ञान रूपी नाविक द्वारा संचालित, चारित्र रूपी नौका है । संवर से निश्छिद्र, तपस्या रूप पवन वेग के समान शीघ्रगामी, वैराग्य मार्ग पर चलने वाली, अपध्यान रूपी तरंगों से न डिगने वाली बहुमूल्य शील-रत्न से परिपूर्ण नौका पर चढ़ कर मुनि रूपी यात्री शीघ्र ही, बिना किसी विघ्न-बाधा के निर्वाण रूप नगर को पहुंच जाते हैं। लोकाकाश के सर्वोच्च प्रदेश सिद्ध शिला को प्राप्त करके अक्षय, श्रव्याबाध, स्वाभाविक और अनुपम श्रानन्द के स्वामी बनते हैं । इस प्रकार का विचार करना ।
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संस्थानविचय में चौदह राजू लोक का या उसके किसी एक भाग का या उस सम्बन्धी विषय का प्रधान रूप से चिन्तन किया जाता है ।
शास्त्र में धर्मध्यान के चार लिंग निरूपण किये गये हैं- ( १ ) श्राज्ञा रुचि (२) तिसर्ग रुचि ( ३ ) सूत्र रुचि और ( ४ ) श्रवगाढ रुचि ( उपदेश रुचि ) ।
(क) श्राज्ञा रुचि -सूत्र में गणधरों द्वारा प्रतिपादित अर्थ पर रुचि धारण करना श्राज्ञा रुचि है ।
(ख) निसर्ग मचि - बिना किसी के उपदेश के, स्वभाव से ही जिन भाषित तत्वों पर श्रद्धान होना निसर्ग रुचि है ।
(ग) सूत्रं रुचि - सूत्र अर्थात् श्रागम द्वारा वीतराग प्ररूपित द्रव्य और पर्याय आदि पर श्रद्धा करना सून रुचि है ।
(घ) श्रवगाढ़ रुचि - द्वादशांग का विस्तारपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने से जिनोक्ल सत्त्वों पर जो श्रद्धा होती है वह अवगाद् रुचि कहलाती है । अथवा साधु के संसर्ग में रहने वाले पुरुष को साधु के सूत्रानुसारी उपदेश से होने वाली श्रद्धा अवगाद
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मनोनिप्रह रुचि कहलाती है।
जिन भगवान् अथवा साधु मुनिराज के गुणों का करना, भक्तिभाव से उनकी प्रशंसा करना. स्तुति करना, गुरु श्रादि का विनय करना, दान, शील, तप और भावना में रुचि रखना, यह सब धर्मध्यान के लक्षण हैं।
धर्मध्यान का अभ्यास करने के लिए स्वाध्याय बहुत उपयोगी है। स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान रूपी प्रासाद पर प्रारूढ़ होने के चार उपाय बतलाये है-(१) वावना (२) पृच्छना ( ३) परिवर्तना और ( ४ ) अनुप्रेक्षा।
(क) वाचना-शिष्य श्रादि को सुत्र आदि पढ़ाना ।
(स) पृच्छना-सूत्र-आगम श्रादि के अर्थ में शंका होने पर उसके निवारण के लिए श्रद्धापूर्वक गुरु महाराज से पूछना।
(ग) परिवर्तना-पहले श्रभ्यास किये हुए सत्र प्रादि को उपस्थित रखने के ‘लिए तथा निर्जरा के उद्देश्य से उनकी श्रावृत्ति करना-अभ्यास करना ।
(घ) अनुप्रता-सूत्र और अर्थ का बार-बार चिन्तन-मनन करना।
धर्मध्यान प्रशस्त ध्यान है और वह चित को प्रातःयान एवं गंद्र ध्यान से बचाने के लिए भी उपयोगी है । मन कभी स्थिर नहीं रहता । वह सदा किसी न किसी विषय का चिन्तन करता रहता है। अगर उसे शुभ व्यापार में न लगाया जाय तो वह अशुभ व्यापार में लगे बिना नहीं रहता । वह निष्क्रिय होकर नहीं रहता। श्रतएव धर्मध्यान में व्याप्त करके उसे फ्रयाशील बनाये रस्त्रना चाहिए।
• योग शास्त्र के अनुसार धर्मध्यान के चार प्रकार और भी होते हैं। वे इस प्रकार है-(१) पिण्डस्थध्यान (२) पदस्थ ध्यान ( ३ ) रूपस्य ध्यान और (४) रूपातीत ध्यान । इनका संक्षेप में स्वरूप इस प्रकार है:
१.पण्डस्थध्यान-पार्थिवी, आग्नेयी आदि गांव धारणाओं या एकान मन से चिन्तन करना।
(२) पदस्थध्यान-नाभि में सोलह पांखुड़ी के. हदय में चौवीस पड़ी के तथा मुख पर श्राठ पांखुड़ी के कमल की कल्पना करना और प्रत्येक पांखुड़ी पर वर्गमाला के श्र, श्रा, इ, ई, आदि वणों की अथवा णमोकार मंत्र के अक्षरी की स्थापना करके एकाग्र चित्त से उनका चिन्तन करना। तात्पर्य यह है कि किसी पद का श्रव. लम्पन करके मन को एकाग्र करना पदस्थ ध्यान है। .
(३) रूपस्थध्यान-शास्त्रों में प्रतिपादित भगवान् की शान्त वीतराग दशा को हृदय में स्थापित करके स्थिर चित्त से उसका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
(४) रूपातीमध्यान-रूप से रहित, निरंजन, निर्मल, सिद्ध भगवान् का अवलंबन लेकर, उस स्वरूप का श्रात्मा के साथ एकत्व का चिन्तन करना कपातील ध्यान दे।
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पन्द्रहवां अध्याय
(२) पिण्डस्थध्यान-धर्मध्यान क यह चार भेद ध्येय अनुसार किये गये हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर । पिण्ड (शरीर में स्थित (आत्मा) का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है। सप्त धातु रहित, पूणे चन्द्रमा क समान निर्मल कान्ति वाल, सर्वज्ञ भगवान् के समान शुद्ध श्रात्मा का इस ध्यान में चिन्तन किया जाता है। प्रात्मा शरीर के भीतर पुरुष की प्राकृति वाला होकर सिंहासन के ऊपर विराजमान है। वह अपनी विभूतियों से सुशोभित है । उसके लमस्त कर्मों का नाश हो गया है । वह कल्याणकारी महिमा से युक्त है, ऐसा ध्यान करना चाहिए।
इसके अथवा इसी प्रकार के अन्य शरीरस्थ ध्येय के चिन्तन करने से योगी के शरीर पर मलीन विद्याएँ अथवा मंत्र तानक भी प्रभाव नहीं डाल सकते । भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी या क्षुद्र योगिनी उस योगी के पास भी नहीं फटकं सकते। उसका आत्मा इतना तेजस्वी बन जाता है कि भूत, पिशाच आदि उसे सहन करने में असमर्थ होते हैं। उसके तेज से अभिभूत होकर मारने की इच्छा से आये हुए मदोन्मत्त हाथी, दुष्ट सिंह और विषधर लोप भी स्तभित हो जाते हैं। .
इस ध्यान में पांव धारणाओं का चिन्तन किया जाता है:
(१) पार्थिवी धारणा-मध्यलोक को क्षीर सागर के समान निर्मल जल से परिपूर्ण चिन्तन करे । उसके बीचोंबीच जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार घाले, एक हजार पत्तों बाले, तपाये हुए सुवर्ण के समान चमकते हुए कमल का विचार करना चाहिए । उस कमल के बीच में कार्णका के समान सुवर्ण के पीले रंग का सुमेरुपर्वत चिन्तन करना चाहिए। उसके ऊपर पाण्डुक वन में,पाण्डुक शिलापर स्फटिक के सफेद सिंहासन की कल्पना करना चाहिए । तदनन्तर उस सिंहासनपर अपने विराजमान होने की चिन्तना करना चाहिए । विचार करना चाहिए कि मैं कर्मों को भस्म कर डालने के लिए और अपने प्रात्मा को प्रकाशमय निष्कलंक बनाने के हेतु बैठा हुआ हूं। बारम्बार इस तरह चिन्तन करना पार्थिवी धारणा है।
(२) श्राग्रेयी धारणा-तत्पश्चात् वहीं सुमेरु पर विराजमान वह ध्यानी अपनी नाभि के भीतर के स्थान में, हृदय की और ऊँवे उठे हुए और फैले हुए सोलह पत्तों वाले सफेद रंग के कमल का विचार करे । उस कमल के प्रत्येक पत्ते पर पाले रंग के सोल स्वर लिखे हुए हों। जैसे--अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ.ऋ.ल. लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः। इस कमल के मध्य में सफेद रंग की जो कर्णिका है उस पर पीले रंग का 'ई' अक्षर लिखा हुआ सोचना चाहिए।
दूसरा कमल इस कमल के ठीक ऊपर, नीचे की ओर मुख किये हुए-आंधा, श्राठ पत्तों वाला फैला हुआ चिन्तन करना चाहिए। यह कमल कुछ मटिया रंग का सोचे । इसके प्रत्येक पत्ते पर काले रंग के लिखे हुए पाठ कर्मों का ध्यान करना चाहिए।
तत्पश्चात् नाभि के कमल के बीच में लिखे हुए है' अक्षर के रेक से निकलने हुए धुएँ की कल्पना करना चाहिए । फिर अग्नि की ज्वाला का निकलना विवार
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भनोनिग्रह करना चाहिए । अग्नि की यह ज्वाला क्रमशः बढ़ती-बढ़ती ऊपर वाले कमल पर स्थित पाठ कर्मों को जलाने लगती है, ऐसा विचार करना चाहिए। तदनन्तर वह प्वाला कमल के मध्य में छद करके ऊपर मस्तक तक आजाए और उसकी एक रेखा बाई ओर.और दूसरी रेखा दाहिनी और निकलजाए फिर नीचे की तरफ पाकर दोनों कानों को मिलाकर एक अनिमयी रेखा वन जाय। अर्थात् ऐसा विचार करे कि अपने शरीर के बाहर तीन कोण वाला अग्निमंडल हो गया।
इन तीनों लकीरों में प्रत्येक में, 'र' अक्षर लिखा हुश्रा विचारे अर्थात तीनों तरफ 'र' अक्षरों से ही यह अग्निमंडल बना हुआ है। इसके अनन्तर त्रिकोण के चाहर, तीन कोनों पर स्वस्तिक अग्निमय लिखा हुश्रा तथा भीतर तीन कोनों में प्रत्येक पर 'ॐ' ऐसा अग्निमय लिखा हुश्रा सोचे। तब यह विचारना चाहिए कि यह अग्निमंडल भीतर पाठ कर्मों को जला रहा है और बाहर इस शरीर को भस्म कर रहा है । जलते-जलते समस्त कर्म और शरीर राख हो गये हैं, तब अग्नि धीरे-धीरे शान्त हो गई है। इस प्रकार विचारना आग्नेयी धारणा है।
(३) वायु धारणा-वायु धारणा को मारुती धारणा भी कहते हैं। आग्नेयी धारणा का चिन्तन करके ध्यानी पुरुष इस प्रकार विचार करे-चारों ओर बड़े वेग के साथ पवन बह रही है। मेरे चारों ओर वायु ने गोल मंडल बना लिया है। उस . में आठ जगह घेरे में 'स्वाय 'स्वाय' सफेद रंग का लिखा हुआ है। वह वायु की की तथा शरीर की रात को उड़ा रही है और आत्मा को साफ कर रही है। इस प्रकार का चिन्तन करना वायु-धारणा है।
(४) वारुणी धारणा-वारुणी धारणा का अर्थ है जल का विचार करना है घद्दी ध्यानी वही वायुधारणा के पश्चात् इस प्रकार का चिन्तन करे-श्राकाश में मेघों के समूह श्श्रा गये हैं । विजली चमकने लगी है। मेघ गर्जना हो रही है और मुसलधार पानी परसने लगा है। मैं बीच में चैठा हूँ। मेरे ऊपर अर्द्ध चन्द्राकार पानी का मंडल है तथा जल के वीजाक्षरों से पपपप लिखा हुआ है। यह जल मेरे प्रात्मा पर लगे हुए मैल कोरास को साफ कर रहा है । श्रात्मा चिल्कुल पवित्र बनता जा रहा है।
(५) तत्वरूपवती धारणा-इस धारणा को तत्रभूधारणा भी कहते हैं। वारुणी धारणा के पश्चात् इस प्रकार विचार करना चाहिए-अब मैं सिद्ध के समान सर्वश. वीतराग, निर्मल, निष्कलंक, निष्कर्म हो गया है। मैं पूर्ण चन्द्रमा के समान देदीप्यमान ज्योति पुंज हूँ।' इस प्रकार विचार करना तत्त्वरूपवती धारणा है।
इस प्रकार पूर्वोक्त कम से पांचों धारणाओं का चिन्तन करने से शात्मा तेज. स्वी और विशुद्ध बनता है !
(२) पदस्यध्यान -ऊपरबतलाया जा चुका है कि किसी पवित्र पद का प्रवलस्पन करके जो ध्यान किया जाता है वद पदस्थ ध्यान कहलाता है उसके प्रकार इल तरह है
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पन्द्रहवां अध्याय
सोलह पांखुड़ी वाले नाभि-कमल में, प्रत्येक पांखुड़ी पर स्वरमाला-अ, श्रा, बगैरह--भ्रमण करती हुई विचारनी चाहिए । फिर हृदय में चौबीस पांखुड़ी के बीज कोश वाले कमल की कल्पना करके, उसमें क्रमशः पचीस वर्षों का चिन्तन करना चाहिए । फिर पाठ पांखुड़ी वाले मुखकमल की कल्पना करके उसमें स से लेकर ह 'अक्षर सक आठ वर्षों की कल्पना करना चाहिए। .
अथवा मंजराज' है ' का ध्यान करना चाहिए । यह मंच साक्षात परमात्मा और चौवीस तीर्थंकरों का स्मरण कराने वाला है।
पहले इसे दोनों भौंहों के मध्य में चमकता हुश्रा जमा कर देख्ने, फिर विचारे कि वह मुख में प्रवेश करके अमृत करा रहा है । फिर नेनों की पलकों को छूता हुश्रा मस्तक के केशों पर चमकता हुआ, फिर चंद्रमा तथा सूर्य के लिमानों का स्पर्श करता हुश्रा, ऊपर स्वर्ग प्रांदि को लांघता हुश्रा मोक्ष में पहुंच गया है । इस प्रकार मरण करते हुए मंशराज का ध्यान करे।
अथवा प्रणव मंत्र ॐ का ध्यान करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार हैहृदय में सफेद रंग का कमल है । उसके मध्य में 'ॐ' चन्द्रमा के समान चमक रहा है। इल कमल के पाठ पत्तों पर-तीन पर सोलह स्वर, पांच पर पक्षीस व्यंजन लिखे हुए हैं और ये सब चसक रहे हैं । इस प्रकार अक्षरों से वेष्टित ॐकार का ध्यान करना चाहिए । फिर इस चसकते हुए ॐ को नीचे के स्थानों पर भी विराजमान 'करके ध्यान करना चाहिए।
अथधा-नाभिकंद के नीचे आठ पौखुड़ी के कमल की कल्पना करना चाहिए । उसमें सोलह स्वरों रूपी सोलह केसर-तंतुओं की कल्पना करना चाहिए । उसकी प्रत्येक पांखुड़ी में अक्षरों के आठ वर्गों में से एक-एक वर्म स्थापित करना चाहिए। उन पांखुड़ियों के अन्तराल में सिद्धस्तुति अर्थात् होकार की स्थापना करनी चाहिए
और पांखुड़ियों के अग्रभाग से 'ॐ ह्रीं स्थापना करना चाहिए । तदनन्तर उस 'कमल के बीच में 'आई' शब्द को स्थापित करना चाहिए । यह अहे शब्द पहले प्राणवायु के साथ हस्व उच्चारण वाला होकर फिर दीर्घ उच्चारण वाला होला है, इसके बाद उसले भी दीर्घ-प्लुत-उचारण वाला होकर-फिर सूक्ष्म होताहोता अत्यन्त सूक्ष्म होकर, नाभिकंद एवं हदय घंटिका को भेदता हुमा, मध्य मार्ग से जा रहा है, इस प्रकार विचार करना चाहिए। इसके बाद उस नाद-बिन्दु से तप्त हुई कला में से करते हुए दूध के समान स्वच्छ अमृत में शात्मा को अवगाहन करते चिन्तन करना चाहिए । तदनन्तर अमृत के लरोवर में उगे हुए सोलह पांखुड़ीवाले कमल में अपने आत्मा को स्थापित करके, उन पांखुट्टियों का चिन्तन करना चाहिए। फिर तेजस्वी स्फटिक के घरों में ले साले जाने वाले स्वच्छ दूध के लमान सफेद 'अमृत से आत्मा को देर तक अपमान करते हुए चिन्तन करना चाहिए । फिर इस मंत्र के वाच्य भईन्त परमेष्ठी का सस्तक में विचार करना चाहिए । तदनन्तर ध्यान के आवेश में ' सोऽहं ' का बार-बार उच्चारण करके एरमात्मा के साथ अपने प्रात्मा
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. मनोनिग्रह की एकता का निःशंक चिन्तन करना चाहिए। फिर नीगगी, अमोही, अद्वेषी, सर्वन, सर्वदर्शी, देवपूजित तथा सभा में धर्मदेशना देते हुएं परमात्मा के साथ प्रात्मा को अभिष्ट समझने वाला योगी, पाप का क्षय करके परमात्मदशा प्राप्त कर लेता है।
- अथवा-इसी मंत्रराज को अनाहतध्वनि से मुक्त सुवर्णकमल में स्थित,चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल, अपने तेज से समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाला, आकाश में संचार करता हुआ चिन्तन करना चाहिए। तत्पश्चात् इस प्रकार सोचना मंत्रराज मुख-कमल में प्रवेश कर रहा है, फिर भ्रमर के मध्य भाग में भ्रमण कर रहा है, शांखों की वरौतियों में स्फूरायमान हो रहा है, कफाल मंडल में विराजमान हो रहा है, तालुरंध्र से बाहर निकल रहा है,अमृत-रस की वर्षा कर रहा है,ज्योतिर्गएक के बीच चन्द्रमा की रूप कर रहा है और मोक्ष लक्ष्मी के साथ अपने को जोड़
तत्पश्चात् रेफ, विन्दु और कला से रहित इसी मंत्र का चिन्तन करना चाहिए और फिर.चिना ही किती अक्षर का जिसे उचारण न किया जा सके चिन्तन करना चाहिए । तदन्तर 'अनाहत' नामक देव को चन्द्रमा की कला के आकार से, तथा सूर्य के समान तेज से स्फुरायमान होता हुआ विचारना चाहिए फिर उसे बाल के अग्रभाग जितने सूक्ष्म रूप में, फिर थोड़ी देर बिलकुल अव्यक्त होता हुश्रा पार फिर सम्पूर्ण जगत को ज्योतिर्मय कर डालने वाला चिन्तन करना चाहिए।
इस प्रकार लक्ष्य वस्तु को छोड़कर अलक्ष्य वस्तु में मन को स्थिर करतेकरते अन्तरंग में क्रमशः अक्षय एवं अतीन्द्रिय ज्योति प्रकट होती है। जिन मनि का मन सांसारिक पदार्थों से विमुख हो जाता है वही मुनि इस प्रकार की साधना करके अभिष्ट फल की प्राप्ति कर पाते है-अन्य नहीं।'
पदस्थ ध्यान की लाधना के लिए और भी विधियां योग शाखा में प्रतिपादित बीमार हैं। जैसे-हदय-कमल में स्थित, शब्द ब्रह्म के एक मात्र कारण, स्वर पवं,
जनाले मत पंचपरमेष्ठी के वाचक तथा चन्द्रकला से भरने वाले अमृतरस से मत महामंत्र ॐ का ध्यान करना चाहिए । इसी प्रकार परम मंगलमय पंच-नमस्कार मंत्र (यमोकार-मंत्र ) का भी चिन्तन किया जा सकता है सकी विधि यह है-पाठ पांखुड़ी से सफेद कपल की कल्पना करना चाहिए। उसके चीज कोश में 'नमो शरिहंताणे' इस सात क्षर वाले पद का चिन्तन करना चाहिए। फिर 'नमो सिद्धानमा मायरियाणं 'नमो उवज्झायाणं' और 'नमो सम्बसारणं' इन चार पदी को ऋमले पर्य आदि चार दिशा की चार पांखुड़ीयो कल्पना करना चाहिए। शेप में 'एसोच नमोकारो' 'सबपावपणास।' 'मंगलाण च सबसि' 'पदम दचा मंगल' यह चार पद प्राय श्रादि चार विदिशानों में कल्पित करना चाहिए।
मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक एक सीमाद बार इस मंत्र का चिन्तन करने से मुनि को साहार करते हुए भी चतुमासिक उपचास का फल प्राप्त होता है।
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पन्द्रहवां अंध्याथ योगी जनों ने इस महामंत्र का चिन्तन करके मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त की है और ये जगत् के वन्दनीय बन गये हैं। बड़े बड़े हिंसक तिर्यञ्च भी इस मंत्र की आराधना करके स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं।
. इसी प्रकार इस महामंत्र में से रिहंत-सिद्ध' इन छह अहरों को, अथवा 'अरिहन्त' इन चार अक्षरों को अथषा '' इस अकेले अक्षर को तीन, चार तथा पांच सौ वार जपने से चार टंक के उपवास का फल मिलता है। . . .
इसी प्रकार-'चत्तारि संगत, अरिहंता मंगल, सिद्धा मंगल, साहु मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहत्ता लोगुत्तमा, सिद्धा लोमुत्तमा साह लोगुत्तमा, केवलिपश्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवजामि. अरिहते सरणं पवजामि, सिद्धा सरगण पवजामि, साहू सरणं पयजामि, केवनिपन्नत्तं धम्म सरणं पवलामि।' इस मंत्र का स्मरण-चिंतन करने से मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
इस तरह किसी पवित्र पद का अवलम्बन करके ध्यान करना पदस्थ ध्यान्त कहलाता है।
(३) रूपस्थ धर्मध्यान-समवसरण में विराजमान अहत भगवान का ध्यान्न करना रूपस्थ ध्यान है । मुक्ति-लक्ष्मी के सन्मुख. स्थित. निष्कर्म, चतुर्मुख, समस्त संसार को अभय देने वाले, स्वच्छ चन्द्रमा के समान तीन छनों से सुशोभित, भामएडल की शोभा से मुक्त, दिव्य दुंदुभि की ध्वनि से मुक्त अशोक वृक्ष, से सुशोभित सिंहासन पर विराजमान, अलौकिक ध्युति ले सम्पन्न, जिन पर चांवर ढोरे जारहे हैं, जिनके प्रभाव से सिंह और मृग जैले जाति-वीरोधी जीवों ने भी अपने वैर का स्याग कर दिया है, समस्त अतिशयों से विभूषित, केवल ज्ञान युक्त और समवसरण में विराजमान अईत भगवान के स्वरूप का अवलम्वन करके जो ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है।
इस ध्यान का अभ्यास करने वाला ध्याता अपने श्रात्मा को सर्वश के रूप में देखने लगता है। अर्हन्त भगवान के साथ तन्मय होकर, 'अर्हन्त भगवान मैं, ही हूं इस प्रकार की साधना कर लेने पर, ध्याता ईश्वर के साथ एक रूपता अनुभव करने लगता है।
वीतराग का ध्यान करने वाला योगी स्वयं वीतराग बनकर मुक्ति प्राप्त कर .. लेता है। इससे विपरीत रागी पुरुष का ध्यान करने वाला रागी बनता है।
(४) रूपातीत धर्मध्यान-रूपस्थ ध्यान का अभ्यास करके योगी जब अधिक अभ्यासी बन जाता है तब वह अरूपी, अमूर्त, निरंजन सिद्ध भगवान् का ध्यान करता है। इस प्रकार सिद्ध परमात्मा का ध्यान करने वाला योगी ग्राह्य ग्राहक भाव से मुक्त, तन्मयता प्राप्त करता है । अनन्य भाव से ईश्वर का शरण लेने वाला ईश्वर में ही लीन हो जाता है। फिर ध्यान, ध्येय और ध्याता का भेद भाव नहीं रह जाता। च्याता स्वयं ध्येय रूप में परिणत हो जाता है। इस निर्विकल्प अवस्था में सात्मा और परमात्मा एकरूप हो जाता है।
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. मनोनिग्रह इल प्रकार पिण्डस्थ ध्यान से प्रारम्भ करके रूपातीत ध्यान तक का अभ्यास करने ले मन की चंचलता ही नष्ट नहीं होती, वरन् आत्मा विशुद्ध बनती है।
(४) शुक्ल ध्यान-शुक्ल ध्यान वज्रऋषभनाराच संहनन वाले तथा पूर्व नामक शालों के ज्ञाता महामुनि ही कर सकते हैं। अल्प बल वाले और विविध विषयों में व्याकुल चित्त बाले तुद्र मनुष्य का मन किसी भी प्रकार पूर्ण रूप से निश्चल नहीं चन लगता। ___ शुक्ल ध्यान के भी चार भेद है--(१) पृथक्त्व वितर्क लविचार ( २ ) एकक वितर्क अविचार ( ३ ) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती और (४) समुछिन्न क्रिया।
(क) पृथक वितर्क सविचार--यहां वितर्क का अर्थ है--श्रुत या शास्त्र और विचार का अर्थ है--अर्थ, शब्द और योग का संक्रमण होस । तात्पर्य यह है कि कोई योगी पूर्व नामक श्रुत के अनुसार किसी भी एक द्रव्य का आश्रय लेकर ध्यान करे और उस समय द्रव्य के किसी एक पाय पर स्थिर न रहते हुए, उसकी अनेक पर्यायों का चिन्तन करे, तथा कभी द्रव्य का चिन्तन करते-करते पर्याय का और पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिन्तन करने लेगे, अथवा द्रव्य का चिन्तन करते-करते उसके वाचक शब्द का अथवा शब्द से हट कर द्रव्य का.चिन्तन करे, इसी प्रकार जिस ध्यान में एक योग की स्थिरता न रहे--संक्रमण होता रहे वह पृथऋत्व वितर्क सविचार नामक शुक्ल-ध्यान कहलाता है।
(ल) एकत्व विचार-विचार-पूर्व क्षुत के अनुसार किसी एक द्रव्य का अवलम्वन करके, उसकी एक ही पर्याय पर चित्त एकाग्र करके शब्द, अर्थ या योग का परिवर्तन न करते हुए ध्यान करना एकत्व वितर्क-विचार शुष्पल ध्यान साहलाताई।
पहले पृथक्त्व वितर्क ध्यान का अभ्याल हद हो जाने पर दूसरे-दूसरे शुक्ल ध्यानी योग्यता प्राप्त होती है। दूसरे ध्यान के प्रभाव से मन शान्त एवं निश्चल बन जाता है। फल स्वरूप चारों घाति कमों का चय हो जाता है और साता की प्राप्ति होती है।
म) समझियाऽप्रतिपाति-मन, वचन और काय के स्थूल योगों का निरोध. १. सिर्फ श्वासोच्छवास जैसी सूचम किया ही शेष रह जाने पर जो ध्यान होता है यह लक्ष्मझिया प्रतिपाति ध्यान कहलाता है। उससे फिर पतन की संभावना नहीं रहनी अतएव उसे 'अप्रतिपाति' सहा मया है।
(घ) समुच्छिन झिया-तृतीय शुक्ल च्यान के पश्चात् जय सूक्ष्म शिया का भी अस्तित्व नहीं रहता और आत्मा के परिणाम सुमेर की तरह अचल हो जाते हैं, उस समय ध्यान को समुच्छिन क्रिया ध्यान कहा गया है।
शुक्ल यान में मन, वचन और कार में से किसी एक का अथवा तीनों 10
मरे में तीन में से किसी भी एक काव्यासर होता है। तीसर
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पन्द्रहवां अध्याय
_ [ ५६१ ] शुक्ल ध्यान में सूक्ष्म काय योग ही रहता है और चौथा 'अयोगी महापुरुषों को ही होता है।
इस प्रकार धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान के द्वारा मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । शुक्ल ध्यान, ध्यान की उत्कृष्ट एवं सर्वोच्च स्थिति है। इस स्थिति को . प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक तैयारी की अनिवार्य आवश्यकता है। ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य श्रादि तथा अनित्यता, अशरंगता आदि भावनाओं से चित्त को सुवासित करना चाहिए।
प्राणी मात्र पर मित्रता का भाव होना मैत्री भावना है। गुणीजनों को देख कर प्रसन्न होना, सद्गुणी पुरुषों के गुणों में अनुराग होना प्रमोद भावना है। दीन-दुःखी प्राणियों को देख कर उनका दुःख दूर करने की भावना होना करुणा भावना है। पाप कर्म करने वाले, दुराचारी पुरुषों के प्रति, तथा धर्म-निन्दकों के प्रति उपेक्षा-बुद्धि होना माध्यस्थ्य भावना है । अनित्यता आदि बारह भावनाओं का निरूपण पहले किया जा चुका है । इन भावनाओं के पुनः-पुनः चिन्तन से चित्त की विशुद्धि होती है और , ध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है।
ध्यान करने के लिए समुचित क्षेत्र और काल का भी विचार करना चाहिए। ध्यान के लिए ऐला क्षेत्र उचित है जहां किसी प्रकार का क्षोभ न हो, कोलाहल न हो, दुष्ट पुरुषों का, स्त्रियों का तथा नपुंसकों का आवागमन न हो। जहां पूर्ण रूप से शांति हो, श्रास-पाल में गाना बजाना न हो, दुर्गन्ध न पाती हो, अत्याधिक गर्मी-सी न हो, जानवरों का त्रास न हो। इस प्रकार का योग्य और निराकुलताजनक स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त होता है। कहा भी है
यत्र रागादयो दोषा अजस्त्रं यान्ति लाघवम् ।
तत्रैव वसतिः साध्वी ध्यानकाले विशेषतः॥ अर्थात् जिस स्थान में रहने से राग नादि दोष शीघ्र हट जावे वहीं निकाल करना अच्छा है। ध्यान के समय तो खास तौर से इस बात का विचार रखना चाहिए।
ध्यान के लिए प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल उचित अवसर है। छह-छह घड़ी पर्यन्त ध्यान का समय है। किन्तु यह अनिवार्य नहीं है । ध्याता अपनी ' शक्ति के अनुसार चार घड़ी, दो घड़ी या एक घड़ी का ध्यान कर सकता है और क्रमशः अभ्यास बढ़ा सकता है।
ध्यान में श्रासन का कोई विशेष नियम नहीं है । पर्यकासन, अर्द्धपर्यकासन, चीरासन, वज्रासन, पनासन, भद्रासन, दण्डासन, उत्कटिकासन, गोदोहिकासन, कायोत्सर्ग आदि अनेक आसन है । जिस श्रासन का अवलम्बन करने से निराकलता हो और मन स्थिर हो उसी को ध्यान का साधन मान कर मन को स्थिर करना चाहिए । ध्यान करते समय दोनों ओष्ट बन्द कर लेना चाहिए, दृष्टि नासिका के मत ।
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[ ५६२ ]
मनोनिग्रह
भाग पर स्थिर करनी चाहिए और मुख प्रसश्न रखना चाहिए। मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर रखकर, कमर सीधी करके ध्यान के लिए बैठना चाहिए। कहा भी है
पूर्वाशाभिमुखः साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा । प्रसन्नवदनो ध्याता, ध्यानकाले विशिष्यते ॥
ध्यान के लिए यद्यपि प्राणायाम की अनिवार्य श्रावश्यकता नहीं है, फिर भी शरीर की शुद्धि और मन की एकाग्रता में प्राणायाम का अभ्यास सहायक हो जाता है । कभी-कभी प्राणायाम से हानि भी होती है, जैसा कि कहा है-
!
प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादार्त्तसम्भवः ।
तेन प्रचाव्यते नूनं ज्ञाततत्त्वोऽपि लक्षितः ॥
"
श्रर्थात् प्राणायाम में प्राण- श्वास को रोकने से पीड़ा होती है, पीड़ा के कारण आर्त्तध्यान होना संभव है और इस कारण तत्त्वज्ञानी पुरुष भी भाव - विशुद्धि से कदाचित् च्युत हो सकता है ।
तथापि वायु पर विजय प्राप्त करने से मन पर विजय प्राप्त करने में सहायता मिलती है, श्रतएव यदि कोई पुरुष विद्वान् गुरु की देखरेख में प्राणायाम का अभ्यास करे तो हानि नहीं है ।
प्राणायाम के मुख्य तीन भेद हैं- (१) पूरक (२) कुम्भक और (३) रेचक | (१) क - बाहर की वायु शरीर में खींच कर गुदा भाग पर्यन्त उदर को पूर्ण करना - भरना पूरक प्राणायाम कहलाता (२) कुम्भक - वायु को नाभिकमल में स्थिर करना कुम्भक प्राणायाम
1
कहलाता 1
( ३ ) रेवक - वायु को उदर में से, ब्रह्मरंध द्वारा, या नासिका द्वारा चाहर निकाल फेंकना रेचक प्राणायाम है |
पूरक प्राणायाम से पुष्टि और रोगक्षय होता है, कुंभक प्राणायाम से हृदयकमल का शीघ्र विकास होता है, श्रान्तरिक ग्रंथियां भिद जाती हैं तथा बल और स्थिरता की प्राप्ति होती है । रेचक प्राणायाम उदर व्याधि और कफ़ का विनाश करता है ।
इस प्रकार यथायोग्य ध्यान से मन को जीतना चाहिए। जिनमें ध्यान करने की योग्यता नहीं भाई है उन्हें आध्यात्मिक शास्त्रों का स्वाध्यायरूप करके मन को शुभ व्यापार में रत करना चाहिए। स्वाध्याय भी मानसिक एकाग्रता का अत्यन्त उपयोगी साधन है ।
पूर्वोक्त उपायों से मन का सम्यक् निग्रह करने वाले महात्मा संसार में रहते हुए भी दुःख के संस्पर्श से रहित हो जाते हैं और अन्त में मुक्ति-तक्ष्मीका भाज मनते हैं ।
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पन्द्रहवां अध्याय
[ ५६३ ]
मूलः - सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोस त य । उत्थी समोसा य, मणगुत्ती चडाविहा ॥३॥
छाया:--सत्या तथैव मृषा व सत्यामृषा तथैव च । चतुर्थी सत्यामृषा तु मनोगुप्तिश्चतुर्विधा ॥ ३॥
शब्दार्थ : - मनोगुप्ति चार प्रकार की है - (१) सत्य मनोगुप्ति ( २ ) असत्य मनोगुप्ति (३) सत्या सत्य मनोगुप्ति और (४) असत्य - अमृषा मनोगुप्ति ।
भाष्यः
- सन को निग्रह करने का उपदेश पहले दिया गया है, पर मन की प्रवृत्ति का विश्लेषण किये बिना उसका यथावत् निग्रह नहीं हो सकता । अ यहां मानसिक प्रवृत्ति का विश्लेषण किया गया है ।
श्रर्त्तिध्यान, रौद्रध्यान, संरंभ, समारंभ और आरंभ संबंधी संकल्पविकल्प न करना, इह परलोक में हितकारी धर्मध्यान संबंधी चिन्तन करना, मध्यस्थ भाव रखना, अशुभ एवं शुभ योग का विरोध करके अयोगी अवस्था में होने वाली श्रात्मा की अवस्था प्राप्त करना मनोगुप्ति है। तात्पर्य यह है कि मन की नाना प्रकार की प्रवृत्ति को रोक देना मनोगुप्ति कहलाती है ।
मन की प्रवृत्ति चार प्रकार के विषय में होती हैं-सत्य विषय में, असत्य विषय में, सत्यासत्य अर्थात उभय रूप विषय में एवं अनुभयरूप - जो सत्य भी न हो और असत्य भी न हो ऐसे विषय में । इन्हीं चार भेदों को चार मनोयोग कहते हैं । इनका सामान्य स्वरूप इस प्रकार है:
( १ ) सत्य मनोयोग - मन का जो व्यापार सत या साधु पुरुषों के लिए हित कारक हो, उन्हें मुक्ति की ओर ले जाने वाला हो वह अथवा जीव, अजीव आदि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का विचार संत्य मनोयोग कहलाता है ।
(( २ ) श्रसत्यमनोयोग - सत्य से विपरीत अर्थात संसार की ओर ले जाने वाला मानसिक व्यापार असत्य मनोयोग कहलाता है । श्रथवा जीव आदि पदार्थों के वास्तविक रूप का चिन्तन करना असत्यमनोयोग कहलाता है । जैसे, आत्मा नहीं है, पदार्थ एकान्त रूप है, आत्मा स्वभाव से जड़ है, इत्यादि ।
( ३ ) सत्यासत्य मनोयोग - जिसमें कुछ अंशों में सच्चाई हो और कुछ अंशों में मिथ्यापन हो ऐसा मिश्रित विचार सत्यासत्य मनोयोग कहलाता है । व्यवहारनय से ठीक होने पर भी निश्चयनय से जो विचार पूर्ण सत्य न हो उसे उभयमनोयोग भी कहते हैं । जैसे- किसी वन में तरह-तरह के वृक्ष हैं-धव खंदिर, पलाश आदि सभी विद्यमान है परन्तु अशोकवृक्षों की अधिकता होने के कारण उसे अशोकवन कहना । वन में अशोकवृक्षों कि अधिकता के कारण उसे 'अशोकवन' कहना सत्य है, मगर अन्य वृक्षों का सदभाव होने से 'अशोकवन' कहना असत्य भी ठहरता है ।
( ४ ) असत्यामृपा मनोयोग - जो मानसिक विचार सत्य रूप भी नहीं और
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मनोनिग्रह
असत्य रूप भी नहीं वह असत्यामृषा मनोयोग कहलाता है । इसे ग्रनुभय रूप मनोयोग भी कहते हैं । सर्वज्ञ भगवान के द्वारा प्ररूपित वस्तुत्व का यथार्थ चिन्तन सत्यमनोयोग और इससे विपरीत चिन्तन असत्य मनोयोग है । जहां इन दोनों बातों की कल्पना नहीं होती वह अनुभव मनोयोग कहलाता है । जैसे--' देवदत्त, पुस्तक. लाओ । ' इस प्रकार के चिन्तन में सत्य-असत्य की कल्पना नहीं की जा सकती । इससे आराधक, विराधक का भी विकल्प नहीं उठता । श्रतएव इस प्रकार का विचार श्रसत्यामृषा मनोयोग है । यह चौथा विकल्प व्यवहारनय से समझना चाहिए | निश्वयनय से यह भी सत्य या असत्य में समाविष्ट हो जाता है ।
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उल्लिखित चार मनोयोगों को रोकना मनोगुप्ति है । मगर योग का निरोध चौदहवें गुणस्थान में होता है, उससे पहले नहीं । अतएव पहले असत्य मनोयोग का और उभय रूप ( सत्य- मृषा ) मनोयोग का त्याग करके गुप्ति की आराधना करनी चाहिए ।
मूल :- संरभसमारंभ, आरंभम्मि तव य ।
मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तिज्ज जयं जई ॥ ४ ॥
छाया:-संरम्भे समारम्भे, श्रारम्से तथैव च ।
मनः प्रवर्त्तमानं तु निवर्त्तयेत् यतं यतिः ॥ ४ ॥
शब्दार्थ :- हे इन्द्रभूति ! मुनि संरंभ में, समारंभ में और आरंभ में प्रवृत्त होने वाले मन को यतनापूर्वक निवृत्त करे ।
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भाप्यः- - पूर्व गाथा में मनोगुति के भेदों का निरूपण करके यहां यह प्रतिपादन किया गया है कि इन को किस विषय में प्रवृत्त होने से रोकना चाहिए।
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'प्राणव्य परोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरम्भः । ' अर्थात् प्रमादी जीव का प्राणव्ययरोपण ( हिंसा) आदि असत् कार्यों में प्रयत्न का प्रवेश दोन
संरम्भ कहलाता है ।
'साधनाभ्यासीक समारम्भः ।' अर्थात् हिंसा श्रादि के साधन जुटाना समारंभ कहलाता है ।
प्रकयः आरम्भः । ' अर्थात् हिंसा आदि सप कार्य को शुरू कर देना प्रारंभ कहा गया है
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तात्पर्य यह है कि किसी भी पाप कार्य को करते समय तीन अवस्थाएँ होती | सर्वप्रथम जीव पाप कर्म करने का संकल्प करता है । संकल्प करने के पश्चात उस कार्य को सम्पन्न करने के लिए यथोचित सामग्री जुटाता है और फिर उसे आरंभ करता है । यहीती समारंभ और प्रारंभ कहलाती हैं । यद्यपि यह अवस्थाएँ मानसिक भी होती है, वाचिक मी होती हैं और कार्यिक भी होती है अर्थात मन से संसार आरंभ किया जाता है, यंत्र से
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भी तीला किये जाते हैं और काय से भी किये जाते हैं । किन्तु यहां मन काकरण होने से इसमें प्रवृत्त होने वाले मन को ही रोकने का विधान किया गया है।
अथका-कायकृत संरंभ और वचनकृत सरंभ आदि का मूल कारण मनोव्यापार है। सर्वप्रथम मन के लरंभ आदि होते हैं, फिर वचन और काय से। मानसिक संरंभ, लमारंभ और सारंभ के अभाव में वचन और काय से संरंभ आदि के होने की संभावना नहीं है । अतएका मानसिक संरंभ आदि का स्याम होने पर कायिक एवं वात्रनिक त्याग स्वतः सिद्ध हो जाता है।
अथवा-मन यहां डा लक्षण है। मन से वचन और काम का भी ग्रहण करना चाहिए ! अतएव संरंभ आदि में प्रवृत्त होने वाले मन को रोकने का अर्थ यह है कि बचन और काय को भी रोकना चाहिए।
मुल पाउ में यलं' क्रिया विशेषण है उसका अर्थ है-यत्नापूर्वक । मुनि को अपना मन यत्नापूर्वक रोकना चाहिए । मनोलिरोध की अनेक परिपाटिया प्रचलित हैं। उनमें से जिस प्रणाली का पहले कथन किया जा चुका है, उसी का अवलम्बन करके, अप्रमत्त भाव से मन को रोकना चाहिए।
मानसिक पाप यद्यपि बाहर दिखाई नहीं देता, फिर भी वह अत्यन्त भयंकर होता है । तराइल नामक मत्स्य मानस्तिक पाप के प्रभाव से सातवे नरक में जाता है। मानसिक पाप घोर दुर्गति का कारण है । वह बचन और काय संबंधी पापों का जनक है..। मन में जब तक पाप विद्यमान रहता है, तब तक कोई भी कायिक अनुष्ठान यथार्थ फल दाता नीं होता । अतएव सर्वप्रथम मानसिक शुद्धता की ओर ध्यान देना आवश्यक है । इसी उद्देश्य से सूत्रकार ने संरंभ आदि में प्रवृत्त होने वाले मन को रोकने का उपदेश दिया है। मल:-वत्थगंधमलंकार, इत्थी शो सयणााण य ।
अच्छंदा जे न मुंजंति, न से चाइ ति वुच्चइ ।।५।। छायाः-वस्त्रगन्धमलङ्कार, त्रियः शयनानि च ।
___ अच्छंदा ये न भुञ्जति, न ते त्यागिन इत्युच्यन्ते ॥ ५ ॥ शब्दार्थ:-जो पराधीन होकर वक्ष, गंध, अलंकार, स्त्री, और शय्या आदि का भोग नहीं करते हैं, चे त्यागी नहीं कहलाते।
भाष्यः-शास्त्रकार ने यहां मन की प्रधानता प्रतिपादन की है । मन का त्याग दी सच्चा त्याग है। जिसका मन त्यागी नहीं बना वह सच्चा त्यागी नहीं हो सकता।
संसार में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें वस्त्र, सुगंध, अलंकार, स्त्री और शय्या आदि पदार्थ प्राप्त नहीं है, किन्तु उनका मन इन पदार्थों को प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है। पहले पुण्य कर्म का उपार्जन न करने के कारण भोगोपभोग की सामग्री जिन्हें नहीं मिली है, वे मन की लालसा एर अगर विजय प्राप्त नहीं कर
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मनोनिग्रह लके और केवल लोक-दिखावे के लिए अथवा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए अपने श्राएको त्यागी कहते हैं, तो समझना चाहिए कि वे जगत को ठगना चाहते हैं ।
इसी प्रकार अगर किली रोग-विशेष में रुग्ण, पुरुष को वैध भोजन देने का निषेध कर देता है, पर रोगी भोजन के लिए भीतर से व्याकुल रहता है तो वह भोजन का त्यागी नहीं कहला सकता।
तात्पर्य है कि राजा या समाज या जाति आदि के कठोर नियम के कारण, बिना अपनी इच्छा के, भोगोपभोग न भोगा त्याग नहीं है। जन्मजात नपुंसक स्त्री का भोग नहीं कर सकता, फिर भी शास्त्र में नपुंसक की काम-वासना, स्त्री और पुरुष की काम-वासना ले भी अधिक उग्र वतलाई गई है । जिसमें इतनी तीन काम-वासना भरी है उले ब्रह्मचारी का उच्च पद नहीं प्राप्त हो सकता। विना इच्छा के,पराधीनता के कारण भोगोपभोग न भोगना जीवित त्याग नहीं है।
मूल में ' इत्थी ' पद उपलक्षण है। उस से पुरुष का भी ग्रहण होता है। श्रर्थात् केवल पराधीनता के ही कारण स्त्री का भोग न करना जैसे पुरुष का सच्चा त्याग नहीं है, उसी प्रकार पराधीनता के कारण अगर कोई स्त्री, पुरुष का भोग नहीं करती तो वह स्त्री का सच्चा त्याग नहीं है।
का-जिसके पास रहने को अपना मकान नहीं है, पहनने को श्राभूषण नहीं हैस्त्री आदि अन्य सुख-सामनी नहीं है, वह क्या कभी त्यागी नहीं हो सकता ?
माधान-यहां दीन-दरिद्र के त्याग का निषेध नहीं किया गया है, किन्त पर बतलाया गया है कि भोगोपभोग चाहे विद्यमान हो चाहे विद्यमान न हों, पर उनकी भोर से जिनका मन विमुख नहीं हुश्रा है,ये त्यागी नहीं कहे जा सकते । अगर कोई चक्रवती पट खंड का साम्राज्य त्यागकर दीक्षित हो जाय और दीक्षित होने के पात उसे तुच्छ से तुच्छ विषय भोम की लालसा उत्पन्न हो जाय तो वह त्यागी नहीं कहला सकता। इससे विपरीत एक दरिद्र पुरुष, जिसके पास सुत्रसामग्री नहीं है, अगर दीक्षा लेकर सुन-सामग्री की लालसा त्याग देता है तो वह सच्चा त्यागी हैं। - पराधीनता, लाचारी या यलात्कार में भाव त्याग नहीं है। लोक-लाज, प्रतिष्ठा-भंग का भय, राजकीय शासन या सामाजिक बंधन इन सब वाद्य कारणों से जो त्याग अपर से लदता है, उसमें वास्तविकता नहीं होती। रास्तविक त्याग मांसिक विरक्ति से उत्पन्न होता है । वह अन्तरात्मा में उद्भूत होता है, ऊपर से नहीं
सा जाता । अतपय ऊपर से ढूंसा हुश्रा त्याग एक प्रकार का उलात्कार है, सच्चा त्याग नहीं।
सच्चा त्याग किसे करना चाहिए, यह अगली गाधा में स्त्रकार स्वयं प्रकट
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पन्द्रहवां अध्याय
4. ५६७ . मूलः-जे य कंते पिये भोए, लद्धे वि पिट्टि कुव्वइ । ..
साहीणे चयइ भोए, सेहु चाइत्ति वुच्चइ ॥६॥ छाया:-यश्च कान्तान् प्रियान भोगान्, लब्धानपि पृष्ठी कुरुते ।
__ स्वाधीनस्त्यजीत भोगान्, स हि त्यागीत्युच्यते ॥६॥ शब्दार्थ:-जो पुरुष स्वाधीन होकर, प्राप्त हुए कान्त और प्रिय मोगों से पीठ फेरता है, वह सच्चा त्यागी कहलाता है।
भाष्यः-पूर्व गाथा में यह बतलाया गया था कि त्यागी कौन नहीं कहलाता। यहां यह बतलाया गया है कि त्यागी कौन कहला सकता है। पूर्व गाथा में व्यातिरेक रूप से जो विपय प्रतिपादन किया गया है, वही विषय यहां अन्वय रूप ले निरूपए किया गया है।
__ यहाँ आशका की जा सकती है कि व्यतिरेक कथन से ही अन्चय कथन का ज्ञान हो जाता है, तो फिर व्यतिरेक और अल्वय दोनों प्रकार से विषय का प्रतिपादन करना पुनरुक्ति क्यों न समझा जाना चाहिए।
इसका समाधान यह है कि यद्यपि व्यतिरेक और अन्वय में से किसी एक के कथन से ही तात्पर्य सिद्ध हो जाता है तथापि यहां दोनों प्रकार से कथन करने का कारण शास्त्रकार की दयालुता है । परम दयालु शास्त्रकार तीक्ष्ण बुद्धि, मध्यम बुद्ध
और मंद बुद्धि वाले सभी शिष्यों के लाभ के लिए. शास्त्र-निर्माण में प्रवृत्त होते हैं। अतएव जिस प्रकार अधिक लाभ हो उसी प्रकार की रचना करते हैं। शिष्यों को वस्तु स्वरूप का विशद रूप से प्रतिपादन करने में पुनरुक्ति दोष नहीं माना जा सकता। अगर यहां केवल अन्वय या व्यतिरेक रूप में ही कथन किया जाता तो मंद चुद्धि शिष्यों को स्पष्ट वस्तु स्वरूप समझ में न आता । प्राचार्य शीलांक ने कहा भी है:-'अन्वय व्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः सूक्तो भवति । ' अर्थात अन्वय और पतिरेक-दोनों द्वारा कहा हुअा अर्थ सम्यक प्रकार कहा. हुश्रा कहलाता है। अतएक उसे अधिक स्पष्ट करने के लिए ही शास्त्रकार ने निषेधात्मक और विधि रूस कथन किया है।
संसार के नो भोगोपभोग सर्वसाधारण के लिए प्रिय है, और भोगों में - रफ्त पुरुष जिनकी निरन्तर कामना करते रहते हैं, उन्हें पाकर के भी जो महाभाग उनका त्याग कर देता है, और वह त्याग भी स्वेच्छा से करता है, न कि जिसी प्रकार की लाचारी से, वही सच्चा त्यागी कहलाता है।
. तात्पर्य यह है कि जिसे वस्त्र, गंध, अलंकार और स्त्री श्रादि सुम्न सामग्री पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उद्य से प्राप्त है, और जो उसका उपभोग करने में स्वाधीन है, जिस पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है, किसी की जबर्दस्ती नहीं है. अगर अपनी आन्तरिक निवृत्तिपरक मनोवृत्ति से प्रेरित होकर उस सामग्री को त्याग दे तो उसे सच्चा त्यागी समझना चाहिए ।
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त्यागी बनने से सुख्य वाढ मनोवृत्ति है । जिसका सन भोगों से विमुख हो गया हो, जिसे भोग भुजंग के समान और इन्द्रियों के विषय विष के समान जान पढ़ने लगे हैं वही सच्चा त्याग है । तच सच्ची त्यागवृत्ति लाने के लिए मन को त्यागपरायण बनाना चाहिए। ऊपर से साधु का वेष धारण कर लिया और मन यदि भोगों में निसन्न बना रहा तो उस त्याग का कुछ भी मूल्य नहीं हैं । इसके विपरीत भौतिक दृष्टि से भोगोपसोग प्राप्त न होने पर भी को मन से उनकी कामना नहीं करता वह सच्चा त्यागी है।
वास्तव में त्यागधर्म स्वाधीनता से उत्पन्न होता है। धर्म में किसी भी प्रकार के बलात्कार को अवकाश नहीं है । जहाँ बतात्कार है कां धर्म नहीं और जहां धर्म है वहां बलात्कार नहीं | ऐसा समझकर स्वेच्छा पूर्वक त्याग करके श्रात्म कल्याण करना चाहिए।
पूर्ववत्तीनाथा में 'छंद' पद बहुवचनान्त है और प्रकृत गाथा में 'सादीले " पद एकवचनान्त हैं । एकवचन और बहु वचन का यह सूक्ष्म भेद शास्त्रकार की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। इससे यह आशय निकलता है कि पराधीन होकर भोग भोगने वाले तो संसार में बहुतरे हैं, परन्तु स्वाधीन होकर प्राप्त भोगों का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है । यही कारण है कि पहले बहुवचन का और बाद में एक चयन का प्रयोग किया गया है ।
मूल :- समाइ पेहाए परिव्वयंतो, सियामणो निस्सरई वहिद्धा न सामहं नो विग्रहं वितसेि, इच्छेव ताम्रो विषएज रागं
दावा- नया नया रि खानाननःपतिः । नामनोऽयमपि तस्याः इत्येव तस्या विनयेत रागम् ॥ ७ ॥
शब्दार्थः:-भावनापूर्वक विचरते हुए मुनि का मन कदाचित संयम से बाहर चला जाय तो न मेरी है और न मैं उसका ही हूँ इस प्रकार विचार करके उससे मोह छटा लेवें ।
भाग्यः -
त्यागी का स्वरूप बतलाकर यहां यह बताया गया है किचीनतापूर्वक भोगों का त्याग करने के पश्चात भी कदाचित् मन भोग की और चला जाय तो त्यागी का क्या कर्तव्य है ?
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मन अत्यन्त चपल है। वायु की गति भी अधिक तीव्र गतिशील है । वह इधर-उधर भटकता रहता है। त्यागी पुरुष के लिए यद्यपि पहले भोगे हुए भोगोपभोग का स्मरण करना वर्जित है, क्योंकि रूमकरने से भी भोगों के प्रति अभिलाषा उत्पन्न होती है । श्रतएव मुनि थप भोगो सांसारिक जीवन को विस्तृत के अनन्त सागर में हवा देना है और संयम मन जीवन की ही साधना के साथ यापन करता हुआ मुक्ति के स्वरूप का
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पन्द्रहवां अध्याय
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चिन्तन करता है | फिर भी मुनि जब तक साधक अवस्था में हैं, जब तक उसकी - साधना पूर्णता पर नहीं पहुँचती है, वह अपनी साधना को समाप्त करके सिद्ध नहीं चन पाया है, तब तक उसे अनेक प्रकार की मानसिक चढ़ाव उतार की अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है।
विषयभोग अनादिकाल से जीव के परिचित हैं । श्रतएव उन्हें सहसा भुला देना सहल नहीं हैं । जिस गाय को, अपने झुंड में से निकलकर धान्य के खेतों में भाग जाने की टेव पड़ जाती है, वह गोपालक के अनेक यत्न करने पर भी और गले में गुर डालने पर भी अवसर देखकर खेत में भाग हो जाती है । वह खेत गाय का अल्पकाल से ही परिचित होता है, और गाय फा स्थूल होने के कारण निरक्षिण करना भी सहज होता है, फिर भी गोपालक कभी न कभी धोखा खा जाता है और गाय अपने झुंड में से बाहर निकल कर खेत में भाग जाती है । जब गाय को रोकना इतना कठिन है तो गाय की अपेक्षा श्रत्यन्तही सूक्ष्म श्रमूर्त्त और चपल मन को रोकने में कितनी अधिक कठिनाई होती है, यह अनुमान लगाया जा सकता है । स्वाध्याय और ध्यान आदि अनुष्ठान मन को इधर-उधर भागने से रोकने लिए डेंगुर के समान हैं मगर अनादि कालीन अभ्यास के कारण मन किसी समय रुकता नहीं है और संयम की मर्यादा से बाहर चला जाता है । शास्त्रकार ने ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर सुनि को क्या करना चाहिए, यह यहां बतलाया है।
· मन यदि किसी स्त्री की ओर आकृष्ट हो जाय तो सोचना चाहिए- 'न मैं उसका हूँ और वह मेरी है।' इस प्रकार की अन्यत्व भावना हृदय में प्रबल करके उत्पन्न हुए रागभाव को हटा देना चाहिए। वास्तव में संसार में कोई किसी का नहीं है 1 किसी का किसी दूसरे पदार्थ के साथ कुछ भी संबंध नहीं है । श्रात्मा जब शरीर से 'ही भिन्न है तो अन्य पदार्थों से अभिन्न कैसे हो सकता है ? इस सत्य की परीक्षा के लिए मृत्युकाल का विचार करना चाहिए । मृत्युकाल उपस्थित होने पर संसार का समस्त वैभव यहीं ज्यों का त्यों पड़ा रह जाता है और अकेला आत्मा परलोक के पथ पर प्रयाण करता है । उस समय स्त्री, पुत्र या वैभव साथ नहीं देता । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में श्रात्मा का किसी भी दूसरे पदार्थ के साथ कुछ भी नाता-रिश्ता नहीं है । इस प्रकार अन्यत्व भावना का चिन्तन करके मन को पुनः संयम में स्थिर करना चाहिए।
'सा' सर्वनाम शब्द का प्रयोग करके शास्त्रकार ने यद्यपि स्त्री की मुख्यता प्रतिपादित की है, फिर भी 'स्त्री' शब्द का प्रयोग न करके सर्वनाम का प्रयोग इसलिए किया प्रतीत होता है कि स्त्री के समान संसार के किसी भी पदार्थ की ओर प्रवृत्त होने वाले मन को इसी भावना से निवृत्त करना चाहिए ।
व्याकरणशास्त्र के विषय से सामान्य में नपुंसक लिंग कम प्रयोग होता है । अगर सामान्य रूप से समर्थों से मन निवृत्त करने का उपाय यहां बताया गया
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मनोनिग्रह है तो नपुंसक लिंग का प्रयोग न करके स्त्रीलिंग का प्रयोग क्यों किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि संसार में सब से अधिक प्रवल आकर्पण पुरुष के लिए । 'स्त्री' है उससे चित्तवृत्ति का हटाना बहुत कठिन है। जो योगी स्त्री के आकर्षण से परे हो जाते हैं, उन्हें अन्य पदार्थ अपनी योर शाकृष्ट नहीं कर सकते । कहा भी है
इत्थीनी जे ण सेवंति, श्राइमोक्ना हु ते जणा। ते जणा बंधणुम्मुक्का, नायंकरोति जीवियं ॥
-सूयगडांग, १५-६ अर्थात् जो पुरुष, स्त्री का सेवन नहीं करते हैं वे श्रादि-मोक्ष हैं-सब से पहले मुक्ति प्राप्त करते हैं। ऐसे पुरुप बंधन से मुक्त हैं और असंयम रूप जीवन की आकांक्षा से रहित हैं।
इस प्रकार स्त्री सेवन के त्याग की महिमा जानकर साधु को नियों के परिचय से दूर ही रहना चाहिए । शास्त्रकार कहते है- .
नो तासु चक्खु संधेजा, नो वि य साहसं समभिजाणे । __णो सहियं पि विहरेजा, एवमप्पा सुरक्खिओ होई ॥
अर्थात्-साधु स्त्रियों की और अपनी दृष्टि न लगावे और न कभी उनके साथ कुकार्य करने का साहस ही करे । साधु को त्रियों के साथ विहार भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार ग्यवहार करने से साधु के आत्मा की रक्षा होती है। ... .. उल्लिखित प्रकार से साधु अपने उत्तम संयम की रक्षा में सदा दत्तचित्त रहे। कदाचित्.मन. कभी संयम की सीमा का इल्लंघन करे तो पूर्वोक्त प्रकार से उसे पुन: संयम में स्थापित करे । इसके लिए असंयम से होने वाली दुर्गति का भी विचार करना चाहिए, जिससे चित्त में स्थिरता पा जाये । यधा....अधि इत्यपाय छेदाप, अदुवा बद्धमंस उक्कं ते ।
अवि तेयसाभितावणाणि, तच्छियवार सिंचणाई च ॥ अर्थात-जो लोग परस्सी सेवन करते हैं उनके हाथ-पैर काट लिये जाते हैं, अथवा उनका चमड़ा और और मांस काट लिया जाता हैं, वे अनि के द्वारा तपाये जाने हैं और उनके शरीर को छील कर उसपर नमक प्रादि क्षार छिट्का जाता है।
इस प्रकार के अनर्थ तो वर्तमान भर में दी परस्त्री-संसर्ग से होते हैं. परन्त परलोक में इनसे भी अधिक भयंकर और प्रगाढ़ दुःन का पात्र बनना पड़ता है।
इत्यादि विचार करके अस्वस्थ और असंयत मन को स्वस्थ बनाना चाहिए । जो महापुरुष सपने मन की गति का अपमान भाव से निरीक्षण करते रहते हैं, घही शीम मन को वश में कर पाते हैं। अतएव मानसिक व्यापार का सावधानी के साथ निरीक्षण करते हुए उसे सन्मार्ग की ओर ले जाना ही मुमुच पुरुषों के लिए
श्रेयस्कर दे।
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पन्द्रहवां अध्याय
[.५७१ ]. मूलः-पाणिवहमुसावाया-अदत्तमेहुण परिग्गहा विरो।
राई भोयणविरो, जीवो होइ अणासवो ॥ ८ ॥ . : छाया:-प्राणिवधमृषावाद-प्रदत्तमैथुन परिग्रहेभ्यो विरतः।।
रात्रिभोजनविरतः, जीवो भवति अंनास्रवः ॥८॥ शब्दार्थः-हिंसा, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से विरत तथा रात्रि भोजन से विरत जीव आस्रव से रहित हो जाता है। ....... .. ... . .
भाष्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है । हिंसा श्रादि का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है और रात्रि भोजन के त्याग का भी निरूपण किया जा चुका है। .. .
जीव प्रति क्षण कर्मों को ग्रहण करता रहता है, अनादिकाल से कर्मों के ग्रहण की यह परम्परा अंविरत रूप से चली आ रही है । इसका अन्त किस प्रकार हो सकता है, यह यहां बतलाया गया है। हिंसा आदि पापों का त्याग करने वाला जीवं आस्रव अर्थात् कर्मों के आदान से बच जाता है।
शंका-शास्त्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को श्रान्नव का कारण बतलाया गया है। अतएव इनके त्याग से ही.श्रास्रव का नाश होना चाहिए। इसके बदले यहां हिंसा आदि के त्याग. से. अनास्रव अवस्था का प्रतिपादन क्यों किया गया है ?
समाधान-हिंसा आदि के त्याग में ही मिथ्यात्व आदि का त्याग गर्भित हो जाता है, अतएव दोनों में विरोध नहीं समझना चाहिए । मिथ्यात्व का त्याग हुए बिना हिंसा आदि पापों का त्याग होना संभव नहीं है, अतएव मिथ्यात्व का त्याग उनके त्याग में स्वतः सिद्ध है । हिंसा आदि अविरति रूपं ही हैं श्रतएव उनके त्याग में अविरति का त्याग भी सिद्ध है । प्रमाद और कषाय भी हिंसी रूप हैं-उनसे स्व. हिंसा और परहिसा होती है अतएव हिंसा आदि के पूर्ण त्याग में उनका त्याग भी समाविष्ट हो जाता है। जब तक योग की प्रवृत्ति है तब तक चारित्र की पूर्णता नहीं होती और चारित्र की परिपूर्णता होने पर योग का सद्भाव नहीं रहता और केवल मात्र योन से साम्परायिक पासव भी नहीं होता अतएव योग का भी यहीं यथायोग्य अन्तर्भाव फरना चाहिए । इस प्रकार दोनों कथनों में शब्द भेद के अतिरिक्त वस्त भेद नहीं है। . इस तरह हिंसा आदि पापों का त्याग करने पर जीव नवीन कर्मों को ग्रहण करना बन्द कर देता है । . . . . . मूल:-जहा महा तलागस्स, सनिरुद्धे जलागमे । . . . उस्सिंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ ६॥
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[ ५७२ ]
... मनोनिग्रह छायाः-यथा महा तहागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे।
उरिसञ्चनेन तपनेन, क्रमेण शोपणा भवेत् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:--जैसे नवीन जल के प्रागमन का मार्ग रोक देने पर और पहले के जल को उलीच देने से और सूर्य का ताप लगने पर विशाल तालाव का भी शोषण हो जाता है। . भाष्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है। आगे कहे जाने वाले विषय को सुगम बनाने के लिए यहां दृष्टान्त का प्रयोग किया है।
तालाव चाहे कितना ही विशाल क्यों न हो पर वह भी सुखाया जा सकता है। उसे सुखाने के लिए दो उपाय है-प्रथम तो यह कि उसमें जिन स्रोतों से-मागों से पानी आता हो उन्हें बन्द करके नवीन पानी का श्राना रोक दिया जाय । दूसरे, पहले के विद्यमान जल को उलीच डाला.जाय अथवा सूर्य के तीन ताप से वह सूख जाय । ऐसा करने से बड़े से बड़ा तालाब भी सूरन जाता है।
इसी प्रकार जव जीव नवीन कर्मों के आगमन के द्वार-श्रास्त्रव को बन्द कर देता है तो नवीन कर्मों का श्राना रुक जाता है। इस उपाय के पश्चात् क्या करना चाहिए, यह अगली गाथा में स्पष्ट किया गया है। मूलः-एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे ।
भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निजरिजइ ॥ १० ॥ छायाः-एवं तु संयतस्यापि पापकर्मनिराम्रो ।
___ भवकोटिसञ्चितं कर्म, तपसा निर्जीयते ॥१०॥ शब्दार्थ:-इसी प्रकार पाप कमों का पानव रुक जाने पर संयममय जीवन व्यतीत करने वाले के करोड़ों भवों के पूर्वोपार्जित कर्म तप द्वारा खिर जाते हैं।
भाष्य:-पूर्व गाथा में दृष्टान्त का कथन करके यहां उसका दाष्ट्रान्तिक बताया गया है।
जीव तालाब के समान है । जल कर्म के समान है। जला के आगमन का मार्ग मानव के समान है। जल के आगमन की सलावट संयम के समान है। उलीचना सूर्य का ताप, तप के समान है । तालाय के जल का सूत्र जाना कमी के क्षय के समान हैं।
तात्पर्य यह है कि जैसे नवीन जल का आगमन रुक जाने पर और पूर्वसंचित जल के सूर्य की गर्मी द्वारा सृस्त्र जाने पर तालाय जल-दीन हो जाता है, इसी प्रकार नवीन कामों के प्रागमन रूप पानव का निरोध कर देने पर और तप के द्वारा पूर्वसंचित फर्मा की निर्जरा कर देने पर जीव कर्मों से सर्वथा रहित दो जाता है।
यहां दो उपायों के बताने से यह स्पष्ट है कि इनमें से एक उपाय का अब. सयन करने पर कमाया सर्वथा नाश होना संभव नहीं है । जिस तालाब में नवीन
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पन्द्रहवा अध्याय नवीन जल पाता रहता हो उसमें से पुराने जाल को उलीचने पर भी तालाव खाली नहीं हो सकता। और कल्पना कीजिए, नवीन जल का श्रागमन रोक दिया गया, पर पुराना जल न सूखा, तब भी तालाब सर्वथा निर्जल न होगा। इसी प्रकार जवतक शास्त्रव का प्रवाह चालू रहता है तव तक श्रात्मा सर्वथा निष्कर्म नहीं हो सकता और जब तक पूर्व संचित कर्मों को तप के द्वारा भस्म न किया जाए तब तक भी फर्महीन अंवस्था उत्पन्न नहीं हो सकती। श्रतएव कर्मों का सर्वथा क्षय करने के लिए संवर और निर्जरा-दोनों ही अपेक्षित हैं। इन दोनों का परम प्रकर्ष होने पर मोक्ष निष्कर्म दशा की प्राप्ति होती है।
तप निर्जरा का साधन है। जैसे इंधन अग्नि के द्वारा भस्म कर दिया जाता है, उसी प्रकार कर्मों का ध्वंस करने के लिए सप अनि के समान है। करोड़ों भवों में संचित कर्म तपस्या के द्वारा नष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि श्रमणोत्तम भगवान् . महावीर ने तप का स्वयं श्रादर किया और उसकी महिमा प्रकट की है। शास्त्र में -
धुणिया कुालय व लेववं, किसए देहभणसणाइहि । अविहिंसामेव पव्वप, अणुधम्मो मुणिणा पवेहो। सउणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय घंसपई सियं रयं । एवं दवि ओवहाण, कम्मं खबइ तवस्ति माहणे ॥
-सुयगडांग, अ० २-उ० १, गा० १५-१५ अर्थात्-जैसे लेप वाली दीवाल, लेप हटा कर कृश बना दी जाती है इसी प्रकार अनशन आदि तप के द्वारा शरीर को कृश कर डालना चाहिए और अहिंसा धर्म का पालन करना चाहिए । ज्ञात मुनि ने ऐसा उपदेश दिया है।
जैसे पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई धूल, शरीर को हिलाकर मार देती है, इसी तरह अनशन आदि तप करने वाला पुरुष कर्मों का क्षय कर देता है।
___ यहां पर तप की महत्ता बतलाने के साथ हिंसा श्रादि रूप प्रास्त्रव के त्याग फरने का भी विधान किया गया है। . शंका-यदि तपस्या से कसौ का क्षय होता है तो अक्षान पूर्वक तप करने भाले बाल-तपस्वियों के कर्मों का भी लय होना चाहिए । यया तप के द्वारा वे भी निष्कर्म अवस्था प्रास करते हैं ?
