Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ गौतमीयन्याय नैयायिक दर्शन में प्राचीन काल में होने वाले वात्स्यायन, उदयनाचार्य आदि प्राचीन नैयायिक के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनके उत्तरकालवर्ती गणेश उपाध्याय, वर्धमान उपाध्याय, रघुकाय शिरोमणि आदि नव्य न्याय के रूप में प्रसिद्ध हैं। बौद्धदर्शन में दिङ्नाग, अर्चट, ज्ञानश्रीमित्र, धर्मकीर्ति आदि प्राचीन बौद्ध न्याय के विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हैं। मोक्षाकर गुप्त आदि बौद्ध न्याय के पुरोगामी कह सकते हैं। जैन दर्शन में सिद्धसेन, दिवाकरसूरि, मल्लवादिसूरि, शांतिसूरि, वादिदेवसूरि आदि जैनाचार्यों को प्राचीन जैन न्याय के प्रस्थापक-प्रवाहक कह सकते हैं। उसी श्रेष्ठता में उपाध्याय यशोविजय गणिवर्य नव्य जैन न्याय का पुरुषकर्ता के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस तथ्य के आधार पर जैन तर्क परम्परा की परिभाषा इस प्रकार होगी __ 'प्रमाणनयैरधिगमो न्याय' |10 ' प्रमाण और नय के द्वारा अर्थ का अधिगम करना न्याय है। उद्योतकार ने प्रमाण, व्यापार के द्वारा किये जाने वाले अधिगम को न्याय माना है। जैन परम्परा में न्याय की अपेक्षा युक्ति शब्द अधिक प्रचलित रहा है। - ' यति-वृषभ का अभिमत है कि जो व्यक्ति प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ निरीक्षण नहीं करता, उसे युक्त अयुक्त और अयुक्त प्रयुक्त प्रतीत होता है। प्रमाण का अर्थ है-यथार्थज्ञान। नय का अर्थ है-वस्तु के एक धर्म को जानने वाला ज्ञान का अभिप्राय। निक्षेप का अर्थ है-प्रस्तुत अर्थ को जानने का उपाय। अर्थात् प्रमाण नय और निक्षेप की युक्ति - के द्वारा होने वाला अर्थ का अधिगम न्याय है। यतिवृषभ के शब्दों में यह न्याय आचार्य परम्परा से . . 'चला आ रहा है। : 'आचार्य समन्तभद्र' के अभिमत में जैन न्याय का प्रतिनिधि शब्द स्यात् है। वह सर्वथा विधि और सर्वथा निषेध को स्वीकार नहीं करता। उक्त परम्परा के अनुसार उपाध्याय यशोविजय ने न्यायालोक में न्याय की परिभाषा यह की है-प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा किये जाने वाला वस्तु का सापेक्ष अधिगम न्याय है। प्रमाण लक्षण आचार्य हेमचन्द्र प्रमाण के स्वरूप का विवेचन करने के अभिप्राय से प्रथम सूत्र में कहते हैं अथप्रमाणमीमांसा। यहां से प्रमाण की मीमांसा प्रारम्भ होती है। भारतीय शास्त्र-रचना में यह प्रणाली बहुत पहले से चली आ रही है कि सूत्र-रचना में पहला सूत्र ऐसा बनाया जाये, जिससे ग्रन्थ का विषय सूचित हो और जिससे ग्रन्थ का नामकरण भी आ जाये, जैसे-पातंजल योगशास्त्र का प्रथम सूत्र है-अर्थ योगानुशासनम्। विद्यानंद की प्रमाणपरीक्षा का प्रथम सूत्र है-अथ प्रमाणपरीक्षा। आचार्य हेमचन्द्र ने भी उसी प्रणाली का अनुसरण करके यह सूत्र रचा है। इसमें जो व्यक्ति प्रमाणशास्त्र में रुचि रखता है वह उसे पढ़ने के लिए प्रवृत्त हो सकता है। 225 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org