Book Title: Mahavir Ke Upasak
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Muni Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 21
________________ ऐसा विचार कर कामदेव ने अपने घर और व्यापार का समस्त उत्तरदायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंप दिया और स्वयं पौषधशाला में जाकर कायोत्सर्ग (ध्यान) साधना में निश्चिंत होकर लग गया। उसकी व्रत निष्ठा और दृढ़ता की चर्चा देवलोक में भी होने लगी। देवराज इन्द्र ने अपनी देवसभा में कहा कि चम्पापुरी के श्रावक कामदेव को दृढ़ सम्यक्त्व, निष्ठा व धर्म पथ से कोई विचलित नहीं कर सकता। देवराज के इस कथन पर एक मिथ्यादृष्टि देव को विश्वास नहीं हुआ। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि मैं कामदेव को विचलित करके रहूंगा । जिस समय श्रावक कामदेव कायोत्सर्ग साधना में लगा हुआ था, तभी वह देव एक पिशाच का भयंकर रूप बना कर वहां पहुंच गया। उस भयंकर आकृति के पिशाच ने पहले तो कामदेव को अपनी भयंकर आवाज और रूप से डरा कर डिगाने का प्रयास किया । फिर उसे चेतावनी दी कि यदि वह अपने आसन से उठकर ध्यानभंग नहीं करेगा तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएंगे। लेकिन मिथ्यादृष्टि देव के भय व धमकियों का कामदेव पर कुछ भी, कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा। अपनी कुटिल चाल में विफल होने का कारण पिशाच ने कामदेव के अंगों को काटना शुरू किया। अतिशय पीड़ा होने पर भी कामदेव के सामने कुदृष्टि देव को पराजित हो हार माननी पड़ी। थोड़ी देर के लिए वह आत्मग्लानि व पश्चात्ताप से भर उठा। पर थोड़ी देर बाद ही उसने पुनः दूसरे उपाय से कामदेव को विचलित करने का प्रयास शुरू कर दिया। इस बार देव ने हाथी का रूप धारण किया। हाथी कामदेव के सामने खड़ा होकर चिंघाड़ने लगा. फिर चुनौती दी, "कामदेव या तो तू धर्म ध्यान छोड़ दे या फिर मरने के लिए तैयार हो जा। नहीं तो मैं तुझे सूड में लपेट कर पटक-पटक कर मारूँगा।" पर कामदेव तो कामदेवही था-दृढ़ सम्यक्त्व व्रती। वह कुदेव की धमकी के आगे पराजित कैसे हो जाता? कामदेव को विचलित होता न देख क्रोध में भर गया। तब उसने कामदेव को सूंड में लपेट कर आसन से कई बार ऊपर उठाया और पटका, पर जैसे पर्वत तूफानों में भी अचल रहता है, वैसे ही श्रावक कामदेव सम्यक्त्व में अचल रहा । तीसरी बार सर्प बनकर देव ने श्रावक को अनेक प्रकार के त्रास दिए। अन्ततः देव मान गया कि देवराज इन्द्र का कथन सत्य था। अब उसने देव का सुन्दर रूपधारण किया और अधर में खड़े-खड़े बार-बार कामदेव की सराहना की और कहा -'कामदेव ! सचमुच तुम धन्य हो। तुम्हारा दर्शन कर मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ। मैं बार-बार तुम्हारा अभिनंदन करता हूँ।” इस तरह स्तुति करते हुए देव ने आगे कहा - श्रावक श्रेष्ठ। मैंने तुम्हारी दृढ़ता की परीक्षा 20/महावीर के उपासक

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