Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 172
________________ १७२ जैनेन्द्र की कहानिया दरावा भाग शब्द का ही मेरे लिए कुछ अपं नहीं है। तुम्हारे नजदीक अर्थ हो तो मेरी चिन्ता तुम्हारा काम नहीं है, न किसी दूसरी चिन्ता को तुम्हे ओढना चाहिए। वह सब मैं समेट लूगी । तुम मन को रोको मत, जिवर भीप्ट हो, बढ जायो।" ___"सुनते हो नारायण ?" शाडिल्य ने कहा। "तुम्हारी भाभी गया कह रही है ? कह रही है, में सन्यासी हो जाऊं।" ___हा, नारायण, मैं इनसे कह रही है कि तुम कभी कभी विकत और व्याकुल क्यो दिवाई दे पाते हो ? जसे साली हो और सव वृथा हो, हम लोग जग-जात के अग हो। तुम्हे अावश्यकता परमेश्वर की मालूम होती है । छूटना चाहते हो तुम जग से और पाना चाहते हो परमात्मा को । छूटना चाहते हो इस सब से और पाना जिसे चाहते हो उसे बस मुक्ति यानी पूरी तरह छूटने का ही नाम देते हो। तो कहती हू, अटको मत । हम सब पर एक क्षण के लिए मत रुको । नहीं कहती रान्यास, पर मुक्ति का जो भी वाना होता हो तय कर लो। गाम्मो मे उस वाने को ही सन्याम का नाम दिया है। कपडे भगवे हो जाते है, और घर घर नहीं रहना । ठीक है, वह सही । लेकिन, नारायण, मैं इन्हे अगर अकेला और प्राकुल नहीं देख सक्ती तो बाहती है कि मैं बेवन हू । अपनी इस बेकली पर नाराज भी नही हू । मुझे वह प्रिय है। मेरा वह स्वधर्म है । हो मुक्ति तो हो, स्त्री होकर मुझे उसे छूना भी नहीं है । जब तक यह घर में हैं, में इन्हें अपने राग अनुराग के सूतो की लपेट मे मुक्त नहीं कर सकती है । यह-यही गहते रहते हैं कि मेरी चिन्ता मत करो। लेकिन निश्चिन्त रहना हम स्त्रियो को मिला नहीं है। इसलिए मेरा राग, मेरी चिन्ता ही इनके लिए बोझ बन गई हो तो पत्र तुम्हारे सामने यह रही है, कि यह प्राजाद हैं।"तुम्हें मातृम है, नारायण ? इन्होंने सब जगह से अपना नाम हटा लिया है, मेरा टाल दिया है । भारत छोड दी है, पविता परने लगे है। भक्ति गी और रहाय की वारिता । मच्छी तो बात है। लेकिन मगित और रहन्न गो

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