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[७६. करनेके लिये पूछने लगा, परन्तु उसके सर्व प्रश्नोंके 'उत्तरमें प्रभु मौनमें ही रहे तब वह अत्यन्त क्रोधित ले गया। पमुं. तो अपने स्वरूपमें तल्लीन थे अतएव उनके आसपास जो कुछ होता था उस वातका उन्हें जरा भी भान नहीं था । यदि उनके योगका वर्तन बाह्य मावमें होता तो यह गैरसमझ खड़ा होनेके कारणसे बचें होते और इस खराब प्रसंगसे निकल जाते, परन्तु प्रमु स्वयम् अपने इस अज्ञात वर्तनसे गढ़रियेके मनमें क्रोध उपस्थित करनेमें निमित्तरूप नहीं हुए होते; परन्तु प्रसंगपर इस गढ़रियेके द्वारा कर्मफलदात्री सत्ताको अपना बदला लेना है उसका काल व्यतीत होचुका है कि जो दुःखद कारणोंको प्रमुने पहिले गतिमें रखे थे। प्रभुको इस समय प्राप्त होनेवाले कष्टका कारण उन्होंने अपने पूर्व वासुदेवके मॅवमें इसतरहं रचा था कि वे एकदफा निद्रा होनेकी तैयारीमें थे इसीलिये वे अपनी शय्यापर जागृतावस्थामें सोते थे उस समय उनका शैय्योपालंक इस गढ़रियेका शरीरस्य आत्मा था । वासुदेवने अपने शय्यापालकको आज्ञा दी थी " कि अभी जो संगीतवाद्य आदि बज रहा है इन सबको जब मैं निद्रावश हो जाऊँ फौरन बंद करा देना । मात्र मैं जहां तक निद्रावश न होऊ वहाँ तक इनको जारी रखना" गायकोंने अपने संगीत बंद करनेके नित्य समयपर इसको बंद करनेकी आज्ञा मांगी परन्तु शय्यांपालक तो उस समय रागवश हो चुका था अतएव उसने संगीतको शुरू रखनेकी आज्ञा दी। गायक लोग उसकी आज्ञानुसार मुंवह तक गाते बजाते रहे. अन वासुदेवके जगनेकी समय होगया है . उसने