समाधान- अचान पूर्वक किया जाने वाला तप कर्मतय का कारण नहीं होता। . ऐसा तप संसार-वृद्धि का ही कारण होता है। कहा भी है:
जे य बुद्धा महाभागा, वीरा सस्मचदसिणो। ___ सुद्ध तेर्सि परक्तं, अफलं होइ सनसो॥ .
अर्थात्-जो सभ्यग्ज्ञानी, महाभाग, वीर एवं सम्यग्दृष्टि हैं उन्हीं का तप शादि 'मनुष्ठान शुद्ध है और उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। उन महापुरुषों का तप सांसा
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[५७४ 1
मनोनिग्रह रिक फल के लिए नहीं होता। इतना ही नहीं, शास्त्रकार तपस्या की शुद्धि के विषय में और भी कहते हैं:
तेसि पि तवो ण सुद्धो, निक्खंता महाकुला।
जन्ने वन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेषजए । अर्थात्:-जो लोग बड़े कुल में उत्पन्न होकर अपने तप की प्रशंसा करते हैं अथवा तप के फल-स्वरूप मान-बड़ाई की अभिलाषा करते हैं उनका भी तप अशुद्ध है। साधु को अपना तप गुप्त रखना चाहिए और अपने तप की श्राप प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।
तात्पर्य यह है कि तप का प्रयोजन कों की निर्जरा करना है। अतएव निर्जरा के प्रयोजन से ही जो तप किया जाता है, वही उत्तम होता है। पूजा-प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि
और कीर्ति की कामना से किया हुश्रा तप अशुद्ध है और उससे श्रात्म शुद्धि नहीं होती। श्रतः लोकैपणा का परित्याग करके यथाशक्ति शुद्ध माव से तप करना मुमुनु जीव का कर्तव्य है। मूल:-सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभितरो तहा॥
वाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभितरो तवो ॥ ११ ॥ छाया:-तत्तपो द्विविधमु, वाहामाभ्यन्तरं तथा।
याचं पढविधमुक्त, एवमाभ्यन्तरं तपः ॥११॥ शब्दार्थः-वह तप सर्वज्ञ भगवान के द्वारा दो प्रकार का कहा गया है-(१) बाह्य तप और (२) प्राभ्यन्तर तप । बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है और याभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है।
भाप्यः-तप की महता प्रदर्शित करके, उसकी विशेष विवेचना करने के लिए शास्त्रकार ने यहां तप के दो भेद बताये हैं। बाय और प्राभ्यन्तर के भेद से तप दो प्रकार का है। दोनों प्रकारों के भी अवान्तर प्रकार छह-छह होते है।।
गाथा में 'सो' पद पूर्वगाथा में वर्णित तर का परामर्श करने के लिए है। अर्थात जिस तप में करोड़ों भवों में उपार्जित कमों को नष्ट कर देने की शक्ति विद्यमान है, वह तप दो प्रकार का है। . जो तप चाहा पदार्थों की अपेक्षा रखते हैं और जो पर को प्रत्यक्ष हो सकते है
या तप कहलाते हैं। मुख्य रूप से मन को संयत करने के लिए जिनका उपयोग होता है वह आभ्यन्तरता कहलाते हैं । यह वाह्य और श्राभ्यन्तर तप में भिन्नता है।
श्रवान्तर भेदों के नाम सांग स्वयं शास्त्रकार बतलाते हैं । मल:-अगसणमणोयारिया, भिक्खायरिया य रसपरिचायो।
कायकिलेसो संलीणया, य बन्झो तवो होई ॥ १२ ॥
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पन्द्रहवां अध्याय
छाया:-अनशनमूनोदरिका भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः। .
___ कायक्लेश: संलीनता च, बाह्यं तपो भवति ॥ १२ ॥ शब्दार्थ:-अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग,कायक्लेश और संलीनता, यह छह वाह्य तप हैं।
भाष्यः--पूर्वगाथा में सामान्य रूप से विभाग बतला कर यहां बाह्य तप के नाम बतलाये गये हैं। वाह्य तप के छह भेद इस प्रकार हैं। (१) अनशन (२) ऊनो. दरी ( ३) भिक्षाचर्या (४) रस परित्याग (५) कायक्लेश और (६) खलीनता। .. अनशन आदि तपों का स्वरूप इस प्रकार है:. - (१) अनशन-संयम की विशेष सिद्धि के लिए, रागभाव का नाश करने के. लिए, कर्मों की निर्जरा के लिए, ध्यान की साधनाओं के लिए तथा श्रागम की प्राप्ति के लिए प्राशन, पान, खाद्य और स्वाद्य- इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप कहलाता है।
अनशन तप के दो भेद हैं--(१) इत्वरिक तप और (.२) यावत्कार्थक अनशन तप । अमुक काल की मर्यादा के साथ कियाजाने वाला अनशन इत्वरिक अनशन कहलाता है। काल की मर्यादा न करना जीवन पर्यन्त के लिए किया जाने वाला अनशन यावत्कथित अनशन कहलाता है।
इत्वरिक अनशन तप के भी छह भेद हैं--(१) श्रेखीतप (२) प्रतरतए (३) घनतप (४) वर्गतप (५) वर्गावर्गतप और प्रकीर्णतप ।
(क) श्रेणी तप--चतुर्थ भक्त (उपवास), षष्ठ भक्त (दो उपवास--बेला), अष्ट भक्त (तीन उपवास--तेला ), आदि के क्रम से बढ़ते-बढ़ते पक्षोपवास, मासोपवास, द्विमासोपवास, भादि करते-षट्मासोपवास तक येथा शक्ति करना, यह श्रेणी तप कहलाता है।
(ज) प्रतरतप-सोलह खानों का चौकोर यन्त्र बनाया जाय और उसके प्रत्येक स्त्राने में अंक स्थापित किये जाएँ । चाहे तरफ से दाहिनी तरफ और ऊपर से नीचे के चार खानों में क्रमशः एक, दो, तीन और चार का अंक स्थापित करना चाहिए । इन अंकों के क्रम से, जहां जितना अंक हो उतने ही उपवास करना प्रतर तप है। यन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है:
प्रतर तप
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मनोनिया
मनोनिग्रह . ___ अर्थात्-एक, दो, तीन, चार, उपवास के बाद दो, तीन चार और एक, इस प्रकार अंकों के अनुसार उपवास करना प्रतर तप है।
(ग) घन तप-उल्लिस्नित यन्त्र के समान ही Ex==६४ खानों का यन्त्र बना कर और उसमें यथाक्रम से अंक स्थापित करके उन अंकों के अनुसार तप करना धन तप है।
(घ) वर्ग तप-पूर्वोक्त यन्त्र के समान ही ६४४६४४०६६ खानों में अंकों की स्थापना करके उन अंकों के अनुसार अनशन करना वर्ग तप कहलाता है।
(ङ) वर्गावर्ग तप--पूर्वोक्त यन्त्र के समान ही ४०६६४४०६६=१६७७७२१६ खानों के यंत्र में यथाक्रम अंक स्थापन करके उन्हीं अंको के अनुसार तप करना वर्गावर्ग तप है।
६च ) प्रकीर्ण तप--रत्नावली, कनकावली, मुक्तावली, एकावली, घृहत्संहक्रीड़ा, लघुसिंह क्रीड़ा, गुणरत्नसंवत्सर, वज्रमध्यप्रतिमा, सर्वतोभद्र, महाभद्र, भद्र प्रतिमा, आयंबिल, वर्द्धभान आदि नाना प्रकार के फुट फल तप करना प्रकीर्ण तप है।
इन तपों का स्वरूप कोष्टकों से सममाने में सुगमता होगी श्रतएव यहां कोष्टक दिये जाते हैं।--
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पन्द्रहवां अध्याय
रत्नावलि तप
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रत्नावलि-तप की एक लस में ३८४ तप दिन, ८८ पारणा होते हैं । १५ मास और २२ दिन लगते हैं। पूरे तप में ५ वर्ष २ मास और २८ दिन लगते हैं। .
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कनकावलि तप में कुल ५ वर्ष, ६ मास और १८ दिन लगते हैं। एक लड में ४३४ तपस्या के दिन और बस पारणा दिन हैं। . . . . . .
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एकावली तप .
एकापली तप की एक तस्में ३३४ दिन तप के भोर ८६ दिन पारणा के हैं। इस की एक. सड़ में १४ मास और २ दिन लगते हैं। पारों लड़ों में ४ वर्ष, ८ मास लगते हैं।
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मुक्तावली. तप.
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पन्द्रहवां भध्याय
सर्वतोभद्र प्रतिमा तप
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लघु सर्वतोभद्र प्रतिमा तप
तप दिन ३६२, पारणा ४६,४४१ दिन अर्थात् १४ माल और २१ दिन का यह ता है।
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महासर्वतोभद् प्रतिमा तप
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अंद्र प्रतिमा तप ३ मास १० दिन का है। ७५ तप दिन और २५ पारणा दिन | इसमें होते हैं। . . . .
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महाभद्र तप ८ मास ३ दिन कर है। तए दिन १६६, पारमा ४६ ।
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लघुसिंह क्रीड़ा के तप के १५४ तप दिन, ३३ पारखा। ६ मास, ७ दिन एक लड़ में लगते हैं। समस्त तप में २ वर्ष और २५ दिन होते हैं।
लघुसिंह निष्क्रीडित तप .
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महासिंह मिक्रीडित सप की एक लड़ के दिन ४६७ और पारणा दिन ६१ कल एक पर्प, ६ मास, १८ दिन शेते हैं। चारों लड़ों का समय ६ वर्ष, २ मास, १२ दिन। ..
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भनोनिग्रह
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न्छवां अध्याय
[५८१
भद्रोचर प्रतिमा तप
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भद्रोत्तर तप २ वर्ष, २ मास और २० दिन का है। तप दिन ७००, पारणा दिन १०० हैं।
प्राथम्बिल वर्द्धमान त
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२८। १ ।२६। १ । । १ । ३ । ३२। र । ३३॥ १।३४।१।३५॥ १।३६ ।३७।१।३८।१।३६।२।४०।१।४।१।४२।१।४३ र ४४।१।४५११ ४६ १।४७।१ ।४।१।४।१।५०।१।५१।१ । ५२।१।५३।१।५४|११ २५ । ।५६।१।५७।१।५८।१।५६।१।६० ।६१।१।६२1 ११६३११)
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मायस्बिल वर्द्धमान तप, बौदह वर्ष, तीन मास और यीस दिन का होता है।
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· मनोनिग्रह
गुणरत्न, संवत्सर तप.
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यावत्कधिक अनशन के दो भेद हैं--(१) चारों प्रकार के आहार का जीवन पर्यन्त त्याग करना धीर (२) आहार के साथ शरीर का भी त्याग कर, हिलनाचलना चादि बंद करके, एक ही प्रासन से जीवन पर्यन्त बैठे रहना । पहले को भक्त प्रत्यास्पान भगशन करते हैं और दूसरे का नाम पादोपगमन अनशन है।
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पन्द्रहवां अध्याय
ध्यान रखना चाहिए कि यावत्कथिक अनशन विशेष अवस्था में ही किया जाता है। प्राणहारी उपसर्ग आने पर, असाध्य रोग के कारण मृत्यु का निश्चय हो जाने पर या ऐसी ही किसी अन्य विशेष अवस्था में जीवनपर्यन्त अनशन किया जाता है।
(२) ऊनोदरी त--आहार, उपधि और कपाय की न्यूनता करना ऊनोदरी तप है। ऊनोदरी तप दो प्रकार का है (१) द्रव्य ऊनोदरी और ( २ ) भाव ऊनोदरी द्रव्य ऊनोदरी के तीन भेद हैं । ( १ ) ममत्व घटाने के लिए, शानध्यान, में वृद्धि करने के लिए और सुखपूर्वक विहार करने के लिए वस्त्रों और पात्रों की कमी करना उपकरण-उनोदरी तप है।
पुरुष का यूग शाहार वत्तील कवल का है उनमें से सिर्फ पाठ कवल ग्रहण करके संतोष करना पाव उनोदरी है । सोलह ग्रास ग्रहण कर संतुष्ट रहना अर्थ ऊनोदरी है और चार कवल ग्रहण करना अध-पाव-ऊनोदरी है । बत्तीस में से एकदो कम कवल ग्रहण करना किञ्चित ऊनोदरी तप है।
"अट्ठकुक्कुडि अंडगमेत्तघमाणे कवले शाहारमाणे अप्पाहारे दुवालसकवलेहि अवड्ढोमोयरिया, सोलसहिं दुभागे पत्ते, चउवीसं प्रोमोदरिया, तीसं पमाण पत्ते, बत्तीसं कवला संपुरणाहारे।"
अर्थात मुर्गी के अन्डे के बराबर पाठ कवल का आहार करना अल्पाहार करना कहलाता है। बारह कवल का श्राहार करना अपाधं ऊनोदरी है। सोलह कवल का श्राहार करना अर्घ ऊनोदरी है। तीस कवल का आहार प्रमाण प्राप्त श्राहार कहा लाता है और बत्तीस कवल खाना सम्पूर्ण आहार है।
ऊनोदर तप से अनेक लाभ हैं। अल्प श्राहार से आलस्य अधिक नहीं पाता, शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा होती है और बुद्धि का भी विकास होता है।
ऊपर के कथन से यह न समझना चाहिए यह क्रम सिर्फ साधु के लिए है। ध्यावाहारिक और पारमार्थिक दोपों का निराकरण करने के लिए पृहस्थों को भी इस तपस्या को अंगीकार करना चाहिए । अन्यान्य तपों के विषय में भी यही बात है।
क्रोध, मान, माया और लोभ को न्यून करना भाव-ऊनादरी तप कहलाता है। आत्म सिद्धि के लिए ऊनोदरी तप की महान् उपयोगिता है । श्रतएच साधु और श्रावक-दोनों को यथा शक्ति इस तप का पालन करना चाहिए।
(३) भिक्षा चर्या तप--अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेकर इससे शरीर का निर्वाह करना भिक्षाचरी तप है। इसी को भिक्षाचर्या भी कहते हैं।
जैसे गृहस्थ द्वारा अपने उपभोग के लिए बनाये हुए उद्यान में अचानक पा. फर भ्रमर, थोड़ा-थोड़ा अनेक फूलों का रस ग्रहण करता है। ऐसा करने से फलों का रस समाप्त नहीं हो जाता है और भ्रमर का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। इसी सकार गृहस्थ ने अपने उद्देश्य से जो भोजन बनाया हो, उसमें से थोड़ा-सा अाहार
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५८४ ]
मनोनिग्रह
साधु ले लेते हैं । उस से न तो गृहस्थ को किसी प्रकार का कष्ट होता है न साधु ही को निराहार रहना पड़ता है ।
मिक्षाचर्या तप चार प्रकार का है - ( १ ) द्रव्य से ( २ ) क्षेत्र से ( ३ ) काल मे और ( ४ ) भाव से । द्रव्य से भिक्षाचर्य के छब्बीस प्रकार के श्रभिग्रह होते हैं। यथा
( १ ) वर्त्तन में से निकाल कर दिये जाने वाले आहार को लेना 'उत्ति चर' कहलाता है ।
( २ ) वर्त्तन में वस्तु डालता हुआ दाता दें, उसे निक्खित्त चरए कहते हैं ।
( ३ ) वर्त्तन में से वस्तु निकाल कर फिर डालते हुए दे, उसे लेना उक्त्ति निति चरए है ।
( ४ ) वर्त्तन में डालकर फिर फिर निकालते हुए दे उसे लेना निक्षितउक्ति चरए है ।
(2) दूसरे को देते-देते बीच में दिये जाने वाले थाहार को लेना वहिजयाण चरण है ।
( ६ ) दूसरे से लेते-लेते मध्य में दिये जाने वाले श्राहार को लेना माहरिजमाय चरए है ।
( ७ ) अन्य को देने के लिए जा रहा हो उसमें से लेना उवणीय घरए है । (८) अन्य को दे देने के लिए ला रहा हो उसमें से लेना श्रावणी-चरए है । ( ६ ) किसी को देने के लिए जाकर लौट रहा हो उस समय लेना उवणीय-वीय चरए है ।
(१०) अन्य से लेकर वापस देने जाना हुआ दे, उसे ले लेना अवणीय-: वीय चरण है ।
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( ११ ) भरे हुए हाथ से देवे, उसे लेना
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( १२ ) विना भरे ( साफ-सुथरे ) हाथों से दे और उसे लेना घसंस
चरण हैं ।
(१३) जिस वस्तु से हाथ भरे हो उसी दी जाने वाली वस्तु को लेना तज्जाए संसट्ट चरए है ।
(१४) अपरिचित कुल से अर्थात जिस कुल वाले साधु को पहचानते न हो उससे, लेना अश्रापचरए है ।
(१५) बिनायोले मौन रहकर चर्या करना (गौचरी करना) मोष चरिए है । (१६) दिखाई देने वाली वस्तु लेना सो दिठि लाभर है । ( १७ ) दिखाई न देने वाली वस्तु सेना श्रदिट्टि लाभ है ।
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पन्द्रहवां अध्याय
(१८) अमुक' वस्तु लंगे ? ' इस प्रकार धार कर वही वस्तु लेना पुट्ठः लाभए है।
(१६) बिना पछे ही दे, वही वस्तु लेना अपुट्ट लाभए है। (२०) जो निन्दा करके देवे वहीं से लेना सिक्न लाभए है। (२१) जो स्तुति करके दे, उसी के यहां से लेना अभिक्खू लाभए है ।
(२२) कष्टकर आहार लेना श्रणागलाए है। . (२३ ) गृहस्थ भोजन कर रहा हो और उसी में से देवे तो यह उवाणिहिए चर्या है।
( २४ ) परिमित लाम- अच्छा आहार लेना परिमित-पिण्डवाए है। (२५) चौकस कर लेना शुद्धषणिए है। (२६) एवं वस्तु की मर्यादा करके लेना संखदत्ती चर्या है।
ऊपर द्रव्य भिक्षा चर्या के जो रूप बतलाये गये हैं, वे अभिग्रह के प्रकार हैं। मुनि अपने अन्तराय कर्म की परीक्षा के लिए नाना प्रकार के अभिग्रह करते हैं। श्रमुक प्रकार का योग मिलने पर ही थाहार ग्रहण करना, अन्यथा नहीं, इस तरह के संकल्प को अभिग्रह कहते हैं । अभिग्रह गृहस्थों को प्रकट नहीं होने पाता । इससे बहुत वार मुनि को निराहार रहना पड़ता हैं।
(२)क्षेत्र से भिक्षाचर्या के पाठ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं:
(१) चार कोने वाले घर से बाहार मिलेगा तो ग्रहण करेंगे, अन्य नहीं, इस प्रकार का संकल्प करना 'पेटीए' भिक्षाचर्या है।
(२) यो कोने वाले घर से भिक्षा मिलेगी तो लेंगे, अन्यथा नहीं, इस प्रकार का अभिग्रह 'अद्धपेटीए' भिक्षाचर्या है।
(३) गो मूत्र के समान बांके, एक ओर के एक, मकान से और फिर दूसरी ओर के दूसरे मकान से भिक्षा लेना गोमुत्रे' भिक्षाचर्या है। .
(४) पतंग के उड़ने के समान प्रकीर्णक घरों से भिक्षा लेना 'पतंगीए' भिक्षा चर्या है।
(५) पहले नीचे के घर से फिर ऊपर के घर से लेना अन्यथा नहीं, वह 'अविभंतर संखाव' भिक्षा चर्या है।
(६) पहले ऊपर के घर से, फिर नीचे के घर से भिक्षा लेना 'वाहिरा संघा. वत्ते' भिक्षा चर्या है।
(७ ) जाते समय ही भिक्षा लेना, प्राते समय नहीं उसे गमणे भिक्षाचर्या कहते हैं।
(८) जाते समय भिक्षा न लेना, सिर्फ आते समय लेना 'भागमणे भिक्षाचर्या है।
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क्षेत्र भिक्षा चर्या में क्षेत्र की अपेक्षा नाना प्रकार के अभिग्रह किये जाते हैं। . (३) काल से भिक्षा चर्या के अनेक भेद हैं। प्रथम प्रहर का लाया हुवा आहार तीसरे प्रहर में खाना । प्रथम प्रहर का लाया हुआ श्राहार प्रथम प्रहर में खाना और प्रथम प्रहर का लाया आहार दूसरे प्रहर में खाना । इसी प्रकार घड़ी श्रादि की अपेक्षा अभिग्रह करना काल से भिक्षाचर्या है।
(४) भाव-भिक्षाचर्या के भी अनेक विकल्प हैं। जैसे- अनेक भोज्य वस्तुएँ .... अलग-अलग लाना और सब को मिश्रित कर खाना, प्रिय एवं रूचिकर वस्तु का त्याग कर देना, गृद्धि रहित होकर श्राहार करना, श्रादि ।
(४। रसपरित्याग-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए, जिहवा को प्रिय स्वादु घलवर्द्धक वस्तुओं का त्याग करके नीरस भोज्य पदार्थ खाना रस परित्याग तप है। इसके चौदह भेद इस प्रकार हैं:
(१) निवितिए-दूध, दही, घृत, तेल, मिठाई, इन पांच विगय (विकृति जनक) वस्तुओं का त्याग करना।
(२) पणीयरसपरिच्याय-पौष्टिक एवं मादक द्रव्यों का तथा समस्त विगर्यो का त्याग करना।
(३) प्रायमसित्थ भोग-शोसावन में के ही दाने खाना । (४) श्ररस आहार-मसाला से रहित श्राहार लेना। (५) विरस थाहार-पुराना धान पका ( सीझा-असिझा) लेना। (६) अंत श्राहार-चना, उठ्द, श्रादि के छिलके लेना। (७) पंत साहार-ठंडा, वासी थाहार लेना। (८) लुक्स पाहार-सखा आहार लेना। (६) तुच्छ आहार-जली या अधजली निस्सल खुरचन आदि लेना।
(१०-१४) अरस, विरस, अन्त, प्रान्त और लत्र श्राहार से संयम का निर्वाह करना।
(५) कायक्लेशतप- स्वेच्छापूर्वक धर्मवृद्धि के लिए तथा कमों की विशिष्ट निर्जरा करने के लिए काय को कर देना कायलश तप कहलाता है। इसके भी अनेक भेद हैं।
मुख्य मंद इस प्रकार हैं:(! ) ठाणाठिाए-कायोत्सर्ग करके खड़ा रहना। . १२)अणाय-कायोत्सर्ग के पिना दी खड़ा रहना। (३) उपाडासणिय-दोनों घुटनों के बीच सिर मुकाये कायोत्सर्ग करना । (५) पडिमाठार-साधु की बारह प्रतिमाएँ. (प्रतिघा.) धारण करना ।
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पन्द्रहवां अध्याय
[५८७ } . बारह प्रतिमाओं का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है:-पहली प्रतिमा में, एक महीने तक एक दत्ति आहार और एक दत्ति पानी की लेना । आहार लेते समय एक साथ एक बार में जितना आहार मिल उतना ही लेना, दूसरी बार न लेना एक दत्ति श्राहार कहलाता है। इसी प्रकार घारा टूट बिना एक साथ जितना पानी मिले उतना. ही लेना, धारा टूटने पर फिर न लेना पानी की एक दत्ति कहलाती है।
इसी प्रकार दूसरी प्रतिमा में दो मास तक दो-दो दत्ति (दांत ) आहार-पानी की लेना, तालरी प्रतिमा में तीन मास तक तीन-तीन और चौथी प्रतिमा में चार मास तक चार-चार दत्ति लेना क्रमशः दूसरी, तीसरी और चौथी प्रतिमा कहलाती है। पांचवी प्रतिमा में पांच मास तक पांच-पांच आहार-पानी की दत्ति ली जाती है। इसी प्रकार छठी प्रतिमा में छह मास तक छह-छह दन्ति और सातवीं प्रतिमा में सात-सात दत्ति ली जाती है। .. .
आठवीं प्रतिमा में सात दिन तक चौविहार एकांतर उपवास करना, दिन में सूर्य की प्रातापना लेना, रात्रि में वस्त्र रहित रहना, रात्रि के समय चारों प्रहर सीधा सोना या एक ही करवट से सोना या कायोत्सर्ग करके बैठे-बैठे रात्रि व्यतीत करना, दैविक, नरकीय, तिर्यञ्चों सम्बन्धी उपसर्ग उपस्थित होने पर शांति एवं धैर्य से उन्हें सहन करना और चलायमान न होना।
नौवीं प्रतिमा आठवीं के समान है। विशेषता यह है कि दंडासन, लगुड़ासन या उक्कुडासन में से किसी एक आसन का प्रयोग करना चाहिए । सीधा खड़ा रहना दंडासन है। पैर की एड़ी और मस्तक का शिखा स्थान भूतल में लगा कर शरीर को कमान के समान अधर रखना लगुडासन है। दोनों घुटनों के बीच सिर मुका रखना उपकुडासन है। रात भर एक ही श्रासन से रहना चाहिए।
दसवी प्रतिमा भी श्राठवीं के ही समान है। विशेषता यह है कि गोदुहासन, वीरासन अम्बकुन्जासन, में से किसी एक श्रासन का प्रयाग करना चाहिए । जिस श्रासन का प्रयोग किया जाय उसी का रात्रि भर अवलम्बन लेना चाहिए । गाय को दुहने के लिए जिस आसन से बैठा जाता है उसे गोदुहासन कहते हैं । कुर्सी पर बैठ कर पैर ज़मीन पर लगावे और कुली हटा दने के बाद जैसा श्रासन रह जाता है वह वीरांसन कहलाता है। सिर नीचे और पैर ऊपर रखना अम्बकुन्जासन कहलाता है।
ग्यारहवीं प्रतिमा में षष्ठ भत करना चाहिए । और दूसरे दिन ग्राम से पार जाफर एक अहोरात्रि (आठ प्रहर पर्यन्त ) कायोत्सगे करके खड़ा रहना चाहिए। किसी भी प्रकार का उपसर्ग श्राने पर स्थिर भाव से उसे सहन करना चाहिए।
पारहवीं प्रतिमा में अष्टम भक्त करना चाहिए । तीसरे दिन महाभयंकर श्मशान में किसी भी एक वस्तु पर दृष्टि स्थापित करके कायोत्सर्ग करना चाहिए । उपसर्ग
शाने पर जो महामनि निश्चल बने रहते है उन्हें अवधिशान, मनापर्ययान भर . केवलशान में से किसी एक ज्ञान की प्राप्ति होती है उपसगे भाने पर जो चंच
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...' मनोनिग्रह जाते हैं, भयभीत हो जाते हैं उन्हें या तो उन्माद हो जाता है या चिरस्थायी कोई अन्य रोग हो जाता है और वे जिन मार्ग से च्युत हो जाते हैं। ::. इस प्रकार बारह प्रतिमाएँ कायक्लेश तप के अन्तर्गत हैं । केशों का लुंचन करना, पैदल विचरना, परीषह सहन करना, स्नान न करना, शरीर का मैल न उता। रना, आदि-आदि श्री कायक्लेश के ही अन्तर्गत है।
(६) संलीनता-सलीनता तप को प्रतिसलीनता भी कहा जाता है । इसके । बार भेद हैं--(१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, (२) कषाय प्रतिसंलीनता (३) योगप्रतिसंलीनता और ( ४ ) शयनासन प्रतिसंलीनता।
श्रानव के जो कारण पहले बतलाये जा चुके हैं उनका निग्रह करना प्रति. सलीनता तप कहलाता है। राग-द्वेष की उत्पत्ति करने वाले शब्दों के श्रवण से कानों को रोकना, विकारजनक रूप को देखने से नेत्रों को रोकना, गंध से घ्राणन्द्रिय को रोकना श्रोर रससे जिला को रोकना एवं स्पर्श से स्पर्शनेन्द्रिय को रोकना इन्द्रिय. प्रतिसंलीनता तप है। . क्षमा भाव की प्रबलता से क्रोध को शान्त करना, नम्रता धारण करके अभि. मान का त्याग करना, सरलता से माया को हटाना शौर, सन्तोष की वृत्ति से लोभ का परिहार करना कषाय प्रतिसलीनता तप है।
असत्य मनोयोग और मिश्र मनोयोग का निग्रह करके व्यवहार मनोयोग की ही प्रवृत्ति करना, इसी प्रकार सत्य योग की प्रवृत्ति करना एवं असत्य तथा मिश्र धचन योग का निग्रह करना, औदारिक, औदारिफ मिश्र, वैक्रिय योग, वैक्रिय मिश्र श्राहारक योग, आहारक मिथयोग, और कार्मण योग-इन काय के सात योगों की अशुभ प्रवृत्ति रोक कर शुभ प्रवृत्ति करना योग प्रतिसंलीनता तप है। .. वाटिका, बगीचा, उद्यान, यक्षादि देवों का स्थान हो, हाट, दुकान, हवेली, . उपाश्रय, गुफा श्मशान में किसी वृक्ष के नीचे, जहां स्त्री, पशु और नपंशक का जोग हो, एक रात या यथेष्ट समयतंक रहना शयनासन प्रतिसंलीनता तप कहलाता है। मूलः-पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तहेव सज्झायो।
माणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ॥१३॥ छाया:-प्रायश्चिचं विनयः, बैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः ।
__ ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-आभ्यन्तर तप छह प्रकार के हैं:-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग।
भाष्यः बाह्य तपी का स्वरूप बतलाने के पश्चात् क्रमप्राप्त प्राभ्यन्तर तपों के नामों का यहां उल्लेख किया गया है। याह्य तपों से मुख्य रूप से इन्द्रियों का दमन होता है और प्राभ्यन्तर तप मन के निग्रह के कारण भूत हैं । प्रास्यन्तर
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पन्द्रहवां अध्याय तपों का स्वरूप इस प्रकार समझना चाहिए।
(१) प्रायाश्चत्त-प्रमाद के कारस लगे हुए दोषों का निवार्य करना अथवा पाप रूप पोय का उच्छेदन करना प्रायश्चित्त है । मायाश्चत तप दल प्रकार का है। वह इस प्रकार है
(१) भालोचना-अपने लिए अथवा प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, या बीमार मुनि के लिए आहार लेने या अन्य किसी कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर जाने और पाने के बीच जो चारित्र-व्यतिकम हुआ हो, वह सब अपने गुरु के या अपने से बड़े मुनि के समक्ष स्पष्ट रूप से-न्यूनाधिक न करते हुए कह देना आलोचना है।
(२) प्रतिझमरण-आहार में, विहार में, प्रतिलखना में, हिलने-चालने में, या इसी प्रकार की किसी अन्य क्रिया में जो महान दोष लग गया हो उसके लिए पश्चा. ताप करना प्रतिक्रमरण तफ है।
(३) तदुभय-पूर्वोक्त क्रियाओं में जान बूझ कर जो दोष लगा हो उसे गुरु के समर्माए प्रकट करके 'मिच्छामिदुक्कएं' अर्थात् मेरा पाप निष्फल हो, इस प्रकार की भावना करना तदुमय तप है।
(४) विवेक-अशुद्ध, अकल्पनीय तथा तीन प्रहर तक रहा हुअा अाहार श्रादि परिष्ठापन कर देना विवेक प्रायश्चित्त है।
(५) कायोत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना, और उसके द्वारा दुःस्वप्नजन्य पाप का निवारण करना कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग है।
(६) तप-पृथ्वीकाय, बनस्पतिकाय आदि लचिव के संघर्श से उत्पन हुए पाप को उपवास आदि द्वारा निवारण करना तप है।
(७) छेद-अपवाद विधि का सेवन करने और विशेष कारण उपस्थित होने पर जान बूझ कर दोष लगाने के कारण पाप का निराकरण करने के लिए, दोहापर्याय में किचित् न्यूनता करना छद प्रायश्चित्त है।
(८) मूल प्रायश्चित्त-जान-बूझ कर हिंसा करने पर, अलत्य भाषण फरने पर, चोरी कर ले, मैथून सेवन करने या धातुओं की वस्तुएँ अपने पास रखने पर, अथवा रानि भोजन करने पर पूर्व दीक्षा को संग करके नवीन दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है।
(६) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त -फरता के वश होकर अपने या दूसरे के शरीर पर लाटीका प्रहार करने, डूंना मारने प्रादि कुत्सित क्रियाओं के कारण सम्प्रदाय से पृथक करके ऐसा दुष्कर तप कराना जिससे वह बैठे से उठ भी न सके और फिर नवीन दीक्षा देना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है।
(१०) पाराञ्चितक प्रायक्षित-शास्त्र के चादेश की अवहा करना, श्रागम विरुद्ध भापण करना, साध्वी का व्रत भंग करना शादि पापकर्म करने पर कम से कम
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... मनोनिग्रह छः माल, एक वर्ष और उत्कृष्ट बारह वर्ष पर्यन्त सम्प्रदाय से पृथक करके पूर्वोक्त दुष्कर तप कराकर नवीन दीक्षा देना पाराञ्चितक प्रायश्चित्त है।
शारीरिक शक्ति की न्यूनता होने के कारण आधुनिक समय में अन्त के दो प्रायश्चित्त नहीं दिये जाते हैं। फिर भी इस ले यह स्पष्ट है कि जैन संघ में मुनियों की प्राचार परिपाटी को निर्मल बनाये रखने के लिए कितनी सावधानी रखने का श्रादेश है।
[३] बिनय तप-गुरु आदि ज्येष्ठ महापुरुषों का, वयवृद्धों का तथा गुण वृद्धों का यथोचित सत्कार-सन्मान करना चिनय तए कहलाता है । विनयतप सात प्रकार का है-[१ ज्ञान विनय । २) दर्शन विनय [३]चारित्र विनय [४ नमन विनय [५ वचन विनय [६] झाय विनय और | ७] लोक व्यवहार विनय ।
ज्ञान विनय-प्रति ज्ञानी, श्रुत जानी, अवधि जानी, मनःपर्याय जानी और केवल नानी का तथा ज्ञान के उपकरणों का विनय करना जान विनय है।
२1 दर्शनं विनय-सस्यग्दृष्टि पुरुष का यथायोग्य. विनय करना शुश्रषा दर्शन विलय है । यह पैंतालीस प्रकार की है। पैंतालीस श्रालातनाओं का संक्षिप्त स्वरूप आगे बतलाया जायेगा। .
.. [३.चारित्र विनय चारित्रनिष्ट महात्माओं का विनय करना, उनकी यथोचित सेवा-भक्ति करना चारित्र विनय है।
... . मन विनय-कर्कश, कठोर, छेदन-भेदन कारी परितापजनक, अप्रशस्त विचार का त्याग करके दयामय, वैराग्यपूर्ण प्रशस्त विचार करना मन विनय है। ::|५] वचन विनय-कठोर और दुःखप्रद वचन का प्रयोग न करके हित, मित, मधुर वचन बोलना वचन विनय है। :: [६] काय विनय-शरीर को अप्रशस्त क्रिया में प्रयुक्त न होने दे कर प्रशस्त क्रिया में प्रयुक्त करना काय विनय है। .
७] लोक व्यवहार विनय --गुरू . की प्राक्षा के प्राधीन रहना गुणाधिक स्वधर्मियों की प्राज्ञा मानना, स्वधर्मी का कार्य कर देना उपकारक का उपकार मानना, दसरे की चिन्ता दूर करने का यथोचित उपाय करना, देश-काल के अनुसार व्यव.. बार करना और विचक्षणता पूर्वक, सभी को प्रिय लगने वाली प्रवृत्ति करना यह सब लोक व्यवहार विनय है। . पैतालीस आसातना विनय इस प्रकार हैं:• . (१) अहन्त श्रासातना-अर्हन्त के स्मरण ले दुःख होता है, उपद्रव होता हैं अथवा शत्रु का नाश होता है, इस प्रकार कहना या विचार करना भईन्त श्रासातना है।
(२) धर्म की प्रासातना-जैन धर्म में स्नान का विधान नहीं है, अतएक वह बुरा है अथवा मोक्ष का कारण नहीं है, इस प्रकार कहना धर्म की प्रासातना है।
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चन्द्रहवाँ अध्याय
[३] आचार्य की श्रासातना-पंचाचार के प्रति पालक, दीक्षा-शिक्षादाता शाचार्य उम्र में कख हो इस कारण या अन्य किसी कारण से उनकी श्रासातना करना।
[४] उपाध्याय की श्रासातना-द्वादशोग के पाठी, मन-मतान्तर के शाता उपाध्याय की निन्दा करना, सम्मान न करना ।
[५] स्थविर की आस्वातना-साठ वर्ष की उम्र वाले वय स्थविर की, बील वर्ष की दीक्षा वाले दीक्षास्थविर की एवं श्रुत धर्म के विशिष्ट ज्ञाता श्रुत स्थविर का अवर्णवाद करना।
[६] कुल-त्रासातना-एक गुरु के बहुत से शिष्य परस्पर एक दूसरे का प्रासातना करें। .
[७] गण-भालातना एक ही सम्प्रदाय के स्वाधुओं द्वारा परस्पर में एक दूसरे का अवर्णवाद करना ।
[८] संघ-त्रासातना-साधु, लाध्वी, श्रावक और श्राविका के समूह को संघ कहते हैं । उसका अवर्णवाद करना।
[ ] क्रियानिष्ठ-श्रासातना-शास्त्रविहित शुद्ध क्रिया करने वाले चारित्रनिष्ठ सत्पुरुष का अवर्णवाद करना।
[१०] संयोगी-यासातना-जिनका आहार-विहार एक है वे साधु संयोग्रह कहलाते हैं। आपस में उनमें से एक दूसरे की भासातला करना।
[११.१५] मतिज्ञानी, श्रुत ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, मनःपर्यय ज्ञानी, तथा केवल ज्ञानी के सद्भूत गुणों को लिए कर अवगुणों का आरोप करना, उनकी निन्दा करना।
पूर्वोक्त पन्द्रह की श्रासातना का त्याग करना, उनकी भक्ति करना और इनके गुणों का कीर्तन करना, इस प्रकार पन्द्रह को तीन से गुणाकार करने पर दर्शन विनय के पैंतालीस भेद होते हैं।
(३) चारित्र विनय-चारिश के पांच भेद हैं-सामायिक, दोपस्थापना, परि'हारविशुद्धि, सुक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात । इन पांचों चारित्रों का तथा चारिक का पालन करने वालों का यथोचित्त विनय करना पांच प्रकार का चारित्र विनय है। उनका स्वरूप इस प्रकार है:
[१] सामायिक चारित्र विनय-सम अर्थात् राग-द्वेप से रहित, आत्मा की प्रतिक्षण अपूर्व निर्जरा होने से विशुद्धि दोना सामायिक चारित है । इस चारित्र से गफ पुरुष का विनय करना ।
[२] छेदोपस्थापना चारित्र विनय-पूर्व चारित्रपर्याय विच्छेद होने पर जो र प्रहण किये जाते हैं उन्हें छेदोपस्थाएना चारिज कहते हैं। हरू चारित्रवालें य करना।
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मनोनिग्रह १३] परिहारविशुद्धि चारित्र विनय-जिस चारित्र की परिहार तप-विशेष . ले कर्म-निर्जरा की जाती है वह परिहार विशुद्धि चारित्र है। यह चारिन तीर्थकर भगवान् के समीप या तीर्थकर भगवान् के लमीप रह कर जिसने यह चारित्र अंगीकार किया हो उसके समीप ग्रहण किया जाता है। नौ साधुओं में से चार तप करते है, उन्हें पारिवारिक कहते हैं। चार साधु उनकी सेवा करते हैं वे अनुपारिहारिक कहलाते हैं और एक साधु गुरु रूप में रहता है, जिसके समीप पारिहारिक और ननुपारिवारिक साधु पालोचना, प्रत्याख्यान आदि करते हैं।
पारिवारिक लाधु श्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपचाल मध्यम देला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन) उपवास करते हैं । शिशिर ऋतु में जघन्य वेला मध्यम तेला और उत्कृष्ट चौला (चार उपशास) करते हैं। चौमासे के काल में अल्प तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पंचौला! पांच ] उपवास करते हैं। शेष आनुपारिहारिक एवं गुरु पद स्थापित मुनि प्रायः नित्य आहार करते हैं। पर सदा प्रायविल ही करते है। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह माल पर्यन्त तपस्या करते हैं। छह मास के पश्चात् पारिवारिक मुनि 'अनुपारिवारिक-सेवा करने वाले हो जाते हैं और अनुयारिहारिक, पारिहारिक बन जाते हैं । यह क्रम भी छह मास तक चलता रहता है। इल प्रकार जब आठ मुनियों की तपस्या हो जाती है तब उनमें से एक गरु पर पर स्थापित किया जाता है और सात उसकी वैयाकृत्य (लेवा) करते हैं। पहले जो मनि गुरु पद पर स्थित था वह तपस्या करना प्रारंभ करता है। उसकी तपस्या भी पूर्ववत् छह मास तक चालू रहती है । इस प्रकार अठारह मास में परिहार विशदि तप का कल्प पूर्ण हो जाता है। .
पूर्ण हो जाने पर अगर वह सुनि चाहे तो फिर उस तपस्या को श्रारंभ कर सकते हैं, या जिनकल्प धारण करके अपने गच्छ में पुनः संसिमलित हो सकते हैं। इस प्रकार परिहार विशुद्धि चारित्र वालों का यथायोग्य विनय करना परिहार विशुद्धि चारित्र विनय कहलाता है।
१) सक्षम सम्पराय चारित्र विनय-सम्पराय का अर्थ है कपाय । जिस सारित में स्थल कपाय का अभाव हो जाता है और सिर्फ सूक्ष्म सम्पराय श्राव
लोका अंश मात्र ही शेष रहता है वह सूक्ष्म सम्पराय चारित्र कहलाता है इस क्षारिन से युक्त मुनिराज का विनय करना सूक्ष्म सम्पराय चारित्र का विनय
(५) यथाख्यात चारित्र मिनय-कपाय न रहने पर अतिचार रहित जो विशिय चारित्री हैं वह यथाख्यात चारित्र कहा गया है । इस चारित्र से युक्त महापुरुषों का विनय फरना यथाख्यात चारित्र बिनय है।
(३) वैयावृत्यतप-वैयावृत्य का अर्थ सेवा है। लेवनीय के भेद से इस तप के दल भेद है। यथा-(१) श्राचार्य अर्थात् संघ के प्रधान-शासक मुनि की सेवा करना (२) उपाध्याय की सेवा करना (३) शैन अर्थात् प्लानाभ्यास करने वाले
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पन्द्रहवां अध्याय
[ ५१३] मुनि की सेवा करना (४) ग्लान अर्थात् रुग्ण मुनि की सेवा करना (५) तपस्वी की लेवा करना (६) स्थविर की सेवा करना (७) स्वधों की सेवा करना (८) कुल [ गुरु भ्राता की सेवा करना (६) गण[सम्प्रदाय ] के साधुओं की सेवा करना (१०) संघ अर्थात् चतुर्विध तीर्थ की सेवा करना। .
(४) स्वाध्यायतप-मानसिक विकास के लिए और शान वृद्धि के लिए शास्त्रों का पठन-पाठन करना स्वाध्यायतप कहलाता है। स्वाध्याय पांच प्रकार का है:
[१] वाचना-शिष्य को सूत्र एवं अर्ध की वांचनी देना। . . . .
[२] पृच्छना-वाचना लेकर उसमें संशय होने. एर पुनः पूछना या प्रश्न करना पृच्छना है।
। ३] परिवर्तना-पढ़े हुए विषय में शंकायें देखने के लिए बार-बार फरना।
[४] अनुप्रेक्षा-सीखे हुए खून को याद रखने के लिए पुनः-पुनः चिन्तनमनन करना।
[५] धर्मकथा-चारों प्रज्ञार के स्वाध्याय में कुशल होकर धर्म का उपदेश देना।
(५) ध्यानतप-मानसिक चिन्ता का निरोध करके उसे एकान करना ध्यान तप है। इसके चार भेद हैं । उनका विवरण पहले किया जा चुका है। .
(६) व्युत्लर्गतप-फाय आदि सम्बन्धी ममता का त्याग व्युत्सर्ग तप है। इसके प्रधान दो भेद हैं:-[१] द्रव्य व्युत्सर्ग और [२] भाव व्युत्सर्ग । इसमें से द्रव्य व्युत्सर्ग के चार भेद हैं-[१) शरीर व्युत्लग [२) गण व्युत्लग [३] उपधि व्युत्सर्ग और [५] भक्त पान व्युत्सर्ग । .
[१] शरीर व्युत्सर्ग-शरीर की ममता का त्याग कर अंग विशेष की ओर लक्ष्य न दना।
[२] गण व्युत्तर्ग-विशेष ज्ञानी, जितेन्द्रिय, धीर, वीर शरीर सम्पत्ति वाला, क्षमावान्, शुद्ध श्रद्धा से युक्त और अवसर का छाता मुनि, गुरु की भाशा से संप्रदाय का त्याग करके अकेले विहार करे, वह गण व्युत्सर्ग है।
[३ Jउपधि व्युत्सर्ग-संयम के उपकरण कम रखना उपधि व्युत्लर्ग है।
[४] भक्त पान व्युत्सर्ग-नवकारसी, पोरंसी आदि तप करना और खानेपीने की वस्तुओं का यथा योग्य त्याग करना भक्त पान व्युत्सर्ग तप है । यह द्रव्य व्युत्सर्ग के चार भेद हैं।
___ भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं । यथा-[१] कपाय व्युत्सर्ग [२] संसार ब्युत्सर्ग और [३] कर्म व्युत्सर्ग। इनका स्वरूप इस प्रकार है:--
। (१) पाय व्युत्सर्ग--क्रोध, मान, माया और लोभ कपाय को न्युन से न्यनतर बनाना।
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. . ., मनोनिग्रह (२) संसार व्युत्सर्ग--संसार से यहां संसार के कारणों का ग्रहण करना चाहिए । तात्पर्य यह कि संसार के कारणों का त्याग करके मोक्ष के कारणों का अनुठान करना संसार व्युत्सर्ग है।
चार गति को संसार कहा गया है। अंतएव चारों गतियों के कारण ही संसार के कारण हैं। महा-आरंभ अर्थात् निरन्तर षटकाय के जीवों के घात रूप परिणाम से तथा तीव्र ममता भाव रूप महा परिग्रह से नरक गति की प्राप्ति होती है । और मदिरा-मांस का लेवन और पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा भी: नरक गति का कारण है । मायाचार, विश्वासघात, असत्यभाषण और झूठा तोलना-नापना, इन चार कारणों से तिर्यञ्च गति का बंध होता है। विनय शीलता, परिणामो की भद्रता, दयालुता एवं गुणानुराग रूप चार कारणों से मनुष्य गति की प्राप्ति होती है । सराग संयम, संय. मासंयम, काम निर्जरा और बाल तप से देव गति प्राप्त होती है। चारों गति के इन सोलह कारणों का त्याग करना एवं सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सभ्यश्चारित्र और तप का सेवन करना संसार व्युत्सर्ग तप कहलाता है।
(३) कर्म व्युत्सर्ग-आठ कर्मों के बंध के कारणों की निर्जरा करना कर्म व्युत्सर्ग तप है। कर्म बंध के कारणों का वर्णन द्वितीय अध्ययन में किया जा चुका है।
___ श्राभ्यन्तर तप के छह भेदों का यही स्वरूप है। शास्त्रकारों ने तप की जो महत्ता प्रदर्शित की है वह आत्म शुद्धि के लिए है । क्या वाह्य तप और क्या प्राभ्यन्तर तप, सभी श्रात्म शुद्धि के उद्देश्य से ही करने चाहिए । तपों का विशेष वर्णन शास्त्रों से समझ लेना चाहिए । विस्तारभय से यहां विस्तृत वर्णन नहीं किया जा लकता। मूलः-रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव, ....
.अकालिश्र पावइ से विणास। ... रागाउरे से जह वा पयंगे,
आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ १४ ॥ छाया:-रूपेषु यो गृहि मुपैति तीव्रां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् ।
रागातुरः स यथा वा पतङ्गः, श्रालोकलोलः समुपैति मृत्युम् ।। १८ ॥ शब्दार्थः-हे इन्द्रभूति ! जो प्राणी रूप में तीन गृद्धि को प्राप्त होता है वह असमय में ही विनाश को प्राप्त होता है । जैसे प्रकाश का लोलुप पतंग मृत्यु को प्राप्त होता है।
__भाष्यः- मनोनिग्रह के साधन भूत तप का वर्णन पहले किया गया है। किन्त तप की सार्थकता तभी हैं जब इन्द्रियों को जीत लिया जाय । जिस तप से इन्द्रिय जय नहीं होता वह मानसिक निनद का कारण नहीं होता। अतएव शास्त्रकार ने यहां इन्द्रिय लोलुपता के कारण होने वाले पाप का दिग्दर्शन कराते हुए इन्द्रिय विजय का उपदेश दिया है।
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पन्द्रहवां अध्याय
[ ५९५ ] श्रालोक का लोलुप पतंग, तीन राग में ऐसा डूब जाता है कि उसे अपने जीवन का भी विचार नहीं रहता। जैसे वह दीपक की लौ पर आकर गिरता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । इसी प्रकार जो जीव चतु-इन्द्रिय के वश में होकर रूप लोलुपता धारण करते हैं, उनकी भी ऐसी ही दुर्दशा होती है । सौन्दर्य में अत्यन्त भासक्ति वाला पुरुष असमय में ही मृत्यु का शिकार हो जाता है।
यद्यपि अनुक्रम का विचार किया जाय तो पहले स्पन्द्रिय है और व्यतिक्रम से पहले श्रोत्रेन्द्रिय है। तथापि यहां सर्व प्रथम चतु-इन्द्रिय की लोलुपता की गति चतलाई गई है। उसका कारण यह है कि चक्षुन्द्रिय में और इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक विष रहता है । चक्षु-इन्द्रिय ही प्रायः अन्य इन्द्रियों को उत्तेजित करती है। चतु-इन्द्रिय अधीन हो जाय तो शेष हन्द्रियों का अधीन करना सरल होता है। इसी लिए सर्वप्रथम यहां चतु को विषय का वर्णन किया गया है । मुमुक्षु पुरुषों को अपनी साधना को सफल करने के लिए रूप-विषयक श्रासक्ति का त्याग करना चाहिए। स्त्री श्रादि के रूप की और दृष्टि नहीं करनी चाहिए और कदाचित् अचानक चली जाय तो उले तत्काल हटा लेनी चाहिए । जैसे सूर्य की ओर देखकर तत्काल दृष्टि हटाली जाती है, उसी प्रकार रूप-सौन्दर्य की ओर से भी तत्काल दृष्टि फेर लेनी चाहिए। मूलः-सद्देसु जो गिद्धि मुवेइ तिव्वं,
अकालिनं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिये ब्व मुद्धे,
__सद्धे अतित्ते समुवेइ मच्चुं ॥ १५॥ छाया:-शव्देषु यो गृद्धि मुपैति तीनां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशमू ।
___ रागातुरो हरिणमन इव मुग्धः, शन्देऽतृप्तः समुपैति मृत्युम् ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-जैसे राग से आतुर, हिताहित का भान न रखने वाले, अर्थात् मूढ, और शब्द में अतृप्त हिरन मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो पुरुष शब्दों में तीन आसक्ति रखता है वह अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है।
भाष्यः-चनु-इन्द्रिय की लोलुपता ले होनेवाले पाप का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् यहां श्रोत्रन्द्रिय संबंधी पाप और अपाप का दिग्दर्शन कराया गया है।
व्याध के मनोहर गीत श्रवण में लोलुप होकर सर्प जैसे मृत्यु का अतिथि बनता है। इसी प्रकार जो जीव श्रुतेन्द्रिय में पासक होता है और उस प्रासासि के श्राधिक्य से अपने हित-अहित वो भी भूल जाता है उसे भी अकाल मृत्यु को प्राप्त होना पडता है। अतएव शब्द सम्बन्धी प्रासक्ति का त्याग करना चाहिए । मनोज्ञ शब्द सुनने में भातुरता और अमनोज्ञ शब्द सुनने में विकलता का त्याग करके समभाव पर्वत साधना करने से ही श्रात्म शुद्धि होती हैं।
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मनोनिग्रह मूल:-गंधेसु जो गिद्धि मुवेइ तिब्वं, .
अकालिअं पावइ से विणास। रागाउरे भोसहिगंधगिद्धे,
सप्पे बिलाश्रो विव निक्खमंते ।। १६ ॥ छाया:-गन्धेधु यो वृद्धिमुपैति तीवाम, कालिक प्राप्नोति स बिनाशम् ।
रागातुर औषधगधगृद्धः, सो विलादिव निष्क्रामन् ॥ १६ ॥ शब्दार्थ:-नाग दमनी औषधि की गंध मन्न होने से आतुर सर्प बिल से बाहर . निकलने पर नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार जो जीव गंध में तीव्र गृद्धता को प्राप्त होता है वह असमय में ही मृत्यु का पात्र बनता है।
भाष्यः-~श्रोत्रेन्द्रिय के अपाय का निरूपण करने के लिए यहां नाणेन्द्रिय के . अपाय का निरूपण किया गया है।
जैसे सांप घ्राणेन्द्रिय के अंधीन होकर नागदमनी औषध की गंध संधने के . लिए बिल से बाहर निकला और मारा जाता है, भ्रमर आदि गंध के लोलुप जीक कमल के फूल में कैद हो जाते और मृत्यु के मेहमान बनते हैं। इसी प्रकार जो अन्या जीव गंध में तहव श्रासक्ति वाले होते हैं उन्हें अस्सलय में ही मृत्यु का प्रालिंगन करना पड़ता है। इस प्रकार विचार कर नाणेन्द्रिय को वश में करना चाहिए और मंध में राग द्वेष का त्याग करके लमभाव धारण करना चाहिए। मूलः-रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं,
अकालिनं पावइ से विणास। रागाउरे वडिसविभिन्नकाये,
मच्छे. जहा प्रामिसभोगगिद्धे ॥ १७ ॥ छाया: रसेंधु यो गृद्धिमुपैति तीव्राम, कालिकं प्राप्नोति सविनाशन् । ..
रागात बंडिशविभिन्न कायः, मत्स्यो यथाऽऽम्पिभांगगृद्धः ॥ १७ ॥ शब्दार्थ:--जैसे मांस-सक्षण के स्वाद में लोलुप, राग से आतुर मत्स्य, कांटे में विंधकर नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार जो जीव रस में तीन आसहि रखता है वह अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है।
भाष्यः-इस गाथा का अर्थ पूर्ववत् ही समझना चाहिए । यहां जिह्वा की लोलुपता के लिए मच्छ का इष्टान्त दिया गया है । मच्छीमार मञ्छ को पकड़ने के लिए कांटे में शाटा या मांस का टुकड़ा लगा लेता है और कांटा पानी में डाल देता है। जिता लोलुप मच्छ श्वाटे या मांस के लोभ ले कांटे में फंस जाता है, उसका
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। पन्द्रहवां अध्याय
शरीर विष जाता है और वह मृत्यु को प्राप्त होता है। जिह्वा लोलुप अन्य जीवों की भी ऐसी ही दशा होती है । अतएक इल संबंधी लोलुपता का त्याग करना चाहिए । मूल:-फासस्स जो गिद्धि मुवेइ तिव्वं,
- अकालियं पावइ से विणास। रागाउरे सीयजलायसन्ने,
गाहग्गहीए महिसे व रगणे ॥१८॥ छाया:-स्पर्शपु यो गृद्धि मुपैति तीव्राम, अकालिक प्राप्नोति स विनाशम् ।
रागातुरः शीत जतावसलः, ग्राहग्रहीतो महिष इवारण्ये ॥ १८॥ शब्दार्थ:-जैसे अरण्य में, शीतजल के स्पर्श का लोभी-ठंडे जल में बैठा रहने बाला, रागातुर भैंसा, मगर, द्वारा पकड़ लिए जाने पर मारा जाता है, इसी प्रकार जो युरुष स्पर्श के विषय में तीन गृद्धि धारण करता है वह असमय में विनाश को प्राप्त होता है।
भाष्यः-स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत होकर भैंसा, नदी के गंभीर जल में बैठ कर आनन्द मानता है। मगर जब्द मगर भाकर उसे पकट लेता है। तो भैंसे को अपने पाण गवाने पड़ते हैं । इसी प्रकार जो पुरुष स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में अत्यन्त आसक्त होता है उसे भी समय में प्राणों से हाथ धोने पढ़ते हैं।
शास्त्रकार ने एक-एक इन्द्रिय की लोलुपता द्वारा होने वाले अपाय का निसपण एक-एक गाथा में किया है । इसका अभिप्राय यह है कि जब एक-एक इन्द्रिय के विषय में असंक्त प्राणी भी विनाश को प्राप्त होते हैं, तब पांचों इन्द्रियों के विषयों में निम्न श्रासक्ति रखने वाले मनुष्यों की कैसी दुर्दशा होगी ! यह स्वयं समझ लेना चाहिए।
पांचों इन्द्रिय के विषय में तिर्यों का उदाहरण दिया गया है । चेचारे तिर्यच विशिष्ट विवेक से विकल दें और शास्त्रीय उपदेश को श्रवण करने योग्य नहीं हैं। अतः उनकी यह दुर्दशा होती है, मगर जो मनुष्य विशिष्ट विवेक से विभूषित है और शास्त्रकार जिसे प्रशस्त पथ प्रदर्शित कर रहे हैं, वह भी अमर इन्द्रियों के अधीन होकर पशु-पक्षियों की भांति अपने सरण को भामंनित करे तो आश्चर्य की बात है।
श्रतः पांचों इन्द्रियों के विषयों संबंधी शासक्ति का त्याग कर मध्यस्थ भाव भूर्वक विचरना चाहिए।
निन्ध-प्रवचन-पन्द्रहवां अध्याय समाप्त
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* ॐ नमः सिद्धेश्य * नियन्थ-प्रवचन
॥ सोलहवां अध्याय ॥ -~* *LD*bs --
आवश्यक कृत्य
- श्री भगवान्-उवाचमूलः-समरेसु अंगारेसु, संधीसु य महापहे ।
एगो एगिथिए सद्धिं, णेव चिट्टे ण संलवे ॥१॥ छाया:-समरे पु अगारे पु, सन्धिपु च महापथे।
एक एकस्त्रिया साध, नैव तिष्ठेन्न सं लपेत् ॥१॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! लुहार की शाला में, मकान के खंडहरों में, दो मकानों के वीच में और महापथ में, अकेला पुरुष अकेली स्त्री के साथ न खड़ा रहे, न बातचीत करे।
भाष्यः-पन्द्रहवें अध्ययन में मनोनिग्रह का वर्णन किया गया। मनोनिग्रह के लिए अनेक बातों की आवश्यकता होती है, जिनका ध्यान रखने और पालन करने से मन पर काबू किया जा सकता है। अतएव यहां, इस अध्ययन में उन बातों का निरूपण किया जाता है।
संसार में सर्वाधिक प्रबल श्राव.र्षण पुरुष के लिए स्त्री है और स्त्री के लिए पुरुष है। जो महासत्व व्यक्ति इस अाकर्षण पर विजय पा लेते हैं उन्हें अन्य प्रलोभनों पर सहज ही विजय प्राप्त हो जाती है । शतपंच शास्त्रकार ने सर्व प्रथम इस श्राफर्पण से बचने का उपाय प्रदर्शित किया है। .
मुल में जिन स्थानों का कथन किया गया है, वे उपलक्षण मात्र हैं । लुहार की शाला, खंडहर, मकानों की संधि और महापथ में अकेले पुरुप को अकेली स्त्री के साथ न खड़ा होना चाहिए और न वार्तालाप करना चाहिए । इस कथन से उक्त स्थानों के अतिरिक्त अन्य समस्त स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात किसी भी स्थान पर अकेला पुरुष अकेली स्त्री के साथ न खड़ा रहे और न बातचीत करे। इस कथन से अदेली स्त्री का अकेले पुरुष के साथ खड़े होने या वार्तालाप करने का निषेध स्वतः सिद्ध हो जाता है।
अतएव फाम वासना से बचे रहने के लिए स्त्री-पुरुष की एकत्र स्थिति और वार्तालाप का त्याग आवश्यक हैं । जो महा-पुरुष काम वासना से मुक्त हो जाते हैं
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सोलहवां अध्याय उन्हें कल्याण के मार्ग में अग्रसर होने में सरलता होती है। कहा भी है।-, .
नहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिटुतो कया।
सव्वमेयंनिराफिच्चा, ते ठिया सुसमा हिए। अर्थात् जिन पुरुषों ने स्त्री संसर्ग और काम श्रृंगार का त्याग कर दिया है के छान्य समस्त उपसगों को जीतकर उत्तम समाधि में स्थित होते हैं। ..
एकान्त में ली और पुरुष के परस्पर वार्तालाप करने या खड़े रहने से अनेक प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होना संभव है। नीतिकार कहते हैं:--
घृत कुम्भसमा नारी, तप्ताङ्गारलमः पुमान् ।
तस्माद् घृतश्च वह्निञ्च, नैकन स्थापयेद् बुधः ॥ अर्थात् स्त्री धी के घड़े के समान है और पुरुष तपे हुए अंगार के समान है। . अतएव बुद्धिमान पुरुष वृत और अग्नि को एक स्थान पर न रक्खे। . .
