Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 179
________________ १७४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] स्त्री ने कहा, "हाँ, बाबू ।" उस समय वागीश जैसे अपने से ही घिर गया। कह पड़ा, "तो चलो मेरे साथ, तुम्हें काम मिलेगा।" । दो रोज़ के लिए इलाहाबाद पाया। मित्र ने पूछा कि यह क्या नये किस्म का सामान अपने साथ ले आये हो, तो वागीश कोई ठीक समाधानकारक जवाब न दे सका । कहा, "उससे चक्की पिसवानो जी। सब कामचोर होते हैं ! चक्की सामने देख कर अपना रास्ता लेगी।" मित्र को लगा तो विचित्र, पर वागीश ही विचित्र था। मित्र ने कहा, "वागीश ! तुम हो अजब कि अपने पीछे बला मोल लेते फिरते हो।" वागीश ने कहा कि मोल कहाँ लेता हूँ। मोल में कुछ देने को हो तो भी क्या फिर बला ही लू? पर बिना मोल जो सर पड़े, उसका क्या हो ? देखो मां और बच्चे के लिए एक धोती कमीज ठीक-सी निकलवा दो और उनके कपड़े प्राग के हवाले करने को कह दो। ___ खैर, इस तरह पहला दिन बीता। नये कपड़ों में वह स्त्री भी नई हो आई और काम से उसने जी नहीं चुराया। पाठ सेर गेहूँ उसने पीसा, जिसकी मजदूरी वागीश ने दो आने दी। कुछ उसने चर्खा काता, कोठी में झाड़ दी और थोड़ा-सा बच्चों का काम भी सम्भाला। __वागीश को इस पर गुस्सा हुआ । समझता था कि एक बार आवारा हुआ उससे काम फिर होना-जाना क्या है ? इसलिए झक मार कर यह आप ही भाग जायगी । चलो, झंझट छूटेगा। इसका उसे विश्वास था। वह विश्वास ठीक नहीं उतरा, तो वह मन-ही-मन उस औरत से नाराज़ हुना। ___ अगले सबेरे बरामदे के बाहर आराम कुर्सी पर बैठा था। हाथ में अखबार था, यद्यपि पढ़ नहीं रहा था । मन उस वक्त खाली था । कल

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