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[१०] उदयकालमें उपरोक्त अनुभवका होना असंभवित नहीं तो अशक्य तो अवश्य है और ऐसे उत्तम अनुभवका उपयोग करके उसमें अपना हित साध लेना यह महावीरप्रभुके चरित्रमेंसे सतत् बहता हुआ एक अति मूल्यवान उपदेश है। महावीरके कदमपर चलनेका दावा रखनेवाले प्रत्येक मनुप्यको उनके जीवनमेंसे उद्भक्ति इस महान. शिक्षणको सदाकाल अपने हृदयमें स्थापित करके रखना चाहिये।
यह अखिरी उपसर्ग सहन करनेके पश्चात् प्रभुको केवल्य ज्ञान उत्पन्न हो गया। कल्पसूत्रके अभिप्राय अनुसार वैसाख सुदी दशमके दिन, पीछले पहरमें, विनय मुहूर्तमें, जंभीक नाम गावके बाहिर, उज्जुवालुका नदीके तीरपर, वैयावर्त नामके चैत्यके नजदीक, शालीवृक्षके छायाके नीचे, गोदुए आसनपर बैठकर शुक्लध्यानको लक्षमें लेते हुए प्रभुने उस ज्ञानमें प्रवेश किया जिस ज्ञानमें सर्व प्रकारके ज्ञान समावेश होते हैं अर्थात् सम्पूर्ण केवलज्ञानी होगये।
केवल्य प्राप्त होनेके पश्चात् प्रभुका चरित्र परमात्म कोटिका होगया था वह हमारी मति और कल्पनाके बाहिरी प्रदेशका है। उसके बाद उनकी छदमस्थचर्या बन्द होगई, और अब केवल चर्या' शुरू होती है हम उस विषयमें उतरना नहीं चाहते हैं। मनुष्य मनुष्यके वर्तनमेंसे शिक्षण प्राप्त कर सकता है। ईश्वरके चरित्रका वह अनुसरण नहीं कर सकता और हमारा लिखित उद्देश मात्र अभुके मनुष्य देहधारी जीवनके प्रसङ्गोमेंसे उद्भवित सार उपार्जित करनेका ही है अतएव हम प्रमुके कृतकृत्य होनेके पीछले जीवन, निभागमें प्रवेश नहीं करते हैं। ... . riporo n
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