Book Title: Mahajan Sangh Ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ खासा तांता-सा लग गया जिनकी कि गिनती लगानी कठिन हो गई। ___अस्तु ! इसके बाद देवी चक्रेश्वरी ऋद्धि सिद्धि पूर्ण वासक्षेप का थाल लेकर सूरिजी की सेवा में समुपस्थित हुई। सूरिजी ने मंत्र और वासक्षेप से उन आचार-पतित क्षत्रियों को शुद्ध कर उन सबको जैन धर्म में दीक्षित किया ( देखो सामने के चित्र में) और वहां पर महावीर का मन्दिर बनवाया, जिसकी प्रतिष्ठा वीरात ७० वर्ष के बाद माघ शुक्ल पंचमी को आचार्य श्री के कर कमलों से हुई थी। उसी लग्न में सूरिजी ने वैक्रय लब्धि से दूसरा रूप बना कर कोरंटपुर में भी महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई थी और वे दोनों मन्दिर आद्यविधि विद्यमान भी हैं। प्रतिष्ठा के समय उन नये जैनियों के घरों की संख्या लगाई नगरी में राजा प्रजा अर्थात् नगरी के तमाम लोगों को जैन बना दिये जिसमें भंगी ढेढ़ चंडालादि भी शामिल थे। यही कारण है कि ओसवालों में मह'तर, टेढिया, चण्डालआदि गौत्र शामिल हैं इत्यादि । पर यह कहने वालों की इतिहास ज्ञान की अनभिज्ञता ही है क्योंकि उस समय की परिस्थिति का थोड़ा भी ज्ञान होता तो यह कभी नहीं कहते । इस विषय में मेरी लिखी ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय' नामक पुस्तक पढ़नी चाहिये । उसमें यह प्रमाणित किया गया है कि ओसवाल जाति विशुद्ध क्षत्रियवंश से उत्पन्न हुई है । हां पीछे से कई वैश्य ब्राह्मणादि भी इसमें शामिल हुए हैं पर शूद्र इसमें शामिल नहीं हैं । यदि ओसवाक ज्ञाति में शूद्र शामिल होते तो उस समय के जैनों के कट्टर शत्रु अन्य लोग ओसवालों को इतना मान कभी नहीं देते जो कि उन्होंने दिया था । अतः ओसवाल कौम पवित्र क्षत्रिय वर्ण से ही बनी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32