Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 15
________________ जैनपदसंग्रहकेवलसमय जास वच-रविन जगभ्रम-तिमिर हरा । सुदृगबोधचारित्रपोते लहि, भवि भवसिंधुतरा ॥ भज०॥३॥ योगसँहार निवार शे. पैविधि, निवसे वसुमधुरा । दौलत जे याको जस गावें, ते हैं अज अमरा ।। भज०॥४॥ - जगदानंदन जिन अभिनंदन, पदअरविंद नमूं मैं तेरे । जंग०॥ टेक ॥ अरुनवरन अघतापहरन वर, वितरन कुशल सु शरन बड़ेरे । पद्मासंदन मदन-मद-भंजन, रंजनमुनिजनमनअलिकेरे।। जग०॥१॥ये गुन सुन मैं शरनें आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे।ता मदभानन खपरपिछानन, तुमविन आन न कारन हेरे ॥ जग०॥२॥ तुम पदशरन गही जिननें ते, जामन-जरा-मरन-निरवेरे । तुमतें विमुख भये शठ तिनको, चहुंगति विपतमहाविधि परे । जग० ॥३॥ तुमरे अमित सुगुनज्ञानादिक, सतत मु १ वचनरूपीरज सूर्यने । २ जहाज । ३ शेषके चारअघातिकर्म। ४ मोक्ष। ५ लक्ष्मीके घर । ६ मदनाशकः।

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