Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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वस्त्रों के प्रकार
और धोती प्रमुख पहिनावा रहा है । इस पहिनावे को कहा जाता था ।' पंतजलि के समय साड़ी या धोती को जिसका दाम एक कर्षापण था । बौद्धसाहित्य में मजबूत साक तथा रानियों की साड़ियों को राहसाटक कहा जाता था । गुप्तयुग की कला में साड़ी एवं धोती पहिने हुए अनेक चित्र प्राप्त हुए हैं । "
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हंसगर्भ - कुमार कुवलयचन्द्र गुरुकुल में विद्याग्रहण कर वापस राजमहल में लौटता है । तब वह स्नानकर धोत-धवल - हंसगब्भ वस्त्र धारण करता है (२१. १७) । हंसगर्भ का अर्थ यहाँ हंस की आकृति से चित्रित कोई वस्त्र है । सम्भवतः बुनाई के समय ही उस वस्त्र में हंस की आकृति खचित हो गयी होगी इसलिए उसे हंसगर्भ कहा जाता रहा होगा । अन्यत्र भी देवलोक के प्रसंगों में हंसगर्भ वस्त्र का उल्लेख उद्द्योतन ने किया है । हंसगर्भ अत्यन्त मुलायम वस्त्र होता था, जिसके शयनासन भी बनते रहे होंगे । हंसगर्भ नामक मोती भी होता था ।
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शाटकयुगल अथवा युगल साटक कहा जाता था, साड़ियों को बलित्थम
प्राचीन भारतीय साहित्य में हंस की आकृति से युक्त वस्त्रों के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । आचारांग (२.१५, २०) के अनुसार महावीर को शक्र द्वारा पहनाये हंस दुकूल में हंस के कई अलंकार वने थे । अंतगडदसाओ ( पृ० ४६ ) में राजकुमार गौतम को हंस लक्षण दुकूल पहने वताया गया है । कालिदास ने भी हंसचिह्नित वस्त्रों का उल्लेख किया है ।" गुप्तयुग में किनारों पर हंस - मिथुन लिखे हुए वस्त्रों के जोड़े - पहिनने का आम रिवाज था । हंसदुकूल गुप्तयुग वस्त्र-निर्माण कला का एक उत्कृष्ट नमूना था । " बाण ने गोरोचना से हंसमिथुन लिखे गये दुकूलों का उल्लेख किया है । कला में भी हंसखचित वस्त्रों का अंकन हुआ है । अजंता के भित्तिचित्रों में लेण नं० १ के भित्तिचित्र में एक गायक, जो कंचुक पहिने है उसकी धारियों के बीच में बृषभ और हंसों की अलंकारित आकृतियाँ बनी हुई है ।" इससे ज्ञात होता है कि हंसखचित वस्त्रों की पहिनने की प्राचीन परम्परा का निर्वाह वीं सदी में भी होता था ।
वस्त्रों के उपर्युक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि उद्योतन के समय में सूती, रेशमी एवं ऊनी सभी प्रकार के वस्त्र उपयोग में आते थे । शरीर के ऊपरी
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१. अ० पा० भा०, पृ० १३४.
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शतेनक्रीतं शत्यं शाटक शतम्, अष्टाध्यायी ५१.२१ सूत्र पर भाष्य ।
जातक (३२४) ३, पृ० ५५.
जातक (४३१) ३, पृ० २९६.
मो - प्रा० भा० वे०, पृ० १८५.८६ द्रष्टव्य ।
हंस - गब्भ-मउए देवंग समोत्थयम्मि सयणम्मि, कुव० ४२.३२. हंसचिह्न दुकूलयान, -- रघुवंश १७.२५; कुमारसम्भव में भी ।
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मो०- प्रा० भा० वे०, पृ० १४७.
९. गोरोचनालिखित हंसमिथुनसनाथपर्यन्ते दुकूले वसानम्, कादम्बरी, पृ० १७.
१०. याजदानी, अजंता, भाग १, प्लोट १० ए ।