Book Title: Mahajan Sangh Ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 15
________________ (२) हम जिस प्रेम सूत्र में तुम सबको आबद्ध करते हैं उसको तुम सब आपस में लड़-झगड़ कर संघ में फूट और कुसंयम, का दावानल फैला देना या कुत्तों की भांति लड़ते रहना। (३) हम झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचार बढ़ाना विश्वासघात, धोखाबाजी आदि कुकृत्यों के छोड़ने की शपथ दिलाते हैं और प्रतिज्ञा कराते हैं कि तुम इन्हें कभी मत करना, परन्तु तुम आज इन्हीं कार्यों को दिन धौले करते हो। (४) "मैं स्वधर्मी भाइयों की वात्सलता और निर्बलों की सहायता करूंगा" इसकी पूर्वाचार्यों ने प्रतिज्ञा करवाई थी, किन्तु आज तुम गरीबों के गले घोंट उनको दिन-दहाड़े दुःखी करते हो। इत्यादि महाजनों की दुर्नीति से ही महाजनों का पतन हुश्रा है । वरना आचार्यों का शुभ उद्देश्य तो महाजन लोगों को इस भव और परभव में सुखी बनाने का ही था और इस उज्ज्वल उद्देश्य को लक्ष्य में रख कर उन पतित क्षत्रियों का "महाजन संघ" बनाया था और बहुत समय तक उनका उद्देश्य सफल भी रहा । इसी प्रकार पिछले आचार्यों ने महाजन संघ का पोषण एवं वृद्धि की थी। खैर ! आचार्य रत्नप्रभसूरि ने केवल "महाजन संघ" ही बनाया था तो फिर उपकेशवंश, मोसवंश, श्रोसवाल और - इसमें भी हजारों गोत्र एवं जातियाँ कैसे, कब और किसने बनाई? हाँ, इसका भी कारण अवश्य है और वह यह है कि प्रारम्भ में तो आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीरात् ७०वें वर्ष में ‘उपकेशपुर में एक महाजन संघ की ही स्थापना की थी और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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