Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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सप्तभंगी बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में
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है। इस तरह अवक्तव्य का मूलार्थ है युगपत् कथन में भाषा की असमर्थता, अशक्यता, निरीहता व विवशता को स्पष्ट करना। ५. स्यादस्ति अवक्तव्यम्
यह सप्तभंगी का पांचवां भंग है। इसमें प्रथम और चतुर्थ भंग का संयोग है। इसका अर्थ है 'सापेक्षतः........ है और अवक्तव्य है।' यह भंग वस्तु के भावात्मक स्वरूप के साथ ही उसके युगपत् भाव का भी प्रतिपादन करता है, अर्थात् कथन के प्रथम समय में वस्तु स्वरूप की अस्तिरूपता एवं द्वितीय समय में उसके युगपत् भाव का विवेचन करना पाँचवे भंग का लक्ष्य है। ६. स्यानास्ति च अवक्तव्यम्
यह सप्तभंगी का छठा भंग है। इसमें द्वितीय एवं चतुर्थ भंग का संयोग है। इसमें वस्तुतत्त्व के नास्तित्व पक्ष की प्रधानता के साथ उसके समग्र स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है। जैसे- "स्यानास्ति च अवक्तव्यश्च अश्वः' अर्थात् सापेक्षतः अश्व नास्ति रूप है और अवक्तव्य है। तात्पर्य यह है कि अश्व में अश्वेतर धर्मों का अभाव है पर उसका युगपत् स्वरूप अवक्तव्य है। मात्र इसी भाव की अभिव्यंजना यह भंग करता है। ७. स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्यश्च
यह सप्तभंगी का सातवां और अन्तिम भंग है। इसमें तृतीय और चतुर्थ भंग का संयोग है। इस भंग के द्वारा वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व और उभय रूप अवक्तव्य पक्षों का कथन एक साथ क्रमशःकिया जाता है। यह भंग यह सूचित करता है कि जो वस्तु स्वद्रव्य की दृष्टि से अस्तित्व धर्म युक्त है। वही स्व-पर दोनों द्रव्यों की दृष्टि से अवक्तव्यत्वधर्म युक्त है। यही बात इस प्रकार से भी कही जा सकती है कि जो वस्तु किसी द्रव्यार्थ विशेष की अपेक्षा से "अस्तित्व' धर्म युक्त है और किसी पर्याय विशेष की अपेक्षा से “नास्तित्व' धर्म युक्त है। वही द्रव्य पर्याय युगपत् की विवक्षा से अवक्तव्य भी है। इस प्रकार यह भंग अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्यत्व के क्रमरूपेण वाचकत्व का सूचक है।
इस प्रकार सप्तभंगी के सातों भंग एक दूसरे से भिन्न तथा नवीन तथ्यों का प्रकाशन करने वाले हैं ऐसा उपर्युक्त विवेचन से प्रति फलित होता है। इस आधार पर यह निश्चित किया जा सकता है कि सप्तभंगी के सातों भंगों का अपना अलग-अलग मूल्य है; और उस मूल्यता के कारण इसे सप्तमूल्यात्मक कहा जा सकता है। इस तरह सप्तभंगी तत्त्वविदों के लिए एक रोचक विषय है। इसका अध्ययन आधुनिक तर्कशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में किया जा सकता है। किन्तु सर्वप्रथम इसका तार्किक प्रारूप द्विमूल्यात्मक नहीं हैं क्योंकि इसका विवेचन द्विमूल्यीय तर्कशास्त्र के आधार पर करना असंभव है।
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