Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 59
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद्वादग्रन्थमाला। क्रोधादि अंतरंग शत्रुओंको नाश करनेवाले हैं, पूज्य हैं । हे प्रभो ! जन्मजरामरणसे मेरी रक्षा कीजिये जिससे कि मैं भी उत्तम पूज्यस्थानको प्राप्त हो जाऊं ।। ५३ ॥ इति विमलनाथस्तुतिः। गूढस्वेष्टपादयश्लोकः । वर्णभार्यातिनन्द्याव वन्द्यानन्त सदारव । वरदातिनता-व वातान्तसमार्णव ॥ ५४॥ वर्णेति--आत्मनः इष्टपाद: सोन्येा पादेघु गुप्यते यतः । वर्णेन शरीरप्रभया भालि शोभते इति वर्णभ: शरीरकान्त्युत्कट इत्यर्थः तस्य सम्बोधनं हे वर्णभ । आर्य पूज्य ' अतिनन्ध सुष्टुसमृद्ध । अब रक्ष । लोडन्तस्य रूपं क्रियापदम् । वन्य देवासुरैराभिवन्ध । हे अनन्त चतुदशतीर्थकर । सन् शोभन: आरवः वाणो सर्वभाषामिका यस्थासौ सदारवः तस्य सम्बोधन हे सदारय । वरद इष्टद कामदायक । अति शोभनं नता: प्रणता: अतिनताः अतिनताश्च ते आर्याश्च अतिनताऱ्या: तान् अवति रक्षतीति अतिनतार्यावः तस्स सम्बोधन हे अतिनतार्वाय । वर्य प्रधान । सभा एव अर्णवः समुद्रः सभाणव: अतान्त: अस्विभिन्नः अक्षुभित: सभार्णवः समवस्सृतिसमुद्रः यस्यासौ अतान्तसभार्गव: तस्य सम्बोधनं हे अतान्तसभार्णव । किमुक्तं भवति हे अनन्त वर्णभादि विशेषणविशिष्ट अव पालय मामिति सम्बन्धः । अन्यांश्च पालय ॥५४॥ . हे पूज्य ! अनन्तनाथ ! आपके शरीरकी शोभा अतिशय सुन्दर है । आपका वैभव भी सर्वोत्तम है। सर्वभाषा For Private And Personal Use Only

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