कदाचित् कोई जितेन्द्रिय पुरुष या स्त्री विकार से परे होतो भी उन्हें एकान्तः में स्थित नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से संसार में अपकीर्ति होती है । लोग्र संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। अतएव विशेषतः त्यागी पुरुष को इस उपदेश कर सावधान होकर पालन करना चाहिए ।
जहां अनेक मार्ग भाकर मिलते हैं वह महारथ कहलाता है । गाथा के शेष पदों का अर्थ सुगम है। मूलः-साणं सूइनं गाविं, दित्तं गोणं हयं गये।
संडिब्भ कलहं जुद्धं, दूरश्रो परिवज्जए ॥२॥ छाया:-श्वानं सूतिका गां, हप्तं गोणं हयं गजम् ।
सडिस्भं कलहं युद्ध, दूरतः परिवर्जयेत् ॥ २॥ शब्दार्थ:--हे इन्द्रभूति ! श्वान, प्रसूता गाय, मतवाले बैल, घोड़ा और हाथी से तथा बालकों के क्रीड़ास्थल से और कलह एवं युद्ध से दूर ही रहना चाहिए।
भाष्यः-मुनि यद्यपि एकान्त स्थान में निवास करते हैं, तथापि श्राहार आदि के लिए उन्हें इधर-उधर मोहल्लों में आना ही पड़ता है । जय वहां उन्हें इन बातों का ध्यान रखना चाहिए । कुत्ते से दूर रहें, प्रसूता अर्थात तत्काल व्याई हुई गाय से दूर होकर निकले, मतवाले बैल से, घोड़े से और हाथी से बचकर चले। चालक रास्ते क्रीड़ा करते हैं। वे रेत में अपना क्रीड़ास्थल बनाते है । कोई २ मकान बनाने की फ्रीड़ा करते है, कोई अन्य प्रकार की उन बालकों के लिए वह घरधूला यदा प्रिय होता है । कोई उसे विगाड़ दे तो उन्हें अत्यन्त दुःख होता है। छातएव घच्चों के फ्रीड़ा स्थल से बचकर ही निकलना चाहिए ।
वाचनिफ झगड़ा कलह कहलाता है और शास्त्रों के प्रयोग के साथ होने वाला
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[ ६०० ]
- आवश्यक कृत्य झगड़ा युद्ध कहलाता है । मार्ग में अगर कलह या युद्ध हो रहा हो तो उससे दूर ही रहना चाहिए । कलह या युद्ध को कौतूहलवश देखने से अन्तःकरण में राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और कदाचित् न्यायालय में साक्षी के रूप में उपस्थित होना पढ़ता है । अतएव इन लब का त्याग कर के अपने प्रयोजन के लिए हो जाना चाहिए। मूल: एगया अचेलए होइ, सचेले प्रावि एगया।
एग्रं धम्माहियं णचा, पाणी पो परिदेवए ॥३॥ चाया:-एकदाऽचलको भवति, सचेलो वाऽप्येकदा।
एतं धर्म हितं झाल्वा, ज्ञानी नो परिदेवेत ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:--मुनि कदाचित् वनरहित हो अथवा कभी वस्त्रसहित हो, उस समय समभाव रखना चाहिए। इस धर्म को हितकारक समझकर ज्ञानी खेद न करे।
भाष्य:--यहां मुनि को, जिस किसी भी अवस्था में उसे रहना पड़े समझाकघूर्वक ही रहना चाहिए, यह विधान किया गया है।
.. चेल का अर्थ है-वस्त्र । अचेलक अर्थात् वस्त्ररहित और सचेलक अर्थात् बासहित । कभी मुनि को वस्त्रहीन रहना पड़े और कभी वस्त्रयुक्त रहना पड़े तो दोनों शावस्थाओं में उसे लास्यभाव धारण करके खेद नहीं करना चाहिए । इस कथन से अन्य अवस्थाओं में भी समभाव रखने का विधान लमझना चाहिए।
जीवन के दिन सदा समान नहीं बीतते । कभी अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न होती है तो कभी प्रतिकूल । कभी सुख की सामग्री का संयोग होता है, कभी दुःख की सामग्री प्राप्त होती है । कालिदास ने कहा है
- . नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा, चक्रनेमि क्रमेण । अर्थात् अवस्थाएँ पहिए की नेमि के समान ऊँची नीची होती रहती हैं।
इन विभिन्न परिस्थितियों में अगर विषमभाव का लेवन किया जाय तो श्रात्मा में मलीनता बढ़ती है। जो पुरुष सुनमें फूला नहीं समाता और दुःख में विकल हो जाता है वह राग-द्वेष के अधीन होकर सुख का अंतुभव नहीं कर सकता । वास्तविक मुख लमभावी को प्राप्त होता है। सम्पत्ति-विपत्ति में, संयोग-वियोग में और सुख-दुःख में जो पुरुष समान रहता है, उसे जगत् की कोई भी शक्ति दुःखी नहीं बना सकती। इस प्रकार समभाव ही सुस्त्र की कुंजी है।
समभाव में ही सच्चा धर्म है। जहां विषमभाव होता है, राग-द्वेष की धमाचौकड़ी मची रहती है वहां धर्म की स्थिति नहीं होती। ऐसा जान कर सम्यग्ज्ञानी पुरुष किसी भी अवस्था में खिन्न नहीं होते,और कर्मोदय के कारण जिस अवस्था में श्राते हैं उसी अवस्था में सन्तोष मान लेते हैं।
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लोलहवां अध्याय
- [ ६०१ } मूल:-अकोसेजा परे भिक्खु, न तेर्सि पडिसंजले ।
सरिसो होइ बालाएं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥४॥ रहायाः-याकोशेत्परः भिक्षु, न तस्मै प्रतिसंज्वलेत्।।
___सहशो भवति बालानां, तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत् ॥ ४॥ ... शब्दार्थः-दूसरा कोई पुरुष भिक्षु पर आक्रोश करे तो उस आक्रोश करने वाले पर भिक्षु क्रोध न करे । क्रोध करने पर वह स्वयं बाल-अज्ञानी के समान हो जाता है, अतएक भिक्षु क्रोध न करे।
भाष्यः--नाना देशों में विहार करने वाले साधु के जीवन में ऐसे भी प्रसंग उपस्थित होते हैं जब कि दूसरे लोग साधु पर क्रोध करते हैं, उस पर आक्रोश करते हैं, उसका अपमान करते हैं। ऐसा करने के अनेक कारण हो सकते हैं। धार्मिक द्वेष, स्वजन का मोह या इसी प्रकार के अन्य निमित्त मिलने पर अथवा निष्कारण ही कोई पुरुष साधु पर नाराज़ हो तो साधु को क्या करना चाहिए ? इसका समाधान यहां किया गया है।
शास्त्रकार ने कहा है--ऐसे अवसर पर साधु को उस क्रोध करने वाले पर क्रोध नहीं करना चाहिए। अगर साधु क्रोध करने वाले पर स्वयं क्रोध करने लगे तो अज्ञानी और ज्ञानी पुरुष में क्या अन्तर रह जायगा ? अन्नानी पुरुष अपने अनिष्ट के वास्तविक कारण को और क्रोध के फल को न जान कर क्रोध करता है और क्रोध करके श्राप ही अपना अनिष्ट करता है। इसी कारण क्रोध को निन्दनीय कहा गया है। अगर क्रोध का अवसर उपस्थित होने पर साधु भी क्रुद्ध हो जाय तो दोनों ही समान हो जाएंगे।
लोक में एक नीति प्रचलित है-'शठे शाठ्यं समाचरेत्' अर्थात् शठ के साथ शठता का ही व्यवहार करना चाहिए । इस नीति का धर्म शास्त्र विरोध करता है। जो लोग शठ के सामने स्वयं शठ बन जाने का समर्थन करते हैं, वे संसार को शठता से मुक्त नहीं कर सकते वरन् शठता की वृद्धि में सहायक हो सकते हैं। शठता अगर वुराई है तो उसका सामना करने के लिए बुराई को अंगीकार नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से बुराई मिटती नहीं, बढ़ती है । इसके अतिरिक्त शठता अगर दंडनीय है तो उसे दंडित करने के लिए धारण की गई शठता भी क्यों न दंडनीय समझी जाय ? और इस स्थिति में सिवा अनवस्था के और क्या होगा? ।
जो व्यक्ति जिस दोष से रहित है, उसे ही उस दोपवान् व्यक्ति को दंड देने का अधिकार उचित अधिकार माना जाता है । शठ को दंड देने का अधिकार किसे हो सकता है ? जो शठता से परे हो । जो स्वयं शठ बन जाता है । उसे दूसरे शठ फो दंड देने का अधिकार नहीं रह जाता, वरन् वह तो खयमेव दंड का पात्र बन जाता
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[ ६०२ ]
श्रावश्यक कृत्य
यही बात क्रोध के विषय में समझनी चाहिए । अल्प पुरुष कोध करता है । उसे क्रोधाविष्ट देख कर अगर ज्ञानी क्रोध करने लगे तो अज्ञानी और ज्ञानी में क्या अन्तर रह जायगा ? उस समय दोनों एक ही कोटि में सम्मिलित हो जाएंगे । इसी - लिए शास्त्रकार ने कहा है कि श्राक्रोश करने वाले पर क्रोध करने वाला भिक्षु बाल जीव के सदृश ही बन जाता है । अतएव ज्ञानी पुरुष क्रोध न करे । किन्तु क्रोध के कारण उपस्थित होने पर क्रोध से होने वाली हानियों का विचार करके शान्तिधारण करे ।
मूलः - समणं संजयं दंतं, हणेजा कोवि कत्थइ ।
नत्थि जीवस्स नासो ति, एवं पेहिज्ज संजए ॥ ५ ॥
छायाः - श्रमणं संयतं दान्तं हन्यात् कोऽपि कुत्रचित् ।
नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः ॥ ५ ॥
शब्दार्थ:- कोई पुरुष संयमनिष्ठ, इन्द्रिय विजेता और तपस्वी को ताड़ना करे तो संयमी पुरुष ऐसा विचार करे कि - 'जीव का कदापि नाश नहीं हो सकता ।'
भाष्यः-क्रोध का कारण उपस्थित होने पर ज्ञांनी पुरुष को किस प्रकार उसे शान्त करना चाहिए, यहां यह बतलाया गया है ।
अगर कोई अज्ञानी पुरुष षट्काय के जीवों की रक्षा करने वाले संयमी, इन्द्रियों को वशवर्ती चना लेने वाले दान्त और नाना प्रकार की तपस्या करने वाले श्रमण को ताड़ना करे, तो उस समय साधु को विचार करना चाहिए कि - यह श्रज्ञानी जीव, क्रोध रूपी पिशाच के वश होकर जो ताड़ना तर्जना कर रहा है सो केवल शरीर को ही कर रहा है । शरीर पौगलिक है, मैं सच्चिदानन्दमय चेतन हूँ । यह चेतन को कुछ भी क्षति नहीं पहुंचा रहा है और न पहुंचा ही सकता है । अगर यह बहुत करेगा श्रात्मा को शरीर से विलग कर देगा और इससे मेरी क्या हानि हो सकती है ? अन्ततः एक दिन तो दोनों का छूटना ही है । श्रायुकर्म की समाप्ति होने पर आत्मा शरीर में नहीं रह सकता सो अगर यह पुरुष मुझे शरीर से विलग भी करता है तो नवीन या अनहोनी बात क्या है ?
कोई कितना ही क्यों न करे, श्रात्मा का नाश नहीं होलकता । श्रात्मा श्रजर श्रमर-श्रविनाशी तत्व है । अनादि-अनन्त से समन्वित आत्मा को न कोई मारसकता है, न वह मर सकता है । जब श्रात्मा मर नहीं सकता और शरीर को क्षति से मेरी कुछ भी क्षति गहीं होती तो मैं क्रोध क्यों करूं ।
शरीर को क्षति पहुंचाने वाले पर क्रोध करके मैं अपने आत्मा को क्षति पहुंचाऊंगा । इस प्रकार जो अनिष्ट दूसरे ने नहीं किया वह मैं अपने आप कर बैठूंगा में अपने अधिक अनिष्ट का कारण बनूंगा । शरीर को क्षति पहुंचने पर भी मुझे किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंच सकती, क्योंकि मैं शरीर-रूप नहीं हूं । शरीर भिन्न है,
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• सोलहवां अध्याय मैं भिन्न हैं। शारीरिक क्षति को क्षमा भावना के साथ सहन करने से अधिक निर्जरा होती है और उससे श्रात्मा कर्मों के भार से हल्का बनता है । इस प्रकार पारमार्थिक दृष्टि से देखने पर शरीर को क्षति पहुंचाने वाला पुरुष उपकारक है, अपकारक नहीं।
इत्यादि विचार करके संयमी पुरुष अपने श्रात्मा को समभाव के अमृत से सिंचन करे। मल: बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे ।
पंडिाणं सकामं तु, उक्कोसेण सइं भवे ॥६॥ छाया-बालानामकामं तु, मरणमसकृद् भवेत् ।
पण्डितानां सकामं तु, उत्कर्पण सकृद् भवेत् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:--अज्ञानी पुरुषों का अकाम मरण बार-बार होता है और ज्ञानी पुरुषा का सकाम मरण उत्कृष्ट एक बार होता है।
भाष्यः-शारीरिक यातना के समय, मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर भिनु को क्या विचारना चाहिए, यह बात यहां बताई गई है।
जिन्हें सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, जो विषय भोग में गृद्ध हैं, जिन्हें प्रात्मा अनात्मा का विवेक नहीं है, पुण्य, पाप और उनके फलस्वरूप होने वाले परलोक पर विश्वास नहीं है, जो आत्मा को इसी शरीर के साथ नष्ट हुआ मानते हैं, ऐसे पुरुष घाल जीव कहलाते हैं। जिन्हें सम्यग्ज्ञान प्राप्त है, जो विषयभोग से विरक्त हैं, जिन्हें
आत्मा-अनात्मा का विवेक है, जो आत्मा को अजर-अमर अनुभव करते हैं, संयमपालन में सदा रत रहते हैं वे ज्ञानी पुरुष कहलाते हैं।
___अज्ञानी पुरुष और जानी पुरुष की मृत्यु में भी उतना ही भेद होता है. जितना उनके जीवन में भेद होता है । जानी जीवन की कला को जानते हैं और मृत्युकला में भी निष्णात होते हैं । अजानी न कलापूर्ण जीवन-यापन करते हैं, न मृत्युकला ही को वे जानते हैं। अतएव अनानियों का जीवन मृत्यु का कारण बनता है और उनकी मृत्यु नवीन जन्म का कारण होती है । इस प्रकार उनके जन्म-मरण का चक्कर अनन्त काल तक चलता रहता है । नानी पुरुष जीवन को मृत्यु का नाशक वना लेते हैं और मृत्यु को नवीन जग्म का नाशक बना लेते हैं । अतएव उनके जन्म-मरण की परम्परा विच्छिन्न हो जाती है और वे शाश्वत सिद्धि का लाभ कर लेते हैं।
जो अजानी अपने जीवन में हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह शादि पापों में फँसा रहता है, जिसे धर्म-अधर्म का कृत्य-अकृत्य फा, हित-अहित का किंचित् भी विवेक नहीं रहता वह मृत्यु का अवसर थाने पर अत्यन्त दुखी होता है। वह सोचने लगता है-'हाय ! में अत्यन्त कष्ट पूर्वक उपार्जन की हुई सुखसामग्री से विलग हो कर जा रहा हूं । मेरे प्यारे कुटुम्बी जन मुझसे अलग हो रहे है। अव भागे न जाने क्या होगा? हाय ! मेरा सुनहरा संसार मिट्टी में मिल रहा है।
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श्रावश्यक कृत्य इस प्रकार दुःख, खेद, संताप और विकलता से ग्रस्त होकर जानी मरण-शरण होता है । इस प्रकार की मृत्यु अकाम मृत्यु कहलाती है और इसी को काल मृत्यु भी कहते हैं।
अकाम-मरण अनन्त भव परस्परा का कारण है । जब तक अकाममरण की परम्परा चालू है तब तक जन्म-मरण का प्रवाह समाप्त नहीं हो सकता। इसी अभिप्राय से शास्त्रज्ञार ने बाल-जीवों का अकाम मरण पुनः-पुनः बतलाया है।
ज्ञानी जन श्रात्मतत्व के वेत्ता होते हैं। वे यह भलीभांति जानते हैं कि मृत्यु कोई अनोखी वस्तु नहीं हैं। वह जीव की एक साधारण किया है। जैसे पुराना वस्त्र उतार कर फेंक दिया जाता है और नवीन वस्त्र धारण किया जाता है, यह दुःख या शोक की बात नहीं है । इसी प्रकार पुराने जरा-जीर्ण शरीर को त्याग देने में शोक या परिताप की क्या बात है ?
इस प्रकार विचार करके ज्ञानी जन मृत्यु की भयंकरता को जीत लेते हैं। उन्हें मृत्यु का अक्सर उपस्थित होने पर किंचित् मात्र भी भय, दुःख या संताप नहीं होता । जैसे किसी शूरवीर राजा पर जब कोई दूसरा राजा चढ़ाई करता है तो वह बढ़ाई का समाचार सुनते ही वीर रस में डूब जाता है। उसका अंग-प्रत्यंग वीर रस के प्राधिस्य से फड़कने लगता है। वह तत्काल अपनी सेना सजाकर राजलुख से विमुख होकर, शीत, ताप, भूख, प्यास आदि के कष्टों की चिन्ता त्याग कर, अस्त्र शस्त्र के प्रहार की परवाह न करता हुआ शत्रु को परास्त करने में लग जाता है और शत्रु-सेना को भयभीत एवं कम्पित करता हुआ विजय प्राह करके अन्त में निष्कंटक राज्य का भोग करता है । उसी प्रकार ज्ञानी जन काल रूप शत्रु का आगमन जानकर तत्काल सावधान हो जाते हैं। वे शारीरिक कष्टों की चिन्ता भूल कर, नुधा-तृषा
आदि परीपदों की परवाह न करते हुए, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की चतुरंगांनी सेना सजाकर, सकाल मरण प समर में जूझ पड़ते हैं और काल-शत्रु को पराजित करके निष्कंटक मुक्ति रूपी राज्य का परमोत्तम सुख भोगते हैं।
__मृत्यु के विषय में ज्ञानीजनों की विचारणा क्या है, यह समझ लेना चाहिए। लानी जन मृत्यु को भी महोत्सव रूप में परिणत कर लेते हैं। कहा भी है
कृमिजालशता कीर्ण, जर्जरे देहपारे। '
भज्यमाने न भेत्तव्यं, यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः ।। अर्थात हे प्रात्मन् ! तु ज्ञान रूपी दिव्य शरीर को धारण करने वाला है तो फिर सैकड़ों कीड़ों से भरे हुए, जर्जर, देह रूपी पीजरे के भंग होने पर क्यों भय करना चाहिए?
सुदत्तं प्राप्यते यस्मात्, दृश्यते, पूर्वसत्तमैः।
भुज्यते स्वर्भवं सौख्य, मृत्युभीतिः कुतः सताम् ॥ अर्थात्-जीवन-पर्यन्त दिये हुए दान आदि के फल स्वरूप स्वर्ग के नुम्न
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intelABANARULSICALCDaanedantermediateatin
सोलहवा अध्याय जिस के द्वारा प्राप्त होते हैं, उस मृत्यु से लत्पुरुषों को भय क्यों होना चाहिए ?
शागआंद दुःखसन्तप्तः प्रक्षिप्तो देहपारे । - जात्या विमुच्यतेऽन्येन सृत्यु भूमिपति बिना ॥ अर्थात:- गर्भ से लेकर अब तक कर्म रूपी शत्रु ने शात्मा को शरीर रूपी कारागार में कैद कर रखा था। मृत्यु रूए राजा के सिवाय भात्मा को कौन उस्त फैखाले ले छुड़ा सकता है ? .
जीर्ण देहादिक सर्व, नूतन ज्यामते यतः ।
ल मृत्युः किं न मोदाय,सतां सातोत्थितियथा ॥ . अर्थात् जिसकी कृपा ले जीर्ण-शीर्ण शरीर और इन्द्रियां नष्ट होकर नवीन्द्र देह और इन्द्रियों की प्राप्ति होती है, वह सुखप्रद मृत्यु सत्पुरुषों के आनन्द का कारण क्यों न हो।
इस प्रकार परमार्थ-दृष्टि से विचार करके ज्ञानी पुरुष मृत्यु श्राने पर रोतेचिल्लाते नहीं है, किन्तु उसका मित्र की भांति स्वागत करते हैं । यही कारण है कि मृत्यु उनके लिए महोत्सब रूप है।
किसान बीज बोता है और तत्पश्चात् अत्यन्त परिश्रम के साथ उसकी रक्षा करता है । धान्य जब सफल होकर, पककर स्मुखने लगता है तब उसे दुःख नहीं होता । वह यह नहीं सोचता कि-'हाय ! मेरा हरा-भरा खेत सूख रहा है ।' प्रत्युत अपने श्रम को सार्थक होते देखकर उसकी प्रसन्नता का पार नहीं रहता। वह समझता है कि गर्मी, सर्दी और वर्ग का कए सहन करने का जो उद्देश्य था वह अब पुरा होने जा रहा है।
इसी प्रकार हानी पुरुष जीवन-पर्यन्त जो दान, ध्यान आदि शुभ अनुष्ठान करता है, और संयम की रक्षा करने में नाना प्रकार के परीषद एवं उपसर्ग सहन करता है, उसका फल मृत्यु के समय ही उसे प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में वह दुखी न होकर प्रसाल ही होता है। शास्त्र में कहा है
मरणं पि सपुरणारा, जदा मेयमगुस्सुयं ।
विप्प सरणामणाधायं, संजयाण सीमओ ।। अर्थात्-जिन पुण्यवान और संयमी पुरुषों ने अपना जीवन छानी जनों द्वारा • प्ररूपित धर्म के अनुसार व्यतीत किया है, उनका मरण प्रसन्नतापूर्ण और सर प्रकार
के श्राघात से रहित होता है। उन्हें इस बात का विश्वास है कि जीवन में भाररित .. शर्मकार्य का फल उन्हें अवश्य ही प्राप्त होगा।
तोर्स सोया सपुजाणं, संजयाण घुसीमनो। न संतसंति मरणते, सीलवंता यहुस्सुया ॥ तुलिया विसेसमादाय, दया-धम्मस्स नतिए । विप्पसीपज मेहावी, तहाभूएण: अपपणा ॥
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[६०६ ।
श्रावश्यक कृत्या तो काले अभिप्पेए, सडढी तालिममंतिए । विसाएज्ज लोमहरिसं, भेयं देहस्ल कंखए । अह काललिम संपत्ते, प्राधायस्ल ससुस्सयं । सकामसरणं. मरह, तिराहमन्नयर मुणी ॥
उत्तराध्ययन ५, २६-३२ अर्थात्-शीलवान् एवं बहुश्रुत पुरुष मरण-समय उपस्थित होने पर किसी प्रकार के त्रास का अनुभव न करते हुए, धैर्य के साथ, प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु को अंगीकार करते हैं, अतएव उनका मरण सकाममरण कहलाता है।
जीवन भर दयाधर्म का पालन करने वाले मेधावी पुरुष, लमय श्राने पर श्रद्धा. पूर्वक गुरुके सामने, विषाद का परित्याग करके, देह के भंग होने की प्रतीक्षा करता हुश्रा तैयार रहता है और तीन प्रकार के काममरण में से एक प्रकार के सकाम भरण पूर्वक शरीर को त्याग देते हैं।
सकाम मरण के तीन प्रकार यह हैं-(१) भक्त प्रत्याख्यान-श्राविन भोजन का त्याग करना।
(२) इत्वरिक मरण-आहार के त्याग के साथ-साथ चलने-फिरने के क्षेत्र की मर्यादा करना. - (३) पादोपगमन-शरीर की समस्त चेष्टाओं का त्याग करके निश्चल होजाना।
सकाम मरण के गुणनिष्पन्न पांच नाम हैं--(१) सकाममरण (२) समाधिअवण (३) अनशन (४) संथारा और (५) संलेखना।
' (१) सकाममरण-मुमुक्षु पुरुष सदा के लिए मृत्यु से मुक्त होने की कामना करते हैं। यह कामना जिलसे पूर्ण होती है उसे सकाम मरण कहा गया है।
(२) समाधि मरण - लव प्रकार की प्राधि, व्याधि और उपाधि से चित्त हटाकर पूर्ण रूप से समाधि में स्थापित किया जाता है। अतएव उसे समाधिमरण कहते हैं।
(३) अनशन-चारों प्रकार के आहार का त्याग इस मृत्यु के समय किया जाता है अतएव उसे अनशन भी कहते हैं।
(४) संथार!~-अल्त समय बिछौने में शयन करके सजाय के कारण संथारण
(५) संलेखना-माया, मिथ्यात्व और निदान रूप शल्यों की श्रालोचना, निन्दा एवं गर्दा उस समय की जाती है, अतएव उसे संलेखना भी कहते हैं।
ऊपर सकाममरण का जो विवेचन किया गया है, उससे यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिए कि सानी पुरुय मृत्यु की कामना करते हैं, या मृत्यु का श्रावाहन करते हैं या भविम्य में भानेवाली मृत्यु को शीघ्र बुलाने का कोई प्रयत्न करते हैं।
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सोलहवाँ अध्याय
[- ६०७
ज्ञानी पुरुष ऐसा नहीं करते । वे जिस प्रकार जीवन के लोभ से जीवित रहने की कामना से मुक्त होते हैं, उसी प्रकार परलोक के परमोत्तम सुख की आकांक्षा से या जीवन से तंग आकर मृत्यु की कामना भी नहीं करते । उनका समभाव इतना जीवित और विकसित होता है कि उन्हें दोनों अवस्थाओं में किसी प्रकार की विषमता ही अनुभूत नहीं होती । मृत्यु आने पर वे दुःखी नहीं होते, यही काममरण कर श्राशय है ।
इस प्रकार जीवन और मृत्यु के रहस्य को वास्तविक रूप से जानने वाले पंडित पुरुष मृत्यु से घबराते नहीं हैं । वे मृत्यु को इतना उत्तम रूप देते हैं कि उन्हें फिर कभी मृत्यु के पंजे में नहीं फंसना पड़ता । श्रतएव प्रत्येक भव्य पुरुष को मृत्यु • काल में समाधि रखना चाहिए और तनिक भी व्याकुल नहीं होना चाहिए । मूल :- सत्थग्ग्रहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलपवेसोय । प्रणायारभंडसेवी, जम्मणमरणाणि बंधंति ॥ ७ ॥
छाया:-- शस्त्रग्रहणं विपभक्षणञ्च ज्वलनञ्च जलप्रवेशश्च । अनाचारभाण्डसेवी, जन्ममरणोणि बध्येते ॥ ७ ॥
शब्दार्थः – जो अज्ञानी आत्मघात के लिए शस्त्र का प्रयोग करते हैं, विषभक्षण 'करते हैं, अग्नि में प्रवेश करते हैं, जल में प्रवेश करते हैं और न सेवन करने योग्य सामग्री 'का सेवन करते हैं, वे अनेक वार जन्म-मरण करने योग्य कर्म बांधते हैं ।
भाष्यः—इससे पूर्व गाथा में सकाम सरण का जो स्वरूप बताया गया है,. उससे कोई आत्मघात करने का अभिप्राय न समझे, इस बात के स्पष्टीकरण के लिए शास्त्रकार स्वयं आत्मघात जन्य अनर्थ का वर्णन करते हैं ।
प्राचीन काल में देहपास करना धर्म समझा जाता था । अनेक अज्ञानी पुरुष 'स्वेच्छा से, परलोक के सुखों का भोग करने के लिए अपने स्वस्थ और सशक्त शरीर का त्याग कर देते थे । इस क्रिया को वे समाधि कहते थे ।
समाधि लेने की प्रज्ञानपूर्ण क्रिया के उद्देश्य का विचार किया जाय तो पता 'चलेगा कि उसके मूल में लोभ कषाय या द्वेष कषाय है । या तो जीवन के प्रति घृणा उत्पन्न होने से, जो कि द्वेष का ही एक रूप है, श्रात्मघात किया जाता है या परलोक के स्वर्गीय सुख शीघ्र पा लेने की प्रबल श्रभिलाषा से । इन में से या हसीस मिलता -जुलता कोई अन्य कारण हो तोभी. यह स्पष्ट है कि आत्मघात में कपाय की भावना विद्यमान है। जहां कपाय हैं वहां धर्म नहीं । श्रतएव श्रात्मघात की क्रिया अधर्म का है । धार्मिक दृष्टि के अतिरिक्त, किसी लौकिक कारण से किया जाने वाला 'श्रात्मघात तो सर्वसम्मत अधर्म हैं ही।
'कारण
इसी अर्थ को शास्त्रकीर ने स्पष्ट किया है । धर्म-लाभ के लिए या क्रोध आदि के ती आवेश में आकर जो लोग अपघात करने के लिए शस्त्र का प्रयोग करते हैं,
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। ६६ ।
श्रावश्यक कृत्या तो काले अभिप्पेए; सबढी तालिसमंतिए । विस्णएज्ज लोमहरिसं, भेयं देहस्ल कंखए । अह कालभिन संपत्ते, प्राधायस्स समुस्सयं। सकाममरणं. मरह, तिगृहमन्नयर मुणी ॥
उत्तराध्ययन ५, २६-३२ अर्थात्-शीलवान् एवं बहुश्रुत पुरुष मरण-समय उपस्थित होने पर किसी प्रकार के त्रास का अनुभव न करते हुए, धैर्य के साथ, प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु को अंगीकार करते हैं, अतएव उनका मरण सकाममरण कहलाता है।
जीवन भर दयाधर्म का पालन करने वाले मेधावी पुरुष, समय आने पर श्रद्धा पूर्वक गुरुके सामने, विषाद का परित्याग करके, देह के भंग होने की प्रतीक्षा करता हुश्रा तैयार रहता है और तीन प्रकार के सकाममरण में से एक प्रकार के सकाम मरण पूर्वक शरीर को त्याग देते हैं।
सकाम मरण के तीन प्रकार यह हैं-(१) भक्त प्रत्याख्यान-श्राविन भोजन का त्याग करना।
२) इत्वस्कि मरण-आहार के त्याग के साथ-साथ चलने-फिरने के क्षेत्र की मर्यादा करना.!
(३) पादोपगमन-शरीर की समस्त चेष्टानों का त्याग करके निश्चल हो जाना।
सकाम मरण के गुणनिष्पन्न पांच नाम हैं-(१) सकाममरण (२) समाधिअनरण (३) अनशन (४) संथारा और (५) संलेखना। . .. (१) सकाममरण-मुमुच पुरुष सदा के लिए मृत्यु से मुक्त होने की कामना करते हैं। यह कामना जिससे पूर्ण होती है उसे सकाम मरण कहा गया है।
(२) समाधि मरण-सव प्रकार की प्राधि, व्याधि और उपाधि से चित्त हटाकर पूर्ण रूप से समाधि में स्थापित किया जाता है। अतएव उसे समाधिमरण कहते हैं।
(३) अनशन-चारों प्रकार के आहार का त्याग इस मृत्यु के समय किया जाता है अतएव उसे शनशन भी कहते हैं।
(४) संथारा-अल्त समय विछौने में शयन करके सजाय के कारण संथारा. कहते हैं।
(५) संलेखना-माया, मिथ्यात्व और निदान रूप शल्यों की पालोचना, निन्दा एवं गहीं उस समय की जाती है, अतएव उसे संलेखना भी कहते हैं।
ऊपर सकाममरण का जो विवेचन किया गया है, उससे यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिए कि ज्ञानी पुरुय मृत्यु की कामना करते हैं, या मृत्यु का श्रावाहन्न करते हैं या भविम्य में भानेवाली मृत्यु को शीघ्र बुलाने का कोई प्रयत्न करते हैं।
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सोलहवा अध्याय
[६७ । क्षानी पुरुष ऐसा नहीं करते । वे जिस प्रकार जीवन के लोभ से जीवित रहने की कामना से मुक्त होते हैं, उसी प्रकार परलोक के परमोत्तम सुख की आकांक्षा से या - जीवन से तंग आकर मृत्यु की कामना भी नहीं करते । उनका समभाव इतना जीवित और विकसित होता है कि उन्हें दोनों अवस्थाओं में किसी प्रकार की विषमता ही अनुभूत नहीं होती । मृत्यु आने पर वे दुःखी नहीं होते, यही सकाममरण का आशय है।
इस प्रकार जीवन और मृत्यु के रहस्य को वास्तविक रूप से जानने वाले पंडित पुरुष मृत्यु से घबराते नहीं हैं। वे मृत्यु को इतना उत्तम रूप देते हैं कि उन्हें फिर कभी मृत्यु के पंजे में नहीं फंसना पड़ता। अतएव प्रत्येक भव्य पुरुष को मृत्यु: काल में समाधि रखना चाहिए और तनिक भी व्याकुल नहीं होना चाहिए। . मूलः-सत्थग्गहणं विसभक्खणं च,जलणं च जलपवेसोया
प्रणायारभंडसेवी, जम्मणमरणाणि बंधति ॥७॥ छाया:-शस्त्रग्रहणं विपभक्षणञ्च, ज्वलनञ्च जलप्रवेशश्च ।
अनाचारभाण्डसेवी, जन्ममरणोणि बध्येते ॥ ७ ॥ शब्दार्थ:-जो अज्ञानी आत्मघात के लिए शस्त्र का प्रयोग करते हैं, विषमक्षण करते हैं, अग्नि में प्रवेश करते हैं, जल में प्रवेश करते हैं और न सेवन करने योग्य सामग्री का सेवन करते हैं, वे अनेक वार जन्म-सरण करने योग्य कर्म बांधते हैं।
भाष्यः-इससे पूर्व गाथा में सकाम सरण का जो स्वरूप बताया गया है, उससे कोई आत्मघात करने का अभिप्राय न समझे, इस बात के स्पष्टी करण के लिए शास्त्रकार स्वयं आत्मघात जन्य अनर्थ का वर्णन करते हैं। .
___ प्राचीन काल में देहपात करना धर्म लमझा जाता था। अनेक अहानी पुरुष स्वेच्छा से, परलोक के सुखों का भोग करने के लिए अपने स्वस्थ और सशक्त शरीर का त्याग कर देते थे। इस क्रिया को वे समाधि कहते थे।
समाधि लेने की प्रज्ञानपूर्ण क्रिया के उद्देश्य का विचार किया जाय तो पता 'चलेगा कि उसके मूल में लोभ कबाय या द्वेप कपाय हैं । या तो जीरन क प्रति घृणा उत्पन्न होने से, जो कि द्वेष का ही एक रूप है, आत्मघात किया जाता है या परलोक के स्वर्गीय सुख शीघ्र पा लेने की प्रवल अभिलाषा से । इन में से या इसीसे मिलता जुलता कोई अन्य कारण हो तोभी. यह स्पष्ट है कि भात्मघात में कषाय की भावना विद्यमान है। जहां कपाय हैं वहां धर्म नहीं। अतएव आत्मघात की क्रिया अधर्म का कारण है। धार्मिक दृष्टि के अतिरिक्त, किली लौकिक कारण से किया जाने वाला 'अात्मघात तो सर्वसम्मत अधर्म है ही।
- इसी अर्थ को शास्त्रकार ने स्पष्ट किया है। धर्म-लाम के लिए या क्रोध आदि के तीन श्रावेश में आकर जो लोग अपघात करने के लिए शस्त्र का प्रयोग करते हैं,
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श०५
[ ६०८
आवश्यक कृत्य विष का भक्षण करते हैं, अग्नि में प्रवेश करते हैं, जल में प्रवेश करते हैं, या इसी प्रकार के किसी अनाचरणीय उपाय का प्राचरण करते हैं, वे को ले छटकारा तो पाते नहीं, वरन् प्रगाढ नवीन कर्मों का बंध करके दीर्घ काल पर्यन्त जन्म-मरण के पंजे में फंसे रहते हैं।
पति के परलोक नमन करने पर पति का अग्नि प्रवेश भी आत्मघात ही है। स्त्री का सच्चा सतीत्व शील रक्षा एवं ब्रह्मचर्य के पालन में है, न कि श्रापघात में। , श्रतएव श्रात्मघात किली भी अवस्था में विधेय नहीं है। श्रात्मघात घोर कायरता कह कल है या घोरतर अज्ञान का फल है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष अात्मघात को अधर्म समझकर उसमें कदापि प्रवृत्त नहीं होते। मूलः-अह पंचहिं ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भई ।
थंभा कोहा पमाएणं, रोगणालस्सएण य ॥८॥.. छायाः-अथ पञ्चभिः स्थानः, यैः शिक्षा न लभ्यते । .
___ स्तम्भात क्रोधात् प्रमादेन, रोगणालस्येन २ ॥८॥ शब्दार्थ:-जिन पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती, वे यह है-(१) अभिमान से (२) क्रोध से (३) प्रमाद से (४) रोग से और (५) आलस्य से।
भाष्यः-श्रात्मा में विद्यमान शक्ति का जिससे विकास होता है वह शिक्षा है ।। शिक्षा-प्राप्ति के लिए नम्रता श्रादि गुणों की आवश्यकता होती है। जो शिष्य अभिमानी होता है और अभिमान के कारण यह सोचता है कि इसमें क्या रक्खा है ? गुरुजी जो सिखाते हैं वह सब तो मैं स्वयं जानता हूँ। और इस प्रकार सोचकर विनय के साथ गुरुप्रदत्त पाठ को अंगीकार नहीं करता वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। अभिमान करने से गुरु का शिष्य पर आन्तरिक स्नेह नहीं होता और विना स्नेह के भलिभांति शिक्षा का प्रदान नहीं हो सकता है। श्रतएव शिक्षा के अर्थी शिष्य को अभियान को त्याग करना चाहिए।
. जो शिष्य क्रोधी होता है। गुरुजी द्वारा डांटने-डपटने पर श्राग बबूला हो जाता है, वह भी अपने गुरु का हृदय नहीं जीत पाता और शिक्षा से वंचित रहता है।
. क्रोध और अभिमान की मात्रा कदाचित् अधिक न हो और प्रमाद का प्राधिस्य हो तथा प्रमाद के कारण पठित विषय का यारम्बार स्मरण या पारायण न करे तो पिछला पाठ विस्मृत हो जाता है । भागे-भागे पढ़ता जाय और पीछे-पीछे का भृतता जाए तो उसका परिणाम कुछ भी नहीं निकलता । अतः शिक्षार्थी को प्रमान का परित्याग कर पिछले-अगले पाठ का बार-बार चिन्तन मनन करना चाहिए। ऐसा किये विना शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती । पिछले पाठ को छोड़ बैठना ही प्रमाद न हैं। है, वरन धागे का पाठ पढ़ने में निरुत्साह होना, श्राज नह तो फिर कभी पद लगे, इस प्रकार का भाव होना भी प्रमाद के ही अन्तर्गत है।
पवूला हो
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सोलहवां अध्याय
[ ६०६ ]
प्रमाद की भांति रोग भी शिक्षा-प्राप्ति में बाधक होता है । रोगी शिष्य का चित्त, असाता के कारण अध्ययन में संलग्न नहीं होता और संलग्नता के बिना शिक्षा नहीं प्राप्त होती । श्रतः विद्यार्थी को अपने शारीरिक स्वास्थ्य की ओर अवश्य ध्यान रखना चाहिए । जो केवल बौद्धिक या मानसिक शिक्षा ग्रहण करना चाहता है और शरीर की शिक्षा की तरफ से उदासीन रहता है वह शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता है | अतः जैसे मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकता है, उसी प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य की भी विद्यार्थी को आवश्यकता है ।
विद्वानों का कथन है कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन रहता है । अस्वस्थ तनं में स्वस्थ मन रद्द नहीं सकता । ऐसी स्थिति में जो तन की स्वस्थता का ध्यान नहीं रखते वे शिक्षा से वंचित रहते है ।
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श्रालस्य भी शिक्षा प्राप्ति में बाधक है । जिस विद्यार्थी में फुर्ती नहीं, चुस्ती नहीं, जो मंथर गति से, मरे हुए-से मन से काम करता है, एक घड़ी के कार्य में दो घड़ी लगाता है, श्रालस्य से ग्रस्त होकर जल्दी सो जाना और सूर्योदय तक बिछौने पर पड़ा रहता है, वह भलीभांति शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता ।
मूल:- यह श्रहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चइ |
हस्सिरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे ॥ ६ ॥ नासीले य विसीले य, न सिप्रा इलोलुए । कोहणे सच्चरए, सिक्खासीले चि बुच्च ॥ १०॥
छाया:- श्रथ श्रष्टभिः स्थानंः, शिक्षाशील इत्युच्यते ।
हसनशीलः सदा दान्तः, न च ममौदाहरेत् ॥ ६ ॥ नाशीतो न विशीलः, न स्यादतिलोलुपः ।
क्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥ १० ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम! आठ कारणों से शिष्य शिक्षाशील कहा जाता है: ( १ ) हँसोड़ न हो ( २ ) सदा इन्द्रियों को अपने अधीन रखता हो ( ३ ) मर्मवेधी या दूसरे फी गुप्त बात प्रकट करनेवाली भाषा न बोलता हो ( ४ ) शील से सर्वथा रहित न हो (५) शील को दूषित करनेवाला न हो ( ६ ) अत्यन्त लोलुप न हो ( ७ ) क्रोधी स्वभाव का न हो और (5) सत्य में रत रहने वाला हो ।
भाष्यः- शिक्षा - प्राप्ति के लिए यहां जिन गुणों की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है, उस पर विवेचन करने की आवश्यकता नहीं। शिष्य को अधिक हँसो न होकर गंभीरवृत्ति वाला होना चाहिए । यद्यपि प्रसन्नचिचता श्रावश्यक है, पर अत्यंत हँसोड़पन क्षुद्रता प्रकट करता है । अतएव शिष्य को हँसोड़पन का त्याग करना चाहिए । इन्द्रियों पर अंकुश रखना चाहिए। जो इन्द्रियों का दमन न करेगा वह
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। ६० ।
श्रावश्यक कृत्य इन्द्रियों के विषयों में श्रासक्त बन कर शिक्षा ग्रहण से वंचित रह जायगा।
इसी प्रकार दूसरे के मर्म को चोट पहुंचाने वाली बात कहना, या किसी की गुप्त वात प्रकाश में लाना, सदाचार से सर्वथा शून्य होना, सदाचार में दोष लगाना, अतीव लोलुपता का होना, क्रोधशील होना धीर असत्यमय व्यवहार करना, यह सब दोष जिसने जितनी मात्रा में त्याग दिये हैं वह उतनी ही मात्रा में शिक्षा के योग्य बनता है। अतएव शिष्य को इन पाठ गुणों का धारण-पालन करके शिक्षा ग्रहण करना चाहिए। मूलः-जे लक्खणं सुविण पडंजमाणे,
निमित्तकोऊहलसंपगाढ़े । कुहेड विज्जासवदारजीवी,
न गच्छइ सरणं तम्मि काले ॥ ११ ॥ .. छायाः-यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुन्जानः, निमिस कौतूहलसम्प्रगाढः ।
कुहेटकविद्यास्रवद्वारजीवी, न गच्छति शरणं तस्मिन् काले ॥ १५ ॥ शब्दार्थः--जो साधु होकर भी स्त्री-पुरुष के हाथ की रेखाएँ देख कर उनका फल बतलाता है, स्वप्न का फलादेश बताने का प्रयोग करता है, भावी फल बताने में, कौतूहल करने में तथा पुत्रोत्पत्ति के साधन बताने में आसक्त रहता है, मंत्र, तंत्र, विद्या रूप आसव के द्वारा जीवन निर्वाह करता है, वह कर्मों का उदय आने पर किसी का भी शरण नहीं पाता।
भाध्या-साधु की श्रात्मसाधना का पथ अत्यन्त दुर्गम है । जरा-सी असावधानी होते ही पथ से विचलित हो जाना पड़ता है । एकाग्र भाव से, तल्लीनतापूर्वक साधना करने वाला मुमुच ही अपने ध्येय में सफलता प्राप्त करता है । जो पुरुष मानसिक चंचलता के कारण या कौतूहल के वश होकर अपने प्रधान साध्य विन्दु से हट कर दूसरी ओर मुड़ जाता है और संसार को एक बार त्याग फिर संसार की ओर उन्मुख हो जाता है, ग्रहण की हुई निवृत्ति से च्युत होकर पुनः प्रवृत्ति रूप प्रपञ्च में पड़ जाता है, वह 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' होकर इस लोकं से भी जाता है और परलोक से भी जाता हैं।
__ सांसारिक प्रपञ्चों में पड़ने से, मुक्ति की साधना में व्याघात हुए बिना नहीं रहता। इसी कारण जिनागम में मुनियों के ऐसें प्राचार का प्रतिपादन किया गया है है कि वे संसार व्यवहार सम्बन्धी किसी विषय से सस्पर्क न रख कर एकान्त आत्मसाधना में ही तन्मय रहें।
___ सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार स्त्री-पुरुष श्रादि के हाथ की रेखाएं देखकर उनके फल का प्रतिपादन करना, स्वप्न शास्त्र के अनुसार स्वप्न का फलाफल यतलाना,
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सोलहवां अध्याय
[ ६११ ]
भविष्य किस प्रकार का होगा, यह निमित्त देखकर बताना, वशीकरण मंत्र, मोहन मंत्र, उच्चाटन आदि की विधि बताना या सिखाना, कौतूहलजनक क्रियाएं करना, जैसे अदृश्य हो जाना, या अदृश्य हो जाने की विद्या सिखलाना, आदि इसी प्रकार का कोई भी कार्य करना सांसारिक प्रपञ्च है । साधु को इस प्रपञ्च से दूर रहना चाहिए ।
इस प्रकार के प्रपञ्च श्रात्मसाधना के घोर विरोधी हैं। जिसका चित्त इनकी ओर लगा रहेगा वह श्रात्मसाधना के कठोर पथ पर चल नहीं सकता । इतना ही नहीं, साधु को अपने उदर की पूर्ति के लिए भी इनका श्राश्रय नहीं लेना चाहिए । साधु की आजीविका सर्वथा निरवद्य बतलाई गई है । उसका विवेचन पहले किया जा चुका है । उसीके अनुसार अपना निर्वाह करना साधु का धर्म है । श्रतएव किसी भी कारण से साधु को सामुद्रिक शास्त्र, स्वप्न शास्त्र, निमित्त शास्त्र, मंत्र, तंत्र, विद्या आदि का प्रयोग करना उचित नहीं है ।
मुनि हो करके भी इनका प्रयोग करने वाले की क़्या दुर्गति होती है, इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने कहा है- 'न गच्छइ सरणं तम्मि काले' अर्थात् कर्म का उदय होने पर अथवा मृत्यु का समय उपस्थित होने पर उसके लिए कोई शरणदाता नहीं होता । वह श्रशरण, असहाय और अनवलम्व होकर दुःख का अनुभव करता है अन्त समय धर्म ही शरण होता है । कहा भी है
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धम्मो मंगलमडलं, प्रोस हमउलं च सव्वदुक्खाणं । धम्मो बलमवि विडलं, धम्मो तारां च सरणं च ॥
श्रर्थात्-धर्म ही अनुपम मंगलकारी है, धर्म ही समस्त दुःखों की अनुपम औषध है, धर्म ही अनुपम चल है और धर्म ही त्राण एवं शरण है ।
जब धर्म ही जीव को शरणभूत है तो अधर्म का सेवन करने वालों को क्या शरण हो सकता है ? श्रधर्मनिष्ठ लोग अशरण होकर दीन दशा का अनुभव करते हुए दुःखों के पात्र बनते हैं । ऐसा विचार कर प्रत्येक मोक्षाभिलाषी पुरुष को अधर्म का त्याग कर धर्म का ही श्राश्रय ग्रहण करना चाहिए ।
मूल :- पडंति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो ।
दिव्वं च गई गच्छति, चरिता धम्मरियं ॥ १२ ॥
छाया:- पतन्ति नरके घोरे, ये नराः पापकारिणः ।
दिव्यां च गतिं गच्छन्ति चरित्वा धर्ममार्यम् ॥ १२ ॥
शब्दार्थः- जो मनुष्य पाप करते हैं वे घोर नरक में पड़ते हैं और सदाचार रूप धर्म का आचरण करने वाले दिव्य गतियों में देवलोक में --जाते हैं ।
भाष्यः - प्रस्तुत गाधा में धर्म और अधर्म के फल का सार निचोड़ कर र दिया गया हैं | हिंसा, असत्य, आदि पापों का सेवन करने वाले पुरुष घोर वेदना
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[ ६१२ ]
श्रावश्यक कृत्य
जनक नरक में जन्म लेते हैं और श्रार्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा प्ररूपित धर्म का सेवन करने वाले स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं ।
शास्त्रकार ने अधर्म और धर्म के फल की प्ररूपणा करके परलोक का.. भी विधान कर दिया है और धर्म सेवन की महिमा का भी कथन कर दिया है ।
इस गाथा से यह अभिप्राय भी निकलता है कि आत्मा सदा एक ही स्थिति में नहीं रहता। जो श्रात्मा एक बार अधर्म के फलस्वरूप नरक का अतिथि बनता है, वही दूसरे समय, धर्म का सेवन करके स्वर्ग का अधिकारी वन जाता है । अतएव जो लोग आत्मा को सदैव एक ही स्थिति में रहना स्वीकार करते हैं, उनकी मान्यता भ्रमपूर्ण है । लदा एक ही स्थिति में रहने से पुण्य-पाप या धर्म-अधर्म के फल का उपभोग नहीं बन सकता । इस स्थिति में धर्म का आचरण करना निष्फल होजाता है।
शास्त्रकार के इस विधान से यह भी फलित होता है कि आत्मा ही कर्त्ता हैं और वही स्वयं कर्म के फल का भोला है । आत्मा में दैवी और नारकीय दोनों अवस्थानों को अपनाने की शक्ति विद्यमान है । वह जिस अवस्था को ग्रहण करना चाहे, उसी के अनुसार व्यवहार करे। मनुष्य एक चौराहे पर खड़ा है । चारों ओर मार्ग जाते हैं । उसकी जिस ओर जाने की अभिलाषा हो वही मार्ग वह पकड़ सकता है । मनुष्य को यह महा दुर्लभ अवसर मिला है । एक क्षण का भी इस समय बड़ा मूल्य है । भव्य जीवों ! इसका सदुपयोग करो और अक्षय कल्याण के पात्र वनों । मूल:--बहु आगमविण्णापा,
समाहि उप्पायगा य गुणगाही । काररेणं,
रिहा आलोयणं सोउं ॥ १३ ॥
छाया:- वह वागमविज्ञाना, समाध्युत्पादकाश्र्व गुणग्राहिणः । एतेन कारणेन, अही थालोचनां श्रोतुम ॥ १३ ॥
एएप
शब्दार्थ:- जो बहुत आगमों के ज्ञाता होते हैं, कहने वाले अर्थात् अपने दोषों को प्रकट करने वाले को समाधि उत्पन्न करने वाले होते हैं, और जो गुणग्राही होते हैं, वही इन गुणों के कारण आलोचना सुनने के योग्य अधिकारी है ।
चिना
भाष्यः - लगे हुए दोषों का स्मरण करके उनके लिए पश्चाताप करना आलीहै । आलोचना अगर गुरु के समक्ष की जाती है, तो उसका महत्व अधिक होता है । गुरु के समीप निष्कपट बुद्धि से, अपने दोष को निवेदन करने से हृदय में. वल श्राता है और भविष्य में उस दोष से बचने का अधिक ध्यान रहता है । श्रालोन ना किस योग्यता वाले के सामने करनी चाहिए, यह यहां स्पष्ट किया गया है ।
जो विविध शास्त्रों का वेत्ता हो, जिसे आलोचना करने वाले के प्रति सहानु
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सोलहवां अध्याय भूति हो-जो बालोचक को सान्तवना एवं सुशिक्षा देकर समाधि उत्पन्न करने वाला हो और गुणग्राही हो, वही आलोचना सुनने का अधिकारी है।
किली का दोष जान कर जो उसका ढोल पीटे, उस दोष को प्रकट करके सर्वसाधारण में निन्दा करे अथवा जो दोषदर्शी हो, आलोचक के गुणों को न देख कर केवल मात्र दोषों को देखता हो, आलोचना करने की सरलता रूप गुण को भी जो न देखे और साथ ही जिसे शास्त्रीय ज्ञान पर्याप्त न हो वह आलोचना-सुनने का अधिकारी नहीं है। मूलः-भावणा जोगसुद्धप्पा, जले णावा व अाहिया। . नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउहद ॥१४॥ छाया:-भावना-योगशुद्धात्मा, जले नौरिवारयाता।
नारिव तीरसम्पन्ना, सर्वदुःखात् त्रुयति ॥ १४ ॥ शब्दार्थः--भावना रूप योग से जिसकी आत्मा शुद्ध हो रही है वह जल में नौका के समान कहा गया है । जैसे अनुकूल वायु आदि निमित्त मिलने पर नौका किनारे लग जाती है उसी प्रकार शुद्धात्मा जीव समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है-संसार-सागर के किनारे पहुंच जाता है।
भाष्यः-संसार को विशाल समुद्र की उपमा दी गई है। जैसे समुद्र को पार करके किनारे पहुंच जाना अत्यन्त कठिन होता है, उसी प्रकार संसार से छुटकारा पाकर मुक्ति का प्राप्त होना सी अतीव कठिन है । किन्तु उत्तम भावना के योग से जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता वह संसार के प्रपंचों को त्यागकर,जल में नौका के समान, संसार-सागर के ऊपर ही रहता है । जैसे नौका जल में डूबती नहीं है, उसी प्रकार शुद्ध अन्तःकरण चाला पुरुष संसार-सागर में नहीं डूबता है। जैसे कुशल कर्णधार द्वारा प्रयुक्त और अनुकूल वायु द्वारा प्रेरित नौका सब प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होकर किनारे लग जाती है, इसी प्रकार उत्तम चारित्र से युक्त जीन रूपी नौका, श्रेष्ठ आगम रूप कर्णधार से युक्त होकर और तप रूपी पवन से प्रेरित होकर दुःस्त्रात्मक संसार से छूट कर समस्त दुःखाभाव रूप मोक्ष को प्राप्त होती है।
तात्पर्य यह है कि वही पुरुष मुनि-लाभ कर सकते हैं, जिनका अन्तःकरण भावना योग से विशुद्ध होता है। वारह प्रकार की भावनाओं का वर्णन पहले किया जा चुका हैं । उनके पुनः-पुनः-चिन्तन से भावना योग की सिद्धि होती है और उसीले अन्तःकरण की शुद्धि होती है ।' अन्तःकरण की शुद्धि, शाश्वत सिद्धि का मूल है। मूलः-सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजये।
अणाहए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।। १५ ॥
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[ ६१२ ]
श्रावश्यक कृत्य
जनक नरक में जन्म लेते हैं और आर्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा प्ररूपित धर्म का लेवन करने वाले स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं ।
शास्त्रकार ने अधर्म और धर्म के फल की प्ररूपणा करके परलोक का भी विधान कर दिया है और धर्म सेवन की महिमा का भी कथन कर दिया है ।
इस गाथा से यह अभिप्राय भी निकलता है कि आत्मा सदा एक ही स्थिति में नहीं रहता । जो आत्मा एक बार अधर्म के फलस्वरूप नरक का अतिथि बनता है, बद्दी दूसरे समय, धर्म का सेवन करके स्वर्ग का अधिकारी वन जाता है । अतएव जो लोग श्रात्मा को सदैव एक ही स्थिति में रहना स्वीकार करते हैं, उनकी मान्यता भ्रमपूर्ण है । सदा एक ही स्थिति में रहने से पुराय - पाप या धर्म-अधर्म के फल का उपभोग नहीं बन सकता । इस स्थिति में धर्म का आचरण करना निष्फल होजाता है।
शास्त्रकार . के इस विधान से यह भी फलित होता है कि आत्मा ही कर्त्ता है और वही स्वयं कर्म के फल का भोका है । आत्मा में दैवी और नारकीय दोनों श्रवस्थाओं को पाने की शक्ति विद्यमान है । वह जिस अवस्था को ग्रहण करना चाहे, उसी के अनुसार व्यवहार करे । मनुष्य एक चौराहे पर खड़ा है । चारों ओर मार्ग जाते हैं । उसकी जिस ओर जाने की अभिलाषा हो वही मार्ग वह पकड़ सकता है । मनुष्य को यह महा दुर्लभ श्रवसर मिला है । एक क्षण का भी इस समय बड़ा मूल्य है । हे भव्य जीवों ! इसका सदुपयोग करो और अक्षय कल्याण के पात्र वनों । मूल:--बहु आगमविण्णापा,
समाहि उपायगा य गुणगाही । काररेणं, रिहा आलोयणं सोउं ॥ १३ ॥
छाया:- वह वागमविज्ञाना, समाध्युत्पादकाश्च गुणग्राहिणः । एतेन कारणेन्न, अालोचनां श्रोतुम ॥ १३ ॥
एएण
शब्दार्थ:- जो बहुत आगमों के ज्ञाता होते हैं, कहने वाले अर्थात् अपने दोपों को प्रकट करने वाले को समाधि उत्पन्न करने वाले होते हैं, और जो गुणग्राही होते हैं, वही इन गुणों के कारण आलोचना सुनने के योग्य अधिकारी है ।
भाष्यः - लगे हुए दोषों का स्मरण करके उनके लिए पश्चाताप करना श्रालो - चना है । आलोचना अगर गुरु के समक्ष की जाती है, तो उसका महत्व अधिक होता है। गुरु के समीप निष्कपट बुद्धि से, अपने दोष को निवेदन करने से हृदय में वल श्राता है और भविष्य में उस दोष से बचने का अधिक ध्यान रहता है । श्रालोन ना किस योग्यता वाले के सामने करनी चाहिए, यह यहां स्पष्ट किया गया है ।
जो विविध शास्त्रों का वेत्ता हो, जिसे आलोचना करने वाले के प्रति सहानु
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सोलहवां अध्याय
f ६१३ ]
भूति हो - जो आलोचक को सान्तवना एवं सुशिक्षा देकर समाधि उत्पन्न करने वाला हो और गुणग्राही हो, वही आलोचना सुनने का अधिकारी है ।
किसी का दोष जान कर जो उसका ढोल पीटें, उस दोष को प्रकट करके सर्वसाधारण में निन्दा करे अथवा जो दोषदर्शी हो, आलोचक के गुणों को न देख कर केवल मात्र दोषों को देखता हो, आलोचना करने की सरलता रूप गुण को भी जो न देखे और साथ ही जिसे शास्त्रीय ज्ञान पर्याप्त न हो वह आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है |
मूलः- भावणा जोगसुद्धप्पा, जले पावा व त्राहिया ।
नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउहह ॥ १४ ॥
छाया:- भावना - योगशुद्धात्मा, जले नौरिवाख्याता । नारिव तीरसम्पन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति ॥ १४ ॥
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शब्दार्थः -- भावना रूप योग से जिसकी आत्मा शुद्ध हो रही है वह जल में नौका समान कहा गया है। जैसे अनुकूल वायु आदि निमित्त मिलने पर नौका किनारे लग जाती है उसी प्रकार शुद्धात्मा जीव समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है - संसार-सागर के किनारे पहुंच जाता है ।
भाष्यः - संसार को विशाल समुद्र की उपमा दी गई है । जैसे समुद्र को पार करके किनारे पहुंच जाना अत्यन्त कठिन होता है, उसी प्रकार संसार से छुटकारा पाकर मुक्ति का प्राप्त होना भी श्रतीव कठिन है । किन्तु उत्तम भावना के योग से जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता वह संसार के प्रपंचों को त्यागकर, जल में नौका के समान, संसार-सागर के ऊपर ही रहता है । जैसे नौका जल में डूबती नहीं है, उसी प्रकार शुद्ध अन्तःकरण वाला पुरुष संसार-सागर में नहीं डूबता है । जैसे कुशल कर्णधार द्वारा प्रयुक्त और अनुकूल वायु द्वारा प्रेरित नौका सब प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होकर किनारे लग जाती है, इसी प्रकार उत्तम चारित्र से युक्त जीन रूपी नौका, श्रेष्ठ श्रागम रूप कर्णधार से युक्त होकर और तप रूपी पवन से प्रेरित होकर दुःखात्मक संसार से छूट कर समस्त दुःखाभाव रूप मोक्षं को प्राप्त होती है ।
तात्पर्य यह है कि वही पुरुष मुक्ति-लाभ कर सकते हैं, जिनका अन्तःकरण भावना योग से विशुद्ध होता है। वारह प्रकार की भावनाओं का वर्णन पहले किया जा चुका है । उनके पुनः पुनः- चिन्तन से भावना योग की सिद्धि होती है और उसीसे अन्तःकरण की शुद्धि होती हैं ।" अन्तःकरण की शुद्धि शाश्वत सिद्धि का मूल है।
मूल :- सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजये । चाहए तवे चैव वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।। १५ ॥
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[ ६१४ ]
छाया:-- श्रवणं ज्ञानं विज्ञानं प्रत्याख्यानञ्च संयमः । श्रनाश्रवं तपश्चैव, व्यवदानमक्रिया सिद्धिः ॥ १५ ॥
श्रावश्यक कृत्य
शब्दार्थः-- ज्ञानी पुरुषों की संगति से धर्मश्रवण का अवसर मिलता है, धर्मश्रवण से ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान से विज्ञान होता है, विज्ञान से त्याग उत्पन्न होता है, त्याग से संयम होता है, संयम से आश्रव का अभाव हो जाता है और उस से तप की प्राप्ति होती है । तप के प्रभाव से पूर्वसंचित कर्मों का नाश होता है, कर्मनाश से क्रिया का अभाव होजाता है और क्रिया के अभाव से सिद्धि लाभ होता है ।
भाग्यः- शास्त्रकार ने यहां श्राध्यात्मिक विकास का क्रम संक्षेप में प्रस्तुत किया है । संसारी जीव किस प्रकार अपने कर्मों का सर्वथा क्षय करके और पूर्ण निर्मलता प्राप्त करके मुक्ति प्राप्त करता है, यह बात इस कथन से स्पष्ट समझ में आ जाती है ।
जीवके पाप कर्म जब कुछ पतले पढ़ते हैं तब उसे वतिराग सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्ररूपित, वस्तुस्वरूप के यथार्थ प्रकाशक, अनेकान्त दृष्टिमय और अहिंसाप्रधान धर्म के श्रवण का अवसर मिलता है ।
धर्म श्रवण करने से उस जीव को ज्ञान की प्राप्ति होती है। अबतक अज्ञान के बोझ से दबा हुआ वह जीव कुछ हल्का हो जाता है । वह घोर तिमिर से प्रकाश में आता है ।
जीव को जब ज्ञान की प्राप्ति होती है तो वह वस्तुओं के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है | वह श्रात्मा और अनात्मा के भेद को ग्रहण करता है । श्रात्मा के पारमार्थिक स्वरूप को समझता है और वर्त्तमानकालीन विकारमय पर्याय को देखकर उसे त्यागने की इच्छा करता है । वह नौ तत्वों का ज्ञाता बन जाता है । इन्द्रियों के विषयभोगों की जिस्सारता समझने लगता है ।
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- इस प्रकार जीव का ज्ञान, जय विज्ञान बन जाता है, तब उसमें प्रत्याख्यान का भाव उत्पन्न होता है । वह पापों से परराङ्मुख होकर यथाशक्ति त्यागी बनजाता है ।
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इन्द्रियों के विषयों का एवं पापों का प्रत्याख्यान करने के अनन्तर वह संयमी अवस्था प्राप्त करता है । संयम से श्रास्त्रव को रोकता है और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करके सब प्रकार की मानसिक, वाचनिक एवं कायिक क्रिया से मुक्त हो जाता है । क्रिया से मुक्त होने पर सिद्धि प्राप्त होती हैं । सिद्धि ही श्रात्मा की स्वाभाविक स्थिति है ।
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मूलः - अवि से हासमासज्ज, हंदा णं दीति मन्नति ।
अलं वालस्स संगेणं, वेरं वड्ढई अप्पणो ॥ १६ ॥
छाया:-अपि स हास्यमासज्य, हन्ता नन्दीति मन्यते । चल बालस्य सङ्गेन वैरं वर्द्धत यामनः ॥ १६ ॥
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सोलहवां अध्याय
[ ६५ ]
शब्दार्थ:-जो पुरुष कुसंगति करता है वह हास्य आदि में आसक्त होकर हिंसा करने में ही आनन्द मानता है । वह अन्य जीवों के साथ वैर बढ़ाता है, अतएव अज्ञानी पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिए ।
भाष्यः- सत्संगति से होने वाले लाभों का उल्लेख करके यहां अज्ञान पुरुषों की कुसंगति से होने वाली हानि का कथन किया गया हैं ।
हिंसा आदि प्रकर्त्तव्य कार्यों में दत्तचित्त रहने वाले, इन्द्रियों के क्रीतदास विषयलोलुप, धर्म मार्ग से प्रतिकूल चलने वाले पुरुष अज्ञानी कहलाते हैं । ऐसे पुरुषों का संसर्ग करने वाला भद्र परिणामी मनुष्य भी उन्हीं जैसा बन जाता है | वह हिंसा करता है और हिंसा करने में श्रानन्द का अनुभव करता है । अपने मनोरंजन के लिए, बिना किसी प्रयोजन के ही, प्राणियों का घात करने में उसे संकोच नहीं होता ।
इस प्रकार हिंसा करके, वह जिन प्राणियों का हनन करता है, उनके साथ वैरानुबंधी कर्म बांधता है । इस कर्म के उदय से उसे भव-भवान्तर मैं दुःख क भागी होना पड़ता है । वैर की परस्परा अनेक भव पर्यन्त चालू रहती है । अतएव अज्ञान पुरुषों की संगति का त्याग करना चाहिए ।
मूलः - आवस्सयं
वस्तं कणिज्जं, gasो विसोही य । छक्कवग्गो,
अज्झयण
नाओ आराहणामग्गो ॥ १७ ॥
छाया:- शावश्यकमवश्यं करणीयम्, ध्रुवनिग्रहः विशोधितम् । श्रध्ययनपट्कवर्गः ज्ञेय आराधनामार्गः ॥ १७ ॥
शब्दार्थ : - इन्द्रियों का निग्रह करने वाला, आत्मा को विशेष रूप से शुद्ध करने वाला, न्याय के कांटे के समान, जिससे वीतराग के वचनों का पालन होता है ऐसे, मोक्ष मार्ग रूप, छह वर्ग अध्ययन जिसके पढ़ने के हैं ऐसा, आवश्यक अवश्य करने योग्य है ।
भाग्यः - शास्त्रकार ने यहां पर आवश्यक कृत्य को अवश्य करने का विधान किया है । आवश्यक को श्राराधना का मार्ग, इन्द्रिय निग्रह करने का साधन और आत्मा को विशुद्ध करने वाला निरूपण किया गया है। श्रावश्यक क्रिया का निरूपण करने वाला आवश्यक सूत्र छह अध्ययनों में विभत है, क्योंकि श्रावश्यक के विभाग पद ६ ।
श्रावश्यक के छेद विभाग यह हैं - ( १ ) सामायिक ( २ ) चतुर्विंशति स्तत्र ( ३ ) बन्दना ( ४ ) प्रतिक्रमण ( ४ ) कायोत्सर्ग और ( ६ ) प्रत्याख्यना ।
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अावश्यक कृत्य (१) सामायिक-राग और द्वेष का त्याग करके, समभाव-मध्यस्थ भाव में रहना अर्थात् जगत् के जीव मात्र को अपने ही समान समझना सामायिक कहलाता है। समस्त सावध क्रियाओं का त्याग करके दो घड़ी पर्यन्त समभाव के सरोवर में अवगाहन करना श्रावक की सामायिक क्रिया है। साधु की सामायिक यावजीवन सदैव रहती है, क्योंकि साधु समस्त सावध क्रिया का त्यागी और सदा समभावी रहता है।
सामायिक के तीन भेद कहे गये हैं-(१) सम्यक्त्व-सामायिक (२) श्रुत सामायिक और (३) चारित्र सामायिक, क्योंकि सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र के अवलम्बन से साम्यभाव ले मन स्थिर होता है । इनमें से चारित्र सामायिक के दो भेद हैं-(१) देश-चारित्र सामायिक और (२) सर्व चारित्र सामायिक । पहला भेद धावकों को दूसरा साधुओं को होता है। .. सामायिक की बड़ी महिमा है। वास्तविक बात तो यह है कि समभाव के . विना सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। जहां समभाव नहीं है, राग-द्वेष आदि विषय भावों की प्रधानता है, वहां दुःख का दौर दौरा है । जितने अंशों में संमभाव श्रात्मा में उदित होता जाता है, उतने ही अंशों में सुख का उदय होता जाता है। अन्तःकरण को निष्पाप बनाने के लिए सामायिक ही सर्व श्रेष्ठ साधन है। कहा
प्रश्न-सामाइयेणं भंते ! जीवे किं जण्यइ ? अर्थात्-भंते ! सामायिक से जीव को क्या लाभ होता है ? उत्तर-सामाइएणं सावजजोगविरई-जणयइ। अर्थात्-सामायिक से पापमय व्यापार के प्रति विरति की उत्पत्ति होती है।
पापमय व्यापार अर्थात् लावद्ययोग का त्याग कर देने पर श्रावक भी साधु की कोटि का बन जाता है । यथा. . . सामाइयमि तु कडे, समणो इव लावओ हवह जम्हा। - एतेण कारणेणं, बहुसो लामाइयं कुजा ॥
अर्थात-सामायिक करते समय धावक भी साधु के समान कई अंशों में हो जाता है। इस कारण वहुत बार-बार सामायिक करना चाहिए।
(२) चतुर्विंशतिस्तव-चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति करना चतुर्विशतिस्तव कहलाता है। स्तव करना अर्थात् गुणों का कीर्तन करना । तीर्थकर भगवान् श्रादर्श महापुरुप हैं, जिन्होंने शत्म शुद्धि का परम श्रादर्श उपस्थित किया है। उनके स्तवन से आत्मा के स्वाभाविक गुणों के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। श्रात्मा उन गुणों को प्राप्त करने के लिए उद्योग शील बनता है । चतुर्विशति स्तव से सम्यक्त्व का वृद्धि भी होती हैं। यथा
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सोलहवां अध्याय
- ६१७ ॥ प्र०-चवीसथएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? उ०-चउवीसत्थपणं दंसण विसोहिं जणयइ । अर्थात्-प्र० चतुर्विंशतिस्तब से जीव को क्या लाभ होता है ? ७०-चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन गुण की विशुद्धता अर्थात् निर्मलता होती है।
( ३ ) वन्दना-मन, वचन और काय के द्वारा पूजनीय पुरुषों के प्रति आदरसन्मान प्रकट करना वन्दना है । अर्हन्त भगवान् , सिद्ध भगवान् , आचार्य महाराज, उपाध्याय और कंचन कामिनी के त्यागी, पंचमहाव्रतधारी, समिति-गुप्ति के प्रतिबालक मुनि महाराज वन्दनीय महापुरुष हैं । इन्हें वन्दना करने से छानक लाभ होते हैं । यथा
प्र०-वन्दणएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
७०-चन्दणएणं नीयागोयं कम्मं स्त्रवेद । उच्चागोयं कस्म निबंधइ। लोहगां च गं अपडिहयं प्राणाफलं निवत्तेइ । दाहिणभावं च जणयइ। ।
प्र०-वन्दन करने से, भगवन् ! जीव को क्या लाभ है ?
