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विषम प्रवेश पदार्थको जानना चाहिए । किन्तु निश्चयसे (परमार्थसे) यह जीव स्वयं ही बन्धका हेतु है और यही जीव स्वयं ही मोक्षका हेतु है ऐसा सर्वदर्शी जिसने कहा है। हरिवंशपुराणमें इसी अर्थको इन शब्दों द्वारा स्पष्ट किया है
स्वयं कर्म करोत्यास्मा स्वयं तस्फलमश्नुते
स्वयं प्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥५२-५८॥ यह जीव स्वयं ही कर्मको करता है, स्वयं ही उसके फलको भोगता है, स्वयं ही संसारमें भ्रमण करता है और स्वयं ही उससे मुक्त होता है। ___ आशय यह है कि प्रत्येक वस्तुका परिणाम परनिरपेक्ष ही होता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए जयधवला पु० ७ पृ० ११७ में यह वचन उपलब्ध होता है
बज्झकारणणिरवेक्खो वत्थुपरिणामो ।
प्रत्येक व्यके उत्पाद-व्ययरूप जितने भी कार्य होते हैं वे सब बाह्य कारण निरपेक्ष ही होते हैं।
२. जो स्वयं कार्यरूप परिणमता है वह कर्ता है, उसका जो परिणाम होता है वह कर्म है। करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण भी वही स्वयं है । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें स्वयं षट् कारकरूपसे अवस्थित है।
३. प्रत्येक द्रव्यकी अपनी प्रत्येक समयकी पर्याय अपने उपादानके अनुसार स्वयं (परको अपेक्षा किये बिना ) अपने परिणमन स्वभावके होनेसे क्रमनियमित ही होती है। बाहय उपाधि स्वयं (परकी अपेक्षा किये बिना ) व्यवहार हेतु है, इसलिए वह स्वयं या अन्य किसीके द्वारा बागे-पीछे की जा सके ऐसा नहीं है। वह बाहप हेतुवश आगे-पीछे की जा सकती है ऐसा जो कहते हैं वह उनका विकल्पमात्र है।
४. प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है। इसमें उसके गुण और पर्याय भी उसी प्रकार स्वतन्त्र हैं यह कथन आ ही जाता है । इसलिए विवक्षित किसी एक द्रव्यका या उसके गुणों और पर्यायोंका अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायोंके साथ किसी प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं है। समयसार कलशमें कहा भी है१. प्रवच. मा. न. प्र. टी. २. समय का १६८ ।