Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 204
________________ । प्यार का तर्क १६६ तीन-रोज गांव में हर तरह के प्रयत्न करके भी वह किसी तरह का दर्शन या सन्देश पाने में भी सफल नहीं हुआ। आखिर लौट कर कलकत्ते के अपने डेरे में पैर रखता है तो पाता है कि पहले की तरह का ही सुवासित प्रेम-पत्र उसकी प्रतीक्षा पर है । उसमें दर्शनकी लालसा है; अपना समर्पण करने का अवसर पाने की साध, और कहा गया है कि तुम्हारा उस तरह सीधे घर पर आना ठीक नहीं था, और इस तरह तुमने हमारे प्रेम के मार्ग में कुछ कठिनाई ही पैदा की है, इत्यादि-इत्यादि। ___ कुमार ने पूछा, "अब बताओ मुझे क्या करना चाहिए ?" । ___ मैं विवाहित आदमी हूँ, बाल-बच्चेदार हूँ। दिन वह मुझे भूले नहीं हैं, जब विवाह न हुआ था और प्रेम का सम्बन्ध सिर्फ ऐसे स्त्रीत्व से था, जिसमें किसी तरह भी मातृत्व न हो और वह अप्सरा के नृत्य की भाँति केवल भाव की भंगिमा से पूर्ण हो। लेकिन अब बाल-बच्चेदार होकर में उस कुमार-हृदय को क्या कहता । इससे एकाएक में कुछ विस्मित मुस्कुरा-कर ही रह गया । सीधा कुछ उत्तर न दे सका। उसने कहा, "बताते क्यों नहीं हो ? ऐसे प्रश्न पर मुझे क्या करना चाहिए ? हत्या पर क्या मुझे दोष लग सकता है ?" "नहीं, दोष नहीं लग सकता। पर तुम वह काम कर जो नहीं सकते ।" उसने बड़े तीखे भाव से मुझे देखा । उसकी निगाह की गहरी अनास्था देखकर मेरा मर्म छू गया । मैंने कहा, "कुमार ! नहीं, हत्या भी तुम नहीं करोगे और विवाह भी तुम नहीं करोगे।" सुनकर उसने मुझे देखा । वह अविश्वस्त था और अप्रसन्न । तनाव उसकी दृष्टि में स्पष्ट था। कुछ देर जैसे वह यत्न से अपने को साधे रहा । था वह अपने आपे में, पर जैसे किसी क्षण वह पापा उसके हाथ से छूट सकता है । मैंने कहा, "अामो उठो, चलें।"

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