उ०-वन्दन करने से नीच गोत्र कर्म का क्षय होता है । 'उच्च गोत्र कर्म का गंध होता है । अप्रतिहत सौभाग्य की प्राप्ति होती है। आशा की धाराधना होती हैं। दाक्षिण्य की उत्पत्ति होती है। .
वन्दना करना, वंदना करने वाले की विनम्रता का सूचक है। अथवा यों कहना चाहिए कि वन्दनीय व्यक्ति के सद्गुणों के प्रति हृदय में जब भक्ति भाव उत्पन्न होता है तव उनके सामने स्वयं मस्तक झुक जाता है । अन्तःकरण की प्रेरणा से जनित इस प्रकार की वन्दना ही साम्बी बन्दना है।
वन्दना के बत्तीस दोष बतलाये गये हैं। उन दोषों का परिहार करते हुए की जाने वाली वन्दना ही उत्तम कहलाती है। बत्तीस दोप इस प्रकार हैं:
श्रणाढियं च थड्दं च पविद्धं परिपिंडियं । टोल गई अंकुसं चेव, तहा कच्छभारगिअं॥ मछो बत्तं मणसा य, पउटुं तहय वेश्या रद्धं । भयसा चेव भयंतं, मेत्ती गारव-कारणा तेणिशं पउणीअं चेव, रुटुं तज्जियमेव य। सढं च हीलिभं चेव, तहा विएलिउचिश्यं ॥ दिट्टमदिटुं च तहा, सिंगं च फरमो अम्।। प्रालिद्धमनालिद्ध, ऊणं उत्तर चूलियं ॥ सूयं च ढढरं चेब, चुडालं च अदच्छियं ।
चत्तीस दोस परिसुदं, किरकम्म पउंजए । पत्तीस दोपों का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है:
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[ ६१८ ]
( १ ) अनाहत - विना श्रादर के वन्दना करना !
( २ ) स्तब्ध -- अभिमान से युक्त होकर वन्दना करना ।
( ३ ) प्रविद्ध-वन्दना करते-करते भाग जाना ।
( ४ ) परिपिसिडत--बहुत से मुनियों को एक साथ वन्दना करना ।.
( ५ ), टोल गति - उछल उछल कर वन्दना करना ।
श्रावश्यक कृत्य
( ६ ) अंकुश -- जैसे अंकुश से हाथी को सीधा किया जाता है, उसी प्रकार, सोये हुए या अन्य कार्य में व्यग्र श्राचार्य को आसन पर सीधा बिठाकर वन्दना करना । अथवा रजोहरण को अंकुश के समान हाथों में पकड़ कर वन्दना करना श्रथवा अंकुश से श्राहत हस्ती के समान सिर ऊँचा-नीचा करके वन्दना करना । (७) कच्छपरिंगित - रेंगते हुए-से वन्दना करना ।
(८) मत्स्योदवृत्त - जल में मत्स्य के समान उठते-बैठते हुए वन्दना करना अथवा एक मुनि को वन्दना करके जल्दी से दूसरे मुनि की ओर अंग भूकाकर वन्दना कर लेना ।
रखकर वन्दना करना ।
:.
(६) दुष्टमनस्कता - यह वन्दनीय मुझसे अमुक गुण में हीन हैं फिर भी मैं इन्हें वन्दना कर रहा हूं, इस प्रकार सोचते हुए दूषित मन से वन्दना करना ।
(१०) वेदिकावद्ध - घुटनों पर हाथ रखकर अथवा गोदी में घुटने और हाथ
:
( ११ ) भय -
-संघ से, कुल से, गच्छ से या किसी अन्य से डर कर वन्दना
करना ।
( १२ ) भजमान - यह मेरी सेवा करेंगे या की नहीं, इस बुद्धि से चन्दना करना है (१३) मैत्री - श्राचार्य मेरे मित्र हैं, या वन्दना करने से इनके साथ मैत्री हो जायगी, ऐसा विचार कर वन्दना करना ।
( १४ ) गौरव -- मैं वन्दना - समाचारी में निष्णात हूं, यह बात दूसरों पर प्रकट हो जावे, इस प्रकार की बुद्धि से चन्दना करना ।
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(१५) कारण - ज्ञान आदि से भिन्न वस्त्र आदि के लाभ रूप निमित्त से वन्दना करना, अथवा मैं लोक में पूज्य होऊं या दूसरों से अधिक ज्ञानी होजाऊं, इस. भावना से वन्दना करना अथवा वन्दना से राजी कर लूंगा तो मेरी प्रार्थना स्वीकार न करेंगे, इस भावना से वन्दना करना |
(१६) स्तैनिक - चन्दना करने से मेरी हीनता प्रकट होगी, यह विचार कर चोर की तरह छिप कर वन्दना करना ।
( १७ ) प्रत्यनीक - श्राहार शादि करने में बाधा पहुंचाते हुए वन्दना करना ।
(१) रुष्ट - क्रोध के आवेश में थाकर वन्दना करना । (१६) तर्जित - वन्दना करने वाला और बन्दना न करने वाला तुम्हारे लिए
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सोलहवां अध्याय
एक सरीखा है, इत्यादि प्रकार से भर्त्सना करते हुए वन्दना करना ।
(२०) शेठता - शठतापूर्वक वन्दना करना या बीमार होने की वहाना बना कर सम्यक् प्रकार से वन्दना न करना ।
( २१ ) हीलना-आपको वन्दना करने से क्या होना-जाना है, इस प्रकार अक्षा करते हुए वन्दना करना ।
(२२) विपरिकुंचित - आधी वन्दना करके ही इधर-उधर की बातें करने
[ ६१६ ]
लगना ।
( २३ ) दृष्टादृष्ट - अंधेरे में जब कोई देखता न हो तो यों ही खड़ा रहना और देखता हो तब वन्दना करना ।
(२४) शृंग - 'अहो कार्य' इत्यादि पाठ चोलते समय ललाट के मध्य भाग को स्पर्श न करके दाहिनी - बाई ओर स्पर्श करते हुए वन्दना करना ।
( २५ ) कर - वन्दना को राजकीय कर (टेक्स ) देने के समान मज़बूरी का कार्य समझते हुए करना ।
( २६ ) मोचन - लौकिक कर से तो छुटकारा मिल गया पर वन्दना के इस कर से मुक्ति न मिल पाई, ऐसी बुद्धि से वन्दना करना ।
(२७) लिट- श्रनाश्लिष्ट - इसकी चौभंगी होती है : - [ क ] 'अहो कार्य ' इत्यादि बोलते समय रजोहरण और शिर का दोनों हाथों से स्पर्श होना । [ख] सिर्फ रजोहरण का हाथों से स्पर्श हो शिर का नहीं । [ग] शिर का हाथों से स्पर्श हो रजोहरण का नहीं । [ ध ] न शिर का हाथों से स्पर्श हो और न रजोद्दरण का । इस चौमंगी में से प्रथम भंग शुद्ध है, शेष श्रशुद्ध हैं ।
( २८ ) न्यून - वन्दना का पाठ पूर्ण रूप से न बोलना ।
( २६ ) उत्तरचूल - वन्दना करके ' मत्थपण वंदामि' ऐसा बहुत जोर से
बोलना ।
(३०) मूक--पाठ का उच्चारण न करने हुए चन्दना करना । ( ३१ ) ढड्ढर--बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोलते वन्दना करना । (३२) चुडली -- हाथ लम्बा फैला कर वन्दना करना या सय साधुओं की और हाथ घुमा कर 'सभी को वन्दना हो' इस प्रकार कहकर चन्दना करना ।
इन बत्तीस दोपों का परित्याग करके शुद्ध भाव से आन्तरिक भक्ति एवं श्रद्वाद के साथ, बाह्य शिष्टता का ध्यान रखते हुए यथायोग्य चन्दना करना चाहिए ।
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( ४ ) प्रतिक्रमण -- 'प्रतिक्रमण' के शब्दार्थ पर ध्यान दिया जाये तो उसका अर्ध है--पीछे फिरना-लौटना | तात्पर्य यह है कि प्रमाद के कारण शुभ योग से च्युत होकर अशुभ योग में चले जाने पर फिर अशुभ योग से शुभ योग में लौटना, प्रतिक्रमण कहलाता है । प्रतिक्रमण में लगे हुए मत सम्बन्धी अतिचारों का संशोधन
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६२० ।
- आवश्यक कृत्य किया जाता है । साधुओं और श्रावकों के व्रत पृथक्-पृथक् हैं अतएव दोनों के प्रति-- क्रमण भी भिन्न-भिन्न है। साधुओं और श्रावकों को प्रतिक्रमण, प्रति दिन लायंकाल और प्रातकाल अवश्य करने का विधान है। कहा भी है:--
समणेग लावयेण य, अवस्लकायब्धयं हवइ जम्हा।।
अन्ते अहोणि लस्स य, तम्हा आवरलयं नाम || अर्थात्--श्रमणों तथा श्रावकों को दिन और रात्रि के अन्त सम्य, अवश्य करणीय होने से ही इस क्रिया का नाम 'आवश्यक' पड़ा है।
भगवान् अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक के शालन में कारण-विशेष उप- . . स्थित होने पर--दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान था, मगर भगवान ऋषभदेव के शासन के समान चरम तीर्थंकर महावीर स्वामी के शासन में प्रतिक्रमण सहित ही धर्म निरूपण किया गया है । यथा... सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणल। अज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं॥
___--श्रावश्यक नियुक्ति प्रतिक्रमण क्रिया करने से होने वाले लाभ का वर्णन. श्रीउत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार किया गया है:-- ..
H०--पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे कि जणय ? . .
उ०--पडिक्कमररोग जीवे वय छिदाई पिहेइ । पिहियस्यछिद्दे पुण जीवे निरुत द्धासवे, असवलचरित्ते, अट्टसु पक्यणमाया लु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरह।
श्रर्थात्-प्र०-भंते ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या लाभ होता हैं ? .
उ०-प्रतिक्रमण से जीव अपने व्रतों के छिद्र ढंकता है । दोषों का निवारण करता है। दोषों का निवारण करने वाला जीव शास्रव का निरोध करता है, शुद्ध चारित्र वाला होता है, आठ प्रवचन माताओं में (पांच समिति, तीन गति में उस योगवान् वनता है और समाधि युक्त होकर विचरता है।
प्रतिक्रमण के पांच भेद हैं-(१) देवसिक (२)रानिक ( ३ ) पाक्षिक (४) चातुर्मालिक और (५) सांवत्सरिक ।
दिन में लगे हए दोनों का प्रतिक्रमण करना देवसिक प्रतिक्रमण और रात्रि संबंधी दोषों के प्रतिक्रमण को रात्रिक प्रतिक्रमण कहते हैं। एक पक्ष-पन्द्रह दिन के दोषों का प्रतिक्रमण करना पाक्षिक, चार मास के दोषों का प्रतिक्रमण करना चानमासिक और संवत्सरी पर्व के दिन वर्ष भर के दोपों का प्रतिक्रमण करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण के सामान्य रूप से दो भेद भी किये जाते हैं-(१) द्रव्य प्रतिक्रमण और (२) भावप्रतिकमण । लोकदिखावे के लिए किया जाने वाला प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण है और वह उपादेय नहीं है । सञ्ले अन्तकरण से, किये हुए दोप्ने के
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लोलहवा अध्याय प्रति ग्लानि पूर्वक जो दोष-संशोधन किया जाता है, वह भावप्रतिक्रमण है । भावअतिक्रमण से ही प्रात्मा निर्मल होता है।
(५) कायोत्सर्ग-धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान के लिए एका चित्त होकर शरीर पर ले समता का त्याग करदेना ज्ञायोत्सर्ग कहलाता है । कायोत्सर्ग से देह की एवं बुद्धि की जड़ता दूर होजाती है । इससे शरीर संबंधी त्रासाल में न्यूनता श्रा जाती है और सुख-दुःख से समभाव रखने क्षी शाह प्रकट होती है। ध्यान के अभ्यास के लिए भी कायोत्सर्ग की आवश्यकता है।
कायोत्सर्ग के समय लिये जानेवाले श्वासोच्छास का समय लोक के एक चरण के उच्चारण के समय जितना बतलाया गया है। कायोत्लर्ग के विषय में कहा गया है
प्र०--काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे कि जणयह ?
उ०-काउस्लम्गेण तीयपद्धप्राणं पापच्छित्तं विसोहेइ । विसुद्धपायाच्छत्ते ये जीवे निव्वुयहिबए ओहरिय अरुध्वभारवहे पसस्थझारपोवगए सुई सुहेणं विहरह । ।
अर्थात्-प्रश्न-भगवन् ! कायोत्सर्ग करने से जीव को क्या लाभ होता है?
उत्तर-कायोत्सर्ग से जीव भूतकालीन एवं भविष्यकालीन प्रायश्चित्त की विशद्धि करता है । प्रायश्चित्त की विशुद्धि करने वाला जीव निवृत्त-हृदय होता है
और वोझ उतार डालने वाले भारवाहक के समान-हल्का होकर-प्रशस्त ध्यान धारण करके सुखपूर्वक विचरता है।
(६) प्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग करना । त्यागने योग्य वस्तुएँ दो प्रकार की हैं, अतपच प्रत्याख्यान भी दो प्रकार का है-(१) द्रव्य प्रत्याख्यान और ( २ ) भाव प्रत्याख्यान । वस्त्र, आहार आदि वाह्य पदार्थों का त्याग करना द्रव्य प्रत्याख्यान और राग-द्वेष, मिथ्यात्व, अशान प्रादि का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है।
प्रत्याख्यान करने से पानव का निरोध होता है और संवर की वृद्धि होती है। जीव में जो अनन्त तृष्णा है बह लीमित होकर शनैःशनैः नष्ट हो जाती है और सम. भाव ही जागृति होती है । ज्या-ज्या समभाव जागृत होता जाता है त्यों-त्यों सुख की उपलब्धि होती है। शास्त्र में कहा है
प्रश्न-पच्चकखाणेणं भंते ! जीवे कि जणयह ?
उत्तर-पच्चवागणं जीव पासवदाराई निरुरुभइ । पच्चास्त्राणेणं इच्छा-- निरोहं जणया । इच्छानिरोहं गए यणं जीवे सव्वव्येसु विणीयतरहे सीईभूए बिहरह।
अर्थात्--प्र० भगवन् ! प्रत्याग्न्यान ले जीव को क्या लाभ होता है ?
७०-प्रत्याख्यान से जीव कमी के आगमन का मार्ग रोक देता है। प्रत्याभ्यान से इच्छा का निरोध होता है । इच्छा का निरोध करने वाला जीव सव द्रव्यों में वाणा
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[ ६२२ ]
· श्रावश्यक कृत्य से रहित होने पर, शान्ति का अनुभव करता है।
श्राहार आदि के त्याग में काल की अपेक्षा अनेक प्रकार होते हैं और उनके प्रत्याख्यान भी अलग-अलग हैं। *
* (१.) नमोकारली का प्रत्याख्यान:---
'सूरे उग्गए नमुक्कार संहियं पञ्चक्खामि असणं, पाणं, खाइम, साइम, अन्न. स्थणाभोगेणं, सहस्सागारेणं ।'
(२) पौरुषी का प्रत्यास्थानः--
" सूरे उग्गए पोरसिहियं पच्चक्खामि, असणं, पाणं, खाइमं, साइम, अन्नत्थ- . णाभोगेणं, सहस्लागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे।
[३] एकाशन का प्रत्याख्यान:--
'एग्गालणं पच्क्खामि असणं, पाणं खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहस्सागारेणं, श्राउट्टणपसारेणं, गुरुश्रभुडाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमहिवत्तियागारेणं, बोसिहे।
(४) एकलठाणा का प्रत्याख्यान ।
'एकलठाणं पच्चक्खामि असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, गुरु अन्भुट्टाणेणं, सवसमादिवत्तियागारणं वोसिरे।' . (५) निधिगई का प्रत्याख्यान:--
निविगइयं पच्चस्वामि--असणं, पाणं, स्वाइम, साइमं, अन्नत्थरणाभोगेणं,. बरसागरण, निहत्थसंसे?णं, उक्खित्तविवगाणं, पडुच्चविगएणं, परिछावणियागारेणं. महत्सरागारेणं, सव्वसमाहियावत्तियागारेणं वोसिरे।'
इस प्रत्याख्यान में विगय का त्याग करके प्रायः रूखी-सूखी रोटी और बाछ या ऐसा ही कुछ खाया जाता है।
(६) आयंबिल का प्रत्याख्यान:
'आयविल पच्चक्वामि--असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगोणं, सहसागारणं, लेवालेवेणं, उफ्वित्तविवगाणं, महत्तरागारेण, सव्यसमाहिवत्तिया. गारेणं वोसिरे।
(७) उपवास का प्रत्याश्यानः--
• सूरे उग्गए श्रमत्तं पच्चक्खामि--असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सद्दसागारेणं, महत्तरागारेणं, लब्बसमाहवारी यागारेणं योसिरे।'
(८) दिवस चरम का प्रत्याख्यान:--
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लेलिहवा अध्याय
। ६२३ ] · श्रावश्यकों का अनुष्ठान करने वाला ही धर्म का आराधक है। अतएव प्रत्येक लाधु और श्रावक को अपनी-अपनी सादा के अनुसार उनका आचरण करना चाहिए। मूलः-सावजजोगविरई, उक्कित्तण गुणवत्रो य पडिवत्ती ।
खलिअस्स निंदणा, चणतिगिच्छ गुणधारणा चेव १८ छायाः-सावद्ययोगविरतिः, उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः।।
स्खलितस्य निन्दना, व्रणचिकित्सा गुणधारणा चैय ॥८॥ शब्दार्थः-हे गौतम ! सावध योग से निवृत्ति, ईश्वर के गुणों का कीर्तन, गुणी पुरुषों का आदर, अपनी स्खलना की निन्दा, व्रण (घाव ) के समान आचरित दोष के लिए प्रायश्चित रूपी चिकित्सा और स्याग रूप गुण को धारण करना चाहिए।
भाष्यः--जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए जिन-जिन बातों की श्रावश्यकता है, यहां शास्त्रकार ने उनका उल्लेख्न क्रिया है।
सावध का अर्थ है- पाप । जो पापयुक्त हो वह सावध कहलाता है । मन, वचन और शरीर की क्रिया को योग कहते हैं। योग का स्वरूप पहले वतलाया जा चुका है। तात्पर्य यह है कि जीवन-शुद्धि के लिए सर्वप्रथम मन, वचन और काय को निष्पाप बनाना चाहिए । पाप में इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
'उकित्तण' अर्थात् परमेश्वर के गुणों का कीर्तन करना। कुछ लोगों की ऐसी भावना है कि दयावान् परमेश्वर के गुणों की स्तुति करने से वह प्रसन्न हो जाता है
और स्तुति करने वाले के पापों को क्षमा कर देता है। किन्तु वास्तव में यह सत्य नहीं है । किये हुए पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। ईश्वर को ऐसा चापलूसीपसन्द नहीं है कि पाप करने वाले उसकी प्रशंसा करें तो वह पाप के फल से मुक्त कर दे। ऐसा होना संभव भी नहीं है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि, अगर ऐसा नहीं है तो ईश्वर का गुण-कीर्तन किस उद्देश्य से किया जाता है ? इस प्रश्न का संक्षिप्त समाधान इस प्रकार है।
वास्तव में आत्मा और ईश्वर में कुछ भी मौलिक अन्तर नहीं है । जो कुछ भी अन्तर है, वह अवस्था का अन्तर है । जो श्रात्मा अपने श्रज्ञान, कालुप्य आदि को सर्वथा नष्ट कर चुका है, जिसने श्रात्मा की स्वाभाविक स्थिति प्राप्त करती है वद ईश्वर है और जो श्रात्मा श्रज्ञान आदि विकारों से ग्रस्त है यह. संसारी आत्मा कह
'दिवसचरिमं पच्चक्वामि--असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्यणामोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, लम्बसमाहियत्तियागारेणं चोसिरे ।'
इत्यादि अनेक प्रकार की छोटी-पड़ी तपस्याओं के प्रत्याध्यान है, जिनमें थोड़ा-धोड़ा अन्तर होता है।
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। ६२४ ।
श्रावश्यक कृत्य लाता है। इस स्थिति में, ईश्वर के गुणों का कीर्तन करना आत्मा के वास्तविक और स्वाभाविक गुणों का कीर्तन करना ही है। प्रश्ने श्रेष्ठ गुणों का स्मरण करने से उन गुणों के प्रति आकर्षण बढ़ता है और उन गुणों को श्राच्छादित करने वाली प्रवृत्तियों से घुणा उत्पन्न होती है। ऐसा होने पर आचरण में पवित्रता श्राती हैं प्रात्मा स्वयं परमात्मा बनने के लिए अग्रसर होता है । इस प्रकार ईश्वर का स्मरण एवं कीर्तन श्रात्मा को पवित्रता की ओर प्रयाण करने की प्रेरणा करता है, अतएव उसे जीवन्न शुद्धि का कारण माना गया है।
जीवन-शुद्धि का तीसरा तत्व है गुणवान पुल्पों-गुरुजनों को वंदना-नमस्कार श्रादि नम्रतापूर्ण व्यवहार से यथोचित श्रादर प्रदान करना । गुणवान् गुरुओं को वन्दना नमस्कार करने का प्रयोजन गुणों की प्राप्ति, अवगुणों के प्रति त्याग का भाक और गुरु प्रसाद है।
चौथा जीवनशोधक उपाय है-स्वलित की निन्दा करना कोई पुरुष कितना ही सावधान रहे, क्रिया करते समय कितनी ही सावधानी करते, फिर भी मन से. वचन से या काय से स्खलना होना अनिवार्य है। संयम का अभ्यास करने वाला कभी न कभी अपने पद से, अपने कर्त्तव्य से, च्युत हो ही जाता है । मगर. च्युत होना जितना वरा नहीं है उतना उसकी निन्दा-गहों न करना बुरा है । स्खलना होते ही अगर आत्मसाक्षी से या गुरुसाक्षी से उसकी निन्दा की जाय, उसके लिए पश्चाचाप प्रकट किया जाय तो स्खलना का शीघ्र संशोधन हो जाता है । खलना की निंदा को आलोचना या 'पालोयगा' कहते हैं। पालोचना करने से पाप के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न होता है और चित्त को आश्वासन मिलता है।
जीवन शुद्धि के लिए पांचवां उपाय व्रणचिकित्सा' है । व्रण का अर्थ है--
से शरीर में घाव हो जाने पर उसकी चिकित्सा की जाती है, उसी प्रकार . प्रमाद श्रादि से प्राचरित दोपों का प्रायश्चित्त करना आस्मिक : व्रणचिकित्सा' है। प्रायश्चित्त का वर्णन पहले किया जा चुका है।
उन पांचों उपायों का अवलम्बन करने से छठा उपाय गुणधारणा-स्वयं प्रादु. भंत हो जाता है। लद्गुणों का स्वरूप लमंझना, गुणीजनों की संगति करना, गुण धारण करने का संकल्प करना, गुण के विरोधी दापों के प्रति अल्ची स्थिर करना त्यादि प्रकार से गणों को धारण किया जाता है । यहां संयम रूप गुण को जीवन शुद्धि का कारण बतलाया गया है। संयम ही समस्त गुणों से मूर्धाभिषिक गुण है।
इन छह उपायों के अवलम्बन से प्रात्मा, शुद्ध, निष्कलंक, निर्विकार, निरंजन अवस्था प्राप्त करता है। अतएव क्या साधु पोर क्या धारक, सभी को इन गणों का यथाशक्ति धारण-पालन करना चाहिए। मूल:-जो समो सव्व भूएसु, तसेसु थावरे सु य ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ॥ १६ ॥
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सोलहवां अध्याय
[ ६२५ ] ___ हायाः-यः समः सर्व भूतेषु, सेघु स्थावरे पु च ।
तस्य सामायिकं भवति, इति केवलि भाषितम् ॥ १६ ॥ शब्दार्थ:-जो पुरुष त्रस और स्थावर रूपी सभी प्राणियों में समभाव रखता है, उसीके सामायिक होती है, ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है।
भाज्य:-श्रावश्यक क्रिया में सामायिक प्रधान है। सामायिक लाध्य है, शेष क्रियाएँ साधन हैं । अतएव उसकी सहता प्रदर्शित करने के लिए यहां सामायिक का पृथक निरूपण किया गया है।
जो पुरुष त्रस अर्थात द्वीन्द्रिय, जीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिव जीवों पर तथा स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय श्रादि प्राणियों पर लमभाव रखता है, उसी प्रकार की लाायिक सच्ची सामायिक हैं। केवली भगवान ने ऐसा कथन किया है।
___ सामायिक शब्द का अर्थ बतलाते हुए पहले कहा जा चुका है कि जिस किया ले समभाव की प्राप्ति होती है, उसे सामायिक कहते हैं । किन्तु समभाव का साधार क्या है ? समसाव किस पर होना चाहिए ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण यहां किया गया है । जगत् के समस्त जीर बल और स्थावर-इन दो श्रेणियों में समाविष्ट हो जाते हैं। उन पर समभाव रखना अर्थात प्राणिमात्र पर लमभाव रखना कहलाता है।
तात्पर्य यह है कि अपने ऊपर जैसी भावना रहती है, वैसी ही भावना अन्य प्राणियों पर रहनी चाहिए । हमें लुख प्रिय है, तो दूसरों को भी सुख प्रिय है। हमारे सुख-साधनों का अपहरण होना हमें रुचिकर नहीं है तो अन्य प्राणियों को भी उनके सुख साधनों का विनाश रुचिकर नहीं है। जैसे हम अपने सुख के लिए प्रयास करते हैं, उसी प्रकार अन्य प्राणी सी अपने-अपने सुख के लिए निरन्तर उद्योगशील रहते हैं। दुःख और दुःख की सामग्री से हम बचना चाहते हैं, दुःख हमें अनिष्ट है और दुःख पहुंचाने वाले को हम अच्छा नहीं मानते, इसी प्रकार अन्य प्राणी भी दुःख से और दुःख की लामन्त्री ले बचना चाहते हैं। उन्हें जो कष्ट पहुंचाता है उसे वे भी अच्छा नहीं मानते । इसी प्रकार जैसे हमें जीवन प्रिय और मरण अप्रिय है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीवन प्रिय और सरण अप्रिय है। जब कोई कर पुरुप हमारा जीवन नष्ट करने पर उतारू होता है तब हमारे अन्तःकरण में उसके प्रति जैसी भावना उत्पन्न होती है, ठीक इसी प्रकार की भावना अन्य प्राणियों के हृदय में भी उनके हिंसक के प्रति उत्पन्न होती हैं । अपने लिए कठोर एवं मर्मवेधी वाक्य सुनने से हम असाता अनुभव करते हैं, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी साता का अनुभव होता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी का सुख-दुःख समान है। अतएव प्रत्येक प्राणी को दूसरे प्राणी के साथ पैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा पE अपने प्रति करता है अथवा अपने लिए अभीष्ट समझता है। यह समभाव है।
प्रस और स्थावर जीवों पर समभाव धारण करने पर अधिकांश में राग-द्वेष रूप परिणति में न्यूनता था जाती है । विपम-भाव का विष समता रूप सुधा के
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आवश्यक कृत्ये संसर्ग से हट जाता है और साम्यसुधा अजर-अमर पद का कारण हो जाती है।
त्रस और स्थावर जीवों को उपलक्षण समझकर अजीव पदार्थों का भी ग्रहण करना चाहिए। जैसे जीव मात्र पर समता भाव आवश्यक है उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द आदि पर भी समभाव का होना आवश्यक है। मनोज्ञ विषयों में राग करना और अमनोज्ञ में द्वेष धारण करना हेय है । चित्त को इतना समभावी बनाना चाहिए किसी भी विषय पर राग या द्वेष, उत्पन्न न होने पावे।
इस प्रकार जीव और अजीव पदार्थों पर समभाव रखने वाला ही सच्ची सामायिक करता है । इस प्रकार की सामायिक के द्वारा ही आत्मा का कल्याण होता है। कहा है
कर्म जीवं च संश्लिष्ठं, परि ज्ञातात्मनिश्चयः ।
विभिन्नीकुरुते साधुः सामायिक शलाकया ॥ अर्थात् आत्मा के स्वरूप का ज्ञाता साधु पुरुष मिले हुए कर्म और जीव को सामायिक रूपी सलाई से जुदा-जुदा कर देता है।
साम्यभाव की महिमा अपार है। जिसके चित्त में सास्यभाव उदित हो जाता है वह किसी का शत्रु नहीं रहता और न कोई उसका शत्रु रह जाता है। साम्यभावी का वर्णन इस प्रकार किया गया है:.. निहन्ति जन्तवो नित्यं, वैरिणोऽपि परस्परम् ।
अपि स्वार्थ कृते साम्यभाज: साधोः प्रभावनः ।। अर्थात्-अपने हित के लिए साम्यभाव धारण करने वाले साधु के प्रभाव से, स्वभाविक वैरी प्राणी भी आपस में स्नह करने लगते हैं। अर्थात साधु पुरुप समताभाव अपने लिए धारण करता है, पर लाभ उससे अन्य प्राणियों को ही होता है. यह साम्यभाव का कितना माहात्म्य है।
समभाव के प्रभाव से ही तीर्थकर भगवान के समवशरण में सिंह और हिरन जैसे परस्पर विरोधी जीव एकत्र यैठते हैं । इस प्रकार समताभाव का माहात्म्य जानं कर, प्राणी मात्र पर 'सव्वभूअप्पभू' अर्थात् सर्वभूतात्मभूत प्रशस्त भाव धारण करना चाहिए । इस श्रेष्ठ भावना के विना सम्धी भाव सामायिक नहीं हो सकती।
शास्त्रकार ने स्वरूचि विरचितता दोष का परिहार करने के लिए कहा है'इट केवलि भासिय' अर्थात सर्वश भगवान ने इस २ प्रकार का कथन किया है, अतएव वह सर्वथा निःशंक है।
मूलः-तिरिणय सहस्सा सत्त सयाई, तेहुत्तरिं च ऊसासा।
एस मुहुत्तो दिट्ठो, सव्वेहिं अणंतनाणीहिं ॥ २० ॥
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लोलहवां अध्याय
[ ६२७ ] ___ छाया:-त्रीणि सहस्राणि सप्त शतानि, त्रिसप्ततिश्च उच्छ्वासः ।
एप मुहूत्ततॊ दृष्टः, सर्वैरनन्त ज्ञानिभिः ॥२०॥ शब्दार्थः-तीन हजार, सात सौ, तिहत्तर उच्छ्वास परिमित काल समस्त सर्वज्ञों ने एक मुहूर्त देखा है।
भाष्यः-प्रकृत अध्ययन में आवश्यक कृत्यों का विधान किया है और श्रावश्यक कृत्यों के लिए नियत काल की आवश्यकता होती है । तथा इससे पहले सामायिक का निरूपण किया गया है और सामायिक का समय पूर्वाचार्यों ने एक मुहूर्त नियत किया है। अतएव मुहूर्त का परिमाण बतलाना आवश्यक है। इसीलिए यहां मुहूर्त का काल परिणाम बताया गया है। तीन हजार, सात सौ तिहत्तर उच्छास में जितना समय लगता है, उतना समय एक मुहूर्त कहलाता है । स्वस्थ पुरुष का, स्वाभाविक क्रम ले उच्छ्वास लेना, कालगणना में ग्रहण किया जाता है। .
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-सोलहवां अध्याय समाप्त
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• ` * ॐ नमः सिद्धेश्य नियन्थ-प्रवचन्ह ॥ सत्रहवां अध्याय ।।
* *Cato*नरक-स्वर्ग निरूपण
श्री भगवान्-उवाचमूलः-नेरड्या सत्तविहा, पुढवी सतसू भवे ।
रयणाभा सक्कराभा, बालुयाभा य ाहिया ॥ १ ॥ पंकामा धूमाभा, तमा तमतमा तहा। '
इय नेरइशा एए, सत्तहा परिकितिया ॥२॥ - छायाः-नैरायेकाः सप्तंविधाः, पृथ्वीषु सप्तसु भवेयुः।
रत्नाभा शर्कराभा, वालुकामा च पाख्याता ॥१॥ पसाभा धूमाभा, तमः तमस्तसः तथा।
इति नैरयिका एते, सप्तधा परिकीर्तिताः॥२॥ - शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! सात पृथ्वियों में रहने के कारण नरक सात प्रकार के कहे गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और तमतमभा ।
भाज्या-सोलहवें अध्याय में आवश्यक कृत्यों का वर्णन किया गया है । जो विवेकी पुरुष श्रावश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं उन्हें इस पंचम काल में भी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। और जो आवश्यक क्रियाओं में निरादर की बुद्धि रखते हुए पाप कार्यों में पास रहते हैं, हिसा आदि घोर एवं क्रूरतापूर्ण कार्य करते हैं, उन्हें नरक को अतिथि बनना पड़ता है। अतः आवश्यक क्रियाओं के निरूपण के पश्चात् नरक और स्वर्ग का निरूपण किया गया है।
नरक का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए लोक का वर्णन करना आवश्यक है, अतएव संक्षेप में यहां लोक का स्वरूप लिया जाता है । अनन्त और असीम प्राकाश के जितने भाग में जीव, पुदगल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय श्रादि द्रव्य पाये जाते हैं, उस भाग को लोक कहते हैं। लोक को तीन प्रधान विभागों में विभक्त किया गया है-अर्ध्व लोक, मध्य लोक और अधो-लोक।
मेरु पवर्त के समतल भूमि माग से नौ सौ योजन ऊपर ज्योतिष चक्र के ऊपर
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Dinmalantualitadiubattitudnlad
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ধংলা স্যা का सम्पूर्ण लोक ऊर्ध्व लोक कहलाता है । यह दंग के आकार का हैं । और मेल पर्वत के लमतल भाग से नौ सौ योजद नीचे का क्षेत्र अधोलोक कहलाता है। इसकी श्रीकृति उल्टे किये हुए लकारे के समान है । अधोलोक और ऊर्व लोक के बीच का अठारह सौ योजन का क्षेत्र मध्य लोक कहलाता है । इसका आकार पूर्ण चन्द्रमा के लमान है।
___ मध्यलोक. नीचे, अधोलोक मे लान भूमियों हैं । उनके नाम हैं--(१) रत प्रभा (२) शर्कर प्रभा ( ३ ) चलूका प्रभा (४)पंक प्रक्षा (५) धूमप्रभा (५).तम प्रभा (७ ) तमतमा प्रभा। पेडुर्य रत्न के समान है प्रभा जिलकी उसे रत्न प्रभा कहा गया है । दूसरी भूमि में शर्कर के समान प्रभा होती है इस कारण शर्कर प्रभा कहते हैं। इसी प्रकार वालू पंक और धूम्र के समान है-प्रभा जिसकी उसको यथाक्रम बालू का प्रभा, पंक प्रभा और धूम्न प्रभा कहते हैं। और जहां अन्धकार है उसे तम प्रभा कहते हैं और जहां विशेष अंधकार है उसे तमतमा प्रभा सातवां नरक कहते हैं।
इन सातों नएको में क्रमशः तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पांच, तीन और एक प्रस्तर (पाथड़े ) । प्रथम से तेरह-तेरह, द्वितीय में स्यारह इत्यादि कम से कुल उनपचास पाथहे हैं। सातो नरकों में चौरासी लाख विल (रकादास ) हैं । पहले नरक में तीन लाख, दूसरे से पच्चीस लाल, सीलरे में पन्द्रह लाख, चौथे में इस लाख, पांचवे में तीन लाख, छठे में पांच कम एक लास्न और सातवें नरक में सिर्फ पांच नरकाबास हैं।
इन नरकासालों में निवास करने वाले नारकी जीवों की लेश्या, परिणाम, शरीर चेदना और विक्रिया निरन्तर अत्यन्त अनुभ होती है।
प्रथम और द्वितीय नरक में कपोत-लेश्या होती है। तीसरे में ऊपर के भार में कपोत लेश्या और नीचे के भाग में नील लेश्या होती है । चौथे नरक से नील लेश्या होती है। पांचवें में ऊपरी भाग नील और अधोभाग में कृष्ण लेश्या है। छठे में कृपण और सातवें नरक में महाकृष्ण लेश्या विद्यमान रहती है। द्रव्य लेश्याओं की अपेक्षा यह कथन किया गया है । भाव लेश्या अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तिर होती रहती है, सगर वह भी अशुभ ही होती है।
इसी प्रकार स्पर्श, रस, गंध एवं चक्षु तथा श्रुत इन्द्री का परिमन भी अतीच अशुभ होता है। नारकी के जीवों का शरीर भी अशुभ नाम कर्म के उद्य ले विकृत प्राकृतिाला और देखने में अत्यन्त कुरूप होता है। ____ नारकी जीवों की वेदना का वर्णन श्रागे और किया जायगा । नारकिय के जीव चैझिय से चोर से नाना रूप बना सकते हैं । मगर पार कर्म के उदय रे जो रूप धारण करते हैं वह उनके अधिकतर दुस का ही कारण होता है।'
नारकी जीवों की वेदना प्रधान रूप से तीन प्रकार की होती हैं-(१) पार
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नरक-स्वर्ग-निरूपण्ड स्परिका (२) श्रासुरी और ( ३ ) क्षेत्रजा ।
नारकी के जीव विभंग ज्ञान के द्वारा दूर से ही अपने पूर्वभव के बैरी को जान कर अथवा सीप में एक दूसरे को देख कर भाग बबूला हो जाते हैं। उनकी क्रोधानिसहसा भड़क उठती है । तत्पश्चात् वे अपनी ही विक्रिया से तलवार, फरसा आदि अनेक प्रकार के शस्त्र बनाकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं। इतना ही नहीं, वे अपने हाथों से, पैशेले, दांतों से भी आपस में छेदन-भेदन करते हैं । इससे उन्हें असीम कष्ट होता है । इस प्रकार का व्यापार निरन्तर जारी रहता है । यह वेदना पास्परिक वेदना कहलाती है।
दूसरी वेदना कासुरी है। परमाधामी असुर जाति में देवता तीसरे नरक तक जाते हैं और वे नारकी जीवों को घोर यातना पहुंचाते हैं। नरक रूप क्षेत्र के. कारण से उत्पन्न होनेवाली वेदना क्षेत्रजा वेदना कहलाती है।
__ इस प्रकार की वेदनाओं को सहन करने पर भी लारकी जीवों की अकालमृत्यु नहीं होती, क्योंकि व अनपवर्त्य भायु वाले होते हैं। उन्हें अपनी परिपूर्ण श्रायु भोगनी ही पड़ती है। पहले रत्नप्रक्षा नरक में उत्कृष्ट (अधिक से अधिक ) आयु एक प्लागरोपम की है । शर्करा प्रभा में तीन लागरोठम झी, बालुका प्रभा में सात सागरोफस की, पंकप्रभा में दस सागरोपम की, धूमप्रभा में सतरह सगरोपम की तमप्रभा में बाईस सामरोपम की और तमतमा प्रसा में तेतील सागरोपम की उत्कृष्ट आयु है। पहले नरक में ( कम से कम ) छायु दल हजार वर्ष की है। तत्पश्चात पहले-पहले नरक की उत्कृष्ट श्रायु का जितना परिमारा है, अगले-अगले नरक की जघन्य आय का वही परिमारण है ! अर्थात् दूसरे नरक की जघन्य आयु एक सागरोपम तीसरे नरक की तीन सागरोउम इत्यादि। - नरक गति में कौन जीव, किस कारण से जाते हैं और उनकी वहां कैसी दुर्दशा होती हैं, यह शासकार स्वयं भागे निरूपण करते हैं। मूलः-जे केइ बाला इह जीवियट्ठी,
... पावाई कम्माई करेंति रुद्धा। . ते घोररूवे तमिसंधयारे,
तिव्वाभितावे नरए पडंति ॥ ३ ॥ ठाया:-ये केऽपि वाला इह जीवितार्थिनः, पापानि कर्माणि कुर्वन्ति द्धाः।
ते घोररूपे तमिस्त्रान्धकारे, तीव्राभिताधे नरके पतन्ति ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:-इस संसार में कितनेक अज्ञानी र पुरुष अपने जीवन के लिए पाप कर करते हैं, वे अतीव भयानक, अत्यन्त अन्धकार से युक्त और तीव्र संताप वाले नरक में जाकर गिरते हैं।
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सतरहवां अध्याय
[ ६३१ ]
भाष्यः - गाथा का अर्थ स्पष्ट है । भावी हित-अहित का विचार न करने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कहलाते हैं । मिथ्यात्वजन्य अज्ञान के वशीभूत होकर जो जीव पापमय जीवन व्यतीत करने के लिए घोर हिंसा करते हैं, महान् आरंभ एवं महान् परिग्रह से युक्त होते हैं, उन्हें नरक में जाना पड़ता है। तरक घोर रूप अर्थात् अत्यन्त भयंकर हैं, घोर अन्धकार से व्याप्त है और दुस्सह यातनात्रों का धाम है ।
·
श्राशय यह है कि विविध प्रकार की बेदनाओं से व्याप्त नरक से बचने की
अभिलाषा रखने वालों को पाप कर्मों से विरत हो जाना चाहिए ।
मूलः - तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य,
जे हिंसती प्रयसुहं पडुच्च । - जे लूसए होइ प्रदत्तहारी,
ण सिक्ख सेयवियस्स किंचिया || ४ ||
छाया:- तीव्रं प्रसान् प्राणिनः स्थावरान् च, यो हिनस्ति श्रात्मसुखं प्रतीत्य । यो रूपको भवत्यदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयरूप किञ्चित् ॥ ४ ॥
शब्दार्थः -- जो जीव अपने सुख के लिए त्रस और स्थादर प्राणियों की तीव्रता के साथ हिंसा करता है, जो प्राणियों का उपमर्दन करता है, बिना दिये दूसरे के पदार्थों को महण करता है और सेवन करने योग्य ( संयम ) का तनिक भी सेवन नहीं करता, वह नरक का पात्र बनता है ।
भाग्यः - जो पुरुष अपने सुख के लिए अन्य प्राणियों के दुःख की चिन्ता नहीं 'करता, दूसरे मरे या जीयें इस बात का विचार न करके अपने ही सुख के लिए प्रयत्न किया करता है, साथ ही बस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है अर्थात् उनके माणों का व्ययरोपण करता है, अन्य प्राणियों को सताता है, दोरी जैसे कुत्सित कार्य करता है और संयम का किंचित् मात्र भी सेवन नहीं करता, वह नरक में जाकर घोर वेदनाएँ भोगता है ।
प्रकृत गाथा में 'हिंसइ' और 'लसए' दो क्रिया पर एक-सा अर्थ बतलाते हैं, पर दोनों का अर्थ एक नहीं है । 'हिंस' का अर्थ है-किसी जीव को शरीर और प्राणों से भिन्न करना अर्थात् मार डालना । 'लुसए' का अर्थ है-किसी जीव को उपमर्दन करना, उन्हें सताना, कष्ट पहुंचाना 1
पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत श्रावक भी कृषि एवं वाणिज्य आदि कार्य करता है और उसमें श्रारम्भजन्य हिंसा भी अवश्य होती है । फिर भी यह नरक में नहीं जाता। इसका कारण यह है कि वह दिसा संकल्पजा न होने के कारण तीव्रभाव से नहीं की जाती। इसी आशय को व्यक्त करने के लिए शास्त्रकार ने 'दिस' का विशेषण 'तिब्धं दिया हैं । 'तिव्यं' पद यहां क्रिया विशेषण हैं | अतिशय क्रूर परिणामों
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नरक-स्वर्ग-निरूपण ने की जाने वाली संकल्पना हिंसा का फल नरक है। श्रारम्भजा हिंसा में हिंसात्मक भावना न होने से उसे तीव्रभाव से की गई हिंसा नहीं कहा जा सकता।
"रण लिक्वद सेयवियस्ल किंचि' इस पद से उल्ल प्राशय की अधिक पुष्टि होती है। तात्पर्य यह है कि नरक का अधिकारी वह होता है जो संयम का किंचित् भीएक देश भी पालन नहीं करता । जो पुरुष किसी वस्तु का भी त्याग नहीं करता, त्रतएव जो सर्वथा संयमी होता है वही नरक का पात्र होता है। श्रावक देश संयम का यालन करता है, अतएव वह सर्वथा असंयमी नहीं कहा जा सकता। यही कारण है. कि भार समजा हिंसा करने पर भी, परिणामों में लौस्यता, दयालुता, श्रादि सद्गुणो के कारण वह नरक में नहीं जाता है।
इस कथन ले त्याग की महिमा स्पष्ट हो जाती है। त्यागी पुरुष के लिए नरक का द्वार बन्द हो जाता है। अतएव प्रत्येक विवेकशील पुरुष को अपनी शक्ति एवं. शरिस्थिति के अनुसार पाए का त्याग वश्य करना चाहिए।
इस गाथा से यह भी प्रकट है कि बुद्धिमान पुरुष को अपने ही सुख के लिए अन्य प्राणियों को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। जो लोग अपना जीवन अत्यन्त विलासितापूर्ण, असंयममय और असन्तोषशील बनाते हैं. वे अपने सुख के लिए तीन श्रारम्भ और अपरिमित परिग्रह करके अन्य प्राणियों की पीड़ा की परवाह नहीं करते। उन्हें शास्त्रकार के इस कथन पर ध्यान देना चाहिए । अल्पकालीन और कल्पित सख के लिए दीर्घकालीन छोरतर वेदनाओं को श्रापत्रण देना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतएक नरक के स्वरूप को लमझकर पाप से बचने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए । मूलः-छिदंति बालस्स खुरेण नक्कं,
उट्टे विछि दति दुवे वि करणे । जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं,
तिक्वाहिस्लाभितावयंति ॥ ५ ॥ छाया:-छिन्दन्ति वालस्य पुरेण नासिकान्, श्रोष्ठावपि छिन्दन्ति द्वापि करें ।
जिह्वां विनिप्कास्य वितस्तिमात्रं, तिक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥ ५॥ शब्दार्थ:--परमाधार्मिक देवता विवेकहीन नारकियों की नाक काट लेते हैं, दोनों मोठ और दोनों कान काट लेते हैं और बिलात भर जीभ बाहर निकालकर उसमें ताले शूल चुभाकर पीड़ा पहुँचाते हैं।
भाष्यः-नरक गति के कारणों का निरूपण करने के पश्चात् यहां श्रासुरी वेदना का कथन किया गया है। परमाधार्मिक जाति के असुर नरक में नारकियों को भीपण वेदना पहुंचाते हैं। यह परमाधार्मिक पन्द्रह प्रकार के हैं । उनके नाम एस
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लत्तरहवां अध्याय
[ ६३३ ] अंवे अंबरिसी चेव, सामे य लवले वि य । रोदोवरुद्द काले य, महाकाले त्ति पावरे ॥ श्रलिपत्तेघणुं कुंभी, वालु वेयरणीवि य ।
खरस्सरे महाघोले, एवं परापरलाहिया ॥ - अर्थात्-(१) बारव (२) अम्बरीष (३) लम (४) शवल (५) रौद् (६) उपरौद् (७) काल (८) महाकाल (६) अस्थिर (१०) पत्रधनुष (११) कुंभी ( १२ ) बालुका (१३) वैतरणी (१४) खरस्वर और (१५). महाशेप, यह परमाधार्मिक असुरों के पन्द्रह भेद हैं।
___यह श्रासुर नारकी जीवों को जो वेदना पहुंचाते हैं, उसका संक्षेप में, निम्नलिखित गाथाओं में वर्णन किया गया है:
धाति य हाति य, हणति विघंति तह निसुंभीत। मुंचंति अम्बर तले, अख्या खलु तत्थ नेरइया ॥ श्रोहयये ये तहियं, णिसन्न कप्पणीहि कप्पति । विदुलग चडुलगच्छिन्ने, अंबरिसी तत्थ नेरइए ॥ साडण पाडण तोडण, बंधणरज्जुल्लयप्पहारेहिं। सामा णेरइयाणं पवतयंती अपुरणाणं ॥ अन्तगय फिटिफ साणि य हियय कालेज फुप्फु से वम्के । सबला ऐरइयाणं कड्ढेति तहिं अपुराणाणं ॥ असि सत्ति कुंत तोमर सूलति सूलेसुसूरचिय गासु। पोयंति रुद्धकम्मा उ रगरगपाला तहिं रुद्धा॥ भंजति अंग मंगाणि ऊरू वाहू सिराणि कर चरणे। कप्पेति कप्पणीहिं उवरुद्धा पाव कम्मरया । सरािसु सुंठएमु य कंजूसु य पयंडएसु य पयति । कुंभी य लोहिएतु य पयंति काला उ गरइए ।। कप्पंति कागिणी मंलगाणि छिदति सीह पुच्छाणि । खावति य गरइए महाकाला पावकम्मरए । हत्थे पाये ऊरू, बाहुलिरापास अंग मंगाणि । छिदंति पगामं तु असि. गरइप निरयपाला ॥ करणोहणास कर चरण दसएट्टण फुग्ग ऊरु वाहण। छेयण भेयण खाजण असिपत्त धणूहिं पाडति ।। कुंभीलु य:पयणेस्तु य लोहि यसु य कंदुलोहि कुंभीसु । कुंभी य गरयपाला इगंति पानंति परपसु ! तडतडतडस्स भज्जति मज्जणे फलेवु यालुकाए । चालूगा परश्या लोलती अंथर तलमिम ॥ पूय रुहिर केसट्टि याहिणी कलकलेत जलसोया।
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नरक- स्वर्ग-निरूपण वेयरणि णिरयपाला गेरइए उपवाहति ॥ कप्पंति' कर करहिं तच्छिति परोप्परं पर सुपहिं । सिंबलि तरुमारुन्ती खरस्सरा तत्थ नेरइए॥ भीए य पलायंते समततो तत्थ ते - णिरुमंति। पसुणो जहा पसुबहे महघोसा तत्थ रणरइए ।
-सूयगडांग नियुक्ति. ७०-६४ । अर्थात् अब नामक परमाधार्मिक अपने भवनों से नरक में जाकर नारकी जीवों को शूल आदि के प्रहार से कष्ट पहुँचा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैंक देते हैं, उन्हें इधर-उधर घुमाते हैं और श्राकाश में उछाल कर नीचे गिरते हुए नारकियों को पीड़ा पहुँचाते हैं । गला पकड़ कर भूमि पर पटक देते हैं।
पहले मुद्गर श्रादि द्वारा और फिर तलवार आदि द्वारा उपहत होने के .. कारण नारकी जीव मूञ्छित हो जाते हैं। फिर कर्पणी नामक शस्त्र के द्वारा अम्बरिसी उनका छेदन करते हैं और उन्हें चीर डालते हैं। यह नरकपाल नारकी जीवों को चीर कर दाल के समान अलग-अलग टुकडे कर डालते हैं।
श्याम नामक परमा धार्मिक तीव्रत्तर असातावेदनीय के उदय वाले उन अभागे नारकियों के अंगोपांगों का छेदन करते हैं, पर्वत्त पर से नीचे बजाभूमि पर पटकते हैं, शूलं मादि से वेध डालते हैं, सुई आदि ले नाक श्रादि छेद देते हैं और रस्सी आदि से बांध देते हैं। इस प्रकार वे नारकियों को शातन, पातन, छेदन-भेदन और बंधन श्रादि के अनेक कष्ट पहुँचाते हैं।
सवल नामक नरकपाल नारकी जीवों की अंतड़ियां काट कर फेंफड़े को, हदय को और कलेजे को चीरते हैं तथा पेट की अंतड़ियों को और चमड़े को खींचते हैं।
अपने नाम के अनुसार अत्यन्त क्रुरता पूर्वक पीड़ा पहुँचाने काले रौद्र नामक नरकपाल नारकियों को तलवार, शक्ति आदि नाना प्रकार के तीखे शलों में पिरो देते हैं।
उपरुद्र नामक परमाधार्मिक नारसी जीवों के लिर, भुजा, जांघ, हाथ पैर श्रादि टांगों और उपांगों को तोड़ते हैं और बारे ले उन्हें चीर देते हैं। पाप कर्म में भासह यह नरकपाल सभी प्रकार की यातनाएँ देते हैं।
काल नामक नरकपाल दीर्घचुल्लो-भठी, शुंठक, कन्दुक, प्रचण्डक श्रादि नाम वाले अतिशय संतापकारी स्थानों में नारकियों को पकाते हैं । तथा ऊँट के श्राकार वाली कुंभी में एवं लोहे की कढ़ाई में डालकर जीवित मछली की तरह पकाते हैं।
. पाप-रत महाकाल नामक परमाधार्मिक नारकियों को काट-काट कर कौदी के वरावर मांस का टुकड़ा बनाते हैं, पीठ की चमढ़ी काटते हैं और जो नारकी पूर्व सव में मांस भक्षण करते थे उन्हें उनका ही. मांस दिलाते हैं।
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नरक-स्वर्ग-निरूपण अलि नामक नरकपाल हाथ, पैर, जांध, भुजा, सिर, पसवाड़े आदि अंगों . और उपांगों को काट-कर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं।
तलवार जिनका मुख्य शस्त्र है एसे पत्र धनुष नामक परमाधार्मिक असुर श्रसिपत्र बन को अत्यन्त वीभत्स बनाकर छाया के लिए वहां आये हुए नारकी जीवों को तलवार के द्वारा काट डालते हैं तथा कान, ओठ, नाक, हाथ, पैर, दांत छाती, नितम्ब, जांघ और भुजा श्रादि का छेदन-भेदन शातन करते हैं । यह असुर पवन चलाकर तलवार के समान असिपत्र वन के तीक्ष्ण पत्तों से नारकियों को ऐली वेदना पहुंचाते हैं।
कुंभी नामक परमाधार्मिक ऊंट के समान श्राकार वाली कुंभी में, कढ़ाई के श्राकार के लोहे के पात्र में, गेद के आकार की लोह-कुंभी से तथा कोठी के समान श्राकार की कुंभी में और इसी प्रकार के अन्यान्य पात्रों में नारकी जीवों को पकाते.
वालुका नामक परमाधार्मिक असुर नारकियों को गरमागरम बालू से पूर्ण पात्र में चने के समान भूजते हैं, तब तड़-तड़-तड़ शब्द होने लगता है । कदम्ब के फूल के समान, अग्नि से लाल हुई चालुका कदम्शवालुका कहलाती है । यह अनुर नारकी जीवों को उस बालुझा पर रखकर अाकाश में इधर-उधर घुमाकर भूजते हैं।
वैतरणी नामक नरकपाल वैतरणी नदी को अत्यन्त विकृत कर डालते हैं। वैतरणी नदी में पीत, रक्त, केश श्रादि घृणित चीजें बहती रहती हैं । वह बड़ी ही भयानक है । उलका जल बहुत ही खारा और गर्म होता है । उसे देखते ही घृणा उत्पन्न होती है । वैतरणी नाम के नरकपाल उस नदी में नारकियों को ढकेल कर वहा देते हैं।
खरस्वर नामक नरकपाल नारकियों के शरीर को खंभे की भांति सूत से नाप कर मध्य भाग में आरे से चीरते हैं और उन्हें वापस में कुठार से कटवाते हैं। उनके शरीर के अव-यव छीलकर पतला कर डालते हैं। लाथ ही चिल्ला-चिल्ला कर वज्रमय महा भयंकर काँटों वाले सेमल वृक्ष पर चढ़ाते हैं और फिर उन्हें, नीचे घसीट लेते हैं।
महाघोप नामक परमाधार्मिक असुर भयभीत हो कर इधर-उधर भागने वाले नारकी जीवों को पीड़ा पहुंचाने के स्थान पर रोक लेते हैं। जैसे फसाई या पशुहिंसा करने वाले अन्य शिकारी भागने वाले पशुओं को घेर लेते है इसी प्रकार महायोप नामक असुर नारकी जीवों को घेर कर घोर से घोर यातनाएँ पहुँचाते हैं।
इस प्रकार पाप-कर्म का आचरण करके नरक में जाने वाले नारकी जीवों को बासुरी वेदना का शिकार होना पड़ता है । इतनी भीपण वेदना सहन करने पर भी उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती क्योंकि उनकी घायु किया बद्ध होती है। अतएव जबतक उनकी आयु पूर्ण नहीं हो जाती तर तक उन्हें निरन्तर इसी प्रकार की यातनाएँ भोगनी पड़ती है।
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लत्सरहा अध्याय मूलः-ते तिप्पमाणा तलसंपुडं व,
___ राइंदियं तत्थ थणंति बाला। गलंति ते सोणिपूयमंसं,
पजोड्या खारपइद्धियंगा ॥६॥ छाया:-ते तिप्पमानास्तालसम्पुटा इव, रात्रिदिवं तन्त्र स्तनन्ति बालाः।
- गलन्ति ते शोणितपूतमाम, प्रद्योर्तिताः क्षारप्रदिग्धाङ्गाः ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-वे नारकी जीव अपने अंगों से रुधिर टपकाते हुए सूखे ताल पत्र के समान शब्द करते रहते हैं । परमाधार्मिकों के द्वारा आग में जला दिये जाते हैं और फिर उनके अंगों पर क्षार लगा दिया जाता है । इस कारण रात-दिन उनके शरीर से रक्त, पीव और मांस भरता रहता है।
___ भाष्या-परमाधार्मिक असुरों द्वारा दी जाने वाली यातनाओंका कुछ दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है। यहां पर भी यही बात बतलाई गई है।
घरमाधार्मिक नारकी जीवों के अंग-उपांग काटते हैं और आग से जला देते हैं इतने से ही उन्हें संतोष नहीं होता, ने उस जले पर नमक आदि क्षार लगा देते हैं। नारकी जीवों के घावों से रुधिर टपकता रहता है, पीव झरता है और मांस के लोथ गिरते रहते हैं।
. ऐसी वेदना उन्हें कभी-कभी ही होती हो तो बात नहीं है । रात-दिन उनकी ऐसी ही दशा बनी रहती है। इस प्रकार की विषम वेदना से व्याकुल होकर नारकी जीव ऐसे रोते हैं जैसे हवा ले प्रेरित ताल-पत्र अाक्रन्दन करते हों।
जिन्होंने क्रूरतापूर्वक अन्य जीवों को वेदना पहुंचाई थी ये नारकी भव में ; उसस से लहस्रगुनी वेदना के क्षेत्र बंधते हैं। यह इस कथन से स्पष्ट है। मूलः-रुहिरे पुणो वच्चससुस्सि अंगे.
भिन्नुत्तमंगे परिवत्तयंता । पति णं गैरइए फुरते,
सजीवमच्छेव अयोकल्ले ॥ ७ ॥ छायाः-रुधिरे पुनः वर्चः समुचिताझाान् , भिन्नोत्तमामान परिवर्तयन्तः ।
पचन्ति नरविकान् स्फुरतः, सजीवमरस्यानिवायसवल्याम् ॥ ७ ॥ शव्दार्थ:-मल के द्वारा जिनका शरीर सूज गया है, जिनका सिर चूर-चूर कर दिया गया है और जो पीड़ा के कारण छटपटा रहे हैं, ऐसे नारकी जीवों को परमाधार्मिक असुर जीवित मछली के समान लोहे की कढ़ाई में पकाते हैं।
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স্বপ্ন স্থা
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भाष्यः---यहां भी नरकपाल असुरों द्वारा पहुंचाई जाने वाली पीड़ा कर दिग्दर्शन कराया गया है।
नरकपाल जारकी जीवों को उन्हीं का रक्त नर्स कढ़ाई में डाल उन्हें पकाते हैं। उस कढ़ाई में जो आँधे पड़ते हैं उन्हें सीधा करते हैं, जो सीधे पड़ते हैं उन्हें औंधा करते हैं ! इस प्रकार इधर-उधर उलट-पुलट कर अत्यन्त क्रूरता के साथ पकाते हैं। जारकी जीवों का शरीर जलन के कारण सूझ जाता है। उनका सिर कुचल कुचल कर चूर्ण कर डाला जाता है।
जीवित मछली को कढ़ाई में पकान पर जैसी वेदना उसे होती है, उसी प्रकार की दुःसह वेदना नारकी जीवों को होती है। उस वेदना के कारण वे छटपटाते रहते हैं। मगर जिन्होंने पूर्वभव में अपने पापी पेट की पूर्ति के लिए अन्य जीवों को मार कर उनका मांस पकाया था, उन्हें नरक में जाकर इस प्रकार स्वयं पकना पड़ता है। वहां उनका कोई रक्षक नहीं होता, किसी का शरण नहीं मिलता । अपने पूर्वकृत पापों का फल भोगे विना उन्हें छुटकारा नहीं मिलता। क्षण भर के रसास्वाद के लिए प्राणी हिंसा करने वालों को दीर्घकाल पर्यन्त इस प्रकार की यातना सहनी पड़ती है। मूलः-नो वेव ते तत्थ मसीभवति,
ण मिज्जती तिव्वाभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता,
दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥८॥ छाया:-नो चैव ते तत्र सपीभवन्ति, न प्रियन्ले तीवाभिवंदनामि।
तदनुभाग मनुवेदयन्तः, दुःख्यन्ति दुःखिन हह दुष्कृतेन् ॥६॥ शब्दार्थः--नारकी जीव नरक की अग्नि में जलकर भस्म नहीं हो जाते और न नरक की तीन वेदना से सरते ही हैं। पूर्वभव में किये हुए पापों का फल भोगते हुए अपने ही पाप के उदय के कारण वे दुःख पाते रहते हैं।
भाष्यः--पूर्व गाथा में नारकी जीवों को एकाने का कथन किया गया है और आग में जलाने का भी वर्णन किया जा चुका है । अतएव यह आशंका हो सकती हैं कि इस प्रकार जलाने और पकाने पर उनकी मृत्यु क्यों नहीं हो जाती या ये जलकर भस्म स्यों नहीं हो जाते ?
