Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 217
________________ उपसहार | २०५ आपकी कन्याएँ पूर्वजन्म के अति शुभ सस्कारो से सम्पन्न हैं । इसी कारण उनकी आत्माएँ शीघ्र जाग उठी है । सासारिक जीवन की विडम्बना से हम अब मुक्त हो जाना चाहते हैं । विरक्ति का हमारा आगामी चरण आप सबकी अनुमति की प्रतीक्षा कर रहा है । इसी प्रातः काल मे हम नौ ही प्राणी साधक - जीवन अंगीकार कर लेना चाहते है | आप हमारे हितैषी है और हमे आशा है कि आप सहर्ष हमे इस हेतु स्वीकृति प्रदान कर देंगे । पूर्ण निस्तब्धता फिर से उस कक्ष मे जमने लगी । किसी को किसी दूसरे के मनोभावो को ताडने का भी अवकाश नही था । सभी अन्तर्मुखी होकर अपने-अपने विचारो मे ही खोये हुए थे । इस वातावरण की जम्बूकुमार पर अद्भुत प्रतिक्रिया हुई । उन्होने अनुभव किया कि अब भी पिता का मन मोह और अज्ञान से ग्रस्त है । वे हमारे इस निर्णय की महत्ता को स्वीकार नही कर पा रहे हैं । वे अपने पुत्र के भावी वियोग की असह्यता से आक्रान्त हैं । जब तक यह व्यामोह नही छूटेगा, वे दीक्षार्थ अनुमति देने में असमर्थ रहेगे । क्षण-क्षण बीतता रहा, पिता का मोह सघन होता रहा और पुत्र का लक्ष्य दृढ होता रहा कि सर्वप्रथम माता-पिता को मोह - निद्रा से मुक्त किया जाय । निदान जम्बूकुमार ने ही पुन कथन आरम्भ किया । उन्होने अपने अभिभावको को सम्बोधित किया और कहने लगे कि यह ससार तो समुद्र से समान है- विशाल और अतल गहरा । इसमे जीवन रूपी जल है जो अपार दुखो के 'लवण से खारा हो गया है । समुद्र के क्षारीय जल मे रचमात्र भी माधुर्य

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