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२०० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास आहवमल्ल - परिंदहु मणसाणंदहु
मंतत्तण पइभायउ ॥८॥ पिया तस्स सल्लक्खणा लक्खणडढा
गुरूणं पए भत्ति काउँ वियडढा । स - भत्तार - पायार - विंदाणगामी ।
__घरारंभ - वाचार - संपुण्ण - कामी। सुहायार चारित्त - चीरंक - जुत्ता
सुचेयाण गंधोदएणं पवित्ता ।
के पुण्य के शिष्ट थे। उनके पुत्र 'अमृतपाल' हुए जिनका भालतल अवनिपट्ट* ( जागीरदारीके पट्ट) से विभूषित हुआ। वे नरपतिके समाजरूपी सरोवर के राजहंस थे और उन्होंने महामन्त्रित्व द्वारा चौहान वंशको उज्ज्वल किया था । वे 'अभयपाल' राजाके राज्यमें
* वणिपट्टकिय भालयल रूट यहाँ वणि शब्द प्राकृत अपभ्रश अवनि शब्द का है। अवनि पृथ्वी का नाम है और अव उपसर्गपूर्वक णील प्रापणे धातु से बना है और अव उपसर्ग के अक र का लोप हो गया है तब वनि रहा और वनि प्राकृत भाषा में वणि हुआ नकार को णकार होकर और पट्टाङ्कित का पट्टकिय भया भालतल का भालयल भया रूउ रूपका भया अकार का लोप ( वष्टिभागुरिरल्लोपमवाप्यो रुपसर्गयोः ) इस वार्तिक व्याकरण से भया। वणिक्पट्ट से अंकित यह अर्थ भास्कर ने अशुद्ध लिखा है