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Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements धक्के देकर उसे बाहर निकाल दिया और जाकर हेडमास्टर से उसकी शिकायत कर दी, पर हेडमास्टर ने उनके साथ न्याय नहीं किया। अतः वे स्कूल छोड़कर अपने गांव सरसावा में वापिस आ गये और स्वयं स्वाध्याय कर-कर के अपना ज्ञान विकसित करने लगे। बालक जुगल किशोर दस वर्ष की आयु में ही श्मशान में जाकर ध्यान लगाना सीखने लगे, वे बड़े निर्भीक ओर दृढ़ प्रतिज्ञ थे ।
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सन् 1899 में 22 वर्षीय तरुण जुगलकिशोर ने जैनधर्म के प्रचारक का कार्य प्रारंभ किया, पर स्वाभिमानी युवक जुगलकिशोर को यह सब अच्छा न लगा साथ ही समाज का व्यवहार भी उचित नहीं था । अतः उन्होंने सन् 1902 में मुख्तारगीरी ( वकालत) की परीक्षा पास की और सहारनपुर में अपनी वकालत की प्रेक्टिस शुरु कर दी। सन् 1905 में वे देवबंद में (सहारनपुर की प्रसिद्ध तहसील तथा दारुल उलूम के लिए प्रसिद्ध) आकर अपनी वकालत करने लगे । आपकी गणना प्रतिभाशाली वकीलों में होने लगी ओर आमदनी भी अच्छी होती थी। इनकी दो पुत्रियाँ पैदा हुई थीं, पहली सन्मति, जो आठ वर्ष की होकर कराल काल के गाल में चली गई थी। दूसरी विद्यावती थी जो तब तीन मास की थी जब उसकी मां सन् 1918 में दिवंगत हो गई थी, इससे मुख्तार सा. को बड़ा धक्का लगा और वे साहित्य सेवा की ओर उन्मुख हो गये । यद्यपि वे दूसरा विवाह कर सकते थे, पर उन्होंने वह उचित न समझा और ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर साहित्यिक शोध एवं खोज में तल्लीन हो गये। धीरे-धीरे साहित्य साधना में इतने अधिक अनुरक्त हो गए कि मुख्तारगिरी के दांव पेंच ओर धन का प्रलोभन अरुचिकर लगने लगे, फलतः स्व. मुख्तार सा. ने 12 फरवरी सन् 1914 को अपनी फली फूली प्रेक्टिस को सदा के लिए त्याग दिया और साहित्य साधना में तल्लीन हो गये। उस समय यह त्रिमूर्ति (स्व. बाबू सूरजभान जी वकील श्री ज्योतिप्रसाद जी और बा. जुगल किशोर जी) ऐसी क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रचारक थे कि जैन समाज की कुरीतियों और भ्रष्ट धार्मिक विचारों को जमकर उजागर करते थे और लिख-लिखकर समाज को झकझोरते रहते थे। यह त्रिमूर्ति गांधी जी को विचारधारा से प्रभावित थी । अतः उनकी देश के प्रति तीव्र भक्ति जागृत हो गई। स्व. मुख्तार