Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ अनिष्ट-प्रवृत्ति-सूत्र आत्मा इस बात को भूल जाता है कि ज्ञाति वालो के साथ और वन्धु-वाधवो के साथ तथा वैभव एव सुख सुविधाओ के साथ आत्मा का सम्बन्ध अनित्य है और एक दिन इन सब को छोड़ कर जाना है।
वीरा असमत्त दंसियो, असुद्धं तेसिं परक्कंतं।
सू०, ८, २२ टीका--जो मिथ्यात्वी है, यानी जिनकी दृष्टि मे पौद्गलिक सुख प्राप्त करना ही एक मात्र ध्येय है, ऐसे पुरुष भले ही वीर हो परन्तु उनका मारा प्रयत्न चाहे वह सत् हो या असत् कैसा भी होतो भी वह अशुद्ध ही है यानी पाप मय ही है। क्योकि उनकी भावना, उनका दृष्टिकोण विपरीत है, इसलिये वे ससार में परिभ्रमण कर्ता है ।
( ३२ ) णि पि नो पगामाए ।
___ आ०, ९, ६९, उ, २ टीका-जिसको अपनी आत्मा का कल्याण करना है, उसके लिये अति निद्रा लेना अपराध है । अति निद्रा लेना प्रमाद है, और प्रमाद सेवन से इन्द्रियाँ सुख की अभिलापा करने लग जाती है। इस प्रकार पतन का प्रारम्भ हो जाता है, इसलिये अति-निद्रा लेना। आत्म- घातक पाप समझो। ..
(३३ ) तेसि पि तवो ण सुद्धो, निक्खता जे महाकुला।
सू०, ८,२४ टीका-जो महापुरुष-चाहे वे बड़े कुल के ही क्यो न हो, किन्तु यदि उनके तप करने का और पर सेवा करने का ध्येय अपनी यशः