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[ जिनवरस्य नयचक्रम् "जो लोग समस्त नयों के समूह से शोभित इस भागवत शास्त्र को निश्चय और व्यवहारनय के अविरोध से जानते हैं, वे महापुरुष समस्त अध्यात्म शास्त्रों के हृदय को जानने वाले और शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं।"
समयसार, नियमसार आदि आध्यात्मिक शास्त्रों में निश्चयव्यवहार के अनेक भेद-प्रभेदों से कथन किया गया है । निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों को जाने बिना इन आध्यात्मिक ग्रंथों के मर्म को पा लेना आसान नहीं है । अतः इनके अध्ययन में रुचि उत्पन्न कर इन्हें समझने का यत्न करना चाहिए।
(५) प्रश्न :- तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि नयचक्र जानना समयसार से भी अधिक आवश्यक है ? क्या नयचक्र समयसार से भी बड़ा है ?
उत्तर :- नही, समयसार तो ग्रंथाधिराज है, उससे बड़ा नयचक्र नही है। नयचक्र का जानना समयसार से भी अधिक प्रावश्यक तो नहीं है, पर समयसार का मर्म जानने के लिए नयों का स्वरूप जानना उपयोगी अवश्य है। समयसार ही क्या, समस्त जिनवाणी नयों की भाषा में निबद्ध है। अतः जिनवाणी के मर्म को जानने के लिए नयों का जानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।
- आचार्य प्रमतचन्द्र ने तो समयसार की प्रशसा 'इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं' और 'न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति' कहकर की है। उनका कहना यह है कि समयसार जगत का अक्षयचक्षु है और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है।
नयचक्र इससे बढ़कर कैसे हो सकता है ? नयचक्र तो आचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्रंथों का सार लेकर ही बनाया गया है । जैसा कि माइल्लघवल ने ग्रंथ के प्रारंभ में ही लिखा है। उनका कथन मूलतः इसप्रकार है :
"श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत शास्त्रात् सारार्थ परिग्रह्य स्वपरोपकाराय द्रव्यस्वभावप्रकाशकं नयचक्रं....." ' नियमसार, गाथा १८७ की टीका २ समयसार कलश, २४५ , वही, २४४