Book Title: Maharaj Chatrasal
Author(s): Sampurnanand
Publisher: Granth Prakashak Samiti

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Page 117
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०६ महाराज छत्रसाल । हुए । इनमें से चारका ही नाम प्रसिद्ध है और इन चारोंमें भी हिरदेसाह और जगतराज प्रधान थे। शेष पुत्रोंकी क्या गति हुई इसका ठीक ठीक पता नहीं है और यदि लग भी जाय तो उनके जीवनका इतिहास से विशेष संबंध नहीं है । इन पुत्रों में आपस में कैसा भाव था यह भी नहीं कहा जा सकता । परन्तु कई प्रमाणोंसे ऐसा जान पड़ता है कि पूरे पूरे भ्रातृप्रेमका अभाव था । यदि ऐसा न होता तो अपनी वृद्धावस्थामें महाराज छत्रसालको अपने राज्यको टुकड़ों में विभक्त न करना पड़ता और मरहठोको बुन्देल खण्ड में बुलाने की आवश्यकता न होती । जो कुछ हो, पिताके जीवनकाल में उनके विरुद्ध किसी पुत्रने कोई ऐसा कलुषित काम न किया जैसा कि मुगुलवंश में अकबर के पीछे परम्परागत होगया था । हम यह भी नहीं कह सकते कि जिस समय ये युद्धस्थलमें न होते थे उस समयकी इनकी दैनिक कार्यवाही क्या थी । केवल इतना सुना जाता है कि पलंगसे उठनेके पहिले ये प्रतिदिन ईश्वरकी एक पद्यस्तुति बनाते थे, जिनमें से बहुतसी अब भी मिलती हैं, और शास्त्रोक्त नित्यकृत्य में कभी बाधा न आने देते थे । इस सम्बन्धमें इनके चरित्रके विषय में भी कुछ कहना आवश्यक है । जहाँतक पता लगता है, इनके चरित्रमें बिषयपरताका लेश भी न था । समस्त संसारी विषयोंके बीचमें रह कर मनुष्य किस प्रकार अपनेको निर्लिप्त रख सकता है इसके वे एक अत्युच्चस उदाहरण थे । निम्न लिखित उपाख्यानसे इनकी असाधारण जितेन्द्रियताका परिचय मिलता है । For Private And Personal

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