इस आशंका का यह समाधान किया गया है। घोर से बोर वेदना भोगने पर भी न चे मरते है और न भस्म ही होते हैं। उन्होंने पूर्वभव में जो पाप-कृत्य किये हैं उनका फल भोगते हुए वे नरक में ही रहते हैं और अपनी शायु सम्पूर्ण करके ही वा से निकलते हैं। 'स्वयं रुतं कर्म यदात्मना पुरा, पालं तदीयं लभते शुभाशुभम्' अर्थात् चंहले श्रात्मा ने शुभ या अशुभ जैसे कर्म किये हैं, उनका वैसा ही शुभ या अशुभ फल
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६३८ ]
नरक - स्वर्ग - निरूपण
वह पाता है । इस कथन से स्पष्ट है कि नारकी जीव अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं । यद्यपि परमधार्मिक असुर उन्हें कष्ट पहुंचाते हैं, किन्तु वे उनके स्वकीय कर्मफल भोग में निमित्त मात्र हैं। उनके दुःखों का असली कारण तो वे स्वयमेव हैं । इसी 'आशय को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार ने गाथा में 'दुक्कडेणं' पद दिया है ।
मूल:- प्रच्छिनिमिलयमेतं, नत्थि सुहं दुक्खमेव प्रणुबद्धं । नरए नेरइयाणं, होनिसं पच्चमाणायं ॥ ६ ॥
छाया: - प्रतिनिमीलनमात्रम्, नास्ति सुखं दुःखमेवानुबद्धम् । नरके नैरयिकाणाम्, अहर्निशं पच्यमानानाम् ॥ ६ ॥
शव्दार्थ:-- --रात-1 - दिन पचते हुए नारकी जीवों को नरक में एक पलभर के लिए भी सुख नहीं मिलता। उन्हें निरन्तर दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है ।
भाष्यः - गाथा का भाव स्पष्ट है । श्रांख टिमटिमाने में जितना अल्प समय लगता है, उतने समय के लिए भी नारकी जीवों को कभी सुख प्राप्त नहीं होता । वेचारे नारकी निरन्तर नरक में पचते रहते हैं । उन्हें दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है ।
यद्यपि तीर्थंकर भगवान् के जन्म के समय एक क्षण के लिए नारकी जीव परस्पर में लड़ना, मारना पीटना आदि बन्द करते हैं, तथापि उसे भी सुख नहीं कहा जा सकता, उस समय भी उन्हें क्षेत्रजा वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं । अतएव नरक में किसी भी समय सुख का लेशमात्र भी प्राप्त नहीं होता ।
मूलः - इ सीयं ह उरहं, इ तिराहा इक्खुहा |
अइभयं च नरए नेरइयाणं, दुक्खसयाई विस्सामं १०
छाया:- प्रति शीतम् श्रत्यौष्ण्यम्, श्रुति तृपाऽति चुधा ।
प्रति भयं च नरके नैरयि कारणम्, दुःखशतान्यविश्रामम् ॥ १० ॥
शब्दार्थः--नरक में नारकी जीवों को अति शीत, अतिताप, अत्यन्त तृषा, क्षुधा और अत्यन्त भय-- इस प्रकार सैकड़ों दुःख निरन्तर भोगने पड़ते हैं ।
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भाष्यः - श्रासुरी वेदना का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् यहां क्षेत्रजा वेदना का चर्णन किया गया है । नरक रूप क्षेत्र के प्रभाव से होने वाली वेदना क्षेत्रजा वेदना कहलाती है ।
अत्यन्त
नरक श्रत्यन्त शीत का कष्ट भोगना पड़ता है | और तीव्रतर गर्मी भी सहनी पड़ती है। नरक की गर्मी-सर्दी के विषय में कहा गया है:
मेरु समान लोड गल जाय,
ऐसी शीत उष्णता थाय ॥
अर्थात् वहां इतनी अधिक सर्दी और गर्मी पड़ती है कि मेरु पर्वत के बराबर
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संत्तरहवां अध्याय
[ ६३६ ] लोहे का पिंड भी पिघल सकता और विखर सकता है।
प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरक में गर्मी की वेदना होती है और शेष नरकों में सर्दी की वेदना । जिस नरक में गर्मी की वेदना है वहां के नारकी को उठाकर अगर जलती हुई भट्ठी में डाल दिये जाय तो उसे बड़ा आराम मिले और उसे निद्रा श्रा जाय । इसी प्रकार शीत वेदना वाले नरक के नारकी को उठाकर अगर हिमालय के हिम पर सुलादिया जाय तो वह श्रानन्द का अनुभव करेगा । इससे नरक के शीत-औपण्य की कल्पना की जा सकती है।
नरक में क्षुधा और तृषा अर्थात् भूख-प्यास को भी ऐसा ही कष्ट भुगतना पड़ता है। भूख इतनी अधिक लगती है कि तीन लोक में जितने खाद्य पदार्थ हैं उन सब को ना लेने पर भी तृप्ति न हो, पर नारकियों को मिलता एक दाना भी नहीं है। इसी प्रकार जगत् के समस्त समुद्रों का जल एक नारकी को दिया जाय तो भी उसकी प्यास नहीं वुझे, इतनी अधिक प्यास उसे लगती है । मगर जब नारकी पानी की याचना करता है तो परमाधार्मिक असुर पिघला हुआ गर्म शीशा उसे पिलाते हैं नारकी कहता है-बस रहने दीजिए, मुझे प्यास.नहीं रही, मगर वे जबदस्ती मुँह फाड़कर गर्मागर्म शीशा उड़ेल देते हैं । ।
नारकी जीवों को अत्यन्त भय का भी सामना करना पड़ता है। नरक का स्थान घोर अन्धकार से परिपूर्ण है। अंधकार इतना सघन है कि करोड़ों सूर्य मिलकर भी उस स्थान को प्रकाशमान नहीं कर सकते । नारकी जीवों का शरीर भी अत्यन्त कृष्णवर्ण शोर महा विकराल होता हैं । तिस पर वहां ऐसा हो-हल्ला मचा रहता है, जैसे किसी नगर में आग लगने पर मचता है परमाधार्मिकों की तर्जना और ताड़ाना से, तथा ' इसे मारो, इसे काटो, इसे पकड़ो, इसे छेद डालो, इसे भेद डालो, इसे फाड़ कर फेंकदो' इत्यादि भयंकर शब्दों से नरक का वातावरण निरन्तर भय से परिपूर्ण बना रहता है कौन नारकी या परभाधार्मिक, किस समय, क्या यातना देगा इस विचार से भी नारकी सदा त्रस्त रहते हैं । इन कारणों से नारकी जीवों को अनन्त भय का कष्ट भोगना पड़ता है।
यहां क्षेमजा वेदना पांच प्रकार की क्तलाई गई है । वह उपलक्षण मात्र है। उससे पांच प्रकार की अन्य वेदनाओं का भी अहण करना चाहिए । जैसे-~-अनन्त महाज्वर, अनन्त खुजली, अनन्त रोग, अनन्त अनाश्रय और अनन्त महाशोक ।
नारकी जीवों के शरीर में सदैव महाश्वर बना रहता है और उससे उनकी शरीर में तीव जलन बनी रहती है। उनके शरीर में खुजली भी इतनी अधिक होती है कि वे हमेशा अपना शरीर अपने ही हाथों खुजलाते रहते हैं। उनके शरीर में जलोदर, भगंदर खांसी, श्वास, फोढ़, शूल श्रादि सोलद बड़े बड़े रोग और अनेकों छोटे-छोटे रोग बने रहते हैं । इन पापी जीवों को कोई श्राश्रय देने वाला नहीं होता । तनिक भी सान्त्वना किसी से उन्हें नीं मिलती। व्यंग से उनका द्रदय दुग्नी
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नरक-स्वर्ग-निरूपण उनाया जाता है । उन्हें महा शोक में निमग्न रहकर ही समय व्यतीत करना पड़ता है।
इस प्रकार क्षेत्रजा वेदनाएँ भोगते-भोगते नारकी जीव उकता जाते हैं, पर कमी विश्राम नहीं, कभी चैन नहीं, कभी श्राराम नहीं । निरन्तर वेदना, निरन्तर -व्याधि, निरन्तर मार काट और निरन्तर पारस्परिक कलह, ही उनके भाग्य में है।
तीसरे नरक तक परमाधार्मिक असुर पहुँचते हैं, उसले भाग वे नहीं जाते। फिर भी क्षेत्रजा वेदना और नारकी जीवों द्वारा श्रापल से दी जाने वाली वेंदना वहां
और भी अधिक होती है। जैसे जब नया कुत्ता पाता है तो पहल के लमस्त कुत्ते उस पर झपट पड़ते हैं उसी प्रकार नरक में उत्पन्न होने वाले नारकी पर पहले के नारकी बुरी तरह झपटते हैं और उसे घोर से घोर कष्ट पहुंचाते हैं। वे परस्पर में लातों से, धुसों से मारते हैं, विक्रिया से शस्त्र बनाकर एक दूसरे पर प्रहार करते हैं, मारामारी करते हैं। कहीं-कहीं नारकी जीव वजमय मुखवाले कीट का रूप धारण करके दूसरे नारकी के शरीर में पारपार निकल जाते हैं। नारकी के शरीर को चालनी के समान छिद्रमय बना डालते हैं। इस प्रकार सैकड़ों उपायों से नारकी आपस में
एक-दूसरे को विकराल पीड़ा पहुंचाते हैं । अतएव परमाधार्मिकों द्वारा दी जाने वाली . वेदना के अभाव में भी आगे के नरकों के नारकी अधिक दुःख के पात्र बनते हैं।
- मूलः जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म,
। तमेव आगच्छति संपराए । एगंतदुक्खं भवमजाणिता,
वेदांत दुक्खी तमणंतदुक्खं ॥ ११ ॥
छायाः-यत्यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म, तदेवागच्छति सम्पराये।
एकान्त दुःखं भवमर्जयित्वा, वेदयन्ति दु:खिनस्तमन त दूःखम् ॥ ११ ॥ शब्दार्थ:-जीव ने पहले जो और जैसे कर्म किये हैं, वहीं कर्म-उन्हीं कर्मों का फल उसे संसार में प्राप्त होता है । एकान्त दुःख रूप भव-नारक पर्याय-उपार्जन करके के दुःखी जीव अनन्त दुःख भोगते हैं। . भाष्यः-नारकीय यातनाओं का जो कथन ऊपर किया गया है, उससे यह आशंका हो सकती है कि आखिर नारकियों को इतना भषिण कष्ट क्यों भोगना पड़ता है ? क्या उन्हें उस दुःख से छुड़ाया नहीं जा सकता ? इलका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं जिस जीव ने पूर्व भव में जैले कर्म किये थे उसे उस कर्म के अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है । जो दूसरों को सताता है वह स्वयं दूसरों ले सताया जाता है । जो अन्य को पीड़ा पहुँचाता है उसे अन्य जीव पीड़ा पहुँचाते हैं। जो इतर प्राणियों का मांस पकाकर अपनी जिह्वा को तृप्त करता है, उसका मांस भी पर भव में पकाया जाता है। जो पर स्त्री को विकार की दृष्टि से देखता है और उसका आलिंगन करता है उसे नरक में जलती हुई फौलाद की पुतलियों का प्रगाढ़
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मरक-स्वर्ग-निरूपण
। ६४१ ] प्रालिंगन करना पड़ता है। जो इस जन्म में मूक पशुओं पर उनकी शक्ति से अधिक बोझ लादता है, उसे कंटकाकर्णि पथ में लाखों मान बोझ वाली गाड़ी रहींचनी पड़ती है और ऊपर से चाबुक की मार खानी पड़ती है। मदिरापान करने वालों को शीशे का उकलता हुधा रस, संडाली ले मुँह फाड़ कर पिलाया जाता है। जो इस भव में दूसरों को धोखा देता है, चोरी करता है उसे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों ले गिरा-मिरा कर घोर वेदना दी जाती है। जो माता-पिता श्रादि वृद्ध जनों के हृदय को संताप देता है उसका हृदय भाले ले भेदा जाता है। इस प्रकार इस जन्म में जिस जीव ने जैसे कर्म किये हैं, उन्हीं के अनुसार अगले शक में उसे फल--भोग करना पड़ता है।
तीन पाप के परिणाम स्वरूप एकान्त दुःखमय नरक-भव प्राप्त करके तारकी भाणी अनन्त दुःख भोगते हैं। मूलः -जे पावकम्मेहिं धणं मणूसा,
समाययंती अमइं गहाय। पहाय ते पासपयहिए नरे,
वेराणु बद्धा नरयं उविति ॥ १२ ॥ छाया:-क्षे पाप कर्ममिधनं मनुष्याः, समादयति अमति गृहीत्वा ।
प्रदाय ते प्रासप्रवृत्ता नराः, वैरानुवदा नरकमुपयन्ति ।। १२॥ शब्दार्य:---जो मनुष्य कुबुद्धि धारण करके, पाप कर्मों के द्वारा धन उपार्जन करते हैं, वे कुटुम्ब के मोह-पाश में फंसे हुए लोग, कुटुम्बीजनों को इसी लोक में छोड़कर, पाए बांध कर नरक में उत्पन्न होते हैं।
भाष्यः-कुमति के कारण सेसारी जीव अनेकानेक पाप-कर्म करके धनोपार्जन करते हैं। वे पाप के भयंकर परिणाम की चिन्ता नहीं करते। किये हुप पापों का फल भोगना पढ़ेगा या नहीं, इतना भी विचार उनके अन्तःकरण में उत्पन्न नहीं होता। धन ही उनका प्रधान प्रयोजन है। कैसा भी कार्य क्यों न करना पड़े, बस धन मिलना चाहिए । इस प्रकार की विचार धारा कुमति या मिथ्याशान से उत्पन्न होती है।
आत्मा यद्यपि जगत के चेतन-अचेतन-सभी पदार्थों से निराला है, न उसके साथ कोई श्राता है, न जाता है और न श्रात्मा ही किसी के साथ श्राता-जाता है। जैसे धर्मशाला में अनेक पथिक इकटे हो जाते हैं, और फिर अपने-अपने गन्तब्य स्थानों को चले जाते हैं, उसी प्रकार एक कुटुम्ब में अनेक नर-नारी एकत्र हो जाते हैं
और अपना काल पूर्ण करके, अपने-अपने कर्मों के अनुसार विविध योनियों में चले जाते हैं। किसी का संयोग स्थायी नहीं है । यह सत्य इतना स्पष्ट है कि पद-पद पर उसका अनुभव होता है । फिर भी यह कितने आश्चर्य की यात है कि संसार के प्राणी इस सत्य को देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं और कुटुम्बी जनों के मोहपास में
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फँसकर उनके सुख के लिए नाना प्रकार का पाप करने में संकोच नहीं करते ।
कुछ ही काल अनन्तर पाप कर्म करने वाला अपने कुटुम्बियों को यहीं छोड़ कर अकेला ही परलोक की यात्रा करता है और कृत पापों के फल-स्वरूप नरक गति का अतिथि बनता है । पाप कर्म के द्वारा उपार्जित धन का भंडार यहीं रह जाता है। जिनके लिए धनोपार्जन किया था, वे कुठुम्बी उस समय तनिक भी सहायक नहीं होते । नरक की यातनाओं में वे जरा भी हिस्सा नहीं बंटाते । अपने पापों का फल केले कर्त्ता को ही भोगना पड़ता है ।
अतएव जो भव्य जीव नरक से बचना चाहते हैं, उन्हें कुमति का त्याग करना चाहिए और कुटुम्बीजनों के मोह के कारण पाप कर्म में प्रवृत्त होकर धनोपार्जन नहीं करना चाहिए | न्याय-नीति पूर्वक किया हुआ परिमित धनोपार्जन नरक का कारण नहीं है । ऐसा विचार कर अन्याय एवं अधर्म से विमुख होकर नरक गति से बचने का प्रयत्न करना चाहिए ।
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मूल :- एयाणि सोच्चा परगाणि धीरे,
सत्तरहवां अध्याय :
न हिंसए किंचण सव्वलोए ।
एतदिट्टी पर उ,
बुज्झिज्ज लोयस्स वसं न गच्छे ॥१३॥
छाया:- एतान् श्रुत्व नरकान् धीरः, न हिंस्यात् कञ्चन सर्वलोके । एकान्तदृष्टिरपरिग्रहस्तु, बुध्वा लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥ १३ ॥
शब्दार्थः--शुद्ध सम्यक् दृष्टि वाले और ममत्व से रहित बुद्धिमान् पुरुष इन नरकों के स्वरूप को सुनकर, समस्त लोक में किसी भी जीव की हिंसा न करें । कर्म रूप लोक का स्वरूप समझकर उसके अधीन न होवे |
· भाष्यः - नरक के स्वरूप का वर्णन करके तथा नरक में होने वाली घोर वेदजाओं का कथन करके अव उसका उपसंहार करते हुए शास्त्रकार शिक्षा देते हैं
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जिन्हें तीव्र पुण्य के उदय से शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है और साथ ही जिनकी ममता क्षीण हो गई है, ऐसे ज्ञानवान् पुरुषों का यह कर्त्तव्य है कि वे नरक का दुःखपूर्ण कथन सुन कर धन आदि के लिए अथवा इन्द्रियलोलुपता से प्रेरित हो कर किसी भी प्राणी की हिंसा न करें । कर्मों का यथार्थ स्वरूप समझ कर --- ~~ उनके विपाक की दारुणता का अवधारण करके कर्मों के वश न हो जावें ।
अनेक लोग यह आशंका करते हैं कि नरक का घृणाजनक, भयंकर और वीभत्स वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार का वर्णन करके लोगों में मानसिक दुर्बलता क्यों उत्पन्न की जाती है ? नरक वास्तव में है या नहीं, इस यात का क्या भरोसा है ?.
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नरक-स्वर्ग-निरूपण
। ६४३ ] शास्त्रकार ने पहले प्रश्न का इस गाथा में प्रत्यक्ष रूप से समाधान किया है। नरक का वर्णन करने का उद्देश्य यह है कि लोग नरक का वास्तविक स्वरूप समझ कर उसके प्रत्येक कारण से बचने का प्रयत्न करें । इसीलिए कहा है-'एयाणि सोचा गरगाणि धीरे, न हिंलए किंचण सव्वलोए ।' अर्थात् नरक का स्वरूप समझ कर बुद्धिमान, पुरुष को हिंसा का त्याग कर देना चाहिए ।
जब तक वस्तु का स्वरूप जाना नहीं जाता तब तक उसका ग्रहण या त्याग नहीं किया जा सकता। अगर नरक का स्वरूप न बतलाया जाय तो लोग उससे बचने का प्रयत्न नहीं कर सकते और परिणाम यह होगा कि नरक गति के कारणों की अर्थात् हिंसा, परिग्रह आदि की प्रचुरता लोक में हो जायगी।
नरक के वर्णन से श्रोता में मानसिक दुर्बलता नहीं आती है, यह कहना निराधार है। अगर नरक की प्राप्ति प्रत्येक प्राणी के लिए अनिवार्य होती तो कदाचित् मानसिक दुर्बलता उत्पन्न होने की आशंका की जा सकती थी। पर यहां तो नरक के वर्णन के साथ यह भी स्पष्ट कर दिया जाता है कि हिंसा आदि पाप-कर्म करने वालों को ही नरक गति में जाना पड़ता है । धर्म, पुण्य, संयम एवं सदार का अनुष्ठान करने वाले नरक में नहीं जाते । ऐसी स्थिति में लोग अधर्म का त्याग करके नरक से निर्भय हो सकते हैं उनमें मानसिक दुर्बलता उत्पन्न होने का कोई कारण ही नहीं है।
नरक गति के अस्तित्व पर आशंका करने वाले लोग अपने पैर पर कुठाराघात फरते हैं। श्रख मींच लेने से आसपास के पदार्थों का अभाव नहीं हो जाता, इसी प्रकार नरक को अस्वीकार कर देने मात्र से नरक का अस्तित्व नहीं मिट सकता। नरक को अमान्य कह कर जो लोग पापों के प्रति निर्भय हो जाना चाहते हैं वे पर लोक को ही नहीं, इस लोक को भी विगाड़ते हैं। वे स्वयं पापों में प्रवृत्त होते हैं और अन्यों को भी पाप में प्रवृत्त करते हैं। इससे संसार में हिंसा का ताण्डव होता है और अमर्यादित परिग्रह शीलता बढ़ती है।
नरक का अस्तित्व स्वीकार करके पापों से पराङ्मुख हो कर सदाचार में रत रहने वालों का कल्याण ही होगा। नरक को स्वीकार करने से हानि कुछ भी नहीं दो सकती। मगर जो लोग नरक को स्वीकार नहीं करते, उन्हें क्या लाभ होगा १ चे पाप कर्म में निमग्न होकर अपना अहित करेंगे और दूसरों के समक्ष भी पित आदर्श उपस्थित करेंगे। इस प्रकार नरक गति का अस्तित्व स्वीकार करना कल्याण कारीही है और उसका अस्तित्व न मानना एकान्ततः अहितकर है।
अतएव नरक गति के संबंध में किसी प्रकार की फुशंका न करके नरक के कारणों से बचने का ही प्रयत करना चाहिए । इसी में आत्मा का कल्याण है, इसी में जगत् का फल्याण है। इसी से वर्तमान जीवन की शुद्धि होती है और इसी भावना से आगामी जीवन विशुद्ध बनता है।
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[ ६४४ ]
देवगति का निरूपण
मूल:- देवा चउव्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयत्रो सुप । भोमेज वाणमन्तर, जोइसवेमाणिया तहा ॥ १४ ॥
सत्तरहर्वा श्रध्याथ
छाया:-- देवाश्चतुर्विधा उक्ताः तान्मे कीर्तयतः शृणु ।
भीमेा वाणन्यन्तराः, ज्योतिषका वैमानिकास्तथा ॥ ११ ॥
शब्दार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! देव चार प्रकार के कहे गये हैं । उनका वर्णन करते हुए मुझ से सुन । ( १ ) भोमेय-भवनवासी ( २ ) वाणव्यन्तर ( ३ ) ज्योतिष्क और ( ४ ) वैमानिक --- यह चार प्रकार के देव होते हैं ।
भाष्यः --- पहेल नरक गति का वर्णन किया गया है और नरक के कारणभूतं हिंसा आदि पापों के त्याग का उपदेश दिया गया है । जो सम्यग्दृष्टि उस उपदेश के अनुसार अनुष्ठान करते हैं, उन्हें कौन-सी गति प्राप्त होती है ? इस प्रकार की शंका उठना स्वाभाविक है । इस शंका का समाधान करने के लिए यहां देवगति का वर्णन किया गया है ।
अथवा बार गति रूप संसार में से मनुष्य गति और तिर्यञ्च गति तो प्रत्यक्ष से दृष्टिगोचर होती हैं, मगर नरक गति और देवगति का अल्पज्ञ जीवों को ज्ञान नहीं होता । इसलिए नरक यति का वर्णन करके अब अवशिष्ट रही देवगति का वर्णन यहां किया जाता &
“देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ वाहाविभूतिविशेषात् ह्रीषाद्रिसमुद्रादिषु प्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति - क्रीडाकिते देवाः ।'
श्रर्थात् देवगति नाम कर्म रूप अभ्यन्तर कारण के होने पर वाह्य विभूति की विशेषता से जो द्वीपों, पर्वतों एवं समुद्रों में इच्छानुसार कीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं । देवों के चार प्रधान निकाय हैं - ( १ ) सवनवासी ( २ ) वाणव्यन्तर ( ३ ) ज्योतिष्क और वैमानिक
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चारों निकायों के नाम अन्वर्थ हैं । 'भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवन वासिनः * श्रर्थात् जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है वे भवन-वासी कहलाते हैं । 'विविघदेशान्तराणि येषां निवालास्ते व्यन्तराः' अर्थात् विविध देशों में निवास करने वाले व्यन्तर कहलाते हैं । 'ज्योतिःस्वभावत्वाज्ज्योतिष्काः ' अर्थात् प्रकाश-स्वभाव वाले होने के कारण ज्योतिष्क देव कहे जाते हैं ।
विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनों मानयन्तीति विद्यानानि । विमानेषु भवा वैमा निकाः” अर्थात जिनमें रहने वाले अपने-आपको पुण्यात्मा मानते हैं, उन्हें विमान कहते हैं और विमानों में उत्पन्न होने वाले या रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं !
चारों जाति के देवों का वर्णन शास्त्रकार आगे स्वयं करेंगे !
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सत्तरहवा अध्याय
[१४४ म खूल:-दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वण चारिणो।
पंचविहा जोइसिया, दुविहा वेमाणिया तहा ॥ १५ ॥ छायाः-दशधा तु भवन वासिनः, अष्टधा वन चारिणः ।
पञ्चविधा ज्योतिप्काः, द्विविधौ वैमानिको तथा ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-भवनवासी देव दस प्रकार के हैं, वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं, ज्यो- तिष्क देव पांच प्रकार के हैं और वैमानिक देव दो प्रकार के हैं।
भाष्यः-गाथा स्पष्ट है। पूर्व गाथा में चार निकायों का नाम निर्देश करके प्रकृत गाथा में क्रमशः उनके अंवान्तर भेदों की संख्या का उल्लेख किया गया है। भवनवासियों के दस, वाणव्यस्तरों के पाठ, ज्योतिषकों के पांच और वैमानिकों के दो भेद हैं। इन भेदों का नाम कधन गली गाथाओं में क्रमशः किया जायगा। मूल:-असुरा नाग सुवरणा, विज्जू अग्गी वियाहिंया ।
दीवोदहिदिसा वाया, थणिया भवनवासियो ॥ १६ ॥ छाया:-असुरा नागाः सुवर्णाः, विद्युनोऽयग्रो व्याहृताः।।
द्वीपा उदधयो दिशो वायवः, स्तानता भवनवासिनः ॥ १६ ॥ शब्दार्थ:-अवनवासी देवों के दस प्रकार यह हैं-(१) असुर (२) नाग (३) सुवर्ण (४)विद्युत् (५) अमि (६) द्वीप (७) उदधि (८) दिशा (६) वायु और (१०) स्तनित।
भाष्यः-सर्व प्रथम भवनदाली का नाम-निर्देश किया गया था अतएव यहां सव से पहले उसी के भेद बतलाये गये हैं। प्रत्येक नाम के साथ 'कुमार' शब्द का प्रयोग किया जाता है । यद्यपि देवों की उन्न अवस्थित रहती है, उनमें मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों की भांति शैशव, बाल्य, कुमार, युवा तथा वुढापे का अवस्था भेद नहीं है, तथापि भवनवासी देवों का वेषभूषा, प्रायुध, सवारी और क्रीड़ा कूमारों के समान होती है श्रतएव उनके नामों के साथ 'कुमार' शब्द जोड़ा जाता है । इसलिए उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) असुरकुमार (२) नागकुमार (३) सुवर्णकुमार (४) 'विद्युत्कुमार ( ५.) अग्निकुमार (६) द्वीपफुमार (७) उदधिकुमार (८) दिशाकुमार (६) वायुफुमार (१०) स्तनितकुमार। .
भवनवासियों में असुरकुमारों के भवन रतममा पृथ्वी के पंकबहुल भाग में हैं और शेष नव कुमारों के भवन खरपृथ्वी के ऊपर और नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को छोड़ कर शेष चौदह हजार योजन के भाग में हैं।
अमुरकुमारों के भरनों की संख्या दक्षिण दिशा में चवालीस लाख है। इनके इन्द्र का नाम चमरेन्द्र है-यह इन देवों के अधिपति हैं । चमरेन्द्र के परिवार में ६४००० लामानिक देव, २५६००० यात्मरक्षक देव, द महिपी (पटरानियां) है ।
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सत्तरहवां अध्याय देवगति का निरूपण . मूलः-देवा चउब्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयो सुण ।
भोमेज वाणमन्तर, जोहसवेमाणिया तहा ॥ १४ ॥ छाया:-देवाश्चतुर्विधा उक्ताः, तान्मे कीर्तयतः शृणु। .
भौमेया वाणव्यन्तराः, ज्योतिका वैमानिकास्तथा ॥१४॥ शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! देव चार प्रकार के कहे गये हैं। उनका वर्णन करते हुए मुझ से सुन । (१) भोमेय-भवनवासी (२)वाणव्यन्तर ( ३) ज्योतिष्क और (४) वैमानिक-यह चार प्रकार के देव होते हैं।
भाष्यः-पहेल नरक गति का वर्णन किया गया है और नरक के कारणभूतं हिंसा मादि पापों के त्याग का उपदेश दिया गया है। जो सम्यग्दृष्टि उस्ल उपदेश के अनुसार अनुष्ठान करते हैं, उन्हें कौन-सी गति प्राप्त होती है ? इस प्रकार की शंका उठना स्वाभाविक है । इस शंका का समाधान करने के लिए यहां देवाति का वर्णन किया गया है।
अथवा बार जति रूप संसार में से मनुष्य गति और तिर्यश्च गति तो प्रत्यक्ष से दृष्टिगोचर होती हैं, मगर नरक गति और देवगति का अल्पज्ञ जीवों को शान नहीं होता। इसलिए नरक पति का वर्णन करके अब अवशिष्ट रही देवगति का वर्णन यहां किया जाता है।
'देवगतिनामकोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाहाविभूतिविशेषात् छीपाहिलमुद्रादिपु प्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति-क्रीडाक्रिते देवाः।' .
' अर्थात् देवगति नाम कर्म रूप अभ्यन्तर कारण के होने पर वाहा विभूति की विशेषता से जो द्वीपों, पर्वतों एवं समुद्रों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, के देव कहलाते हैं। देवों के चार प्रधान निकाय है-~-(१) भवनवाली (२) वाणन्यन्तर (३) ज्योतिष्क और वैमानिक
. चारों निकायों के नाम अन्वर्थ हैं ! भवनेषु क्सन्तीत्येवंशीला भवन वालिना अर्थात् जिनका खभाव भवनों में निवाल करना है चे भवन-बासी कहलाते हैं । 'विविधदेशान्तरासिस येषां निवालास्ते व्यन्तराः' अर्थात विविध देशों में निवास करने वाले व्यन्तर कहलाते हैं। ज्योतिःस्वभावत्वाच्योतिषकाः' अर्थात् प्रकाश-स्वभाव वाले होने के कारण ज्योतिष्क देव कहे जाते हैं ।
'विशेषेणात्मस्थान सुरतिनों मानयन्तीति वियानानि । विमानेषु भवा वैमानिकाः' अर्थात जिनमें रहने वाले अपने-आपको पुण्यात्मा मानते हैं, उन्हें विमान कहते हैं और विमानों में उत्पन्न होने वाले या रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं ।
चारों जाति के देवों का वर्णन शालकार आगे स्वयं करेंगे ।
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संत्तरहवां अध्याय शूल:-दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वण चारिणो।
पंचविहा जोइसिया, दुविहा वेमाणिया तहा ॥ १५ ॥ छायाः-दशधा तु भवन वासिनः, अष्टधा बन चारिणः।।
___ पञ्चविधा ज्योतिप्काः, द्विविधौ वैमानिको तथा ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-भवनवासी देव दस प्रकार के हैं, वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं, ज्यो- तिष्क देव पांच प्रकार के हैं और वैमानिक देव दो प्रकार के हैं।
भाष्यः-गाथा स्पष्ट है । पूर्व गाथा में चार निकायों का नाम निर्देश करके घकृत गाथा में क्रमशः उनके अंवान्तर भेदों की संख्या का उल्लेख किया गया है । भवनवासियों के दस, वाणव्यस्तरों के आठ, ज्योतिष्कों के पांच और चैमानिकों के दो भेद हैं। इन भेदों का नाम कथन अगली गाथाओं में क्रमशः किया जायगा। मूल:-असुरा नाग सुवरणा, विज्जू अग्गी वियाहिंया।
दीवोदहिदिसा वाया, थणिया भवनवासियो ॥ १६ ॥ छाया:-श्रसुरा नागाः सुवर्णाः, विद्युतोऽयग्रो व्याहताः।
द्वीपा उदधयो दिशो वायवः, स्तनिता भवनवासिनः ॥ १६ ॥ . शब्दार्थः-भवनवासी देवों के दस प्रकार यह हैं-(१)असुर (२) नाग (३) सुवर्ण (४) विद्युत् (५) अमि (६) द्वीप (७) उदधि (८) दिशा (६) वायु और (१०) स्तनित।
भाष्यः-सर्व प्रथम भवनवासी का नाम-निर्देश किया गया था अतएव यहां सब से पहले उसी के भेद बतलाये गये हैं। प्रत्येक नाम के साथ 'कुमार' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि देवों की उन अवस्थित रहती है, उनमें मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों की भांति शैशव, बाल्य, कुमार, युवा तथा वुढापे का अवस्था भेद नहीं है, तथापि भवनवासी देवों का वेषभूषा, आयुध, सवारी और क्रीड़ा कुमारों के समान होती है श्रतएव उनके नामों के साथ 'कुमार' शब्द जोड़ा जाता है । इसलिए उनके जाम इस प्रकार है-(१) असुरकुमार (२) नागकुमार (३) सुवर्णकुमार (४) विघुत्कुमार (५.) अग्निकुमार (६) द्वीपफुमार (७) उदधिकुमार (८) दिशाकुमार (६) चायुकुमार (१०) स्तनितकुमार।
__ भवनवालियों में असुरकुमारों के भवन रनममा पृथ्वी के पंकबहुल भाग में हैं और शेष नव कुमारों के भवन नुरपृथ्वी के ऊपर और नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को छोड़ कर शेष चौदह हजार योजन के भाग में हैं।
असुरकुमारों के भवनों की संख्या दक्षिण दिशा में चवालीस लाख है। इनके रन्द्र का नाम चमरेन्द्र है-यह इन दवों के अधिपति है। चमरेन्द्र के परिवार में ६४००० सामानिक देव, २५६००० श्रात्मरक्षक देव, छह महिनी ( पटरानियां) हैं ।
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नरक-स्वर्ग-निरूपण एक-एक पटरानी के छह-छह हजार का परिवार है । सात प्रकार की ( गंधर्व की, नाटक की, अश्वों की, हाथियों की, रथों की, पदातियों की और भैंसों की) उनकी सेना है। तीन प्रकार के परिषद देव हैं। उनमें अभ्यन्तर परिषद के २४००० देव, मध्य परिषद् के २८००० देव और बाह्य परिषद् के ३२००० देव हैं। इसी प्रकार अभ्य. न्तर परिषद् की ३५० देवियां हैं, मध्य परिषद् की ३०० देवियां और बाह्य परिषद् की २५० देवियां हैं।
उत्तर दिशा में असुर कुमारों के चालिस लाख भवन हैं। यहां के अधिपति ६ इन्द्र ) बलेन्द्र हैं । बलेन्द्र के ६०००० सामानिक देवों का, २४०००० श्रात्मरक्ष देवों का, छह अप्रमहिषी अर्थात् पटरानियों का परिकार है। प्रत्येक अग्रमहिषी का छहःछह हजार का परिवार है । सात प्रकार की सेना और तीन प्रकार की परिषद् है। अभ्यन्तर परिषद में २००५० देव मध्यपरिषद में २४००० देव और बाह्य परिषद में २८००० देव हैं । अभ्यन्तर परिषद की ४५० देवियां. मध्य परिषद की ४०० देवियां और बाह्य परिषद की ३५० देवियां हैं।
नाग कुमार भवनवासियों के दक्षिण-विभाग में चवालीस और उत्तर विभागमें चालीस लाख भवन हैं । दक्षिण विभाग के इन्द्र का नाम धरणेन्द्र और उत्तर विभाग __ के अधिपति का नाम भूतेन्द्र है।
सुपर्ण (सुवर्ण) कुमारों के दक्षिण विभाग में अड़तीस लाख और उत्तर दिशा में चौंतीस लाख भवन हैं। दक्षिण विभाग के अधिपति का नाम वेणु-इन्द्र है और . उत्तर विभाग के अधिपति का नाम वेणुदलेन्द्र हैं।
विद्यत् कुमार देवों के दक्षिण भाग के इन्द्र हरिकान्त और उत्तर भाग के इन्द्र रिशेखरेन्द्र हैं। इसी प्रकार अग्नि कुमारों के दक्षिण और उत्तर विभागों के इन्द्रों के नाम क्रमशः अग्निशखरेन्द्र तथा अग्निमाणवेन्द्र है । द्वीपकुमारों में पूर्णेन्द्र तथा विरेन्द्र उदधिकुमारों में जलकान्तेन्द्र तथा जलप्रभेन्द्र, दिशा कुमारों में श्रमितेन्द्र और श्रमिः तवहनेन्द्र, वायु कुमारों में बलवकेन्द्र तथा प्रभंजनेन्द्र, स्तनितकुमारों में घोपेन्द्र और महामोरेन्ट नामक अधिपति इन्द्र हैं । तात्पर्य यह है कि भवनवासियोंमें सव चालीस इन्ट है। प्रत्येक भेद के दो-दो इन्द्र होते हैं । ऊपर लिखे हुए नाम क्रमशः दक्षिण और उत्तर दिशा के समझने चाहिए।
शसर कुमार के अतिरिक्त शेष नौ निकायों के इन्द्रों का ऐश्वर्य एक समान . और दक्षिण भागमें सब के छह-छह हजार सामानिक देव हैं, चौवीस हजार श्रात्म- " नक देव हैं, पांच अग्रमहिपियां हैं, और प्रत्येक के पांच-पांच हजार का परिवार हैं, सात-सात प्रकार की सेना और तीन प्रकार की परिषद है । सभी की श्रभ्यन्तर परिषद में साठ हजार देव, मध्य परिषद में सत्तर हजार देव और वाह्य परिषद में अस्सी हजार देव हैं। अभ्यन्तर परिषद की एक सौ पचत्तर देवियां, मध्य परिषद की एक सौ पचास देवियां और वाह्य परिषद की एक सौ पच्चीस देवियां हैं।
उत्तर भाग के इन्द्रों का ऐश्वर्य भी लगभग इसी प्रकार का है। परिषदों के
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श्वत
रक्त
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सत्रहवी श्रध्याय देवों की संख्या में कुछ अन्तर है । वह इस प्रकार है-अभ्यन्तर परिषद में पचास हजार देव, मध्य परिषद में साठ हजार देव और वाह्य परिषद में सत्तर हजार देव हैं। अभ्यातर परिषद की देवियां दो लौ पच्चील, मध्य परिषद् की दो सौ और चाह्य परिषद की एक सौ पचत्तर देवियां है।
विद्युतकुमारों से लगाकर स्तनित कुमारों तक के भवनों की संख्या दक्षिण में चालीस-चालीस लाख और उत्तर में छत्तीस-छत्तीस लाख है।।
भवन पति देवों की अंलग-अलग जाति के शरीर का वर्णन प्रादि भिन्न भिन्न प्रकार का होता है। यथा- . जाति का नाम शरीर का वर्स बस्त्र का वर्ण मुकुट का चिह्न (१) असुर कुमार कृष्ण
रक्त
चूड़ामाण (२) नाग कुमार
हरित
नाग-फणि (३) सुवर्ण कुमार सुनहरा
श्वेत
गरुड़ (४: विधुत्कुमार
हरित
वज ५, अग्निकुमार
रक्त हरित
फलश (६) द्वीपकुमार
रक्त हरित
सिंह (७) उदाधिकुमार रक्त
हरित (८) दिशाकुमार
श्वेत
इस्ती (६) वायुकुमार
हरित হাবী
मगर (१०) स्तनितकुमार काञ्चन
श्वेत भवनवासी देवों की स्थिति का वर्णन आगे किया जायगा। मूल:- पिसायभूयजक्खा य, रक्खसा किन्नरा किं पुरिसा।
महोरगा य गंधवा, अट्टविहा वाणमन्तरा ॥१७॥ छाया:-पिशाचा भूता यत्ताश्व, रावसा:किमराक पुरयाः ।
महोरगाश्च गन्धर्वाः, अष्टविधा न्यन्तराः ॥ १७ ॥ शब्दार्थः-बाण व्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं--(१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस (५.) किन्नर (६.) किं पुरुष (७) मद्दोरग और (८) गंधर्व ।
भाग्य-प्रकृत गाथा में कम प्राप्त व्यन्तर देवों की जातियों के नामों का उल्लेन किया गया है।
रतप्रभा पृथ्वी को ऊपर एक हजार योजन का पृथ्वीपिंड है। उसके सौ-सी योजन ऊपरी और नाच के भाग को छोड़कर बीच में आठ सौ योजन में व्यन्तर देव रहते हैं।
ऊपर के छूटे हुए लौ योजन के ऊपरी और निचले भाग के दस-दस योजन 'छोरकर बीच में भी भानपखी, पानपत्री, आदि व्यन्तर रहते हैं। दोनों स्थानों पर
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[ ६४८ ]
व्यन्तर देवों के असंख्यात नगर }
आठ व्यन्तर और आठ वारणव्यन्तर मिल कर व्यन्तरों की संख्या सोलह होती है । व्यन्तरों की यह सोलह जातियां हैं। एक-एक जाति के दो-दो इन्द्र होने के कारण कुल बत्तीस इन्द्र व्यन्तरों में होते हैं । प्रत्येक इन्द्र के चार हजार सामानिक देव, सोलह हजार आत्मरक्षक देव, चार अग्रसहिपियां, सात प्रकार की सेना और तीन प्रकार की परिषद होती है । व्यन्तर इन्द्रों के नाम इस प्रकार हैं:
(१) पिशाच-
( २ ) भूत
( ३ ) यक्ष
VRCINA
( ४ ) राक्षस( ५ ) किन्नर
(६) किंपुरुष - (७) महोरग(८) गंधर्व
वाण व्यन्तर देवों के इन्द्रों के
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( ४ ) भूतवाई
( ५ ) कन्दित
( ६ ) महाकन्दित( ७ ) कोहंड - ( - ) पतंग
देव नाम ( १ ) पिशाच
( २ ) भूत
( ३ ) यक्ष ( ४ ) राक्षस ( ५ ) किन्नर
कालेन्द्र,
महाकालेन्द्र प्रतिरूपेन्द्र
सुरूपेन्द्र,
पूर्णभन्द्रन्द्रे, मणिभद्रेन्द्र
भीमेन्द्र,
किनरेन्द्र, सुपुरुषेन्द्र, श्रतिकायेन्द्र, गीतरति इंन्द्र,
नाम
( १ ) श्रानपन्नी -
सन्निहितेन्द्र, घातेन्द्र,
(२) पानपन्नी
( ३ ) इसिवाई ( ऋषिवादी ) - ऋषि,
ईश्वरेन्द्र,
53
सुवत्स,
हास,
श्वेत,
पतंग,
नरक - स्वर्ग - निरूपण
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श्वेत
हरित
महाभीमेन्द्र
किंपुरुषेन्द्र
महापुरुषेन्द्र
महाकायेन्द्र
गीतरसेन्द्र
जैसा कि पहले कहा गया है, व्यन्तर देव विविध देशों में भ्रमण करते रहतें हैं। टूटे-फूटे घरों में जंगलों में, जलाशयों पर, वृक्षों पर तथा इसी प्रकार के अन्य न्य स्थानों पर रहते हैं । आठ प्रकार के वाणव्यन्तर गंधर्व देवों के ही भेद हैं । यह देव अत्यन्त विनोदशील, हास्यप्रिय, चपल और चंचल चित्त वाले होते हैं इन सब के शरीर का वर्ण और मुकुट का चिह्न इस कोष्टक से प्रतीत होगा:
शरीर वर्ण
कृष्ण
पन्मानेन्द्र
विधातेन्द्र
ऋषिपाल
महेश्वरेन्द्र
विशाल
रति
महाश्वेत
पतंगपति
मुकुट चिह्न कंदव वृक्ष शालिवृक्ष
वटवृक्ष
पाटलीवृक्ष
अशोकवृक्ष
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सत्तरहवां अध्याय
[ ६४६ ] (६) किंपुरुष श्वेत
चम्पकवृक्ष (७) महोरग कृष्ण
नागवृक्ष (८) गन्धर्व
तिन्दुकवृक्ष भानपन्नी श्रादि वाणव्यन्तरों के शरीर का वर्ण और मुकुट का चिह्न क्रमशः पूर्वोक्त कोष्टक के अनुसार ही समझना चाहिए। मूलः-चदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा।
ठिया विचारिणो चेव, पंचहा जोइसा लया ॥ १८॥ छायाः-चन्द्राः सूर्याश्च नक्षत्राणि, गृहास्तारागणास्तथा।
स्थिरा विचारिणश्चैव, पञ्चधा ज्योतिशलयः ।। शब्दार्थः-ज्योतिषी देव पांच प्रकार के हैं-(१) चन्द्र (२) सूर्य (३) नक्षत्र (४) ग्रह और (५) तारगण । यह स्थिर और चर के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।
___ भाष्य-व्यन्तर देवों का कथन करने के पश्चात् क्रमप्राप्त ज्योतिषी देवों का वर्णन यहां किया गया है। ज्योतिषी देव पांच प्रकार के है--12] चन्द्र [२] सूर्य [३] नक्षत्र [४] गृह और तारागण । इनके चर और अचर के भेद से दो-दो प्रकार होते हैं। अदाई द्वीप में सूर्य प्रादि गतिमान होने के कारण चर हैं और बाहर स्थितिशील होने के कारण श्रचर है।
समस्त ज्योतिपी देवों का समूह ज्योतिषचक्र कहलाता है। ज्योतिपचक्र, मेरु पर्वत के निकट समतल भूमि में सात सौ नव्वे (७६० ) योजन की उंचाई से नौ सौ योजन की उँचाई तक अर्थात् एक सौ दस योजन में फैला हुआ है । सात सौ नव्वे योजन की उंचाई पर तारा मंडल है । तारों के विमान आधा कोस के लम्बे-चौड़े और पाव कोस ऊंचे हैं। पांचों वर्ण के हैं। तारामण्डल से दस योजन की ऊंचाई पर एक योजन के ६ भागों में से ४८ भाग लम्बा-चौड़ा और २४ भाग ऊँचा, अंक रत्न का सूर्य का विमान है। सूर्य के विमान से अस्सी योजन ऊपर एक योजन के ६१ भागों में से ५६ भाग लम्बा-चौड़ा और २८ भाग जितना ऊँचा, स्फटिक रत्न का चन्द्रमा का विमान है । चन्द्रमा के विमान से चार योजन की ऊँचाई पर नक्षत्र माला है। नक्षत्रों के विमान पांचों वर्ण के रत्नमय है। वे सब एक-एक कोस लम्बे-चौड़े और श्राधा कोस ऊँचे है । नक्षत्र माला से चार योजन ऊपर ग्रह माला है। ग्रहों के विमान भी पांचों वणों के और दो कोस लम्बे-चौड़े तथा एक कोस ऊँचे हैं । प्रहमाला से चार योजन की ऊँचाई पर हरित रत्नमय बुध ग्रह का तारा है । इससे तीन योजन ऊपर स्फटिक रत्न का शुक्र का तारा है और शुक्र से तीन योजन ऊपर पीत रत्नमय वृहस्पति का तारा है। ब्रहस्पति से तीन योजन ऊपर रा वर्ण रत्नमय मंगल तारा और उससे भी तीन योजन ऊँचा जाम्बूनद वर्णमय शनिग्रह का तारा है।
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( ६५० ।
_ . नरक-स्वर्ग-निरूपणं ___ इस प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिष चक्र समतल भूमि से नौ सौ योजन की ऊँचाई पर समाप्त हो जाता है। नौ सौ योजन ऊँचे तक मध्यलोक गिना जाता है, अतएव ज्योतिष चक्र मध्य लोक में ही अवस्थित है। ___जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्रमा हैं । लवण समुद्र में चार सूर्य और चार चन्द्रमा हैं। धात की खंड द्वीप में बारह सूर्य और बारह चन्द्रमा हैं। पुष्करार्द्ध द्वीप में बहत्तर सूर्य और वहत्तर चन्द्रमा हैं । इस प्रकार अढाई द्वीप अर्थात् सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र में एक सौ बत्तीस सूर्य और इतने ही चन्द्रमा है। अढ़ाई द्वीप के सूर्य और चन्द्रमा निरन्तर गति से मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते रहते हैं।
अढ़ाई द्वीप के चारह असंख्यात सूर्य और असंख्य चन्द्रमा हैं, पर वे अचर अर्थात स्थिर हैं। उनकी लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाई, अढाई द्वीप के सूर्य आदि से आधी-प्राधी है। ___ ज्योतिषी देवों में सूर्य और चन्द्रमा--दो इन्द्र हैं। आश्विन और चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन जिस सूर्य और जिस चन्द्रमा का उदय होता है, वही सूर्य-चन्द्र इनके इन्द्र हैं, ऐसा उल्लेख ग्रंथों में पाया जाता है।
एक-एक सूर्य एवं चन्द्रमा के साथ अध्यासी ग्रह, अठाईस नक्षत्र और छियासठ हजार, नो सौ पचत्तर कोड़ा-कोड़ी तारे हैं । ज्योतिषी देवों का विस्तृत वर्णन अन्यत्र देखना चाहिए । विस्तार भय से यहां सामान्य कथन किया गया है। मूलः-वेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते विया हिया।
कप्पोवगा य बोद्धव्वा, कप्पाईया तहेव य ॥ १६॥ छाया:-वैमानिकास्तु थे देवाः, द्विविधास्ते व्याहृताः।।
कल्पोपगाश्च बोद्धव्याः, कल्पातीतस्तथैव च ॥ १ ॥ शब्दार्थ:--जो वैमानिक देव हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं (१) कल्पोवत्पन्न और (२) कल्पातीत।
भाष्यः-तीन निकायों के देवों का कथन करने के पश्चात् अव चौथे वैमानिक देव-निकाय का वर्णन किया जाता है। वैमानिक देवों के मूलतः दो भेद हैं-कल्पोत्पन्न और कल्पातीत । जिन वैमानिको में इन्द्र, सामानिक प्रादि का विकल्प होता हैं वे कल्पोत्पन्न कहलाते हैं और जिनमें इस प्रकार भेदों की कल्पना नहीं होती-जहाँ किसी प्रकार का भेद्भाव नहीं है-सभी अहमिन्द्र हैं, वे कल्पातीत कहलाते हैं।
____कल्पोत्पन्न देवों में दस भेद होते हैं।-(१) इन्द्र (२) सामानिक (३) प्राय त्रिंश (४) पारिषद् (५) श्रात्मरक्षक (६) लोकपाल (७) अनीक (८) प्रकीर्णक (१) आभियोग्य और (१०) किल्विपिक । इनका परिचय इस प्रकार है:
(१) इन्द्र-अन्य देवों से विशिष्ट ऐश्वर्य वाले, मनुष्यों में राजा के समान शासक देव इन्द्र कहलाता है।
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सत्तरहवां अध्याय
[ ६५१ ] (२) सामानिक-जो देव इन्द्र के समान आज्ञा नहीं चला सकते, इन्द्र के समान ऐश्वर्य भी जिनका नहीं है, फिर भी जो इन्द्र के समान ही श्रायु, शक्ति, परिवार और उसी के समान भोगोपभोग की सामग्री से युक्त होते हैं, ऐसे राजा के पिता, गुरु श्रादि समान देव सामानिक कहलाते हैं।
(३) त्रायस्त्रिंश-राजा के मंत्री और पुरोहित के समान देव त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं। . (४) पारिषद्-राजा के मित्र या सभासदों के समान देव पारिषद कहलाते
(५) श्रात्मरक्षक-जैसे राजा के अंगरक्षक होते हैं, उसी प्रकार इन्द्र के अंग रक्षक देव प्रात्मरक्षक कहलाते हैं । यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार का भय नहीं रहता और उसे दूसरों से रक्षा कराने की आवश्यकता भी नहीं है, फिर भी अंगरक्षक देवों का होना एक प्रकार का इन्द्र का ऐश्वर्य है।
(६) लोकपाल-प्रजा के रक्षक के समान देव लोकपाल हैं।
(७) अनीक-सैनिकों के स्थानीय देव अनीक कहलाते हैं। इन्द्र की सेना पदाति आदि सात प्रकार की है। उसका उल्लेख्न पहले आ चुका है।
(८) प्रकीर्णक-मनुष्यों में प्रजा के समान देवप्रजा को प्रकीर्णक देव कहते
हैं।
(E) आभियोग्य-मनुष्यों में दास के समान देव, जो इन्द्र की सवारी आदि के भी काम आते हैं।
. (१०) किल्विपिक-मनुष्यों में चाण्डालों के समान, पापी देव किल्लिपिक कहलाते हैं।
यह भेद प्रत्येक निकाय में ही होते हैं। मगर व्यन्तर एवं ज्योतिक देवों में त्रायलिंग तथा लोकपाल के सिवाय सिर्फ आठ ही विकल्प हैं । वैमानिकों और भवनवासियों में दस-दस भेद पाये जाते हैं।
शंका-जय चारों निकायों में इन्द्र श्रादि विकल्प हैं तय सभी निकायों में फरपोत्पन्न तथा कल्यातीत भेद करना च.हिए । यहां केवल वैमानिकों में दो विकल्प क्यों बताये गये हैं ?
समाधान-वैमानिकों के अतिरिक्त शेष तीन निकायों में कल्पोत्पन्न देव ही होते हैं, कस्पातीत नहीं, अतः उनमें दो भेद नर्दी हैं। चैमानिक देवों में दो प्रकार के देय हैं। इस कारण वैमानिकों के दो भेद बतलाये गये हैं।
___ 'कप्पोवगा' और 'कप्पाईया' पदों का बहुवचनान्त प्रयोग उनके अनेक प्रयान्तर भेर्दो को सूचित करता है । इन भेदों का निरूपण शारत्रकार स्वयमेर भागे फरते हैं।
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। ६५२ 1
নং-না-নিক ... मूल:-कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा ।
सणंकुमार माहिंदा, बंभलोगा य लंतगा ॥२०॥ महासुक्का सहस्सारा, प्राणया पाणया तहा। प्रारणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोवगा सुरा ॥ २१ ॥ छाया:-कल्पोपगा द्वादशधा, सौधर्मेशानगास्तथा।
सनत्कुमारा माहेन्द्राः, ब्रह्मलोकाश्च लान्तकाः ॥२०॥ महाशुक्राः सहस्राराः, श्रानताः प्राणतास्तथा ।
श्रारणा अच्युताश्चैव, इति कल्पोपगाः सुराः ॥२१॥ . शब्दार्थः-कल्पोत्पन्न या कल्पोपपन्न देवों के बारह भेद हैं--(१) सौधर्म (२) ईशान (३) सनत्कुमार (४) महेन्द्र (५) ब्रह्म (६) लान्तक (७) महाशुक्र (८) सहस्रार (६) आनत (१०) प्राणत (११) पारण और (१२) अच्युत ।
भाष्या-कल्पोपपन्न वैमानिक देव अपने निवास स्थान की अपेक्षा बारह प्रकार के होते हैं।
शनैश्वर के विमान से डेढ़ राजू ऊपर, जम्बूद्वीप के सुमेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में पहला सौधर्म देवलोक है और उत्तर दिशा में दूसरा ऐशान देवलोक है । इन . दोनों देवलोकों में तेरह तेरह प्रतर हैं। उनमें पांच-पांच सौ योजन ऊंचे और सत्ताईस-सत्ताईस लौ योजन की नींव वाले ३२००००० विमान पहले देवलोक में और २८००००० विमान दूसरे देवलोक में हैं। पहले देवलोक का इन्द्र शुक्रेन्द्र या. सौधर्मेन्द्र कहलाता है और दूसरे का ऐशानेन्द्र ।
इन दोनों देवलोकों के ऊपर दक्षिण दिशा में तीसरा सनत्कुमार और उत्तर दिशा में चौथा महेन्द्र नामक देवलोक है। इन दोनों देवलोकों में चारह-बारह प्रतर मंजिल हैं, जिनमें छह-छह सौ योजन के ऊंचे और छब्बीस-छब्बीस सौ योजन की नींव वाले तीसरे देवलोक में १२००००० विमान हैं और चौथे देवलोक में २०१००० विमान हैं।
इनके ऊपर मेरु पर्वत के ठीक मध्य में ब्रह्म नामक पांचवां स्वर्ग है। उसके छह प्रतर है। उसमें सात सौ योजन ऊंचे और २५०० योजन नींव वाले ४०००० विमान हैं। इस स्वर्ग के तीसरे प्रतर के पास, दक्षिण दिशा,पाठ कृष्ण राजियां हैं। इनके अंतराल में आठ विमान हैं और पाठविमानों के बीच एक और विमान है। इस प्रकार नौ विमानों में नौ लोकान्तिक जाति के देवों का निवास है। अर्चि नामक विमान में सारस्वत नामक लोकान्तिक रहते हैं, अचिमाली नामक विमानमें श्रादित्य नामक देव रहते हैं, वैरोचन विमान में वह्नि नामक देव रहते हैं, प्रशंकर विमान में वरुण, चन्द्राय विमान में गर्द। तोय, सूर्याभ विमान में तुपित, शकाम विमान में अन्यायाध, सुप्रतिष्ठित विमान में अग्नि देव, और अरिष्टाभ विमान में अरिष्ट देव रहते हैं।
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सरहवा अध्याय
'नव लौकान्तिक देव सम्यादीष्ट होते हैं, तीर्थकर भगवान् की दीक्षा के समय उनके वैराज्य की सराहना करने वाले हैं, आसन्त मोक्षगामी, ब्रह्मचारी और ऋपियों के समान होते हैं।
पांचवें स्वर्ग के ऊपर छटा लान्तक स्वर्ग है । इसके पांच प्रतर है, जिसमें . सात सौ योजन के ऊँचे और पच्चीस सौ योजन की नींव वाले ५०००० विमान हैं।
छ स्वर्ग के ऊपर सातवां महाशुक्र देव लोक है । इसके चार प्रतर है, जिसमें ८०० योजन ऊँचे और २४०० योजन की नीव वाले ४०००० विमान हैं।
सातवे देवलोक के ऊपर श्राठवां सहस्सार देव लोक है । सहस्त्रार देव लोक में चार प्रतर हैं, जिसमें ८०० योजन ऊँचे और २४०० योजन की नीच वाले ६.०० विमान हैं।
आठवें देवलोक के ऊपर प्रारंभ के चार देवलोकों के समान घराबरी पर दो-दो देवलोक आरंभ होते हैं । मेरु से दक्षिण दिशा में नववा प्रानत देव लोक और उत्तर दिशामें प्राणत नामक दसवां देवलोक है। इन दोनों में चार-चार प्रतर हैं, जिनमें नौ सौ योजन ऊँचे और २२०० योजन की नींच चाले दोनों के चार सौ चिमान हैं।
इन देवलोकों के ऊपर मेरु से दक्षिण की और ग्यारहवां अरूण देवलोक भार उत्तर दिशा में बारहवां अच्युत देवलोक है जिनमें एक हजार योजन ऊँच और बाईस सौ योजन की नींव वाले दोनों के तीन सौ विमान हैं।
इस प्रकार कल्पोपन्न देवों के बारह भेद हैं । शरचे देवलोक के ऊपर कस्पा. सीत देव रहते हैं। उनका वर्णन पारगे किया जा रहा है। मूलः-कप्पाईया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया ।
गेविजाणुतरा चेव, गेविजा नव विहा तहिं ॥ २२ ॥ छाया:-कल्पातीतास्तु ये देवा, द्विविधास्ते व्यारन्याताः।
___अवेयको अनुत्तराश्चैव, प्रेयेयका नवविधास्तन्नः ॥ २२ ॥ शब्दार्थः--जो कल्पातीत देव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं--प्रवेचक देव और अनुत्तर देव । उनमें से मैवेयक देवों के नौ भेद हैं।
__ भाप्यः-कल्पोपपन्न देवों के भेद बताने के पश्चात् यहां कल्पातीत देवों के मूल दो भेद-वेयर देव और अनुत्तर देव-और ग्रेवेयक देवों की भेदसंनया का कथन किया गया है।
यफ विमान नी है, यतः उनमें निवास करने वाले देव भी नी प्रकार के है। इसी प्रकार कल्पातीत देवों के दो भेद भी याश्रय-भेद से किये गये हैं। जो देव नी प्रेवेयकों में रहते हैं ये अवेयकदेव कहलाते हैं और अनुत्तर विमानों में रहने चाले अनुत्तर देव कहलाते हैं।
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। ६५४ T
नरक-स्वर्ग-निरूपण ग्यारहवें और वारहवें देवलोक के ऊपर, एक दूसरे के ऊपर नौ विमान हैं, जिन्हें अवेयक कहा गया है । इन नौ विमानों में नीचे से तीन विमानों का एक त्रिक, मध्य के तीन विमानों का दूसरा त्रिक और ऊपर के तीन विमानों का तीसरा त्रिक है । प्रथम त्रिक में भद्र. सुभद्र और सुजान नामक गैवेयक हैं, इन तीनों में एक सौ ग्यारह विमान हैं । मध्यम त्रिक में सुमनल, सुदर्शन और प्रियदर्शन नामक तीन पँवयक हैं। इन तीनों में एक सौ सात विमान हैं। तीसरे त्रिक श्रमोह, सुप्रतिबद्ध और यशोधर नामक तीन त्रैबेशक हैं । इन तीनों में सौ विमान हैं । यह सब विमान एक हजार योजन ऊँचे और २२०० योजन विस्तार वाले हैं । अवेयक के देवा का शरीर दो हाथ ऊँचा होता है।
नव त्रैवेयक के ऊपर चारों दिशाओं में चार विमान और मध्यम में एक विमान है। इन पांचों को अनुत्तर विमान कहते हैं । इनके नामों का उल्लेख अगली माथाओं में होगा। मूलः हेट्ठिमाहेट्ठिमा चेव, हेट्ठिमामज्झिमा तहा।
हेट्ठिमा उवरिमा चेव, मज्झिमा हेट्ठिमा तहा ॥ २३ ॥ • मज्झिमा मज्झिमा चेव, मज्झिमा उवरिभा तहा ।
उवरिमा हेट्ठिमा चेव, उवरिमा मज्झिमा तहा ॥२४॥ उवरिमा उवरिमा चेव, इय गेविजगा सुरा । विजया वेजयंता य, जयंता अपराजिया ॥ २५ ॥ सव्वत्थ सिद्धगा चेव, पंचहाणुत्तरा सुरा । इइ वेमाणिया एएऽणेगहा एवमायो ।॥ २६ ॥ छाया:-अधस्तनाधस्तनाश्चैव, अधस्त ना मध्यमास्तथा ।
श्रधस्तनोपरितनाश्चैव, मध्यमाऽस्तनास्तथा ॥ २३ । मध्यमामध्यमाश्चैव, मध्यमोपरितनास्तथा। उपरितनाऽधस्तनाश्चैव, उपरितनमध्यास्तथा ॥ २४ ॥ उपरितनोंपरितनाश्चैव, इति वैयकाः सुराः । विजया वैजयन्ताश्च, जयन्ता अपराजिताः ॥ २५ ॥ सर्वार्थ सिद्धकाश्चैव, पञ्चधाऽनुत्तराः सुराः।।
इति वैमानिका एते, अनेकधा एवमादयः ॥ २६ ॥ शब्दार्थ:-ग्रेवयक देवों के वासस्थान रूप नववे यक इस प्रकार हैं-(१) अधस्तनाधस्तन अर्थात् नीचे के त्रिक में से नीचे वाला, (२) अधस्तनमध्यम अर्थात नीचे के त्रिक का वीच वाला, (३) अधस्तन उपरितन अर्थात् नीचे के त्रिक में से ऊपर का, (४) .
