Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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सूक्ति-सुधा
[ ११७ है। इसलिये जीवन-व्यवहार मे अनासक्त भाव से यानी वीतराग भावसे चलना चाहिये।
आयरिश्र उवचिट्ठ इज्जा, अणंत नाणो वगो विसंतो।।
द०, ९, ११, प्र०,उ० ...टीका-शिष्य भले ही महान् ज्ञानी हो, गंभीर विचारक हो, असाधारण अनुभवी हो, एव तल-स्पर्शी चिन्तक हो, तो भी उस शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपने गुरू की, अपने आचार्य की महान् सेवाभक्ति करता रहे, वह विनयी होवे और आज्ञा-पालन करता रहे।
(१४) अरई आउटे से महावी, खणांसि मुक्के ।
आ०, २, ७३, उ, २ • टीका-जिस मेधावी पुरुष ने, जिस प्रज्ञा-शील पुरुष ने अरति का त्याग कर दिया है, द्वेष का निवारण कर दिया है, वह काल की परिधि से मुक्त है। ऐसा पुरुष शीघ्र ही काल के दायरे से मुक्त हो जायगा, वह अजर-अमर हो जायगा।
सुत्ता अमुणी, संयो मुगिणो जागरंति ।
मा०, ३, १०६, उ, १ टीका-सोना और जागना, द्रव्य एवं भाव रूप से दो तरह का है। हम प्रतिदिन रात में सोते है और दिन में जागते है, यह तो द्रव्य रूप से सोना और जागना है । परन्तु पाप में ही प्रवृत्ति करते रहना भाव सोना है और धार्मिक प्रवृत्ति करते रहना भाव-जागना है। इस प्रकार जो अमुनि है-पापिष्ठ और दुष्ट वृत्ति वाले है, वे तो सदैव सोये हुए ही है और जो मुनि है, सात्विक वृत्ति वाले है, वे सदैव जागते रहते है। यही मुनि और अमुनि में भाव अन्तर है, विशेषता है।