Book Title: Muni Sammelan Vikram Samvat 1969 Year 1912
Author(s): Hiralal Sharma
Publisher: Hirachand Sancheti tatha Lala Chunilal Duggad

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Page 42
________________ कारण आपड़े वहां यदि अपनी शक्ति हो और शांति होती नजर आवे तो उसके समाधान करनेका उद्योग करना ! वरना किनारा ही करना योग्य है. मगर किसी पक्षमें शामिल' होकर साधुताको दूपित करना योग्य नहीं है ! प्रस्ताव बाइसवां. (२२) EF एक गुरुके परिवारके साधुओंमेंही जैसा चाहय वसा . मेल नजर नहीं आता तब यह कैसे आशा की जा सकती है कि, भिन्न गच्छके तथा भिन्न गुरुओंके साधुओंमें मेल रहे ! इस प्रकारकी स्थिति हमारे आधुनिक साधुओंकी है ! इसको देख कर यह सम्मेलन अत्यंत शोक प्रदर्शित करता है और प्रस्ताव करता है कि, ऐसे कुसंगसे साधु मात्रका जो धर्मकी उन्नति करनेका मूल हेतु है वह पूर्ण होता हुआ दृष्टिगोचरं नहीं आता ! अतः अपने साधुओंको वही काम करना चाहिये जिससे कि यह कुसंप दूर हो. . . इस प्रस्तावके उपस्थित होते हुए प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराजने कहाथा कि, सामान्य तया हम साधु कहलाते हैं तो क्षमागुण अपने अंदर होनाही चाहियें. यदि क्षमा नहीं नो साधु पनाही त्या ! जहां क्षमा गुण है वहां कुसंप रहही नहीं सकता ! परंतु इस समय तो उलटाही नजर आता है ! जितना संप अपने अंदर चाहिये उतना दृष्टिगोचर नहीं होता ! इसी कारण धर्मान्नतिके बढे २ कार्य वीचमें लटक

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