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सत्तर हवा अध्याय मध्यमाधस्तन अर्थात् मध्य के त्रिक नीचे वाला, (५) मध्यममध्यम अर्थात् मध्य के त्रिक में बीच वाला, (६) मध्यमोपरितन अर्थात् मध्य के त्रिक में ऊपर वाला, (७) उपरितनाधस्तन-ऊपर के त्रिक में नीचे बाला, (८) उपरितनमध्यम-ऊपर के त्रिक में बीच का, और (8) उपरितनोपरितन-अर्थात् ऊपर के त्रिक में ऊपर वाला । यह नव अवयक हैं। ___ पांच अनुत्तर देवों के आश्रय स्थान की अपेक्षा पोच भेद इस प्रकार हैं--(१) विजय (२) वैजवन्त (३) जयन्त (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्ध । इस प्रकार वैमानिक देव अनेक प्रकार के हैं।
भाष्यः-नव अवेयक विमानों के अवस्थान के कम से यहाँ त्रैवेयकों का उल्लेख किया गया है। अतएव पूर्वोक्त नामों के साथ इन नामों का विरोध नहीं समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि अधस्तनाधस्तन अवेयक का नाम 'भद्र' है, अधस्तनमध्यम का नाम 'सुभद्र', और अधस्तनोपरितन 41 नाम 'सुजात' है । इसी प्रकार शेष छह अवेयको के नाम अनुक्रम से समझ लेने चाहिए ।
अनुत्तर विमानों के ( १ ) विजय ( २ ) चैजयन्त ( ३ ) जयन्त (४) अपराजित और ( ५ । सर्वार्थसिद्ध, यह पांचभेद है।
__ कल्पातीत देवों में इन्द्र, सामानिक आदि का कोई अन्तर नहीं है । न कोई बड़ा देव है, न कोई छोटा है । सब देव समान ऋद्धिधारी हैं । अतएव यह सब 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं। यह देव कौतूहल से रहित, विषयवासनाओं ले विरक्त और सदैव ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं।
देवों का श्रायु मनुप्यों की अपेक्षा बहुत अधिक होता है । वह इस प्रकार है:
भवनवासी-असुरकुमार- उत्कृष्ट एक पल्योपम से कुछ अधिक, जघन्य दस हजार वर्ष का, और नागकुमार श्रादि शेष नव का उत्कृष्ट श्रायुष्य डेढ़ पल्योपम का तथा जघन्य दस हजार वर्ष का।
व्यन्तर देव-समस्त व्यन्तरों एवं वाणव्यन्तरी की आयु उत्कृष्ट एक पल्योपम और जघन्य दस हजार वर्ष की होती है।
__ ज्योतिषी देव-तारा देव की प्रायु जघन्य पाय पल्योपम, और उत्कृष्ट पाद एल्योपम से कुछ अधिक है। सूर्य विमान में रहने वाले देवों की श्रायुज. पाय पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्यापम तथा एक हजार वर्ष की है। चन्द्र विमानवासी देयों की जघन्य पाय पल्यापम और उत्कृष्ट एक पल्योपम पवं एक लाख वर्ष की आयु है। नक्षत्र विमान के देवों का जघन्य पाव पल्योएम और उत्कृष्ट आधे बल्योपम की आयु हैं। नह विमानों में रहने वाले देवों का 'आयुष्य जघन्य पाच पल्यापम या और उत्कृष्ट एक पल्यापम का है। बुध, शुक्र, मंगल और शनि ग्रहों में रहने वाले देवों की भी प्रायु इतनी ही है।
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नरक-स्वर्ग-निरूपण वैमानिक देवों की स्थिति ( श्रायु ) इस प्रकार है:६.१ ) साधम. ज. एक पल्योपम उ० दो सागरोपम (२) ऐशान
" ,ले कुछ अधिक
ल कुछ अाधक , , से कुछ अधिक (३) सनत्कुमार , दो सागर
, सात सागर (४) माहेन्द्र . , ,, (कुछ अधिक) , , (कुछ अधिक) (५) ब्रह्म
सात सागर (६) लान्तक
दल सागर
चौदह सागर ७) महाशुक्र
चौदह सागर , संत्ताह सागर (८) सहस्त्रार
सत्तरह सागर " अठारह सागर (६) भानत , अठारह सागर
उन्नीस सागर (१०) प्रारणत
उन्नील सागर , बील सागर (११) भार
, बीस सागर ,इक्कीस सागर -(१२) अच्युत ,. इक्कीस सागर , बाईस सागर
इन देवलोकों की स्थिति देखने से ज्ञान होगा कि पिछले देवलोक में जितनी उत्कृष्ट श्रायु है, धागे के देवलोक में उतनी जघन्य घायु है। नव प्रेदयक विमानों में एक-एक लागर की आयु बढ़ती जाती है और नववे ग्रेबेयक में इकतीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति है। अर्थात प्रथम त्रैवेयक में जघन्य बाईस सागर, उत्कृष्ट तेईस सागर, इसी क्रम ले नौ ही ग्रेवयकों में एक-एक सागर की वृद्धि होती है। पांच अनुत्तर विमानों में से पहले के चार विमानों के देवों की जघन्य श्रायु इकतीस सागर की है
और उत्कृष्ट बत्तीस लागर की है। पांचवे सर्वार्थ सिद्धि विमान में जघन्य-उत्कृष्ट का भेद नहीं हैं । वहां के समस्त देवों की तेतीस सागर की ही स्थिति होती है।
देवगति में लांसारिक सुखों का परम प्रकर्ष है। वहां नियत प्रायु अवश्य भोगी जाती है-अकाल मृत्यु नहीं होती । देव, मृत्यु के पश्चात नरक गति में नहीं जाते । सम्यक्त्व. संयमासंयम, वाल तप और अकाम निर्जरा श्रादि कारणों से देवगति प्राप्त होती है । देवगति में मिथ्यादृष्टि देव भी होते हैं और सम्यग्दृष्टि भी मिथ्यादृष्टि देव तिर्यञ्च आदि गतियों में उत्पन्न होकर संसार भ्रमण करते हैं और कोई-कोई सम्यग्दृष्टि देव वहां से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मुक्ति प्राप्त करते है, कोई भरतक्षेत्र में मनुष्य होकर, मोक्ष गमन योग्य काल की अनुकूलता हो तो मुक्त होते है अथवा पुनः देव लोक में जाते हैं।
देवगति का विस्तार पूर्वक वर्णन अन्य शास्त्रों में देखना चाहिए । यहां संक्षिप्त कथन ही किया गया है। मूलः-जेसिं तु विउला सिंक्खा, मूलियं ते अइथिया।
सीलवंता सवीसेसा, प्रदीणा जति देवयं ॥ २७॥
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सत्तरहवां अध्याय
छायाः-येषां तु विपुला शिक्षा, मूलं तेऽतिक्रान्ताः ।
सीलवन्तः सचिशेषाः, अदीना यान्ति देवत्वम् ॥ २७ ॥ . . शब्दार्थः--जिन्होंने विपुल शिक्षा का सेवन किया है, वे शीलवान् ,उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करने वाले और अदीन वृत्ति वाले पुरुष मूल धन रूप मनुष्य भव को अति. क्रमण करके देव भव को प्राप्त करते हैं।
भाज्य:--देवगति का वर्णन करने के पश्चात् उसके कारणों पर यहां प्रकाश डाला गया है। जिन पुरुषों ने धर्म का श्राचरण किया है, वे प्राप्त मानव-जीवन रूपी पूंजी को चढ़ा लेते हैं। जो शील का अर्थात् सम्यक् चारित्र का पालन करते हैं,निरन्तर शात्मिक गुणों के विकास में तत्पर रहते हैं तथा आत्मिक गुणों को आच्छादित करने वाले विकारों के उपशमन में उद्यत रहते हैं और विविध प्रकार के परीषद तथा उपसर्ग श्राने पर भी दीनता नहीं धारण करते-उन्हें धैर्य एवं अन्य के साथ सहन करते हैं, वे पुरुष देवगति प्राप्त करते हैं।
मानवजीवन रूप पूंजी के विषय में एक कथानक है ! किसी साहूकार ने अपने तीन पुत्रों को एक-एक सहस मुद्रा दे कर व्यापार के लिए विदेश में भेजा । उनमें से एफ ने सोचा-'अपने घर में पर्याप्त धन है। भोगोपभोग के साधनों की भी कमी नहीं है। ऐसी स्थिति में व्यापार करके धनोपार्जन करने का कष्ट उठाने से क्या लास है ? ' इस प्रकार विचार कर उसने अपने पास की मूल पूंजी खो दी।
दूसरा पुत्र, पहले पुत्र की अपेक्षा कुछ अध्यवसायशील था। उसने विचार किया-'धन-वृद्धि करने की तो आवश्यकता है नहीं, मगर पिताजी की दी हुई मूल पूंजी समाप्त कर देना भी अनुचित है । अतएव मुन्त धन स्थिर रखकर उपार्जन किये हुए धन का उपभोग करना चाहिए।' इस प्रकार विचार कर उलने मूल पूंजी क्यों की त्या स्थिर रयस्त्री, पर जो कुछ उपार्जन किया वह सय ऐशआराम में समाप्त कर दिया।'
तीसरा पुत्र विशेष उद्योगशील था। उसने मूल पूंजी को स्थिर ही नहीं रक्ता, वरन् उसमें पर्याप्त वृद्धि की ।
यही यात संसार के जीवों पर घटित होती है। मनुष्यभव मूल पूंजी के समान है। सभी मनुष्यों को यह पूंजी प्राप्त हुई है। मगर कोई-कोई प्रमादशील मनुष्य इस का उपयोग मात्र करते हैं, परन्तु आगे के लिए कुछ भी नवीन उपार्जन नहीं करते। वे अन्त में दुःस, शोक एवं पश्चात्ताप के पात्र बनते हैं और चिरकाल पर्यन्त भयभ्रमण का कष्ट उठाते हैं। कुछ मनुष्य दूसरे पुत्र के समान हैं, जो पुण्य रूप धन की वृद्धि तो नहीं करते मगर फुछ नवीन उपार्जन करके प्राप्त पूंजी को स्थिर रखते हैं। कुछ मनुष्य तृतीय पुत्र के समान उद्योगी होते है। ये मनुष्य जन्म रूप पूंजी को बढ़ाने में सदा उद्योगशील रहते हैं। ऐसे पुरुष पुण्य रूप पूंजी को यदा कर देवगति प्राप्त करते है और अनुक्रम से मुनि-लाभ भी करते है।
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नरक-स्वर्ग-निरूपण तात्पर्य यह है कि इस समय जो मनुष्य पर्याय की प्राप्ति हुई है सो इसके लिए पूर्वजन्म में काफी पुण्याचरण करना पड़ा था। उस पुण्य का व्यय करके यह उत्तम पर्याय प्राप्त की है। इसे प्राप्त करके ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, जिससे पुराय में वृद्धि हो । जीवन के अन्त में दरिद्रता न आने पाये। जो पुरुष ऐसा नहीं करते वे पूर्वोपार्जित पुण्य क्षीण होने पर घोर दुःख के पात्र बनते हैं।
शील का पालन करना और ज्ञान आदि गुणों का उत्तरोत्तर विकास करना यही पुण्योपार्जन के साधन हैं । इन साधनों का प्रयोग करके जीवन को सार्थक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। साथ ही चारित्र पालन करते समय आने वाले दैनिक मानवीय श्रादि उपसर्गों से, तुधा, फिपाला, शीत, उष्ण आदि परिषहों ले जो पराभूत नहीं होते, कातरता का त्याग करके इन्हें दृढ़तापूर्वक सहन करते हैं, जो चित्त में दीनता नहीं आने देते, उन्हें जीवन की सन्ध्या के समय दीनता नहीं धारण करनी पड़ती। अतएव उक्त गुणों को धारण करके, देवगति की सामग्री एकत्र करके अन्त में मुक्ति लाभ का प्रयत्न करने में ही मानव जीवन की सफलता है। मूलः-विसालिसेहिं सीलेहि, जक्खा उत्तर उत्तरा।
महा सुका व दिपंता, मरणंता अपुणच्चवं ॥२८॥
प्राप्पिया देवकामाणं, कामरूव वि उविणो । उड्ढे कप्पेसु चिट्ठति, पुव्वा वाससया बहू ॥२६॥ छाया.-विरदृशे : शाले, यक्षा उत्तरोत्तराः।
महाशुक्ला इव दीप्यमानाः, मन्यमाना अपुनश्चवम् ॥ २८॥ अर्पिता देवकामान्, कामरूप वाक्रेरिणः ।
ऊर्व कल्पेषु तिष्ठन्ति, पूर्वाणि वर्षशतानि बहूनि ॥ २६ ॥ शब्दार्थः-विविध प्रकार के शीलों द्वारा प्रधान से प्रधान, महाशुक्ल अर्थात् चन्द्र मा के समान सर्वथा स्वच्छ, देदीप्यमान, फिर च्यवन न होगा। ऐसा मानते हुए इच्छित रूप बनाने वाले, बहुत से सैकड़ों पूर्व वर्ष पर्यन्त उच्च देवलोक में, दिव्य सुख प्राप्त करने के लिए सदाचार रूप व्रतों का अर्पण करने वाले देव बनकर रहते हैं।
___भाष्यः -यहां देवगति के कारणों का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार ने देवलोक का लाधारण परिचय कराया है।
'जो पुरुष विविध प्रकार के शील का अनुष्ठान करता है उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। स्वर्ग के देव विमानों में निवास करते हैं। देवों में अत्यन्त श्रेष्ठ और चन्द्रमा के समान चमकदार होते हैं। उनकी दीप्ति अनुपम होती है।
जैसे मनुष्यों में शैशव, वाल्य, वृद्ध आदि विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं वैसे देवों में नहीं। देव उत्पन्न होते ही बहुत शीघ्र तरुण अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं और
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________________ सत्तरहवां अध्याय * 64 उनकी यह अवस्था अन्त तक बनी रहती है। उन्हें कभी बुढ़ापा नहीं पाता। 'देवगति से हमें च्युत होना पड़ेगा' ऐसा उन्हें विचार नहीं आता, क्योंकि वे स्वर्गीय सुखों में डूबे रहते हैं तथा एक ही अवस्था में रहते हैं। देवों को चैक्रियक शरीर. प्राप्त होता है / इस शरीर में यह विशेषता होती है कि उससे मनचाहा रूप बनाया जा सकता है। छोटा-बड़ा, एक. अनेक इत्यादि यथेष्ट रूप धारण करने की क्षमता होने के कारण देवों को श्रानन्द रहता है और सुखों के प्राधिक्य के कारण के भविष्यय की चिन्ता से मुक्त रहत हैं। देवों की यह अवस्था मनुष्यों के समान लौ-पचास वर्ष तक ही कायम नहीं रहती, वरन् सैकड़ों पूर्व वर्ष पर्यन्त रहती है / पूर्व एक बड़ी संख्या है, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है / देवलोकों की स्थिति का वर्णन भी किया जा चुका है। इस प्रकार श्राचरण किये हुए शील के प्रभाव से उत्तम देवगति की प्राप्ति होती देव ऊर्ध्वलोक में रहते हैं। यह पहले बताया गया है कि मेरु पर्वत के समतल भाग से नौ सा योजन ऊपर तक मध्यलोक गिना जाता है और उससे भागे ऊर्ध्वलोक श्रारम्भ होता है। वहीं देवों के विमान हैं / शनैश्चर ग्रह के विमान की ध्वजापताका से डेढ़ राजु ऊपर प्रथम सौधर्म नामक स्वर्ग है और उसी की बराबरी पर दूसरा स्वर्ग है। शेष स्वर्ग इनके ऊपर-ऊपर हैं। सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान सब से ऊपर है और सिद्धाशला वहां से सिर्फ बारह योजन की ऊंचाई पर रह जाती है। देवगति के सुख प्रादि का वर्णन जिज्ञासुओं को अन्यत्र देखना चाहिए। मूल:-जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण समं मिणे / एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए // 30 // छायाः-यथा कुशा उदक, समुद्रेण समं मिनुयात् / एवं मानुप्यका कामाः, देवकामानासन्तिके // 30 // शब्दार्थ:-जैसे कुश की नौक ठहरी हुई बूंद का समुद्र के साथ मिलान किया जाय वैसे ही मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग दवों के कामभोगों के समान हैं। भाग्यः-शास्त्रकार ने यहां देवगति के काम-सुन्त्रों को धोदे दी शब्दों में प्रभावशाली ढंग से चित्रित कर दिया है। देवगति के सुख समुद्र के समान हैं तो उनकी तुलना में मनुष्यगति के सुस्त फुश नामक घास की नोक पर लटकने वाली एक बूंद के समान है / कहां एक बंद और कहां समुद्र की असीम जल राशि दोनों में महान थन्तर है। इसी प्रकार मनुष्यों और देवी के सुखों में भी महान् अन्तर है / मनुप्य की बड़ी से बड़ी माद्धि भी देविका द्धि के सामने नगण्य है। संसार के सर्वश्रेष्ट सुरन देवगति में ही प्राप्त दाते हैं। इतना होने पर भी मनुष्यभव में एक विशेषता है। देवभव भोग प्रधान मय है,
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नरक वर्ग-निरूपण कर्म प्रधान नहीं। यही कारण है कि देवता धर्म की विशिष्ट श्राराधना करके उसी भव से मुक्ति नहीं पाते। यहां तक कि सर्वालिद्ध विमान के देवों को भी मनुष्यभव धारण करना पड़ता है और मनुष्यभव से ही उन्हें मुक्ति प्राप्त होती है । अतएक
आत्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्यभव सर्वोत्कृष्ट है और सुख-भोग की दृष्टि से देव भव सवात्कृष्ट है। -
विवेकशील पुरुषों को विविध प्रकार के शील का पालन करना चाहिए, जिस से उन्हें स्वर्ग एवं अपवर्ग की प्राप्ति हो। मूल:-तत्थ हिच्चा जहाठाणं, जक्खा भाउजखए चुया ।।
उवोंत माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायई ॥३१॥ छायाः-तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा श्रायुःक्षये च्युताः ।
उपयान्ति मानुषी योनि, स दशाङ्गेऽभि जायते ॥ ३ ॥ .. शब्दार्थः-देवलोक में यथास्थान रहकर आयुष का क्षय होने पर वहाँ से च्युत हो जाते हैं और मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं वहां वे दस अंगों वाले-समृद्धि से सम्पन्न मनुष्य होते हैं।
साया- देवभव उत्कृष्ट से उत्कृष्ट वैवायिक सुखों का धाम है, फिर भी वह . अक्षय नहीं है । अन्यान्य भवों के समान उसका भी क्षय हो जाता है। बंधी हुई श्रायु भोग कुकने के पश्चात देव उस भव का त्याग करते हैं। फिर भी प्राचारित शील से उत्पन्न हुप पुण्य के अवशेष रहने के कारण वे मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं। मनुष्य योनि में उन्हें दस प्रकार की ऋद्धि प्राप्त होती है।
दल प्रकार की ऋद्धि का कथन स्वयं शास्त्रकार अगली गाथा में करेंगे। यहां यह समझ लेना श्रावश्यक है कि प्रत्येक देव च्युत हो कर मनुष्य ही हो, ऐसा नियम नहीं है। कोई देव मनुष्य और कोई तिर्यञ्च भी हो सकता है। मिथ्यादृष्टि देव मरकर तिर्यन होता है और सम्यग्दृष्टि देव मनुष्य भव पाते हैं । यहां विशिष्ट शीलवान सम्यग्दृष्टि देव का प्रसंग होने के कारण मनुष्य योनि की प्राप्ति का कथन किया गया है। मूलः-खित्तं वत्थु हिरगणं च, पसवो दासपोरुस ।
चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववजई ॥३२॥ छाया:-क्षेत्र वास्तु हिरण्यञ्च, पशवो दासपीरुपम् ।
चत्वार कामस्कन्धाः , तत्र स उत्पद्यते ॥ ३२॥ शब्दार्थ:--क्षेत्र, वरतु, हिरण्य, पशु, दास, पौरुष और चार बार कामस्कन्ध, जहाँ होते हैं, वहां वह देव जन्म लेता है।
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स्लत्तरहया अध्याय
भाष्य-इससे पहली गाथा. में जिन दस अंगों का उल्लेख किया था, उनका यहां नाम निर्देश किया गया है। जहां वैभव के यह दल अंग उपलब्ध होते हैं, वहीं वह देव, मनुष्य रूप में अवतीर्ण होता है। - दस वैभव के अंग यह है:-(१) क्षेत्र-जमीन आदि (२) वस्तु-महल, मकान आदि (३: हिरण्य-चांदी-सोना आदि पशु-गाय, भैंस, छोड़ा, हाथों आदि (५) दास दासी-नौकर-चाकर, वगैर (६) पौरुष कुटुम्ब-परिवार एवं पुरुषार्थ आदि (७-१०) चार कामलकन्ध-इन्द्रियों के विषय, इस प्रकार इस तरह के वैभव वाला मनुष्य होता है।
ठाणांगसूत्र में पाल्य प्रकार से भी दस तरह के सुखों का कथन किया गया है। वे इस प्रकार है:
११) प्रारोष्य-शरीर का स्वस्थ रहना, किसी प्रकार का दोष न होना। प्रारोज्य-सुख सभी सुखों का मूल है, क्योंकि शरीर में रोग झेने पर ही अन्य सुखों का उपभोग किया जा सकता है।
(२) दीर्घ श्रायु-शुभ दीर्घ आयु भी सुस्न रूप है। ऊत्तम से ऊत्तम भौगोपभोग प्राप्त होने पर भी यदि आयु अहाकालीन हुई तो सब सुन वृथा हो जाते है।
(३) आढ्यता-विपुल धन-सम्पत्ति का होना ।
(४) काम-पांच इन्द्रियों में से चनु और श्रोत्र हान्द्रय के विषयों को काम कहा गया है । इष्ट रूप और इष्ट शब्द की प्राप्ति होना काम-सुख की प्राप्ति कहलाती है।
(५) भोग-स्पर्शन, रसना और प्रेरण-इनियों के इष्ट विषय की प्राप्ति होना भोग-सुम्न है । इन विषयों के भोग से संसारी जीव सुख मानते हैं। सुख-साधन होने के कारण उन्हें भी सुख रूप कहा गया है।
(६) सन्तोप-इच्छा.का सीमित होना या अल्प पछा होना संतोष करलाता है। संतोएं, सुम्न का प्रधान करण है । विपुल वैभव और भोगोपभोग की प्रचुर सामग्री की विद्यमानता होने पर भी जहां असंतोप होगा वहां सुख नहीं हो सकता। अतः संतोष सुख का साधन है, और उसकी सुखों में गणना करना उचित ही है।
- (७) अस्ति तुम्न-जिस समय जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उसी समय उसकी प्राप्ति हो जाना भी सुरन है। इसे अस्ति सुन कहा गया है।
(८) शुम भोग-प्रशस्त भोग को शुभ भोग कहते हैं । ऐले भोगों की प्राप्ति और उन भोगों में भोग क्रिया का होना भी सुख रूप है। यह भी सातावेदनीय जन्य पौद्गलिक सुन है।
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। ६६२ ।
नरक-स्वर्ग-निरूपण (8) निष्क्रमण-निष्क्रमण का अर्थ है दीक्षा ग्रहण करना। अविरति रूप दुःख से छूट कर दीक्षा 'अंगीकार करना वास्तविक सुख का अद्वितीय साधन है। अतएव निष्क्रमण को सुखों में परिणित किया गया है। . (१०) अनाबाध सुख-श्राबाध अर्थात् जन्म, जरा, मरण आदि से रहित सुख अनाबाध सुख कहलाता है। इस प्रकार का सुख समस्त कर्मों से मुक्त होने पर प्राप्त होता है। कहा भी है
" न वि अस्थि माणुलाणं, ते लोक्खं न वि य सव्वदेवाणं ।
जं सिद्धाणं सोफखं, अव्वाबाह' मुवगयाणं ॥ अर्थात् सब प्रकार से अव्याबाध को प्रात हुए सिद्ध भगवान् को जिस सुख की प्राप्ति होती है, वह सुख न तो मनुष्यों को प्राप्त होता है और न किसी भी देव को ही प्राप्त हो सकता है । वह मोक्ष-सुख अनुपम है, अनिर्वचनीय है, अतुल है और अटल है।
. . . . अनावाध सुख, साक्षात देव भव से प्राप्त नहीं होता, किन्तु देवों को परम्परा से प्राप्त हो सका है। अतएव देवों के प्रकरण में भी उसका उल्लेख किया जाना असंगत नहीं है। . . . . मूलः-मित्तवं नाइवं होइ,
... उच्चगोये य वण्णवं । अप्पायं के महापरणे,
अभिजाए जसोबेल ॥३३॥ छायाः-मित्रवान् ज्ञातिवान् भवति, उच्चैर्गानन वर्णवान् । . . . . . अल्पातको महाप्राज्ञः-अभिजातो यशस्वी वली ॥ ३३ ॥
शब्दार्थः-स्वर्ग से आनेवाला जीव मित्रवाला, कुटुम्बवाला, उच्चगोत्रबाला, कान्तिमान् , अल्प व्याधिवाला, महाप्राज्ञ, विनयशील, यशस्वी और बलशाली होता है।
भाष्य:--शील का पालन करके स्वर्ग में गया हुश्रा जीव जब वहां से फिर मयुलोक में प्राता है, तब उसे निम्रलिखित विशेषताएँ प्राप्त होती है:--(१.) उसके अनेक हितैषी मित्र होते हैं । ( स्नेही कुटुम्वीजन मिलते हैं (३) वह लोक में प्रति. ठित समझे जाने वाले प्रसिद्ध कुल में जन्म ग्रहण करता है (४) वह दीप्तिमान होता है (५) उसके शरीर में कदाचित् ही कोई अल्प व्याधि होती है (६) वह तीव्र बुद्धि से विभूपित होता है (७) विनति होता है (८) लोक में उसकी कीर्ति का प्रसार होता है और (६) वह विशिष्ट बल से सम्पन्न होता है। :: .....
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संवरहवा अध्याय
तात्पर्य यह है कि एक जन्म में पालन किये हुए शील का फल अनेक जन्मों तक प्राप्त होता है । अतएव प्रत्येक प्रात्महितैषी को वीतरागोक्त शील का आचरण करना चाहिए।
निम्रन्थ-प्रवचन-सत्रहवां अध्याय समाप्त
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*ॐ नमः सिद्धेभ्या*
म. स . . . . . . निन्थ-प्रवचन ॥ अठारहवां अध्याय ।। . ..
*-*eo* * .... मोक्ष स्वरूप
श्री भगवान्-उवाचमूल:-प्राणाणिदेस करे, गुरूणमुववाय कारए ।
इंगियागार संपन्ने, से विणीय त्ति वुच्चई ॥ १ ॥ छाया-अाज्ञानिर्देशकरः, गुरूयामुपपात कारकः ।।
इंगिताकार सम्पन्नः, स दिनीत इत्युच्यते ॥ १ ॥ शब्दार्थ:-जो आज्ञा का पालन करने वाला, गुरुओं के समीप रहने वाला, गुरुजनों के इंगित एवं आकार को समझने में समर्थ होता है वह विनीत कहालाता है। .
भाग्य-पिछले अध्ययन के अन्त में स्वर्ग का वर्णन किया गया है और यह भी निरूपण कर दिया गया है कि शील को पालन करने वाला पुरुष स्वर्ग से च्युत होकर उत्तम मनुष्य होता है। मनुष्य गति का लाभ करके फिर वह कहां जाता है, यह बताने के लिए मोक्ष-स्वरूप नामक अठारहवां अध्ययन कहा जाता है। इससे यह स्वतः फलित हो जाता है कि शीलवान महापुरुष मुक्तिलाम करता है।
अनादि काल से आत्मा, पर द्रव्यों के संयोग के कारण विविध योनियों में निरन्तर भ्रमण कर रहा है। असंख्य वार प्रात्मा ने नरक गति प्राप्त की है, 'असंख्य बार देवगति लाभ किया है, असंज्यात चार मनुष्यभव पाया है। जन्म-मरण का यह चक्र मक्ति प्राप्त होने पर ही मिटता है । मुक्ति श्रात्मा की अन्तिम अवस्था है । अनेक योनियों में भ्रमण करके अन्त में मुक्ति प्राप्त होती है। अतएव यहां अन्त में मुक्ति का स्वरूप वतंलाया गया है।
जैनधर्म विनय मूल धर्म है। 'धम्मस्ल विणको मूलं' अर्थात् धर्म का मूल विनय है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है । जैसे मूल के बिना वृक्ष नहीं टिकता, उसी प्रकार विनय के विना धर्म की स्थिति नहीं होती। श्रतएव धर्म की साधना के लिए सर्वप्रथम विनय की अपेक्षा रहती है। धर्म लाधना का चरम और परम फल मोच्च है। इससे यह भली-भांति स्पष्ट है कि मुक्ति की प्राप्ति में विनय अनिवार्य है और उसका स्थान प्रथम है। यही कारण है मुक्ति का स्वरूप प्रतिपादन करने से पहले यहां विनय के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है।
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अठारहवां अध्याय .
विनय का सामान्य विवेचन पहले किया जा चुका है । अतएव यहां विनीत का स्वरूप बतलाया जाता है ।
जो अपने गुरुजनों की प्राक्षा का पालन करता है, उनके समीप रहने में अपना. अहोभाग्य समझता है, जो उनकी विधि या निषेध को सूचित करने वाली भ्रकुटि आदि चेष्टाओं को तथा मुख आदि की प्राकृति को भलीभांति समझता है और उन्हीं के अनुसार प्रवृत्ति करता है, वह विनीत पुरुष कहलाता है।
शिष्य का धर्म दे-गुरु का अनुसरण करना । कदाचित् ऐसा अक्सर श्रा सकता है जब गुरु के आदेश का रहस्य शिष्य की समझ में न आवे । उस समय वह उनके श्रादेश के विरुद्ध अपनी बुद्धि का प्रयोग करे तो वह विनयशील नहीं कहलाता। गुरु के आदेश में तर्क-वितर्क को अवकाश नहीं होता। गुरु बनाने से पहले उनके गुरुत्व की समीचीन रूप से परीक्षा कर लेना उचित है, पर परीक्षा की कसौटी पर कस लेने के पश्चात, गुरु रूप में स्वीकार कर लेने पर श्रालस्य के वशीभूत होकर, उद्दण्डता से प्रेरित होकर या अश्रद्धा की भावना से उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना उचित नहीं है। सच्चा सैनिक अपने सेनापति की श्राझा का उल्लंघन नहीं करता। ग्राक्षा उल्लंघन करने वाला कठोर दण्ड का पात्र होता है। इसी प्रकार विनीत शिष्य अपने गुरु की श्राक्षा का उल्लंघन नहीं करता। आशा-उल्लंघन करने वाले शिष्य को संयम रूप जीवन से हाथ धोना पड़ता है। आजापालन, प्रगाढ श्रद्धा का सूचक है। जिस शिष्य के हृदय में अपने गुरु के प्रति गाद श्रद्धा होगी उसे उनकी आजा की . हितकरता में संशय नहीं हो सकता। श्रद्धालु शिष्य यही विचार करेगा कि-'भले ही गुरुजी की शाजा का रहस्य मेरी समझ में नहीं पाता, फिर भी उनकी श्राजा अहित. कर नहीं हो सकती। इसमें अवश्य ही मेरा हित समाया हुआ है। इस प्रकार विचार कर वह तत्काल भाजापालन में प्रवृत्त हो जायगा । जिसके अन्तःकरण में अपने गुरु के प्रति प्रगाढ श्रद्धाभाव विद्यमान नहीं है, वह अध्यात्म के दुर्गम पथ का पथिक नहीं बन सकता। आध्यात्मिक साधना में अनेक अज्ञेय रहस्य सनिहित रहते हैं, जिन्हें उपलब्ध करने के लिए सर्वप्रथम गुरु के आदेश पर ही अवलम्पित रहना पढ़ता है। उन रहस्यों को सुलझाने के लिए जिस दिव्य दृष्टि की आवश्यकता है वह यकायक प्राप्त नहीं होती। वह दृष्टि नेत्र चन्द करके गुरु के आदेश का पालन करने पर ही प्राप्त होती है। अतएव साधनाशील शिष्य को गुरु के आदेश का पालन अव. श्यमेव करना चाहिए।
विनीत शिष्य का दूसरा लक्षण है-गुरु के समीप रहना । शिष्य का दूसरा पर्यायवाची शब्द 'अन्तेवासी है । गौतम स्वामी भगवान महावीर के 'अन्तवासी थे
और जम्बू स्वामी श्रार्य सुधर्मा स्वामी के 'अन्तरासी' थे। यद पर्याय शब्द ही इस यात को सूचित करता है कि गुरु के समीप वास करना शिष्य का कर्तव्य है। यन्ते. वासी या निकट निवासी दो प्रकार के होते हैं-द्रव्य से और भार से । शरीर से गुर महाराज की सेवा में उपस्थित रहने वाला द्रव्य अन्तेवासी । जो शिष्य अपने
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मोक्ष स्वरु लदाचार से, नमृता से एवं अनुकूल व्यवहार से गुरु के हृदय में घर कर लेता है अर्थात् गुरु का हार्दिक प्रेम सम्पादन कर लेता है वह भाव-अन्तेवासी कहलाता है। व्यतः अन्तेवासी और भावतः अन्तवाली की चौभंगी बनतीहै। वह इस प्रकार है:
(१) द्रव्य से अन्तवासी हो और भावसे भी अन्तेवासी हो। (२) द्रव्य से अन्तेवासी हो, भाव से अन्तेवासी न हो। (३) भाव से अन्तेवासी ही द्रव्य से न हो। (४) भाव से भी अन्तेवासी न हो और द्रव्य से भी न हो।
इन चार भगों में प्रथम भंग पूर्ण शुद्ध है और चौथा पूर्ण अर्युद्ध है । दूसरा भंग देशतः श्रशुद्ध है और तीसरा दूसरे की अपेक्षा अधिक देश-शुद्ध है।
गुरु के समीप सदा उपस्थित रहने वाला शिष्य श्रुत्र और चारित्रं का अधिक अधिकारी बन जाता है। उस पर गुरु का कृपा भाव रहता है। अतएव विनीत शिष्य को अन्तेवासी ( समीप रहने वाला ) बनना चाहिए ।
विनीत शिष्य का तीसरा लक्षण है-इंगिताकारसम्पन्नता । भौंहों.आदि की चेष्टा इंगांत कहलाती है और मुख की प्राकृति को यहां श्राकार कहा गया है। गुरु अपने इंगित एवं प्राकार से शिष्य को प्रवर्तनीय विषय का वोध करा देते हैं । शिष्य का धर्म है कि वह उन चेष्टाओं का बारीकी से अध्ययन करे और बचन द्वारा विधि : निषेध करने का अवसर आने से पहले ही प्रवृत्त या निवृत्त हो जायः । इस प्रकार व्यवहार करने वाला शिष्य, गुरु की प्रीति का पात्र बनता है। '. विनीत शिष्य के लक्षणों से सम्पन्न पुरुष के अन्तःकरण का अपने गुरु के अन्तःकरण के साथ एक प्रकार का सूक्ष्म संबंध स्थापित हो जाता है। इस एकता की स्थापना से गुरु के हृदय की अनेकानेक विशेषताएँ शिष्य के अन्तःकरण में प्राविर्भत हो जाती हैं । इससे शिष्य का दुर्गम साधनापथ सुगम बनता है। लोक में भी उसकी प्रतिष्ठा होती है। इस प्रकार उक्त तीन लक्षणों से सम्पन्न शिष्य कहलाता है। . मूल:-अणुसासिनो न कुप्पिजा, .. .. .
खंति सेवेना पंडिए । . खुड्डेहि सइ संसग्गिं,
' हासं कोडं च वजए ॥२॥ .. छाया:-अनुशासितो न कुप्येत, शान्ति सेवेत पण्डितः ।
धुदैः सह संसर्ग, हास्य क्रीडां च वर्जयेत् ॥२॥ शब्दार्थ:-बुद्धिमान् शिष्य शिक्षा देने पर कोप न करें, किन्तु क्षमा का सेवन करें क्षुद्र-अज्ञानी जनों के साथ संसर्ग न करे और हास्य तथा क्रीड़ा का त्याग करे।
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अठारहवां अध्याय
[ ६६७ भाष्यः-विनीत शिष्य के लक्षणों का कथन करने के पश्चात् उसके कर्तव्यों का निरूपण करने के लिये यह गाथा कही गई है। .
पंडा अर्थात् हित-अहित का विवेचन करने वाली बुद्धि जिसे प्राप्त हो यह एशिडत कहलाता है। पंडित अर्थात विवेकी शिष्य, गुरु द्वारा अनुशासन करने पर-शिक्षा देने पर क्रोध न करे वरन क्षमा का सेवन करे । उसे मिथ्यादृष्टियों का संसर्ग भी नहीं करना चाहिए और हंसी मजाक एवं खेल-तमाशे का भी त्याग करना चाहिए।
गुरु यद्यपि शान्ति के सागर और क्षमा के भंडार होते हैं, वे अपने शिष्य की दुर्बलताओं को भलीभांति समझते हैं, तथापि कभी प्रशस्त क्रोध के वश होकर, शिष्य पर अनुग्रह-वुद्धि होने के कारण कुपित हो जावे अथवा कुपित हुए बिना ही शिष्य को संयम-मार्ग पर आरूढ़ करने के लिये शिक्षा देवे-अनुशासन करें तो उस समय शिष्य को क्रोध नहीं करना चाहिए । उसे क्षमा भाव धारण करके विचारना चाहिए फि-' गुरु महाराज का मुझ पर अत्यन्त अनुग्रह है जो वे मुझे संयम से विचलित होने पर पुनः संयमारूढ़ करने का प्रयत्न करते हैं। मेरे व्यवहार से उनके ज्ञान-ध्यान में बाधा उपस्थित हुई, परन्तु वे मेरे ऐसे अलौकिक उपकारी हैं कि मेरा अनुशासन करते हैं। धन्य है गुरुदेव की परहितकरता! धन्य है उनका अनुग्रह ! उन्होंने मुझे उचित ही शिक्षा दी है । यह शिक्षा मेरे लिए उपकारक होगी । मैं उनका अनुगृहीत हूं। आगे इस प्रकार का अपराध करके उनका चित्त नब्ध नहीं करूंगा ! ' इस प्रकार सोचकर शिष्य को क्षमा का सेवन करना चाहिए ।
जो पुरुप क्षुद्र है-अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टि है उनकी संगति का त्याग करना चाहिए । • संसर्गजा दोष गुणा-भवन्ति ' अर्थात् संसर्ग से अनेक दोप और गुण श्रा जाते हैं । सत्पुरुषों की संगति से गुणों की एवं क्षुद्र पुरुषों के संसर्ग से दोपों की उत्पत्ति होती है।
- असत्संगति के समान हास्य और फ्रीड़ा का भी त्याग करना आवश्यक है। हास्य नो कपाय चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वालेभाव को इंसी कहते हैं
और मनोरंजन के लिए की जानेवाली क्रिया-विशेप कीड़ा है। सुयोग्य शिष्य को इनका आचरण नहीं करना चाहिए । हस्य आदि के प्रयोग से मिथ्या भाषण आदि अनेक दोषों का प्रसंग आता दे, अनर्थदण्ड होने की संभावना रहती है और शासन के गौरव को क्षति पहुंचती है। मूलः प्रासणगो न पुच्छिन्ना,
ऐव सेजागनो कयाइ वि । आगम्मुक्कुडयो संतो,
पुच्छिज्जा पंजली उडो ॥ ३ ॥
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। ६६६ ।
मोक्ष स्वरुप छायाः-यासनगतो न पृच्छत्, नैव शय्यागतः कदापि च ।
पागम्य उरकुटुकः सन्, पच्छेत् प्राञ्जलिपुटः ॥ ३॥ शब्दार्थः-श्रासन पर बैठे-बैठे गुरुजनों से कभी प्रश्न नहीं करना चाहिए और शय्या पर बैठे-बैठे भी नहीं पूछना चाहिए । गुरुजन के समीप आकर उकडूं शासन से अवंस्थित होकर, हाथ जोड़कर पूछना चाहिए।'
भाष्य-विनीत शिष्य के कर्तव्यों के निरूपण का प्रसंग चल रहा है, 'अतएक वही पुनः प्रतिपादन किया गया है। अपने आसन पर बैठे-बैठे या शय्या पर बैठ कर गुरु महाराज ले कोई प्रश्न पूछना-शंका निवारण करना, उचित नहीं है ऐसा करना शिष्टाचार से विपरीत है । अतएव गुरु महारज से जब किसी प्रश्न का समाधान प्राप्त करना हो तो अपने श्रासन या शय्या से उठकर गुरुजी के पास प्राव और नम्रभाव ले उकडू पालन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़ कर प्रश्न पूछ।
जैले पानी स्वभावतः उच्च स्थान से नीचे स्थान की ओर जाता है, नीचे से ऊपर की ओर नहीं जाता, इसी प्रकार ज्ञान भी उसी को प्राप्त होता है जो अपने गुरु को उच्च मानकर अपने को उनसे नीचा समभाता है जो विनीत शिष्य अभिमान के वश होकर अपने श्रापको उच्च मानता है और गुरु को नीचा समझता है वह शान लाभ नहीं करसकता। श्रतः श्रुत श्रादि के लाभ की अभिलाषा रखने वाले शिष्य को लनता एवं विनीतता धारण करनी चाहिए। मुल:- जं मे बुद्धा सासंति, सीएण फरसेण वा ।
• मम लाभो ति, पेहाए, पयो तं पडिस्सुणे ॥४॥ ...... छायाः यन्मा बुद्धाणुपासंति, शीर्तन पुरुषेण या।
यम ताम इति प्रेय, मध्यस्तत् प्रतिश्रणुयात ॥ ४॥ शब्दार्थः-मुझे ज्ञानीजन शान्त तथा कठोर शब्दों से जो शिक्षा देते हैं, इसमें मेरा ही लाभ है, ऐसा विचार कर जीव मात्र की रक्षा करने में यत्नानान शिष्य उनकी वाढ अंगीकार करे। ... भाष्यः-गुरु जय शिष्यको शिक्षा देते हैं या उलका अनुशासन करते हैं, तब शिष्य को क्या करना चाहिए, यह बात प्रकृत गाथा में स्पष्ट की गई है। :
कोमल अथवा कठोर शब्दों से अनुशासन करने पर शिष्य को इस भांति विचार करना चाहिए:-'गुरु महाराज मुझे जो शिक्षा देते हैं उसमें उनका रंच मात्र. भी लाभ या स्वार्थ नहीं है । वे केवल मेरे ही लाभ के लिए मुझे कठोर शब्दों द्वारा या कोमल शब्दों द्वारा शिक्षा देते हैं। मैंने जो अनुचित आचरण किया है उसके लिए अगर वे चेतावनी न देते तो उनकी क्या हानि हो जाती ? हानि तो मेरी ही होती। अतएव उनके अनुशासन का उद्देश्य मेरा हितसाधन ही है। में गुरु देव का अत्यन्त कृता हूं कि उन्होंने भविष्य के लिए मुझे अनुचित आचरण न करने के लिए प्रेरित
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Namdomac-dece
অষ্টাঃ । किया है।' इत्यादि विचार करके विनीत शिष्य को गुरु महाज का कथन अंगीकार करना चाहिए । श्रीगीकार करने से यहां यह अभिप्राय है कि अपना दोष स्वीकार फरने के साथ भविष्य में ऐलान करने के लिए गुरु के समक्ष अपना संकल्प प्रकट करना चाहिए। मूलः-हियं विगयमया वृद्धा, फरूसं पि अणुसासणं ।
वेसं तं होइ सूढाणं, खंतिसोहिकरं पयं ॥ ५ ॥ छाया.-हितं विगतमया पुन्हाः, परुपमप्यनु शासनम् ।
द्वेपं भवति मूढनां, शान्तिशुद्धिकरं पदम् ॥६॥ शब्दार्थ:--मय से अतीत और तत्त्वज्ञानी पुरुष गुरु के कठोर अनुशासन को भी अपने लिए हितकर मानते हैं और मूढ़ पुरुपों के लिए क्षमा एवं आत्मशुद्धि करने वाला ज्ञानरूप एक पद भी द्वेष का कारण बन जाता है।
भाया-प्रस्तुत गाथा में विवेकवान् और मूढ़ शिष्य का अन्तर प्रतिपादन किया गया है। दोनों की मानसिक रूचि झा यहाँ चित्रण किया गया है।
निर्भय और ज्ञानवान् शिष्य कठोर से कठोर गुरु के अनुशासन को भी अपने लिए हित रूप मानते हैं और सूद शिष्य क्षमायुक्त एवं श्रात्मशुद्धि जनक एक पद को भी द्वेष का कारण बना लेता है। अर्थात् गुरु द्वारा कोमल वचनों ले समझाय जाने पर भी मून शिप्य उनले देप करने लगता है।
विवेकी शिष्य को यहाँ 'विनयभया' अर्थात् भय से मुक्त विशेषण दिया गया है, वह विशेष ध्यान देने योग्य है । अनादिकालीन अभ्यास के कारण इन्द्रियाँ विषयों की और से रोकने पर भी कभी-कभी उनमें प्रवृत्त हो जाती हैं. चंपल मन कभी-कभी असन्मार्ग में घसीट ले जाता है और किसी समय अज्ञान के कारण भी अकर्तव्य कर्म कर लिया जाता है। ऐसा होने के पश्चान कर्ता को अपनी भूल मालूम हो भी जाती है, पर संसार में अनेक ऐसे पुरुप हैं जो उस भूत को छिपाने का प्रयत्न करते हैं। एक भूल को छिपाने के लिए उन्हें मिथ्याभाषण, मायाचार आदि अनेक भूनें करनी पड़ती हैं। ऐसा करने का मुख्य कारण है-जीर्ति या प्रतिष्ठा के भंग हो जाने फा भय । लोक में मेरी मृल की प्रसिद्धि हो जायगी तो मेरी प्रतिष्टा चली जायर्ग मेरी अपकीर्ति होगी, इस प्रकार के मनः कल्पित भय से भनेक पुरुप भूल का संशोधन करने के बदले माल पर भूल करते जाते हैं। किन्तु ऐसा करने से फल विपरीत दी होता है। इस प्रकार का भय 'श्रात्मशुद्धि के मार्ग में अधिक होता है । इस भय का त्याग करके अपनी भूल को नन्ना के साथ स्वीकार करना चाहिए । हात्तर में इससे प्रतिष्ठा घटती नहीं बढ़ती है। यात्मिक शुद्धि के लिए भी ऐसा करना अत्यन्त लाय. श्यक है। यह बताने के लिए शासकार ने 'विगयभया' विशरण का प्रयोग किया है।
निर्भय होकर अपने अपराध को स्वीकार कर लना और भविष्य में उससे
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मोक्ष स्वरुप बचते रहने के लिए लदा उद्यत रहना संत पुरुष का लक्षण है। मूढ़ पुरुष अपने अपराध को छिपाने का प्रयत्न करता है और हितैषी गुरुजनों के समझाने पर उनसे द्वेष करने लगता है। सुलः अभिनखणं कोही हवइ, पबंधं च पकुवई ।
मेत्तिज्जमाणो वमइ, सुयं लभ्रूण मज्जइ ॥६॥ अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । सुपियस्ता वि मित्तस्त, रहे भासइ पावगं ॥७॥ पइराणवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे प्राणिग्गहे। असंविभागी प्रवियत्ते, प्राविणीए ति बुच्चई ॥८॥ लाया:-अभीक्षणं क्रोधी भवति, प्रबन्यञ्च प्रकरोति ।
मैत्रीयम णो वमति, श्रुतं लब्ध्वा माद्यति ॥ ६ ॥ अपि पापपरिक्षपी, अपि मित्रेभ्यः कुप्यति । सप्रियस्यापि मिनस्य, रहसि भापते पापकम् ॥७॥ प्रकीर्णवादी द्रोहशीलः, स्तन्धो लुब्धोऽनिग्रहः।
असंविभाग्या प्रीतिकरः, अविनयी त्युच्यते ॥८॥ शब्दार्थः-जो पुरुष बारम्बार क्रोध करता है, कलह करने वाली बात कहता है, . मैत्री का वसन करता है, शास्त्रज्ञान पाकर मद करता है, गुरुजनों की साधारण भूल की निन्दा करता है, हितैषी-मित्रों पर कुपित होता है, परोक्ष में अत्यन्त प्रिय मित्र के दोषों को उघाड़ता है, असंबद्ध भाषण करता है, द्रोह करने वाला होता है, अभिमानी होता है, जिह्वा आदि इन्द्रियों के विषयों में लुब्ध होता है, अपनी इन्द्रियों का विग्रह नहीं करता, जो संविभाग करके-बँटवारा करके वस्तुओं का उपयोग नहीं करता, कोई बात पूछने पर भी अस्पष्ट भाषण करता है, वह अविनीत कहलाता है।
: भाष्य-अविनीत किसे कहना चाहिए ? अथवा अविनय का त्याग करने के लिए किन-किन दुर्गुणों का त्याग करना आवश्यक है, यह विषय प्रकृत गाथाओं में . स्पष्ट किया गया है। निम्नलिखित दुर्गुण अविनीत के लक्षण हैं:
' (१) सदा क्रोधी होना-बात-बात पर नाक भौं सिकोड़ना, छोटी एवं तुच्छ बातों पर भी क्रोध करते रहना।
(२) कलह उत्पन्न करने वाला भाषण करना । संघ में, गण में, कुल में, तथा देश में, जाति में या अन्य किसी भी समूह में अनेकता उत्पन्न करने वाली, एरस्पर संघर्ष उत्पन्न कर देने वाली, लड़ाई-झगड़ा जगा देने वाली बातें कहना या ऐसा प्रयत्न करना।
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अठारहवां अध्याय
- [६७१ 1 (३ ) मैत्रीभाव का वमन करना-जिसके साथ मैत्री का संबंध स्थापित किया है; उनकी मैत्री को स्वार्थ में बाधक समझकर त्याग देना तथा दूसरे मैत्री करना चाहे तब भी प्रतिकूल व्यवहार करके मैत्री को भंग करने की चेष्टा करना। .
(४) श्रुत का अभिमान करना-किञ्चित् शास्त्र का वोध प्राप्त कर लेने पर यह समझना कि लंसार में मेरे सदृश कौन ज्ञानवान शास्त्रवेत्ता है ? शास्त्रीय ज्ञान में कौन मेरा सामना कर सकता है ?
(५) पापपरिक्षेपी होना---गुरुजनों से कभी साधारण सूल हो जाय तो उसका ढिंढोरा पीटनाया अपना पाए दूसरे पर डालना ।
(६) मित्रों पर कोप करना-हितैषी जन हित से प्रेरित होकर तु-शिक्षा दें तो उलटे उन पर शोध करना ।
(७) परोक्ष में निन्दा करना-अपने प्रिय से प्रिय जन की भी परोक्ष में निन्दा करना।
___ (८) भाषा समिति का विचार न करके असंबद्ध-अंट-तंट भाषण करना, निरर्थक बहुत बोलना, अप्रिय भाषा का प्रयोग करना ।
(६) द्रोही होना-गुरु द्रोह करना, संघ द्रोह करना, अपने साथियों के साथ दोह करना।
(१०) अभिमान करना-शुत का, चारित्र का, तपस्या का, प्रतिष्ठा का या अन्य किसी विशेपता का मद करना।
(११) लुब्ध होना-इन्द्रियों के रस आदि विपरों में लोलुपता धारण करना, इष्ट विपयों की प्राप्ति की अभिलाषा करना, उसके लिए प्रयत्न करना ।
(१२) इन्द्रियों का निग्रह न करना - नेत्र रंजक रूप और श्रुति-मधुर शब्द ग्रादि में प्रवृत्त होने वाली इन्द्रियों को नियंत्रित न करना-इन्द्रियों का अनुसरण करना।
संविभागी होना-प्राप्त हुए श्राहार आदि का अपने साथियों में यथायोग्य बँटवारा न करके सारा का सारा साप ही खा लेना अथवा अच्छा-अच्छा भाप खा लेना और निःस्वादु भोजन आदि अप्रिय पदार्थ अन्य फा देना।
(१४) अव्यक्त होना-श्रव्यस्त अर्थात् अस्पष्ट, भापण करना । कोई फिली धात को पृ, तो गोल मोल बोलना।
यह लक्षश जिसीय पाये जाते हैं वह अविनीत कहलाता है। विनीत बनने के लिए इन दोषों का परित्याग करना चाहिए । मूलः-अह पण्णरसहिं ठाणेहिं, सुविणीए ति वुच्चई ।
नीया वित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥ ६ ॥
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। ६७२ ]
मोक्ष स्वरुप छाया.-अथ पञ्चदशभिः स्थानैः, सुविनीत इत्युच्यते । . . . नोचैर्वृत्तिरचपलः, अभाथी अकुतूहल: ॥६॥
शब्दार्थः-पन्द्रह स्थानों से पुरुष विनीत कहलाता है । वे इस भांति हैं-(१) नम्रता (२) अचपलता (३) निष्कपटता (४) कुतूहलरहितता । (शेष ग्यारह स्थान अगली गाथा प्रो में वर्णित हैं)।
भाष्य-श्रथ का अर्थ है-अनन्तर । अर्थात् अविनीत के लक्षण बतलाने के अन्नतर सुदिनीत का स्वरूप यहां बताया जाता है।
सुविनीत के पन्द्रह लक्षण है। इन पन्द्रह लक्षणों से संपन्न पुरुष सुविनीत कहलाता है। पन्द्रह में से प्रकृत गाथा में चार लक्षण बतलाये हैं। शेष लक्षणों का अग्रिय गाथाओं में निर्देश किया जायगा । चार लक्षण इस प्रकार हैं:
[१] नावृत्ति-नम्रता को कहते हैं । स्वभाव में नम्रता होना अर्थात् जो अपने सगुणों में बड़े हैं-विशिष्ट ज्ञानी, विशिष्ट संचम और विशिष्ट सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हें यथा योग्य प्रणाम करना, उनके सामने अवनत रहना आदि ।
[२] अचपलता-गुरुजनों के समक्ष चंचलता प्रदर्शित न करना, उनके भाषण करते समय बीच में न बोलना, जब वे कोई उपदेश दे रहे हों इधर-उधर न ताकना, उनके समक्ष व्यर्थ न चलना-फिरना-टहलना आदि।
१३] निष्कपटता-मायाचार का सेवन न करना।
[४] कुतूहलरहितता-खेल-तमाशा आदि कौतुकवर्द्धक बातों से रहित होना। मूलः-अप्पं च अहिक्खिवई, प्रबंधं च न कुव्वई ।
मेसिनमाणो भया, सुयं लद्धं न मजई ॥१०॥ न य पाव परिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई ।
अप्पियस्स वि मित्तस्स, रहे हल्लाण भासई ॥ ११ ॥ कलहडमर वज्जए, बुद्धे अभिजाइए । हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए ति बुच्चई ॥ १२ ॥ छाया:-अल्पञ्चाधिक्षिपति, प्रवन्धञ्च न करोति ।
मैत्रीयमाणो भजते. श्रुतं लब्ध्वा न माघति ॥ १०॥ . न च पाप परिक्षेपी, न च मित्रेपु कुप्यति ।
अप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि कल्याणं भापते ॥ ११॥ ...कलह उमर वर्जदः, शुद्धोऽभिजातकः।
हीनान प्रतीसलीनः सुविनीत इत्युच्यते ॥ १२ ॥
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अठारहवां अध्याय
[ ६७३ ] शब्दार्थः-गुरुजनों का तिरस्कार न करनेवाला, कलहजनक बात न कहने वाला, मित्रता को निभाने वाला, श्रुत का लाभ कर के अहंकार न करने वाला, अपनी भूल को दूसरोंपर न गेरने वाला, मित्रों पर क्रोध न करने वाला, अप्रिय मित्र के परोक्ष में भी गुणानुवाद करने वाला, वायुद्ध एवं कायिक युद्ध से दूर रहनेवाला, तत्वज्ञ, कुलीनता आदि गुणों से युक्त, लज्जाशील और इन्द्रिय विजेता पुरुष सूविनीत कहलाता है ।
भाष्यः-विनीत के चार लक्षण पूर्व गाथा में वतलाये गये थे। प्रकृत गाथाओं में शेष ग्यारह लक्षण बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैं:
(५ ) अधिक्षेप न करना-'ज्ञान आदि गुणों से श्रेष्ट गुरुजनों का अपमानतिरस्कार न करना।
(६) प्रबंध अर्थात् कलह उत्पन्न करने वाली बात न कहना ।
(७) मैत्री करने पर उसका वमन न करना भर्थात् मैत्री का भलीभांति निर्वाह करना।
(८) शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके अभिमान न करना ।
(६) पाप परिक्षेपि अर्थात् गुरुजनों की साधारण-सी भूल को सर्वत्र फैलाने वाला न हो।
हितैपी-मित्रों पर, उनके हितोपदेश देने पर या किसी अनुचित कार्य से रोकने पर कुपित न होना;
(११) श्रप्रिय मित्र अगर सामने न हो तो भी उसका गुणानुवाद करना अर्थात् गुणग्राही होना, किसी की प्रत्यक्ष में या परोक्ष में निन्दा न करना।
(१२) वाचनिक युद्ध कलह कहलाता है और कायिक युद्ध डम्बर कहलाता है। इन दोनों का त्याग करना ।
(१३ ) कुलीनता के योग्य गुणों से युक्त होना ।
(१४ लज्जावान् होना बड़े-बूढ़े के सामने निर्लजता पूर्वक हंसी-दिलगी, यातचीत प्रादि न करना।।
(१५) इन्द्रियों पर अंकुश रखना।
इन पन्द्रह लक्षणों से सम्पन्न पुरुष विनीत कहलाता है । इस लोक और पर. लोक-दोनों में सुख-शान्ति प्राप्त करने का सरल उपाय विनय । अतएव विनय के उफ्त लक्षणों को धारण कर विनीत बनना चाहिए। सूल:-जहा हि अग्गी जलणं नमसे,
नाणाहुई मंतपयाहिसत्तं
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...६७४
मोक्ष स्वरुप एवायरियं उवचिट्ठ, इजा,
ना, . अणंतनाणोवगो वि संतो ॥१३॥ छाया:-यथाऽऽहिताग्निज्वलनं नमस्पति नानाऽऽहतिम पदाभिविनम् ।
एवमाचार्यमुपतिष्ठेत् , अन तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:-जैसे अग्निहोती ब्राह्मण, नाना प्रबार की घृत-प्रक्षेप रूप आहुतियों एवं मंत्रों से अभिषेक की हुई अग्नि को नमस्कार करता है, इसी प्रकार अनन्त ज्ञान से युक्त होने पर भी शिष्य को आचार्य की सेवा करनी चाहिए।
भाध्यः-प्रकृत गाथा में उदाहरण पूर्वक श्राचार्य-विनय का विधान किया गया है । जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अपने घर अग्नि की स्थापना करता है और घृत, दुध, मधु श्रादि पदार्थों की आहुति देकर 'अग्नये स्वाहा' इत्यादि प्रकार के मंत्रपदों से श्राग्नि का अभिषेक करता है और अग्नि की पूजा करके उसे नमस्कार करता है, इसी प्रकार शिष्य अपने आचार्य की यत्न से सेवा-भक्ति करे । उदाहरण एकदेशीय होता है, अतएव यहां इतना अभिप्राय लेना चाहिए कि जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अत्यन्त प्रतिमाक ले अग्नि का श्रादर-लेबन करता है उसी प्रकार शिष्य को प्राचार्य महाराज की विनय-भक्ति करनी चाहिए 'श्रणतणाणोवगो वि संतो' अर्थात् अनन्तज्ञानी होने पर भी, प्राचार्य श्री भक्ति का जो विधान किया गया, है, लो यहां प्रणत ज्ञान का अर्थ केवलज्ञान नहीं समझना चाहिए । केवली पर्याय की प्राप्ति होने पर बन्ध-बन्दक भाव नहीं रहता । अनंत पद ले अनन्त पर्यायो वाला होने से 'वस्तु' अर्थ लिया गया है। उसे जानने वाले विशिष्ट ज्ञान का ग्रहण करना चाहिए, । तात्पर्य यह है कि शिष्य कितना ही विशिष्ट ज्ञानी क्यों न होजाय, फिर भी उसे श्राचार्य का विनय अवश्य करना चाहिए। मुल:-आयरियं कुवियंणचा, पत्तिएण पसायएं।
विज्झवेज पंजलिउडो, वइजण पुणात्ति य ॥ १४ ॥ छाया-प्राचार्य कुपितं ज्ञात्वा, प्रीत्या प्रसादयेत् ।
विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वदेन पुनरिति च ॥ १४ ॥ शब्दार्थ:-आचार्य को कुपित जानकर प्रीतिजनक शब्दों से उन्हें प्रसन्न करना चाहिए हाथ जोड़कर उन्हें शान्त करना चाहिए और 'फिर ऐसा न करूँगा' ऐसा कहना चाहिए।
भाष्यः-शिष्य का कर्तव्य यह है कि वह विनय के अनुकूल ही समस्त व्यवहार करे । किन्तु कदाचित् असावधानी से भूल में कोई कार्य ऐसा हो जाय, जिससे श्राचार्य के क्रोध का भाजन बनाना पड़े, तो उस समय शिष्य के प्रतिजनक वचन कहकर श्राचार्य को प्रसन्न कर लेना चाहिए । आचार्य जब कुपित हो तो शिष्य श्री मुँह लटकाकर एक किनारे बैठ जाय, यह उचित नहीं है उसे विनयपूर्वक दोनों ।
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अठारहवां अध्याय
[ ६७५ 1 हाथ जोड़कर श्राचार्य महाराज का कोप शान्त करना चाहिए।
श्राचार्य केवल मधुर भाषण एवं विनम्रता-प्रदर्शन से ही प्रसन्न नहीं होते। उनके कोप का कारण शिष्य का अनुचित आचार होता है। अतएव जब तक पुनः वैसा आचार न करने की प्रतिजा न की जाय तब तक कोप का कारण पूर्ण रूप से दूर नहीं होता। इसलिए शास्त्रकारने यह बताया है कि शिष्य को 'ण पुणत्ति' फिर ऐसा आचरण न करूँगा, यह कहकर श्राचार्य को अश्वासन देना चाहिए।
शाचार्य का कोप शिष्य के पक्ष में अत्यन्त अहितकर होता है । अतएव श्राचार्य की अवहेलना करके उन्हें कुपित करना योग्य नहीं है। प्राचार्य की अवहेलना के संबंध में शास्त्र में लिखा है
सिया हु से पावय तो डहेजा, श्रासीविसो वा कुवियो न अक्खे । सिया विसं हालहलं न मार, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥
अर्थात्-स्पर्श करने पर भी कदाचित् अग्नि न जलावे, कुपित हुआ सर्प भी कदाचित् न जैसे और कदाचित् हलाहल विष से मृत्यु न हो, मगर गुरु की अवहेलना करने से मुक्ति की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है । तथा
जो पव्वयं सिरसा भेजुमिच्छे, उत्तं व सीहं पडि वोहाइजा।
जो चा दए सात्ति-अग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ॥ थर्थात्-गुरु की शासातना करना मस्तक मार-कर पर्वत को फोड़ने के समान है, सोते हुए सिंह को जगाने के समान है अथवा शक्ति नामक शस्त्र की तीक्ष्ण धार पर हाथ-पैर का प्रहार करने के समान अनर्थकारक है । अतएव
जस्तंतिए धम्मपाय सिक्ने, तस्संतिए वेणइयं पडंजे ।
सरकारए सिरसा पंजलीओ, कायनिगरा भो मणसा अनिच्छ । अर्थात्-जिससे धर्म शास्त्र साख्ने उसके सामने विनयपूर्ण व्यवहार करना चादिप । मस्तक झुकाकर, हाथ जोड़कर, मन, वचन, काय से उसका सत्कार करना चाहिए।
धर्मशस्त्र के इस विधान से प्राचार्य की भक्ति की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। अतएव अपने कल्याण की कामना करने वाले शिष्य को गुरु का समुचित विनय कारना चाहिए और अपने अनुकूल सद्व्यवहार से प्रसन्न रखना चाहिए। ' मूलः-पच्चा णमइ मेहावी, लोए कित्ती से जायइ ।
हवइ किच्चाण सरणं, भूयाणं जगई जहा ॥ १५ ॥ लाया:-ज्ञाश्या नमन मेधाबी, लोके कीर्तिस्तस्य जायते।।
भवति मायानां शरां. भूतानां जगती यथा ॥ १५॥ शब्दार्थः-विनय के सन्यफ स्वरूप को जानकर बुद्धिमान पुरुप को विनयशील होना चाहिए। इससे लोक में उसकी पीति होती है। जैसे प्राणियों का आधार पृथ्वी
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मोक्ष स्वरुष एवायरियं उवाचिट्ठ, इजा,
. अणंतनाणोवगो वि संतो ॥१३॥ छाया:-यथाsहिताग्निचलनं नमरूति नानाऽऽहुतिम पदाभिविनम् ।
एवमाचार्यमुपतिष्ठेत् , अन तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:-जैसे अग्निहोती ब्राह्मण, नाना प्रबार की घृत-प्रक्षेप रूप आहुतियों एवं मंत्रों से अभिषेक की हुई अग्नि को नमस्कार करता है, इसी प्रकार अनन्त ज्ञान से युक्त होने पर भी शिष्य को आचार्य की सेवा करनी चाहिए।
__ भाष्यः-प्रकृत गाथा में उदाहरण पूर्वक श्राचार्य-विनय का विधान किया गया है । जैले अग्निहोत्री ब्राह्मण अपने घर अग्नि की स्थापना करता है और घृत, दुग्ध, मधु श्रादि पदार्थों की पाहुति देकर 'अग्नये स्वाहा' इत्यादि प्रकार के मंत्रपदों से अग्नि का अभिषेक करता है और अग्नि की पूजा करके उसे नमस्कार करता है, इसी प्रकार शिष्य अपने आचार्य की यत्न से सेवा-भक्ति करे । उदाहरण एकदेशीय होता है, अतएव यहां इतना अभिप्राय लेना चाहिए कि जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अत्यन्त भक्तिभाव से अग्नि का आदर-सेबन करता है उसी प्रकार शिष्य को श्राचार्य महाराज की विनय-भक्ति करनी चाहिए 'अणतणाणोबगो वि संतो' अथात् अनन्तज्ञानी होने पर भी, आचार्य की भक्ति का जो विधान किया गया, है, सो यहां प्रणत जान का अर्थ केवलजान नहीं समझना चाहिए । केबलो पर्याय की प्राप्ति होने पर बन्ध-बन्दक भाव नहीं रहता । अनंत पद से अनन्त पर्यायों वाली होने से 'वस्तु अर्थ लिया गया है। उसे जानने वाले विशिष्ट ज्ञान का ग्रहण करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शिष्य कितना ही विशिष्ट ज्ञानी क्यों न होजाय, फिर भी उसे प्राचार्य का विनय अवश्य करना चाहिए। मूलः-शायरियं कुवियंणच्चा, पत्तिएण पसायए ।
विज्झवेज पंजलिउडो, वइजण पुणति य ॥ १४ ॥ छाया:-प्राचार्य कुपितं ज्ञात्वा, श्रीत्या प्रसादयेत् ।।
विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वदेश पुनरिति च ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-आचार्य को कुपित जानकर प्रीतिजनक शब्दों से उन्हें प्रसन्न करना चाहिए हाथ जोड़कर उन्हें शान्त करना चाहिए और 'फिर ऐसा न करूँगा' ऐसा कहना चाहिए।
भाष्यः-शिष्य का कर्तव्य यह है कि वह विनय के अनुकूल ही समस्त व्यवहार करे । किन्तु कदाचित् असावधानी से भूल में कोई कार्य ऐसा हो जाय, जिससे भाचार्य के क्रोध का भाजन बनाना पड़े, तो उस समय शिष्य के प्रीतिजनक वचन कहकर प्राचार्य को प्रसन्न कर लेना चाहिए। प्राचार्य जव कुपित हो तो शिष्य भी मुंह लटकाकर एक किनारे बैठ जाय, यह उचिंत नहीं है उसे विनयपूर्वक दोनों ।
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अठारहवां अध्याय हाथ जोड़कर प्राचार्य महाराज का कोप शान्त करना चाहिए ।
श्राचार्य केवल मधुर भाषण एवं विनम्रता-प्रदर्शन से ही प्रसन्न नहीं होते। उनके कोप का कारण शिष्य का अनुचित प्राचार होता है। अतएव जब तक पुनः वैसा आचार न करने की प्रतिजा न की जाय तब तक कोप का कारण पूर्ण रूप से दूर नहीं होता। इसलिए शास्त्रकारने यह बताया है कि शिष्य को 'ण पुणत्ति' फिर ऐसा आचरण न करूँगा, यह कहकर प्राचार्य को अश्वासन देना चाहिए।
श्राचार्य का कोप शिष्य के पक्ष में अत्यन्त अहितकर होता है । श्रतएव श्राचार्य की अवहेलना करके उन्हें कुपित करना योग्य नहीं है। प्राचार्य की अवहेलना के संबंध में शास्त्र में लिखा है
सिया हु से पावय तो डोजा, यासीविलो वा कुवियो न भक्खे । सिया विसं हालहलं न मार, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥
अर्थात-स्पर्श करने पर भी कदाचित् श्रग्नि न जलावे, कुपित हुआ सर्प भी कदाचित् न इसे और कदाचित् हलाहल विष से मृत्यु न हो, मगर गुरु की अवहेलना करने से मुक्ति की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है । तथा
जो पव्वयं सिरसा भेजुमिच्छ, सुत्तं व सीहं पडि बोहरजा।
जो या दए सात्ति-अम्गे पहार, एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ॥ अर्थात्-गुरु की त्रासातना करना मस्तक मार कर पर्वत को फोड़ने के समान है, सोते हुए सिंह को जगाने के समान है अथवा शक्ति नामक शस्त्र की तीक्ष्ण धार पर हाथ-पैर का प्रहार करने के समान अनर्थकारक है । श्रतएव
जस्तंतिए धम्मपाय सिक्ने, तस्संतिए वेणइयं पडंजे। .
