Book Title: Kalpasutra
Author(s): Dipak Jyoti Jain Sangh
Publisher: Dipak Jyoti Jain Sangh

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कल्पसूत्र हिन्दी प्रथम व्याख्यान अनुवाद ||3|| में होने का संभव है तथा खाद्यलोभ, लघुता और निन्दा होने का संभव होने के कारण राजपिण्ड का निषेध किया है । बाईस है तीर्थकरों के साधु सरल और प्राज्ञ होते हैं इसलिए उनको उपरोक्त दोष का अभाव होने से उन्हें राजपिण्ड कल्पता है । यह चौथा राजपिण्ड आचार है । 5 कृतिकर्म - कृतिकर्म-वन्दना, वह दो प्रकार की है । अभ्युत्थान और द्वादशावर्त्त । वन्दना सब तीर्थकरों के तीर्थ में साधुओं को परस्पर दीक्षा पर्याय से करनी चाहिये । साध्वी यदि चिरकाल की दीक्षित हो तथापि उसके लिए नवीन दीक्षित साध वन्दनीय है, क्योंकि धर्म में पुरुष की प्रधानता है । यह पांचवां कृतिकर्म आचार है। 6 व्रतकल्प - व्रत-महाव्रत उनमें से बाईस तीर्थकरों के साघुओं को चार होते हैं, क्योंकि वे यह समझते हैं कि अपरिग्रहीत स्त्री के साथ भोग होना असंभव है, इसलिए स्त्री भी परिग्रह ही है, अर्थात् परिग्रह का परित्याग करने से स्त्री का भी परित्याग हो जाता है। पहले AM और अन्तिम तीर्थकरों के साधुओं को तो ऐसा ज्ञान नहीं होता । इसी कारण उनके पांच महाव्रत है यह छट्ठा व्रत आचार है। 7 ज्येष्ठकल्प - ज्येष्ठ-बडे का कल्प । अर्थात् बडे छोटे का व्यवहार । उस में पहले और अन्तिम तीर्थंकरों के साधुओं For Private and Personal Use Only

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