Book Title: Kalpasutra
Author(s): Dipak Jyoti Jain Sangh
Publisher: Dipak Jyoti Jain Sangh

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir % मासकी शुक्ल पंचमी को और कालकसूरि के बाद शुक्ल चतुर्थी को ही होता है । समस्ततया निवास रूप जो पर्युषणा कल्प है वह दो प्रकार का है । सालंबन और निरालंबन । उसमें जो निरालंबन कारण के अभाववाला पर्युषणा कल्प है उसके जघन्य और उत्कृष्ट ऐसे दो भेद हैं । उसमें जघन्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमण से लेकर कार्तिक चातुर्मास के प्रतिक्रमण तक सित्तर दिन के परिमाणवाला है । उत्कृष्ट पर्युषणाकाल चार मास का माना जाता है । मतलब ॐ पहले जमाने में ऐसा रिवाज था कि जहां साधुओं को चातुर्मास करना होता वहां सिर्फ पांच दिन ठहरते और जब पांच दिन पूरे हो जाते तो फिर मकान मालिक से और पांच दिन की आज्ञा लेकर रहते । इस तरह से क्षेत्र की अनुकूलता देखकर अगर पचास दिन वहां पूरे हो जाते तो पिछले सित्तर दिन वहां पर ही रहकर चातुर्मास पूर्ण करते, मगर आज कल यह प्रथा नहीं हैं । आज कल तो चार मास की ही आज्ञा लेकर रहा जाता है । यह दो प्रकार का निरालंबन-पर्युषणा काल स्थविरकल्पियों का है । जिनकल्पियों के लिए तो एक निरालंबन चातुर्मासिक की कल्प है, जिस क्षेत्र में मासकल्प न किया हो उसी क्षेत्र में चातुर्मास करने से और चातुर्मास किये वाद मासकल्प करने से 6 मास का कल्प होता है वह भी स्थविर कल्पियों के लिए ही उचित है । यह पर्युषणा कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों के तीर्थ में नियत है और शेष बाईस तीर्थकरों के तीर्थ में अनियत है, क्योंकि उनके साधु तो दोष के न होने पर एक ही स्थान में देश ऊणा कुछ कम पूर्वकोटि तक रहते हैं और यदि दोष मालूम दे तो एक मास भी नहीं रहते । इसी प्रकार महाविदेह क्षेत्र में भी % For Private and Personal Use Only

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