सरकारए सिरसा पंजलीओ, फायनिगरा मो मणला अनिच्चं ॥ अर्थात्-जिससे धर्म शास्त्र सामने उसके सामने विनयपूर्ण व्यवहार करना चादिप । मस्तक झुकाकर, हाथ जोडकर, मन, वचन, काय से उसका सत्कार करना चाहिए।
धर्मशस्त्र के इस विधान से प्राचार्य की भक्ति की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। अतएव अपने कल्याण की कामना करने वाले शिष्य को गुरु का समुचित विनय करना चाहिए और अपने अनुकूल सद्व्यवहार से प्रसन्न रखना चाहिए। मूल:-एच्चा एमइ मेहावी, लोए कित्ती से जायइ ।
हवइ किच्चाण सरणं, भूयाणं जगई जहा ॥ १५ ॥ स्वाया:-मारवा नमति मेधावी, लोके कीपिस्वन्य जायते।।
भवति चानां शराम जगत यथा ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:-विनय के सम्यक स्वरूप को जानकर बुद्धिमान पुनप को विनयशील होना चाहिए। इससे लोक में उसकी शीशि होती है। जैसे प्राणियों का आधार पृथ्वी
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मोक्ष स्वरुप उसी प्रकार विनीत पुरुष पुण्यक्रियाओं का पात्र बनता है। . भाष्यः-विनय और विनीत का व्याख्यान करने के बाद यहां विनय का फल । बतलाया गया है।
बुद्धिमान अर्थात् हिताहित के जान ले युक्त पुरुष को विनय का पूर्वोक्ह स्वरूप भलीभांति समझकर अपने स्वभाव में विनय-शीलता लानी चाहिए । विनयशील पुरुष की संसार में सुकीर्ति फैलती है और वह पुण्यानुष्ठानों का इसी प्रकार भाजन बन जाता है जिस प्रकार पृथिवी प्राणियों का आधार होती हैं।।
यहां विनीतं पुरुष को पृथिवी की उपमा देकर यह सूचित किया गया है कि जैसे पृथ्वी प्राणियों द्वारा रौंदी जाती है, कुचली जाती हैं, फिर भी वह उनके लिए आधारसूत है और कभी कुपित नहीं होती, इसी प्रकार विनीत पुरुष प्रतिकूल व्यव. हार होने पर भी कभी कुपित न हो और निरन्तर शान्ति धारण करे । मूलः स देवगंधव्य मणुस्सपूइए, .
चइत्त देहं मलएंक पुवयं । सिद्धे वा हवइ सासए,
देवे वा अप्पर महिड्ढिए ॥१६॥ छायाः-स देव गन्धर्वमनुष्य पूजितः, त्यस्वा दे मलपङ्क पूर्वकम् ।
सिद्धौ भवति शाश्वतः, देवो वापि महर्द्धिकः ।। १६ ॥ शब्दार्थः-विनय से सम्पन्न पुरुष देवों, गंधर्वो और मनुष्यों से पूजित होता है और इस रुधिर एवं वीर्य आदि अशुभ पदार्थों से बने हुए शरीर को त्याग कर शाश्वत सिद्धि प्राप्त करता है । अथवा महान् ऋद्धि वाला देव होता है। .
भाष्य--विनय का अन्तिम फल क्या है, इस प्रश्न का यहां स्पष्टीकरण किया गया है। जो पूर्ण रूप से विनय युक्त होता है वह इस लोक में देवों, गंधों और मनुष्यों द्वारा पूजा जाता है तथा जीवन का अन्त आने पर शाश्वत-नन्त अक्षय-सिद्धि प्राप्त करता है।
कदाचित कम शेष रह जाते हैं तो वद् महान् ऋद्धि का धारक देव होता है। पहले देवों का वर्णन किया जा चुका है। नीचे-नीचे देवलोकों की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देवों की स्थिति, सुन, शुति, लेश्या, प्रधान एवं ऋद्धि अधिकाधिक होती है । श्रनुत्तर विमानों के देवों की ऋद्धि सर्वोत्कृष्ट होती है। ऐसे विनय सम्पन्न, अल्पक महापुरुप शनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं।
देवलोक के परमोत्कृष्ट सुखों का उपभोग करने के पश्चात् देव का वह जीव फिर मनुष्य योनि में अक्तीर्ण होता है और फिर विनय का विशिष्ट अाराधन करके,
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[ ६७७ तपस्या द्वारा कर्मों का लमूल क्षय करके सिद्धि प्राप्त करता है। मूलः-अस्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहे ।
जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥१७॥ छाया:-अस्त्येकं ध्रुवं स्थान, लोकाग्रे दुसरोहम् ।।
यन नास्ति जरामृत्यु, व्याधयो वेदनास्तथा ॥ १७॥ शब्दार्थ:-- हे गौतम ! लोक के अग्रभाग में एक ऐसा स्थान है जिस पर आरोहण करना कठिन है, जहां जरा नहीं है, मृत्यु नहीं है व्याधियां नहीं हैं और वेदनाएँ नहीं हैं।
भाष्यः-पूर्वगाथा में विनय के फल का दिग्दर्शन कराते हुए शाश्वत सिद्ध होना कहा गया था। वे सिद्ध कौन हैं ? कहां हैं ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान करने के लिए प्रकृत गाथा कही गई है।
चौदह राजू विस्तार वाले पुरुषाकार लोक के अप्रभाग में, लििसद्ध विमान से बारह योजन ऊपर, पैंतालीस लाख योजन की लम्बी-चौड़ी, गोलाकार, मध्य में पाठ योजन मोटी और फिर चारों ओर से पतली होती-होती किनारों पर थतीव पतली, एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनपचास योजन के घेरे चाली, श्वत वर्ण की छत्राकार एक जगह है, जिसे सिद्धशिला कहते हैं। सिद्धाशला के बारह नाम शागम में बताये गये हैं । जैसे-(१ ) ईयत् (२) ईपत्मागमार (३) तन्वी (४) तनुतरा (५) सिद्धि (६) सिद्धालय (७) सुक्ति (८) मुन्नालय (६) ब्रह्म (१०) ब्रह्मावतंसक (११) लोक प्रतिपूर्ण और ( १२ ) लोकान चूलिका ।
सिद्धशिला से एक योजन ऊपर, मनुष्यलोक की सीध में, पैंतालीस लाख योजन विस्तृत एवं तीन सौ देतीस धनुष तथा बत्तीस शंगुल प्रमाण क्षेत्र में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं।
सिद्ध भगवान् वह है जिन्होंने समस्त कर्मों का क्षय करके आत्मा को सर्वक्षा शुद्ध करलिया है। प्रात्मा की पूर्ण विशुद्धि का क्रम दशवैज्ञालिक सूत्र में, सरलता यौर संक्षेप पूर्वक इस प्रकार बतलाया गया है।
जया जीवमजीवेच. दो वि एए रियाणा
तया गई बहुविह, सन्यजीवाण जाण ॥ अर्थात-जीव को सर्वप्रथम जम जीव और अजीव का या आत्मा-नारमा का पार्थस्य शान होता है, यह जय पुद्गल आदि से भात्मा को भिन्न समझने लगतर है, तब उसे जीवों की अनेक गत्तियों का भीमान हो जाता हैं।
जया गई बशिर्ट, सय जीवाए जाण ।
त्या पुरणं च पायं च, बंधं मुम् च जाण ॥ सर्थात--जीव को जय यह विदित हो जाता है कि, जीव नाना गतियों में
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मोक्ष-स्वरुप भ्रमण करता रहता है अर्थात आत्मा शाश्वत है और वह एक ही गति में नष्ट नहीं हो जाता किन्तु. एक गति ले दूसरी गति में जाता है अर्थात परलोक गमन करता है, तब वह नाना गतियों में भ्रमण करने से उले पुण्य और पाप का ज्ञान होता है और बंध तथा मोक्ष का भी ज्ञान होता है, क्योंकि पुस्य एवं पाप के कारण ही जीव को नाना गतियों में भ्रमण करना पड़ता है । पुण्य एवं पाप कर्म-बंध के आश्रित हैं अतएव उसे बंध का भी ज्ञान होता है और बंध का सर्वथा अभाव रूप मोक्ष भी वह जान लेता है।
जया पुराणं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाण ।
तया निविदए पोए, जे दिव्वे जे य माणु ले ॥ अर्थात--जीव को जब पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष का भलीभांति परिचय हो जाता है, तब वह देव और मनुष्य संबंधी कामभोगों को हेय समझ कर त्याग देता है। तात्पर्य यह है कि सत्वज्ञान होने पर भोगों के प्रति स्पृहा नहीं रह जाती और फिर मनुष्य विरक्त बन जाता है।
जया निविदए भोए, जे दिव्वे जे प्रमाणु से।
तया चयइ संजोगं, लभितर वाहिरं ॥ अर्थात--भोगों के प्रति निर्वेद-अनासक्ति होने के अनन्तर मनुष्य प्राभ्यन्तर संयोग--क्रोध, मान, माया, लोभ-और बाह्य लंयोग--माता पिता, पुत्र-पौत्र, पत्नी श्रादि के संबंध का परित्याग कर देता है।।
जया चयइ संजोगं, सभितरवाहिरं ।
तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं ॥ अर्थात--आभ्यन्तर और बाह्य संयोग का त्याग करने के पश्चात मनुष्य मुंडित होकर अनगार वृत्ति धारण करता है । वह केश आदि का द्रव्य मुंडन करके और इन्द्रियनिग्रह श्रादि रूप भावमुंडन करके गृहवास का त्याग कर देता है और साधु पर्याय अंर्गाकार करता है।
जया मुंडे भवित्ता गं, पब्बइए पाणगारियं ।
तया लंवर मुक्तिटुं, धम्म फासे अणुत्तरं ॥ - अर्थात- मनुष्य जय मुंडित हो कर अनगार अवस्था अंगीकार करता है तब वह उत्कृष्ट संवर और सर्वोत्कृष्ट धर्म को स्पर्श करता है । संवर के द्वारा नवीन कमों का बंध रोक देता है। अनुत्तर धर्म का अथवा संवर का आचरण करने वाले । पुरुष के कर्म-बंध का अभाव हो जाता है।
जया संवरमुक्किएं, धर्म फासे अणुत्तरं ।
तया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलुसंकडं ॥ अर्थात--मनुष्य जब उत्कृष्ट संवर-धर्म का स्पर्श करता है तव मिथ्यात्व श्रादि के कारण पूर्व संचित कर्म-रज को श्रात्मा से हटा देता है।
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अठारहवां अध्याय
जया धुणइ कम्मरयं, श्रबोहिकलुसं कडं ।
तया सव्वत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छ । अर्थात-मनुष्य जब मिथ्यात्व आदि से लंचित कर्मरज को हटा देता है तब उसे सर्व ज्ञान और लर्व दर्शन अर्थात सर्वज्ञता तथा सर्वदर्शित्व की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि कर्म-रज दूर होने पर आत्मा का स्वाभाविक अनन्तज्ञान और 'अनन्त दर्शन प्रकट हो जाता है। सुवर्ण में से मल हटने पर जैस सुवर्ण अपने स्वाभाविक तेज से चमकने लगता है उसी प्रकार कर्म-रज से युक्त आत्मा भी अपने जैसर्गिक ज्ञान-दर्शन पर्याय से विराजमान हो जाता है।
जया सवत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छद ।
तया लोगमलोग च, जिणो जाणइ लेवली ॥ अर्थात-जब जीव सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है तब यह राग-द्वेष को जीत लेने वाला केवलज्ञानी लोक और अलोक को जान लेता है।
जया लोगमलोगं च, जिरणो जाणइ केवली ।
तया जोगे निसभित्ता, सेलिसिं पडिवजह ॥ अर्थात-जब केवली जिन अवस्था प्राप्त कर लेता है तब मन, वचन, काय के योगों का निरोध कर के, पर्वत के समान निश्चल परिणाम--शैलेशीकरण-को प्राप्त होता है।
जया जोगे निमित्ता, सेलेमि पडिवज्जइ ।
तया कम्मं स्ववित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरो॥ अर्थात--जीव जब योगों का निरोध करके शैलेशीकरण प्राप्त कर लेता है तथा समस्त कर्मों को क्षीण करके, कर्म-रज से सर्वथा मुक्त होकर सिद्धि प्राप्त करता है।
जया कम नवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरो।
तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवाइ सासो॥ मर्थात--जीव जब कर्मों का क्षय करके सिद्धि प्राप्त करता है और कर्म-रज से मुक्त हो जाता है तब लोक के मस्तक पर उच्च भाग पर स्थित हो जाता है और शाश्वत सिद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह कि सांसारिक पर्यायें जैसे अनित्य एवं अध्रुव है, सिद्ध पर्याय वैली अनित्य नहीं है। नर-नारक आदि पर्यायें औदायक भाव में हैं, फर्म के उदय से उत्पन्न होती हैं और जब तक कर्म का उदय रहता है तब तक रहती हैं । कर्म का उदय समाप्त होते ही उनकी भी समाप्ति हो जाती है । सिद्ध 'पर्याय औदायिक नहीं है। वह क्षायिक भाव में है--समस्त कर्मों के प्रात्यन्तिक क्षय
से उसका लाभ होता है, अतः एक बार उत्पन्न होने के पश्चात फिर उसका प्रभाव 'कदापि नहीं होता। इसी कारण सिद्ध का विशेषण ' शाश्वत' दिया गया है।
उपर्युक्त क्रम से यह भलीभांति ज्ञात हो जाता है कि शाश्वत सिद्ध गति प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम जीव-अजीव या श्रात्मा-अनात्मा का भेद-विज्ञान होना
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मोक्ष- स्वरुप
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श्रावश्यक है । जिसे यह भेद प्रतीति हो जाती है वही सम्यग्दृष्टि कहलाता है । सम्यदृष्टि से पहले जो जड़-दशा होती है, जिसमें श्रात्मा श्रनात्मा का विवेक नहीं, श्रात्मा की अमरता का विचार नहीं और सत-सत का परिज्ञान नहीं होता, वह मिथ्यात्व दशा कहलाती है ।
शास्त्रों में आत्मा का विकास क्रम चौदह गुणस्थानों के रूप में वर्णित किया गया है । उल्लिखित विकास कम गुणस्थानों का ही एक प्रकार से कम हैं । तथापि सुगमता 'के लिए यहां गुणस्थानों का भी दिग्दर्शन करा दिया जाता है । गुणस्थान चौदह हैं और आत्मा निम्नतय अवस्था से उच्चतम अवस्था में किस क्रम से पहुंचता है, यह जानने के लिए उनका जानला अत्यावश्यक है ।
मोह और योग के कारण होने वाली आत्मा की दर्शन, ज्ञान और चारित्र की श्रवस्थानों की तरतमता को गुणस्थान कहते हैं । गुण शब्द से यहां आत्मा की शक्तियों का ग्रहण किया गया है और स्थान स शब्द का अर्थ है अवस्था । यद्यपि सभी आत्माओं का स्वभाव एक सरीखा शुद्ध चैतन्य, अनन्त सुख रूप है, फिर भी उनके ज्ञान और चतन्य पे जो अन्तर पाया जाता है वह भौपाधिक है कर्मजन्य है । कर्मों की तरतमता के कारण ही आत्माओं के ज्ञान आदि में तारतम्य पाया जाता है । जैसे मेघपटल से सूर्य का प्रकाश श्राच्छादित हो जाता है और जैसे-जैसे मेघ छंटते जाते हैं तैसे-तैसे सूर्य का प्रकाश बढ़ता जाता है । इसी प्रकार कर्म रूपी मेघ ज्योंक्यों हटते हैं त्यों-त्यों श्रात्म शक्ति रूपी सूर्य का प्रकाश बढ़ता जाता है । जब कर्मों का आवरण अत्यन्त तीव्र होता है तब श्रात्मा अत्यन्त अविकसित अवस्था में रहता है और जब आवरणों का पूर्ण रूप से विनाश हो जाता है तब आत्मा अपने विकास की चरम सीमा को अर्थात विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करलेता है । श्रवरणों की तीव्रतम अवस्था को मिथ्यात्वदशा और विकास की चरम दशा को सिद्ध दशा कहा जाता । निम्नतम दशा से उच्चतम दशा प्राप्त करने में अनेक माध्यमिक दशाएं पार करनी पड़ती हैं । यह दशाएँ एक ग्रात्मा के लिए भी असंख्य हैं और उन्हें शब्दों द्वारा कहना संभव नहीं है । अतएव स्थूल दृष्टि से समस्त अवस्थाएँ चौदह विभागों में विभक्त की गई हैं । उन्हीं को चौदह गुणस्थान कहते हैं ।
चौदह्न गुणस्थानों के नाम इस प्रकार हैं, -- (१) मिध्यादृष्टि (२) सास्वादन (३) सम्यक् - मिध्यादृष्टि (४) अविरत सम्यक दृष्टि (५) देशविरति (६) प्रमत्तसंयत (७) श्रप्रमत्त संयत (८) निवृत्ति बादर गुणस्थान अपूर्वकरण (६) निवृत्ति वादर गुण स्थान ग्रनिवृत्ति करण (१०) सूक्ष्म सम्पराय (११) उपशान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) संयोग केवली और (१४) प्रयोग केवली ।
गुणस्थानों का स्वरूप समझने के लिए इतना जान लेना चाहिए कि प्रारंभ के चार गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्म के निमित्त से, पांचवें से लगाकर बारहवें गुण स्थान तक चारित्र मोहनीय के निमित्त से और अन्तिम दो गुण स्थान योग के
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। ६८१ ] निमित्त से होते हैं। यद्यपि प्रथम चार गुणस्थानों में भी चारित्र मोह और योग विद्यमान रहता है, फिर भी उनमें जो अवस्था भेद है उसका कारण दर्शन मोहनीय कर्म है । चारित्र मोहनीय कर्म और योग उनमें समान रूप से पाया जाता है । गुण स्थानों का स्वरूप इस प्रकार है:
(१) मिथ्यात्व गुण स्थान-श्रात्मा के अत्यन्त अविकास की यह अवस्था है। इस अवस्था में श्रात्मा, आध्यात्मिक विकास की और जरा भी अग्रसर नहीं होता। उसे श्रात्मा-अनात्मा का भी ठीक-ठीक बोध नहीं होता। विकास के वास्तविक पथ पर चलने की रूचि भी उसमें जागृत नहीं होती। इसे अवस्था में दर्शन मोहनीय कर्म का प्रबल उदय विद्यमान रहता है। कहा भी है
मिच्छोदयेण मिच्छत्तम सद्दहणं तु तच्च अत्थाणं । ..
एयंतं विवरीअं विणयं संसइअमराणाणं ॥ अर्थात्-मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। इलमें तत्त्वों की श्रद्धा नहीं होती । इस गुणस्थान वाला कोई जीव एकान्त मिथ्यात्व वाला, कोई विपरीत मिथ्यात्व वाला, कोई वैनयिक मिथ्यादृष्टि कोई सांशयिक मिथ्या० दृष्टि और कोई अज्ञान मिथ्याष्टि होता है।
जैले पित्त ज्वर ले ग्रस्त पुरुष को मधुर दूध भी कटुक लगता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि को सद्धर्म अप्रिय लगता है। .
प्रथम गुणस्थान वाले लब जीव सर्वथा समान परिणाम वाले नहीं होते। उसमें कोई-कोई ऐसे भी होते हैं जिनके मोह की तीव्रता कुछ कम होती है। ऐसे जीव श्राध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होने को उन्मुख होते हैं । वे अनादि कालीन तीव्रतम राग-द्वेष की जटिल गुंथी को भेदने योग्य प्रात्मबल प्राप्त कर लेते हैं। .
__शारीरिक अथवा मानसिक दुःखों के कारण कभी-कभी अनजान में ही श्रात्मा का आवरण कुछ शिथिल हो जाता है। जैसे नदी में बहता-टक्करें खाता हुश्रा पत्थर घिसते-घिसते गोलमटोल हो जाता है, उसी प्रकार दुःखों को भोगते-भोगते श्रात्मा का श्रावरण भी कुछ ढीला पड़ जाता है । इलले जीव के परिणामों में कुछ कोमलता बढ़ती है और राग-द्वेष की ग्रंथि को भेदने की कुछ योग्यता आ जाती है। इस योग्यता को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण को प्राप्त करने वाला जीव ग्रंथि का भेद नहीं कर पाता, पर ग्रंथि भेद करने के समीप होता है। - यथाप्रवृत्तिकरण के पश्चात् जिस जीव की विशुद्धता कुछ और बढ़ती है, वह ऐसे परिणाम प्राप्त करता है, जो उसे पहले कभी नहीं प्राप्त हुए थे, उसमें अपूर्व : आत्मबल श्रा जाता है। इसे शास्त्र में अपूर्व करण कहते हैं अपूर्वकरण की अवस्था . में राग-द्वेप की वह तीव्रतम ग्रंथि भिदने लगती है और श्रात्मा में अपेक्षाकृत अधिक वल आ जाता है।
अपूर्व करण के अन्नतर भात्मा की शक्ति की कुछ और वृद्धि होता है। उस
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मक्ष स्वरुप समय वह उस ग्रंथि को सर्वथा नष्ट कर डालता है और अधिकतर विशुद्धता प्राप्त करता है। इसका नाम है-अनिवृत्ति-करण।
इन तीन परिणामों द्वारा राग-द्वेष की गांठ का नाश होते ही मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त हो जाती हैं । श्रात्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का भान हो जाता है। उसकी दृष्टि सम्यक् हा जाती है। उस समय प्रात्मा चौथ गुणस्थान में पहुँच जाता है। चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप भाग बतलाया जायगा ।।
(२) सास्वादन गुणस्थान-सम्यक्त्व से गिर कर मिथ्यात्व की अवस्था में जा पहुँचता है । जो जीव दर्शन मोहनीय कर्म को क्षय करके नहीं वरन् सिर्फ उप शान्त करके-दबा करके चौथे गुणस्थान में पहुँचा था, उसे दर्शनमोहनीय कर्म का फिर उदय हो पाता है और वह चौथे गुणस्थान से पतित होने लगता है । इस कोटि का जीव जच सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है परन्तु मिथ्यात्व दशा को प्राप्त नहीं हो पाता, उस समय की उसकी स्थिति सास्वादन गुणस्थान कहलाती है। इस स्थिति में जीव अत्यन्त अल्पकाल तक ही रहता है, फिर वह प्रथम गुणस्थान में जा पहुँचाता है। कहा भी है:
सम्मत्तरयणपव्वयसिहरा दो मिच्छभूमि समभिमुहो। __णालिय सम्मत्तो सो लासराणामो मुणेयव्यो ॥ अर्थात्-सम्यक्त्व रूपी रत्नमय पर्वत के शिखर से च्युत होकर, मिथ्यात्व की भूमि की ओर जीव जब अभिमुख होता है और जब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो चुकता है, उस समर की उसकी अवस्था को सास्वादन गुणस्थान कहते हैं।
(३) सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-जिस अवस्था में जीव के परिणाम कुछ अंशों में शुद्ध और कुछ अंशों में अशुद्ध होते हैं, अर्थात् जब सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का लम्मिश्रण-सा होता है, वह अवस्था सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाती है। पहले गुणस्थान से भी इस गुणस्थान में जीव धाता है। और चौथे आदि ऊपर के गुणस्थानों से गिरकर भी आ सकता है। इसे मिश्र गुण-- स्थान.भी कहते हैं, क्योंकि इसमें जीव की श्रद्धा मिश्रित-सम्यक्त्व-मिथ्यात्वमय होती है। कहा भी हैः
दहि गुड मिव वा मिस्लं, पुहभावं णेच कारिढुं सक।।
एवं मिस्लयभावो सम्मामिच्छोत्ति गाबो ॥ अर्थात् -दही और गुड़ को मिला देने पर जैसा खट्टा-मीठा स्वाद हो जाता है, और जिसकी खटास. या मिठास अलग-थलग नहीं की जा सकती वह सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की मिश्रित अवस्था सम्यक्त्व-मिथ्यात्व गुणस्थान है।
___इस गुणस्थान का खरूप सुगम करने के लिए एक दृष्टान्त प्रचलित है। किसी नगर में एक मुनिराज पधारे । कोई श्रावक मुनिराज को वन्दना करने चला। रास्ते में एक दुकान पर एक सेठजी बैठे थे । श्रावक ने कहा--' सेठजी, नगर के बाहर
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. मुनिराज पधारे हैं। उनके दर्शन करने चलिए ।' सेठजी बोले-- सौभाग्य की बात है । चलिए, मैं भी चलता हूं।' इसी समय उनका मिथ्यात्वी सुनीम बोला ----सेठ साहब, आप कहां जाते हैं ? यह आवश्यक पत्र हैं, इनका आज ही उत्तर भेजना जरूरी है। मुजीम की बात सुनकर सेठजी काम में लग गये । वह श्रावक मुनिदर्शन करके वापस लौटा। तब सेठजी ने कहा- 'भाई, आप वन्दना कर थाये, मैं तो अब जाता हूं। ' इतना कहकर सेठजी वन्दना करने चले । इतने में मुनिराज वहां से विहार करके अन्यत्र चले गये थे । लेठजी जब वापस लौट रहे थे तो रास्ते में उन्मार्गगामी पाखराडी साधुवेषधारी व्यक्ति मिले। सेठजी ने उन्हें वन्दना की और सोचा- 'मेरे लिए वे और ये दोनों समान हैं ।' सेठजी की यह दृष्टि सम्यक मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि उसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का सम्मिश्रण है ।
तृतीय गुणस्थान चाला जीव न संयम ग्रहण करता है, न देशनियम को स्वीकार करता है। वह नवीन आयु का बंध भी नहीं करता और न इस गुणस्थान में मृत्यु होती है । सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व रूप परिणाम प्राप्त होने पर ही मृत्यु होती है ।
( ४ ) सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम होने पर श्रात्मा में शुद्ध दृष्टि जागृत होती है, उसे सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं । यह गुणस्थान प्राप्त होने पर आत्मा के परिणामों में अपूर्व निर्मलता श्री जाती है । उसे सतं असत का, कर्त्तव्य - प्रकर्त्तव्य का भी विवेक हो जाता है । यह अवस्था पाकर आत्मा अनुपम शान्ति का अनुभव करता है । इसमें श्रद्धा सम्यक हो जाती है ।
ADİ
अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय, इन सात प्रकृतियों के नौ भंग होते हैं । वे इस प्रकार हैं: ( १ ) सातों प्रकृतियों का क्षय होने पर जो सम्यक्त्व होता है वह क्षायिक कहलाता है । ( २ ) सातों का उपशम होने पर होने वाला सम्यक्त्व औपशमिक कहलाता है । (३) चार अनन्तानुबंधी प्रकृतियों का क्षय हो और दर्शन मोह की तीन प्रकृतियों का उपशम हो [ ४ ] पांच प्रकृतियों का क्षय और दो का उपशम हो [ ५ ] छह प्रकृतियों का क्षय और एक का उपशम हो, इन तीन अंगों से होने वाला सम्यक्त्व क्षायोपशमिक कहलाता है । [६] चार प्रकृतियों का क्षय, एक का उपशम और एक का वेदन होने से [७] पांच का क्षय, एक का उपशम और एक का वेदन होने से [८] छह प्रकृतियों का क्षय और एक का वेदन होने पर तथा [६] छह का उपशम और एक का वेदन होने पर क्षायिक वेदक और औपशमिक वेदक सम्यक्त्व कहलाता है । तात्पर्य यह है कि चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त करने के लिए उल्लिखित सात प्रकृतियाँ .का क्षय उपशम या कुछ का क्षय और कुछ का उपशम करना आवश्यक होता है । चौथे गुणस्थान का स्वरूप अन्यत्र इस प्रकार किया है
सत्तर उवसमदो, उवसमलम्मो खयादु खइओ य । विदियकसा उदयादो, असंजदो होदि सम्मो य ॥
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Homen
मोक्ष स्वरुप सात प्रकृतियों के उपशम से उपशमलम्यक्त्व और क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है । मगर अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से जब जीव एक देश संयम की भी श्राराधना नहीं कर पाता, उस समय की जीव की अवस्था को अविरत सम्यक दृष्टि गुणस्थान कहते हैं ।
सम्यक दृष्टि जीव जिन प्रवचन पर श्रद्धान करता है । कभी झूल ले उसकी श्रद्धा असत् पदार्थ विषयक हो तो भी वह सम्यकदृष्टि ही रहता है। हां, शास्त्रप्रमाण उपस्थित कर देने पर भी अगर वह अपनी श्रद्धा का संशोधन न करे तो फिर मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
सम्यक्त्व के प्रभाव से जीव नरक गति, तियञ्चगति आदि से बच जाता है और अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
[५] देशविरति गुसस्थान-जीव सम्यग्दृष्टि प्राप्त कर लेने के पश्चात जब चारित्र मोहनीय कर्म की दूसरी प्रकृति अप्रत्याख्यानावरण कर्म का भी क्षय या उपशम कर लेता है, तब उसे देशसंयम की प्राप्ति होती है। जीव की इस अवस्था को देशविरति गुणस्थान कहते हैं इस गुणस्थान वाला जीव यथाशक्ति तप और. प्रत्याख्यान करता है अणुव्रतों का पालन करता है। कहा भी है
जो तसबहादु विरदो, अविरदो तह य थावर नहाओ।
एग समयाम्म जीवो, विरदा विरदो जिणेगमई ॥ अर्थात्-जो जीव एक ही लाथ नल जीवों की हिंसा से विरत और स्थावर जीवों की हिंसा से अविरत होता है, जिन धर्म पर जिसकी अटल श्रद्धा होती है वह विरताविरंत या देशविरत कहलाता है । उस जीच की वह अवस्था देशविरति गुण. स्थान कहलाती है।
देशविरति गुणस्थान चाला जीव कम से कम तीन भवमें और अधिक सें अधिक पन्द्रह भवों में मुक्ति प्राप्त करलेता है।
. [६] प्रमत्तसंयत गुणस्थान-जब आत्मा विकास की ओर अधिक प्रगति करके प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्रोध, मान माया और लोभ का भी क्षय या उपशम करके पूर्ण संयम को धारण करता है और अहिंसा आदि महावतों का, पांच समि-- तियों का, तीन गुप्तियों का पालन करता है, अर्थात् मुनि-दशा अंगीकार करलेता है किन्तु प्रमाद का अस्तित्व रहता है, उस समय की उसकी अवस्था प्रमतसंयतगुणस्थान कहलाती है। कहा भी है।
संजलगणो कसायागुदयादो संजमो भवे जन्हा । . मलजणणपमादो विय, तम्हा तु पमत्तविरदो सो॥ वत्तावत्तपमादे जो वसइ, पमत्तसंजदो होर ।
सयलगुणसील कलिश्रो, मद्दव्बई चित्तलाचरणो॥ ' अर्थात्-संज्जलन कपाय और नोकषाय का ही उद्य रह जाने से जहां सकल .
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बहारहवी अध्याय संयख की प्राप्ति हो जाती है, किन्तु विचित् अशुद्धि उत्पन्न करने वाला प्रसाद विद्यमान रहता है, उस अवस्था को प्रमत्तविरत अवस्था कहते हैं। जो जीव व्यक्त या अव्यक्त प्रलाद से जलता है वह प्रमससंयत्त कहलाता है । ऐसा जीन समस्त गुणों एवं शालो से संपन और महारती होता है।
प्रमत्तसंयत गणस्थान वाला जीव उली भव में सुक्ति लाभ कर सकता है और उत्कृष्ट सात-आउ भवों से मोक्ष प्राप्त करता है। ऐसा जीव, मनुष्य अथवा देवगति में ही उत्पन्न होता है।
[७] अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-छठे गुणस्थान में आत्मा को जो शान्ति और निराकुलता का अनुभव होता था उसमें प्रमाद बाधा पहुंचा देता था । शात्मा जब इस प्रमाद रूप बाधा को भी दूर कर देता है अौर छात्मिक स्वरूप की अभिव्यक्ति के साधन रूप ध्यान, मनन, चिन्तन आदि में ही लीन रहता है, उस समय की उसकी अवस्था को अप्रमत्त-संबत मुणस्थान कहते हैं । जब श्रात्मा सातवें गुणस्थान में वर्त्तता है तब वह बाह्य क्रियाओं से रहित होता है । बाह्य क्रिया करने पर सातव गणस्थान छूट कर छठा झा जाता है । इस प्रकार प्रात्मा की छठे में और कभी सातवें में आता-जाता रहता है।
मद, विषय, कायाय, निद्रा और विकथा यह पाँच प्रकार के प्रमाद हैं । इनसे पहित होने पर अप्रमत्त गुणस्थान प्राप्त होता है। यहां इतना ध्यान रखना चाहिए के सातवें गुणस्थान में कषाय का सर्वथा नाश नहीं होता । संज्वलन कषाय और जो कषाय की मन्दता उस समय भी रहती है । कहा भी है:
लंजलगणो कषायागुंदो मंदो जहा तदा होदी।
अपमत्तगुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि ॥ अर्थात-संज्वलन कषाय और नो कषाय का जब मंद उदय होता है और अमाद से रहित हो जाता है तब आत्मा अप्रमत्त संयत कहलात है।
नहालेरूपमादो चयगुणलीलालिमंडिओ गाणी ।
अणुवसमओ अनबनो, साणणिलीणो हु अपमत्तो॥ अर्थात-जिसने सब प्रमादों का नाश करदिया है, जो प्रतों से, गुणों से और शीलों से मंडित हैं, जिसे अपूर्व प्रात्मज्ञान प्राप्त हो गया है, परन्तु जो अभीतक. उपशमक या क्षपक नहीं हुआ है और जो ध्यान में लीन है,ऐसा आत्मा अप्रमत्त संयत कहलाता है।
सातवां गुणस्थान एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही रहता है |
[८] निवृत्ति बादर गुणस्थान-अपूर्वकररंग-लाल गुणस्थान में प्रमाद का अभाव करके शात्मा अपनी शक्लियों को विशेष रूप से विकसित कर विशिष्ट अप्रमत्तता प्राप्त कर लेता है । इस अवस्था में आत्मा में अद्भुत निर्मलता आती है। शुक्लध्यान यहां से प्रारंभ हो जाता है । इसी अवस्था को अपूर्व करण गुणस्थान
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मोक्ष स्वरुप भी कहते हैं।
इस गुणस्थान से श्रात्मविकाल के दो मार्ग हो जाते हैं। कोई श्रात्मा ऐसा होता है जो मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ भागे चढ़ता चला जाता है और कोई आत्मा मोहनीय के प्रभाव का लय करता हुआ-मोह की शक्ति का ससूल उन्मूलन करता हुश्रा, आगे बढ़ता है । इस प्रकार पाउवे गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले श्रात्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं। प्रथम मार्ग को उपशम श्रेणी और दूसरे मार्ग को क्षपक श्रेणी कहते हैं।
. जैसे आग को राख से दवा दिया जाता है मगर थोड़ी देर बाद हवा का झोंका लगने पर वह उखड़ आती है और संताप श्रादि अपना कार्य करने लगती है । इसी प्रकार उपशमश्रेणी वाला जीव मोह का उपशम करता है उसे दबाता है, नष्ट नहीं करता । इसका परिणाम यह होता है कि थोड़े समय के पश्चात् मोहनीय कर्म फिर उदय में आ जाता है और वह श्रात्मा को श्रागे बढ़ने से रोकता ही नहीं वरन् नीचे गिरा देता है । ऐसा जीव म्यारहवें गुणस्थानमें जाकर उससे आगे नहीं बढ़ता।
क्षपक श्रेणी वाला जीव मोहकर्म की प्रकृतियों का क्षय करता हुआ आगे बढ़ता है, अतएव उसके पतित होने का अवसर नहीं आता। वह दसवें गुणस्थान से लीधा चारहवें गुणस्थान में जाता है और सदा के लिए अप्रतिपाती बन जाता है।
जो जीव आठवे गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं, जो जीव प्राप्त कर रहे हैं और जो प्राप्त करेंगे, उन सब जीवों के अध्यवसाय स्थानों की अर्थात् परिणामों की संख्या. असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों की बराबर है। श्राठवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मु. हुर्त प्रमाण है। एक अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होते हैं, जिनमें से प्रथम समय- . वर्ती सब जीवों के अध्यवसाय भी असंख्यात लोशाकाशों के प्रदेशों के तुरुप हैं। इसी प्रकार द्वितीय लमयी, तृतीय समयवती त्रैकालिफ जीवों के अध्यवसायों की संख्या भी उतनी है । इस प्रकार एक-एक समयवती जीवों के अध्यवसायों की संख्यात असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर होने पर भी सब समयों में वर्तमान जीवों के अध्यवसायों की संख्या भी असंख्यात है, पर दोनों असंख्यातों में बहुत अन्तर है । असंन्यात के असंख्यात भेद होने के कारण दोनों संख्याएँ भसंख्यात कहलाती हैं। .. यद्यपि आठवें गुणस्थानवी तीनों कालों के जीव अनन्त हैं तथापि उनके अध्यवसाय स्थान असंख्यात ही होते हैं, क्योंकि बहुत से जीव ऐसे होते हैं जो समसमयवर्ती हैं और जिनके अध्यवसायों में भिन्नता नहीं मानी जाती। . प्रत्येक समय के अध्यवसायों में कुछ कम शुद्धि वाले और कुछ बहुत अधिक शद्धि वाले होते हैं। कम शुद्ध अध्यवसायों को जघन्य और अधिक शुद्ध अध्यवसायों को उत्कृष्ट अध्यवसाय कहते हैं। इन दोनों प्रकार के अध्यवसायों के बीच मध्यमश्रेणी के भी असंख्यात प्रकार के अध्यवसाय होते हैं।
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प्रहार हवा अध्याय
__ पाठवे गुणस्थान में जीव पांच वस्तुओं का विधान करता है। वे इस प्रकार हैं:- १) स्थितिघात ( २) र सत्रात ( ३ ) गुणश्रेणी (४) गुणसंक्रमण और (५) अंपूर्व स्थितिबंध।
(१) स्थितिषात जो कर्मदलिक आगे उदय में आने वाले हैं उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा, उदय के नियत समय से हटा कर शीघ्र उदय में आने योग्य करदेना। अर्थात् ज्ञानावरण आदि कर्मों की लस्बी स्थिति को घटाकर थोड़ी करना।
१२) रसघातकों के फल देने की शक्ति को रसघात कहते हैं। तीन फल देने वाले कर्म दलों को मन्द रस देने वाला बना डालना रस घात कहलाता है। "
(३) गुणश्रेणी-जिन कर्म दालकों का स्थितिघात किया गया था उन्हें पहले अन्तमुहर्त में उदय होने योग्य बनाना गुणश्रेणी है।
४) गुणसंक्रमण-वर्तमान में बंधने वाली शुभ प्रकृतियों में, पहले बंधी हुई अशुभ प्रकृतियों का संक्रमण करदेना, अर्थात पहले जो अशुभ प्रकृतियां बंधी हुई थीं उन्हें वर्तमान में बंधने वाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत करलेना गुणसंक्रमण कहलाता है।
(५) अपूर्वस्थितिबन्ध-इतनी अल्प स्थिति वाले कमरे का बंध होना, जैसा कि पहले कभी नहीं हुआ था।
उल्लिखित पांच बातें यद्यपि पाठचे गुणस्थान से पहले भी होती हैं, मगर वहाँ उनकी मात्रा नगण्य सी होती हैं, आठवें गुणस्थान के परिणामों की विशुद्धता के कारण स्थितिघात आदि बहुत अधिक परिमारत में होता है, इसी कारण इस गुणस्थान में इनका उल्लेख किया जाता है।
(६) अनिवृत्तिवादग्गुणस्थान आठवें गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियां, इन पन्द्रह प्रकृतियों का - उपशम श्रेणी वाले ने उपशम किया था और क्षपक श्रेणी वाले ने क्षय किया था इसके अनन्तर जब हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुपप्ला, इन छह नो कषायों का भी उपशम या क्षय हो जाता है तब नवां गुणस्थान प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में संज्वलन का मंद उदय बना रहता है । इस गुणस्थान की भी स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही है।
एक अन्तर्मुहूर्त में जितने समय होते हैं, नववें गुणस्थान में अध्यवसायस्थान भी उतने ही हैं। इस गुणस्थान में समसमयवर्ती सब जीवों के अध्यवसाय समान होते हैं । अतएव इस गुणस्थान संबंधी अध्यवसायों की उतनी ही श्रेणियां जितने समय की इस की स्थिति है। मगर प्रथम समयवर्ती अध्यवसायस्थान से द्वितीय समयवर्ती अध्यवसायस्थान अनन्तगुना अधिक विशुद्ध होता है । इसी प्रकार पूर्व पूर्व समय के अध्यवसायों की अपेक्षा उत्तरोत्तर संमय के अध्यवसाय विशुद्धत्तर ही
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मोक्ष-स्वरुप होते जाते हैं। पाठवें गुणस्थान और नौवें गुणस्थान संबंधी अध्यवसायों में यह विशे. पता है कि पाठवें गुणस्थान वाले समसमयवर्ती जीवों के अध्यवसायों में शुद्धि की तरतमता होती है, इस कारण वे असंख्यात श्रेणियों में विभक्त हो सकते हैं परन्तु नववे गुणस्थान वाले सम-समयवती जीवों के अध्यवसाय एक ही कोटि के होते हैं ।
(१०) सूक्ष्मसाम्पराय-गुणस्थान-पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतियों के अतिरिक्त स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया, इन छह प्रकृत्तियों का भी जब उपशम या क्षय हो जाता है तब सूक्ष्म लापराय नामक दसवां गुणस्थान प्राप्त होता है । इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म के अट्ठाइस भेदों में से सिर्फ एक संज्कलन लोम शेष रहता है और वह भी सूक्ष्म रूप में ही रह जाता है। कहा भी है:
धुवकोसंमियवत्थं, होदि जहां सुहुमरत्यजुत्तं ।
एवं मुहुद्द कसाओ, मुहुमसरामो ति णादयो । अर्थात्-कुसुमी रंग से रंगे हुए वस्त्र को धो डालने पर जैसे उसमें हल्का-सा रंग रहजाता है इसी प्रकार केवल सूक्ष्म संज्वलन लोभ के रह जाने पर जो जीव की अवस्था होती है उसे सूक्ष्मसापराय गुणस्थान कहते है।
____ इस गुलस्थान में प्राने पर जीव संज्वलन लोभ का उपशय या क्षय करता है और ज्यों ही लोभ का उपशय हुश्रा, त्योंही ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। क्षपकजीव लोभ का क्षय करके दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवे गुणस्थान में पहुंचता है।
६ ११ ) उपशान्तमोहनीय-गुणस्थान-पूर्वकथनानुसार मोहनीय कर्म की सभी प्रकृतियों का उपशम होने पर जीव की जो अवस्था होती है वह उपशान्त मोहनीय गुणस्थान है। इस गुणस्थान की जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त की है।
ग्यारहवें गुणस्थान में गया हुआ जीव भागे प्रगति नहीं कर पाता। उसे पिछले गुणस्थानों में लौटना पड़ता है। उपशमश्रेणी वाला जीव ही इस गुणस्थान में पहुँचता है। इस श्रेणी के जीवों ने मोह को क्षय नहीं किया था वरन् उसका उपशम किया था। उपशान्त किया हुआ मोह यहां आकर उदय में आता है और उसी समया जीव का अधःपतन हो जाता है।
ग्यारहवें गुणस्थान से पतित होने वाला जीव, जिस क्रम से उपर चदाथा उसी क्रम से गिरता है । ग्यारहवें गुणस्थान से दसवे में आता है, फिर नववे में प्राता है, इस प्रकार कोई-कोई जीव छठे गुणस्थान तक, कोई पांचवें तक, कोई चौथे तक, और कोई पांचवें तक, कोई चौथे तक और कोई दूसरे गुणस्थान में होता हुआ पहले गुणस्थान तक जा पहुँचता है। .. एक बार गिरजाने पर दूसरी बार उपशम श्रेणी के द्वारा जीव ग्यारहवें गुण स्थान तक पहुँच सकता है और फिर उसी प्रकार गिरता भी है। इस प्रकार एक जीव
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[ ६६ ] एक जन्म में दो बार उपशम श्रेणी कर सकता है। जिसने एक बार उपशम श्रेणी द्वारा ग्यारहवां गुणस्थान प्राप्त किया और फिर वह गिर गया वही जीव दूसरी बार अपने प्रवल पुरुषार्थ से पक श्रेणी करके मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है। पर कर्मग्रंथों के अनुसार दो बार उपशमशेणी करने वाला इतना क्षीणवीर्य हो जाता है कि वह उसी जन्म में पकश्रेणी करके मुक्ति-लाभ करने में समर्थ नहीं होता । शास्त्रों में ऐसा भी उल्लेख है कि एक जीव, एक जन्म में एक ही श्रेणी कर सकता है। ग्यारहवें गुण स्थान के विषय में कहा है
कदकफलजुदजलं वा सरए सर वाणियं व णिस्मलयं ।
सयलोवसंतमोहो. उवसंत कसायनो होदि । अर्थात् -जैसे फिटकरी आदि डालने पर पानी का मैल जव नीचे जम जाता है और पानी निर्मल हो जाता है अथवा शरद ऋतु में कूड़ा-कचरा नीचे बैठ जाने से जैसे तालाब का पानी निर्मल हो जाता है उसी प्रकार जिसका समस्त मोह उपशान्त हो गया हो उसे उपशान्त मोहनीय कहते हैं । जीव की ऐसी अवस्था उपशान्त मोहनीय गुणस्थान कहलाती है।
(१२ ; क्षीणमोहनीय गुणस्थान-ऊपर कहा जा चुका है कि क्षपकश्रेणी वाला जीव मोहनीय कर्म का पूर्ण रूप से जब क्षय कर डालता है, तब वह दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें में प्राप्त होता है । यह अप्रतिपाती गुणस्थान है। इसमें पहुँचने वाला वीतराग हो जाता है । फिर उसके पतन का कोई कारण नहीं रहता। आत्मा के साथ प्रवल संघर्ष करने वाले, कर्म-सैल्य के अग्रसर मोह का क्षय हो जाने से प्रात्मा अतीव निर्मल और विशुद्ध हो जाता है। कहा भी हैः
हिस्सेलखीणमोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो।
खीणकसाओ भरणइ, णिग्गंथो वीयराएहि ॥ अर्थात्-सम्पूर्ण मोह का क्षय करने वाला, स्फटिक के निर्मल पात्र में स्थित जल के समान स्वच्छ चित्त वाला निम्रन्थ, वीतराग भगवान द्वारा क्षीण कषाय कहा गया है।
बारहवे गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त है। इस गुणस्थान के अन्तिम समय में शेष घातिया कर्मों का ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय हो जाता है।
(१३) सयोग केचली-गुणस्थान-चारों धाति कर्मों का क्षय हो जाने पर जिस वीतराग महापुरुष को केवलज्ञान, केवलदर्शन तथा अनन्तवीर्य प्राप्त हो जाता है, किन्तु जिसके योग विद्यमान रहते हैं वह सयोग केवली कहलाता है और उसकी अवस्था-विशेष को सयोग केवली गुणस्थान कहते हैं।
यह अवस्था सशरीर मुक्ति, जीवन्मुक्ति, आर्हन्त्य अवस्था, अपर मोक्ष आदि के नाम से विख्यात है। इस अवस्था पर पहुंचे हुए केवली भगवान् संसार के प्राणियों के परम पुण्य के प्रभाव से मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हैं । इस गुणस्थान में
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मोक्ष-संह
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कोई-कोई महात्मा एक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहते हैं और कोई-कोई कुछ कम करोड़ पूर्व तक रहते हैं। कहा भी है:
__ केवलण रणदिवायरकिरणकलावप्पणालियरणाणो । - गवकेवलल दुन्गमसुजणियपरमप्पयवएसो ॥
अर्थात्- केवलज्ञान रूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान सर्वथा नष्ट हो गया है और जो नव केवल लब्धियों के उत्पन्न हो जाने से 'परमात्मा' नाम से व्यवहृत होते हैं, उन्हें केवली कहते हैं।
असहायणाणलणसहिनो इदि केवली हु जोगेण- ,
जुत्तोत्ति सजोगिजियो अगाइणिहणारिसे उत्तो ॥ श्रर्थात्-जो इन्द्रिय आदि किसी भी निमित्त की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान और दर्शन से लहित होने के कारण केवली हैं तथा योग से युक्त हैं, उन्हें अनादिनिधन आगम में सयोगा केवली कहते हैं।
इस गुणस्थान में केवल चार अघातिक कर्मों का उदय रहता है।
(१४) अयोग-केवली-गुणस्थान-जिन केवली भगवान ने योगों का निरोध कर दिया है वे योग या अयोगी केवली कहलाते हैं। उनकी अवस्था-विशेष प्रयोग केवली गुणस्थान है।
योग तीन प्रकार के हैं। तीनों प्रकार के योगों का निरोध करने से अयोगी दशा प्राप्त होती है। तेरहवें गुणस्थान में, जिन केवली की आयु कर्म की स्थिति कम रह जाती है और तीन अघातिक कर्मों की अधिक होती है वे समुद्घात करते हैं। मूल शरीर को बिना छोड़े. श्रात्मा के प्रदेशों को बाहर निकाल कर, समस्त लोकाकाश में व्याप्त करके विशिष्ट निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात सात तरह के होते हैं, उनमें से केवली का लमुद्घात केवली समुद्घात कहलाता है । यह लमुद्: घात आठ समयों में होता है। प्रथम समय में केवली दरड के रूप में श्रात्मप्रदेशों की रंचना करते हैं । उस समय श्रात्म प्रदेश मोटाई में शरीर के घरावर और लंबाई में ऊपर तथा नीचे लोकान्त को स्पर्श करने वाले होते हैं। दूसरे समय में प्रात्मप्रदेश पूर्व और पश्चिम में तथा तीसरे समय में उत्तर और दक्षिण दिशा में फैलाते हैं। इस प्रकार जब चारों ओर आत्मप्रदेश फैल जाते हैं तब मथानी का प्राकार प्राप्त होता है और चौथे समय में खाली रहे हुए बीच-बीच के भाग को भरते हैं। इस प्रकार श्रात्म प्रदेशों से सम्पूर्ण लोकाकाश व्याप्त हो जाता है। पांचवें, छठे, सातवें और आंठवें समय में उन फेले हुए प्रदेशों को, जिस क्रम से फैलाया था उससे विपरीत क्रम से संकुचित करते हैं और भावे समय में प्रात्मप्रदेश ज्यों के त्यों शरीरस्थ हो जाते हैं।
इस क्रिया से नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति कम होकर चारों कर्म समान स्थिति वाले हो जाते हैं । अन्तर्मुहर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली ही यह समुद्घात करते हैं। जिन केवली भगवान् के चारों अघातिक कर्मों की स्थिति बराबर होती है उन्हें यह समुद्घात करने की आवश्यकता नहीं होती।
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अठारहवां अध्याय
। ६६१ । सभी केवली तेरहवें गुणस्थान के अन्त में योगों का निरोध करते हैं। योगों के निरोध का क्रम इस प्रकार है:
सर्व प्रथम स्थूल काययोग का अवलं बन करके स्थूल मनोयोग तथा स्थूल वचनयोग का निरोध किया जाता है । तत्पश्चात् सूक्ष्म काय योग से स्थूल काययोग का निरोध होता है और उसीले सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग रोका जाता है। . श्रन्त में सूक्ष्मक्रियाऽनिवृति नामक शुक्लध्यान के बल से सूक्ष्म काययोग को रोक देते हैं। इस प्रकार सयोग केवली अवस्था से अयोग केवली दशा प्राप्त हो जाती है।
' तत्पश्चात् समुच्छिन्न क्रियां-अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान प्राप्त करके, मध्यम रीति से अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच स्वरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय का शैलेशीकरण करते हैं और शैलेशीकरण के अन्तिम समय में चारों घातिक कमाँ का क्षय करके मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।
मुक्ति प्राप्त होते ही जीव चौदह गुणस्थानों से प्रतीत हो जाता है। गुणस्थानों से अतीत हो जाने पर ऐसे ध्रुव-नित्य, लोक के अग्रभाग म स्थित, साधारण जनों द्वारा जो प्राप्त नहीं किया जा सकता, और जहां जरा नहीं, मरण नहीं, व्याधियां नहीं और वेदनाएँ नहीं है, ऐले परम विशुद्धतम स्थान को प्राप्त करते हैं।
जन्म, जरा, मरण, व्याधि और वेदना का मूल कारण कर्म हैं । कर्मों का प्रात्यन्तिक अभाव हो जाने से जरा मरण श्रादि मुक्ति में स्पर्श नहीं करते। मोक्ष को ध्रुव स्थान कहने से यह प्रमाणित है कि मुक्त जीव मोक्ष से लौट कर फिर संसार में अव., तीर्ण नहीं होते। जिन्होंने पुनरागमन स्वीकार किया है वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं इस संबंध की चर्चा पहले की जा चुकी है अतएव यहां पुनरावृर्ति नहीं की जाती। ___इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मुक्त जीव सिद्ध शिला स्थान पर विराजमान रहते तो हैं मगर उस स्थान को मोक्ष नहीं कहते । आत्मा की पूर्ण निरावरण दशा, आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों का पूर्ण विकास ही मोक्ष है । 'मुक्तात्मा अपने निखालिस अात्मस्वरूप में विराजमान रहते हैं।
मूलः-निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोयग्गमेव य ।
खेमं सिवमणाबाहं, जं चरति महेसिणो ॥१८॥
छायाः-निर्वाणमिति अबाधमिति, सिद्धिलॊकानमेव च ।
क्षेमं शिवमनाबाधं, यच्चरन्ति महर्षयः ॥ १८॥ शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! वह ध्रुवस्थान निर्वाण कहलाता है, अबोध कहलाता है. . सिद्धि कहलाता है, लोकाग्र कहलाता है, क्षेम कहलाता है, शिव कहलाता है, अनाबा, :: कहलाता है, जिसे महर्षी अर्थात् सिद्ध भगवान प्राप्त करते हैं।
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मोक्ष स्वरुप भाष्यः-पूर्व गाथा में जिस ध्रुव स्थान का निरूपण किया गया था, उसी के सार्थक नामों का यहां उल्लेख किया गया है। उस स्थान का एक नाम निर्धारण है, क्योंकि उसे प्राप्त करने पर किसी भी प्रकार का तुणा आदि रूप संताप नहीं रहता। उसका 'श्रवाध' नाम भी है, क्योंकि वहां किसी प्रकार की बाधा नहीं होती। शारीरिक या मानसिक बाधा का न कोई कारण है और न वहां शरीर तथा मन ही रहता है। श्रतएव सिद्ध भगवान सब प्रकार की बाधाओं से प्रतीत है। उस स्थान का नाम सिद्धि भी है, क्योंकि प्रात्मा का सर्व प्रधान, परम और चरम साध्य उसे प्राप्त कर लेने पर ही सिद्ध होता है। इस साध्य की सिद्धि हो जाने पर फिर किसी प्रकार की सिद्धि की कामना नहीं रहती । सांसारिक साध्यों की सिद्धि क्षणिक होती है, अपूर्ण होती है और प्रायः असिद्धि का मूल होती है। यह सिद्धि शाश्वत है, सम्पूर्ण है और इसमें अलिद्धि को अवकाश नहीं है। अतएव श्रात्मा के प्रबल पुरुषार्थ की यही वास्तविक सिद्ध है। योगीजन इसी सिद्धि के लिए निरन्तर उद्योग करते हैं।
जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है। वह ध्रुव स्थान लोक के अग्रभाग पर स्थित है अतएव उले लोकान नाम से भी कहते हैं। श्रात्मा को शाश्वत सुख की प्राप्ति का कारण होने से उसे 'क्षम' कहते हैं, सब प्रकार के उपद्रवों का सर्वथा अभाव होने ले उनका नाम शिव है, और वहां स्वाभाविक, शाश्वत, अनिर्वचनीय, अनुपम, अनन्त और अन्यबाध सुख प्राप्त होता है अतएव उले 'अनावाध भी कहते
· जैसा कि पहले कहा गया है, यह सब नाम उस स्थानवतर्ती आत्मा के समझने चाहिए । आधार-प्राधेय के सम्बन्ध से यहां अभेद-कथन किया गया है।
इस स्थान को अर्थात् सिद्ध दशा को महर्षि ही प्राप्त करते हैं । असंयम का, सेक्ल करने वाले, श्रज्ञानपूर्वक कायक्लेश करने वाले और विषय भोगी जीव इसे प्रार नहीं कर सकते। मूलः-नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा ।
एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छति सोग्गई ॥१६॥ लायाः-ज्ञानं च दर्शन चैव, चारित्रं च तपस्तथा।
. एतन्मागेमनुप्राप्लाः, जीवा गच्छन्ति सुगतिम् ||१&ll शब्दार्थः-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप--इस मार्ग को प्राप्त हुएं जीव सिद्धि रूप सद्गति का लाभ करते हैं।
भाष्यः-मुक्ति का स्वरूप बतला कर उसके कारणों का प्रकृत गाथा में निरूपण किया गया है।
मुक्ति के चार कारण हैं । यहाँ प्रत्येक के साथ सम्यक् शब्द का प्रयोग . करना आवश्यक है। श्रतएव-(१) सम्यमान (२) सम्यक्दर्शन (३) सम्यक्चारित्र और (४) सम्यक्तप, इन चार कारणों से मुक्ति प्राप्त होती है।
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ठारहवां अध्याय
चारों कारण स्वतन्त्र-अन्य निरपेक्ष मोक्ष के मार्ग नहीं, वरन् परस्पर लापेक्ष ही मोक्ष के मार्ग बनते हैं । आशय यह है कि अकेला सम्यग्दर्शन, अकेला सम्यग्ज्ञान, 'अकेला सम्यक्चारित्र या अकेला सम्यतप भी मौत का कारण नहीं है। जब चारों कारणों का समन्वय होता है तभी मोक्ष-लाभ की योग्यता जागृत होती है। अतएक दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मोक्ष का मार्ग एक ही है और उसके अंग चार हैं। . सूर्योदय होने पर जैसे प्रकाश और प्रताप-दोनों एक साथ ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्व होते ही ज्ञान और दर्शन दोनों एक ही साथ सम्यकदर्शन और सम्यक्ज्ञान रूप हो जाते हैं। अतएव कहीं-कहीं दर्शन, शान में ही समिलित कर लिया जाता है। तप, चारित्र का ही एक अंग है, अतएव चारित्र में तप का अन्तभाव हो जाता । इल प्रकार शान और चारित्र से भी मुझि का कथन देखा जाता है । कहा भी है"ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः' अर्थात् ज्ञान ले और चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है। कहीं-कहीं केवल तप को चारित्र में अन्तर्भूत करके तीन को मोक्ष का मार्ग निरूपण किया गया है । जैसे-'सस्य-दर्शन-जान चारित्राणि मोक्षमार्गः ।' अर्थात् सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-शान, और सस्थक्-चारित्र मोक्ष का मार्ग है । अतः इल प्रकार के किसी कथन में विरोध नहीं समझना चाहिए।
भारतीय दर्शनों में कुछ ऐसे हैं जो अकेले ज्ञान से ही मुक्ति की प्राप्ति मानते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अकेले चारित्र से ही मोक्ष प्राप्त होना माना है। किन्तु समीचीन विचार करने ले यह एशान्त रूप मान्यताएँ सत्य प्रतीत नहीं होती। . हमारा अनुभव ही इन मान्यताओं को मिथ्या प्रमाणित कर देता है । जगत् के व्यवहारों में पद-पद पर हमें ज्ञान और चारित्र दोनों की आवश्यकता अनिवार्य प्रतीत होती है । न तो अकेला ज्ञान ही हमारी इष्टसिद्धि का कारण होता है और न अकेली क्रिया ही। भोजन के ज्ञान मात्र से चुद्धा की निवृत्ति नहीं होती और भोजन-जान के बिना भोजन संबंधी क्रिया का होना संभव नहीं है । अतएव प्रत्येक कार्य में दोनों का होना आवश्यक है।
जीवादि नव पदार्थों को यथार्थ रूप से जानना सभ्य-ज्ञान है । यथार्थ श्रद्धा करना सम्यक्-दर्शन है। अशुभ क्रियाओं से निवृत्त होना और शुभ कियाओं में प्रवृत्त होना सख्या-चारित्र है। विशिष्ट कर्म-निर्जरा के लिए अनशन आदि तथा स्वाध्याय श्रादि क्रिया करना तप कहलाता है । इन चारों के मिलने पर ही और पूर्णता होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है। चारों सम्मिलित होकर मोक्ष का एक मार्ग है। यह सूचित करने के लिए शांलंकार ने यहां 'मग्गं' एकवचनान्त पद का प्रयोग. किया है। मूलः-नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्धहे ।
चरित्तेण निगिरहइ, तवेणं परिसुज्झई ॥ २०॥
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'. मोक्ष-स्वरुप
- छाया:-ज्ञानेन जानाति भावान, दर्शनेन च श्रद्धत्ते ।
चारित्रेण निगृहणाति, तपसा परिशुद्धति ॥ २०॥ 'शब्दार्थः-श्रात्मा ज्ञान से जीव आदि भावों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है। चारित्र से नवीन कर्मों का आगमन राकता है और तप से निर्जरा करता है। ..
भाष्यः-सम्यक्-ज्ञान आदि को मोक्षकारणता का निरूपण करके यहां उनके कार्य का व्याख्यान करते हुए उनकी उपयोगिता का वर्णन किया है।
सम्यज्ञान से जीव श्रादि पदार्थों को श्रात्मा जानता है, सम्यग्दर्शन से उन पदार्थों के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा करता है और चारित्र से नवीन कमों के श्रानव का निरोध करता है तथा तप से पूर्पबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
• यहां पर भीएकान्त जान से और एकान्त चारित्र से मोक्ष मानने वालों का निरास किया गया है। एकान्त ज्ञानवादी कहते हैं-केला जान ही मोक्ष-साधक होता है, क्रिया नहीं। अगर क्रिया को मोक्ष का कारण माना जाय तो. मिथ्याज्ञान पूर्वक की जाने वाली क्रिया से भी मोक्ष प्राप्त होना चाहिए। कहा भी है
विनप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता।
मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलाऽसंवाददर्शनात् ॥ अर्थात्-ज्ञान ही आत्मा को फलदायक होता है, क्रिया नहीं। अगर क्रिया फलदायक होती तो मिथ्याशान पूर्वक की जाने वाली क्रिया भी फलदायक-मोक्षप्रदहोती, क्योंकि वह क्रिया भी तो क्रिया ही है ।
__इसके विपरीत केवल क्रिया से मुक्ति मानने वाले ज्ञान को व्यर्थ बतलाते हैं। उनका कथन है:
क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् ।।
यतः स्त्रीभक्ष्यभोगझो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ अर्थात-क्रिया ही फलदायक होती है, शान फलदायक नहीं होता । स्त्री, भक्ष्य और भोग को जानने वाला पुरुष, सिर्फ जान लेने मात्र से ही सुखी नहीं हो सकता-स्त्री के ज्ञान मात्र से कोई तृप्त नहीं होता, भोजन को जान लेने से ही किसी की भूख नहीं मिटती और भौगोपभोगों का ज्ञान मात्र सन्तोष नहीं देता । अतएव ज्ञान व्यर्थ है और अकेली क्रिया ही अर्थसाधक है। .
और भी कहा है:शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मुखो-यस्तु क्रियावान् पुरुपः स विद्वान् । संचिन्त्यताभौषधमातुरं हि, न बानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥
अर्थात्-शास्त्रों का अध्ययन करके भी लोग मूर्ख रहते हैं, दरअसल विद्वान वह है जो क्रियावान होता है। कोई भी औषधी, चाहे कितनी ही सोची-समझी हुई हो, केले जान लेने से नीरोगता प्रदान नहीं करती।
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ध्याय
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इस प्रकार दोनों एकान्तवादी आपस में एक-दूसरे के विरुद्ध कथन करते हैं । परन्तु दोनों ही भ्रम में हैं । वस्तुतः ज्ञान के बिना क्रिया हो नहीं सकती, अगर हो भी तो विपरीत फलप्रद भी हो सकती है और क्रिया के बिना ज्ञान निरुपयोगी है । श्रत एव मुक्ति प्राप्त करने के लिए दोनों ही परमावश्यक हैं ।
मूल:- पाणस्स सव्वस्त पगासणाए, अण्णा मोहस्स विवज्जयाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं,
एतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ २१ ॥
छाया: - ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, श्रज्ञानभोहस्य विवर्जनया |
रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेय, एकान्तसौख्यं समुवैति मोक्षम् ॥ २१ ॥
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शब्दार्थः- सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशित होने से, अज्ञान और मोह के छूट जाने से `तथा राग और द्वेष का पूर्ण रूप से क्षय हो जाने से एकान्त सुख रूप मोक्ष प्राप्त करता है ।
भाव्य:--: - सम्पूर्ण ज्ञान अर्थात् तीन काल और तीन के समस्त पदार्थों को, उन पदार्थों की त्रिकालवर्त्ती अनन्तानन्त पर्यायों को, युगपत् स्पष्ट रूप से जानने वाले केवलज्ञान के प्रकट हो जाने से अज्ञान का सर्वथा नाश हो जाता है । अतएव अज्ञान और मोह का सर्वथा अभाव हो जाने से तथा क्रोध एवं मानं रूप द्वेष तथा माया और लोभ रूप राम का क्षय होने से एकान्त सुखमय मुक्ति होती है । .
