Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 25
________________ ग्रन्थकार और ग्रन्थ गये हैं । एक ही ग्रन्थ में प्राकृत के विविध रूपों एवं संस्कृत, अपभ्रंश, पैशाची और देशी भाषाओं के शब्दों का बहुविध प्रयोग उद्योतनसूरि की भाषागत सजगता का प्रतीक है । धार्मिक व्याख्याता के रूप में उद्योतनसूरि को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । कुडुंगद्वीप, जुगसमिला दृष्टान्त, प्रियंकर एवं सुन्दरी की कथा, रन्दुर आदि दृष्टान्त धार्मिक वर्णनों में जान डाल देते हैं । धर्मकथा होते हुए भी कुव० की साहित्यिकता बाधित नहीं हुई है । उद्योतनसूरि की विद्वत्ता अगाध थी । विभिन्न दर्शनों का उन्हें ज्ञान था । अश्वशास्त्र, राशिफल, लग्नशास्त्र, खन्यवाद, समुद्रशास्त्र, धातुवाद आदि अनेक विद्याओं के वे ज्ञाता एवं अनेक कलाओं के मर्मज्ञ थे । एक धार्मिक सन्त होते हुए लौकिक कलाओं में मर्मज्ञता उनके गहन अध्ययन और मनन की ही द्योतक है | उद्योतनसूरि के अगाध पाण्डित्य का परिचय डा० ए० एन० उपाध्ये ने निम्न शब्दों में दिया है "Uddyotana is primarily a religious moralist, out to teach lessons in good behaviour. He is endowed with deep learning, wide experience of men and matters, mastery over catching expression and entertaining style and earnestness of purpose. As such, he deserves to be ranked, as the author of the Kuvalayamālā, with the great classical writers of our country. ... Uddyotana is deep in his learning, cosmopolitan in outlook and broad based in his information. His exposition of Jaina dogmatics and religious doctrines shows his thorough study of Jaina scriptures. ” – Kuv. Int. P. 111, 112. उद्योतनसूरि की साहित्यिक प्रतिभा एवं अपने समय की सांस्कृतिक चेतना के प्रति उनकी सूक्ष्म दृष्टि के सम्बन्ध में यहाँ कुछ अलग से कहना ठीक नहीं लगता । प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रत्येक अध्याय में उनके व्यक्तित्त्व के विभिन्न आयाम उद्घाटित हुए हैं । ग्रन्थकार की उपलब्ध एकमात्र यह रचना उनकी बहुश्रुतता को पूर्णरूपेण उजागर करती है । कुवलयमालाकहा का समय एवं रचना -स्थल कुवलयमालाकहा की रचना का समय सुनिश्चित है । ग्रन्थान्त प्रशस्ति में उद्योतनसूरि ने कहा है सग काले वोली वरिसाण सएहिं सत्तहिँ गएहिँ । एग-दिणेणेहिं रइया अवरह-वेलाए ।। २८३.६

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