Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 190
________________ १७८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार अन्याय और अशुभ कर्मों ये वह सदा दूर रहा करता था । दोनहीनो का वह वन्धु था और अमहायो का सहायक । राजा अजितशत्रु अपने प्रधानामात्य के इन सद्गुणो ने वडा प्रभावित था और उसका आदर भी बहुत किया करता था । वर्षों तक सुबुद्धि अपने शुभ आचरण और लोकहित के कार्यों द्वारा यश प्राप्त करता रहा । लेकिन रूपश्री ' किसी का भी समय सदा एकसा नही रहता। समय के फेर का शिकार सुवुद्धि को भी एक दिन होना ही पड़ा। हुआ यो रूपश्री । कि न जाने क्यो सुवृद्धि के प्रति राजा की धारणा परिवर्तित हो गयी । अव वह प्रधान अमात्य पर रुष्ट हो गया था । जव राजा ही रूठ जाय तो उसके राज्य में किमी की कुशल कैसे रह सकती है ? और राजा अजितशत्रु तो इतना कुपित । था कि उसने सुबुद्धि को मृत्युदण्ड ही सुना दिया। उसे शूली पर चढाने की आज्ञा दे दी गयी । अव तो सुबुद्धि अपने प्राणो की रक्षा के लिए चिन्तित हो गया। उसने निश्चय किया कि अब वह प्राण गँवाने के स्थान पर लुक-छिपकर जीवन व्यतीत करेगा। इस विचार को क्रियान्वित करने के लिए वह वनो मे भाग गया। ३-४ दिन में ही उसे जीवन के कठोर यथार्थ का पता चल गया । वह वन की कठिनाइयो से व्याकुल हो गया, उसे भूख बेहद सताने लगी । निदान, एक आधी रात को वह नगर मे लौट आया और अपने ही घर पहुंचा। वह धीरे-धीरे द्वार खटखटाने लगा। वह भयभीत था कि कही पड़ोसियों की नजर उस पर न पड जाय । यहां यह उल्लेख करना भी आवश्यक है रूपश्री । कि उसने अपने मित्रो-सहचरो को तीन कोटियो में वर्गीकृत कर रखा था

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