Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। ४. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय
क्रोधादि कर्मों से होने वाले क्रोधादि विकारी भाव आत्मा है अर्थात् जहाँ राग, द्वेष आदि भावों से युक्त जीव को जीव कहा जाता है वहाँ इस नय की उपपत्ति होती है । रागादि भाव जीव में होते हैं, किन्तु कर्मजन्य हैं, शुद्ध जीव में ये नहीं होते हैं। ५. उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय
जहाँ उत्पाद, व्यय के साथ मिली हुई सत्ता को ग्रहण करके एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप कहा जाता है वहाँ उत्पाद, व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होता है। द्रव्यार्थिक नय में अशुद्धता के दो कारण हैं - (i) जब जीव को कर्मजन्य अशुद्ध भावों वाला जीव कहा जाता है तब वह अशुद्धता का ग्राहक होने से अशुद्ध कहा जाता है और जब अखण्ड वस्तु में भेद बुद्धि करता है, तो अशुद्ध कहा जाता है, क्योंकि द्रव्यार्थिक दृष्टि में अभेद शुद्ध है, सामान्य शुद्ध है, भेद अशुद्ध है/विशेष अशुद्ध है। यही पर्यायार्थिक नय की दृष्टि में भेद शुद्ध है और अभेद अशुद्ध है। ६. भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय
जो नय द्रव्य में गुण-गुणी आदि का भेद करके उनके साथ सम्बन्ध कराता है, वह भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। जैसे- दर्शन-ज्ञानादि गुण आत्मा के हैं। द्रव्य और गुण अभिन्न हैं, उनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। जैसे घड़े में जल रहता है वैसे द्रव्य में गुण नहीं रहते हैं। घड़े और जल के प्रदेश अलग-अलग हैं, किन्तु गुण और गुणी द्रव्य के प्रदेश अलग-अलग नहीं हैं। द्रव्य गुणमय और गुण द्रव्यमय है। न गुण से भिन्न द्रव्य का अस्तित्व है और न द्रव्य से भिन्न गण का अस्तित्व है। अत: द्रव्य गुणों का एक अखण्ड पिण्ड है। ७. अन्वय द्रव्यार्थिक नय
यह नय समस्त स्वभावों में जो यह द्रव्य है, उसमें अन्वय रूप से द्रव्य की स्थापना करता है। द्रव्य गुण-पर्याय स्वभाव है और गुण, पर्याय और स्वभाव में 'यह द्रव्य है, ऐसा बोध कराने वाला यह नय है। 'अन्वय' का अर्थ है 'यह यह है, यह यह है'। इस प्रकार की अनुस्यूत प्रवृत्ति रूप जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक है। जैसे-गुणपर्याय स्वभाव वाला द्रव्य है।
‘पज्जय-विजदं दव्वं, दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि । दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परुविंति ।। पंचास्तिकाय १२।। न द्रव्य, पर्याय से रहित होता है और न पर्याय ही द्रव्य से रहित है, दोनों का
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