Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 105
________________ हक नहीं है। परन्तु उल्टा इससे शरीर पर एक प्रकारका उपाधी रूप एक तरहका खिंचान ही मालूम होता है। तो भी उसमें जिस सुखका अनुभव किया जाता है, वह "खाली एक तरहका भान ही है कि हमें ऐसे सुंदर अलंकार, परिवेष्ठित देखकर ‘आसपासके लोग हमे सुखी गिनेगे," अलंकारके अङ्गमें रहने वाली भावनाको वाद कर दी जाय तो शेष मुशकिलसे ही कुछ • रहने पावेगा और यह ऐसा ही है इसलिये अलंकारद्वारा अपनी सुखमय अवस्थाका जाहिरनामा फेरनेवाला ही अपने घरके पोपिदा कोनोमें उन अलंकारोंको एक ओरपर रख देता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि संसारमें प्राप्त अवसर सुख ही है कि “ आसपासका जनमंडल हमें सुखी माने" और वे इसी अभिमानके आश्रित रहते हैं। यदि उनके आसपास उनको सुखींगिननेवाला कोई मनुष्य न हो अथवा अपनी सुखमयताके अभिमानका कुछ भी निमित्त न हो तो उनकी सुख सामग्री तथा उनके पुण्यवलसे जो सामग्री उनको प्राप्त हुइ है उसका मूल्य कुछ नहीं रहता। सुखी होनेके लिये अकेली सुख सामग्री ही नहीं है, परन्तु इसके पहिले जो अपने आपको ऐसी सुखसामग्रीसे सुखी मानते हैं उन मनुप्योके मंडलकी ही संसारमें प्रथम आवश्यक्ता है। जब आसपासके जनमंडल पर हमारे सुखका इतना अधिक आधार है अर्थात् वह हमारे सुखके आत्मा समान है तो फिर "हमारी उपभोग सामग्री पर उनका कुछ भी हक नहीं और हमारे पुण्य संचयसे प्राप्त सुखके हम ही भोगता हैं। ऐसी भावनाओंको माननेवाले हृदय संकोच, दीनता और विषय लालचाके

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