Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ अलोकाकाश के बीच लोकाकाश है, जो अकृत्रिम, अनादि, अनिधन, स्वभाव से निर्मित तथा छह द्रव्यों से व्याप्त है। सभी द्रव्यों की यात्राभूमि तथा जीवों की लीलाभूमि यह लोक (ब्रह्माण्ड) है। इसके बाहर किसी द्रव्य का गमनागमन नहीं है। ___ लोक की परिभाषा स्थानांग सूत्र में दी गई है कि जो जीव एवं अजीव पदार्थ का आधार है, वही लोक है। विश्व के पर्यायवाची शब्दों का विवेचन है59-विश्व, ब्रह्माण्ड, सृष्टि, जगत्, संसार, युनिवर्स, विश्व जगत् चराचर, त्रिलोक, त्रिभुवन ब्रह्मगोल भूतदृष्टि, ब्रह्मसृष्टि, प्रत्यक्षसृष्टि, जगती आदि लोक के अभिवचन है। लोक पुरुषाकार है, जो पुरुष की तरह कवायद की आराम की मुद्रा में खड़ा है। अलोक महाशून्य है। यह लोक शाश्वत है। ___ अन्य दार्शनिकों एवं पुराणकारों ने लोक की रचना का वर्णन अण्डा (ब्रह्म खण्ड) या कमल (लोक पद्म) के रूप में किया है और उसे सादि, सान्त एवं अशाश्वत माना है और इसी आधार पर सृष्टि प्रलय एवं महाप्रलय की कल्पना आधारित है। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा उसका सर्जन करते हैं, मध्य में विष्णु पालन करते हैं और अंत में शिव संहार करते हैं। भगवती सूत्र में उसे सुप्रतिष्ठक शरयंत्र के समान निर्दिष्ट किया है। जैन पुराणों में कमर पर हाथ रखे हुए तथा पैर फैलाकर खड़े हुए पुरुष के समान लोक आकार का वर्णन मिलता है। लोक स्थिति जैन साहित्य में लोक स्थिति अनन्त आकाश के मध्य अर्थात् केन्द्र में मानी गई है। अनन्त आकाश62 में केवल एक लोक है। इसके विपरीत पुराण साहित्य में अनन्त ब्रह्माण्डों की कल्पना मिलती है। स्थानांग सूत्र में लोक स्थिति का वर्णन आता है, जिसके अनुसार लोकस्थिति चार प्रकार की है वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है। उदधि वायु पर प्रतिष्ठित है। पृथ्वी उदधि पर प्रतिष्ठित है। त्रस एवं स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित है। लोक का आधार आकाश है। आकाश स्व-प्रतिष्ठित है। भगवतीसूत्र में भी आकाश के सर्वव्यापकत्व का विवेचन देते हुए कहा है कि आकाश में वायु प्रतिष्ठित है। वायु में समुद्र तथा समुद्र में पृथ्वी प्रतिष्ठित है और पृथ्वी पर सर्व स्थावर जंगम जीव हैं। यह लोक शाश्वत अनादि निधन है। किसी ने इसको आधार नहीं दिया। आश्रय और आधार के बिना आकाश में निरालम्ब रहा हुआ है। न किसी ने इसको बनाया है, फिर भी अपने अस्तित्व में स्वयं सिद्ध है। लोकप्रकाश में भी यही कहा है। 133 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org