तात्पर्य यह है कि अज्ञान, मोह-राग, द्वेष आदि समस्त विकारों का पूर्णरूपेण क्षय होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है ।
वैशेषिकमत वाले मुक्ति में सुख का अभाव मानते हैं । उनके मत का निराकरण 'पगत लोक्खं' पद से हो जाता है । एकान्त सुख का अर्थ है - जिस सुख में दुःख का लेश मात्र भी न हो और जिस सुख से भविष्य में दुःख की उत्पत्ति न होती हो । संसार के विषयजन्य सुख, दुःखों से व्याप्त हैं और भावी दुःखों के जनक हैं । मोक्ष का सुख प्रात्मिक सुख है, परम साता रूप हैं । अतएव मोक्ष प्राप्त होने पर हो उसका आविर्भाव होता है । वैशेषिक लोग सांसारिक सुख को ही सुख मानते हैं इस कारण उन्होंने मुक्ति में सुख का अभाव स्वीकार किया है ।
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शंका- अगर मोक्ष को सुख स्वरूप मानेंगे तो सुख की कामना से प्रेरित होकर योगी मोक्ष के लिए प्रवृत्ति करेंगे । ऐसी दशा में उन्हें मुक्ति प्राप्त ही न हो सकेगी, क्योंकि निष्काम भाव से साधना करने वाले योगी ही मोक्ष के अधिकारी होते हैं। अतः मोक्ष को सुखमय मानना उचित नहीं है ।
समाधान - मोक्ष को सुखमय न मानने पर भी आप दुःख भावमय मानते हैं
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मोक्ष स्वरुप या नहीं ? अगर मोक्ष दुःखाभाव रूप नहीं है अर्थात् दुःखमय है तब तो वह संसार . से भिन्न नहीं है फिर संसार में और मोक्ष में अन्तर ही क्या रहा ? ऐसी स्थिति में .. कौन बुद्धिमान् पुरुष प्राप्त सुखों को त्याग करके दुःख रूप मोक्ष की प्राप्ति के लिए शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपाला आदि के नाना कष्ट सहन करेगा ? मगर ज्ञानीजन संसार के सर्वोत्कृष्ट सुखों का त्याग करके भीषण कष्ट सहन करते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि मोक्ष सुखमय है।
शंका-संसार में जो सुख है वे दुःखों से व्याप्त हैं । यहां थोड़ा-सा सुख है और बहुत दुःख है। मोक्ष में सुख नहीं है मगर दुःख भी नहीं है । दुःख से बचने के लिए थोड़े-से सुख का भी त्याग करना पड़ता है, क्योंकि उस सुख का त्याग किये विना दुःख ले बचना संभव नहीं है। अतएव योगीजन सुख प्राप्त करने के लिए नहीं वरन् दुःख से बचने के लिए ही मोक्ष की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं।
समाधान-दुःख से बचने की कामना भी कामना ही है । उस कामना से प्रेरित होकर प्रवृत्त होने वालों को भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए। .
दूसरी बात यह है कि बहुत सुख की प्राप्ति के लिए थोड़े सुख का त्याग करना तो उचित है मगर सुख का सर्वथा नाश करने के लिए थोड़े सुख का त्याग करना बुद्धिमत्ता नहीं है। जिन्हें विशेष सुख प्राप्त करने की इच्छा होती है वही दुःखमय सुख का परित्याग करते हैं । अगर मोक्ष में सुख का लमूल नाश हो जाता है तो उसे प्राप्त करने के लिए क्यों प्रवृत्ति की जाय ?
विषयजन्य सुखों की अभिलाषा करने वाले पुरुष विषयभोगों की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के सावध कार्य करते हैं, इस कारण वैषयिक सुखों की अभिलाषा पापरूप है। किन्तु मोक्ष-सुख की अभिलाषा करने वाले सावध कार्यों से विरत होते हैं श्रतएव मोक्ष-आकांक्षा पाप रूप नहीं है। इसके अतिरिक्त योगी जब अात्मविकास की उच्चतर स्थिति प्राप्त करता है तब उले मुक्ति की भी आकांक्षा नहीं रहती । इस लिए मोक्ष को सुख स्वरूप मानना ही युक्तियुक्त है। मूलः-सव्वं तो जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरंतराए।
अणासवे माणसमाहिजुत्ते, अाउक्खए मोक्ख मुवेइ सुद्धे ॥ छायाः-सर्व ततो जानाति पश्यति च, अमोहनो भवति निरन्तरायः। .
अनास्त्रको ध्यान समाधियुक्तः, श्रायुः चये मोक्षमुपैति शुद्धः ॥ २२ ॥ शब्दार्थ:-तत्पश्चात् जीव सब को जानता है, सब को देखता है, मोह रहित हो । जाता है, अन्तराय कर्म से रहित हो जाता है, आस्रव से रहित हो जाता है, शुक्लध्यान रूप समाधि में तल्लीन होता है और आयु कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है।
भाष्यः-जय शान का श्रावरण करने वाले भानावरण कर्म का नाश होता है तव अनन्त केवलज्ञान प्रकट हो जाता है । ज्ञानावरण कर्म के क्षय के साथ ही दर्शना
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अठारहवां अध्याय
[ ६६७ ] वरण कर्म का भी क्षय होता है, और उसके क्षय होने से अनन्त केवलदर्शन का
आविर्भाव हो जाता है । इस प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट हो जाने पर जीव संसार के समस्त पदार्थों को युगपत् साक्षात् जानने-देखने लगता है। इन्हीं के साथ अन्तराय कर्म का भी क्षय होता है और इससे अनन्तवीर्य-शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। इन घातिक कर्मों से अन्तर्मुहूर्त पहले मोहनीयकर्म का क्षय होने से वीतराग संजा प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार चार घातिक कर्मों का क्षय होते ही चीतराग जीव अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर लेते हैं।
वीतराग दशा में जीव अनानव हो जाता है। यहां अनास्रव से साम्परायिक अर्थात कषायों के निमित्त से होने वाले प्रास्त्रव का अभाव समझना चाहिए । योग . निमित्तक र्यापथिक शास्त्रब तेरहवें गुणस्थान में भी विद्यमान रहता है। किन्तु उस . समय आने वाले कर्मों की न तो स्थिति होती है और न अनुभाग ही होता है। कर्मों की स्थिति और अनुभाग कषाय पर अवलंवित है और वीतराग अवस्था में कषायों का संदभाव नहीं रहता । उस समय कर्म आते हैं और चले जाते हैं-श्रात्मा में बद्ध होकर ठहरते नहीं हैं।
श्रात्मा सर्वोत्कृष्ट शुक्लध्यान रूप समाधि में तल्लीन रहती है और शैलेशीकरण करके श्रायु कर्म का अन्त करके, सर्वथा निष्कर्म, निर्विकार, निरंजन, निर्लेप, निष्काम, निरावरण और नीराग होकर मुक्ति प्राप्त करता है।
आयु कर्म का क्षय यहां उपलक्षण है । उसले नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्म का भी ग्रहण करना चाहिए । यह चार अघातिक कर्म कहलाते हैं। इन सब का एक ही साथ क्षय होता है अतएव श्रायुकर्म के क्षय के कथन से ही इनके क्षय का भी कथन हो जाता है।
मुक्त-अवस्था ही जीव की शुद्ध-अवस्था है। जब तक जीव के प्रदेशों के साथ अन्य द्रव्य (पुद्गल ) का संस्पर्श है तब तक वह अशुद्ध है। सब प्रकार के बाह्य संस्पर्श से हीन होने पर वह शुद्ध होता है। मूलः-सुक्कमूले जहा रुक्खे, सिच्चमाणे न रोहति ।
एवं कम्मा ण रोहति, मोहणिज्जे खयं गए ॥२३॥ छायाः-शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिञ्चमानो न रोहति । . .
एवं कर्माणि न रोहन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥ २३ ॥ शब्दार्थः-जिसकी जड़ सूख गई है वह वृक्ष सींचने पर भी हरा-भरा नहीं होता। इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने पर कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती-कर्मबंध । नहीं होता।
___ भाष्यः- पूर्व गाथा में मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन करने के पश्चात् प्रकृत गाथा में मोक्ष की शाश्वतिकता का उदाहरणपूर्वक निरूपण किया गया है।
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मोक्ष स्वरुप जैसे मूल के सूख जाने पर वृक्ष को जल ले कितना ही लींचा जाय पर वह फिर हरा-भरा नहीं हो सकता, इसी प्रकार कर्मबंध के मूल कारण रूप मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव हो जाने पर फिर कर्म का कभी बंध नहीं हो लकता। तात्पर्य यह । है कि जो श्रात्मा एक बार निष्कर्म हो गया है वह फिर कालान्तर में सकर्म नहीं हो .. सकता।
कों का प्रध्वंसाभाव होने पर सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है। प्रध्वंलाभाव सादि अनन्त होता है-वह अभाव एक बार होकर फिर मिटता नहीं है।
कर्मबंध का कारण मोहनीय कर्म है । मोहनीय कर्म रूप विकार ही श्रात्मा में नवीन विकार उत्पन्न करता है। पूर्वबद्ध कर्म जब उदय में आते हैं तब जीव राग-द्वव श्रादि रूप विभाव रूप परिणत होता है और उस परिणति से नवीन कर्मों का बंध होता है। इस प्रकार पूर्वोपार्जित कर्म नवीन कर्मार्जन के कारण होते हैं। यह कार्यकारण-भाव अनादिकाल से चला पाता है। जब आत्मा विशिष्ट संवर के द्वारा नवीन कर्मों का श्राव रोक देता है और विशिष्ट निर्जरा के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करता है तो एक समय ऐसा था जाता है जब पहले के समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं और नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता। ऐसी अवस्था में जीव निष्कर्म हो जाता है और फिर सदा निष्कर्म ही रहता है।
किसी-किसी मत में मुक्त जीवों का फिर संसार में श्रागमन होना माना गया है, पर जो जीव संसार में पुनरवतीर्ण होता है वह वास्तव में मुक्त नहीं है । कहा भी है:- दग्धे वीजे यथाऽत्यन्त, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः।
कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङकुरः॥ अर्थात-जैसे बीज जल जाने पर उसे जैसे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्म रूप वीज के जल जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता।
जैन धर्म की यह विशेषता है कि वह प्रात्मा को परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित करता है, जबकि अन्य धर्म परमात्मा-मुक्त पुरुष को भी प्रात्मा बना देते हैं ! जैन धर्म चरम विकास का समर्थक और प्रगति का प्रेरक धर्म है । वह नर को नारायण तो बनाता है पर नारायण को नर नहीं बनाता। अन्य धर्मों की आराधना का फल लौकिक उत्कर्ष तक ही सीमित है, जब कि जैन धर्म की आराधना का फल परमात्मपद की प्राप्ति में परिसमाप्त होता है, जिससे बढ़कर विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
इस पर समस्त कर्मों का क्षय कर देने पर आत्मा मुक्त अर्थात् परमात्मा बन जाता है और उसकी मरमात्मदशा शाश्वतिक होती है । उसका कभी. अन्त नहीं . होता।
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अठारहवां अध्याय
मूल :- जहा दद्धा बीयाणं, ण जायंति पुणंकुरा । कम्मबीएस दद्धेसु, न जायंति भवंकुरा ॥ २४ ॥
छाया:—यथा दग्धानामङ्कुराणां, न जाय -ते 'पुनरङ्कुराः 1 . कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवाङ्कुराः ॥ २४ ॥
[ ६६६ ].
शब्दार्थः— जैसे जले हुए बीजों से फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार कर्म - रूपी बीजों के जल जाने पर भव रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होता ।
श्री गौतम उवाच --
मूल:- कहिं पहिया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्टिया ।
भाष्यः-- - पूर्व गाथा में जिस विषय का प्रतिपादन किया गया है उसी को यहां दूसरे उदाहरण से पुष्ट किया गया है ।
जले हुए बीज अगर खेत में बो दिये जांचें तो चाहे जैसी अनुकूल वर्षा होने पर भी अंकुर उत्पन्न न होंगे, क्योंकि बीज में अंकुर - जनन सामर्थ्य का ही प्रभाव हो गया है । जब उपादान कारण ही तद्विषय शक्ति से विकल है तब निमित्तकारण कार्य को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? इसी प्रकार कर्मों रूपी बीज के जल जाने पर, 'भवावतार की शक्ति ही नहीं है तो फिर बाहरी कारण उसे संसार में कैसे श्रवतीर्ण कर सकते हैं ? अतएव कर्म-बीज़ के दग्ध होने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता अर्थात् समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने पर आत्मा फिर संसार में कभी अवतीर्ण नहीं होता ।
जब श्रात्मा
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छाया:- क्व प्रतिहताः सिद्धाः क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिताः ।
क्व शरीरं त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिद्ध्यन्ति ॥ २५ ॥
कहिं बोदिं चइता णं, कत्थ गंतू सिज्झह ॥ २५ ॥
शब्दार्थः-भगवन् ! सिद्ध भगवान् जाकर कहाँ रुक जाते हैं ? सिद्ध भगवान् कहाँ स्थित हैं ? वे कहाँ शरीर का त्याग करके, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ?
भाष्य:- मुक्त जीवों के विषय में ऊपर जो निरूपण किया गया है, उससे उठने वाले प्रश्न सर्वसाधारण भव्य जीवों के लाभ के लिए, गौतम स्वामी सर्वज्ञ श्रीमहावीर प्रभु के समक्ष उपस्थित करते हैं ।
:
सिद्ध भगवान् कहाँ जाकर रुक जाते हैं ? कहाँ विराजमान रहते हैं ? कहाँ शरीर का त्याग करके सिद्ध होते हैं ? इन प्रश्नों का समाधान अगली गांथा में किया
जायगा ।
इन प्रश्नों के पठन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अगर सिद्धान्त संबंधी कोई गूढ़ बात समझ में न आवें तो अपने से विशिष्ट श्रुतवेत्ता से प्रश्न करके समझ लेनी
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मोक्ष-वरुप
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चाहिए । शंका को हृदय में बनाये रखना उचित नहीं है। जो पुरुष शंकित-चित रहता है उसकी स्थिर बुद्धि नहीं रहती। बुद्धि की अस्थिरता से वह संयम आदि के अनुष्ठान मै एकान नहीं हो सकता। हाँ, शंका भी श्रद्धापूर्वक ही होना चाहिए। श्रद्धापूर्वक शंका (प्रश्न ) करने से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है और अन्तःकरण निश्शल्य बनता है।
श्री भगवान् उवाच मूलः-अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे अपइट्ठिया ।
इहं बोदिं चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिझई ॥२६॥ छाया:-अलोके प्रतिहताः सिद्धा, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिना।
__ इह शरीरं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिद्धयन्ति ॥ २६ ॥ शब्दार्थ:-सिद्ध भगवान् अलोक में रुक जाते हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित है, इस लोक में शरीर को त्याग कर लोकान में जाकर सिद्ध होते हैं।
भाष्यः-पूर्व गाथा में किये हुए प्रश्नों के उत्तर प्रकृत गाथा में दिये गये हैं।
श्रात्मा जब लमस्त कर्मों से, चौदहवें गुणस्थान के अन्त में मुक्त होता है तब उसकी ऊर्ध्वगति होती है। कर्मरहित होते ही विग्रह गति के द्वारा एक ही समय में आत्मा लोकाकाश के अग्रभाग पर पहुँच जाता है और वहाँ पूर्ववर्णित सिद्धशिला पर विराजमान हो जाता हैं।
शंका:-जीव की गति कर्म के अधीन है। सिद्ध जीव समस्त कमी से रहित हैं। न उनमें गति नामकर्म का उदय है, न विहायोगति नामकर्म का उदय है, न असनामकर्म का ही उदय है। ऐसी स्थिति में उनमें ऊर्ध्वगति रूप चेष्टा किस प्रकार हो सकती है ? .
समाधान:-समस्त कर्मों का क्षय होने पर जीव में एक प्रकार की लघुता श्रा जाती है श्रतएव उसकी स्वभाविक ऊर्ध्वगति होती है इसके अतिरिक्त सिद्ध जीव की गति में निम्नलिखित कारण हैं:
(१) पूर्वप्रयोग-संसारमें स्थित आत्मा ने मुक्त प्राप्त करने के लिए बार-बार प्रणिधान किया था। मुक्त हो जाने पर उसके अभाव में भी पूर्व संस्कार के श्रावेश से ऊर्ध्वगति होती है। कुंमार चाक को घुमाता हैं । जब चाक मने लगता है तो वह घुमाना बंद कर देता है, फिर भी पहले के प्रयत्न से चाक घूमता रहता है। इसी प्रकार पूर्व प्रयत्न से सिद्ध जीव ऊर्ध्वगमन करते हैं।। . (२) असंगता:-सिद्ध जीव कमों के संसर्ग से रहित हो जाते हैं अतः उनका ऊर्ध्वगमन होता है। तूंथे पर मिट्टी का लेप करके उसे जल में छोड़ दिया जाय तो मिट्टी के लेप के कारण गुरुता होने से वह नीचे चला जाता है। काल-क्रम से मिट्टी अलग हो जाने पर हल्का हो जाने से तूंवा जल के उपर आ जाता है। इसी
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। ७०१ ] प्रकार कर्मों के लेप से भारी आत्मा इस लोक में रहता है और जब कर्म-मुक्त होने पर निर्लेप होता है तब स्वभावतः ऊध्र्वगमन करता है।
(३) बन्धविश्लेष-जैसे बीजकोश में बँधा हुवा एरण्ड का बीज, बीजकोश से अलग होते ही ऊर्ध्वगमन करता है उसी प्रकार कर्म-बन्धन से बँधा हुश्रा जीव, बन्धन का विश्लेष होने पर स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करता है।
(४) स्वाभाविकगति परिणामः-पृथक्-पृथक् पदार्थों का पृथक्-पृथक् स्वभाव होता है । जैसे वायु का स्वभाव तिछी गति करना है, और अग्निशिखा का स्वभाव ऊपर की और गति करना है, इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ऊपर की तरफ गमन करता है । उसकी गति का प्रतिबंधक कोई भी कारण जब नहीं रहता तो उसकी स्वभाविक ऊर्ध्वगति होती है।
प्रश्न:-आपने जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन बतलाया है परन्तु जीव अमूर्त है और अमूर्त पदार्थ सब निष्क्रिय होते हैं। काल, श्राकाश आदि जितने भी अमूर्त पदार्थ हैं उनमें से एक भी सक्रिय नहीं है, अतः जीव भी सक्रिय नहीं होना चाहिए । क्रिया के अभाव में ऊर्ध्वगमन कैसे करेगा ?
समाधान:-अमूर्त होते हुए आकाश अचेतन है, काल अचेतन है, तो क्या जीव भी श्रमूर्त होने से अचेतन माना जायगा ? नहीं। यद्यपि अमूर्तत्व गुण काल और श्राकाश के समान जीव में भी है किन्तु चेतना श्रात्मा का विशेष गुण है, इसी प्रकार क्रिया भी श्रात्मा का विशेष गुण है । जैसे श्राकाश में चेतना नहीं है फिर भी श्रात्मा में उसका सद्भाव हैं इसी प्रकार क्रिया आकाश में नहीं है तो भी प्रात्मा में हैं। ऐसा मानने में कुछ भी बाधा नहीं आती। .
प्रश्न-यदि श्रात्मा का गुण क्रिया है और वह ऊर्ध्वगमन करता है तो उसकी स्थिति कभी नहीं होनी चाहिए। आकाश अनन्त है उसकी कहीं समाप्ति नहीं है, सो सिद्ध जीव की गति क्रिया की भी समाप्ति नहीं होनी चाहिए । वह अनन्तकाल पर्यन्त ऊर्ध्वगति ही निरन्तर करता रहना चाहिए । सिद्ध जीव को लोक के अग्रभाग पर स्थित क्यों स्वीकार किया गया है ?
समाधान:-जीव और पुद्गल की गति का निमित्त धर्मास्तिकाय है । जैसे मछली की गति में जल सहायक होता है. रेलगाड़ी की गति में लोहे की पटरी सहा'यक होती है, इसी तरह जीव और पुद्गल की गति में धर्मास्तिकाय सहायक होता है। अतएव जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वही तक सिद्ध जीव की गति होती है, जहाँ धर्मास्तिकाय का अभाव है वहाँ गति नहीं होती।
लोक और अलोक का नियम धर्मास्तिकाय है। जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, उतने आकाश को लोक कहते हैं और धर्मास्तिकाय से शून्य आकाश अलोक कहलाता है इसी कारण सिद्ध जीव को लोक के अग्रभाग पर प्रतिष्ठित कहा गया है । तात्पर्य यह है कि जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक सिद्ध जीव गति करता है जहाँ धर्मा
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( . ७०२ ।
मोक्ष-स्वरुप स्तिकाय का अभाव है वहीं गति का भी प्रभाव हो जाता है।
सिद्ध जीव यही २ चोदि* का त्याग करके लोकान में जाकर सिद्ध हो जाते हैं। अनादिकाल से अब तक अनन्तानन्त जीव सिद्ध हो चुके हैं, अब भी विदेह क्षेत्र से सिद्ध होते हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे। वे सब जीव परिमित सिद्धक्षेत्र में कैसे समा सकते हैं इसका समाधान यह है कि अमूर्त वस्तु के लिए अलग स्थान, की आवश्यकता नहीं होती। सिद्ध भगवान् अमूर्त होने से एक ही स्थान में अनेक समा जाते है । कहा भी है:
जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अन्नोन्नसमोगाढा पुट्ठा सव्वे य लोगते ॥ फुसइ अणंते सिद्धे, सव्वपएसेहिं नियमसा सिद्धा।
ते वि असंखज्जगुणा, देसपएसेहिं जे पुट्ठा! अर्थात्- जहाँ एक सिद्ध है वहीं भव-क्षय से मुक्त हुए अनन्त सिद्ध . विराजमान रहते हैं। सब सिद्ध लोक के अन्तिम भाग में एक-दूसरे को अवगाहन करके स्पष्ट रूप से रहे हुए हैं।
प्रत्येक सिद्ध अपने समस्त प्रदेशों से अन्य अनन्त सिद्धों को स्पर्श करता है और जो देश-प्रदशों से स्पृष्ट हैं वे भी उससे असंख्यात गुने हैं अर्थात् एक सिद्ध के . एक-एक देश-प्रदेश से भी अनन्त सिद्धों का स्पर्श हो रहा है । इस प्रकार एक सिद्ध के असंख्यात प्रदशों में से प्रत्येक प्रदेश के साथ अनन्त सिद्धों का स्पर्श है।
जैसे एक ज्ञेय पदार्थ में अनेक ज्ञानों का समावेश हो जाता है, एक ही रूप में अनेक दृष्टियों का समावेश हो जाता है, एक ही आकाश के प्रदेश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय पुदगल श्रादि अनेक का समावेश हो जाता है, इसी प्रकार एक सिद्ध की अवगाहना रूप प्रदेश में अनन्त सिद्धों का समावेश हो जाता है।।
व्यवहारनय की अपेक्षा यहीं सिद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि सिद्धि का कारण सम्यक्त्व श्रादि यहीं है, निश्चयनय की अपेक्षा सिद्धि क्षेत्र में जाने पर सिद्धि प्राप्त. होती है।
शरीर का तीसरा भाग पोला है, जब उसे जीव अपने प्रदेशों से पूर्ण करता है तो श्रात्मप्रदेशों की अवगाहना तृतीय भाग न्यून हो जाती है। इसी कारण सिद्ध जीव की अवगाहना उनके शरीर तीसरा भाग न्यून कही गई है। अवगाहना की यह न्यूनता योगनिरोध के समय ही हो जाती है।
* यहां शरीर के अर्थ में 'वोदि' शब्द का प्रयोग किया गया है। यही शब्द अंग्रेजी भाषा में 'वोडी' (Body) रूप से इसी अर्थ में प्रचलित है। भाषा शास्त्र की दृष्टि से यह महत्व की बात है । इससे पौर्वात्य एवं पाश्चात्य भाषाओं के एक आदि . नोत का समर्थन होता है।
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ठारहवां अध्याय
७०३ ]. इस प्रकार अपने अन्तिम शरीर से तृतीय साग न्यून अवगाहना से युक्त सिद्ध भगवान् ऊर्ध्वगति करके, लोक के अर्धभाग में विराजमान हो जाते हैं और अनिर्वचनीय अनुपम अद्भुत, अनन्त और अस्सीम श्रानन्द का अनुभव करते हुए सर्व काल वहीं विराजमान रहते हैं। मूलः-अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया ।
अउलं सुहसंपन्ना, उलमा जस्स नस्थि उ॥२७॥ छाया:-अरूपिणो जीवघना:, ज्ञानदर्शनसंज्ञिता। .
अतुलं सुखं सम्पन्नाः, उपमा यस्य नास्ति तु ॥ २७ ॥ शब्दार्थः-सिद्ध भगवान् अरूपी हैं, जीवधन रूप हैं, ज्ञान और दर्शन रूप है, अतुल सुख से सम्पन्न हैं, जिसकी उपमा भी नहीं दी जा सकती। . भाष्यः-सिद्ध भगवान् की स्थिति आदि का वर्णन करने के पश्चात् उनके सुख आदि का यहाँ वर्णन किया गया है।
श्रात्मा स्वभावतः अरूपी है किन्तु नाम कर्म के अनादिकालीन संयोग के कारण वह रूपी हो रहा है। रूपी होना आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है। यह विभाव परिणति तभी तक रहती है जब तक उसका कारण विद्यमान रहता है। विभाव परिणति के कारण का प्रभाव होने पर विभाव परिणति का भी प्रभाव हो जाता है। इस विभाव परिणति का कारण कार्माण पुद्गलों का संयोग जव नष्ट हो जाता है तब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है। अरूपी मन या अमूर्तिकता से आत्मा का असली स्वभाव है, अतएव कर्मों का नाश होने पर सिद्ध भगवान् अरूपी हो जाते हैं।
सिद्ध भगवान् के अात्मप्रदेश सघन हो जाते हैं, क्योंकि शरीर संबंधी पोल . को वे परिपूर्ण कर देते हैं और इसी कारण उनकी अवगाहना शरीर से निभाग न्यून होती है।
सिद्ध भगवान् ज्ञान-दर्शन-स्वरूप हैं। तात्पर्य यह है कि श्रात्मा का स्वभाव उपयोग है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा भी है-'उपयोगो लक्षणम्' अर्थात् आत्मा का लक्षण या असाधारण धर्म उपयोग है । उपयोग का अर्थ है-ज्ञान और दर्शन । सिद्ध भगवान् श्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, इसका अर्थ यही हुआ कि वे शुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वरूपता प्राप्त कर लेते हैं । अतएव ज्ञान-दर्शन-रूप से ही उनका कथन किया जा सकता है।
सिद्ध भगवान् अतुल सुख से सम्पन्न हैं । अतुल का अर्थ है-जिसकी तुलन, किसी से नहीं हो सकती, जो अनुपम है । सिद्ध भगवान् को जो सुख प्राप्त है उसकी .. तुलना संसार के किसी भी सुख से नहीं हो सकती।
कुछ लोगों का खयाल है कि मुक्त अवस्था में इन्द्रियों का अभाव होने के .
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मोक्ष स्वरुप कारण सुख का संवेदन नहीं हो सकता। उनके विचार से अनुकूल स्पर्श, रस, गंध रूप और शब्द की प्राप्ति ही सुख है। जहाँ इन्द्रियाँ नहीं, इन्द्रियों के विषय का भोग नहीं, भोग का आधार शरीर नहीं, वहाँ सुख कैसा? अतएव सिद्ध-अवस्था में सुख का सद्भाव नहीं हो सकता।
वास्तविक बात यह है कि मोक्षसुख किसी संसारी जीव को प्राप्त नहीं होता श्रतएव वे उसकी कल्पना ही नहीं कर सकते । वह मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है, परन्तु मुक्त जीव उस सुख का वर्णन करने नहीं आते। यही कारण है कि इन्द्रियजन्य सुख के अभ्यासी लोग वास्तविक सुख की कल्पना न कर सकने के कारण मोक्ष-सुख के सद्भाव को ही स्वीकार नहीं करते।
संसारी जीव जिस सुख को सुख मानता है वह वास्तव में सुख नहीं सुखाभास है । दुःन का कारण होने से उसे दुःख विशेष कहना चाहिए । प्रथम तो उस सुख को प्राप्त करने के लिए अनेक दुःख सहने पड़ते हैं, फिर भी वह मिलता नहीं। अगर पुण्य के उदय से मिल जाता है तो स्थायी नहीं रहता। वह सुख अपना बीते हुए सुखों की दुःखप्रद स्मृति शेष रख कर विलीन हो जाता है और घोर संताप का पात्र बना जाता है। अगर ऐसा न हुआ तो भोगे हुए सुख का बदला परलोक में व्याज समेत चुकाना पड़ता है।
कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और अपने ही दाँतों से निकलने वाले रुधिर का आस्वादन करके सुख का अनुभव करता है । खुजली रोग वाला शरीर खुजाते समय ऐसा समझता है मानो स्वर्ग उपर से नीचे उतर पाया है, पर कुछ ही क्षण चीतने के बाद उसे वास्तविकता का परिज्ञान होता है। इन उदाहरणों में जैसे दुःख को सुख मानने की भ्रान्ति प्रदर्शित की गई और वही भ्रान्ति इन्द्रिजन्य सुस्त्र को सुख मानने वालों को हो रही है।
सच्चा सुख वह है जो दूसरे किसी भी पदार्थ पर निर्भर नहीं होता, जो काल से सीमित नहीं है, जो परिमाण से सीमित नहीं है और जो भविष्य में दुःख का कारण नहीं है । सिद्धों का सुख ऐसा ही सुख है । वह इन्द्रियों या उनके विषयों पर अवलंबित नहीं है, काल उसका अन्त नहीं कर सकता, उसकी मात्रा अनन्त है, उसमें दु:स्वजनकता नहीं है। अतएव वहीं वास्तविक सुख है।
किसी के हृदय में एक कामना उत्पन्न हुई । वह उसकी पूर्ति के लिए निरन्तर उद्योग करता है। नाना प्रकार की आपदाएँ सहन करता है-भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, वर्षा प्रावि के भयंकर कष्टों को सहन कर अपनी उत्कट कामना को परिपूर्ण करता है। इस प्रकार विविध कष्टों को सहने के बाद जब कामना की पूर्ति होती है तब वह सुख का अनुभव करता है।
दूसरा व्यक्ति यह है जिसके अन्तःकरण में उस प्रकार की कामना ही जागृत नहीं है और वह तद्विपयक संतोष का सुख भोग रहा है । अथ विचार किजिए दोनों में अधिक सुखी कौन है ?
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अठारहवां अध्याय
[ ७०५ ]
वस्तुतः कामना की पूर्ति से उत्पन्न होने वाला सुख वैसा ही है जैसे किसी रोगी को रोग मिट जाने पर होता है । कामना की अनुत्पत्ति से होने वाला सुख पहले से ही स्वस्थ रहने वाले पुरुष के सुख के समान है । जो लोग कामनाओं के अभाव से सुख की कल्पना नहीं करते और सिर्फ कामना पूर्त्तिजन्य सुख को दी 'स्वीकार करते हैं, उनके मन से स्वस्थता का सुख, सुख नहीं है, वे तो बीमारी होने के पश्चात् उसके मिटने पर ही सुख का सद्भाव स्वीकार करेंगे ! यह कैसी विपरीत बुद्धि है !
कामनाओं से ही दुःख की सृष्टि होती है। ज्यों-ज्यों कामनाएँ न्यून से न्यूनतर होती जाती हैं त्यों-त्यों सुख अधिक से अधिकतर होता जाता है। इस प्रकार कामनाओं के अपकर्म पर सुख का उत्कर्ष निर्भर है । जब कामनाएँ अपूर्ण रूप से नष्ट हो जाती हैं तब सुख पूर्ण रूप से प्रकाशमान होता है । कामनाओं के अभाव में योगीजनों को निराकुलताजन्य जो श्रद्भुत श्रानन्द उपलब्ध होता है, वह संसार के बड़े से बड़े चक्रवर्ती को भी नसीब नहीं हो सकता । अगर चक्रवतीं को विषयभोगों में उस सुख की उपलब्धि होती तो वे अपने विशाल साम्राज्य को ठुकराकर अनगार तपस्वी क्यों बनते
जैसे ज्ञान और दर्शन श्रात्मा का स्वरूप है, इसी प्रकार सुख भी आत्मा का स्वाभाविक धर्म है । इन्द्रियजन्य सुख उस सुख गुण का विकार है और यह सुख सातावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होता है । सातावेदनीय कर्म का आत्यन्तिक क्षय हो जाने पर स्वाभाविक सुख की अभिव्यक्ति होती है । वह सुख मुक्ति में ही प्राप्त होता है ।
वैशेषिक दर्शन के अनुयायी सुख कों श्रात्मा का स्वभाव नहीं मानते । उनके मत में सख अलग वस्तु है और वह श्रात्मा में समवाय संबंध से रहता है । मोक्षअवस्था में सुख का सर्वथा नाश हो जाता है । यह मान्यता विचार करने से खंडित हो जाती है । सुख स्वतंत्र पदार्थ है, वह श्रात्मा का धर्म नहीं है इस अभिमत की सिद्धि में कोई भी संतोषजनक प्रमाण नहीं दिया जा सकता । जैसे घट आदि पदार्थों मैं ' यह घट है ' ऐसी प्रतीति होती है, और इस प्रतीति से घट का स्वतंत्र अस्तित्व प्रतीत होता है, उस प्रकार यह सुख है' ऐसी प्रतीति कभी नहीं होती है । ' मैं सुखी हूं इस प्रकार का बोध श्रवश्य होता है और उससे यह सिद्ध होता है कि श्रात्मा ही सुख-स्वरूप
6
}
।
इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध भगवान् को अनन्त, अचिन्त्य, और असीम परमानन्द प्राप्त होता है । वह सुख अतुल है । संसार के किसी भी लुख से उसकी तुलना नहीं हो सकती। उस सहज सुख को समझाने के लिए संसार से कोई उपमा नहीं है - वह अनुपम है, अनुरत है ।
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( ७०६ ]
मौ स्वरुप मूल:-एवं से उदाहु अणुत्तरणाणी,
___ अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदसणधरे। अरहा नायपुत्ते भयवं,
वेसालिए विश्राहिए त्ति वेमि ॥ २८ ॥ . छायाः-एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी अनत्तरज्ञानदर्शनधरः।
अन् ज्ञातपुत्रः भगवान् । वैशालिको विख्यातः ॥ २८ ॥ शब्दार्थः-उत्तम ज्ञानी, उत्तम दर्शनी तथा उत्तम ज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हन् । ज्ञातपुत्र भगवान् वैशालिक ने अपने शिष्यों से इस प्रकार कहा है।
भाष्यः-निग्रेन्थ प्रवचन सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी श्रादि के लमक्ष प्रतिपादन किया है। मगर यह निर्ग्रन्थ प्रवचन उनका स्वरुचि विरचित नहीं है-उन्होंने अपनी इच्छा से इसका आविष्कार नहीं किया है। ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम श्रादि शिष्यों को जिस प्रवचन का उपदेश दिया था वही भवचन श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्यों के समक्ष निरूपण किया है।
प्रथम तो इस निम्रन्थ प्रवचन की प्रमाणिकता इसी से प्रमाणित है कि इसके सूल उपदेशक भगवान महावीर स्वामी हैं। फिर भी उसमें विशेषता बताने के लिए भगवान् के अनेक विशेषणों का कथन किया गया है । भगवान अनुत्तर अर्थात सर्वोस्कृष्ट ज्ञान से सम्पन्न है, सर्वोत्कृष्ट दर्शन से सम्पन्न हैं और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हैं। तात्पर्य यह है कि वे सर्वच और सर्वदर्शी हैं। सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के वचनों में किसी प्रकार का विसंवाद नहीं होता उनकी सत्यता असंदिग्ध होती है श्रतएव निर्ग्रन्थ प्रवचन संशय से परे है प्रमाणभूत है।
___ यहां ' श्रोत्तरनाणी ' और 'अणुत्तरदसण" इन विशेषणों के बाद फिर 'श्रगुत्तरनाणदसणधरे' कहा गया है सो चौद्धमत का निराकरण करके जीव को सनाधार रूप सिद्ध करने के लिए है।
इन्द्र श्रादि देवों के द्वारा भी पूज्यनीय होने के कारण भगवान् अईन्. कहलाते हैं। अन्य मत में हन्द्र ही पूज्यनीय माना गया हैं और वेदों के अनुसार वही सब से बढ़ा देवे है, मगर सर्वध भगवान् महावीर को वह भी पूज्यनीय मानता है । अतएक भगवान् देवाधिदेव हैं, यह वात 'भईन् ' विशेषण से ध्वनित की गई है।
भगवान महावीर स्वामी झात (गाय) वंश में उत्पन्न हुए थे अतएव वेशात पत्र (नायपुत्त ) नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने विशाला नगरी में निर्गन्ध प्रवचन का उपदेश दिया था अतएव वे वैशालिक नाम से भी प्रसिद्ध हैं। कहा भी है
विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव च । . .. विशाल वचनं चास्या,वा तेन वैशालिको जिनः ।।
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अठारहवां अध्याय
[ ७०७ ]
अर्थात् - श्री महावीर भगवान् की माता विशाला थी, उनका कुल भी विशाल 'था और उनका प्रवचन भी विशाल था, अतः वे ' वैशालिक जिन इस संज्ञा से प्रसिद्ध हैं।
वैशालिक शब्द से ऋषभदेव भगवान् का भी ब्रह्मण होता है, क्योंकि उनका कुल भी विशाल था । उनका अर्थ बोध होने से यह निष्कर्ष निकलता है कि निर्ग्रन्थप्रवचन श्राद्य तीर्थकर ने भी इसी रूप में निरूपित किया था । अर्थात् भगवान् ऋषभदेव द्वारा उपदिष्ट वस्तुरूप ही भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट हुआ है । तीर्थकरों का उपदेश एक दूसरे से विलक्षण नहीं होता । सत्य सदा एक रूप रहता है. अतएव उसका स्वरूप- कथन भी एक रूप ही हो सकता है । इस प्रकार यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वश, सर्वदर्शी, अर्हन् वैशालिक भगवान् द्वारा उपदिष्ट हुआ है । इसका अध्ययन करना परम मंगल रूप 1
'ति बेमि' अर्थात् ' इति व्रवीमि ' यह वाक्य प्राय: प्रत्येक अध्ययन और प्रत्यक शास्त्र के अन्त में प्रयुक्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि श्रीसुधर्मा स्वामी, श्रीजम्बू स्वामी से कहते हैं - हे जम्बू, हे अन्तेवासी, मैं जिस तत्व का कथन करता हूं, उसका श्रेय मुझे नहीं, भगवान् महावीर को है, क्यों कि जैसा उन्होंने कहा है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूं । यह तत्त्वनिरूपण मेरी कल्पना नहीं है, यह सर्वज्ञ भगवान् के अनुत्तर ज्ञान में प्रतिविम्बित हुआ सत्य वस्तुस्वरूप है ।
इति श्री निर्ग्रन्थ-प्रवचन साप्यम्
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निग्रंथ प्रवचन
प्रमुख विद्वानों की सम्मतियाँ
(१) श्रीमान् ला० कन्नोमलजी एम० ए० सेशन जज़ धौलपुर। .
ग्रन्थ बड़े महत्व का है । साधु तथा गृहस्थ दोनों के काम की चीज़ है। इसका स्थान सभी के घरों में होना चाहिए । विशेषतः पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में इसका प्रवेश अत्यन्त आवश्यक है।
(२) श्रीयुत पं० रामप्रतापजी शास्त्री, भू० पू० प्रोफेसर, पाली
संस्कृत मोरिस कालेज, नागपुर ( सी. पी.) इसके द्वारा जैन साहित्य में एक मूल्यवान संकलन हुआ है । यह केवल जैन दर्शन के इच्छुक विद्वानों को ही नहीं बल्कि जैन साहित्य में रुचि रखने चाले सभी सज्जनों के लिए अति उपयोगी वस्तु है।
श्रीमान् प्रो० सरस्वती प्रसादजी चतुर्वेदी एम० ए० व्याकरणाचार्य,
काव्यतीर्थ मोरिस कालेज नागपुर ( सी० पी० ) इर्व ग्रन्थ रत्न की मूक्लियों का मनन समस्त मानवसमाज के लिए हितकर है । क्योंकि ये सूक्तियां किसी एक मत या सम्प्रदाय विशेष की ल . होकर विश्वजनीन हैं।
श्रीमान् प्रो० श्यामसुन्दरलालजी चौराडिया एम० ए:
- मोरिसं कालेज । नागपुर ) श्री मुनि महाराजजी का किया हुआ अनुबाद अत्यंत सरल, स्पष्ट और . प्रभावोत्पादक है।"
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७ि१०]
निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
-
-
श्रीयुत् वी० वी० मिराशी, प्रोफेसर संस्कृत विभाग,
मोरिस कालेज, ( नागपुर ) यह पुस्तिका जैन साहित्य की धार्मिक और दार्शनिक सर्वोत्तम गाथाओं का संग्रह है।
श्रीमान् गोपाल केशव गर्दै एम० ए०
भूतपूर्व प्रो० ( नागपुर) इसी प्रकार से सात आठ अर्द्धमागधी के.ग्रन्थ छपवाए जाय तो इस भाषा ( प्राकृत ) का भी परिचय सरल संस्कृत की नाई बहुजन समुदाय को अवश्य हो जायगा।
- श्रीमान् प्रो० हीरालालजी जैन एम० ए० एल० एल० बी०
किङ्ग एडवर्ड कालेज, अमरावती ( बरार) । " इस पुस्तक का अवलोकन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। पुस्तक प्रायः शुद्धता पूर्वक छपी है । और चित्ताकर्षक है । "..."""साहित्य और इतिहास प्रेमियों को इस से बड़ी सुविधा और सहायता मिलेगी।"
श्रीमान् महामहोपाध्याय रायबहादुर पं. गौरीशंकर
हीराचंदजी अोझा, अजमेर. यह पुस्तक केवल जैनों के लिए ही नहीं किन्तु जैनेतर गृहस्थों के लिए . भी परमोपयोगी है।
(8) श्रीमान् ला० बनारसीदासजी एम० ए० पी० एच०डी०
___ओरियन्टल कालेज, लाहौर. स्वामी चौथमलजी महाराज ने निर्ग्रन्थ प्रवचन रच कर न केवल जैन समाज पर किन्तु समस्त हिन्दी संसार पर उपकार किया है । ऐसे ग्रन्थ की अत्यन्त आवश्यकता थी।
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
[७११ ]
.
.श्रीमान् प्रो० के० एन० अभयंकर एम० ए०
गुजरात कालेज, अहमदाबाद । विश्वविद्यालयों में विद्वानों और विद्यार्थियों के हाथों में रक्खी जाने योग्य है । विश्वविद्यालय के पाटय ग्रन्थों में चुनाव के समय में इस ग्रन्थ के लिये अपनी और से सिफारिश करूंगा।"
(११) श्रीमान् अत्तरसेनजी जैन सम्पादक "देशभक्त " मेरठ । यह पुस्तक प्रत्येक जैन घराने में पढ़ी जाने योग्य है ।
(१२) श्रीमान् प्रोफेसर हीरालालजी रसिकदासजी कापड़िया
__एम० ए० बम्बई। आई सर्वोपयोगी पुस्तक छपाववा बद्दल संग्राहक अने प्रकाशक ने अभिनन्दन घटे छ।
(१३) श्रीमान् पं० लालचन्दजी भगवानदासजी गांधी गायकवाड़
लायब्रेरी, बड़ोदा। प्रसिद्धवक्ता मुनि श्री चौथमलजी महाराज का यह प्रयत्न प्रशंसनीय है।
(१४) श्रीमान् नन्दलालजी केदारनाथजी दिक्षित बी० ए० एम०
सी० पी० भूतपूर्व विद्याधिकारी, बड़ौदा । निग्रंथप्रवचन के पठन-पाठन से जनता भारी लाभ उठा सकती है। एसा सुन्दर ग्रन्थ प्रकाशित कर के आपने जैन और जैनेतर मनुष्यों पर भारी उपकार किया है।
(१५) श्रीयुत गोविन्दलाल भट्ट एम० एस० सी० प्रोफेसर संस्कृत, .
बड़ौदा कालेज बड़ौदा।
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[ ७१२ ]
निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
"
यह संग्रह अत्यन्त उपयोगी और कंठस्थ करने योग्य है । ( १६ )
श्रीयुत प्रोफेसर भावे, बड़ौदा कालेज, बड़ौदा |
यह पुस्तक जैन धर्म का अध्ययन करने वाले अथवा रूची रखने वाले महानुभावों के लिये उपयोगी सिद्ध होगी ।
( १७ )
श्रीमान् पं० जुगल किशोरजी मुख्तार, सरसावा ।
आगम-ग्रन्थों पर से अच्छे उपयोगी पद्यों को चुन कर ऐसे संग्रहों के तैयार करने की निःसन्देह जरूरत है इस के लिये मुनि श्री चौथमलजी का यह उद्योग और परिश्रम प्रशंसनीय है ।
( १८ )
श्रीमान् पं० प्यारकिशनजी साहेब कोल भूतपूर्व दीवान सैलाना स्टेट एवं भूतपूर्व एडवाईकर, झ बुवा स्टेट | वर्तमान् ( Member Council ) उदयपुर (मेवाड़) इस पुस्तक के भारी प्रचार से अवश्य ही उत्तम परिणाम निकलेगा और इसका प्रचार खूब हो ऐसी मेरी भावना है ।
( १६ )
श्रीमान् अमृतलालजी सवचंदजी गोपाणी एम० ए० बड़ौदा कालेज, बड़ौदा |
अपने समाज की कतिपय पुस्तकों की अपेक्षा यह पुस्तक बिलकुल उत्तम है इस में शक नहीं ।
( २० )
श्रीमान् प्रो० घासीरामजी जैन M. Sc. F. P. S. ( London ) विक्टोरिया कालेज, ग्वालियर |
इस पुस्तक के अविरल स्वध्याय से मुमुक्षु की आत्मा को सच्ची शांति प्राप्त होगी ।
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
[ ७१३ ]
( २१ )
श्रीमान् प्रो० बूलचन्दजी एम० ए० इतिहास और राजनीति के प्रोफेसर, हिन्दू कालेज, दिल्ली ।
आपने इस पुस्तक के प्रकाशन द्वारा एक बड़ी आवश्यकता की पूर्ति की है । ( २२ )
श्रीमान् रामस्वरूपजी एम० ए० शास्त्री संस्कृत के प्रो. मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ा
यह पुस्तक पाली और प्राकृत भाषाओं की कक्षाओं के लिए पाठ्य ग्रन्थों में रखने योग्य है ।
( २३ )
बाबूराम सकसेवा एम. ए. डी. लिट संस्कृत, पाली और प्राकृत के प्रोफेसर इलहाबाद यूनिवर्सिटी |
चुनाव बहुत उत्तमता से हुआ है ।
( २४ )
प्रोफेसर ए. एन. उपाध्याय एम. ए. राजराम कालेज, कोल्हापुर 1. यह जैन धर्म का अच्छा चुनाव है । यह किताब जैन धर्म की जानकारी के लिए | और इस धर्म ( ग्रन्थ ) के ज्यादा अभ्यास के लिए अच्छी होगी । ( २५ )
मोहनलाल एम. ए. एफ. टी एस. इलाज करने वाली लीग के मेम्बर, स्कूल के भूतपूर्व इन्सपेक्टर और इतिहास के प्रो. कोटा कालेज ।
मैंने सारी किताब सावधानी से देखी है और उस को मैने निर्णयाताक उसकी बराबरी वाली किताबों में से ज्यादा अच्छी पाई । गृहस्थी जो कि धर्म की मूल वस्तुओं पर सिर्फ एक ही साधारण किताब रखना चाहता है उस को इस अमूल्य पुस्तक की एक प्रति खरीदनी चाहिये यह हर एक घर और लायब्रेरी में रखी जाना चाहिये ।
( २६ )
मणीलाल एच. उदानी एम. ए. एल. एल. बी. एडवोकेट, राजकोट
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[७१४ ]
निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मातियां निग्रन्थ प्रवचन के भाव बहुत अच्छा है । मैं मुनि श्री चौथमलजी महाराज को ऐसी मूल्यवान पुस्तक तैयार करने और जनता के सामने रखने को, जो कि जैन धर्म के सच्चा सारांश भगवत गीता की तरह बताती है बहुत धन्यवाद देता हूँ।
(२७) लीडर इन्हाबाद ता० २८ फरवरी सन् १९३४ . - मुनि श्री चौथमलजी महाराज ने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में भगवान् महावीर के उपदेश के कुछ रत्न इक्कठे किये है।
(२८) कल्याण वर्ष १३ के फरवरी अङ्क में पण्डित श्रीरामनाथजी सुमन ।
निग्रन्थ-प्रवचन मैने अनेक बार पढ़ा है । मनन करने की भी चेष्टा की है। यह जैन धर्म का पवित्र ग्रन्थ है । पर इस में बहुत कम ऐसी बातें हैं जो · जैनेतर मुमुक्षुओं या सत्य शोधको के लिए भिन्न धर्म-सी हों । अनेक स्थानों पर
तो ऐसा मालूम पड़ता है मानो हम गीता पढ़ रहे हों । इस से जैन तथा जैनेतर दोनों लाभ उठा सकते हैं।
प्रोफेसर टी. कृष्ण मूर्ति एम० ए० बी० एस्सी
महाराजा कालेज, मयसूर । निर्ग्रन्थ-प्रवचन के कुछ भागों को मैंने पढ़ा और उस से बहुत लाभ लिया . . भाषा सरल और सुन्दर है । मुझ जैसे अहिन्दी बोलनेवाले भी आसानी से पढ़ सकते हैं और समझ भी सकते हैं।
. (३०) । राधास्वामी मही शिवव्रतलालजी एम० ए० एल० एल० डी०
ता० २७-८-सन् १६३५ के पत्र में । मुनि श्री चौथमलजी महाराज ने निग्रेन्थ प्रवचन के तालीक से लोगों पर बहुत बड़ा अहसान किया । पण्डितजी ने यह कमाल किया है कि प्राकृतिक .. के साथ विला किसी महशुप रद्दोबदल के उसको संस्कृत का जामा भी पहना
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
_ [७१५ ] दिया है जिससे असली जबान का समझाना निहायत आसान हो जाता है। लाजी तशरीह और खुलासा बयान किताब की खूबी को और चार चांद लगा देता है । मैं पण्डितजी महाराज और इस किताब के शाय करने वाले को मुबारिक बाद देता हूँ।
(३१) . पं० गिरधारीलालजी नवरत्न झालरा पाटन से
ता० २ अगस्त के पत्र में। निर्ग्रन्थ प्रवचन सुन्दर और उपादेय पुस्तक है । हिन्दी भाषा भाषी इस . का उचित सत्कार करेगे ऐसी आशा है। .
(३२) श्रीमान् डाक्टर पी० एल० वैद्य एम० ए० ( कलकत्ता )
डी. लिट् (पेरिस ) प्रोफेसर संस्कृत और प्राकृत, वाडिया कालेज, पूना ।
निर्ग्रन्थ प्रवचन इसी तरह जैनियों के धर्म शास्त्रों के उपदेश का सार है । मैं चाहता हूं कि हर एक जैन यह नियम करले कि उस का कम से कम एक अध्याय रोज पढ़े और मनन करे ।
(३३) महामहोपध्याय डा० गंगानाथ झा, एम० ए० .
डी० लिट् व्हाइस चान्सलर,.
_इलाहबाद युनिवर्सिटी । यह तमाम जैन विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी प्रमाणित होगी।
(३४) प्रोफेसर केशवलाल हिम्मतराम एम० ए०, बडोदा, कालेज। . .
जैन शास्त्रों में संग्रह कर ऐहिक और पारलौकिक ज्ञान का सार बहुत ही स्पष्ट और विद्वत्ता के साथ संग्रह किया गया है। ...
__ . + धर्म के प्रति श्रद्धा रखने वाले सभी को इसे पढ़ने के लिए मैं अनुरोध
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
( ७१६ ] करता हूँ।
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प्रोफेसर शम्भुदयाल यज्ञधारी एम० ए० महाराणा कालेज, उदयपुर ।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन पुस्तक की रचना कर जैन साहित्य की वास्तविक सेवा
श्रीमान् के० जे० मशरूवाला, अहमदाबाद । . पुस्तक जनता के लिए अति उपयोगी है।
(३७) श्रीमान् वावू कामता प्रसादजी जैन एम० आर० एस०
'वीर' सम्पादक अलीगंज, जिला एटा। " यह पुस्तक सार्थक नाम है। श्वेताम्बरीय अंग ग्रन्थों से निग्रन्थ महा प्रभुओं के धार्मिक प्रवचनों का संग्रह इस में किया गया है और वह सब के लिए उपादेय है।"
(३८) श्रीमान् धीरजलालजी के० तुखिया, ऑ, अधिष्टाता,
श्री जैन गुरुकुल, ब्यावर. जैन धर्म के अभ्यासियों को और विद्यार्थियों के पाठ करने योग्य है । जैन संस्थाओं के पाठयक्रम में भी रखने योग्य है।
(३६) श्रीमान् ज्योतिप्रसादजी जैन भू० पू० सम्पादक,
जैन प्रदीप' (प्रेमभवन ) देवबन्द (यू० पी०)। मैं इस छोटे से संग्रह-ग्रन्थ को यदि जैन गीता कह दूं तो कुछ अनुचित न होगा। इस से प्राणी मात्र लाभ ले सकते हैं।
(४०) श्रीमान् पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ,
सम्पादक 'वीर' श्री जैन गुरुकुल, व्यावर । यह संग्रह पाठशालाओं में पढ़ाने योग्य हैं : जैन गुरुकुल में इसे पाठय
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
क्रम में नियत किया गया है ।
( ४१ )
श्री परमानंदजी बी० ए०, गुरुकुल विद्यालय सोनगढ़ |
साहित्य में ऐसी ही ग्रन्थों की महती आवश्यकता है । आपने साधारण को ऐसे सुअवसर से लाभ उठाने का अवसर देकर प्रशंसनीय एवं स्पृहणीय कार्य किया है ।
( ४२ )
श्री पं० भगवतीलालजी 'विद्याभूषण' राजकीय पुस्तक प्रकाशकाध्यक्ष, जोधपुर ।
यह पुस्तक हरेक धार्मिक पुरुष अपने पास रखें और मनन करके आत्म लाभ उठावें इस में पूर्व धर्म का सार दिया गया है । "
( ४३ )
श्रीमान् सूरजभानुजी वकील शाहपुर तहसील बुरहानपुर जि० नीमाड़ ( बरार )
जैनियों को प्रारम्भ में यह पुस्तक जरुर पढ़नी चाहिये ।
( ४४ ) श्रीयुतकीर्तिप्रसादजी जैन वी० ए० एल० एल० बी० वकील हाईकोर्ट, विनोली ( मेरठ ) ।
[ ७१७ ]
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सब धर्म प्रेमी बन्धु और खास कर जैन भाई व बहन इस पुस्तक से पूरा लाभ उठायेंगे |
( ४५ )
श्रीमान् भूपेन्द्रसूरिजी महाराज, भीनमाल ।
आप का साशय-पूर्ण उद्योग सफल है । जैन संघ में प्रत्युपयोगी है ।
1
( ४६ )
प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराज, पाटण | संग्राहक - महात्माजी नो परिश्रम सारो थयो छे ।
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
(४७) मुनि श्री सुमतिविजयजी, गुजरानवाला ( पंजाब ) . आएकी मेहनत प्रशंसनीय है। . .
., (४८) जैनाचार्य पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज, शास्त्र प्रेमी और व्याख्यान दाताओं को तो अवश्य पढ़ने योग्य है ।
(४६) कविवर्य पण्डित मुनि श्री नानचन्द्रजी महाराज, उत्तम रत्नों चूंटी काढ़ी जिज्ञासु वर्ग उपर भारे उपकार कर्यों छे एकंदर चूटणी बहु सुन्दर छ।
(५०). शतावधानी पं० मुनि श्री सौभाग्यचन्द्रजी महाराज, प्रस्तुत ग्रन्थ ना संग्राहकने वाचक वर्गे अवश्य आभार मानयो घटे छ।
(५१) योगनिष्ट पं० मुनि श्री त्रिलोकचन्द्रजी महाराज,
आवकारदायक छ हुं अने सत्कारूं छु अावा ' प्रवचनों" एकज भाग . थी अटकी न रहे थे खास सूचq छं।
. (५२) उपाध्याय मुनि श्री आत्मारामजी महाराज, - मुमुनु जनों को अवश्य पठनीय है ।
(५३) वक्ता श्रीमान् सौभाग्यमलजी महाराज, जो प्राकृत का ज्ञान नहीं रखते हैं उन जीवों के लिये भारी उपकार किया है।
(५४) "जैन महिलादर्श' सूरत वर्ष १२ अङ्क ८ में लिखता है किपुस्तक में गाथा सरल अच्छे हैं । मनन करने योग्य है।
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
[ ७१६ }
'दिगम्बर जैन' सूरत वर्ष २६ अङ्क १२ वीर सं० २४५६ पृष्ट ३६१
जैनों को ही नहीं किंतु मानव मात्र के लिए हितकारी है । पुस्तक की नीति पूर्ण गाथाएँ संग्रह करने योग्य हैं । पुस्तक संग्रहणीय व उपयोगी है ।
(५६) "जैन मित्र' सूरत ता० १६ -- ११ -. ३३ में लिखता है ।
कुल गाथाएँ ३७७ हैं । वे सब कएठ करने योग्य हैं । दिगम्बरी भाई भी अवश्य पढ़ें।
(५७) "जैन जगत्" अजमेर अक्टूम्बर सन् ३३ के अंक में लिखता हैजैन सूत्र ग्रन्थों के नीति पूर्ण उपदेश प्रद पथों का यह सुन्दर संग्रह है।
. . (५८) ... 'वीर' मल्हीपुर ता० १६ .. ११ -- ३३ में लिखता है-- .
संग्रह परिश्रम पूर्वक किया गया है श्वे० पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में रखने योग्य है।
(.५६) "अर्जुन" देहली ता० ६.- ११ -- ३३ में लिखता है
जैन धर्म सम्बन्धी पाठ्य ग्रन्थों में इस पुस्तक का स्थान ऊंचा समझा जावेगा।
(६०) "वैक्टश्वर समाचार" बम्बई ता० १५ - १२ .. ३३ में लिखता है.
यह एक सम्मादराय ग्रन्थ है ज्ञानामृत की प्यास रखने वाले सभी महानुभाव इस से लाभ उठा सकते हैं। .
... .
"कर्मवीर" संख्या ५० ता० १७ मार्च १९३४ में लिखता है
भक्ति ज्ञान वैराग्यमय गीता के समान इस पुस्तक को उपदेश ग्रन्थ का रूप देने के लिए संग्राहक महोदय प्रशंसा के पात्र हैं। .
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[ ७२० ]
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बम्बई समाचार' ता० जैनो तेम जैनंतरो माटे
'निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
हुआ
१. ( .६२ )
२२ जुलाई १६३३ में लिखता है किपण एक सरखु उपयोगी छे ।
( ६३ )
श्री " " जैन पथ प्रर्दशक " आगरा ता० ६ सितम्बर ३३ में लिखता है कि
प्रत्येक जैनी को पढ़कर के मनन करना चाहिए। प्रत्येक पुस्तकालय इस का होना जरूरी है
( ६४ )
'जैन प्रकाश' बम्बई वर्ष २० अंक ४३ ता० १०
सेप्टेम्वर १६३३ में लिखता है कि
मुनिश्री ने आगम साहित्य का नवनीत निकाल कर गीता के समान १८ अध्यायों में विभक्त करके पाठकों के सामने रक्खा है | बहुत उपयोगी संग्रह
हैं ।
( ६५ )
'जैन ज्योति' अहमदाबाद वर्ष ३ क ३ में लिखता है - या चटणी नित्य पाठ मांटे खूब उपयोगी छे
1
मां भाग्येज शंका छ ।
( ६६ ) करांची (सिंघ ) से प्रकाशित सन् १६३४ के २२ वीं दिसम्बर का 'पारसी संसार और लोकमत' लिखता है कि
हिन्दी भाषा जाननेवाली प्रजा के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी
हैं और प्रत्येक हिन्दी भाषी को अपने घर में मनन करने के लिए रखने योग्य हैं।
( ६७ )
सैलाना से प्रकाशित सन् १९३४ के जुलाई के
'जीवन ज्योति' ने लिखा है कि
निर्ग्रन्थ प्रवचन आध्यात्मिक ज्ञान का अमूल्य ग्रन्थ हैं । इन उपदेशों
से क्या जैन और क्या जैन सभी समान रूप से लाभ उठा सकते हैं ।
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निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मातियां •
(६८) कलकत्ते से प्रकाशित 'विश्वमित्र' अप्रेल सन् १९३४
के पृष्ट ११३५ पर लिखता है किजैन धर्म के प्रवर्तक महात्मा महावीर के प्रवचनों का सानुवाद संग्रह किया गया है | अनुवाद की भाषा सरल है ।
. (६६). . स्थानकवासी जैन ता० १२-९-३५ को
अहमदाबाद से लिखता है किप्रसिद्ध वक्ता पं० मुनि श्री चौथमलजी म. ने जैनागमों मा आवेला भगवान महावीर प्रणित पदों माथी खूब २ उपयोगी पदोंनी चुंटणी करी प्रस्तुत पुस्तकमा मूंकी छे । आध्यात्मिक उन्नतिना इच्छुकों ने अने धर्म प्रेमी ने खांस वांचवा लायक छ । जनता एकी साथे बधा सूत्रों न बाची सके, तेमज सूत्र रूची पण दरेकने न हुई सके तेथी मुनि श्री नो श्रा प्रयास अति आदरणीय छ । एकन्दर श्लोकोनी पसंदगी अति सुन्दर छे। आपणे आवा पुस्तक ने आध्यात्मिक गीता कहिये तो खोटु कहेवाव से नहीं।
(७०) जयाजी प्रताप ग्वालियर से ता० २८-११-३५ को
लिखते हैं किआत्मा क्या है, आत्माओं की विभिन्नता का क्या कारण है आत्मा के अतिरिक्त परमात्मा कोई भिन्न है या नहीं इत्यादि प्रश्नों का सरल सुस्पष्ट
और सन्तोषप्रद समाधान हमें निग्रन्थ प्रवचन में मिलता है इस से सभी जैन अजैन नर नारी एकसा फायदा उठा सकते हैं । पुस्तक सभी आध्यात्म प्रेमियों को अवश्य पढ़ना चाहिये।
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[ ७२२ ] . . .
• निर्ग्रन्थ प्रवचन पर सम्मतियां
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(७१) "जैन गजट" मणीपुर से अक्टोंम्बर सन् १९३५ में
. लिखते हैं कि- . क्या जैनियों के पास भी गीता के ऐसी कोई पुस्तक है लोग अक्सर ऐसा पूछते हैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पुस्तक इसी प्रश्न का उत्तर है । गीता की तरह ही यह अठारह अध्यायों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय की विषय सामग्री भी। गीता की विषय सामग्री के बहुत कुछ अनुरूप ही है।
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प्रशस्ति
शुभे वर्षे सिन्धु-त्रि-निधि-कु-मिते विक्रमरवे त्रयोदश्यामूर्जेऽधृत सितदले जन्म किल यः । चतुर्थाभिरूयोऽयं मुनिरिह चतुर्थे सतियुगे, चतुर्थस्य द्वारे विघटयतु वर्गस्य भविनाम् | १ | गिरं हिन्दीं वाल्ये वयसि यवनानीमपिलिपिम्, पठित्वेंग्लिश्चंचु समजनि च पारस्यकचरणः, अनेकभिभाषाभिरिति हि तदा य परिचितोऽप्यारांजीदे कोक्तिः प्रणमत चतुर्थ मुनिममुम् |२| कुतोत्कर्षे वर्षे निजजननतः षोडश श्तेऽवद्दद्धन्यां कन्यां सलिलनिधिकन्यामिव पराम् । उपेतायामष्टादशशरदि तुर्ये युग इह । जयंस्तुर्योमल्लः स्मरमपि यथार्थाख्यमकरोत् ॥३॥ यथा मेनावत्या व्रत-नियमवत्याऽधिगमितो मतिं गोपीचन्द्रो मृदुवयसि चन्द्रोपमयशाः । तथा बोधं मान्नाऽध्यगमि पलमात्राद्रहसि य चतुर्थोऽयं मल्लो जयति मुनिमल्लोऽत्र भुवने ॥ ४ ॥ अथाब्दे दृग्-बाण-ग्रह-कुघटिते विक्रमरवे, रयं स्त्री हग्-वारण - ग्रह - कुघटितस्तुर्यमुनिराट् । तपस्ये संशुद्धे सुविशद-तपस्योन्मुखमतिस्तृतीयां दीक्षामधरत तृतीयाश्रमिकवत् ॥ ५ ॥ गुरून्हीरालालान् यम-नियमपालान् परिचरश्चरन्ध्यानं ज्ञानं समलभत मानं च मुनिषु । यथा मेघो धीरं स्थलमुभति नीरं च सदृशम्, तथाऽसौ व्याख्यानं घटयति समानं सतिजडे । ६। यदास्याब्ज-स्पन्नं मधुरिम- प्रपन्नं प्रकटितं, प्रभावं व्याख्यानं सुमरस - समानं रसयितुम् । समुद्भूतासङ्गा नर-नृपति-भृंगा अभिमतान् सुरान् संयाचन्ते प्रथमतरमन्ते च तृषिताः ॥७॥ प्रभाविव्याख्यानामृतरसनिधानाय दशन द्युतिज्योत्स्ना भाजे बिबुध-भ-समाजेद्धरुचये । यदस्यैणाङ्कायाऽतुलसुखविकायाय नित्तरां, सभा चक्षुश्चौरः क्षितिपति चकोरः स्पृहयति ।। - गतामर्षो मर्षेण च जनित हर्षेण सहितः समायो निर्मायो विदधदसमा योगरचनाः । स्वमुक्त्यैयस्तृष्णा दधदपि च तृष्णां परिजह, चतुर्थःसन्मानो मुनिरयममानो विजयते ||
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