Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 152
________________ १५४ जैनेन्द्र की कहानिया दसया भाग हमार बोले, "हा, हा, जन-जन की बात है । बोलो, गया लोगे? लस्मी ले सकोगे ? या कोकाकोला ही चाहिए ?" "जी नहीं, कृपा है । लेकिन-" । "देखो वेटे, देश नेता लोग मो नहीं रहे हैं । ये जगे हुए है और तत्पर हैं । ऐसे में बहुत ज्यादे जिम्मेदारी औरो को अपनी नहीं माननी चाहिए । समझे न ? समितिया है, और काम के लिए तुम जवान लोग हो । फिर क्या चाहिए ? नेता है जो कटिबद्ध है, कार्यकर्ता हैं जो तुम जैसे परायण हैं। मैं बहुत अधिक व्यक्ति हू, मेरे लिए काम रोको नहीं, चले चलो।" ___मैंने मन में अपना माथा ठोका । यही वस्तु है जो हमारी प्रवनति के मूल मे है । यह असलग्नता और तटस्थता । जगे जो है, दूसरे पर है। आप बस साक्षी हैं और द्रष्टा हैं । अरानोप मे कहा-~-"नागरिक प्राप भी है और हर नागरिक का दायित्व है-" गर्गा जी का चेहरा काटोर होता दिखाई दिया। वह पडे हुए और पहा-चंठो मैं अभी पाया। कहकर वह चले गए और मैं पाटा हुमा या मूने उग बरामदे में अपने रोप को लेकर एकाएक अकेला बंटा रह गया। बहुत विवि मातम हुया उनका व्यवहार और तर्क का तार जिस जगह छुटा पा उनके प्रतिवाद का जोग मुभमे उफना पा रहा था। आये तो उनके हाथ में लम्सी पा गिलागधा । यहा-"तो, पियो। गर्मी है, ठटक पायेगी।" गिलान हाथ में लिया और मैंने भगवर तपत पर रख दिया। कहा-"पाहिए, मेरे लिए गया पाना है ?" "अरे भई, पहले पियो तो।" । "मापने वृया यह कष्ट गिया" "देपो न स्तिनी गर्मी है भोर यहा पना भी नहीं है। माफ करना, घर में नहीं है और लस्मी घायद माफी ठटी न हो। पियो, पियो, रामांपो मत। तुम्हारा ही घर है।"

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