Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 55
________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४ महाराज छत्रसाल। - ये शुभकर्ण इनके सगोत्र थे ( अनुमानतः ये शुभकर्ण वीरसिंह देवके पुत्र भगवानरावके, जिनको दतियाकी जागीर मिली थी, पुत्र थे)। शुभकर्णने भी छत्रसाल का बड़ा आदर सत्कार किया। ये उनके यहाँ एक महीनेतक रहे; पर उनसे, इनकी रुचिके अनुकूल बात करनेका अवसर न मिला। महीनेके बीतनेपर छत्रसालने शुभकर्णसे बिदा माँगी । उन्होंने रुकनेके लिये अनुरोध किया। वे यह जानते थे कि इनके घरपर आर्थिक दशा अच्छी नहीं है। इसलिये उन्होंने इनको वही परामर्श दिया जो कि उस समयमें एक साधारण हितैषी दे सकता था, अर्थात् उन्होंने इनसे मुगलराजकी सेवा करनेके लिये कहा । अनेक उदाहरणों द्वारा जिनको उस समय प्रायः सब ही लोग जानते थे, उन्होंने मुगल सेवासे जो जो लाभ सम्भव थे उनको बतलाया । इतना ही नहीं, उन्होंने इनके लिये स्वयं औरङ्गजेवको पत्र भेजने की इच्छा प्रकट की। ___ यदि ये बातें इस समयसे कुछ पहिले हुई होती तो यह बहुत ही सम्भव था कि कमसे कम कुछ कालके लिये छत्रसालके चित्तपर इनका प्रभाव पड़ता और वे शुभकर्णके प्रस्तावको स्वीकार कर लेते। हम पहिले ही देख चुके हैं कि एक बार मुगलोकी सेवा करनेकी इच्छा उनके चित्तमें उठी थी और उसके दूर होने का मुख्य कारण यही था कि मुगलदरबारमें इनका उचित सम्मान नहीं किया गया । ऐसी अवस्थामें यदि शुभकर्ण ऐसा कोई सहायक होता तो इनको पुरस्कार और उच्चपद अवश्य मिलता और फिर ये शायद सदैवके लिये मुगलोंके सेवक हो जाते। यह तो भारतका सौभाग्य था जिसने दिल्ली में इनको निःसहाय भेजकर मुगलोके हाथसे इनका तिरस्कार और अपमान कराया। For Private And Personal

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