Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 208
________________ प्यार का तर्क २०३ है ? देखते हो, क्या तुम उसे ही नहीं चाहते ?...तो अब वह गई ।... पर नहीं, फिर देखो, जरा गौर से देखो, मुह उसका पीला है, अांखें खोई हैं, देह दुबली है सारे में उस पर थकान पुती है।...सिर्फ पेट बड़ा है। वह बढ़ता जा रहा है । उसकी आँखों में देखो, उदासी है और शिकायत है। सीधे देखो, शिकायत किसी ओर से नहीं है, वह तुम से है। मुस्कराहट नहीं है, हँसी नहीं है, भंगिमा नहीं है । क्यों नहीं है ? किसकी वजह से नहीं है ? देखो, कुमार, उसकी आँखों में सूनापन देखो, थकान देखो, मुझहिट देखो, पीलापन देखो...।" उसने आँखों के आगे से हाथ हटा लिया और मैंने देखा वह हक्काबक्का -सा मुझे देख रहा है। उस समय मैंने निर्दय होकर उससे कहा, "क्यों, तुम प्यार करते हो ?...उसे ऐसा बनाने के लिए प्यार करते हो ?" कुमार नया था। कष्ट की आंखों से उसने मुझे देखा। मैंने कहा, "सुनो, तुम प्यार नहीं करते, प्यार नहीं जानते।" मानो वह पीड़ा से कराह आया । "तम-तुम उसे तुम्हारे बच्चों को जनने की पीड़ा देना चाहते हो ?...और उसको प्यार कहते हो ?" उसकी आँखें बंध आईं और एक शब्द उसके मुह से न निकल सका। मैंने कहा, "उसने तुम्हें अपना मन दिया है, पर तुम उससे बच्चे चाहते हो और तुम्हारे प्यार को इसमें शर्म नहीं आती, क्यों ?" मानो कुमार में से उसकी बुद्धि हर गई हो। मानो सब उसमें से सुतकर सूख गया हो। __ मैंने कहा, "अगर तुम मानते हो कि तुम में प्यार है और स्वार्थ नहीं है । तुम में खून है और वह सर्द नहीं है, जवान है, तो तुम एक काम करो। जो तुम्हारे पास कीमती-से-कीमती है, उसकी भेंट लेकर जाप्रोगे और कहोगे कि तुम प्यार करते हो, इसी से उसके ब्याह में

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